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सत् के स्वरूप की समस्या
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अपने स्वरूप का त्याग नहीं करता । सुवर्ण, सुवर्ण के रूप में सदा ही स्थिर रहता है । ऐसा न मानने पर सुवर्ण में परिवर्तन मानना पड़ेगा तब सुवर्ण ही असुवर्ण बन जायेगा । इस प्रकार द्रव्य का ध्रौव्य और गुण या आकारों का उत्पाद एवं नाश अन्य दर्शनकारों ने भी माना है । इस आधार पर हम कह सकते हैं कि पदार्थ-सत् उत्पाद-व्यय- ध्रौव्य युक्त है । इस बात को जैनदर्शनकारों ने अपनी-अपनी शैली से स्पष्ट किया है । इस त्रयात्मक सत् को स्पष्ट करने के लिए आचार्य हरिभद्र ने शास्त्रवार्ता - समुच्चय में एक दृष्टान्त दिया है कि सुवर्ण के घट का नाश और सुवर्ण के मुकुट को उत्पन्न होते हुए देखकर घट के अर्थी को दुःख होता है, मुकुट के अभिलाषी को आनन्द होता है और सुवर्ण के इच्छुक को न तो हर्ष होता है और न शोक ही होता है । इसी से हम कह सकते हैं कि एक ही पदार्थ उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य युक्त है । कुमारिल भट्ट ने भी प्रस्तुत दृष्टान्त का आश्रय लेकर वस्तु की. त्रयात्मकता निरूपित की है । यहाँ यह भी दृष्टव्य है कि निरुक्तकार श्री यास्क ने कहा है कि वार्ष्यायणि आचार्य ने पदार्थ के छह विकार अर्थात् परिणामों को स्वीकार किया है । ३ पदार्थ उत्पन्न होते हैं, उत्पन्न पदार्थ स्थिर रहता है, अन्य विकार होने पर भी एक ऐसी स्थिति है जिसमें पदार्थ का नाश नहीं होता है, अन्य पदार्थों के संयोग से वृद्धि भी होती है, अन्य पदार्थों के संयोग से कुछ हानि भी होती है तथा अन्य भाव को प्राप्त करते हैं अर्थात् नाश होते हैं । यहाँ छह भेद किए गए हैं किन्तु मूलतः तीन ही रूप हैं जो जैनदर्शन में त्रिपदी के नाम से प्रसिद्ध हैं । अपनेइ वा, विगमेई वा, ध्रुवेइ वा । वस्तु त्रयात्मक-उत्पादव्यय और ध्रौव्यात्मक है ।
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१. घटमौलिसुवर्णार्थी, नाशोत्पत्ति स्थितिस्वलम् । शोक प्रमोदमाध्यस्थ्यं, जनो याति सहेतुकम् ॥ तथा पयोव्रतो न दध्यत्ति, न पयो त्ति दधिव्रतः । अगोरसव्रतो नोभे, तस्माद् वस्तु त्रयात्मकम्० शास्त्रवार्ता समुच्चय ९ / १ -१
२. मीमांसा श्लोकवार्त्तिक, वनवाद - २१-२३.
३. षड् भावविकारा भवन्तीति वाष्ययिणि:- (१) जायते (२) अस्ति, (३) पिपरिणमते, (४) वर्धते, (५) अपक्षीपते, (६) विश्यतीति ।
४. आर्हत्दर्शन दीपिका, पृ० ५३७.
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