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द्वादशार-नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन
पर हम यह कह सकते हैं कि श्री वीर विक्रमात् वाला पाठ स्वीकार करने योग्य नहीं है। इस प्रकार आ० मल्लवादी को नवमीं शताब्दी तक ले जाना ठीक नहीं है। नयचक्र के संपादक विद्वान मुनि जंबूविजयजी का मत है कि आ० मल्लवादी के समय के विषय में जो उल्लेख प्रभावकचरित्र में विजयसिंहसूरि प्रबन्ध में प्राप्त होता है कि मल्लवादी ने वीर संवत् ८८४ (अर्थात् वि० सं० ४२४) में बौद्धों को पराजित किया है वह ठीक है ।
तदुपरान्त मुनिजी ने एक महत्त्वपूर्ण बात कही है वह यह है कि नयचक्र में जहाँ-जहाँ आगम के पाठ उद्धृत किए हैं, उनमें आज के प्रचलित पाठों से कुछ भिन्नता पाई जाती है इतना ही नहीं किन्तु कुछ पाठ तो प्रचलित आगम परम्परा में हैं ही नहीं । वर्तमान प्रचलित पाठ-परम्परा भगवान् देवर्धिगणि क्षमाश्रमण ने वलभी में संकलित की थी। देवर्धिगणि क्षमाश्रमण ने वीर निर्वाण ९८० (वि० सं० ५९०) में वलभी में संकलना की थी । जब आ० मल्लवादी वीरनिर्वाण सं० ८८४ (वि० सं० ४१४) में थे । अतः पाठभेद का कारण भी सहज है । इस प्रकार वे आ० मल्लवादी का समय वि० सं० ४१४ तक स्थिर करते हैं ।
पं० मालवणियाजी भी उक्त समय को स्वीकार करते हुए कहते हैं की नयचक्र में एक ओर दिङ्नाग के प्रमाणसमुच्चय का उल्लेख है और दूसरी
ओर कुमारिल, धर्मकीर्ति आदि के उल्लेखों का अभाव है जो मूल नयचक्र से तो क्या टीका से भी सिद्ध होता है । आचार्य सिद्धसेन का उल्लेख मूल और टीका दोनों में है । आचार्य दिङ्नाग का समय ई० ३४५-४२५ (वि० सं० ४०२-४८२) तक माना जाता है । आचार्य सिंहगणि ने नयचक्र टीका में अपोहवाद समर्थक बौद्ध विद्वानों के लिए अद्यतन बौद्ध विशेषण का प्रयोग किया है । उससे सूचित होता है कि आ० दिङ्नाग जैसे बौद्ध विद्वान सिर्फ आ० मल्लवादी के ही नहीं, किन्तु सिंहगणि के भी समकालीन हैं । प्रभावकचरित्र के उक्त श्लोक के आधार पर यह सिद्ध होता है कि आ० मल्लवादी
१. नयचक्र प्रस्तावना, प्रथम भाग, पृ० ४९. २. नयचक्र प्रस्तावना प्रथम भाग, पृ० ५०.
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