SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 87
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ द्वादशार- नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन होती हुई दिखाई देती है तब भी आप ऐसा कैसे कहते हैं कि स्वभाव से ही वस्तु की उत्पत्ति होती है I ७० उक्त शंका का समाधान करते हुए कहा गया है कि ऐसी बात नहीं है क्योंकि वस्तु की पहले अभिव्यक्ति नहीं होने से ही वस्तु की उत्पत्ति का बोध नहीं होता और आँख का भी स्वभाव है कि वह अति सूक्ष्मादि पदार्थों को देख नहीं पाती । यथा अंजन और मेरुपर्वत उसी प्रकार पहले अव्यक्त होने के कारण, घटादि की उपस्थिति का बोध नहीं होता है और घट का भी उसी प्रकार का स्वभाव है । . अर्थात् अंजन के होने पर भी अति सामीप्य के कारण तथा मेरुपर्वत विद्यमान होते हुए भी अति दूरी के कारण अव्यक्त है । उसी प्रकार घट आदि वस्तुओं की उपस्थिति होने पर भी बोध नहीं होने में वस्तु का अभाव नहीं किन्तु वस्तु का स्वभाव ही कारण है । संसार में जो भी कार्य होता है वह स्वभाव से ही प्रवृत्ति और निवृत्ति होता है । स्वभाव से ही फल की प्राप्ति होती है । फलप्राप्ति का स्वभाव होने से ही प्रवृत्ति होती है । अतः पुरुष का प्रयास निरर्थक है । द्रव्य का संयोग और विभाग होना स्वभाव है और उसी कारण आत्मा का संसार और मोक्ष भी स्वभावतः ही होता है । जैसे अशुद्ध सोने का शुद्धीकरण दो प्रकार से होता है, क्रिया और अक्रिया से । इस प्रकार स्वभाववाद की स्थापना की गई है । स्वभाववाद का खण्डन भाववाद के द्वारा किया गया है । स्वभाव शब्द की व्याख्या करके बताया है कि स्व का भाव ही स्वभाव है अर्थात् स्वभाव में भी भाव का महत्व है । भाव के बिना स्वभाव नहीं बनेगा । अतः भाव का होना आवश्यक है । इसीलिए स्वभाववाद की अपेक्षा भाववाद ही श्रेष्ठ है । इस प्रकार स्वभाववाद का भाववाद द्वारा खण्डन किया गया है । नियतिवाद नियतिवाद का सर्वप्रथम उल्लेख श्वेताश्वतर में प्राप्त होता है ३ । ९. वही, पृ० २२४-२२५. २. वही, पृ० २२७. ३. श्वेता०, १.२. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001955
Book TitleDvadashar Naychakra ka Darshanik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJitendra B Shah
PublisherShrutratnakar Ahmedabad
Publication Year2008
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy