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द्रव्य-गुण-पर्याय का सम्बन्ध . हैं, और सत्ता-प्रकृति को परिणामी नित्य मानते हैं, वहाँ पुरुष को कूटस्थ नित्य अर्थात् अविकारी बताते हैं । सत्ता के सम्बन्ध में वे द्रव्य शब्द का प्रयोग नहीं करते हैं । वे जगत् की व्याख्या के लिए वह प्रधान अर्थात् प्रकृति की ही परिणमनशीलता की चर्चा करते हैं । उसकी दृष्टि में प्रकृति त्रिगुणात्मक है और वही सत्य है । जगत् में जो कुछ दृष्टिगोचर होता है वह प्रकृति की ही अभिव्यक्ति है । सांख्यदर्शन की दृष्टि में पुरुष और प्रकृति इन दोनों तत्त्वों में प्रकृति ही सक्रिय तत्त्व है। पुरुष निष्क्रीय है । वह सृष्टि में मात्र निमित्त कारण है, उपादान नहीं ।१ अगले क्रम में मल्लवादी ने एक ऐसे दृष्टिकोण को प्रस्तुत किया है जो वर्तमान में किसी भारतीय दर्शन में उपलब्ध नहीं होता है, यह दृष्टिकोण वस्तुतः अनेकता में निहित एकत्व पर बल देता है । इसे सर्व सर्वात्मकता-वाद के रूप में प्रस्तुत किया गया है । यह अद्वैतवादियों की दृष्टि से इस अर्थ में भिन्न है कि यहाँ द्वैत में अद्वैत की कल्पना की गई है, अद्वैत में एक से अनेक की अभिव्यक्ति मानी जाती है, जबकि यहाँ अनेकों में एक ही सत्ता को अनुस्यूत माना जाता है । इसके पश्चात् न्याय, वैशेषिक आदि दर्शनों का उल्लेख है जो द्रव्य, गुण, कर्म आदि को एक-दूसरे से विभक्त मानते हैं । दूसरे शब्दों में ये भेद प्रधान दृष्टिवाले हैं।३ आ० मल्लवादी ने इनके पश्चात् उन विचारकों के दृष्टिकोण का उल्लेख किया है जो सत्ता या द्रव्य, गुण और पर्याय में भेद या अभेद दोनों को ही स्वीकार करता है। यह दृष्टिकोण विशेषरूप से जैनों का है ।" आ० मल्लवादी ने इसके आगे अपने चक्र की कल्पना को साकार बनाने १. वही, पृ० २६५-२६७ २. वही, पृ० ३७५
सर्वमेकमेकं च सर्वम् । सर्वं सर्वात्मकम् । वही, टीका, पृ० ११ ३. द्रव्यमपि भावसाधनम् ।....पदार्थों द्रव्यक्रिये । द्वादशारं नयचक्रं, ४१४-४१५
विधिश्च नियमश्च सर्वत्र द्रव्यंक्रिया चेति विधिनियमं । द्वन्द्वैकवद्भावात् । स एष निर्दिष्टः प्रत्यक्षीकृतस्ते ।....द्रव्यक्रियाद्वयात्मक-वस्तु भजते... । वही, टीका० पृ०
४१४-४१५ ४. एवं त्युभयस्यैवोभयप्राधान्यस्यापि विधिः । वही, पृ० ४४६ ५. तथोभयवादसिद्धिः, उभयोरन्यतरस्य वा निषेधे प्रमाणाभावात् । नन्वेवं तथार्थ स्थिति
सत्यत्वात् सर्ववादनानानेकान्तवादाश्रयणंकृतम् । तदतत्समर्थविकल्पत्वात् । एकपुरुषपितृपुत्रादिवत् । वही, पृ० ४३६
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