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जैन दार्शनिक परम्परा का विकास के पश्चात् ही मानते हैं। आगे चलकर वे कहते हैं कि इत्सिंग ने जब सन् ६९१ में अपना यात्रा वृत्तान्त लिखा तब भर्तृहरि का देहावसान हुए ४० वर्ष बीत चुके थे। और वह उस समय का प्रसिद्ध वैयाकरण था । ऐसी हालात में आ० मल्लवादी आ० जिनभद्र से पूर्ववर्ती नहीं कहे जा सकते । उक्त समय की दृष्टि से वे (आ० मल्लवादी) विक्रम की प्रायः आठवीं-नवमी शताब्दी के विद्वान् हो सकते हैं और तब उनका व्यक्तित्व न्यायबिन्दु की धर्मोत्तर टीका पर टिप्पण लिखनेवाले आ० मल्लवादी के साथ एक भी हो सकता है।
मुख्तारजी अपने मत की पुष्टि के लिए कहते हैं की विक्रम की १४वीं शताब्दी के विद्वान प्रभाचन्द्र ने अपने प्रभावकचरित के विजयसिंह सूरि प्रबन्ध में बौद्धों और उनके व्यन्तरों को बाद में जीतने का जो समय आ० मल्लवादी का वीरवत्सर से ८८४ वर्ष बाद का अर्थात् वि० सं० ४१४ दिया है उसमें जरूर कुछ भूल हुई है । डॉ० पी० एल० वैद्य ने न्यायावतार की प्रस्तावना में इस भूल अथवा गलती का कारण श्री वीर विक्रमात् के स्थान पर श्री वीरवत्सरात् पाठान्तर का हो जाना सुझाया है । इस सुझाव के अनुसार पण्डितजी आ० मल्लवादी का समय वि० सं० ८८४ तक ले जाते हैं । इस तरह मुख्तारजी के अनुसार आ० मल्लवादी का समय बहुत ही उत्तरकाल में चला जाता है। - उपरोक्त चर्चा में विद्वान् श्री मुख्तारजी ने जो निष्कर्ष निकाला है उसको स्वीकार करने पर अनेक विसंवाद उपस्थित होना सम्भव है । क्योंकि मल्लवादी को नवम शती के विद्वान मानने पर टीकाकार आ० सिंहसूरि तथा आ० हरिभद्रसूरि आदि के समय-निर्धारण करने में अनेकानेक प्रश्न उपस्थित हो सकते हैं । इतना ही नहीं स्वयं मुख्तारजी ने पूर्व में यह माना है कि मल्लवादी आचार्य जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण के समकालीन या वृद्ध रहे होंगे । पी० एल० वैद्य ने जो सुझाव दिया वह भी स्वीकार्य नहीं हो सकता क्योंकि कोई भी प्रति में (हस्तलिखित) श्री वीरवत्सरात् के स्थान पर श्री वीरविक्रमात् ऐसा पाठ उपलब्ध नहीं होता और यदि मिल भी जाय तब भी अन्य उपलब्ध पाठ एवं ग्रन्थ में चचित वादों के आधार
१. वही, पृ० ५५१-५५२. २. जैन साहित्य और इतिहास पर विशद् प्रकाश, पृ० ५५३.
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