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द्वादशार-नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन हेतु भेद और अभेद दोनों की स्वीकृति में तार्किक विरोध दिखाकर शब्दाद्वैतवादियों की दृष्टि में सत्ता की व्याख्या की है । इसके बाद वे सत्ता के वाच्यत्व के निषेध करने हेतु बौद्धों के अपोहवाद का प्रस्तुतीकरण करते हैं ।२ उसके बाद सत्ता के परिणामशील पक्ष को प्रस्तुत करते हुए यह बताते हैं कि सतत परिवर्तनशीलता के अतिरिक्त जगत् में कोई स्वतन्त्र सत्ता नहीं है और अन्त में निःस्वभाव का शून्यवाद के रूप में विवेचन करके वे सत्ता की चर्चा को परिसमाप्त करते हैं । यद्यपि वे इस दृष्टिकोण को भी अन्तिम सत्य नहीं कहते, इसके खण्डन के लिए वह पुनः लौकिकवाद की युक्तियों का सहारा लेते हैं । वे कहते हैं कि पदार्थ या वस्तु को किसी प्रमाण या शास्त्र से जब सिद्ध ही नहीं किया जा सकता है तब हमें लोकवाद का अनुसरण करने पर यह मान लेना चाहिए कि पदार्थ या वस्तु वैसी है जैसा कि लोक द्वारा ग्रहण किया जाता है।
प्रस्तुत प्रसंग में हम इन सभी धारणाओं की चर्चा न करके मात्र कुछ प्रमुख मतों को ही प्रस्तुत करेंगे । साथ ही उन्हें आ० मल्लवादी के क्रम से भिन्न क्रम में प्रस्तुत करेंगे । इस चर्चा में हम सर्वप्रथम इन विचारकों के मत का उल्लेख करेंगे जो सत्ता को नि:स्वभाव मानते हैं। उसके बाद क्षणिकवादी दृष्टिकोण की चर्चा करेंगे । जो सत्ता को मात्र परिवर्तनशील (पर्याय रूप) मानते हैं-उसके पश्चात् उन द्वैतवादियों की चर्चा करेंगे जो द्रव्य, गुण और
१. वही, पृ० ५६०-५६६ २. वही, पृ० ५४७ ३. उत्पादविनाशावेव हि वस्तुनां भवनस्य बीजम् । अनुत्पादविनाशत्वादपर्यायत्वाद् निर्मूलत्वान्न
स्यात् वस्तु वन्ध्या-पुत्रवत् । अपि च प्रतिपक्षविनिर्मुक्तमेवानित्यत्वं वस्तुनः । वही, पृ० ७९५ क्षणिकाः सर्वसंस्कारा अस्थितानां कुतः क्रिया । भूतिर्येषां क्रिया सैव कारकं सैव चोच्यते ॥ वही. पृ० ८० ।।
अन्तेक्षयदर्शनादादौ क्षयोऽनुमीयते प्रदीपशिखावत् । वही, पृ० ८०२ ४. निःस्वभावमिदं सर्वं सुप्तोन्मत्तादिवत् । तदतदाकारप्रकल्पनानुपातिविज्ञानत्वात्, परमार्थ
तस्तत्तदाकारशून्यमिदं शून्यमेवेति कल्पयितुं न्यायं शून्यगृहवत् प्रवेष्टस्थातृ निर्गन्तृ कल्पोत्पादादिरहितम् । वही, पृ० ८२७
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