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देशी शब्दकोश
जे लक्खणे पण सिद्धा ण पसिद्धा सक्कयाहिहाणेसु । ण य गउणलक्खणासत्तिसंभवा ते इह णिबद्धा ||
- आचार्य हेमचन्द्र
वाचना- प्रमुख
आचार्य तुलसी
Jain Education international
प्रधान संपादक
युवाचार्य महाप्रज्ञ
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देशी शब्दकोश
वाचना-प्रमुख आचार्य तुलसी
प्रधान सम्पादक युवाचार्य महाप्रज्ञ
संपादक मुनि दुलहराज
सहयोगी
साध्वी अशोकश्री साध्वी विमलप्रज्ञा
साध्वी सिद्धप्रज्ञा समणी कुसुमप्रज्ञा
जैन विश्व भारती
लाडनूं (राजस्थान)
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प्रकाशक :
जैन विश्व भारती लाडनूं – ३४१ ३०६
प्रबन्ध-सम्पादक :
श्रीचन्द रामपुरिया
प्रकाशन वर्ष :
विक्रम सम्वत् २०४५ मार्च १६८८
पृष्ठांक : ५७० + ६८
मुल्य : १००-०० रुपये
१२ डालर ( U.S.A.)
मुद्रक :
'मित्र परिषद् कलकत्ता के आर्थिक सौजन्य से स्थापित जैन विश्व भारती प्रेस, लाडनूं ( राजस्थान )
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DESI SABDAKOŚA
Vácaná Pramukha ACARYA TULSI
Chief Editor YUVACARYA MAHAPRAJÑA
Editor Muni Dulaharāj
Assistants
Sadhvi Aśokaśrī
Sadhvi Siddhaprajñā
Sadhv! Vimalprajñā Samaņi Kusum prajñā
JAIN VISHVA BHARATI LADNUN (RAJASTHAN)
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Publisher:
JAIN VISHVA BHARATI. Ladnun-341 306
Managing Editor : Shrichand Rampuria,
Year of Publication: Vikram Samvat 2045 March 1988
Pages: 570-+68
Price: Rs. 100 $ 12
Printers i
JAIN VISHVA BHARATI PRESS,
[Established through the financial co-operation of
Mitra Parishad, Calcutta). Ladnun (Rajasthan)
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आशीर्वचन
शब्दकोश का निर्माण जितना कठिन है, उसका उपयोग उतना ही महत्वपूर्ण है । संस्कृत, प्राकृत, अंग्रेजी, हिन्दी, राजस्थानी आदि सभी भाषाओं के शब्दकोश उपलब्ध हैं | आचार्य हेमचन्द्र ने संस्कृत शब्दकोश अभिधानचिन्तामणि के साथ देशी नाममाला की भी रचना की । इसके अतिरिक्त देशी शब्दों का कोई स्वतंत्र कोश प्राप्त नहीं है । आगम और उसके व्याख्या साहित्य में प्राकृत के साथ देशी शब्दों का प्रचुर मात्रा में प्रयोग मिलता है । उस साहित्य के देशी शब्दों का चयन करना और उनके प्रामाणिक अर्थ का निर्णय करना काफी दुरूह काम था । पर हमारे आगम सम्पादन कार्य में संलग्न साधु-साध्वियां कठिन काम करने के अभ्यस्त हो चुके हैं । इस काम के लिए हमने विशेष रूप से साध्वियों को निर्देश दिया । लगभग पांच वर्ष के बाद उनके श्रम ने एक रूप लिया और 'देशी शब्दकोश' सुसम्पादित होकर सामने आ गया । इस कार्य में प्रवृत्त साध्वी अशोकश्री, विमलप्रज्ञा, और सिद्धप्रज्ञा तथा समणी कुसुमप्रज्ञा के श्रम को संवारने में मुनि दुलहराज ने पूरा समय लगाया । वह इस काम के साथ नहीं जुड़ता तो संभव है इसकी निष्पत्ति में कुछ और अवरोध आ जाता । मुझे प्रसन्नता है कि हमारे विनीत साधुसाध्वियां पूरे मनोयोग के साथ साहित्य-सेवा अथवा धर्म - शासन की सेवा में संलग्न हैं। उनकी कार्यजाशक्ति निरन्तर विकसित होती रहे, इस शुभाशंसा के साथ मैं इस ग्रन्थ की समीक्षा का काम विद्वानों को सौंपता हूं ।
१६ फरवरी, १९८८ भिवानी (हरियाणा)
- आचार्य तुलसी
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पुरोवाक्
भगवान महावीर ने अर्धमागधी प्राकृत में प्रवचन किया था । जनता सरलता से उनकी बात समझ सके- यही प्रयोजन था । जनता के लिए जनता की भाषा में बोलना एक नया काम था । उस समय के अधिकांश धर्माचार्य पंडितों की भाषा में ही बोलते और लिखते थे। उनकी बात बड़े लोगों तक पहुंच पाती थी । पाद - विहार और जनता की भाषा में प्रवचन – इन दोनों प्रवृत्तियों के कारण महावीर जनता के बन गए थे । उनके शिष्य भारत के अनेक प्रान्तों में विहार करते थे और अनेक प्रान्तों के मुमुक्षु उनके शिष्य बनते थे । आगम साहित्य में एक अर्थबोध के लिए अनेक शब्दों एवं धातु-पदों का प्रयोग मिलता है । व्याख्याकारों ने उसका कारण बताया है कि अनेक देशों के शिष्यों को समझाने के लिए अनेक शब्दों और क्रिया-पदों का प्रयोग किया गया ।
संस्कृत की एक सीमा बन चुकी थी । उसमें विभिन्न देशों में प्रचलित शब्दों के समावेश के लिए अवकाश नहीं रहा । प्राकृत जन-भाषा थी । उसका लचीलापन बना रहा । वह किसी घेरे में नहीं बंधी, इसलिए उसका सम्पर्क देशी शब्दों से बना रहा । देशी शब्द व्याकरण से बंधे हुए नहीं हैं । उनके लिए 'शेषं संस्कृतवत्' - इस सूत्र की कोई अपेक्षा नहीं है । उनके लिए 'प्रकृतिः संस्कृतम्' इस विधि की भी अपेक्षा नहीं है । त्रिविक्रम देव ने प्राकृत के तीन प्रकार बताए हैं- तत्सम तद्भव और देश्य । संस्कृत के समान शब्द 'तत्सम' और संस्कृत की प्रवृत्ति से सिद्ध शब्द 'तद्भव' कहलाते हैं । देश्य और आर्ष शब्द इन दोनों से भिन्न हैं
प्राकृतं तत्समं देश्यं तद्भवं चेत्यदस्त्रिधा । तत्समं संस्कृतसमं नेयं संस्कृतलक्ष्मणा ॥ बेश्यमाषं च रूढत्वात् स्वतंत्रत्वाच्च भूयसा । लक्ष्म नापेक्षते तस्य संप्रदायो हि बोधकः ॥ प्रकृतेः संस्कृतात् साध्यमानात् सिद्धाच्च यद् भवेत् । प्राकृतस्यास्य लक्ष्यानुरोधि लक्ष्म प्रचक्ष्महे ॥ '
आचार्य हेमचंद्र ने देशी शब्द की बहुत सुन्दर परिभाषा की है । यह परिभाषा बहुत सार्थक और व्यापक है -
१. श्रीत्रिविक्रमदेव, प्राकृतशब्दानुशासनम्, श्लोक ६-८ ।
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जे लक्खणे ण सिद्धा ण पसिद्धा सक्कयाहिहाणेसु । ण य गउणलक्खणासत्तिसंभवा ते इह णिबद्धा ॥ देस विसेसपसिद्धीइ भण्णमाणा अणंतया हुंति ।
तम्हा अणाइपाइअपयट्टभासाविसेसओ देसी ॥' प्राकृत के अध्ययन के लिए देशी शब्दों का अध्ययन बहुत आवश्यक है। उनके बिना प्राकृत भाषा संस्कृत आश्रित बन जाती है । इसी आधार पर कुछ विद्वानों ने प्राकृत को संस्कृत से अर्वाचीन बतलाया। प्राकृत का विशाल स्वरूप देशी शब्दों का भण्डार है । उनका सम्बन्ध प्राचीनतम जनभाषा से है। प्रस्तुत देशी शब्दकोश में कुछ शब्द कन्नड़ और तमिल के भी हैं, मराठी आदि भाषाओं के तो हैं ही। उत्तर और दक्षिण की सभी भाषाओं के शब्द आगम साहित्य में मिलते हैं । कुछ शब्द यूनान आदि विदेशी भाषाओं के भी संदृब्ध
प्रस्तुत देशी शब्दकोश में आगम, नियुक्ति, भाष्य, चूणि और टीका आदि में प्रयुक्त देशी शब्दों का संकलन किया गया है। आगम के व्याख्याकारों ने स्थान-स्थान पर देशी शब्दों का प्रयोग किया है और वे किस अर्थ में देशी हैं, इसका उल्लेख भिन्न-भिन्न शब्दावलियों में किया है। कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं
अतिराउल इति देशीपदं स्वामीकुलमित्यर्थः । अविहाड–देशीभाषया बालकः । आइंति (अव्यय) देशभाषायाम् । आरनाल--कंजियं देसीभासाए आरनाल भण्णति । उअपोते-देशीपदत्वात् आकीर्णे। उंड-देशीवयणतो उंडं मुहं । उग्गह- इति जोणिदुवारस्स सामइकी संज्ञा । उग्घाडपोरिसि- समयभाषया पादोनप्रहरे।
अमाघाय -अमारिरूढिशब्दत्वात् ।
प्रस्तुत ग्रन्थ में आचार्य हेमचन्द्र की देशी नाममाला का भी अविकल संकलन किया गया है। अंगविज्जा आदि अन्य स्रोतों से भी देशी शब्दों का संग्रहण किया है । इसके मूल में लगभग दस हजार से भी अधिक शब्द संगृहीत हैं । आगम संपादन के साथ शब्दकोश की जो योजना है, उसके अन्तर्गत तीन कोश पहले प्रकाशित हो चुके हैं
१. आगम शब्दकोश २. एकार्थक कोश
३. निरुक्त कोश १. देशी नाममाला, आचार्य हेमचन्द्र, १३,४ ।
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यह देशी शब्दकोश चतुर्थ कोश है। यह आगम तथा प्राकृत भाषा के अध्ययन के लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण और उपयोगी है। इसमें आगमकारों के व्यापक दृष्टिकोण, संग्राही मनोवृत्ति और अर्थाभिव्यक्ति के लिए सक्षम शब्दों के चयन की प्रवृत्ति का निदर्शन मिलता है । मुनि दुलहराजजी ने इस कार्य में अत्यधिक निष्ठापूर्ण श्रम किया है। इस कार्य में साध्वी अशोकश्री, साध्वी विमलप्रज्ञा और साध्वी सिद्धप्रज्ञा तथा समणी कुसुमप्रज्ञा ने पूर्ण योगदान किया है। श्रद्धासिक्त भाव से किया गया यह श्रम दूसरों के लिए अनुसरणीय बनेगा।
बृहद् आगम शब्दकोश का विशाल कार्य आचार्यश्री तुलसी के वाचना प्रमुखत्व में हो रहा है । उनके मार्ग-दर्शन में अनेक साधु-साध्वियां इस कार्य में संलग्न हैं। देशी शब्दकोश उसी कार्य का एक अंग है। मैं आचार्यवर के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित कर उनके ऋण से उऋण होने का प्रयत्न नहीं कर रहा हूं। यह प्रयत्न उनसे शक्ति-संबल पाने का प्रयत्न है।
प्रस्तुत ग्रन्थ में जिन साधु-साध्वियों का योग है, उन सबको साधुवाद देता हूं और मंगलकामना करता हूं कि उनका श्रम इस कार्य की प्रगति में निरन्तर नियोजित रहे । एक लक्ष्य के लिए समान गति से चलने वालों की सम-प्रवृत्ति में योगदान की परम्परा का उल्लेख व्यवहारपूर्ति मात्र है । वास्तव में यह हम सबका पवित्र कर्तव्य है और उसी का हम सबने पालन किया है।
१७ फरवरी १९८८ भिवानी (हरियाणा)
—युवाचार्य महाप्रज्ञ
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भूमिका
देशी शब्दों का प्रयोग वैदिक युग की भाषा से होता आ रहा है । ग्रामीण या जनभाषा का प्रभाव वैदिक भाषा पर परिलक्षित होता है। ब्राह्मणकाल की आर्यभाषा के तीन रूप देखे जा सकते हैं-उदीच्या, मध्यदेशीया एवं प्राच्या । उदीच्या परिनिष्ठित भाषा थी। प्राच्या भाषा पूर्व में रहने वाले बर्बर असुरवर्ग के लोगों की भाषा थी। मध्यदेशीया भाषा का स्वरूप उदीच्या और प्राच्या के बीचोबीच था। प्राचीन आर्यभाषा के इन तीनों रूपों के उदाहरण स्वरूप श्रीर, श्रील एवं श्लील- ये तीन शब्द लिए जा सकते हैं । ये तीनों शब्द क्रमशः उदीच्या, मध्यदेशीया एवं प्राच्या आर्यभाषा के माने जा सकते हैं ।
प्राकृत भाषाओं के अन्तर्गत पालि भाषा का भी एक विशिष्ट स्थान है। यह अवश्य एक बोलचाल की भाषा थी। इसे पूर्णरूपेण अकृत्रिम प्राकृत कहा जा सकता है, यद्यपि श्रीलंका एवं बर्मा जैसे देशों में इसमें कुछ कृत्रिमता भी आ गई थी, जो बर्मा में अपने प्रकर्ष को पहुंच गई थी। इसी प्रकार 'आयारो' जैसे जैन आगमों में हमें अकृत्रिम प्राकृतभाषा उपलब्ध होती है, जबकि उत्तरवर्ती प्राकृतसाहित्य में कृत्रिमता भी दिखाई पड़ती है ।
संस्कृत में शब्दों के दो विभाग किए गए हैं— व्युत्पन्न एवं अव्युत्पन्न । व्याकरण के नियमों से सिद्ध होने वाले शब्द व्युत्पन्न कहलाते हैं। जिनकी सिद्धि व्याकरण सम्मत न होकर लोक-परम्परा या व्यवहार से होती है, वे अव्युत्पन्न शब्द कहलाते हैं ।
प्राकृत वैयाकरणों द्वारा प्राकृत शब्द तीन भागों में बांटे गए हैंतत्सम, तद्भव एवं देश्य या देशी। इनमें देश्य शब्द व्युत्पत्ति-सिद्ध नहीं होते।
देशी शब्दों के निर्धारण में आचार्य हेमचन्द्र ने कुछ कसौटियां प्रस्तुत की हैं । त्रिविक्रम ने देशी शब्दों का छह विभागों में वर्गीकरण किया है । आधुनिक भाषा-वैज्ञानिकों की दृष्टि में ये कसौटियां एवं वर्गीकरण सही नहीं हैं। इन विद्वानों ने देशीशब्दों के निर्धारणार्थ कामी ऊहापोह किया है। इन विचार विमर्शों में जार्ज ग्रीयर्सन का मंतव्य काफी महत्त्वपूर्ण प्रतीत होता है। वे देशी शब्दों का संबंध आर्यों द्वारा वैदिक काल के पहले ही बोली जाने वाली जनभाषा से बताते हैं। इसके अतिरिक्त वे देशी शब्दों का संबंध
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प्रांतीय बोलियों से भी बताते हैं । वे देशी शब्दों को आर्यों और आर्येतर जातियों के आपसी आदान-प्रदान से विकसित शब्द मानते हैं । उनका यह सुदृढ़ मत है कि देशी शब्दों में अधिकतर शब्द आर्यों की ही प्रारंभिक बोलियों से लिए गए हैं । इनमें कुछ शब्द निश्चित रूप से द्रविड़ भाषाओं के हैं । द्रविड़ भाषाओं के शब्द किस रूप में देश की विभिन्न आधुनिक भाषाओं में उपलब्ध होते हैं एवं आर्य भाषा के शब्दों में कैसे परिवर्तन होते हैं इसके दो दृष्टांत हम यहां प्रस्तुत करते हैं
अड् धातु (बाधा देना) से उत्पन्न शब्द
तमिल -- अटइ
कन्नड -- अड, अड्ड
अडक
तुलु — अटक,
कुइ --
-- अड
ब्राहुई—अड् लहू न्दा-
-अड़ण्; अड़कू
पंजाबी --- अड्ना; अङ्कणा कुमौनी अड्णो
हिन्दी - अड्ना गुजराती - अड्उं; अड्वं मराठी - अणें ; अडकणे
सा धातु (खाना, भूखा रहना) से उत्पन्न शब्द
शतपथ ब्राह्मण— प्सात (मुक्त)
पालि - छात, छातक ( भूखा ), छातता ( भूख )
प्राकृत -- छाय ( भूखा )
सिंहली - सय, सा, साय ( भूख, सुखा ) ।'
इस प्रकार के अनेक शब्द उद्धृत किए जा सकते हैं जिनके आधार पर हम यह कह सकते हैं कि प्राचीन, मध्यकालीन एवं आधुनिक आर्य भाषाओं में देशी शब्द विभिन्न रूपों में प्रवेश पा गए, जिनका निर्धारण श्रम एवं गवेषणा साध्य है ।
प्रस्तुत कोश की संपादन मंडली को हम हार्दिक धन्यवाद देते हैं जिन्होंने अथाह परिश्रम पूर्वक इस विषय पर उपलब्ध सारी सामग्री का विद्वत्तापूर्ण उपयोग किया है तथा आचार्य हेमचन्द्र विरचित प्राकृत व्याकरण १. देखें- आर. एन. टर्नर : ए कोम्पेरेटिव डिक्शनरी ऑफ द इण्डो-आर्यन लेंग्वेजज ।
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एवं देशीनाममाला और इसके अतिरिक्त अन्य प्राकृत व्याकरण एवं कोशग्रंथों का यथेष्ट अनुशीलन किया है । समग्र जैन आगम तथा उन पर लिखे हुए व्याख्या-ग्रंथ-नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि, टीकाओं का सूक्ष्म एवं व्यापक परिशीलन द्वारा प्राप्त देशीशब्द भी इस कोष में संग्रहीत हैं। 'अंगविज्जा' जैसे पारिभाषिक शब्दों से परिपूर्ण ग्रंथ से भी देशी शब्दों का इसमें चयन हुआ है । स्थान स्थान पर व्याख्या-ग्रन्थों में 'देशीपदत्वात्', 'देशीवचनत्वात्', 'देशीपदं'ऐसे उल्लेख मिलते हैं, जिनका अविकल उल्लेख इस कोष में किया गया है । यह इसकी एक नवीन विशेषता है। आधुनिक विद्वानों द्वारा वैज्ञानिक ढंग से सम्पादित प्राकृत एवं अपभ्रंश साहित्य में प्राप्त देशीशब्दों का संकलन भी ध्यानपूर्वक किया गया है। देशी शब्दों के संग्रह का ऐसा सर्वाङ्गीण उपक्रम पहली बार ही हुआ है। एक ही कोश में इतनी सामग्री का उपलब्ध होना भविष्य के शोधाथियों के लिए देशी शब्दों पर गवेषणा के क्षेत्र में एक ठोस आधार प्रदान करेगा। हमारे संघ के प्रबुद्ध साधु-साध्वियों एवं समणियों के सम्मिलित प्रयास से ही यह महान कार्य सम्पन्न हो सका है। सम्मिलित प्रयत्न के बिना ऐसे ग्रंथों का निर्माण होना संभव नहीं है।
विविध कोश-निर्माण की मौलिक कल्पना परमाराध्य आचार्यश्री एवं युवाचार्यश्री की प्रतिभा की देन है। फलस्वरूप तीन महत्त्वपूर्ण कोश हमारे सामने आ चुके हैं। उसी क्रम में यह देशी शब्दकोश चतुर्थ है। यह धारा अविच्छिन्न है, एवं भविष्य में कई और अधिक उपयोगी कोश विद्वानों के समक्ष आएंगे। परमाराध्य आचार्यश्री की आध्यात्मिक प्रेरणा से कई दुःसाध्य कार्य आसानी से सम्पन्न हो जाते हैं । उनकी आध्यात्मिक प्रेरणा का प्रभाव हम पुनः पुन: अपने जीवन में अनुभव करते हैं, जिसका शब्दों में वर्णन करना संभव नहीं है । हमारे संघ में जो साहित्यिक एवं वैचारिक क्रांति आई है उसका उद्भव-स्थान परमाराध्य आचार्यश्री की आध्यात्मिकता ही है ।।
प्रस्तुत कोश की सर्वांगीण समायोजना में मुनि दुलहराजजी का अविकल योग रहा है । मुनिश्री परम श्रद्धेय युवाचार्यश्री की साहित्यिक एवं दार्शनिक रचनाओं के सम्पादन में सतत सहयोग प्रदान करते रहे हैं । युवाचार्यश्री के सुदीर्घ सान्निध्य के फलस्वरूप मुनिश्री ने जो दक्षता प्राप्त की है उसका प्रतिफलन प्रस्तुत कोश में दृष्टिगोचर होता है।
