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सप्तम अध्याय
क्रियावाद-अक्रियावाद
भारतीय दार्शनिक परम्परा में प्राचीन काल में विभिन्न दर्शनों और धर्मों को निम्न चार वर्गों में विभाजित किया जाता था :
(१) क्रियावाद (२) अक्रियावाद (३) विनयवाद (४) अज्ञानवाद'
जैन आगम-साहित्य में सूत्रकृतांग में इन चारों वर्गों का स्पष्ट रूप से उल्लेख मिलता है। इसके पश्चात् भगवतीसूत्र आदि आगम ग्रन्थों में भी इन चारों ही दर्शन-परम्पराओं का उल्लेख कुछ विस्तार के साथ मिलता है । परवर्ती जैन साहित्य में इनके विविध भेदों और उनके प्रतिपादक आचार्यों के
१. चउविहा समोसरणा पण्णत्ता, तं जहा-किरियावादी ।
अकिरियावादी, अण्णाणिवादी, वेणइयवादी ।। भग० ३०११, स्था० ४।४।३४५, सर्वार्थसि०
८१ २. चत्तारि समोसरणाणिमाणि, पावादुया जाइं पुढो वयंति ।
किरियं अकिरियं विणयं ति तइयं, अण्णाणमाहंसु. चउत्थमेव ॥ सूत्रकृतांगसूत्र २।१ ३. भगवतीसूत्र ३०।१, स्था० ४।४।३४५, नन्दीसू० ४६
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