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________________ १०९ सत् के स्वरूप की समस्या द्वादशार-नयचक्र के प्रथम श्लोक की व्याख्या करते हुए आचार्य सिंहसेनसूरि ने कहा है कि बौद्धों ने सत् को क्षणिक माना है किन्तु क्षणिक मानने पर स्मृति, प्रत्यभिज्ञा, बन्ध, मोक्षादि की सिद्धि नहीं हो सकती । प्रस्तुत दोषों के परिहार करने के लिए उन्होंने सन्तान नामक एक अन्य तत्त्व भी माना ।' सांख्यदर्शन में प्रकृति को नित्य माना है और उसमें परिणाम या परिवर्तनशीलता सिद्ध करने के लिए उस अव्यय तत्त्व से व्यक्त तत्त्वों अर्थात् बुद्धि, अलंकार, पञ्चमहाभूत आदि की सृष्टि मानी है। वैशेषिक-दर्शन में गुण या क्रियावान् होने के साथ समवायीकारण वाले को द्रव्य माना है । किन्तु द्रव्य का ऐसा स्वरूप मानने पर भी सृष्टि-प्रक्रिया घट नहीं सकती थी, अतः द्रव्य को सामान्य और विशेष स्वरूप माना और सृष्टि को कार्यरूप एवं परमाणु को कारण रूप माना । इस प्रकार कार्य को अनित्य और कारण को नित्य स्वीकार करके सत्ता के नित्य और अनित्य पक्ष स्वीकार किए । क्योंकि इनको न स्वीकार करने पर विभिन्न दोषों का परिहार करना कठिन हो जाता है। - अन्य दर्शन में भी पदार्थ सत् के स्वरूप की चर्चा करते हुए उसमें उत्पादादि तीनों को स्वीकार किया गया है कि द्रव्य-पदार्थ शाश्वत अर्थात् नित्य है । जबकि आकृति (जिसको जैनदर्शन में पर्याय माना है) अनित्य है । जैसे आकारयुक्त सुवर्ण कदाचित् पिण्डस्वरूप बनता है । इसी पिण्डाकार का नाश करके मुद्रा बनाई जाती है । मुद्रा का नास करके वलय बनाया जाता है, वलय का नाश कर स्वस्तिक बनाया जाता है और स्वस्तिक का नाश करके पुनः पिण्ड बनाया जाता है । अतः यह सिद्ध होता है कि आकृति का नाश या उत्पाद होता रहता है तथापि उसमें रहा हुआ द्रव्य तो स्थिर ही रहता है। १. यथा बौद्धै सर्वं क्षणिकं इति प्रतिज्ञाय स्मृत्यभिज्ञानबन्ध-मोक्षाद्यभावदोषपरिहारार्थं सन्तान कल्पना । वही० पृ० ५. २. प्रधाननित्यतां प्रतिज्ञाय परिणामकल्पना व्यक्तात्मना कापिले । वही, पृ० ५. ३. क्रियावद गुणवत् समवायिकारणम् इति सामान्यद्रव्यलक्षणं प्रतिज्ञाय एकान्तनित्यानित्यवादे च तदव्याप्तिपरिहारार्थम् अद्रव्यमनेकद्रव्यं च द्विविधं द्रव्यम् इति द्रव्यत्वं च सामान्य-विशेषाख्यं ततत्वम् इति द्रव्य-पर्यायनयद्वयाश्रयणेन पदार्थ प्रणयनं काणभुजे। वही० पृ० ५. ४. आर्हत्दर्शन दीपिका, पृ० ५३३-५३८. ५. द्रव्यं नित्यमाकृतिरनित्या । सुवर्णं कदाचिदाकृत्या युक्तं पिण्डो भवति, पिण्डाकृतिमुपमृद्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001955
Book TitleDvadashar Naychakra ka Darshanik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJitendra B Shah
PublisherShrutratnakar Ahmedabad
Publication Year2008
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size11 MB
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