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द्वादशार-नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन ही है न केवल यह भिन्नता विभिन्न अस्तिकायों या द्रव्य में है अपितु पुद्गल आत्मा आदि द्रव्य एक न होकर अनेक हैं, यदि सभी को एक मानेंगे तो फिर घट-पटादि की एक-दूसरे से व्यावृत्ति नहीं हो पायेगी । अत: चेतन और अचेतन तत्त्व भी चाहे वह एक क्षेत्रावगाही हों चाहे वह सत् या अस्तित्व लक्षण की दृष्टि से एक हों फिर उनमें परस्पर व्यावृत्ति भी माननी होगी । वस्तुतः जो एक है वही अनेक भी है, प्रागभाव, ध्वंसाभाव, अन्योन्याभाव आदि की दृष्टि से विचार करने पर एक ही व्यक्ति बाल, कुमार आदि अनेकता से युक्त होता है । आ० मल्लवादी ने आत्माद्वैत का निरसन करते हुए इस तथ्य की पुष्टि की है कि अभेद में भेद और भेद में अभेद रहा हुआ है । भगवतीसूत्र में भ० महावीर से यह प्रश्न किया गया था कि वह एक है या अनेक है ? भ० महावीर ने अनेकान्त शैली में इसका उत्तर यही दिया था कि मैं एक भी हूँ और अनेक भी हूँ ।२ आ० मल्लवादी ने अपने इस ग्रन्थ द्वादशारनयचक्र में सर्वात्मवाद और पुरुषद्वैतवाद की स्थापना भी की है और उसकी समीक्षा भी की है। सत्ता में एकत्व और अनेकत्व का एक ऐसा प्रश्न है जिसका एकान्तवाद वाली शैली में कोई भी उत्तर नहीं है, वस्तुतः जो एक है वही अनेक है और जो अनेक हैं वही एक हैं।
जैन आगमों में जहाँ तक एक ओर ‘एगे आया'३ का उद्घोष हुआ है वहीं दूसरी ओर ‘संति पाणा पुढोसिया'४ कहकर प्रत्येक जीव की अलगअलग सत्ता भी स्वीकार की गई है । इस प्रकार एकात्मवाद और अनेक जीववाद दोनों ही जीववाद का अनेकान्त शैली में एक समाधान खोजा गया है।
१. वही, पृ० ३७०-३७१ २. सोमिला दव्वट्ठयाए एगे अहं, नाणदंसणट्ठयाए दुविहे अहं,
.....उवयोगट्ठयाए अणेगभूयभावभविए वि अहं । ३. एगेआया० । समवायांगसूत्र पृ० ५ ४. आचारांगसूत्र० अ० २.३. ॥ सू०
भगवती० १.८.१०
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