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द्वादशार-नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन अवधारणा को न्यायसूत्र के आधार पर प्रतिपादित अवश्य किया गया है, किन्तु नयचक्रकार केवल ईश्वरवाद की अवधारणा को समुपस्थित कर विराम नहीं लेते हैं अपितु वह सृष्टिकर्ता और विश्वनियंता ईश्वर की अवधारणा का कर्मवाद के माध्यम से खण्डन भी करते हैं ।
द्वादशारनयचक्र के तीसरे अर में सर्वप्रथम श्वेताश्वतर उपनिषद् के आधार पर ईश्वरवाद के पूर्वपक्ष को समुपस्थित किया गया और फिर न्यायसूत्रों के आधार पर उसकी तार्किक स्थापना की गई है । किन्तु बाद में नयचक्र के चतुर्थ अर में कर्म सिद्धान्त को समुपस्थित करके ईश्वरवाद के पूर्वपक्ष की विस्तृत समालोचना भी की गई है । निम्न पंक्तियों में हम यह प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे कि मल्लवादी क्षमाश्रमण नयचक्र में किस प्रकार ईश्वरवाद को समुपस्थित करते हैं और किस प्रकार उसका खण्डन करते हैं।
न्यायदर्शन में ईश्वर को जगत् का कर्ता माना गया है । इसी की सिद्धि के लिए नैयायिकों ने कार्य-हेतुक अनुमान का आश्रय लिया है और कहा है कि सृष्टि को उत्पन्न करनेवाला कोई कर्ता (पुरुष विशेष) होना चाहिए, पृथ्वी, पर्वत, वृक्ष आदि पदार्थ किसी बुद्धिमान कर्ता के बनाए हुए होते हैं जैसे घट, पटादि । उसी तरह पृथ्वी आदि कार्य हैं इसलिए ये भी
१. द्वादशारनयचक्रं, पृ० ३२७-३३१. २. वही, पृ० ३३५-३४४. ३. एकोवशी निष्क्रियाणां बहूनामेकं बीजं बहुधा यः करोति । तमात्मस्थं येऽनुपश्यन्ति धीरास्तेषां शान्तिः शाश्वती नेतरेषाम् ।।
श्वेताश्व० ६/१२, उद्धृत द्वादशारंनयचक्रं, पृ० ३३२. ४. वही, पृ० ३२८-३३२. ५. वही, पृ० ३३५-३४४. ६. सर्वमीश्वरप्रवर्तितं प्रवर्तने, नान्यथा । द्वा० न० पृ० ३२९
इश्वर: कारणम् , पुरुषकर्माफल्यदर्शनान् । न, पुरुषकर्माभावे फलनिष्पत्तेः । तत्कारित्वादहेतुः । न्यायसूत्र ४/१/१९-२१.
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