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द्वादशार- नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन
और अनित्यवाद दोषों का प्रदर्शन करके उन्होंने नित्यानित्यवाद का प्रस्तुतीकरण किया, किन्तु उसे भी ऐकान्तिक पाया । इसके साथ ही उन्होंने अपने ग्रन्थ में सत् के चित्त-अचित्त, एक-अनेक होने के प्रश्नों को भी उठाया है । आ० मल्लवादी का वैशिष्टय यह है कि वे इन सभी अवधारणाओं पर तटस्थ दृष्टि से विचारणा करते हैं और उनकी समीक्षा करते हुए उनके दोषों को स्पष्ट कर देते हैं । वे यह बताते हैं कि नित्यवाद में परिवर्तन सम्भव नहीं होते हैं और इसलिए वह परिवर्तनशील जगत् की व्याख्या करने में असमर्थ है । इसी प्रकार अनित्यवाद जिसकी चर्चा उन्होंने क्षणिकवाद के रूप में की है वह कर्म सिद्धान्त के विरोध में जाता है । यद्यपि नित्यानित्यवाद को स्वीकार करके नित्यवाद और अनित्यवाद के दोषों से बचा जा सकता है वहीं नित्यानित्यवाद में जो तार्किक असंगति है उसे भी अस्वीकार नहीं किया जा सकता है ।
षष्ठम अध्याय - द्रव्य-गुण- पर्याय का सम्बन्ध
प्रस्तुत शोधप्रबन्ध के षष्ठम अध्याय में द्रव्य-गुण और पर्याय के स्वरूप एवं पारस्परिक सम्बन्ध में विस्तृत चर्चा की गई है । इस अध्याय का विवेच्य बिन्दु द्रव्य-गुण और पर्याय की पारस्परिक भिन्नता और अभिन्नता से सम्बन्धित है । जहाँ न्याय-वैशेषिक आदि दार्शनिक द्रव्य, गुण, कर्म को एकदूसरे से स्वतन्त्र मानते हैं वहाँ कुछ अभेदवादी चिन्तक इनकी स्वतन्त्र सत्ता को अस्वीकार करते हैं । उनकी दृष्टि में द्रव्य ही सत् है । गुण और पर्याय का कोई स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है । आ० मल्लवादी ने इस सम्बन्ध में भेद दृष्टि एवं अभेद दृष्टि दोनों की समीक्षा की है, और वे सिद्धसेन का अनुसरण करते हुए यह मानते हैं कि द्रव्य, गुण और पर्याय इन तीनों की सापेक्षिक सत्ता है । द्रव्य के बिना गुण और पर्याय का तथा गुण और पर्याय के बिना द्रव्य का स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है ।
सप्तम अध्याय - क्रियावाद - अक्रियावाद
इस शोधप्रबन्ध के सप्तम अध्याय में क्रियावाद और अक्रियावाद के सिद्धान्तों का प्रस्तुतीकरण एवं समीक्षा की है । भारतीय चिन्तन में क्रियावाद
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