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________________ उपसंहार १९७ अनिर्वचनीय मानने पर भाषा की वाच्यता समाप्त हो जायेगी । सत्ता को एकान्त रूप से निर्वचनीय मानने से भाषा की सीमितता समाप्त हो जायेगी । अतः सत्ता को कथञ्चित् निर्वचनीय और कथञ्चित् अनिर्वचनीय मानना ही एक समीचीन दृष्टिकोण है । द्वादश अध्याय-नय विभाजन प्रस्तुत शोधप्रबन्ध के द्वादश अध्याय में हमने जैनों के नयों के वर्गीकरण की विभिन्न शैली के साथ-साथ यह स्पष्ट किया है कि नयचक्र में किस प्रकार नयों के वर्गीकरण की परम्परागत् शैली का परित्याग करके नई शैली की उद्भावना की गई है । वस्तुतः नयों के वर्गीकरण की नई शैली की उद्भावना ही आ० मल्लवादी और उनके ग्रन्थ का वैशिष्ट्य है; दुर्भाग्य यही है कि आ० मल्लवादी का इस नई शैली का अनुसरण परवर्ती जैन आचार्यों ने नहीं किया है । अन्त में मैं यही कहना चाहूँगा की भारतीय दर्शन का यह अमूल्य ग्रन्थ जो मुनिश्री जम्बूविजयजी के अथक प्रयत्नों से पुनः संरक्षित हो पाया है उसकी ओर विद्वानों का ध्यान आकृष्ट है । यह इसलिए आवश्यक है कि इस ग्रन्थ के अध्ययन के अभाव में भारतीय दर्शन को अपनी समग्रता में समझना संभव नहीं हो पायेगा । जैसा कि हमने प्रस्तुत अध्ययन में पाया है कि प्राचीन भारतीय दर्शन की कोई भी ऐसी समस्या नहीं है जिसकी उद्भावना और समीक्षा इसमें नहीं हो । अतः प्रस्तुत ग्रन्थ का अध्ययन भारतीय दर्शन के इतिहास के अध्ययन के लिए अपरिहार्य है । प्रस्तुत अध्ययन तो सम्पूर्ण भारतीय दर्शन के प्रतिनिधि रूप इस महाग्रन्थ में एक चंचूपात ही है । आशा है भविष्य में विद्वत् जगत् इसके अध्ययन में रुचि लेगा और इसके विभिन्न पक्षों को उद्घाटित करके सामान्य रूप से भारतीय चिन्तन की और विशेष रूप से जैन चिन्तन की समग्रतावादी दृष्टि को उजागर करेंगे । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001955
Book TitleDvadashar Naychakra ka Darshanik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJitendra B Shah
PublisherShrutratnakar Ahmedabad
Publication Year2008
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size11 MB
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