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जैन दार्शनिक परम्परा का विकास नयप्राभृत अद्यावधि अनुपलब्ध है किन्तु नाम के आधार पर यह कल्पना कर सकते हैं कि उसमें विधि, नियम आदि रूपों में नयों का विवरण किया गया होगा।
इस प्रकार दृष्टिवाद के नयप्राभृत की विधि-नियम वाली गाथा से ही द्वादशार-नयचक्र का उद्भव हुआ यह बात स्वयं आचार्य मल्लवादी कहते हैं । नयचक्र के पूर्व भी नयचक्र नामक ग्रन्थ प्रचलित रहा होगा ऐसा हम नयचक्र तथा टीका के आधार पर अनुमान लगा सकते हैं । आचार्य मल्लवादी कहते हैं कि सप्तशतार-नयचक्र नामक ग्रन्थ विद्यमान होते हुए भी कालप्रभाव के कारण प्रतिदिन मेधा, आयु, बल, उत्साह और धारणा-शक्ति नष्ट हो रही है, अतः भव्य जीवों के उपकारार्थ संक्षिप्त नयचक्र का ग्रथन किया जा रहा है।
उत्तराध्ययन की पाइय टीका (४.६८ ए) में तथा अनुयोगद्वारसूत्र की गाथा १३४ की हेमचन्द्रसूरिकृत वृत्ति में भी सप्तशतार-नयचक्र का उल्लेख प्राप्त होता है ।२ सप्तशतार-नयचक्र में जैनदर्शन में प्रसिद्ध नैगमादि सात नयों तथा प्रत्येक नयों के सो-सो भेद करके सप्तशतार नयचक्र की रचना की गई थी । वर्तमानकाल में प्रस्तुत कृति उपलब्ध नहीं है । इस प्रकार हम यह भी कल्पना कर सकते हैं की आ० मल्लवादी के समय सप्तशतारनयचक्र उपलब्ध था किन्तु उस नयचक्र की रचना जटिल और दुर्बोध होगी इसी कारण प्रस्तुत नए नयचक्र की रचना की गई होगी।
इस विषय में श्री दलसुखभाई मालवणिया का कहना है कि इस ग्रन्थ का पूर्वगत श्रुत के साथ जो सम्बन्ध जोड़ा गया है वह उसके महत्त्व को बढ़ाने के लिए भी हो सकता है और वस्तुस्थिति का द्योतक भी हो सकता
१. सप्तशतार-नयक्राध्ययने सत्यपि दुःषमाकालदोषबल-प्रतिदिन-प्रक्षीयमाणमेधादुर्बलो
त्साहंसेवग-श्रावणधारणादिशक्तीन् भव्यानाननुग्रहीतुं संक्षिप्तग्रन्थं बलर्थमिदं नयक्रशास्त्रम् ।
श्रीमच्छवेतपट मल्लवादिक्षमाश्रमणेन वितिनं, भाग-३, पृ० ८८६. २. जैन संस्कृत साहित्यनो इतिहास, भाग-३, पृ० ११३. ३. अर्हत्प्रणीत नैगमादि प्रत्येक शतसंख्यप्रभेदात्मक सप्तशतारनयचक्रभेदात्मक.... नयचक्रवृत्तिः,
भाग- ३, पृ० ८८६.
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