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________________ १०८ द्वादशार-नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन निरर्थक है। अत: इन आपत्तियों का परिहार करने के लिए जैन दार्शनिकों ने उत्पाद-व्यय और ध्रौव्य को कथञ्चित् भिन्न और कथञ्चित् अभिन्न माना है । जैसे एक ही घड़े में रहनेवाले उत्पादव्यय और ध्रौव्य परस्पर पृथक् हैं क्योंकि तीनों का अपना-अपना स्वरूप है जो एकदूसरे से भिन्न है । उत्पाद का अर्थ है अस्तित्व धारण करना, व्यय का अर्थ है अस्तित्व का त्याग और ध्रौव्य का अर्थ है सदा स्थिर रहना । इस प्रकार स्वरूपभेद होने के कारण परस्पर भिन्न हैं तथापि ये तीनों एक-दूसरे के बिना रह नहीं सकते अर्थात् एक के बिना दूसरे दो का अस्तित्व सम्भवित नहीं है । अत: तीनों एक-दूसरे से अपेक्षा रखते हैं । अपेक्षा रखने के कारण सापेक्ष हैं और सापेक्ष होने के कारण तीनों एक ही पदार्थ में संभवित हैं। इस प्रकार सत् के स्वरूप के विषय में भारतीय दार्शनिक एकमत्य नहीं हैं । विभिन्न दार्शनिकों ने विविध रूप में सत् का विवेचन किया हैं । द्वादशारनयचक्र में तत्कालीन सभी विचारधाराओं का संग्रह किया गया है । आचार्य मल्लवादि ने प्रस्तुत ग्रन्थ में सत् के स्वरूप के विषय में विभिन्न दार्शनिकों के मतों की स्थापना एवं आलोचना की है। आचार्य मल्लवादि ने ग्रन्थ के मंगलश्लोक में ही जैन सिद्धान्त को स्पष्ट करते हुए कहा है कि जैनदर्शन द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक उभय नयवादी है । इसका तात्पर्य यह है कि जैनदर्शन अनेकान्तवादी है । अतः सत् का स्वरूप भी अनेकान्तात्मक ही माना गया है । इसी बात को नयचक्र के टीकाकार सिंहसेनसूरि ने भी स्पष्ट किया है । टीकाकार का कहना है कि यह अनेकान्तात्मक सत् जैनदर्शन की विरासत है इतना ही नहीं अन्य दर्शनकारों को भी लोकव्यवहार का अनुसरण करने के लिए किसी न किसी रूप में अनेकान्तवाद का आश्रय लेना ही पड़ता है । अन्यथा अनेक आपत्तियों का सामना करना पड़ता है ।३ १. व्याप्येकस्थमनन्तमन्तवदपि न्यस्तं धिया पाटवे, व्यामोहे न, जगत्प्रतान विसृति व्यत्यासधीरास्पदम् । वाचां भागमतीत्य वाग्विनियतं गम्यं न गम्यं क्वचिज्जैनं शासनमूर्जितं जयति तद् द्रव्यार्थ-पर्यापतः ।। ___द्वादशारं नयचक्रम् , पृ० १. अनन्तधर्मात्मकमेव तत्वमतोऽन्यथा सत्त्वमसूपपादम् । स्याद्वादमंजरी, पृ० २६७. ३. द्वादशारं नयचक्रं टीका, पृ० ८३-८६. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001955
Book TitleDvadashar Naychakra ka Darshanik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJitendra B Shah
PublisherShrutratnakar Ahmedabad
Publication Year2008
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size11 MB
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