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________________ १७५ नयविचार के नयों का उल्लेख मिलता है । जो नय वस्तु के मूलभूत स्वाभाविक स्वरूप को अपना विषय बनाता है उसे हम "निश्चयनय" और जो नय वस्तु के प्रतीतिजन्य विषय को अपना विषय बनाता है उसे "व्यवहारनय" कहा गया है। प्राचीन आगमों में मुख्य रूप से इन्हीं दो प्रकार के नयों की चर्चा हुई है । कभी-कभी व्यवहारनय या द्रव्यार्थिक नय को अव्युच्छित्ति-नय तथा पर्यायार्थिक-नय या निश्चयनय को व्युच्छित्ति-नय भी कहा गया है | नयों के इस द्विविध विवेचन के पश्चात् हमें अन्य वर्गीकरण भी उपलब्ध होते हैं । आ० उमास्वाति ने तत्त्वार्थाधिगमसूत्र (प्रायः ईस्वी ३५०) में नैगमादि पाँच मूल नयों का उल्लेख किया है३ । आ० सिद्धसेन दिवाकर ने सन्मतिप्रकरण में नैगमनय को छोड़कर छ: नयों की चर्चा की है । तत्त्वार्थसूत्र के दिगम्बर टीकाकार एवं कुछ अन्य आचार्य सात नयों की चर्चा करते हैं । द्वादशार-नयचक्र में ग्रन्थकर्ता आ० मल्लवादी (ई. ५५०-६००) ने बारह नयों अर्थात् दृष्टिकोणों को आधार बनाकर चर्चा की है । इन विभिन्न नयों और इनके विभिन्न संयोगों के आधार पर किसी आचार्य ने सात सौ नयों की चर्चा की थी। सप्तशतार-नयचक्र नामक ग्रन्थ में इन्हीं सात सौ नयों का उल्लेख किया गया था, ऐसा उल्लेख द्वादशार-नयचक्र की सिंहसूरी (सिंहशूर) की टीका (प्रायः ईस्वी० ६७५) में उपलब्ध है । संक्षेप में हम कह सकते हैं कि १. महेन्द्रकुमार जैन, जैनदर्शन, श्री गणेशप्रसाद वर्णी जैन ग्रन्थमाला, वाराणसी १९७४, पृ० ३५१-३५४ २. न्यायावतारवातिकवृत्ति, पृ० २२. ३. नैगमसंग्रहव्यवहारर्जुसूत्रशब्दा नयाः ॥ तत्त्वार्थसूत्र १.३४, सं० पं० सुखलाल संघवी, पार्श्वनाथ विद्याश्रम, वाराणसी १९७६. ४. सन्मतिप्रकरण - १.४-५. ५. नैगमसंग्रहव्यवहारर्जुसूत्रशब्द समभिरूद्वैवम्भूढाः नयाः ॥ तत्त्वार्थसूत्र १.३४. ६. द्वादशारनयचक्रं, सं० मुनि जम्बूविजय, श्री जैन आत्मनन्द सभा, भावनगर १९८८, भा० १, पृ० १०. ७. सप्तशतारनयचक्राध्ययने । द्वादशारनयचक्रं, पृ० ८८६. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001955
Book TitleDvadashar Naychakra ka Darshanik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJitendra B Shah
PublisherShrutratnakar Ahmedabad
Publication Year2008
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size11 MB
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