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द्वादशार-नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन द्वितीय और तृतीय परिच्छेद के अन्त में आचार्य मल्लवादी ने अपना नामोल्लेख किया है । किन्तु प्रस्तुत मल्लवादी नयचक्रकार मल्लवादी से भिन्न है। इस विषय में पं० श्री मालवणिया जी लिखते हैं कि "नयचक्र के कर्ता मल्लवादी तो किसी भी प्रकार से टिप्पणकार सम्भव ही नहीं है, क्योंकि नयचक्र ग्रन्थ की आन्तरिक परीक्षा से यह सिद्ध होता है कि वे आचार्य दिङ्नाग और धर्मकीर्ति के बीच हुए हैं । ग्रन्थ में कई बार आचार्य दिङ्नाग का उल्लेख है, किन्तु कुमारिल या धर्मकीर्ति का एक बार भी उल्लेख नहीं है। ....अतएव प्रस्तुत न्यायबिन्दु टीका का टिप्पण लिखें, यह सम्भव नहीं ।" अतः न्यायबिन्दु टीका के टिप्पणकार मल्लवादी और नयचक्रकार मल्लवादी भिन्न ही हैं।
नयचक्र की रचना का आगमिक आधार नयचक्र की उत्पत्ति के विषय में आचार्य मल्लवादी के जीवन-वृत्तान्त के प्रसंग में चर्चा की गई है तथापि यहाँ उस मूल आगमिक आधार के विषय में चर्चा की जायेगी जो नयचक्र की रचना का आधार है। आचार्य मल्लवादी ने स्वयं निर्देश किया है कि नयचक्र पूर्व से उद्धृत गाथा का विवेचन है । जैनों के बारहवें अंग दृष्टिवाद, जो नष्ट हो चुका है, में पूर्वगत् नामक एक महत्त्वपूर्ण विभाग था और उसके चौदह उप विभाग थे । उस प्रत्येक उप विभाग को पूर्व कहा जाता था। उसके पाँचवे पूर्व का नाम ज्ञान-प्रवाद है उस ज्ञान-प्रवाद के एक अंश का नाम नयप्राभृत है । इसी नयप्राभृत की विधिनियम से प्रारम्भ होनेवाली गाथा से नयचक्र की रचना हुई है । प्रस्तुत
१. इति श्री मल्लवाद्याचार्य विरचिते धर्मोत्तर-टिप्पणके द्वितीय परिच्छेदः समाप्तः इति धर्मोत्तरटिप्पनके श्री मल्लवाद्याचार्य कृते तृतीयपरिच्छेदः समाप्तः ।
उद्धृत, धर्मोत्तरप्रदीप, प्रस्तावना, पृ० ५४. २. धर्मोत्तरप्रदीप, प्रस्तावना, पृ० ५४-५५ ३. अस्य चार्यस्य पूर्वमहोदधितमुत्पतितनयप्राभृततरंगागम प्रभ्रष्टश्लिष्टार्थकमात्रमन्यतीर्थकर
प्रज्ञापनाभ्यतीत-गोचर-पदार्थ-साधनं नयचक्राख्यं...... द्वादशारनयचक्रम्, भाग-२, पृ० ९ ४. विधि-नियमभंगवृत्तिव्यतिरिक्तत्वादनर्थकवचोवत् । जैनादन्यच्छासनमनृतं भवतीति वैधर्म्यम् ।।
वही, भाग-१, पृ० ९.
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