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द्वादशार- नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन
लक्षण से साम्यता रखते हैं फिर भी, इसमें परिवर्तन को भी काल पर आधारित किया गया है ।
द्वादशारनयचक्र में कालवाद की अवधारणा को प्रस्तुत करते हुए कहा गया है कि किसी भी पदार्थ का यौगपद्य समकालीनता या अयौगपद्य का कथन काल के बिना संभव नहीं है । यथा घट और उसका रूप युगपत् उत्पन्न होता है, ऐसा कहना काल के प्रत्यय के अभाव में संभव नहीं है । उसी प्रकार पदार्थों के अयुगपद् भाव की चर्चा भी काल के बिना संभव नहीं है । इसी प्रकार धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के प्रति पुरुषार्थ भी काल पर आधारित है । कहा भी गया है कि वसन्त में ब्राह्मण को यज्ञ, वणिक को मद्य, समर्थ को क्रीडा और मुनियों को निष्क्रमण करना चाहिए । समग्र सृष्टि के सजीव और निर्जीव पदार्थों की अनन्त पर्यायों का परिणमन करानेवाला काल ही है और यह काल अपने सामान्य स्वरूप को छोड़े बिना ही भूत, भविष्य और वर्तमान को प्राप्त होता है । इस प्रकार काल एक होकर भी अपने तीन भेदों से भिन्न भी है । यदि ऐसा न माना जाए तब तो वस्तु में विपरिणमन ही शक्य नहीं हो पायेगा और काल ही एक ऐसा कारण है जो कार्य-कारण के रूप में विपरिणमन करने में समर्थ है । यह विपरिणमन (परिवर्तन) की सामर्थ्य काल के अभाव में पुरुषार्थ, स्वभाव, नियति में भी संभव नहीं है ३ ।
कालक्रम से ही पुरुष आत्मलाभ प्राप्त कर सकता है और जब तक काल परिपक्व नहीं होता तब तक मोक्ष की प्राप्ति भी नहीं होती । संसार की
१. युगपदयुगपन्नियतार्थवृत्तेः काल एव भवतीति भावितं भवति । इह युगपदवस्थायिनो घटरूपादयो न केचिदपि वस्तुप्रविभक्तितो युगपद्वृत्तिप्रख्यानात्मकं कालमन्तरेण । द्वा० न० पृ० २०५.
२. अतो धर्मार्थकाममोक्षाः कालकृता उक्तभावनावत् । तथा ब्राह्मणस्य वसन्तेऽग्न्याधानम्, वणिजां मद्यस्य, ईश्वराणां क्रीडादीनाम्, निष्क्रमणं कृत्वा यावद्विमोक्षं विमोक्षणस्य कालो यतीनाम् । द्वा० न० पृ० २१०.
३. वही, पृ० २११-२१८.
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