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द्वादशार- नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन
हमारे समालोच्य चिन्तक आचार्य मल्लवादी क्षमाश्रमण ने भी अपने ग्रन्थ 'द्वादशारनयचक्र' में भी प्रकारान्तर से इस समस्या को प्रस्तुत किया है । अनुभूति को प्रधानता देनेवाले अनुभववाद को लोकवाद के रूप में प्रस्तुत किया है । आचार्य मल्लवादी की दृष्टि में लोकवाद वह परम्परा है जहाँ लौकिक अनुभूति की प्रधानता ही लोकवाद का प्रमुख आधार है । इसलिए इस रूप में वह तर्कवाद का विरोधी दर्शन है । इसलिए लोकवाद का एक रूप अज्ञानवाद भी माना गया है । अज्ञानवाद अनुभूति के ऊपर तर्क की महत्ता को स्वीकार नहीं करता । अज्ञानवाद तर्कबुद्धिवाद का विरोधी दर्शन है और इसी कारण से इसे अज्ञानवाद ऐसा नाम मिला है ।
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जैन प्राचीन आगमों में दार्शनिक परम्पराओं को चार विभागों में विभाजित किया जाता है-क्रियावाद, अक्रियावाद, विनयवाद और अज्ञानवाद ।' सूत्रकृतांग में अज्ञानवादियों का स्पष्ट उल्लेख है । २ बौद्ध त्रिपिटक साहित्य में भी अज्ञानवादियों की एक परम्परा को सूचित किया गया है । ३ परवर्ती जैन ग्रन्थों में अज्ञानवाद के समर्थक ऋषियों के नाम भी उपलब्ध होते हैं । अंगप्रज्ञप्ति में अज्ञानवादी निम्न ऋषियों के नाम मिलते हैं- शाकल्य, वल्कल, कुशुभि, सत्यमुनि, नारायण, कठ, माद्यदिन, भोज, पैप्पलायन, बादरायन, स्तिष्ठिक, दैत्यकायन, वसु, जैमिनि आदि । किन्तु दुर्भाग्य से इस
१. चउविहा समोसरणा पण्णत्ता, तंजहा - किरियावादी, अकिरियावादी, अण्णाणवादी, वेणवादी । भग० ३०/२७, स्था० ४ ४ | ३४५. सर्वार्थ सि० ८1१
२. चत्तारि समोसरणाणिमाणि, पादादुया जाई पुढा वयंति । किरियं अकिरियं विणयं ति तइयं, अण्णाणमाहंसु चउत्थमेव ॥ अन्नाणा एवमिमानि अनेक विहितानि दिट्ठिगतानि......
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सूत्र० १२/१ संयुत्तनिकाय, पृ० ४७४. शाकल्य-ब्रास्कल-कुथुभि, - सात्यमुनि -राणायन - कठ - मध्यन्दिन-मोद-पिप्पलाद - बादराय स्विष्ठकृद - डनि - कात्यायन - - जैमिनि - - वसु-प्रभृतयः सूरयो सन्मार्गमेनं प्रद्यन्ति ।
तत्त्वार्थाधिगमसूत्र- स्वोपज्ञभाष्यटीकालंकृतम्, द्वितीय भागः, पृ० १२३.
५. अण्णाणदिट्ठीणं सायल्ल-वक्कल - कुहुमि सच्चमुगि-णारायण - कठ-मज्झंदिण- भोययेप्पलायन-वायरायण-सिद्धिक्क - देतिकायण - वसु-जेमणिपमुहाणं सगसट्ठी । अंगपण्णत्ति, पृ०
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