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अनुभव और बुद्धिवाद की समस्या
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परम्परा के कई ग्रन्थ अवशिष्ट नहीं रह पाए हैं । इसलिए यह परम्परा अपने मूल स्वरूप में किस रूप में थी यह जान पाना कठिन है । फिर भी जितने जैन और बौद्ध आगम में सन्दर्भ उपलब्ध होते हैं उनसे इतना अनुमान तो किया ही जाता है कि अज्ञानवाद तर्कबुद्धि की अपेक्षा अनुभूति अर्थात् इन्द्रिय प्रत्यक्ष को ही प्रधानता देता था । आगे हम पाश्चात्य अनुभववादी परम्परा और भारतीय अज्ञानवाद (अनुभूतिवाद और लोकवाद) की चर्चा करेंगे ।
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भारतीय चिन्तन में अनुभववाद का प्राचीन रूप अज्ञानवाद ही रहा है मल्लवादी ने इसी अज्ञानवाद को लोकवाद के रूप में प्रस्तुत किया है । १ औपनिषदिक युग से ही यह प्रश्न चिन्तकों के समाने था कि वस्तुतत्त्व का बोध आत्मानुभूति - इन्द्रियानुभूति से होता है या तर्कबुद्धि से ? औपनिषदिक ऋषि मुख्यतः वस्तुतत्त्व को या परम सत्ता को न तो इन्द्रियग्राह्य और न बुद्धिग्राह्य, फिर भी वह उसे अनुभवगम्य अवश्य मानते हैं । भारतीय चिन्तन में वस्तुतत्त्व को न तो इन्द्रिय का विषय माना गया और न बुद्धि का अपितु उसे अपरोक्षानुभूति का ही विषय माना गया है । इस प्रकार भारतीय चिन्तन में अनुभववादी परम्परा दो धाराओं में विभाजित होकर बहती रही है। एक वे लोग थे जो वस्तुतत्त्व या सत्ता को मात्र इन्द्रियानुभूति का विषय मानते थे । इस परम्परा में चार्वक या लोकायत दर्शन का नाम लिया जा सकता है । २ लोकायत दर्शन के बीज औपनिषदिक युग में भी सुस्पष्ट रूप से परिलक्षित होते हैं । ३ यही लोकायत दर्शन मल्लवादी के नयचक्र में लोकवाद के रूप में प्रस्तुत हुआ है । आ० मल्लवादी ने उसकी विधिनय के रूप में चर्चा की है। यह विचारधारा यह मानती है कि वस्तुतत्त्व तर्क - गम्य नहीं है । क्योंकि तर्क तो मानसिक विकल्पों का ही एक रूप है और इसलिए वह वस्तु का अभव करने में असमर्थ है ।४ वस्तु तो अनुभव गम्य ही है ।“ अनुभववादी परम्परा
१. प्रमाणमीमांसा, पृ० १.
२. प्रमाणमीमांसा, पृ० १
३. भूतानि योनिः श्वेताश्व० १.२
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४. प्रत्यक्षाप्रमाणीकरणे सर्वविपर्ययायत्तिस्तर्कतः । द्वादशारं नयचक्रं, पृ० ४६
५.
यथालोकग्राहमेववस्तु | वही, पृ० ११
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