मूल ग्रंथों से देशी शब्दों के चयन का कार्य साध्वी अशोकश्रीजी, साध्वी विमलप्रज्ञाजी, साध्वी सिद्ध प्रज्ञाजी एवं साध्वी निर्वाणश्रीजी तथा समणी कुसुमप्रजाजी ने दक्षतापूर्वक सम्पन्न किया। यह गुरुभार-वहन उनकी विद्वत्ता एवं स्थिर अध्यवसाय का ही सुपरिणाम है।
इस कोश में दो परिशिष्ट संलग्न किए गए हैं। पहले परिशिष्ट में आगम साहित्य के अतिरिक्त अनेक प्राकृत ग्रंथों तथा त्रिविक्रम के प्राकृत
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शब्दानुशासन से देशीशब्द चुने गए हैं। दूसरे परिशिष्ट में देशीधातुएं तथा धात्वादेश संकलित हैं।
प्राकृत एवं अपभ्रंश के अध्ययन-अध्यापन का क्षेत्र उत्तरोत्तर प्रसार लाभ कर रहा है। कई विश्वविद्यालयों एवं स्वतन्त्र शोध-संस्थानों में शोधछात्र एवं अध्यापकगण इस क्षेत्र को समृद्ध बना रहे हैं। हमें पूर्ण विश्वास है, प्राकृत एवं जैन शास्त्रों के अध्येताओं के लिए यह कोश लाभप्रद होगा एवं और भी अधिक शोधपूर्ण ऐसे कोशों के निर्माण की दिशा में उन्हें प्रेरित करेगा।
लाडनूं (राजस्थान) ६-३-८८
नथमल टाटिया निदेशक, अनेकांत शोधपीठ,
जैन विश्व भारती
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संपादकीय
भाषा
भाषा विचारों के आदान-प्रदान का माध्यम है। संसार के कोने-कोने में निवास करने वाले मनुष्य किसी न किसी भाषा के माध्यम से अपने विचारों का आदान-प्रदान करते हैं। भौगोलिक कारणों से मनुष्यों की भांति भाषा के भी अनेक भेद पाए जाते हैं। महाभारत में इसका स्पष्ट उल्लेख है। विद्वानों के मत से वर्तमान में १००० से अधिक जीवित भाषाएं प्रचलित हैं । इस विषय में सैकड़ों पुस्तकें भी प्रकाश में आ चुकी हैं।
ऐतिहासिक दृष्टि से भारतीय आर्यभाषाओं को तीन कालों में विभक्त किया जा सकता है१ प्राचीन भारतीय आर्यभाषा काल—इसमें वैदिक एवं लौकिक संस्कृत
आती है। २. मध्य भारतीय आर्य भाषा काल-इसमें पालि, प्राकृत एवं अपभ्रंश
भाषा का समावेश होता है। ३. आधुनिक भारतीय आर्यभाषा काल-इसमें हिन्दी, गुजराती, मराठी,
उड़िया, बंगला, असमिया, तेलगू, कन्नड़, तमिल आदि भाषाएं आती हैं । प्राकृत
प्रकृति शब्द के दो अर्थ हैं—स्वभाव और जनसाधारण । इन अर्थों के आधार पर प्राकृत शब्द के भी दो अर्थ समझे जा सकते हैं
१. जो प्रकृति स्वभाव से ही सिद्ध है, वह प्राकृत है। २. जो प्रकृति साधारण लोगों की भाषा है, वह प्राकृत है।
महाकवि वाक्पतिराज का अभिमत है कि जैसे पानी समुद्र में प्रवेश करता है और समुद्र से ही वाष्प के रूप में बाहर निकलता है। ठीक वैसे ही सब भाषाएं प्राकृत में प्रवेश करती हैं और इसी प्राकृत से सब भाषाएं निकलती हैं। इससे स्पष्ट है कि प्राकृत के आधार पर ही संस्कृत आदि का १. महाभारत, शल्यपर्व ४४६७,९८:
नानावर्मभिराच्छन्ना, नानाभाषाश्च भारत! । कुशला देशभाषासु, जल्पन्तोऽन्योन्यमीश्वराः॥ २. गउडवहो ६३ : सयलाओ इमा वाया विसंति एत्तो य ऐति वायाओ।
एंति समुदं चिय ऐति सायराओ च्चिय जलाइं॥
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विकास हुआ है ।
प्राकृत भाषा के भेदों के विषय में विद्वानों के विभिन्न मत मिलते हैं । भरत ने अपने नाट्यशास्त्र में प्राकृत की सात भाषाओं का उल्लेख किया है
१. मागधी २ अवन्तिजा
३. प्राच्या
४. शौरसेनी
संस्कृत नाटकों में विभिन्न प्राकृत भाषा की बोलियां मिलती हैं । प्रसिद्ध वैयाकरण वररुचि ने महाराष्ट्री, पैशाची, मागधी और शौरसेनीइन चार भाषाओं को प्राकृत के अन्तर्गत माना है ।
हेमचन्द्र ने इन चारों के अतिरिक्त चूलिका पैशाची, आर्ष, अर्धमागधी और अपभ्रंश का उल्लेख भी किया है । त्रिविक्रम, लक्ष्मीधर, सिंहराज, नरसिंह आदि वैयाकरणों ने हेमचन्द्र का अनुसरण किया है ।
प्राकृत भाषा के दस भेद भी मिलते हैं
१. पालि २. पैशाची
३. देशी ।
३. चूलिका पैशाची
४. अर्धमागधी
५. जैन महाराष्ट्री
५. अर्धमागधी
६. बाह्लीकी ७. दाक्षिणात्या'
मार्कण्डेय ने प्राकृत की सोलह भाषाओं का उल्लेख किया है । प्राकृत में तीन प्रकार के शब्दों का समावेश है --- १. तत्सम २. तद्भव
६. अशोकलिपि
७. शौरसेनी
८. मागधी
६. महाराष्ट्री १०. अपभ्रंश
संस्कृत-निष्ठ शब्द तत्सम हैं । ये बिना किसी रूप परिवर्तन के प्राकृत में प्रयुक्त हैं । जैसे— जल, कमल, देव आदि । संस्कृतसम', तत्तुल्य' और समान' शब्द भी तत्सम के वाचक हैं |
संस्कृत के जो शब्द वर्णागम, वर्णविकार या ध्वनि - परिवर्तन से अपना स्वरूप बदल लेते हैं, वे तद्भव हैं । जैसे - कार्य - कज्ज, ऋषभ - उसभ,
३. प्राकृतलक्षण १।१ । ४. वाग्भटालंकार २२ ।
५. नाट्यशास्त्र १७१३ ।
१. नाट्यशास्त्र १७/४८ : मागध्यवन्तिजा प्राच्या, शौरसेन्यर्धमागधी । बाह्लीका दाक्षिणात्याश्च सप्त भाषाः प्रकीर्तिताः ॥ २. नाट्यशास्त्र १७।३ : त्रिविधं तच्च विज्ञेयं नाट्ययोगे समासतः । समानशब्दं विभ्रष्टं देशागतमथापि च ॥
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वर्धमान-वड्ढमाण आदि। इसके लिए आचार्य हेमचन्द्र ने संस्कृतयोनि', वाग्भट ने तज्ज' तथा भरत ने विभ्रष्ट' शब्द का प्रयोग किया है।
देशी शब्द सामान्यतया ग्राम्य या प्रान्तीय अर्थ का वाचक है । निरुक्तकार यास्क' तथा पाणिनि' ने देशी शब्द का प्रयोग प्रान्त अर्थ में किया है।
वात्स्यायन ने कामसूत्र, विशाखदत्त ने मुद्राराक्षस, बाण ने कादंबरी तथा धनञ्जय ने दशरूपक में नाना देशों में बोली जाने वाली भाषाओं को देशी भाषा कहा है। कामसूत्र, महाभारत, नाट्यशास्त्र आदि ग्रंथों में देशभाषा शब्द से देशी भाषा का अर्थ ग्रहण किया गया है । वैयाकरण चण्ड ने देशीभाषा के अर्थ में देशीप्रसिद्ध, भरत ने देशीमत तथा देशागत शब्द का प्रयोग किया है।
अनुयोगद्वार में शब्दों को पांच भागों में विभक्त किया गया है। उनमें नपातिक शब्दों को देशी के अन्तर्गत माना जा सकता है।
संस्कृत में तीन प्रकार की शब्द सम्पदा है - रूढ़, यौगिक और मिश्र । इनमें रूढ़ शब्द देशी के अन्तर्गत आते हैं ।
__ कलिकाल सर्वज्ञ हेमचन्द्र ने देशीनाममाला में देशी शब्द को परिभाषित करते हए लिखा है--जो शब्द व्याकरण ग्रंथों में प्रकृति, प्रत्यय द्वारा सिद्ध नहीं हैं, व्याकरण से सिद्ध होने पर भी संस्कृत कोशो में प्रसिद्ध नहीं हैं तथा जो शब्द लक्षणा आदि शब्द-शक्तियों द्वारा दुर्बोध हैं और अनादि काल से लोक भाषा में प्रचलित हैं, वे सब देशी हैं । महाराष्ट्र, विदर्भ आदि नाना देशों में बोली जाने वाली नाना भाषाएं होने से देशी शब्द अनंत हैं।"
इस विशाल दृष्टिकोण के बावजूद भी उन्होंने इन अंतहीन शब्दों के संग्रहण की दुरूहता को ध्यान में रखते हुए केवल प्राकृत भाषा से सम्बन्धित शब्दों को ही देशी मानकर उनका अविकल संकलन किया है।
त्रिविक्रम के अनुसार आर्ष और देश्य शब्द विभिन्न भाषाओं के रूढ़ प्रयोग हैं। अतः इनके लिए व्याकरण की आवश्यकता नहीं है। उन्होने छह विभिन्न सूत्रों द्वारा देशी शब्दों को छह विभागों में विभक्त किया है-- १. वा पुआय्याद्या::– इसके अन्तर्गत स्वर आदि की विशेष आयोजना से उत्पन्न १. प्राकृत व्याकरण १११ । ५. अष्टाध्यायी ११११७५ । २. वाग्भटालंकार २।२।
६. अनुयोगद्वार २७० । ३. नाट्यशास्त्र १७१३ ।
७. देशीनाममाला १३,४ । ४. निरुक्त ॥१॥ ८. प्राकृतशब्दानुशासन ७: देश्यमाषं च रूढत्वात् स्वतंत्रत्वाच्च भूयसा ।
लक्ष्म मापेक्षते तस्य सम्प्रदायो हि बोधकः॥ ६. वही, ११२।१०६ ।
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शब्द आते हैं । इनकी संस्कृत पर्याय खोजी जा सकती है । जैसे- पुआई इसका अर्थ है पिशाच । इसी प्रकार ऊणंदिअं -- आनंदित, टोम्बरो आदि ।
तुम्बुरु
२. गोणाद्याः ' - ये वे देशी शब्द हैं जो प्रकृति, प्रत्यय, वर्णागम तथा वर्णविकार
से रहित होते हैं । जैसे- गोणो- गाय, वणाइ - वनराजि, आओ-पानी । ३. गहिआद्या : - इस सूत्र में शब्द निर्वचन के विषय बनते हैं तथा इनकी व्युत्पत्ति की जा सकती है । जैसे—- णंदिणी - धेनु, वइरोड - जार, अजडअनलस, संचारी - दूती ।
४. वरइत्तगास्तृनाद्यै:- इस सूत्र के अन्तर्गत वे शब्द संगृहीत हैं जो तद्धित के अनेक प्रत्ययों तथा स्वरों की विशेष आयोजना से युक्त होते हैं । जैसे— वरइत्त -- वरयिता, नूतनवर वाअड -- शुक, मइलपुत्ती - रजस्वला,
सद्दाल --- नूपुर ।
५. अपुण्णगाः क्तेन * - इस सूत्र में सारे क्त प्रत्ययान्त शब्द संगृहीत हैं । जैसे— अपुण्ण - आक्रान्त, उरुसोल्ल - प्रेरित, उक्खिण्ण-अवकीर्ण, णिसुद्ध— निपातित ।
६. झाडगास्तु देश्या: सिद्धा: ५ - इस सूत्र के अन्तर्गत वे शब्द संगृहीत हैं जो देश - विशेष में व्यवहृत होते हैं, जो सिद्ध हैं, प्रसिद्ध हैं और निष्पन्न हैं । जैसे -- झाड -- लता आदि का गहन, गोप्पी - बाला, पाणाअअ - चांडाल, सोल्लमांस |
आचार्य हेमचन्द्र ने 'गोणादयः ' - इस सूत्र के अन्तर्गत देशी शब्दों का संग्रहण किया है ।
आधुनिक भाषावैज्ञानिकों ने भी देशी के बारे में पर्याप्त चिन्तन-मनन किया है । जानबीम्स, हार्नले, जार्ज ग्रियर्सन, सुनीतिकुमारचाटुर्ज्या, पी. डी. आदि ने देशी शब्दों की स्वरूप मीमांसा की है ।
जानबीम्स का कहना है कि शब्द से व्युत्पन्न नहीं किए जा सकते, वाले आदिवासियों की भाषा से लिए विकसित होने से पहले ही स्वयं आर्यों द्वारा आविष्कृत होंगे ।"
देशीशब्द वे हैं जो किसी भी संस्कृत इसलिए वे या तो आर्यों से पूर्व रहने गए होंगे या फिर संस्कृत भाषा के
निष्कर्ष की भाषा में कहा जा सकता है कि देशी का अर्थ यह नहीं कि केवल वे शब्द जो देशविशेष में प्रचलित हों, किन्तु वे सभी शब्द देशी हैं, जिनका स्रोत संस्कृत में नहीं है चाहे फिर वे किसी देश-भाषा के क्यों न हों।
१. प्राकृतशब्दानुशासन, १।३।१०५ । २. वही, १|४|१२१ ।
४. वही ३।१।१३२ ।
५. वही ३।४।७२ ।
३. वही २।१।३० ।
७. कम्पेरेटिव ग्रामर आफ माडर्न आर्यन लेंग्वेजज, पृष्ठ १२ ।
६. प्राकृत व्याकरण २।१७४ ।
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१६ एफ. आर. हार्नले', श्री आर. जी. भण्डारकर, डॉ. पी. डी. गुणे' भी इस कथन से सहमत हैं। जार्ज ग्रियर्सन के अनुसार देशी शब्दों का संबंध वैदिक काल से पूर्व आर्यों द्वारा बोली जाने वाली जनभाषाओं से है । प्रथम प्राकृत से उद्भूत होने के कारण देशी शब्दों को तद्भव कहा जा सकता है।
ए. एन. उपाध्ये तथा पी. एल. वैद्य' ने भी देशीशब्दों की उत्पत्ति तथा उसके स्वरूप के बारे में पर्याप्त चिन्तन किया है। देशी शब्द का प्रयोजन
। प्राचीनकाल में गुरु के पास विभिन्न प्रदेशों के शिष्य दीक्षित होते थे । वे सूत्रों के गूढ़ रहस्यों को सरलता से समझ सकें, इस दृष्टि से प्रशिक्षक विभिन्न देशों में प्रचलित एक ही अर्थ के वाचक भिन्न-भिन्न शब्दों का प्रयोग करते थे। यहां दशवकालिक सूत्र का भाषा-प्रयोग विषयक एक प्रसंग द्रष्टव्य है। वहां कहा गया है कि मुनि इन संबोधनों से स्त्री को सम्बोधित न करे
हले हले त्ति अन्नेत्ति, भट्टे सामिणि गोमिणि । होले गोले वसुले ति, इत्थियं नेवमालवे ॥(७॥१६)
ये शब्द विभिन्न प्रदेशों में प्रचलित सम्बोधन-शब्दों का परिज्ञान कराते हैं । दशवकालिक सूत्र की अगस्त्यचूणि के अनुसार तरुणी स्त्री के लिए महाराष्ट्र में 'हले' एवं 'अन्ने' संबोधन का प्रयोग होता था। लाट (मध्य और दक्षिणी गुजरात) देश में 'हला' तथा 'भट्टे', गोल देश में 'गोमिणी' तथा 'होले', 'गोले', 'वसुले'-ये शब्द संबोधनरूप में प्रयुक्त होते थे। दशवकालिक सूत्र की चूर्णि में भोजन के लिए प्रयुक्त संदेण, वंजण, कुसण, जेमण आदि शब्द भिन्न-भिन्न प्रान्तों में इनके प्रचलन का संकेत देते हैं—भिण्णदेसिभासेसु जणवदेसु एगम्मि अत्थे संदेणवंजणकुसणजेमणाति भिण्णमत्थपच्चायणसमत्थमविप्पडिवत्तिरूवेण । १. कम्पेरेटिव ग्रामर आफ गौडियन लेंग्वेजेज, पृ ३६-४० । २. विल्सन फिलोलोजिकल लेक्चर्स, पृ १०६ । ३. इन्द्रोडक्शन टु कम्पेरेटिव फिलोलोजी, पु २७५-२७७ । ४. लिंग्विस्टिक सर्वे आफ इण्डिया, पृ १२७,१२८ । ५. कन्नडीज वईज इन देशी लेक्सिकन्स, जिल्द १२, पृ १७१,१७२ । ६. औब्जर्वेशन आन हेमचन्द्राज देशीनाममाला, जिल्द ८, पृ ६३-७१ । ७. दशवकालिक, अगस्त्यचूणि, पृष्ठ १९८ : हले अन्नेति मरहठ्ठसु तरुणित्थी
मामंतणं। हलेति लाडेसु । भट्टेति......."लाडेसु । सामिणित्ति सव्वदेसेसु ।
गोमिणी गोल्लविसए। होले गोले वसुले त्ति देसीए"...."। ८. दशवकालिक, जिनदासचूणि, पृष्ठ १६०
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ओदन शब्द के लिए निम्न पंक्तियां पठनीय हैं__ 'पुव्वदेसयाणं पुग्गलि ओदणो भण्णइ, लाडमरहट्ठाणं कुरो, द्रविडाणं चोरो, आंध्राणं कनायुं ।"
बहत्कल्प भाग्य में आचार्यपद के योग्य शिष्य के लिए स्पष्ट निर्देश है कि वह देशी भाषाओं के परिज्ञान के लिए बारह वर्ष तक देशाटन करे । देशाटन का प्रयोजन और उससे होने वाली निष्पत्तियों पर प्रकाश डालते हुए कहा गया है कि शास्त्रों में प्रसिद्ध शब्द जिन-जिन देशों और प्रान्तों में व्यवहृत होते हैं, देशभ्रमण के समय उन-उन देशों में उनका प्रत्यक्षीकरण हो जाता हैपयः पिच्चं नीरमित्यादयश्च शास्त्र प्रसिद्धाः शब्दास्तेषु तेषु देशेषु लोकेन तथा तथा व्यवह्रियमाणा देशदर्शनं कुर्वता प्रत्यक्षत उपलभ्यन्ते ।
दूसरी बड़ी उपलब्धि यह होती है कि सतत परिव्रजन करने वाला परिव्राजक मगध, मालव, महाराष्ट्र, लाट, कर्णाट, द्रविड, गौड, विदर्भ आदि नाना देशों की देशीभाषाओं में कुशलता प्राप्त कर लेता है। इसमें एक बड़ी सुविधा यह हो जाती है कि वह नाना देशीभाषाओं में निबद्ध सूत्रों के उच्चारण और उनके यथार्थ अर्थकथन में दक्ष बन जाता है और जब वह आचार्यपद को अलंकृत करता है तो समस्त देशीभाषाओं में निष्णात होने से अभाषिकों (केवल अपने ही प्रदेश की भाषा जानने वालों) को भी उनकी अपनी भाषा में प्रतिबोध देकर प्रवजित कर लेता है।' देशीभाषाओं के भेद
आगमों में अनेक स्थलों पर अठारह प्रकार की देशीभाषाओं का उल्लेख मिलता है। राजकुमारों को भी अठारह भाषाओं का ज्ञान कराया जात था । गणिकाएं भी इन भाषाओं में निष्णात होती थीं। ये अठारह १. दशवकालिक, जिनदासचूणि, पृष्ठ २३६ । २. बृहत्कल्पभाष्य, १२२३, टीका पृष्ठ ३८० । ३. बृहत्कल्पभाष्य, १२२६, १२३० : नाणादेसीकुसलो, नाणादेसीकयस्स सुत्तस्स । अभिलावअत्थकुसलो, होइ तओ णेण गंतव्वं ॥ कहयति अभासियाण वि, अभासिए आवि पध्वयावेइ ।
सव्वे वि तत्थ पीइं, बंधंति सभासिओ णे ति ॥ ४. औपपातिक १४६; राजप्रश्नीय, ८०६ । ५. ज्ञाताधर्मकथा, ११११८८ :
एते णं से मेहे कुमारे"... "अट्ठारसविहदेसिप्पगारभासाविसारए। ६. वही, ११३८ देवदत्ता नामं गणिया..... अट्ठारसदेसीभासाविसारया।
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देश
भाषाएं कौन-सी थीं--आगमों में इसका स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता। बृहत्कल्प भाष्य की टीका में मगध, मालव, महाराष्ट्र, लाट, कर्णाट, द्रविड़, गोड और विदर्भ आदि देशों में बोली जाने वाली भाषाओं को देशी कहा गया है। कुवलयमाला में विजयपुरी के बाजार में एकत्रित अठारह देशों के व्यापारियों के मुंह से अपने-अपने देश की भाषा के शब्द कहलवाये हैं। उनके उदाहरण इस प्रकार हैंभाषा-शब्द
अर्थ १. गोल्ल
अडड
पशुओं को हांकने का शब्द २. मध्यप्रदेश
तेरे मेरे आउ तेरे, मेरे, आओ ३. मगध
एगे ले
ऐसे ले (?) ४. अन्तर्वेद
कित्तो किम्मो ५. कीर (कश्मीर) सरि पारि ६. ढक्क (पंजाब) एहं तेह
यहां-वहां, यह-वह ७. सिन्ध
चउडय मे"
सुन्दर (?)
