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द्वादशार-नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन
आयेगा क्योंकि, जो अहेतुक अर्थात् आकस्मिक होता है वह अभ्रमविकार की तरह सादि नियताकार वाला नहीं होता है ।
इस प्रकार जिनभद्रगणिकृत विशेषावश्यकभाष्य (प्राय: ईस्वी ५८५) में स्वभाववाद का निराकरण मिलता है । स्वभाववाद का खण्डन भी स्वभाव को एकमात्र कारण मानने से उत्पन्न दोषों के आधार पर किया गया है।
द्वादशारनयचक्र में स्वभाववाद की स्थापना करते हुए कहा गया है कि स्वभाव ही सबका कारण है। पुरुषादि का स्वत्व स्वभाव से ही सिद्ध है और यदि इसको स्वभाव-सिद्ध न माना जाए तब स्व को सिद्ध करने के लिए पर का आश्रय लेना पडेगा तब स्व स्व ही न रह पाएगा। यथा घट पट का अनात्म स्वरूप होने से पट नहीं होता उसी तरह पट घट का अनात्म होने के कारण पटात्मक नहीं होता है । अतः स्वभाव को ही एकमात्र कारण मानना चाहिए ।
घट और उसके रूप का युगपद उत्पन्न होना तथा धान या अंकुरादि का क्रमशः उत्पन्न होना आदि परिणमन स्वभाव से ही होते हैं । यह भी प्रत्यक्ष देखा जाता है कि समान भूमि और पानी आदि सहकारी कारण होने पर भी भिन्न-भिन्न बीज से भिन्न-भिन्न वृक्षादि उत्पन्न होते हैं । इसी प्रकार कण्टकादि में जो तीक्ष्णता है वह फूल में नहीं होती है । मयूर पक्षी आदि में
१. सो मुत्तोऽमुत्तो वा जइ मुत्तो तो न सव्वहा सरिसो ।
परिणामओ पयं पिव न देहहेअ जइ अमुत्तो ।। उवगरणाभावाओ न य हवइ सुहम्म । सो अमुत्तो वि । कज्जस्स मुत्तिमत्ता सुहसंवित्तादिओ चेव ॥ वही, गाथा १७८९-९०. तैः सर्वैः 'स्वभाव एव भवति' इति भाव्यते । यत् पुरुषादयो भवन्ति स तेषां भावः, तैर्भूयते यथास्वम् । तथा च स्वभावे सर्वस्वभवनात्मनि भवति सिद्धेऽर्थान्तरनिरपेक्षे के ते ? तेषामपि हि स्वत्वं स्वभावापादितमेव, अन्यथा ते त एव न स्युरनात्मत्वाद् घटपटवत् । एवमेव तत्र तत्र पुरुषादिस्वभावानतिक्रमात् सर्वैकत्वमभिन्नं तद्भाववत्त्वादेव वर्ण्य इति स्वभावः प्रकृतिरशेषस्य।
द्वा० न० पृ० २१९-२२०. ३. युगपदयुगपद् घटरूपादीनां व्रीह्यङ्करादीनां च तथा तथा भवनादेव तु स्वभावोऽभ्युपगतः ।
वही, पृ० २२२.
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