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अनुभव और बुद्धिवाद की समस्या
४९ श्रुति और तर्कबुद्धि का विवाद शुरू से दर्शन की अपेक्षा दर्शन और धर्म का विवाद अधिक है । जहाँ धार्मिक दार्शनिकों ने तर्क के स्थान पर आगम को महत्ता दी और यह माना कि तर्क का कार्य आगम की प्रमाणता को सिद्ध करना है न कि आगम प्रमाण का ही उन्मूलन करना । जबकि वैज्ञानिक दृष्टिकोण वाले दार्शनिकों ने आगम की प्रमाणता पर सदैव ही प्रश्न चिह्न लगाया है। . जहाँ तक भारतीय दर्शन का प्रश्न है उसमें भी अनुभूति और तर्कबुद्धि तथा आगम (श्रुति) का विवाद प्राचीन काल से ही रहा है । जहाँ चार्वक जैसे दार्शनिकों ने अनुभूति को ही एकमात्र प्रमाण स्वीकार किया वहीं जैन और बौद्ध दर्शन ने प्राचीन साहित्य में अनुभूति के साथ-साथ तर्कबुद्धि को भी स्थान दिया । यद्यपि इन दोनों भारतीय दर्शनों में अनुभूति की अवमानना की हो ऐसी बात नहीं है । धार्मिक प्रश्नों के संदर्भ में भी बुद्ध और महावीर दोनों ने अनुभूति के साथ-साथ प्रज्ञा एवं तर्कबुद्धि तत्त्व को भी प्रमुखता दी है । जहाँ महावीर ने उत्तराध्ययनसूत्र में 'समिक्खए धम्म' कह कर तर्कबुद्धि के महत्त्व को स्वीकार किया वहीं बुद्ध ने श्रद्धा के स्थान पर तर्क को प्रतिष्ठित करने का प्रयत्न किया है । यद्यपि बुद्ध और महावीर दोनों अनुभूति की अपेक्षा नहीं करते हैं । वे यह भी मानते हैं कि तर्क का आधार भी अनुभूति ही है । यद्यपि परवर्ती युग में जैन और बौद्ध दर्शनों में श्रद्धा का तत्त्व प्रविष्ट हुआ । विशेष रूप में जैन दार्शनिकों ने तो स्पष्ट रूप से आगम की प्रमाणता को स्वीकार किया भी ।
भारतीय परम्परा के अन्य आस्तिक कहे जानेवाले दर्शनों में मीमांसा ने जहाँ श्रुति को सर्वाधिक महत्त्व दिया वहाँ आचार्य शंकर ने श्रुति और तर्क के बीच एक समन्वय करने का प्रयत्न किया । इस प्रकार भारतीय चिन्तन में भी अनुभूति बनाम तर्क और तर्क बनाम श्रुति (श्रद्धा) के दार्शनिक विवाद प्राचीन काल से ही उपस्थित रहे हैं । यद्यपि भारतीय चिन्तन की समन्वयवादी परम्परा ने उनके बीच यथासंभव संतुलन बनाने का प्रयास किया है । यद्यपि यह सत्य है कि यह विवाद भारतीय चिन्तन की अपेक्षा पाश्चात्य दर्शनों में अधिक मुखर रहा है।
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