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प्रकाशकीय
तार्किक शिरोमणि आ० मल्लवादी कृत द्वादशार - नयचक्र एक प्रौढ़ दार्शनिक ग्रन्थ है । इसमें प्रायः सभी दार्शनिक परम्पराओं की चर्चा की गई है । इस ग्रन्थ में कई ऐसे दार्शनिक सिद्धान्त हैं जो आज लुप्तप्रायः हो गए हैं । लुप्तप्रायः दर्शन के सिद्धान्त केवल इसी ग्रन्थ में प्राप्त होते हैं । अतः यह ग्रन्थ दार्शनिक साहित्य का एक अनुपम ग्रन्थ है । इस ग्रन्थ की आ० सिंहसूरि ने टीका रची है । टीका- ग्रन्थ भी उतना ही प्रौढ़ है जितना मूल ग्रन्थ । दुर्भाग्य से सदियों पूर्व मूल ग्रन्थ नष्ट हो गया था । इसके नष्ट होने के अनेक साहित्यिक प्रामाण हमें प्राप्त होते हैं । किन्तु आ० सिंहसूरि रचित वृत्ति अभी भी उपलब्ध है । इसी टीका को आधार बनाकर मूल ग्रन्थ का पुनर्गठन करने का प्रयास पूर्व किया गया था । दर्शनप्रभावक मुनिश्री जम्बूविजयजी ने अथक प्रयत्न करके मूल ग्रन्थ का पुनर्गठन किया है । प्रस्तुत ग्रन्थ जैन आत्मानन्द सभा, भावनगर, गुजरात से प्रकाशित हुआ है । इसी ग्रन्थ को आधार बनाकर मैंने बनारस में संशोधन कार्य किया । मूल ग्रन्थ टीका के साथ पढ़ने में मुख्य रूप से स्वामी योगीन्द्रानन्दजी तथा अन्य विद्वान पण्डितों का सहयोग प्राप्त हुआ । शोधप्रबन्ध में मुझे प्रो० श्री सागरमलजी जैन एवं प्रो० रेवती रमण पाण्डेयजी का भी पूर्ण सहयोग प्राप्त हुआ । इन सब की कृपा से मेरा शोध-प्रबन्ध
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