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द्वादशार-नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन है' । तदतिरिक्त जिस अपेक्षा के आधार पर वस्तु के अनन्तगुणधर्मों में से किसी एक गुणधर्म का विधान या निषेध किया जाता है वह नय कहलाता है । नय का सम्बन्ध वस्तु की अभिव्यक्ति की शैली से है । इसीलिए आचार्य सिद्धसेन ने सन्मतिप्रकरण(प्राय: ईस्वी सन् की पाँचवीं शती का पूर्वार्द्ध) में कहा है कि :
जावइया वयणवहा तावइया चेव होंति णयवाया । जावइया णयवाया तावइया चेव परसमया ॥
अर्थात् कथन की जितनी शैलियाँ या जितने वचन-पथ होते हैं उतने ही नयवाद होते हैं एवं जितने ही नयवाद होते हैं उतने ही पर-समय अर्थात् परदर्शन होते हैं । इस आधार पर यह सिद्ध होता है कि नयों की संख्या अनन्त है । क्योंकि वस्तु के अनन्त गुणधर्मों की अभिव्यक्ति हेतु विविध दृष्टिकोणों का सहारा लेना पड़ता है । यह सभी विशेष दृष्टिकोण नयाश्रित ही होते हैं । जैनदर्शन में नयों की चर्चा विभिन्न रूपों में की गई है । सर्वप्रथम
आगमयुग में द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक दृष्टि से वस्तु का विवेचन उपलब्ध होता है । वस्तु के द्रव्यात्मक या नित्यत्व को जो अपना विषय बनाता है उसको 'द्रव्यार्थिक-नय' कहा जाता है । इसके विपरीत वस्तु के परिवर्तनशील पक्ष को जो नय अपना विषय बनाता है, वह नय ‘पर्यायाथिक-नय' कहलाता है । फिर प्रतीति एवं यथार्थता के आधार पर भी प्राचीन आगमों में दो प्रकार
१. नयो ज्ञातुरभिप्रायः लघीयस्त्रयी, श्लो० ५५, सं० महेन्द्रकुमार शास्त्री, सरस्वती पुस्तक
भण्डार, अहमदाबाद १९९६ ज्ञातृणामभिसन्धयः खलु नयाः । पृ० १०. सिद्धिविनियश्चय टीका, भट्ट अकलंक, सं० महेन्द्रकुमार जैन भारतीय ज्ञानपीठ, वाराणसी १९४४, पृ०
५१७. २. अनन्तधर्माध्यासितं वस्तु स्वाभिप्रेतैकधर्मविशिष्टं नयति-प्रापयति संवेदनमारोहयतीति नयः ।।
न्यायावतार-वार्तिकवृत्ति, शान्तिसूरि, प्रथमावृत्ति, सं० पं० दलसुख मालवणिया, सिंघी जैन
ग्रन्थमाला, बम्बई १९४९, पृ० ७३. ३. सन्मतिप्रकरण भा० ४, सं० पं० सुखलाल संघवी - पं० बेचरदास दोशी, गूजरात
विद्यापीठ, अहमदाबाद १९३२, ३.४७ ४. सन्मतिप्रकरण १.४-५.
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