१. बृहत्कल्पभाष्य, टीका पृ ३८२ : नानाप्रकारा—मगध-मालव-महाराष्ट्र-लाट-कर्णाट-द्रविड-गौड-विदर्भादि
देशभवा या देशीभाषा.....। २. कुवलयमाला, पृष्ठ १५२, १५३ :
१. कसिणे णिठ्ठरवयणे बहुक-समर-भुंजए अलज्जे य ।
'अड.' ति उल्लवंते अह पेच्छइ गोल्लए तत्थ ॥ २. णय-णीइ-संधि-विग्गह-पडुए बहुजंपए य पयईए। __ 'तेरे मेरे आउ' त्ति जंपिरे मज्झदेसे य ॥ ३. णीहरिय-पोट्ट-दुव्वण्ण-मडहए-सुरय-केलि-तल्लिच्छे ।
'एगे ले' जंपुल्ले अह पेच्छइ मगहे कुमरो॥ ४. कविले पिंगलणयणे भोयणकहमेतदिण्णवावारे । ___ "कित्तो किम्मो' पिय-जंपिरे य अह अंतवेए य ॥ ५. उत्तुंग-त्थूल-धोणे कणयव्वण्णे य भार-वाहे य। _ 'सरि पारि' जंपिरे रे कोरे कुमरो पलोएइ॥ ६. दक्खिण्ण-दाण-पोरुस-विण्णाण-दया-विवज्जिय-सरीरे ।
'एहं तेहं' चवंते ढक्के उण पेच्छए कुमरो॥ ७. सललिय-मिउ-मद्दवए गंध श्व-पिए सदेसगयचित्ते । 'चउडय में' भणिरे सुहए अह सेंधवे दिळें ॥
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देश
भाषा-शब्द
अर्थ ८. मारुक (मरुदेश) अप्पां तुष्पां' हम-तुम 8. गुर्जर
णउ रे भल्ल अरे ! यह अच्छा नहीं है १०. लाट
अम्हं काउं तुम्हें हमने किया, तुमने ११. मालव
भाउय भइणी तुम्हे" तुम भाई-बहिन हो १२. कर्णाटक ___ अंडि पांडि मरे १३. ताजिक (परशियन इसि किसि मिसि'५
या अरबिक) १४. कोशल
जल तल ले१४ १५. महाराष्ट्र दिण्णले गहियल्ले१५ दिया और लिया १६- आन्ध्र
अटि पुटि रटिं६ वह जाना आना __इनमें १६ भाषाओं का उल्लेख है। शेष दो भाषाएं--ओड्री और द्राविडी होनी चाहिए। उपर्युक्त उदाहरणों में कर्णाटक की भाषा-कन्नड का उदाहरण तेलगु का-सा प्रतीत होता है।
८. बंके जडे य जड्डे बहु-भोई कढिण-पीण-सूणंगे। ____ 'अप्पां तुप्पां' भणिरे अह पेच्छइ मारुए तत्तो ॥ ६. घय-लोणिय-पुटठंगे धम्म-परे संधि-विग्गह-णिउणे ।
‘णउ रे भल्लउ' भणिरे अह पेच्छइ गुज्जरे अवरे ॥ १०. हाओलित्त-विलित्ते कय-सीमंते सुसोहिय-सुगते ।
'अम्हं काउं तुम्ह' भणिरे अह पेच्छए लाडे ॥ ११. तणु-साम-मडह-देहे कोवणए माणजीविणो रोद्दे ।
'भाउय भइणी तुम्हे' भणिरे अह मालवे दिठे ॥ १२. उक्कड-दप्पे पिय-मोहणे य रोद्दे पयंग-वित्ती य ।
'अडि पांडि मरे' भणिरे पेच्छइ कण्णाडए अण्णे ॥ १३. कुप्पास-पाउयंगे मासरुई पाण-मयण-तल्लिच्छे । ____ 'इसि किसि मिसि' भणमाणे अह पेच्छइ ताइए अवरे ॥ १४. सव्व-कला-पत्तळे माणी पियकोवणे कढिण-देहे ।
__'जल तल ले' भणमाणे कोसलए पुलइए अवरे ॥ १५. दढ-मडह-सामलंगे सहिरे अहिमाण-कलह-सीले य ।
'दिण्णल्ले गहियल्ले' उल्लविरे तत्थ मरहट्ठे ॥ १६. पिय-महिला-संगामे सुंदर-गत्ते य भोयणे रोद्दे ।
'अटि पुटि रटि' भणंते अंधे कुमरो पलोएइ॥ १७. इय अट्ठारस देसी-भासाउ पुलइऊण सिरिदत्तो ।
अण्णाइय पुलएई खस-पारस-बब्बरादीए ॥
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विभिन्न प्रांतीय सीमाओं के साथ देशी भाषाओं के उच्चारण के बारे में विशेष जानकारी देते हुए भरत मुनि ने नाट्यशास्त्र में लिखा है
गंगा और सागर के मध्यवर्ती क्षेत्रों के निवासी एकारबहुल भाषा का प्रयोग करते हैं। जैसे- भंते, समणे, महावीरे आदि । (गंगा और सागर के मध्य मगध क्षेत्र होने से यह एकारबहुल मागधी भाषा होनी चाहिए)।
विन्ध्य और सागर के मध्य जो देश हैं वहां ण के स्थान पर नकारबहुल भाषा का प्रयोग होता है । जैसे--नकर, मइकनो आदि । (यह पैशाची प्राकृत होनी चाहिए)।
सौराष्ट्र, अवन्ती और वेत्रवती नदी के उत्तरी भाग में चकारबहुल भाषा का प्रयोग होता है। (यह प्राच्या या पैशाची प्रभावित प्राकृत भाषा होनी चाहिए)।
हिमवान्, सिन्धु और सौवीर में रहने वाले लोग उकारबहुल भाषा बोलते हैं । जैसे - अप्पणु, वक्कलु, फलु आदि (अपभ्रंश प्राकृत उकारबहुल है)।
चर्मण्वती नदी के तट पर तथा अर्बुद पर्वतवर्ती क्षेत्रों में ओकार प्रधान भाषा का प्रयोग होता है । जैसे---- सुज्जो, सीसो आदि । (यह शौरसेनी प्राकृत होनी चाहिए)।
__ संस्कृत साहित्य-भाषा होने से उसमें देशी शब्दों का समावेश कम हुआ किन्तु प्राकृत जनभाषा होने के कारण उसमें देशी शब्दों का समावेश अधिक हुआ। निशीथ में भी यह उल्लेख मिलता है कि अर्धमागधी प्राकृत भाषा अठारह देशी भाषाओं से युक्त है।
__ कुवलयमाला के रचनाकार लिखते हैं कि देशी भाषा को जानने वाला व्यक्ति ही इस ग्रन्थ को पढ़े।
इसी प्रकार तरंगवई कहा, लीलावई कहा, पउमचरिउ' १. नाट्यशास्त्र, १७१५६-६३ । २. निशीथभाष्य, ३६१८, चूणि पृष्ठ २५३ :
'अट्ठारसदेसीभासाणियतं अद्धमागहं'। ३. कुवलयमाला, पृष्ठ २८१:
जो जाणइ देसीओ भासाओ लक्खणाई धाऊ य । वय-णय-गाहा छेयं, कुवलयमालं पि सो पढउ ।। ४. जेकोबी, सनत्कुमार की भूमिका, पृष्ठ १७८ :
पालित्तएण रइया वित्थरओ तस्स देसीवयणेहिं । ५. लीलावई कहा, गाहा ४१ : एमेव युद्ध जुयई मणोहरं पाययाए भासाए ।
परिवलदेसी सुलक्खं कहसु कहं दिव्व माणुसियं॥ ६. पउमचरिउ, १॥२॥३,४ :
सक्कयपाययपुलिणालंकिय देसी भासा उभय तडुज्जला।
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णायकुमारचरियं आदि के रचयिताओं ने अपने-अपने ग्रन्थों को देशी भाषा के प्रयोगों से युक्त बताया है । यद्यपि ये ग्रन्थ महाराष्ट्री प्राकृत या अपभ्रंश में रचित हैं, किन्तु इनमें देशी शब्दों की प्रचुरता है।
अपभ्रंश तथा महाराष्ट्री प्राकृत को भी अनेक विद्वानों ने देशी भाषा माना है। लीलावई कहा' तथा कुवलयमाला में कवि महाराष्ट्री प्राकृत को देशी के रूप में स्वीकार करते हैं।' महाराष्ट्र के संत कवि ज्ञानेश्वर ने भी देशी शब्द का प्रयोग मराठी के लिए किया है। शाबरभाष्य में देशी भाषा के संदर्भ में अपभ्रंश का उल्लेख हुआ है।
___ इसके अतिरिक्त और भी अनेक उल्लेख इन भाषाओं को देशी मानने के सन्दर्भ में मिलते हैं। इनसे स्पष्ट है कि देशी शब्द का प्रयोग अपभ्रंश, महाराष्ट्री तथा जनपदीय बोलियों के लिए भी होता रहा है। ये दोनों .... अपभ्रंश और महाराष्ट्री भाषाएं देशी हैं या नहीं .... इसके विषय में विद्वानों ने पर्याप्त चिन्तन किया है।
अधिक संभव लगता है कि यहां देशी या देशीशब्द का प्रयोग प्रान्त या उस देशविशेष के लिए किया हो। प्रसिद्ध भाषाविद् जूलब्लाक तथा डा० कीथ ने यह सिद्ध किया है कि अपभ्रंश देशीभाषा नहीं थी किन्तु आभीर एवं गूजरों की भाषा थी।
अपभ्रंश के आज अनेकों ग्रन्थ मिलते हैं जिनमें प्रचुर देशी शब्दों का प्रयोग हुआ है। उदाहरण के लिए डा० देवेन्द्रकुमार शास्त्री द्वारा सम्पादित 'भविसयत्तकहा तथा अपभ्रंश कथाकाव्य' पुस्तक में उल्लिखित कुछ देशी शब्दों एवं धातुओं का नीचे निर्देश किया जा रहा है -
तलाय (तलाब), हंसि (हंसिनी), संड (सांड), धीवर, अट्ठारह, चउदह, चउसट्ठि, पासु (पास), आजु (आज), मंदलु, कायरा (कायर), गवार (गंवार), अगवाणिय (अगवानी), वणिजारिय (बनजारा) आदि ।
__ इसी प्रकार इसमें देशी क्रिया-रूपों तथा सर्वनामों की भी प्रचुरता है। सर्वनाम के कुछ शब्द-रूप इस प्रकार हैं--जो, सो, ए, को, हउ, हउं, (हों), कवणु (कोन), मइं (मैं), हमारे, अम्हारिय, इह, यहि, किह (कैसे) इस, जिह (जैसे), जे, ता और जं इत्यादि।
देशी क्रियापदों के कुछ रूप----पूछिय, आयउ, तोडिय, देखेवि, लग्ग (लगे हुए) घल्लिय, ढोइय, छोडइ, पडिउ, छूट उ, हक्क दिति (हांक देते हैं), १. णायकुमारचरियं, ११ : णीसेसदेसभासउ .."चवंति। २. लीलावई कहा, गाहा १३३० :
भणियं च पियय भाए, रइयं मरहट्ठ देसी भासाए। ३. कुवलयमाला, पृष्ठ ४ : पाइयभासारइया मरहट्ठय-देसि-वण्णय-णिबद्धा। ४. भविसयत्तकहा तथा अपभ्रंश कथाकाव्य, पृष्ठ ३११ ।
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चालावहि ( चलवाये ), चलु (चलो), फिरइ, गइय, देइ, बुलावइ, खायइ, खुल्लय ( खुला हुआ ) इत्यादि ।
देशी कोशकार
आज तक कितने देशी कोशकार हुए हैं, इसका ठीक-ठीक संकलन करना इतिहास की दृष्टि से अत्यन्त दुरूह कार्य है । वर्तमान में देशी शब्दों का सबसे बड़ा कोश आचार्य हेमचन्द्र का मिलता है । त्रिविक्रम ने अपने प्राकृत शब्दानुशासन में लगभग १६०० देशी शब्दों का उल्लेख किया है । धनपाल ने पाइयलच्छीनाममाला में प्राकृत शब्दों के साथ कुछ देशी शब्दों का संग्रहण भी किया है । आचार्य हेमचन्द्र ने अनेक देशी कोशकारों का नामोल्लेख अपने ग्रन्थ - देशी नाममाला में स्थान-स्थान पर किया है। उनका संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है
अभिमानचिन्ह - इनका देशीकोश सूत्रात्मक था । इन्होंने शब्दसूची और उदाहरणों से शब्दों के अर्थ को स्पष्ट करने का प्रयास किया । इन सूत्रों की व्याख्या विद्वान् उदूखल ने की थी ।
अवन्तिसुन्दरी- - यह भी कोई विदूषी महिला थी, जिसने प्राकृत में काव्य रचना कर, उसमें अनेक देशी शब्दों को प्रयुक्त किया था । इसके विषय में पर्याप्त जानकारी नहीं है ।
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गोपाल - इन्होंने देशी शब्दकोश की श्लोकबद्ध रचना कर संस्कृत में उन शब्दों ACT अर्थ किया था । अनेक देशीकारों ने इनका उल्लेख किया है । देवराज — इन्होंने छन्दबद्ध देशीकोश की रचना की और शब्दों के अर्थ प्राकृत में दिये । इनका सम्पूर्ण कोश शब्दों की प्रकृति के आधार पर प्रकरणों में विभाजित था ।
द्रोण - इन्होंने देशीकोश की रचना अवश्य की थी और शब्दों का अर्थ प्राकृत भाषा में प्रस्तुत किया था । परन्तु उस ग्रन्थ का स्वरूप अज्ञात है । धनपाल - संभवत: पाइअलच्छीनाममाला के कर्त्ता धनपाल से ये भिन्न थे । इनका देशी कोश हेमचन्द्र के समय में प्रचलित रहा हो - ऐसी संभावना है । इनका विशेष परिचय ज्ञात नहीं है ।
पादलिप्ताचार्य - हेमचन्द्र के अनुसार ये भी देशीकोश के रचयिता थे । यह सम्भावना की जाती है कि इनके कोशगत विवरण से हेमचंद्र __ पूर्ण सहमत थे ।
राहुलक - इनके द्वारा रचित देशीकोश की कोई विश्वस्त जानकारी प्राप्त नहीं है । 'टोल' शब्द के सन्दर्भ में हेमचन्द्र इनके मत को स्वीकार कर, अन्यान्य कोशकारों के अर्थ का प्रतिषेध करते हैं । संभवतः इनका कोई कोश रहा हो ।
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शाम्ब-हेमचन्द्र इनके मत का उल्लेख करते हैं, पर इनके द्वारा रचित कोई
देशीकोश था, यह स्पष्ट नहीं है । शीलांक-हेमचन्द्र ने इनके मत का उल्लेख तीन स्थानों पर किया है । संभवतः
इन्होंने देशीकोश की रचना की थी।
इन सभी देशी कोशकारों का इतिवृत्त और काल ज्ञात नहीं है। संभवत: इन सभी कोशकारों के देशीकोश हेमचन्द्र को प्राप्त थे और उन्होंने इन सभी कोशों में रही अपर्याप्तताओं को निकालकर देशीनाममाला को समृद्ध बनाने का प्रयत्न किया है । यह तो सुनिश्चित है कि हेमचन्द्र से पूर्व प्रणीत देशी कोशों से हेमचन्द्र का प्रस्तुत देशीकोश विशिष्ट, व्यवस्थित और शब्द के सही अर्थ को प्रकट करने में सक्षम है। देशीनाममाला : एक परिचय
देशीनाममाला देशी शब्दों का विशिष्ट कोश है। आचार्य हेमचन्द्र ने इसके प्रारम्भ में लिखा है
देशी दुःसन्दर्भा प्रायः संदर्भिताऽपि दुर्बोधा ।
आचार्यहेमचन्द्रस्तत् तां संदभति विभजति च ॥
देशी शब्दों का चयन करना, उनके सन्दर्भो की समीचीनता को ढूंढना तथा उनके अर्थों के अवबोध को निश्चित करना दुरूह कार्य है।
इसकी रचना आचार्य हेमचन्द्र ने अपने व्याकरण ग्रंथ सिद्धहेमशब्दानुशासन के अष्टम अध्याय की पूर्ति के लिए की। आचार्य हेमचन्द्र ने इस कोश के दो नामों का उल्लेख किया है—देसीसहसंगहो, रयणावली।
किन्तु इन दोनों नामों के अतिरिक्त प्रत्येक अध्याय के बाद पुष्पिका में 'देशीनाममाला' नाम भी मिलता है।
इसके रचनाकाल के बारे में भी भिन्न-भिन्न मान्यताएं हैं। यह तो स्पष्ट है कि इसकी रचना आचार्य हेमचन्द्र ने सिद्ध हेमशब्दानुशासन तथा संस्कृत के कोशों-अभिधान चिंतामणि, अनेकार्थ संग्रह आदि के पश्चात् की। डा० बूलर के अनुसार देशीनाममाला की रचना वि० सं० १२१४-१५ में होनी चाहिए । यह मत विद्वानों में मान्य भी है।
__ डॉ. भयाणी ने अपने लेख में देशीनाममाला के अनेक शब्दों की संस्कृत छाया करके उनको तद्भव या तत्सम माना है। १. देशीनाममाला, ८७७ :
इय रयणावलीणामो, देसीसहाण संगहो एसो ।
वायरणसेसलेसो, रइओ सिरिहेमचन्दमुणिवइणा ॥ २. कालूगणि स्मृति ग्रंथ, संस्कृत प्राकृत जैन व्याकरण कोश की परम्परा, पृ८३-१०७॥
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प्रस्तुत कोश ग्रंथ में ८ अध्याय तथा ७८३ गाथाएं हैं। इसमें ३९७८ शब्दों का संकलन है। सभी शब्द अकारादि क्रम से संगहीत हैं। इस पर उनकी स्वोपज्ञ टीका भी है। शब्दों के अर्थावबोध के लिए उन्होंने ६३४ उदाहरण गाथाएं भी दी हैं।
आचार्य हेमचन्द्र ने शब्दों को देशी मानने की कुछेक कसौटियां दी हैं। इन कसौटियों पर सभी शब्द खरे नहीं उतरते-- यह अवधारणा व्याख्याकार रामानुज, पिशेल और बनर्जी आदि विद्वानों की है। अनेक ऐसे शब्द भी हैं जिन्हें शब्दानुशासन में संस्कृत मानकर सिद्ध किया गया है तथा जो इस कोश में भी समाविष्ट कर दिये गये हैं । डॉ. शिवमूर्ति शर्मा ने इसके तत्सम,तद्भव एवं देशीशब्दों का लेखा इस प्रकार प्रस्तुत किया है
तत्सम शब्द १००। संशययुक्त तद्भव ५२८ । गर्भित तद्भव १८५० । देशीशब्द १५०० ।
इन १५०० देशीशब्दों में से ८०० शब्द भारतीय आर्यभाषाओं में प्राप्त होते हैं तथा ७०० शब्द आर्येतर भाषाओं से संबंधित बताये जाते हैं।
_ विद्वानों का मंतव्य है कि हेमचन्द्र द्वारा दी गई कसौटियों पर केवल १५०० शब्द खरे उतरते हैं। किन्तु आचार्य हेमचन्द्र ने प्रायः प्रत्येक शब्द को देशी मानने में तर्क प्रस्तुत किया है तथा अनेक आचार्यों के मतों का उल्लेख भी किया है।
देशीनाममाला के कई शब्द संस्कृत से व्युत्पन्न किये जा सकते हैं, किन्तु अर्थ की दृष्टि से वे पूर्णतः देशी हैं। स्वयं आचार्य हेमचन्द्र ने अपनी स्वोपज्ञ वृत्ति में स्थान-स्थान पर स्पष्टीकरण दिया है तथा उन शब्दों को देशी मानने का कारण युक्तिपुरस्सर समझाया है। जैसे
