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जैन दार्शनिक परम्परा का विकास वि० सं० ४१४ में विद्यमान थे । अतएव आ० दिङ्नाग के समय विक्रम ४०२-४८२ के साथ जैन परम्परा द्वारा सम्मत आ० मल्लवादी के समय का कोई विरोध नहीं है और इस दृष्टि से मल्लवादी वृद्ध और दिङ्नाग युवा इस कल्पना में भी विरोध की संभावना नहीं । आचार्य सिद्धसेन की उत्तरावधि विक्रम की पाँचवीं शताब्दी मानी जाती है । आ० मल्लवादी ने आचार्य सिद्धसेन का उल्लेख किया है । अतएव दोनों आचार्यों को भी समकालीन माना जाय तब भी विसंगति नहीं । इसी प्रकार पं० दलसुख भाई आ० मल्लवादी का समय वि० सं० ४१४ ही निर्धारित करते हैं।
प्रमाणसमुच्चय के पाँचवे परिच्छेद में दिङ्नाग ने भर्तृहरि के वाक्यपदीय ग्रन्थ की दो कारिकाएँ उद्धृत की हैं । त्रैकाल्यपरीक्षा नामक ग्रन्थ की रचना भी दिङ्नाग ने भर्तृहरि के वाक्यपदीय के प्रकीर्णकाण्ड को सामने रखकर की है। इस प्रकार भर्तृहरि दिङ्नाग के पूर्ववर्ती हैं तथा इत्सिंग का कथन की जिसके आधार पर पं० मुख्तारजी ने समय-निर्धारण का प्रयास किया है वह भी ठीक नहीं है क्योंकि इत्सिंग ने कहा है कि भर्तृहरि नामक एक शून्यतावादी महान बौद्ध पण्डित था यह बात भी मानने योग्य नहीं है क्योंकि वाक्यपदीय ग्रन्थ में वैदिक एवं अद्वैतवादी की ही प्रस्थापना की गई है और भर्तृहरि के धर्मपरिवर्तन के विषय में कोई उल्लेख प्राप्त होता नहीं है । अतः इत्सिंग के कथन के अनुसार भर्तृहरि का समय निर्धारण ठीक बैठता नहीं है । इत्सिंग द्वारा उल्लेखित भर्तृहरि कोई अन्य भर्तृहरि होने की संभावना है । इस प्रकार उपरोक्त चर्चा के आधार पर हम कह सकते हैं कि नयचक्र-कार आ० मल्लवादी का समय वीर निर्वाण संवत् ८८४ अर्थात् वि० सं० ४१४ ही रहा होगा ।
एक अन्य मल्लवादी नामक आचार्य भी हुए हैं जो प्रस्तुत नयचक्रकार आ० मल्लवादी से भिन्न हैं जिन्होंने न्यायबिन्दु टीका के ऊपर धर्मोत्तर टिप्पण नामक टिप्पण लिखा है जिनका समय ई० ८२७ या ९६२ माना जाता है ।३
१. श्रीमद् राजेन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ. पृ० २१०. २. जैनाचार्य श्री मल्लवादी अने भर्तृहरिनो समय, बुद्धि-प्रकाश, पृ० ३३२. ३. धर्मोत्तरप्रदीप, प्रस्तावना, पृ० ५५.
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