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________________ पञ्चम अध्याय सत् के स्वरूप की समस्या प्राचीन काल से ही मानव के मन में सृष्टि के परम तत्त्व के विषय में जानने की जिज्ञासा उत्पन्न रही है । इस जिज्ञासा का उत्तर प्राप्त करने के लिए प्रयास भी किए गए । परम तत्त्व के स्वरूप पर विभिन्न दार्शनिकों ने विभिन्न दृष्टिकोणों से विचार किया और उसी से विभिन्न दार्शनिक मतों का उद्भव हुआ । प्रो० सागरमल जी जैन का कहना है कि जब मानवीय जिज्ञासावृत्ति ने इन्द्रिय ज्ञान में प्रतीत होनेवाले इस जगत् के अन्तिम रहस्य को समझने के लिए बौद्धिक गहराइयों में उतरना प्रारम्भ किया तो परिणाम स्वरूप सत् सम्बन्धी विभिन्न दृष्टिकोणों का उद्भव हुआ ।२ सत् का स्वरूप जो भी हो, किन्तु जब उसे इन्द्रियानुभव, बुद्धि और अन्तर्दृष्टि आदि विविध साधनों के द्वारा जान एवं विवेचित करने का प्रयत्न किया जाता है तो वह इन साधनों की विविधताओं तथा वैचारिक दृष्टिकोणों की विभिन्नता से विविध रूप हो जाता है । सत् के स्वरूप का चिन्तन ऋग्वेद से भी पूर्व प्रारम्भ हो चुका था। ऋग्वेद काल में भी सत् के स्वरूप के विषय में अनेक मत प्रचलित थे । इसीलिए कहा गया है कि 'एकं सद् विप्राः बहुधा वदन्ति ।' अर्थात् एक ही १. "एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति ॥" ऋग्० अष्ट० २, अ०३; व० २३. म० ४६१ नासदीय सूक्त ऋग्० १०. १२९. हिरण्यगर्भसूक्त ऋग्० १०.१२१. २. जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, भाग-१, पृ० १८२ १८३. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001955
Book TitleDvadashar Naychakra ka Darshanik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJitendra B Shah
PublisherShrutratnakar Ahmedabad
Publication Year2008
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size11 MB
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