व्यभिचारी अर्थ का द्योतक 'अविणयवर' शब्द संस्कृत के 'अविनयवर' शब्द से सहज व्युत्पन्न किया जा सकता है, किन्तु संस्कृत कोशों में इस अर्थ में अप्रसिद्ध होने से इसे देशी में संगृहीत किया है। अगुज्झहर-अगुह्यधर, अचिरजुवइ-अचिरयुवति आदि शब्दों की भी यही स्थिति है।'
'अण्णइअ' शब्द तृप्त अर्थ का वाचक है। इसे संस्कृत के 'अन्नचित' शब्द से निष्पन्न किया जा सकता है, किन्तु उसका अर्थ तृप्त न होकर 'अन्न से पुष्ट' होता है । अतः तृप्त अर्थ का वाचक 'अण्णइअ' शब्द देशी है।' १. देशीनाममाला का भाषा वैज्ञानिक अध्ययन, पृष्ठ ५६ । २. देशीनाममाला, १११८ वृत्ति । ३. वही, ११६ वृत्ति।
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निमीलन अर्थवाची 'अच्छिवडण' शब्द संस्कृत के 'अक्षिपतन' शब्द से निष्पन्न हो सकता है, तथापि संस्कृत में इस अर्थ में अप्रसिद्ध होने से इसे देशी में निबद्ध किया है । '
'अहिहाण' का अर्थ है – वर्णना, प्रशंसा । यह संस्कृत के अभिधान शब्द से व्युत्पन्न किया जा सकता है, किन्तु जो व्यक्ति संस्कृत से अनभिज्ञ हैं, स्वयं को प्राकृत के पंडित मानते हैं उनका ध्यान आकृष्ट करने के लिए ऐसे अनेक शब्दों का संग्रहण किया है । संस्कृत में 'अभिधान' शब्द वर्णना -- प्रशंसा के अर्थ में प्राप्त नहीं है ।
उल्लिखित संदर्भों से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि देशी शब्दों के संग्रहण में आचार्य हेमचंद्र बड़े सतर्क एवं जागरूक रहे हैं । इस विषय में उनकी दृष्टि बहुत स्पष्ट एवं विशाल थी, चिंतन युक्तियुक्त एवं गंभीर था । अन्य आचार्यों द्वारा देशी रूप में स्वीकृत होने पर भी जहां आचार्य हेमचन्द्र को कोई शब्द युक्ति संगत नहीं लगा उसे संस्कृतसम या संस्कृतभव कह कर छोड़ दिया है । जैसे
'अच्छलं अनपराध इति संस्कृतसमः । ' अच्छोडणं मृगया, अलिंजरं कुण्डम्, अमिलायं कुरण्टककुसुमम्, अच्छभल्लो ऋक्षः' इत्यपि संगृह्णन्ति । तत् संस्कृतभवत्वादस्माभिर्नोक्तम् ।
शब्दों के यथार्थ अर्थ को पकड़ना एक कठिन कार्य है । उसमें देशी शब्दों का सही ढंग से निर्णय तथा अर्थ-निर्धारण तो और भी कठिन कार्य है । देशीनाममाला में आचार्य हेमचन्द्र ने देशी शब्दों के वाचक जिन संस्कृत शब्दों का प्रयोग किया है, उनके अनेक अर्थ होते हैं, हो सकते हैं । उनको कौनसा अर्थ अभिप्रेत था - इसका प्रसंग या संदर्भ के बिना निर्णय करना अत्यंत कठिन है । यही कारण है कि देशीनाममाला के अनेक शब्दों का भ्रम - पूर्ण एवं अयथार्थ अर्थं भी कर दिया गया है । उदाहरण के लिए रामानुज स्वामी की शब्द सूची द्रष्टव्य है । उसमें कई शब्दों के अर्थ विमर्शणीय एवं संशोधनीय हैं । जैसे—---
आचार्य हेमचन्द्र ने ‘आउस' शब्द का संस्कृत अर्थ 'कूर्च' दिया है । कूर्च शब्द के दाढ़ी और कूंची — दो अर्थ होते हैं । रामानुज ने इसका अर्थ कूँची ( Brush ) किया है, किन्तु इसका वास्तविक अर्थ दाढ़ी होना चाहिए । इसके सही या गलत अर्थ का निर्णय आचार्य हेमचंद्र द्वारा प्रस्तुत इस उदाहरण गाथा से हो सकता है
१. देशीनाममाला १।३६ वृत्ति । २ . वही, १।२१ वृत्ति ।
३. वही, १२० वत्ति । ४. वही, ११३७ वृत्ति ।
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"सआयाम-आसयसेन्नं तुह पेच्छिय जाय-आउर-आलीला। आलत्थपिच्छच्छत्ते छड्डिय रिउणो अणाउसा जंति ॥ ११५३।६५ ।
___ इसमें शत्रुओं की पराजय का सुन्दर चित्रण करते हुए कहा गया है कि हे राजन् ! तुम्हारी शक्तिशाली सेना को निकट आयी जानकर युद्ध के निकटवर्ती भय से भयभीत तुम्हारे शत्रु मयूरपिच्छीनिष्पन्न छत्रों को छोड़कर बिना दाढ़ी-मूंछ वाले मर्द बनकर युद्ध-क्षेत्र से पलायन कर रहे हैं। इस वर्ण्य प्रसंग के आधार पर यह स्पष्ट है कि यहां 'आउस' का अर्थ कूची नहीं, दाढ़ी मूंछ ही होना चाहिए।
इसी प्रकार 'आहंदुर' (१।६६) शब्द का अर्थ हेमचन्द्र ने 'बाल' किया है । रामानुजस्वामी ने 'बाल' का अर्थ पूंछ (Til) किया है, जो ठीक नहीं है। निम्न उदाहरण गाथा के संदर्भ में इसका 'बालक' अर्थ उचित प्रतीत होता है
आमोरय ! सिरिआसंग ! तए आहुंदुरा करि-हरीण । मित्त-आसवण-अमित्तआलयण-दुवारेसु संघडिया ॥१॥५४॥६६॥
'हे विशेषज्ञ ! लक्ष्मी के वासगह ! तुमने मित्रों के गहद्वारों पर हाथी के बच्चों का तथा शत्रुओं के गहद्वारों पर बंदर के बच्चों का संघटन/ निर्माण किया है।'
डॉ. भयाणी का देशी शब्दों पर किया गया अनुसंधान अत्यन्त महत्वपूर्ण है। इन्होंने देशीनाममाला के शब्द-अनुक्रम में रामानुजस्वामी द्वारा दिये गए इंग्लिस अर्थों की समालोचना करते हुए १७५ शब्दों की नोंध प्रस्तुत कर उनके द्वारा कृत अर्थों को भ्रामक और अनभिप्रेत बताया है । इन्होंने इन शब्दों का अर्थ जो हेमचंद्र को अभिप्रेत था उसका निर्देश भी किया है । उनमें से कुछेक शब्द सही-गलत अर्थों के साथ इस प्रकार हैं -- मूल शब्द सही अर्थ
रामानुजकृत गलत अर्थ अच्छिविअच्छी परस्पर आकर्षण, आपसी खींचतान Mutual attraction अजराउर उष्ण
Heat आमलय नूपुर-गृह, नूपुर रखने की पेटी Dressing room आरंदर १. अनेकान्त, जनसंकुल
Not alone २. संकट, संकीर्ण
Difficulty आलीवण प्रदीपनक, प्रदीप्त अग्नि
Illuminating इंदड्ढलअ
इन्द्रोत्थान, इंद्रध्वज को हटाना Awakening Indra इरमंदिर करभ
A young elephent उअहारी दोग्घ्री, दूध दुहने वाली स्त्री
A milch cow १ स्टडीज इन हेमचन्द्राज देशीनाममाला, पृ ५७-८२ ।
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ओरं पिअ
कोटिंब
गणणाइआ
चिच्च
दोद्धिअ
माणंसी
आक्रान्त
द्रोणी, नौका चण्डी, पार्वती
कटिभाग
चर्मकूप, दृति चंद्रवधू, वीरबहूटी कीट
Seiged
A Wooden tub
An angry woman
Charming
A pore of the skin
The wife of the
moon
A cow's hoof
साहंजण
गोखरू, एक पौधा
देशी शब्दों का भाषाशास्त्रीय अध्ययन
आगम - साहित्य शब्दों का विपुल भंडार है । धार्मिक, ऐतिहासिक, सामाजिक, भौगोलिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से तो इसका महत्व है ही, किन्तु भाषाविज्ञान की दृष्टि से भी इसके अनेक शब्द तुलनीय एवं विमर्शणीय हैं । आगम में समागत अनेक देशी शब्द अर्वाचीन हिंदी, राजस्थानी, गुजराती, मराठी, कन्नड, तमिल, तेलगु भाषा के शब्दों से तुलनीय हैं ।
भाषाविज्ञान की दृष्टि से प्रत्येक शब्द के अर्थ का उत्कर्ष एवं अपकर्ष होता रहा है। डा० हजारीप्रसाद द्विवेदी के भाषा-विज्ञान सम्बन्धी ये विचार उल्लेखनीय हैं— 'शब्दों के अर्थ की ह्रास और विकास की कथा दीर्घकाल से चली आ रही है । कुछेक शब्दों के अर्थ में विकास होता है, कुछेक का ह्रास और कुछेक के अर्थ में विकार आ जाता है । 'वंश' शब्द का विकास 'बांस' अर्थ में हुआ, किन्तु कुल के अर्थ में विकास न होकर 'वंश' शब्द ही बना रहा । इसी प्रकार 'पृष्ठ' शब्द का विकास / विकार 'पीठ' अर्थ के रूप में हुआ, पर पृष्ठ ( पन्ने ) के अर्थ में नहीं हुआ । 'पन्ने' के अर्थ में पृष्ठ शब्द ही प्रयुक्त होगा, पीठ नहीं । अमुक पुस्तक का पृष्ठ कहा जाएगा, पीठ नहीं । 'सूची' शब्द वस्त्र सीने के उपकरण के रूप में 'सूई' बन गया, किन्तु 'विषय सूची' के लिए 'विषय सूई ' नहीं बन सका । इसी प्रकार शताधिक शब्दों की कहानी है ।'
किन्तु कुछ शब्द सैंकड़ों-हजारों वर्षों के बाद भी अपने मूल अर्थ को सुरक्षित रखते हैं । आगमों में 'तुप्प' शब्द का अर्थ है-चुपड़ा हुआ, घी और स्निग्ध । कन्नड भाषा में आज भी 'तुप्प' घी का वाचक है तथा मराठी में घी के लिए 'तूप' शब्द का प्रयोग होता है । इसी प्रकार चिकनाहट या तेल का वाचक 'चोप्पड' शब्द राजस्थानी एवं हिन्दी में आज भी प्रसिद्ध है । यद्यपि सभी शब्दों का भाषाशास्त्रीय अध्ययन करना संभव नहीं था कि अमुक शब्द किस भाषा से आया है, किन्तु जहां भी हमें वर्तमान में प्रचलित अन्य भाषा से संबंधित शब्दों की जानकारी मिली वहां उन शब्दों के आगे कोष्ठक में हमने उस भाषा का उल्लेख किया है । नीचे कुछेक ऐसे शब्दों के उदाहरण
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हैं जो अन्य भाषाओं में कुछ परिवर्तन से या मूल रूप में आज भी प्रयुक्त होते हैं
अक्का-बहिन (कन्नड) अच्चाइय-व्यथित (अच्चिग-व्यथा-कन्नड़) अज्जिआ--दादी (अज्जी-कन्नड, आजी-मराठी) कण्ण-गोल (कण्ण-कन्नड) गय्याल—जिद्दी (मूर्ख-कन्नड) डग्गल-घर के ऊपर का भूमितल (डागला-राजस्थानी) पत्थारी-शैया, बिछौना (पत्थारी-गुजराती, पथरणा-राजस्थानी) मग्गओ-~-पीछे (मग-मराठी) हडप्प–ताम्बूलपात्र (हडप-ताम्बूल रखने की छोटी थैली-कन्नड)
अनेक स्थलों पर तो स्वयं व्याख्याकार भी देश विशेष की भाषा या शब्द का उल्लेख करते हैं । जैसे
अण्णं इति मरहट्ठाणं आमंतणवयणं । अवसावणं लाडाणं कंजियं भण्णई । महाराष्ट्रमवोगिल्लमवाचालम् । उण्ण त्ति लाडाणं गड्डरा भण्णंति । एआवन्ती सव्वावन्ती ति एतौ द्वौ अपि शब्दौ मागधदेशीभाषाप्रसिद्ध या एतावन्तः""। लाडाणं कच्छा सा मरहट्ठयाणं भोयडा भण्णति । पेलुकरणादि लाटविषये रूतप्राणिका (पूणिका ?) महाराष्ट्रविषये सैव पेलुरित्युच्यते ।
किसी भी भाषा के विकास का महत्वपूर्ण सूत्र ग्रहणशीलता होता है। संस्कृत आदि भाषाओं के कोशग्रन्थ अन्य भाषाओं के शब्दों को ग्रहण करके ही समृद्ध बने हैं । आप्टे, मोनियर विलियम्स आदि विद्वानों ने अपने संस्कृत कोशों में अनेक देशी शब्दों का संग्रहण किया है। आप्टे के संस्कृत-इंग्लिश कोश में बर्बरीक, बर्कर, चिक्खल, लड्डू आदि शब्द संग्रहीत हैं । ये शब्द देशी कोशों में इस प्रकार हैं-बब्बरी, बक्कर, चिक्खिल्ल (चिवखल्ल), लड्डुग (लड्डुय) आदि । अर्थ दोनों कोशों में समान हैं ।
यहां डा० शिवमूर्ति का यह मंतव्य भी उल्लेखनीय है- 'कोई भी साहित्यिक भाषा लोक भाषा के स्तर से उठकर ही साहित्यिक भाषा बनती है। ऐसी स्थिति संस्कृत की भी रही है। पाणिनि जैसे वैयाकरणों ने इसका संस्कार किया। इस प्रक्रिया में कितनी ही देश्य शब्दावलि संस्कृत हो उठी। अष्टाध्यायी के उणादि प्रत्यय इसी तथ्य की ओर संकेत करते हैं । पाणिनि के समय में भी शिक्षितों की भाषा से अलग हटकर कुछ भाषाएं थीं जिन्हें
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अधिकृत विद्वानों ने प्राकृत (अशिक्षितों की ) भाषा कहा है । इस बात का समर्थन पतंजलि और भरत भी करते हैं । पाणिनि के धातु पाठ में कई धातुएं ऐसी आई हैं जिनका प्रयोग उनके पूर्व की साहित्यिक भाषा में नहीं मिलता । इनका विकास आश्चर्यजनक रूप से आधुनिक आर्य भाषाओं, विशेषतया हिंदी में मिलता है । जैसे --
बाड
बाढ
जिमु
जीमना, भोजन करना
संस्कृत में घोड़े के लिए घोटक और अश्व - ये दो शब्द मिलते हैं । स्थिति के अनुसार प्रथम लोकभाषा से आया हुआ शब्द रहा होगा और द्वितीय शिक्षितों की भाषा का शब्द रहा होगा । शिक्षितों का अश्व शब्द आज हिंदी में भी उसी वर्ग के लोगों का शब्द है, जबकि घोटक घोडअ - घोड़ा आदि रूपों में परिवर्तित होता हुआ सामान्यजनों द्वारा व्यवहृत होता है । इसी प्रकार कुत्ते के लिए कुक्कुर और श्वान, बिल्ली के लिए बिलाड़ी और मार्जारी शब्द व्यवहृत होते रहे हैं । "
गोसर्ग १।४।३ जलनीली १|१०|३८ डुल १।१०।२४
संस्कृत
अड्ड
कड्डु
वामन के मतानुसार ' जो देशी शब्द बहुत व्यापृत हों, उन्हें संस्कृत काव्यों में प्रयुक्त किया जा सकता है ।" यही कारण है कि सैंकड़ों शब्द संस्कृत कोशों एवं देशी कोशों— दोनों में हैं । जैसे— अमरकोश
अभिधानचिन्तामणि कङ्केल्लि ११३५
तरस २।६।६३ तुङ्गी २।४।१३६ दाक्षाय्य २|५|२१
हिंदी
अड़ना
कड़ा
गोस १३८ टी
गोसर्ग १३८ टी जलनीलिका ११६७
दुलि १३५३
तम्पा,
तरस ६२२
तुङ्गी १४३ टी
दाक्षाय्य १३३५
प्रखर, प्रक्षर १२५१ प्रतिसीरा ६८०
तंवा १२६६
देशीनाममाला
अंकेल्लि १७ कंकेल्लि २०१२ गोस २।६६
गोसग्ग २६६ जलणीली ३।४२ दुलि ५।४२ तंवा ५१
तरस ५३४
तुंगी ५।१४ दक्खज्ज ५|३४
पक्खरा ६।१० पडसारी ६।२२
प्रतिसीरा २६ । १२०
१. देशी नाममाला का भाषा वैज्ञानिक अध्ययन, पृष्ठ १७०-१७४ ।
२. काव्यालंकार ५।१।१३ ।
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अभिधानचिन्तामणि कोश की स्वोपज्ञवृत्ति में कहीं-कहीं शब्दों के देशी और संस्कृत — दोनों होने का स्पष्ट निर्देश भी किया गया है । यथा
(
( १३८ टी) ।
संस्कृतेऽप्येके संस्कृतेऽपि ( १४३ टी) । संस्कृतेऽपि (१०६० टी ) ।
गोसो देव्याम्; तुङ्गी देश्याम्; विस्कल्लो देश्याम्;
इसी प्रकार दोहनपात्र के अर्थ में पारी शब्द का प्रयोग शिशुपालवध ( १२०४०) और देशीनाममाला ( ६१३७ ) – दोनों में है ।
कृश अर्थ के वाचक 'छात' शब्द की भी यही स्थिति है । इस शब्द के बारे में हेमचन्द्राचार्य ने स्वयं प्रश्न उपस्थित कर उस पर पर्याप्त विमर्श किया है । वे लिखते हैं
'महाकवि माघ ने अपने संस्कृत महाकव्य शिशुपालवध में 'छात' शब्द का प्रयोग कृश अर्थ में किया है । प्रश्न होता है फिर यह शब्द देशी कैसे ? संस्कृत में 'छोंच्' धातु अंतकर्म या छेदन अर्थ में प्रयुक्त है और लोक व्यवहार में भी इसी अर्थ में प्रचलित है । इस धातु मे निष्पन्न 'छात' शब्द कृश अर्थ का वाचक नहीं बन सकता । यद्यपि धातुएं अनेकार्थक होती हैं, किंतु उनका प्रयोग लोक व्यवहार या लोक-प्रसिद्धि पर निर्भर है । कृश अर्थ में 'छात' शब्द का प्रयोग माघकवि ने ही किया है । अन्यत्र छेदन अर्थ के अतिरिक्त इसका दूसरे अर्थ में प्रयोग देखने में नहीं आया । "
