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सत् के स्वरूप की समस्या भारतीय चिन्तन में सत् सम्बन्धी विभिन्न दृष्टिकोण
भारतीय दर्शन में सत् के स्वरूप के विषय में विभिन्न सिद्धान्तों का उद्भव हुआ है । पं० सुखलाल संघवी इन विविध सिद्धान्तों को संक्षेप में पाँच प्रकार में समाविष्ट किए हैं-१
१. केवल नित्यवाद, २. केवल अनित्यवाद, ३. परिणामी नित्यवाद, ४. नित्यानित्य उभयवाद, ५. नित्यानित्यात्मक वाद ।
डॉ० पद्मराजे ने सत् सम्बन्धी भारतीय दृष्टिकोण को इन्हीं पाँच वर्गों में विभाजित किया है ।२ १. प्रथम वर्ग में सत् का अद्वय सिद्धान्त (नित्यवाद) आता है । जो यह
मानता है कि सत् अद्वय, अव्यय, अविकार्य एवं कूटस्थ है। परिवर्तन या अनेकता मात्र विवर्त्त है । सत् सम्बन्धी इस विचार प्रणाली का प्रतिनिधित्व ब्रह्मवादी वेदान्ती करते हैं । डॉ० चन्द्रधर शर्मा के मतानुसार विज्ञानवादी और शून्यवादी बौद्ध विचारधाराएँ भी इस वर्ग में आ सकती हैं क्योंकि ये दोनों दर्शन यह मानते हैं कि यह विश्व विज्ञान या शून्य का
ही विवर्त्त मात्र है। सत् केवल विज्ञान या शून्य ही है । २. दूसरे वर्ग में सत् का परिवर्तनशीलता (अनित्यवाद) का सिद्धान्त आता
है। इसके अनुसार सत् का लक्षण अनित्यता, क्षणिकता एवं परिवर्तनशीलता है । इस विचारधारा का अनुसरण प्रारम्भिक बौद्ध दर्शन करता है। डॉ० सागरमलजी के मतानुसार प्राचीन जैन और बौद्ध आगमों में वर्णित ।
उच्छेदवाद को भी इसी वर्ग में रखा जा सकता है। ३. तीसरे वर्ग में सत् का वह सिद्धान्त आता है जिसके अनुसार सत् में भेद
१. प्रमाणमीमांसा, भाषा टिप्पणानि, पृ० ५३. २. जैन थ्योरीज ऑफ रीयलिटी एण्ड नॉलेज, पृ० २५-२६.
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