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________________ द्वादशार-नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन इसी बात को पार्थसारमिश्र ने शास्त्रदीपिका में इस प्रकार कहा है कि मृत्रिका स्वरूप का कभी भी उत्पाद या नाश नहीं होता किन्तु उसके रूपआकार आदि का उत्पाद का नाश होता रहता है । कुमारिल भट्ट ने भी कहा है कि उत्पाद एवं नाश स्वरूप धर्मों से युक्त पदार्थ में अन्वयरूप से जो उपलब्ध होता है वही धर्मी है जैसे काले, लाल आदि रंगों में तथा पिण्डकपाल आदि आकारों में अनुस्यूत मृत्रिकारूप द्रव्य ही धर्म है ।२ कहने का तात्पर्य यह है कि पिण्ड के नाश होने पर घट की उत्पत्ति होती है और काले रंग का नाश होने पर लाल रंग का उद्भव होता है तथापि उसमें मृत्रिका द्रव्य का अनुभव बना ही रहता है । इस आधार पर हम कह सकते हैं कि द्रव्य के स्वरूप में परिवर्तन नहीं होता किन्तु पर्यायों में ही परिवर्तन होता रहता है । पतंजलिकृत योगदर्शन के श्री व्यासदेव प्रणीत भाष्य में भी कहा गया है कि ___ तत्र धर्मस्य धर्मिणि वर्तमानस्यैवाध्यस्वतीतानागत वर्तमानेषु भावान्यथात्वं भवति, न द्रव्यान्यथात्वं, यथा सुवर्णभाजनस्य भित्त्वान्यथाक्रियमाणस्य भावान्यथात्वं भवति, न सुवर्णान्यथात्वमिति । (विभूतिपाद) मुद्रादि विभिन्न आकार धारण करने पर या नष्ट होने पर भी सुवर्ण . रूचकाः क्रियन्ते, रूचकाकृतिमुपमृद्य कटकाः क्रियन्ते, कटकाकृति-मुपमृद्य स्वस्तिकाः क्रियन्ते । पुनरावृत्तः सुवर्णपिण्डः । पुरनपरया कृत्या युक्तः खंदिराङ्गारसदृशे कुण्डले भवतः । आकृतिरन्या चान्या च भवति, द्रव्यं पुनस्तदेव आकृत्युपमर्दैन द्रव्यमेवावशिस्यते । व्याकरणमहाभाष्य, पतंजलि महाभाष्य, पशपशाह्निक, पृ० ५२. अतो न द्रव्यस्य कदाचिदागमो पायोवा, घटपटगवाश्वशुक्लरक्तावस्थानामे वागमापायौ । उत्ताह च. आविर्भावतिरोभाव-धर्मकेस्वनुयायि यत् । तद् धर्मी तत्र च ज्ञानं, प्राग् धर्मग्रहणाद भवेत् ।। तथा च-यादृशमस्याभिरभिहितं द्रव्यं तादृशस्यैव हि सर्वस्य गुण एव भिद्यते, न स्वरूपम् ।। आर्हतमतदीपिका० ५३४. २. वर्धमानकभङ्गे च, रूचकः क्रियते यदा । तदा पूर्वार्थिनः शोकः, प्रीतिश्चाप्युत्तरार्थिनः ।। हेमार्थिनस्तु माध्यस्थयं, तस्माद वस्तु त्रयात्मकम् । नोत्पाद-स्थिति भङ्गानामभावे स्यान्नमतित्रयम् ॥ न नाशेन बिना शोको, नोत्पादेन विना सुखम् । स्थित्या विना न माध्यस्थ्यं, तेन सामान्य नित्यता। -मीमांसा श्लोकवार्त्तिक, वनपाद, २१-२३. ३. पातंजल योगदर्शन भाष्य, विभूतिपाद, सू० १३, पृ० २३८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001955
Book TitleDvadashar Naychakra ka Darshanik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJitendra B Shah
PublisherShrutratnakar Ahmedabad
Publication Year2008
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size11 MB
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