देशीनाममाला में 'दुल्ल' शब्द वस्त्र के अर्थ में प्रयुक्त है। दुकूल शब्द भी वृक्ष तथा वृक्ष की छाल से निष्पन्न वस्त्र के अर्थ में देशी होना चाहिये । बाद में संस्कृत कोशों में यह शब्द सूक्ष्म रेशमी वस्त्र के अर्थ में प्रयुक्त होने लगा हो – यह अधिक संभव लगता है। नालिकेर, ताम्बूल आदि शब्द भी देशी होने चाहिये । बाद में ये शब्द संस्कृत साहित्य में स्वीकृत कर लिए गये। ऐसे अनेक देशी एवं रूढ शब्द संस्कृत भाषा की सम्पत्ति बन चुके हैं जिन्हें आज देशी कहना कठिन लगता है ।
देशी धातुएं इस कोश में अनेक देशी धातुएं परिशिष्ट २ (देशी धातु चयनिका) में संगृहीत हैं । पाठक की सुविधा की दृष्टि से हमने इन धातुओं को मूल देशी १ देशीनाममाला ३ | ३३ वृत्तिः 'छाओ बुभुक्षितः कृशश्च । ननु 'छातोदरी युवदृशां क्षणमुत्सवोऽभूत् ' ( माघ सर्ग ५ श्लोक २३ ) इत्यादी 'छा' शब्दस्य कृशार्थस्य दर्शनात् कथमयं देश्यः ? नैवम्, छेदनार्थस्यैव 'छात' शब्दस्य साधुत्वात् । न च धात्वनेकार्थता उत्तरमत्र । अनेकार्थता हि धातूनां लोकप्रसिद्ध्या । लोके च 'छात' शब्दस्य छेदनार्थं मुक्त्वा अस्यैव कवेः प्रयोगः नान्येषाम् — इत्यलं बहुना ।'
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३.४.
शब्दों के साथ न देकर इनका पृथक् संग्रहण किया है । इन धातुओं को दो भागों में विभक्त किया जा सकता है
१. देशी धातुएं ।
२. आदेश प्राप्त धातुएं ।
प्रथम कोटि की धातुओं में कहीं-कहीं व्याख्याकारों ने यह देशी वचन है, यह देशी पद है - ऐसा स्पष्ट निर्देश किया है । जैसे
आदेश प्राप्त धातुओं को कुछ विद्वानों ने तद्भव के रूप में स्वीकार किया है । हेमचन्द्राचार्य ने पूर्वाचार्यों की देशी अवधारणा को उल्लिखित कर इन्हें धात्वादेश प्रकरण में समाविष्ट किया है । वे लिखते हैं- एते चान्यैर्दशीषु पठिता अपि अस्माभिर्धात्वादेशीकृताः' - हमारे पूर्ववर्ती देशीकारों ने इन धातुओं को देशीधातुओं के रूप में संगृहीत किया है, पर हमने इन्हें आदेश प्राप्त धातुओं के रूप में ग्रहण किया है ।
किंतु आचार्य हेमचन्द्र देशीनाममाला में स्थान-स्थान पर संकेत करते हैं कि अमुक धातु हमने धात्वादेश में बता दी है, इसलिए यहां उसका कथन नहीं किया है । जैसे-
खलाहि देशीपदम पसरेत्यस्यार्थे । जूहति त्ति देशीशब्दत्वाद् आनयन्ति । णिण्णाइंति देशीपदत्वादधोगच्छति । फुराविति त्ति देशीपदमेतद् अपहारयन्ति । रूसेह त्ति देशीवच नत्वाद् गवेषयत । वाडुइत्ति देशीवचनमेतत् नश्यतीत्यर्थः । विष्फालेइ देशीवचनमेतत् पृच्छतीत्यर्थः ।
अइच्छइ, अक्कुस - गच्छति । अवक्खइ-पश्यति । अप्पाहइ- संदिशति । अल्लत्थइ - उत्क्षिपति । एते धात्वादेशेषु शब्दानुशासने अस्माभिरुक्ता इति नेहोपात्ता: । ( १।३७ वृ)
उद्घुमाइ - पूर्यते इत्यादयो धात्वादेशेष्वस्माभिरुक्ता इति ( १।११७ वृ)
( ३।१८ वृ) (३|१६ वृ)
चुलुचुलइ --- स्पन्दते इति धात्वादेशेधूक्तमिति नोक्तम् । चोप्पss - प्रक्षति इति धात्वादेशेषुक्तमिति । जूरइ खिद्यते क्रुध्यति च इति धात्वादेशेषूक्तमिति नोक्तम् । feofrees मण्डयति, टिरिटिल्लइ भ्राम्यति धात्वादेशेषूक्ताविति नोक्तौ ।
( ३५२ वृ )
उप्फालइ - कथयति नोच्यन्ते ।
( ४१३ वृ)
इन निर्देशों से यह सम्भावना की जा सकती है कि हेमशब्दानुशासन के १. प्राकृत व्याकरण ४।२ टीका ।
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धात्वादेश प्रकरण में इन धातुओं का आख्यान यदि पहले नहीं किया होता तो वे अवश्य इन्हें देशीनाममाला में देशीरूप में स्वतंत्र स्थान देते। और यह वास्तविकता भी है कि टिविडिक्क, टिरिटिल्ल आदि सैंकड़ों शब्द ऐसे हैं जिनकी समानता/तुल्यता का वहन करने वाले शब्द संस्कृत में उपलब्ध नहीं हैं। आगम-व्याख्या-ग्रंथों में आचार्य हरिभद्र, आचार्य मलयगिरि आदि व्याख्याकारों ने कई स्थानों पर आदेश प्राप्त धातुओं के देशी होने का स्पष्ट निर्देश भी किया है। जैसे—साहइ त्ति देशीवचनतः कथयति (आवहाटी १ पृ १६०) । ‘साह' धातु 'कथ' धातु के आदेशरूप में प्राप्त है।' कुछ अन्य उदाहरण इस प्रकार हैं
जोअ (दृश्) जोएइत्ति देशीवचनमेतद् निरूपयति । झोस (गवेषय्) झोसेह त्ति देशीवचनत्वाद् गवेषयत । दुरुह (आ+रुह.) आरोहणे देशी।
फव्वीह (लभ) फव्वीहामो त्ति देशीपदत्वाद् लभामहे । इसी आधार पर हमने सभी आदेश प्राप्त धातुओं को देशी धातु के अन्तर्गत रखा है। यद्यपि अनेक आदेश ऐसे हैं जिनका संस्कृत रूप संभव है, वे देशी जैसे प्रतीत भी नहीं होते, जैसे- भऊ को 'सूड' आदेश होता है। सूदन विनाश के अर्थ में संस्कृत में भी प्रसिद्ध है, किन्तु आदेशप्राप्त होने से इसे देशी के अन्तर्गत रखा है। इसी प्रकार 'दुमण' शब्द दून् धातु का आदेशप्राप्त रूप है।
देशी धातुओं के पृथक् संग्रहण के संदर्भ में आचार्य हेमचन्द्र का अभिमत विशेष ज्ञातव्य है। उनका मन्तव्य है कि देशी शब्दसंग्रह में धात्वादेशप्रकरण का संग्रह उचित नहीं है, क्योंकि देशीसंग्रह में उन्हीं शब्दों का ग्रहण उचित है जिनका अर्थ सिद्ध या प्रसिद्ध है, जो साध्यमान नहीं है। धात्वादेशों का अर्थ साध्य है, सिद्ध नहीं। दूसरी बात, त्यादि, तुम्, तव्य आदि प्रत्ययों की बहुलता के कारण धातुओं के अनेक रूप बनते हैं जिनका संग्रहण सम्भव नहीं है ।
__ देशीनाममाला में अनेक धातुमूल शब्दों का प्रयोग हुआ है। यथाआरोग्गिय, आहुडिय, आडुआलिय, आसरिअ । 'करवाना' अर्थ का सूचक 'णिच् प्रत्यय लगाने से ये नामधातु बन सकती हैं। यथा-आरोग्गं करोति आरोग्गइ । आहुडं करोति आहुडइ । आडुआलिं करोति आडुआलइ इत्यादि ।
१. प्राकृत व्याकरण, ४।२। २. देशीनाममाला, ११३७ वृत्तिः 'न च धात्वादेशानां देशीषु संग्रहो युक्तः। सिद्धार्थशब्दानुवादपरा हि देशी साध्यार्थपराश्च धात्वादेशाः। ते च त्यादि-तुम-तव्याविप्रत्ययैर्बहुरूपाः संग्रहीतुमशक्या इति ।'
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इस प्रकार इन नामों से धातु तथा धातु से भूतकृदन्त आदि क्रियावाचक शब्द बनाये जा सकते हैं। सर्वत्र क्रियावाची शब्दों में यह नियम लागू किया जा सकता है ।। उदाहरण के लिए कुछ अन्य शब्दों को लिया जा सकता है --- अविय (कथित), अट्ट (गत), अज्झत्थ (आगत)-यद्यपि ये तीनों शब्द क्रियावाचक भूतकृदन्त के रूप में हैं, तथापि त्यादि के रूप में इनका प्रयोग ग्रन्थों में उपलब्ध नहीं हुआ इसलिए धात्वादेश में हेमचन्द्राचार्य ने इन्हें निबद्ध
नहीं किया।
अवरुंडिय शब्द आलिंगन अर्थ में देशी है। इसके मूल में धातु है-- अवरुंड । अवरुंडइ, अवरुंडिज्जइ, अवरुंडिऊण इत्यादि क्रियापदों का प्रयोग मिलने पर भी आचार्य हेमचन्द्र ने इसे धात्वादेश प्रकरण में समाविष्ट नहीं किया, क्योंकि उनके पूर्ववर्ती आचार्यों ने भी इसे धात्वादेश में स्थान नहीं दिया।
आचार्य हेमचन्द्र अपना तर्क प्रस्तुत करते हुए कहते हैं कि अज्झस्सइ, अज्झसियं इत्यादि प्रयोगों के आधार पर अज्झस्स शब्द को धात्वादेश में ग्रहण करना चाहिए था। प्राचीन देशीसंग्रहकारों का अनुसरण करते हुए हमने इसे धात्वादेश में न लेकर अज्झस्स (आक्रुष्ट) शब्द के रूप में देशीसंग्रह में संगृहीत किया है।
__ इन शब्दों एवं धातुओं को आधार मानकर इस कोश में हमने कुछ ऐसी धातुओं का ग्रहण किया है जो अन्य शब्दकोशों में नहीं हैं । जैसे
आलंक --लंगड़ा करना, पंगु करना । आसगल-आक्रांत करना, प्राप्त करना । असर----सम्मुख आना । इंघ - सूंघना। इग्घ ----तिरस्कृत करना । इल्ल-आसिक्त करना, सींचना ।
इन धातुओं का निर्माण संग्रहण सर्वथा मनगढंत या निराधार नहीं है। हेमचन्द्राचार्य के निम्नांकित संदर्भो को इनकी आधारशिला कहा जा सकता है। 'उग्गहिय' शब्द का अर्थ है रचित, जो 'रचि' धात्वादेश से ही सिद्ध है। अर्थात् रच् धातु को 'उग्गह' आदेश हुआ है। उस उग्गह धातु से ही 'उग्गहिय' शब्द रचित अर्थ में निष्पन्न हुआ है।"
१. देशी नाममाला, ११६६ वृत्ति । २. वही, १११० वृत्ति । ३. वही, ११११ वृत्ति । ४. वही, १११३ वृत्ति। ५. प्राकृत व्याकरण, ४।६४; देशीनाममाला, १११०४ वृत्ति ।
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रम् धातु को उब्भाव आदेश होता है। इसी उब्भाव से निष्पन्न हुआ है--उब्भाविय (सुरत, रतिक्रीडा)। इसी प्रकार ऊसलिय, ऊसुंभिय (उल्लसित) शब्द उल्लस् धात्वादेश द्वारा सिद्ध है ।' पच्चद्धार और पच्चोवणी -ये दोनों क्रियाशब्द हैं । पच्चुरिअ और पच्चोवणिअ इन्हीं क्रियाशब्दों से निष्पन्न हुए हैं।
कुछ धातुमूल शब्द एवं धातुएं स्वरूप की दृष्टि से तद्भव प्रतीत होती हैं, पर अर्थ की दृष्टि से पूर्णतया देशी हैं। जैसे
आसरिअ का अर्थ है—सम्मुख आया हुआ, न कि आश्रित । आलंकिय का अर्थ है—लंगड़ा, न कि अलंकृत । गुंज का अर्थ है-हंसना, न कि गूंजना ।।
हण का अर्थ है—सुनना, न कि हिंसा करना । प्रस्तुत कोश के संकलन की प्रक्रिया
अनेक स्थलों पर आगम तथा आगमेतर ग्रंथों के व्याख्याकारों ने यह 'देशीशब्द' है ऐमा निर्देश किया है। यह निर्देश विभिन्न रूपों में मिलता
पहकरो त्ति देशीशब्दोऽयं समूहवाची । पादाभरणं लोके पागडा इति प्रसिद्धा । कप्पट्ठ समयपरिभाषया बालक उच्यते । उत्तइओ त्ति देशीपदमेतद गर्वे वर्तते । इगमवि देशीपदं क्वापि प्रदेशार्थे वर्तते । अणोरपारम्मि देशयुक्त्या अपारे । अचियत्तं देशीवचनं अप्रीत्याभिधायकम् । उप्पित्थशब्दस्त्रस्तव्याकुलवाची देशीति क्वचित् । खोल्लं देशीशब्दत्वात् कोटरम् । लोकभाषायां अंबाडी इति प्रसिद्धा । चिचइ ति देशीवचनतः खचितमित्युच्यते । चोल्लकं देशीभाषया भक्तमुच्यते । जगारीशब्देन समयभाषया रब्बा भण्यते । णगारो देसीवयणेण पायपूरणे । चेल्ललकानि देशीवचनाद् देदीप्यमानानि । चुल्लशब्दो देश्यः क्षुल्लपर्यायः ।
चुक्कारशब्दो देश्यां शब्दवाची। १. प्राकृत व्याकरण, ४।२०२; देशीनाममाला, १११४१, १४२ वृत्ति । २ देशीनाममाला, ६।२४ वृत्ति ।
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३८
निहुयं ति आर्षत्वाद् निह्नुतम् ।
प्राकृते पुष्परजः शब्दस्य तिगिछ इति निपातः देशीशब्दो वा । तुंडियं थिग्गलं देसीभासाए सामयिगी वा एस पडिभासा । fafiछ ति देशीवचनेन बुभुक्षोच्यते । दुवग्गत्ति देशीवचनत्वाद् द्वावपि ।
अमाघातो रूढिशब्दत्वाद् अमारिरित्यर्थः ।
मरहट्ठविसयभासाए वा इत्थी माउग्गामो भण्णति । सहणं ति देसी भासा सहेत्यर्थः ।
वाउप्पइयत्ति वातोत्पतिका रूढ्यावसेया ।
वालग्गपोइयातो त्ति देशीपदं वलभीवाचकम् अन्ये त्वाकाशतडागमध्यस्थितं क्षुल्लकप्रासादमेव वालग्गपोइया यत्ति देशीपदाभिधेयमाहुः । संघाडिय ति देशीपदमव्युत्पन्नमेव मित्राभिधायि ।
वियडिशब्देन लोके अटवी उच्यते ।
विसालिसेहि ति मागधदेशीयभाषया विसदृशैः । संगेल्ली समुदायः देशयोऽयं शब्दः ।
सासेरा देशीपदत्वाद् यंत्रमयी नर्तकी । साहिशब्दो राजमार्गे देशी ।
सुत्तं मदिराखोल: देशविशेषप्रसिद्धो वा कश्चिद् द्रव्यः । सुरूची रूढिगम्या आभरणविशेषः इति केचित् । हुरत्था नाम देसी भासातो बहिद्धा ।
होले त्ति निठुरमामंतणं देसीए भविलवचनमिव । होला इति देशी भाषातः समवया आमन्त्र्यते ।
प्रारम्भ में हमने प्रायः उन्हीं शब्दों का संकलन किया जहां देशी आदि का उल्लेख था, किन्तु जब आचार्य हेमचंद्र की देशीनाममाला का पारायण किया तब अनेक दृष्टियां स्पष्ट हुईं। इसलिए सभी आगम एवं व्याख्याग्रंथों का पुनः अवलोकन किया । इससे हजारों शब्द इस कोश में और जुड़ गए । यहां कुछ ऐसे उदाहरण प्रस्तुत हैं जहां हमने देशीनाममाला को आदर्श मानकर शब्दों का चयन किया है—
यद्यपि कोश में नक् समास वाले शब्दों का संग्रहण प्रायः नहीं किया जाता, किन्तु देशीनाममाला में कुछ ऐसे शब्द भी मिलते हैं । जैसे— अणच्छिआर (अच्छिन्न ), अभिखिय ( अनिंदनीय ) । इस आधार पर हमने भी ऐसे शब्दों का संकलन किया है । जैसे— अतितिण, अचोक्ख, अच्छिक्क, अजदर आदि ।
आचार्य हेमचंद्र ने ऐसे अनेक शब्दों को देशी माना है जिनकी संस्कृत छाया संभव है, किन्तु संस्कृत में वे प्रसिद्ध नहीं हैं । जैसे
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अंक (अङ्क) निकट। अक्खलिय (अस्खलित) आकुल-व्याकुल । अदंसण (अदर्शन) चोर। अमय (अमृत) चांद ।
इसी आधार पर प्रस्तुत कोश में भी अनेक शब्दों का समावेश किया गया है। जैसे--
अच्चिय (अचित) मूल्यवान् । अवतंस (अवतंस) पुरुषव्याधि नामक रोग । आयंस (आदर्श) घोड़े का आभूषण । तरमल्लिहायण (तरोमल्लिहायन) युवा । पइरिक्क (प्रतिरिक्त) एकांत ।
देशीनाममाला में इल्ल और इर प्रत्यय वाले कुछ शब्दों का संग्रहण है। जैसे--अंबिर (आम), सच्चिल्लय (सत्य), तत्तिल्ल (तत्पर); लोहिल्ल (लोभी), णच्चिर (रमणशील)। इसी आधार पर दिट्ठिल्लिय, गतिल्लिय आदि शब्दों को हमने भी देशी की कोटि में रखा है। आचार्य मलयगिरि ने पढमेल्लुग शब्द के लिए देशी का निर्देश किया है। इसलिए संभव लगता है कि किसी क्षेत्र-विशेष में इल्लादि-प्रधान शब्दों का व्यवहार अधिक प्रचलित रहा हो, उसी के आधार पर इसे देशी माना हो। 'इर', 'इल्ल' प्रत्यय से सम्बंधित हजारों शब्द आगम एवं व्याख्याग्रंथों में मिलते हैं। किन्तु सबका समावेश इसमें नहीं हो सका है।
प्राकृत शैली से जिन शब्दों का रूप परिवर्तित हो गया है, वैसे अनेक शब्द देशीनाममाला में संगृहीत हैं। हमने भी कुछ शब्द इस कोश में सम्मिलित किए हैं, जैसे-आघविय, तिगिछ' आदि ।
देशीनाममाला में राजा तथा गांव-विशेष के नाम भी देशी रूप में लिए गए हैं। राजा सातवाहन के लिए तीन शब्द आए हैं-कुंतल, चउरचिंध
और हाल तथा गुजरात के एक गांव 'मोढेरक' के लिए 'भयवग्गाम' शब्द प्रयुक्त हुआ है।
इसी आधार पर हमने भी कुछ व्यक्तियों, देशों तथा नगरों के नामों को देशी के अंतर्गत लिया है। जैसे—गोब्बर, कुडक्क, कोक्कास, तुरक्क आदि ।
__ आचार्य हेमचंद्र ने संख्यावाची शब्दों को भी देशी के अंतर्गत समाविष्ट १. आवश्यक, मलयगिरि टीका पत्र ११६ : प्रथमा एव प्रथमेल्लुका देशी
पदमेतत् । २. आघवियं ति प्राकृतशैल्या छांदसत्वाच्च गुरोः सकाशादागृहीतम् । ३. प्राकृते पुष्परजःशब्दस्य तिगिछ इति निपात: देशीशब्दो वा। .
