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तो सामान्य है, न विशेष, न उभयात्मक अतः अवक्तव्य स्वरूप ही सत् का प्रतिपादन किया है ।
सत् के स्वरूप की समस्या
१०. नियमविधि - इस अर में सत् को द्रव्यात्मक न मानकर गुणात्मक माना गया है । सत् द्रव्य नहीं है क्योंकि गुण से भिन्न द्रव्य नाम का कोई पदार्थ नहीं है । अतः गुण ही परम तत्त्व या सत् है ।२
११. नियमोभयम- इस अर में सत् को उत्पाद - विनाशी माना है और कहा है कि सत् क्षणिक है । यह बौद्धों के क्षणिकवाद का प्रतिनिधित्व करता है ।
१२. नियमनियम - सत् को शून्यात्मक माना है और नागार्जुन का सिद्धान्त प्रतिपादित किया है । ४
इस प्रकार बारह प्रकार से सत् के स्वरूप का वर्णन किया है । उपर्युक्त द्वादश विभागों में केवल परमत मान्य अर्थात् जैनदर्शन से भिन्न दर्शन संमत सत् की चर्चा की गई है । सत् के विभिन्न मतों का समन्वय करके सत् के स्वरूप की व्याख्या करने का प्रयास नयचक्र के अन्तिम प्रकरण नयचक्र - तुम्ब में किया गया है। अन्त में कहा गया है कि सभी दृष्टिकोणों का समन्वय ही जैनदर्शन है । सभी नित्य, नित्यानित्य एवं अनित्य दर्शनों का समन्वय अर्थात् अनेकान्तात्मक दृष्टि ही जैनदर्शन है ऐसा कहकर गर्भित रूप से सत् की अनेकान्तात्मकता का कथन किया गया है । इस प्रकार जैनदर्शन
९. वही, पृ० ५५६-५५७.
२. यदि वस्तु तथा विद्यमानत्वात् सामान्यादयः समुदयाश्चत्याज्या: विशेषा एव परिग्राह्याः । द्वादशारं नयचक्रम्, पृ० ७९१.
३.
अत्र च प्रतिक्षणातिक्रामित्वाद वस्तुनो बुद्धिस्थो योर्थः स शब्दार्थः । द्वादशारं नयचक्रम्, पृ० ८०३.
४. अयं नियमस्यापि क्षणिकवादस्य नियमः तदापि वस्तु विज्ञानमेव । द्वादशारं नयचक्रम्, पृ०
८५४.
५. एषामशेषशासन - नयाराणां भगवदर्हद्वचनमुपनिबन्धनम् । वही, पृ० ८७६.
६. वही, पृ० ८७७-८८३.
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