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द्वादशार-नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन और द्रव्य में मात्र शब्द-भेद है, अर्थ-भेद नहीं है। सत् के स्वरूप की चर्चा हम पूर्व अध्याय में कर चुके हैं । उस अध्याय में हमने इस सम्बन्ध में विशद विवेचन किया है कि जैनदर्शन के अनुसार प्रत्येक पदार्थ उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य इन तीन धर्मों से युक्त होता है । यदि हम द्रव्य शब्द की व्युत्पत्ति के आधार पर उसका अर्थ करें तो जो द्रवित होता है वही द्रव्य कहलाता है ।२ दूसरे शब्दों में परिवर्तनों के मध्य स्थायित्व ही द्रव्य का लक्षण है । जैन आचार्यों की मान्यता के अनुसार यद्यपि परिवर्तन और स्थायित्व परस्पर विरोधी लक्षण हैं किन्तु वस्तु-स्वरूप की अनेकात्मकता के कारण वे एक ही साथ पाये जाते हैं । संसार में कोई भी वस्तु-तत्त्व ऐसा नही है जो उत्पाद, व्यय
और ध्रौव्य इन तीन लक्षणों से रहित हो,४ उत्पाद और व्यय वस्तु के परिवर्तनशील पक्ष को प्रस्तुत करता है दूसरे शब्दों में वस्तु तत्त्व या पदार्थ के दो पक्ष होते हैं । उसमें एक पक्ष ऐसा होता है जो भूत, भविष्य और वर्तमान तीनों कालों में शाश्वत रहता है। किन्तु दूसरा पक्ष वह होता है जो उत्पन्न होता है और नष्ट होता है ।६ जैन-दार्शनिकों ने वस्तु के इस शाश्वत पक्ष को गुण
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उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत् ॥ तत्त्वार्थसूत्र ५.२९ उत्पाद-द्विति-भंगा हंदि दवियलक्खण एवं । सन्मति प्रकरण १.१२ दव्वं सल्लक्खंणियं उप्पादव्वयधुवत्तसंजुत्तं । गुणपज्जासयं वा जं तं भण्णंति सव्वण्हू ।।
पंचास्तिकाय० श्लो० १० २. द्रव्यं च भव्ये इत्युक्तत्वाद् भवतीति भव्यं भवनयोग्यं वा द्रव्यं, द्रवति, द्रोष्यति, दुद्रावेति
द्रुः, दोविकारोऽवयवो वा द्रव्यम्, 'दुद्रुगर्तो', सदैव गत्यात्मकत्वाद, विपरिणामात्मकं हि तत् ।
द्वादशारं नयचक्रं टीका पृ० १५ ३. अनन्तधर्मात्मकमेव तत्त्वम् । स्याद्वाद-मंजरी, पृ० २६७
अनन्तधर्मकं वस्तु प्रमाणविषयस्त्विह । षड्दर्शन-समुच्चय पृ० ३१२ ४. दव्वं पज्जववियुतं दव्वविजुत्ता य पज्जवा णत्थि ।
सन्मति-प्रकरण १.१२ ५. ध्रुवे: स्थैर्यकर्मणो ध्रुवतीति ध्रुवः । ३ । अनादिपारिणामिक स्वभावत्वेन व्ययोदयाभावात्
ध्रुवति स्थिरीभवति इति ध्रुवः, ध्रुवस्य भावः कर्म वा ध्रौव्यम्, यथा पिण्डघटाद्यवस्थासु मृदाद्यन्वयात् ।
तत्त्वार्थवार्तिक० पृ० ४९५ ६. स्वजात्यपरित्यागेन भावान्तरावाप्तिरुत्पादः ।२।... . तथा पूर्वभावविगमो व्ययनं व्ययः ।२। वही, पृ० ४९४-४९५
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