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किया है। जैसे--पंचावण्ण, पणवण्ण (पचपन) आदि । इसी आधार पर हमने भी पण, चालीस, पणयाल, अडयाल, पणपण्ण आदि संख्यावाची शब्द लिए हैं। संख्यावाची शब्दों के अंतर्गत अडड, अडडंग, हुहुय, हुहुयंग, अवव, अववंग आदि शब्द भी महत्त्वपूर्ण हैं । ये शब्द संस्कृत कोशों में तो अप्राप्त हैं ही, अन्य परम्पराओं में भी नहीं मिलते । ये जैन गणित के विशेष पारिभाषिक शब्द हैं । अत: इन्हें देशीशब्दों के रूप में स्वीकृत किया है।
सामान्य कोशों में क्त्वा प्रत्ययांत शब्द नहीं मिलते । किन्तु हमने मूलरूप में प्रत्यय के साथ ही उन शब्दों का इस कोश में समावेश किया है। जैसे-अंगोहलेऊण, अप्पाहट्ट आदि। ऐसे शब्दों को लेने का कारण यह है कि कहीं-कहीं मूल शब्द का प्रयोग आगमों में नहीं मिलने से इन शब्दों द्वारा उन अर्थों का ज्ञान हो जाता है।
___ अनुकरणवाची शब्दों के विषय में विद्वानों में मतभेद है। कुछ इन्हें देशी मानते हैं तथा कुछ इन्हें देशी रूप में स्वीकार नहीं करते। किन्तु हमने इस कोश में अनेक अनुकरणवाची शब्दों को देशी रूप में स्वीकार किया है । जैसे-घणघणाइय, चवचव, छडछडा, छु, छुक्कारण, थिविथिविंत, दुहदुहग।
वाक्यालंकार के रूप में प्रयुक्त अव्यय भी देशी शब्दों के अंतर्गत समाविष्ट हैं । क्योंकि कहीं-कहीं टीकाकारों ने भी इन्हें देशी रूप में स्वीकार किया है । जैसे—'आई ति देशीभाषायां', 'खाइणं' ति देशीभाषया वाक्यालंकारे। प्राकृत के पादपूरक अव्ययों को भी देशी के रूप में स्वीकार किया है । जैसे - जे, मो, र, से, अदुत्तरं, बले। इनके देशी होने के कुछ प्रमाण इस प्रकार हैं
१. से शब्द: मागधदेशीप्रसिद्धो निपातस्तच्छब्दार्थः । २. ऊति णाम मरहट्ठा दिसु णादि दुगुंछिज्जति । ३. णगारो देसिवयणेण पायपूरणे । ४. वाणमिति पूरणार्थो निपात: ।
यद्यपि 'क' प्रत्यय स्वार्थ में होता है किन्तु इस कोश में मूलशब्द के साथ जहां भी स्वार्थ का द्योतक क, अ, य, ग और त आदि जुड़ गए हैं उन्हें अर्थ भिन्न न होने पर भी पृथक् रूप से ग्रहण किया है । जैसे------
अंछण, अंछणय-विस्तार । कडच्छ, कडच्छुत, कडच्छय-चम्मच । इन्हें स्वतंत्र रूप से ग्रहण करने के दो कारण हैं--
१. इन शब्दों का ग्रंथों में ऐसा प्रयोग मिलता है। अतः पाठक की सुविधा की दृष्टि से उनको अलग-अलग ग्रहण किया है। यदि साहित्य में 'कुड' शब्द की अपेक्षा 'कुडग' का प्रयोग है तो पाठक 'कुडग' शब्द ही देखना चाहेगा। आचार्य हेमचंद्र ने देशीनाममाला में कहीं-कहीं ऐसे शब्दों का निर्देश भी किया है। जैसे
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उवकययं कप्रत्ययाभावे उवकर्य सज्जितम् (१।११६ वृत्ति)। जच्छंदओ स्वच्छन्दः कप्रत्ययाभावे जच्छंदो (३।४३ वृत्ति)।
इसी प्रकार कहीं-कहीं दीर्घ-हस्व मात्रा के अंतर वाले, अ/आ/इ/उ/ग/ घ/ह के अंतर वाले तथा व्यञ्जन-द्वित्त्व वाले शब्द समानार्थक होने पर भी पृथक रूप से ग्रहण किए गए हैं । जैसे
चुडलय, चुडलि, चुडलिय, चुडली, चुडल्लि, चुडिलीय-जलती हुई लकड़ी।
गुम्मी, गुम्ही, गोमी, गोम्मी, गोम्ही-कनखजूरा। उयरिणिया, ऊरणिया, ऊरणीया-जंतु-विशेष । भिलुगा, भिलुघा, भिलुहा- भूमि की रेखा ।
२. इन्हें भिन्न ग्रहण करने का दूसरा कारण--- कभी-कभी शब्द में अ/ आ/क/य/ग आदि जुड़ने से अर्थ में बहुत भिन्नता आ जाती है । जैसे -- . ० अवल्ल-बल । अवल्लय-नौका खेने का एक उपकरण । ० उद्धच्छवि - विपरीत । उद्धच्छविअ --- सज्जित । ० उंड-१. मुख, २. ऊंडा । उंडअ-पांव में पिंड रूप में लगे उतना गहरा
कीचड़ । उंडग -- स्थण्डिल । ० पयल-नीड । पयला--निद्रा । पयलाअ - सर्प । पयल्ल - प्रसृत । ० पडिसारिअ --स्मृत । पडिसारी --यवनिका ।
इस कोश के मूलभाग में आदि नकार वाले शब्दों को नहीं रखा गया है। आगमों में जहां कहीं आदि नकार वाले शब्द प्राप्त हुए, उनके स्थान में 'ण' कर दिया गया है। क्योंकि देशी शब्दों की आदि में नकार का सर्वथा अभाव है। हेमचंद्राचार्य के मतानुसार 'देश्य प्राकृत में आदि नकार असंभव ही है। प्राकृत व्याकरण में 'वा आदौ' सूत्र के द्वारा जो वैकल्पिक आदि ण का विधान किया गया है, वह तो मात्र संस्कृत शब्दों से निष्पन्न प्राकृत शब्दों की अपेक्षा से है।
___ सामान्यतः संस्कृत या प्राकृत में उपसर्ग जुड़ने पर अर्थ परिवर्तित हो जाता है। हेमचंद्राचार्य के अभिमत में देशी शब्दों का उपसर्ग के साथ कोई स्वतंत्र सम्बंध नहीं है । जैसे—उच्छिल्ल--छिद्र (दे १/६५) । छिल्ल-छिद्र (दे ३/३५)। यहां उत्पूर्वक छिल्ल शब्द नहीं है, लेकिन छिल्ल और
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१. देशीनाममाला, ५॥६३ वृत्ति :
नकार आदयस्तु देश्याम असम्भविन एवेति न निबद्धाः। यच्च 'वा आदौ' (प्रा २२२६) इति सूत्रितम् अस्माभिः तत् संस्कृतभवप्राकृतशब्दापेक्षया न देशी अपेक्षया इति सर्वमवदातम् ।
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उच्छिल्ल—दोनों स्वतंत्र शब्द हैं। दोनों का अर्थ एक ही है-छिद्र । इसी प्रकार फेस-उप्फेस, उज्झिखिय-झिखिय आदि शब्दों की स्थिति है।'
साहित्य में हमें जो शब्द जिस रूप में प्रयुक्त मिला उसका संकलन हमने उसी रूप में किया है। जैसे- बौद्ध भिक्षु के लिए तच्चण्णिय पाठ प्रसिद्ध है, किंतु कहीं-कहीं ग्रंथों में तव्वण्णिय पाठ भी मिलता है। यहां बहुत अधिक संभावना है कि प्राचीन लिपि में च और व की समानता से तच्चण्णिय के स्थान पर तव्वण्णिय शब्द पढा गया हो। हमें दोनों रूप प्राप्त हुए हैं। अतः दोनों का संकलन कर दिया है। यह भी बहुत संभव है कि 'तव्वणिय' शब्द बौद्ध भिक्षु के अर्थ में अनेक स्थानों पर प्रचलित रहा हो। आचार्य हेमचंद्र ने 'च', 'व', 'ब' के व्यत्यय के अनेक शब्द देशीनाममाला में संग्रहीत किए हैं। जैसे -. चालवास-बालवास, चिद्दविअ-विद्दविअ, चुक्क-बुक्क, चुक्कड-बोक्कड आदि । इसी प्रकार मगदंतिया मालती के लिए प्रसिद्ध है किंतु मदगंतिया पाठ भी मिलता है । संभव है लिपिकार द्वारा वर्ण-व्यत्यय हो गया हो या इसी रूप में यह प्रचलित रहा हो ।
कल्पसूत्र में 'अवामंसा' शब्द अमावस्या के अर्थ में प्रयुक्त है । प्रथम दृष्टिपात में लगता है कि यह 'अमावस' शब्द में वर्णव्यत्यय होने से या लिपिदोष होने के कारण 'अवामंसा' रूप बन गया होगा। किंतु कल्पसूत्र की चूणि तथा टिप्पणक की सभी प्रतियो में 'अवामंसा' शब्द मिलने से लगता है कि उस समय अमावस के लिए अवामंसा शब्द ही प्रचलित रहा होगा। मुनि पुण्यविजयजी ने इस पर पर्याप्त विमर्श किया है।
'उत्तुहिय' के स्थान पर उड्डु हिय शब्द भी कहीं-कहीं मिलता है जो कि हेमचंद्राचार्य की दृष्टि में लिपिभ्रम ही है। इसी प्रकार अइरिंप-अइरिप्प, अंबसमी-अंबमसी, उत्तम्पिअ-उत्तम्मिअ, झरंक-झरंत-इन शब्दों में भी लिपिभ्रम की संभावना की जा सकती है । इस विषय में आचार्य हेमचंद्र अपना अभिमत प्रस्तुत करते हुए कहते हैं कि हो सकता है लिपिभ्रम न भी हो। १. देशीनाममाला, ११९५ वृत्ति :
न हि देशीशब्दानामुपसर्गसम्बन्धो भवति । २. कल्पसूत्र टिप्पनक, पृष्ठ १६ : विश्वेष्वपि चूादशेषु टिप्पणकादशेषु च अवामसा। इत्येव पाठो वरीवत्यते इति सम्भाध्यते तत्कालीनभाषाविदां अमावसाऽर्थको अवामंसा
शब्दोऽपि सम्मतः इति नात्राशुद्धपाठाशंका विधेयेति । ३. देशीनाममाला, १११०५ वृत्ति :
उत्तुहियं तकारसंयोगस्थाने डकारसंयोगं केचित् पठन्ति । स च लिपिभ्रम एव इति ।
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दोनों रूपों में ही शब्दों का प्रचलन रहा हो। इसमें बहुश्रुत या सर्वज्ञ ही प्रमाण
हैं ।' लिपि भ्रम के कारण कहीं-कहीं अर्थ का आमूलचूल परिवर्तन भी परिलक्षित होता है । 'पडीर' शब्द का अर्थ है - चोरणिवह अर्थात् चोरों का समूह | लिपिभ्रम के कारण किसी ने 'चोरणिवह' के स्थान पर 'बोरणिवह ' पढ़ लिया और इस संदर्भ में 'पडीर' का अर्थ बेरों (बदरी फल ) का समूह हो
गया ।
देशीनाममाला की वृत्ति में आचार्य हेमचंद्र ने अन्य आचार्यों के अर्थभेद, शब्दभेद तथा उनके मतों का भी उल्लेख किया है । जैसे—
केचित् प्रिये कायरो इत्याहुः ।
अलमलवसहो सप्ताक्षरं नामेति गोपालः । ऊसाइअं उत्क्षिप्तमिति धनपालः ।
जंबुलं मद्यभाजनमिति सातवाहनः । टोल पिशाच माहुः सर्वे शलभं तु राहुलकः । खेआलू निःसह, असहन इत्यन्ये ।
पेढालं वर्तुलमिति द्रोणः ।
पेंडारो महिषीपाल इति देवराजः ।
हमने इन सबका समावेश कोश के मूलभाग में किया है । कहीं-कहीं आचार्य हेमचंद्र ने पूर्वज
देशी कोशकारों द्वारा मान्य या प्रयुक्त देशी शब्द-संघटना के विषय में ऊहापोह किया है । जैसे--- अच्छघरुल्ल, अच्छिहरिल्ल तथा अच्छिहरुल्ल— इन तीन शब्द प्रयोगों में उन्होंने केवल 'अच्छिहरुल्ल' को अपने ग्रंथ में स्थान दिया है । शेष दो के लिए 'बहुज्ञाः प्रमाणम्' कहकर छोड़ दिया है । हमने ऐसे सभी शब्दों का संकलन किया है ।
देशी शब्द विभिन्न ग्रंथों में भिन्न-भिन्न रूप से प्रयुक्त हुए हैं व्याख्याकारों ने किसी एक रूप को मुख्य मानकर दूसरे रूपों को पाठभेद में उल्लिखित किया है । यत्र-तत्र हमने उन पाठभेदों में प्रयुक्त कुछेक देशी रूपों कोटि और पा के उल्लेख के साथ इस कोश में समाविष्ट किया है । जैसे—
उस्लग - उच्छूलग | कुंडिल्लग - कुंटुल्लिंग । फुग्गफुग्ग-फुग्गपुग्ग | मंभभूय - संभाभूय । मुंभर - भुंभल - सुंभल ।
कहीं-कहीं मूलशब्द तो हमें जैसा मिला वैसा ही रखा है, किन्तु कोष्ठक
१. देशीनाममाला १।३७ वृत्ति :
केषांचिद् भ्रमोऽभ्रमो वेति बहुदुश्वान एव प्रमाणम् ।
२. वही, ६८ वृत्ति ।
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में उसका संभावित शुद्ध रूप भी दे दिया है। जैसे
ओट्टिय (दोट्टिय, दोद्धिय ?) गोमाणसिया (गोमासणिया?) तल्लकट्ट (तल्लवत्त ?) तूमणय (णूमणय ?)
