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________________ ५२ द्वादशार- नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन यह मानती है कि वस्तु जैसी होती है उसी रूप में उसका ग्रहण इन्द्रिय के द्वारा होता है । जो तत्त्व हमारी अनुभूति का विषय नहीं बन सकता उसे सत् नहीं कहा जा सकता । वह तो केवल भ्रम या असत् है । अनुभववादी जागतिक अनुभूति के विषय को ही एकमात्र सत् मानते हैं । किन्तु पाश्चात्य चिन्तन में अनुभववाद, जिसका प्रारम्भ ऐन्द्रिक अनुभूति के विषय को ही सत् के रूप में स्वीकार करने के रूप में हुआ था, किन्तु इतिश्री प्रत्ययवाद या संदेहवाद के रूप में हुई । भारत में भी यह अनुभववादी परम्परा आगे चलकर बौद्धों के विज्ञानवाद या शून्यवाद में परिणत हो गई । जब एक बार यह मान लिया जाता है कि वस्तु का स्वरूप वही है जो कि हमारे ऐन्द्रिक अनुभव का विषय है तो अनेक प्रश्न उपस्थित होते हैं । पहला प्रश्न यह उपस्थित होता है कि इन्द्रिय वस्तु को उसी रूप में ग्रहण करती है जिस रूप में वह है या किसी अन्य रूप में ? मूल प्रश्न तो यह है कि हमारा यह अनुभवजन्य ज्ञान इन्द्रियाश्रित है या अनुभवाश्रित ? आ० मल्लवादी ने अपने ग्रन्थ द्वादशारनयचक्रं में इस अनुभववादी परम्परा या लोकवाद का प्रस्तुतीकरण निम्न रूप में किया है-वे अज्ञानवाद, लोकवाद, अनुभाववाद का प्रस्तुतीकरण करते हुए सर्वप्रथम यही बताते हैं कि जनसाधारण जिस रूप में वस्तु को जानता है वही वस्तुस्वरूप है (यथा लोकग्राह्यमेववस्तु) १ इस मूल सूत्र की पुष्टि में यह तर्क दिया जाता है कि बुद्धि के विषय सामान्य और विशेष की सिद्धि न तो स्वतः होती है और न तो परतः । २ विशेष के अभाव में सामान्य की कोई सत्ता नहीं है और न सामान्य के अभाव में विशेष की कोई सत्ता है । यदि सामान्य और विशेष दोनों ही सिद्ध न हों तो वस्तु कैसे सिद्ध होगी ? इसलिए तर्कशास्त्र में विशेष प्रयत्न की आवश्यकता नहीं है । ३ सामान्य और विशेष दोनों ही बुद्धि के द्वारा ग्राह्य हैं, अर्थात् वे बुद्धि के विकल्प ही हैं । द्रव्यगुण कर्म का न तो सामान्य १. द्वादशारं नयचक्रं, पृ० ७ २. स्वपर विषयतायां सामान्यविशेषयोरनुपपत्तेः । वही, पृ० ११ ३. परीक्षकाभिमानिनां तु तीर्थ्यानां स्वपरविषयतायां सामान्य- 1 य-विशेषयोरनुपपत्तेरसंस्ततो लोकाभिप्रायाद् विवेकयत्नः शास्त्रेष्विति । वही, टीका, पृ० ११ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001955
Book TitleDvadashar Naychakra ka Darshanik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJitendra B Shah
PublisherShrutratnakar Ahmedabad
Publication Year2008
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size11 MB
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