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द्वादशार- नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन
बुद्धिवाद की दार्शनिक परम्पराए एक-दूसरे के विरोध में खड़ी हुई है । इनके मुख्य विवाद का विषय यही है कि प्रमाणित ज्ञान की उपलब्धी के प्रसंग में अनुभव और बुद्धि में कौन महत्त्वपूर्ण है ? आचार्य मल्लवादी की यह विशेषता है कि उन्होंने अपने इस ग्रन्थ का प्रारम्भ अनुभववाद के प्रस्तुतीकरण से ही किया है । उन्होंने अपने ग्रन्थ के प्रथम अर में आनुभविक आधारों के स्तर पर दार्शनिक मतों का प्रस्तुतीकरण किया है । इन दार्शनिक मतों में इस बात पर सहमति पाई जाती है कि वस्तु का स्वरूप वही है जैसा कि जनसाधारण के द्वारा अनुभव में वह गृहीत होता है । जहाँ बुद्धिवादी वस्तु स्वरूप के प्रतिपादन में तार्किक संगति का प्रश्न उपस्थित करते हैं वहाँ अनुभववादी तार्किक संगति पर बल न देकर उनकी अनुभूति को ही प्रधान मानते हैं । इन अनुभववादि दार्शनिकों को प्राचीन भारतीय परम्परा में अज्ञानवादी के रूप में प्रस्तुत किया गया है । इन्हें अज्ञानवादी इसलिए कहा जाता है कि ये तार्किकता को महत्त्व नहीं देते हैं । इसलिए न केवल अनुभववादियों को अपितु कर्मकाण्डात्मक / मीमांसादर्शन को आचार्य मल्लवादी ने इसी अज्ञानवादी वर्ग में रखा है । आचार्य मल्लवादी ने अपने ग्रन्थ के दूसरे वर्ग में तर्क- बुद्धि के आधार पर अनुभववादी मान्यता की समीक्षा प्रस्तुत की है और ज्ञानवाद या तर्क- बुद्धिवाद की उद्भावना की है । हमारे द्वितीय अध्याय की विषय - सामग्री आ० मल्लवादी के प्रथम और द्वितीय अर से सम्बन्धित है । इसमें निष्कर्ष के रूप में इतना ही कहा जा सकता है कि अनुभववाद और तर्क - बुद्धिवाद दोनों ही एकांगी हैं और सत् इन दोनों के समन्वय में ही रहा हुआ है 1
तृतीय अध्याय-कारणवाद
प्रस्तुत शोधप्रबन्ध के तृतीय अध्याय में सृष्टि के कारण की समस्या पर विचार किया गया है । इस अध्याय में हम पाते हैं कि आ० मल्लवादी ने अपने युग में प्रचलित विभिन्न कारणवादों का प्रस्तुतीकरण और समीक्षा की है । क्रमिक रूप से आ० मल्लवादी ने कालवाद, स्वभाववाद, नियतिवाद, भाववाद ( विज्ञानवाद) यदृच्छावाद, कर्मवाद आदि मतों का उल्लेख किया है । हम देखते हैं कि इनमें से अधिकांश मतों की चर्चा श्वेताश्वतर उपनिषद् के
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