जो शब्द आगम एवं आगमेतर ग्रंथों तथा देशीनाममाला दोनों में मिले हैं, उन शब्दों के दोनों प्रमाण-स्थलों का उल्लेख किया है । जैसे
अइराणी (अंवि पृ २२३; दे ११५८) अंगुट्ठी (उसुटी प ५४; दे ११६) अणह (ज्ञा १।१८।२४; दे १११३) इसी प्रकार अणुय, पक्खरा, पडिहत्थ, पणवण्ण आदि आदि ।
अनेक स्थलों पर मूलपाठ में प्रसंग से शब्द का अर्थ भिन्न प्रतीत होता है तथा व्याख्याकार उसका भिन्न अर्थ करते हैं। ऐसी स्थिति में हमने दोनों अर्थों का सप्रमाण उल्लेख किया है। जैसे---आडोलिया । टीकाकार ने इसका अर्थ रुद्ध किया है जबकि प्रसंग से उसका अर्थ खिलौना होना चाहिए ।' कन्नड हिन्दी कोश में आदु-आडु शब्द खेलने के अर्थ में गृहीत है।
इसी प्रकार संपादकों द्वारा किए गए अर्थों पर भी हमने विमर्श किया है। निशीथचूणि का एक शब्द है अत्थभिल्ल । पादटिप्पण में इसका अर्थ शस्त्रविशेष किया गया है। शब्द के आधार पर यह अर्थ ठीक भी लगता है - अत्थ अर्थात्-अस्त्र, भिल्ल अर्थात्-भाला। वहां जंगली जानवरों के प्रसंग में यह शब्द आया है, अतः अत्थभिल्ल का अर्थ भालू होना चाहिए।
जिस किसी शब्द के एकाधिक अर्थ हैं उनमें से हमारे द्वारा निरीक्षित ग्रंथों में प्राप्त अर्थों के प्रमाण प्रस्तुत किए गये हैं। शेष अर्थ हमने 'पाइयसद्दमहण्णवो' से बिना प्रमाण के ग्रहण किए हैं, क्योंकि प्रमाण हमने उन्हीं ग्रंथों के प्रस्तुत किए हैं, जिनका हमने स्वयं निरीक्षण किया है।
इस कोश में अनेक ऐसे शब्दों का भी संग्रहण है जो देशी हैं या नहीं, इस दृष्टि से विमर्शणीय हो सकते हैं। किन्तु अन्यान्य विद्वानों तथा कोशकारों द्वारा वे देशी रूप में मान्य रहे हैं, अत: हमने उनका उसी रूप में संकलन किया है। इस संकलन का एकमात्र उद्देश्य है कि विभिन्न विद्वानों द्वारा देशीरूप में स्वीकृत सभी शब्दों की उपलब्धि एक ही ग्रन्थ में हो जाए । १. ज्ञाताधर्मकथा, १११८१८ : अप्पेगइयाणं आडोलियाओ अवहरइ, अप्पेगइ
याणं तिंदुसए अवहरइ"....। टीका पत्र २४४ : आडोलियाओ--रुद्धाः। २. निशीथचूणि २, पृष्ठ ६३ :
अदेसिको वा अडविपहेण गच्छति, तत्थ वि तरच्छ-वग्घ-अत्थभिल्लादिभयं ।
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प्रस्तुत कोश की विशेषता
एक ही अर्थ के वाचक भिन्न शब्दों के संदर्भ में अन्य कोशों की भांति 'देखो' का निर्देश न कर पाठक की सुविधा के लिए उस शब्द का अर्थ वहीं दे दिया गया है। कहीं-कहीं शब्द के अर्थ की विस्तृत जानकारी तथा तुलना की दृष्टि से दो-चार स्थानों पर 'देखो' का निर्देश भी किया है। जैसेआणंदवड-देखें वहूपोत्ति । उक्कोडभंग- देखें खोडभंग ।
___ कोशों में कहीं-कहीं एक शब्द का अर्थ देखने के लिए तीन-चार शब्द देखने पर भी अर्थ नहीं मिलता। पाइयसहमहण्णवो में अनेक स्थलों पर ऐसा हुआ है। जैसे - पज्जुसवणा देखो पज्जुसणा। पज्जुसणा देखो पज्जोसवणा। पलोहिय देखो पलोभिअ । पलोभिअ देखो पलोभविअ । रम्ह देखो रंफ । रंफ देखो रंप। अनेक स्थलों पर शब्दों के पास-पास आने से पुनरुक्ति दोष-सा प्रतीत हो सकता है किंतु सुविधा की दृष्टि से हमने सभी शब्दों का अर्थ प्राय: उनके सामने ही दे दिया है।
जहां दो समस्त शब्द एक अर्थ के वाचक हैं वहां देशी शब्द को अलग से प्रदर्शित करने के लिए . ' चिह्न लगा दिया है, जैसे-'कन्न'लइय', 'अट्टण' साला आदि ।
__इस कोश में अनेक ऐसे शब्द हैं जो अर्थ की दृष्टि से बहुत समृद्ध हैं। भिन्न-भिन्न प्रसंगों में उन शब्दों के भिन्न-भिन्न अर्थ मिलते हैं। जैसे-अव्वो, कडिल्ल, भंड, वल्लर आदि ।
प्रस्तुत कोश में प्रयुक्त ग्रंथों में कुछ ग्रंथ देशी शब्दों की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। जैसे--- अंगविज्जा, भगवती, आवश्यकचूणि, कुवलयमाला, नंदीचूर्णि, निशीथभाष्य एवं चूणि, व्यवहार भाष्य, बृहत्कल्पभाष्य आदि-आदि। इनमें नवीन एवं अप्रचलित देशी शब्दों का प्रयोग हुआ है। जैसे-अंबखुज्ज, अक्खु. इद्ध, चोप्प, चोरालि, तेह, वियडासय आदि ।
इस कोश में वनस्पति, जीवजंतु, आभूषण, खाद्यपदार्थ से संबंधित अनेक ऐसे शब्द हैं जो भिन्न-भिन्न क्षेत्रों से संबंधित हैं। अनेक स्थलों पर स्वयं व्याख्याकार क्षेत्र-विशेष का उल्लेख भी करते हैं । जैसे
मूयग-मूयग त्ति मेदपाटप्रसिद्धस्तणविशेषः। विरालिया- गोल्लविसए वल्ली। धरच्छ-~-मगधकं धराक्षं च रूढिगम्यम् ।
देश विशेष में प्रचलित एवं व्यवहृत होने वाले शब्द देश्य की कोटि में आते हैं। क्योंकि इनका मूलरूप न संस्कृत में मिलता है और न प्राकृत में। हमने भी अनेक ऐसे शब्दों का समावेश इसमें किया है जो क्षेत्र-विशेष से संबंधित हैं । जैसे-नारिकेल, ताम्बूल, घोडग आदि । यद्यपि ये शब्द संस्कृत
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साहित्य एवं कोशों में भी मिलते हैं, किन्तु ये शब्द क्षेत्र - विशेष में प्रचलित भाषाओं के हैं । बाद में इनका संस्कृत साहित्य में प्रयोग होने लगा । इसी प्रकार वारक/वारग शब्द संस्कृत में घड़े के लिए प्रसिद्ध है किन्तु यह शब्द मरुधर देश में मंगलघट के अर्थ में प्रसिद्ध था - 'वारकः मरुदेशप्रसिद्धनाम्ना मांगल्यघटः ।'
पणवणा सूत्र में अनेक जीव-जंतुओं एवं हुआ है । उनकी पहचान को कठिन बताते हुए देशतोऽवसेयाः । सम्प्रदायादवसेयः । लोकप्रतीतः । रूढ़िगम्यम् आदि ।
वनस्पतियों का नामोल्लेख स्वयं टीकाकार कहते हैं-
जहां हमें नाम के बारे में निश्चित जानकारी मिली उसका नामोल्लेख किया है | अन्यथा वनस्पति- विशेष, लता - विशेष, पुष्प- विशेष का उल्लेख किया है । इसी प्रकार आभूषणों के बारे में भी आभूषण - विशेष का उल्लेख किया है ।
इस कोश में ऐसे अनेक देशी शब्द संकलित हैं जो प्राचीन भारत की सभ्यता एवं संस्कृति पर प्रकाश डालते हैं । जैसे
आवाह, विवाह, आहेणग, पहेणग, गिरिजन, करडुयभत्त, मडगगिह, एमिणिआ, अण्णाण, आणंदवड, वहूपोत्ति, भोयडा आदि आदि शब्द सामाजिक रीति-रिवाजों एवं परम्पराओं के संवाहक हैं । अधिक्कमणक, अवयार, इंदड्ढलय आदि शब्द उत्सवों तथा अइराणी, इंदियाली, उंत, उयणिसय, कोटल, विंटल आदि शब्द विशेष अनुष्ठानों एवं मंत्रों के वाचक हैं ।
अप्पसत्थभ, आपुरायण, आमोसल, कंडूसी, ककितजाण, गल्लोल आदि अनेक शब्द विविध गोत्रों के वाचक हैं ।
इसी प्रकार नानाप्रकार के शिल्पकर्म, पुस्तकें, जातियां, सिक्के, यानवाहन, शस्त्र, रोग, खेल, जाल, वाद्य, वेशभूषा, खानपान, घर के अवयव, घरेलु उपकरण, पारिवारिक सम्बंध आदि के संसूचक सैंकड़ों शब्द इस कोष में संगृहीत हैं ।
अमोसली, कडजुम्म, उग्गह, अमुदग्ग, किट्टि, णिगोद, फडुग, पउट्टपरिहार आदि पारिभाषिक शब्द भी इसमें संगृहीत हैं ।
इस कोश में अनेक एकार्थक देशी शब्दों का संकलन है । जैसे—-छोटी तलाई के वाचक तीन शब्द हैं- खल्लर खिल्लूर छिल्लर शब्दा देश्या एकार्थकाः ।
इसी प्रकार और भी उदाहरण द्रष्टव्य हैं
१. विदग्ध --- छलिआ छइल्ल छप्पण्ण ।
२. मां- अल्ला अव्वा अम्मा ।
३. दुष्टघोडा - तंडीति वा गलीति वा मरालीति वा एगट्ठा ।
४. पैबंद ---पडियाणिया थिग्गलयं छंदंतो य एगट्ठ ।
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कोश परम्परा में प्राय: यह देखा जाता है कि पुल्लिग शब्द लेने के बाद उसी का स्त्रीलिंग शब्द स्वतंत्ररूप में नहीं लिया जाता। किंतु हमने स्त्रीलिंग एवं पुल्लिग दोनों प्रकार के शब्दों को संगृहीत किया है । जैसेपिल्लक-पिल्लिका, सिंगक-सिंगिका, कब्बट्ठ-कब्बट्टी आदि आदि । इनको संगृहीत करने का एक विशेष उद्देश्य यह भी था कि कहीं-कहीं शब्द में लिंगपरिवर्तन के साथ अर्थ-परिवर्तन भी हो जाता है। जैसे—हालाहल - स्वामी । हालाहला--ब्राह्मणी (कीट-विशेष)।
ओवासण, उवासणा और उपासना--ये तीनों एकार्थक हैं । इनका अर्थ है --- क्षुरकर्म । उपासना टीकाकारों द्वारा प्रयुक्त संस्कृतनिष्ठ शब्द है, किन्तु संस्कृत से अर्थ भिन्न होने के कारण यह देशी है। ऐसे अनेक संस्कृत. निष्ठ देशी शब्द इस कोश में संग्रहीत हैं। जैसे --छेलापनक, परिपूणक आदि । कोश का बाह्य स्वरूप
प्रस्तुत ग्रन्थ के मूल भाग में लगभग दस हजार देशी शब्दों का संकलन है। प्रायः शब्दों के साथ संदर्भ-स्थल भी निर्दिष्ट हैं जिससे पाठक उस अर्थ को भली-भांति हृदयंगम कर सके । जैसे
१. अंतोवगडा नाम उवस्सयस्स अभंतरं अंगणं । २. एरंडइए साणे त्ति हडक्कायितः श्वा । ३. कुब्बति निम्नं क्षाममित्यर्थः । ४. रज्जं कागिणी भण्णति ।
जहां अर्थ की स्पष्टता के लिए संदर्भ-स्थल अपेक्षित या अत्यावश्यक नहीं समझे गये, वहां केवल शब्द का अर्थ और प्रमाण का उल्लेख मात्र किया गया है।
इस देशी शब्दकोश का उद्देश्य आगम एवं उसके व्याख्या-ग्रन्थों के देशी शब्दों को संकलित करना था किन्तु कुवलयमाला, पाइयलच्छीनाममाला, प्राकृत व्याकरण एवं सेतुबंध के देशी शब्द भी मूल भाग में संकलित हैं ।
प्रस्तुत कोश के साथ दो परिशिष्ट भी संलग्न हैं। प्रथम परिशिष्ट अवशिष्ट देशी शब्दों का है । इसमें आगमेतर प्राकृत तथा अपभ्रंश ग्रन्थों के ३३८१ देशी शब्दों का समावेश है । ग्रन्थ के मूलभाग में हमने मूल ग्रन्थों का दो या तीन बार पारायण किया तथा अर्थ-निर्धारण की दृष्टि से भी मूलग्रन्थों का अनेक बार अवलोकन किया। इस परिशिष्ट में हमने मूलग्रंथ को नहीं देखा, किन्तु उनके संपादकों ने जहां अन्त में देशी शब्दों की सूची दी है, अथवा शब्दसूची में जिन शब्दों को देशीचिह्न से चिह्नित किया है, उन शब्दों का इसमें संकलन कर दिया है। पाइअसहमहण्णवो के सैंकड़ों शब्द जो कोश के मूल भाग में नहीं आए उनको भी इसी के अन्तर्गत रखा है। त्रिविक्रम के प्राकृत
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ક
शब्दानुशासन के अन्त में १६०० देशी शब्दों की सूची है । उनमें से कुछ शब्द हेमचन्द्र के देशी संग्रह में आ चुके हैं । शेष सभी शब्द इस परिशिष्ट में समाविष्ट हैं । यह ग्रंथ हमें बहुत बाद में प्राप्त हुआ अतः हम इसके शब्दों को ग्रन्थ के मूल भाग में समाविष्ट नहीं कर सके ।
समीक्षात्मक एवं आलोचनात्मक ग्रन्थों में भी यदि कहीं देशी शब्दों की सूची मिली है, उन शब्दों को भी हमने इस परिशिष्ट में सम्मिलित किया है । जैसे --- 'हरिभद्र के प्राकृत कथा साहित्य का आलोचनात्मक परिशीलन" में लेखक 'भाषा शैली और उद्देश्य ' - - अध्याय के अन्तर्गत कुछ देशी शब्दों का संकेत करते हैं । वे कहते हैं - 'यहां कुछ देशी शब्दों की तालिका दी जाती है । यद्यपि इन शब्दों में कुछ शब्दों को संस्कृत से व्युत्पन्न किया जा सकता है पर मूलतः इन शब्दों को देशी कहा गया है ।' ऐसा कह कर लेखक ने लगभग १९३ शब्दों का अर्थ सहित उल्लेख किया है, जिनमें कुछ शब्द देशीनाममाला के भी हैं । इस प्रकार जहां भी हमें देशी शब्द मिले, उनका बिना संदर्भ एवं प्रमाण के अर्थ सहित संकलन कर दिया है । इस परिशिष्ट में प्रयुक्त ग्रन्थों के नाम इस प्रकार हैं
१. मुणिचन्द कहाणयं, २. कंसवहो, ३. वज्जालम्गं, ४. हरिभद्र के प्राकृत कथा साहित्य का आलोचनात्मक परिशीलन, ५. जंबूसामिचरिउ, ६. पउमचरियं ७, आख्यानकमणिकोश, ८. अपभ्रंश काव्यधारा, ६. चउप्पन्नमहापुरिसचरियं, १०. गउडवहो, ११. वड्ढमाणचरिउं, १२. सुदंसणचरिउ, १३. रावणवह महाकाव्यम्, १४. महापुराणम्, १५. णायकुमारचरिउ, १६. पउमचरिउ - भाग १ से ३, १७. पुहविचंदचरियं १८. करकंडुचरिउ, १६. मयणपराजयचरिउ, २०. जसहरचरिउ, २१. सिरिवालचरिउ,
२२. प्राकृतशब्दानुशासन ।
इस परिशिष्ट में एकत्रित कुछेक देशीशब्द विमर्शणीय हैं । किन्तु हमने तत् तत् ग्रन्थ के विद्वान् संपादकों के चिन्तन को मान्य कर उन शब्दों का यहां अविकल संकलन कर दिया है। अधिक से अधिक देशी शब्द एक ही ग्रन्थ में प्राप्त हों, यह इस संकलन का उद्देश्य है । प्रत्येक शब्द की समीक्षा हमें अभिप्रेत नहीं रही । सुधी पाठक इस बात को ध्यान में रखें । दूसरा परिशिष्ट देशी धातुओं से सम्बन्धित है । इसमें १७४५ धातुएं हैं । हमने सन्दर्भ सहित तथा बिना सन्दर्भ वाली - दोनों प्रकार की धातुओं को साथ में ही रखा है । इनमें प्राकृत व्याकरण की सभी आदेशप्राप्त धातुओं का समावेश है तथा आगम तथा आगमेतर साहित्य में अन्य विद्वानों द्वारा मान्य देशी धातुओं का भी संकलन है । जिस संस्कृत धातु को आदेश हुआ है उसे भी कोष्ठक में दिया गया है । यह परिशिष्ट छोटा होते हुए भी व्याकरण एवं धातुज्ञान की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है ।
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पंचांग प्रणति
विक्रम संवत् २०४० । नाथद्वारा की ऐतिहासिक भूमि । मर्यादा महोत्सव की सम्पन्नता । एक गोष्ठी का आयोजन । इसका उद्देश्य था आगम के कार्य को गति देना। उसी समय आचार्य श्री ने मुझे तथा कुछ साध्वियों को लाडनूं भेजा। एक दिन ग्रन्थागार में जब मैंने साध्वियों, समणियों एवं मुमुक्षु बहिनों द्वारा किए गए आगम-कार्य के विविध पहलुओं को देखा तो चिन्तन उभरा कि इस बिखरे कार्य को समेटना आवश्यक है । उस समय तीन कोशों को सम्पन्न करने का निश्चय किया। एकार्थक कोश और निरुक्तकोश तो उसी वर्ष प्रकाश में आ गए। देशी शब्दकोश का कार्य चालू था। देशी शब्दों के चयन और अर्थ-निर्धारण के लिए शताधिक ग्रन्थों का अवलोकन आवश्यक था। अन्यान्य बाधाओं के कारण कार्य में गति नहीं आ सकी। कार्य स्थगित कर दिया गया। वि० सं० २०४३ के लाडनं चातुर्मास में फिर कार्य प्रारम्भ किया, पर उसका नैरन्तर्य नहीं रहा। वि० सं० २०४५ का पूरा वर्ष (२०४४ चैत्र शुक्ला १ से २०४५ चैत्र शुक्ला १ तक) इस कार्य की फलश्रुति/ निष्पत्ति का वर्ष रहा । इसमें कार्य की निरन्तरता और सघनता भी रही।
