________________
नयविचार
१७९ उपलब्ध होता है । यहाँ दार्शनिक काल के सात नयों का नाम निर्देश मात्र किया गया है । ऐसा लगता है कि जब तत्त्वार्थ और सन्मति प्रकरण आदि ग्रन्थों में नय का पञ्चविध, षड्विध एवं सप्तविध वर्गीकरण किए गए उसमें से सप्तविध वर्गीकरण को ग्रहण करके उन नामों को स्थानांग में उसके अन्तिम वाचना के समय डाल दिया गया हो । यद्यपि अनुयोगद्वारसूत्र के नयद्वार में सातों नयों के लक्षण आदि की चर्चा मिलती है, किन्तु हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि अनुयोगद्वारासूत्र', तत्त्वार्थ ओर सन्मतिप्रकरण जैसे दार्शनिक ग्रन्थों के बाद ही लिखा गया है। उसकी दार्शनिक शैली स्वयं इस तथ्य का प्रमाण है कि यह आगम ग्रन्थ होते हुए भी परवर्ती काल का ही है। इसमें प्रथम चार नय अर्थनय और बाद के तीन नय शब्दनय के रूप में विवेचित हैं । अर्थनय का तात्पर्य वस्तु या पदार्थ से है। जो नय पदार्थ को अपना विषय बनाते हैं वे अर्थनय और जो शब्द को अपना विषय बनाते हैंवे शब्दनय कहलाते हैं । इस प्रकार परवर्ती आगमों में नयों की विस्तृत चर्चा हमें मिलने लगती है । किन्तु इतना अवश्य स्मरण रखना चाहिए कि प्रस्तुत आगम दार्शनिक युग की ही रचना हैं ।
दार्शनिक युग के ग्रन्थों में प्राचीनतम ग्रन्थ तत्त्वार्थाधिगमसूत्र है । इसके प्रथम अध्याय में नय का उल्लेख करनेवाले तीन सत्र उपलब्ध होते हैं। प्रारम्भ में यह कहा गया है कि वस्तुतत्त्व का अभिगम नय और प्रमाण के द्वारा होता है । इस प्रकार ज्ञान-प्रक्रिया में नय के स्थान और महत्त्व को स्वीकार किया गया है । अध्याय के अन्त के दो सूत्रों में नय का वर्गीकरण प्रस्तुत किया गया है। पहले सूत्र में नयों को नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र
नन्दीसूत्त अनुयोगदाराई, सं० पं० बेचरदास दोशी, श्री महावीर जैन विद्यालय, बम्बई
१९७८, पृ० २०४. १. वही २. तिण्हं सद्दणयाणं. । अणुओगद्दारसुत्त, पृ० ७०. ३. प्रमाणनयैरधिगमः । नैगमसंग्रहव्यवहारर्जुसूत्रशब्दनयाः । आद्यशब्दौ द्वित्रिभेदौ ।
तत्त्वार्थाधिगमसूत्र, क्रमशः १-६, १-३४, १-३५. ४. तत्त्वार्थाधिगमसूत्र- १.६.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org