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________________ सम्पन्न हो सका । प्रस्तुत कार्य में मुझे अपने मित्रों का भी सहयोग मिला। उन सभी का मैं हृदय से आभारी हूँ । द्वादशार - नयचक्र अत्यन्त क्लिष्ट ग्रन्थ होने के कारण एवं अनेक लुप्तवादों का संग्रह होने के कारण इस ग्रन्थ का सर्वांगीण अध्ययन एक ही शोध-प्रबन्ध में समाविष्ट करना अत्यन्त कठिन था । अतः मैंने केवल मुख्य वादों को ही प्रस्तुत ग्रन्थ में समाविष्ट किया है। इस ग्रन्थ के अध्ययन को प्रस्तुत करके मुझे काशी हिन्दू विश्वविद्यालय (BHU) वाराणसी द्वारा Ph.D. की उपाधि प्राप्त हुई । इसके लिए मैं विश्वविद्यालय काशी का अत्यन्त आभारी हूँ । शोधकार्य सम्पन्न होने के पश्चात् मेरे मन में इसी ग्रन्थ का विस्तृत अध्ययन करके शोध-प्रबन्ध को अधिक समृद्ध करने की इच्छा थी । अतः प्रकाशन - कार्य के लिए अनेक वार बातें उठीं तथापि मैं हमेशा शोधप्रबन्ध प्रकाशित करने की बात को टालता रहा । एक दिन मेरे मित्र धनवन्तभाई का फोन आया और उन्होंने मुझे शोध-प्रबन्ध प्रकाशित करने हेतु प्रोत्साहित किया । इतना ही नहीं शोध-प्रबन्ध प्रकाशन के खर्च का भी प्रबन्ध करने की बात कही । यद्यपि शोध-प्रबन्ध प्रकाशित करने का सारा खर्च श्रुतरत्नाकर ट्रस्ट ने वहन करने की बात की थी । अतः मुझे धनवन्त भाई को सहर्ष मना करना पड़ा । किन्तु प्रकाशन के लिए उन्होंने मुझे प्रोत्साहित किया इसके लिए मैं धनवन्तभाई का अत्यन्त आभारी हूँ । ग्रन्थ में जैनदर्शन के नय के सिद्धान्त को अनूठे ढंग से प्रस्तुत किया है । सामान्यतः दो - पाँच-छह एवं सात नयों की संख्या प्रचलित है किन्तु यहाँ ग्रन्थकार ने बारह नयों का विभाजन किया है। नयों के नाम भी अलग ही हैं । विधि-नियम - उभय इन तीन को मिलाकर बारह नयों का कथन किया है । इन बारह नयों का समन्वय सात प्रचलित नयों के साथ किया है । तथापि ग्रन्थकार ने एक नया ही ढंग अपनाया है । यह ढंग किसी भी दार्शनिक के लिए मार्गदर्शक बन सकता है । यह ग्रन्थ I Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001955
Book TitleDvadashar Naychakra ka Darshanik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJitendra B Shah
PublisherShrutratnakar Ahmedabad
Publication Year2008
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size11 MB
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