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द्वादशार-नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन न्याय-वैशेषिक दर्शन में सत् की अनेकता पर बल दिया गया है, यद्यपि यह अनेकता में अनुस्यूत एकता को स्वीकार करता है । उसमें सत् आध्यात्मिक एवं भौतिक दोनों प्रकार का है । शंकर वेदान्त के अनुसार सत् या परमार्थ-ब्रह्म-आध्यात्मिक, अद्वय, अविकार्य है, तथा जीव और जगत् की सत्ताएँ मात्र विवर्त्त हैं। विशिष्टाद्वैतवाद (रामानुज) के अनुसार सत् एक ऐसी सत्ता है जिसमें भौतिक एवं आध्यात्मिक दोनों सत्ताएँ समाविष्ट हैं । वे
परमसत्ता के परिणामीपन को स्वीकार करते हैं । उपरोक्त चर्चा से यह फलित होता है कि भारतीय दर्शन में सत् के स्वरूप के विषय में विभिन्न दृष्टिकोण प्रचलित हैं। इन्हीं विभिन्न दृष्टिकोणों का मूल आधार नित्यवाद, अनित्यवाद और नित्यानित्यवाद है । इन्हीं विचारधाराओं से भारतीय दर्शन का क्रमिक विकास हुआ है एवं पँचवीं शती तक कई दार्शनिक विचारधाराएँ अपने विकास के मार्ग पर आगे बढ़ रही थीं। इन विचारधाराओं का संकलन करके उनके दृष्टिकोणों का विवेचन नयचक्र में किया गया है । नयचक्र में विभिन्न दृष्टिकोणों का १२ विभागों में वर्गीकरण किया गया है । इनमें नियति आदि ऐसी दार्शनिक विचारधाराएँ हैं जो आज विलुप्त हो गई हैं । सत् नित्य है या अनित्य ?, एक है या अनेक है ? कारणरूप है या कार्यरूप है ? व्याप्ति है या अव्याप्ति ? ऐसे प्रश्न ही इस द्वादश विभाग के मूल कारण हैं । इन बारह विभागों को विधि और नियम एवं उभय भेद से प्रदर्शित किया गया है । विधि सत् के भावात्मक या नित्य स्वरूप का प्रतिनिधित्व करता है और नियम सत् के निषेधात्मक या अनित्य पक्ष का प्रतिनिधित्व करता है और उभय भावाभावात्मक या नित्यानित्यात्मक पक्ष का प्रतिनिधित्व करता है । इस त्रिविध भेद से बारह भेद किये गये हैं ।
१. तद्यथा-विधि-विधि(विधि-विध्युभय-विधि नियम-उभय-उभयविधि-उभयो भय
उभयनियम-नियम-नियम-विधि-नियमोभय-नियमनियमाः) एक प्रबन्धेनान्योन्योपेक्षवृत्तयः सत्यार्थाः एतद्भङ्ग नियतस्याद्वादलक्षणः शब्दः स्यान्नित्यः स्यान्नित्यानित्यः स्याद नित्यः,
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