साध्वी अशोकश्री तथा साध्वी विमलप्रज्ञा इस कार्य में प्रारम्भ से ही संलग्न रही हैं । कुछेक अनिवार्य कारणों से इन दो वर्षों में इनकी संलग्नता व्यवहित रही, किन्तु इन दोनों की संपूर्ति कर दी साध्वी सिद्धप्रज्ञा ने । इन्होंने जिस निष्ठा, उत्साह और आनन्दप्रवणता से कार्य किया वह स्तुत्य है। शारीरिक अस्वास्थ्य के बावजूद भी इनका पूरा समय इसी कार्य में नियोजित रहा । ये तन्मना होकर कोश कार्य के प्रत्येक अवयव की संपूर्ति में संलग्न रहीं। इस कार्य से इन्होंने अपनी उपादेयता को बरकरार रखा । विधि-विधान के अनुसार आने-जाने में इन्हें एक साध्वी का सहयोग अपेक्षित था और वह अपेक्षा पूरी की साध्वी सूरजकुमारी ने । वे प्रसन्नता से इनके साथ आतीं और अपना पूरा समय आगम-स्वाध्याय में बितातीं। इनकी अनुपस्थिति में पूर्ण उत्साह एवं प्रसन्नता से सहयोग किया अस्सी वर्षीया साध्वी संवटांजी ने ।
साध्वी निर्वाणश्री ने भी प्रारम्भ में कुछेक ग्रन्थों के देशी शब्द-चयन में सहयोग दिया है।
समणी कुसुमप्रज्ञा प्रारम्भ से ही देशी शब्द-संकलन में संलग्न रही हैं। इस बार लगभग ८-१० माह का अधिकांश समय इस देशी शब्दकोश को संवारने में लगाया । कोश की समायोजना में इनका सहयोग बहुत मूल्यवान है। समणी नियोजिका मधुरप्रज्ञा ने समणी श्रुतप्रज्ञा को इनके साथ नियोजित कर इनके कार्य को सुगम बना डाला। समणी श्रुतप्रज्ञा ने अपने समय का पूरा उपयोग किया और पूर्ण प्रसन्नता और उत्साह से सहयोग दिया। इनकी अनुपस्थिति में अन्यान्य समणियों का नियोजन भी रहा और सभी ने कर्तव्य
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भावना से सहयोग किया।
मुमुक्षु बहिन निरंजना, इदु, अमिता, मधु, आशा, जतन, गुलाब आदिआदि ने देशीकोश के कार्यों की प्रतिलिपि करने तथा अन्यान्य कार्यों में पूर्ण सहयोग दिया।
यह सारा कोश कार्य के सहभागियों का स्मरणमात्र है। इन सबके सहयोग का स्मरण आत्मतोष की अनुभूति कराता है।
मैं श्रुत-परम्परा के संवाहक और संवर्धक प्राचीन आचार्यों तथा मुनिजनों के प्रति प्रणत हूं, जिन्होंने श्रुतपरम्परा को अविच्छिन्न रखने का सतत प्रयास किया है और उसे अपने ज्ञानकणों से सींचा है, विकसित किया है। उन सबकी श्रुतोपासना की ही यह फलश्रुति है कि जैन साहित्य भंडार उनके सारस्वत अवदान से भरा रहा है । उन्होंने श्रुतसागर का जो मंथन किया, वह अपूर्व है । उनकी ग्रन्थराशि से कुछेक ग्रन्थों का अवलोकन कर हमने इस कोश ग्रन्थ का निर्माण किया है । मैं सभी श्रुतसमृद्ध आचार्यों को श्रद्धासिक्त भाव से नमन करता हूं।
इसी श्रुतपरम्परा के वर्तमान संवाहक तथा त्रिविध स्थविर भूमिकाओं के धनी अक्षर पुरुष हैं----आचार्य तुलसी और युवाचार्य महाप्रज्ञ । तेरापंथ धर्मसंघ को इनका सारस्वत अवदान अपूर्व है। आगम-सम्पादन इनका शलाका-कार्य है और है साहित्यिक प्रसाद जो तन-मन का कायाकल्प करने में समर्थ है। उसी आगम-सम्पादन महाकार्य का यह कोशकार्य एक स्फूलिंग है। ऐसे स्फुलिंग अनेक हैं । आचार्य श्री ने उन स्फुलिंगों के संवाहक अनेक गुनियों, साध्वियों और समणियों को तैयार किया है और अपने इन सहस्रकरों से कार्य करवा रहे हैं। नए-नए आयामों का सर्जन, पोषण और संरक्षण इन्हीं घटकों पर आधृत है। दोनों युगपुरुषों के मार्गदर्शन ने इस बहु आयामी आगम कार्य को सुगम बनाया है और कार्य की मंथरता में भी नई निष्पत्तियों की सर्जना की है। मैं उनके इस शाश्वतिक अवदान को सहस्रशः नमन करता हूं।
तीन साध्वियों को इस कोश-कार्य में नियोजित करने और उन्हें निरंतर प्रोत्साहित करने में साध्वी प्रमुखा श्री कनकप्रभाजी का महान् योग रहा है। कोश के यात्रापथ की निविघ्न संपूर्ति में उनकी मंगलभावना बहुत ही कार्यकर रही है । मैं उनके इस भावना-योग के प्रति प्रणत हूं।
__मैं उन सभी ग्रन्थकर्ताओं, व्याख्याकारों तथा कोशकारों के प्रति अपना आभार व्यक्त करता हूं, जिनके ग्रन्थों के अवलोकन से हमारा दुरुह कार्य सुगम बना, दृष्टि परिमार्जित हुई और नए-नए उन्मेष आते रहे ।
अनेकांत शोधपीठ के डाइरेक्टर डॉ० नथमल टाटिया ने इस ग्रन्थ की भूमिका लिखकर हमें उत्साहित किया है। अभी-अभी एक मेजर आपरेशन
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से गुजरने के बावजूद भी उन्होंने समय निकाल कर भूमिका लिखी, यह उनका श्रुत-सेवा के प्रति बनी हुई श्रद्धा का ही परिणाम है। श्रुत की उपासना उनका जीवनमंत्र है। इसी मंत्र ने उन्हें अन्तर्राष्ट्रीय क्षितिज पर लाकर खड़ा किया है । मैं उनकी प्रेरणा का बहुत मूल्यांकन करता हूं।
मुनि प्रमोदकुमारजी मेरे सहयोगी हैं। वे अपने कर्तव्य-पालन के प्रति जागरूक हैं । उन्होंने मुझे अन्यान्य कार्यों से मुक्त रखकर, निरंतर इसी कार्य में संलग्न रहने का अवकाश दिया। उनका सहयोग भी स्मरणीय है।
___ इसी प्रकार मुनि सुदर्शनजी, मुनि श्रीचन्दजी 'कमल', मुनि राजेन्द्र कुमारजी, मुनि प्रशान्तकुमारजी आदि का सहयोग भी स्मृति-पटल पर अंकित है । उन सवको प्रणाम ।
अन्त में पंचांग प्रणति उन सबको जिनका प्रत्यक्ष या परोक्ष सहयोग मुझे मिला है/मिल रहा है।
-मुनि दुलहराज
वि० सं० २०४५, नूतन वर्ष का पहला दिन चैत्र शुक्ला १/२, ता. १६-३-८८ जैन विश्व भारती, लाडनूं (राजस्थान)
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प्रयुक्त ग्रन्थ सूची
अंगविज्जा-(प्राकृत टेक्स्ट सोसायटी, बनारस, सन् १९५७) । अंतकृद्दशा-(अंगसुत्ताणि भाग ३, जैन विश्व भारती, लाडनूं, सन् १९७४) । अंतकृद्दशा टीका-(आगमोदय समिति, बम्बई, सन् १९२०)। अनुत्तरोपपातिकदशा-(अंगसुत्ताणि भाग ३, जैन विश्व भारती, लाडनूं,
सन् १९७४) । अनुत्तरोपपातिकदशा टीका-(आगमोदय समिति, बम्बई, सन् १९२०) । अनुयोगद्वार-(नवसुत्ताणि (५), जैन विश्व भारती, लाडनूं, सन् १९८६) । अनुयोगद्वार चूणि-(श्री ऋषभदेव केशरीमल श्वेताम्बर संस्था, रतलाम, सन्
१९२८)। अनुयोगद्वार मलधारीया टीका-(श्री केशरबाई ज्ञानमन्दिर, पाटण,
सन् १९३६) । अनुयोगद्वार हारिभद्रीया टीका-(सेठ देवचन्द लालभाई जैन पुस्तकोद्धार,
बम्बई,संवत् १९७३) । अपभ्रंश काव्यधारा-(संपादक डॉ. प्रेमसुख जैन, डॉ. कृष्णकुमार शर्मा,
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वि. सं. २०३२)। अमरकोश- (चौखम्बा संस्कृत सिरीज, वाराणसी, सन् १९६८) । अल्पपरिचित शब्दकोश--(संपा. आचार्य आनन्द सागर सूरि, देवचन्द लालभाई
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१९४१)।
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आचारांगचूला - ( अंगसुत्ताणि भाग १, जैन विश्व भारती, लाडनूं, सन् १९७४) ।
आचारांग टीका - ( मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली, सन् १९६७८ ) । आचारांग निर्युक्ति — (मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली, सन् १९७८) । आवश्यक- ( नवसुत्ताणि ( ५ ), जैन विश्व भारती, लाडनूं, सन् १९८६) । आवश्यक चूर्णि १ - ( श्री ऋषभदेव केशरीमल श्वे. संस्था, रतलाम, सन् १९२८) ।
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आवश्यक चूर्णि २ – ( श्री ऋषभदेव केशरीमल श्वे. संस्था, रतलाम, सन् १९२९) ।
आवश्यक टिप्पणकम् - ( शाह नगीनभाई घेलाभाई जवेरी, बम्बई ) । आवश्यक निर्युक्ति-— ( भैरुलाल कन्हैयालाल कोठारी धार्मिक ट्रस्ट, बम्बई, संवत् २०३८ ) ।
आवश्यक निर्युक्तिदीपिका -- ( श्री विजयदानसूरीश्वर जैनग्रंथमाल, सूरत, सन् १९३९) ।
आवश्यक मलयगिरि टीका - (आगमोदय समिति, बम्बई, सन् १९२८ ) । आवश्यक हारिभद्रीया टीका १- ( भैरुलाल कन्हैयालाल कोठारी धार्मिक ट्रस्ट, बम्बई, संवत् २०३८ ) । (भैरुलाल कन्हैयालाल कोठारी धार्मिक ट्रस्ट, बम्बई, संवत् २०३८ ) ।
आवश्यक हारिभद्वीया टीका २
इन्ट्रोडक्शन टु कम्पेरेटिव फिलोलोजी - (सम्पा. पी. डी. गुणे ) ।
इसि भासियाई -- ( सुधर्मा ज्ञान मन्दिर, बम्बई, सन् १९६३; श्री महावीर जैन विद्यालय, बम्बई, प्रथम संस्करण, सन् १९८४) ।
उत्तराध्ययन-- ( नवसुत्ताणि ( ५ ), जैन विश्व भारती, लाडनूं, द्वितीय संस्करण, सन् १९८६ ) ।
उत्तराध्ययन चूर्णि --- (देवचन्द लालभाई, जैन पुस्तकोद्धार, बम्बई, सं. १९६३) ।
उत्तराध्ययन निर्युक्ति-- ( देवचन्द लालभाई जैन पुस्तकोद्धार, भांडागार संस्था, बम्बई, सं. १६७२, ७३ ) ।
उत्तराध्ययन शान्त्याचार्य टीका - ( देवचन्द लालभाई जैन पुस्तकोद्धार, भांडागार संस्था, बम्बई, सं. १९७२ ) । उत्तराध्ययन सुखबोधा टीका - ( पुष्पचन्द्र खेमचन्द्र, वलाद, वीर सं. २४६७) । उपासकदशा- (अंग सुत्ताणि भाग ३, जैन विश्व भारती, लाडनूं, सन् १९७४) ।
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उपासकदशा टीका- (श्री हिन्दी जैनागम प्रकाशक सुमति कार्यालय, कोटा,
सन् १९४६)। उर्दू हिन्दी शब्द कोश- (अंजुमन तरक्की उर्दू (हिंद), नई दिल्ली, सन्
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जैन पुस्तकोद्धार, सूरत, सं० १९८४) ।। ओघनियुक्ति टीका- (आगमोदय समिति, बम्बई, सन् १९१६, देवचन्द
लाल भाई जैन पुस्तकोद्धार, सूरत, सं० १९८४)। ओघनियुक्तिभाष्य---(आगमोदय समिति, बम्बई, सन् १९१६! देवचन्द
लालभाई, जैन पुस्तकोद्धार, सूरत, सन् १९८४)। ओब्जर्वेशन्स ऑन हेमचन्द्राज देशीनाममाला--(सम्पा. पी. एल. वैद्य, एनेल्स
ऑफ भण्डारकर ओरिएण्टल
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भण्डारकर ओरिएण्टल रिसर्च इन्स्टीट्यूट)। कम्पेरेटिव ग्रामर ऑफ गौडियन लेंग्वेजिज-(सम्पा. हार्नले)। कम्पेरेटिव ग्रामर ऑफ मॉडर्न आर्यन लेंग्वेजिज-(सम्पा. जान बीम्स) । करकंडचरिउ--(ले. मुनि कनकामर, सम्पा. डॉ. हीरालाल जैन, भारतीय
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विद्या भवन, बम्बई, सन् १९५६) । कुवलयमालाकहा का सांस्कृतिक अध्ययन--(सम्पा. डॉ. प्रेमसुमन जैन, प्राकृत
जैन शास्त्र एवं अहिंसा शोध-संस्थान, वैशाली, सन् १९७५) ।
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ग उडवो - ( बम्बई संस्कृत सिरीज, सं० १८८७ ) ।
गच्छाचा रपइण्णय
च उप्पन्न महापुरिसचरिय - (सम्पा. पण्डित अमृतलाल मोहनलाल भोजक, प्राकृत ग्रन्थ परिषद्, अहमदाबाद, सन् १९६१) । चं दावेज्झयपइण्णय - ( श्री महावीर जैन विद्यालय, बम्बई, प्रथम संस्करण, सन् १९८४) ।
सन्
चन्द्रप्रज्ञप्ति - ( उवंगसुत्ताणि (४) खण्ड - २, जैन विश्व भारती, लाडनूं, १९८८) ।
जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति - ( उवंगसुत्ता णि ( ४ ), खण्ड-२, जैन विश्व भारती, लाडनूं, सन् १९८८ ) ।
-(श्री महावीर जैन विद्यालय, बम्बई, प्रथम संस्करण, सन् १६८४) ।
जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति टीका - ( नगीन भाई घेलाभाई झवेरी, बम्बई, सन् १९२०) । जम्बूसामिचरिउ (सम्पादक डॉ. विमलप्रकाश जैन, भारतीय ज्ञानपीठ, सन् १९४४) ।
जसहरचरिउ (ले. महाकवि पुष्पदन्त सम्पा. डॉ. हीरालाल जैन, भारतीय ज्ञानपीठ, सन् १९७२ ) ।
जीतकल्प- ( बबलचन्द्र केशवलाल मोदी, अहमदाबाद, सं. १६६४) । जीतकल्पभाष्य --- ( बबलचन्द्र केशवलाल मोदी, अहमदाबाद, सं. १६६४ ) । जीतकल्प विषमपद व्याख्या ।
जीवाजीवाभिगम -- ( उवं गत्ताणि ( ४ ), खण्ड १, जैन विश्व भारती, लाडनूं, सन् १९८७) ।
जीवाजीवाभिगम टीका - ( देवचन्द लालभाई जैन पुस्तकोद्धार, सं. १६६५) । ज्ञाताधर्मकथा -- ( अंगसुत्ताणि भाग ३, जैन विश्व भारती, लाडनूं, सन् १९७४) ।
ज्ञाताधर्मकथा टीका - (श्री सिद्धचक्र साहित्य प्रचारक समिति, सूरत, सन् १९५२) ।
डिंगलकोश - ( सम्पादक डॉ. नारायणसिंह भाटी, राजस्थान शोध संस्थान, जोधपुर, द्वितीय संस्करण, सन् १९७८) ।
-
णायकुमारचरिउ (ले. पुष्पदन्त, सम्पा. डॉ. हीरालाल जैन, भारतीय ज्ञानपीठ, सन् १९७२ ) ।
तंदुल वेयालियपइण्णय - ( श्री महावीर जैन विद्यालय, बम्बई, प्रथम संस्करण,
सन् १९८४)।
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तित्थोगालीपइण्णय-(श्री महावीर जैन विद्यालय, बम्बई, प्रथम संस्करण,
सन् १९८४)।। तुलसी मञ्जरी-(जैन विश्व भारती, लाडनूं, सन् १९८३) । तुलसीशब्दसागर-(सम्पा. हरगोविन्द) । दशवकालिक- (जैन विश्व भारती, लाडनूं , द्वितीय संस्करण, सन् १९७४) । दशवकालिक अगस्त्यसिंहचूणि- (प्राकृत ग्रन्थ परिषद्, वाराणसी, सन्
१९७३)। दशवैकालिक चूलिका-(जैन विश्व भारती, लाडनूं, द्वितीय संस्करण;
सन् १९७४)। दशवकालिक जिनदासणि-(श्री ऋषभदेव केशरीमल श्वेताम्बर संस्था,
रतलाम, सन् १९३३)। दशवकालिक नियुक्ति-- (प्राकृत ग्रन्थ परिषद्, वाराणसी, सन् १९७३) । दशवैकालिक हारिभद्रीया टीका---(देवचन्द लालभाई जैन पुस्तकोद्धार,
सूरत)। दशाश्रुतस्कन्ध--- (नवसुत्ताणि (५), जैन विश्व भारती, लाडनूं, सन् १९८६)। दशाश्रुतस्कन्ध चूर्णि-(श्री मणिविजयजीगणिग्रन्थमाला, भावनगर,
सं.२०११)। दशाश्रुतस्कन्ध नियुक्ति-(श्री मणिविजयजीगणिग्रन्थमाला, भावनगर,
___सं. २०११)। देशीनाममाला- (संपा० आर. पिशेल, बोम्बे संस्कृत सिरीज १७, संस्कृत
विभाग, दूसरा संस्करण, सन् १९३८) । देशीनाममाला का भाषा वैज्ञानिक अध्ययन–(सम्पा. शिवमूर्ति शर्मा,
देवनागर प्रकाशन, जयपुर)। देशीशब्दसंग्रह- (संपा० बेचरदास दोशी, श्री फार्बस गुजराती सभा, मुंबई,
प्रथम संस्करण, सन् १९४७) । नंदी-(नवसुत्ताणि (५), जैन विश्व भारती, लाडनूं, सन् १९८६) । नंदी चूणि --(प्राकृत टेक्स्ट सोसायटी, बनारस, सन् १९६६)। नंदी टिप्पणक--(प्राकृत टेक्स्ट सोसायटी, बनारस, सन् १९६६) । नंदी टीका-(प्राकृत टेक्स्ट सोसायटी, बनारस, सन् १९६६) । नाट्यशास्त्र-(भरतमुनि)। निरयावलिका-(उवंगसुत्ताणि (४), खण्ड-२, जैन विश्व भारती, लाडन;
सन् १९८८)।
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निरयावलिका टीका -- (आगमोदय समिति, बम्बई ) ।
निरुक्तम् - ( यास्क ) ।
निशीथ - ( नवसुत्ताणि ( ५ ), जैन विश्व भारती, लाडनूं, सन् १६८६) । निशीथचूर्णि भाग १-४ - ( सन्मति ज्ञानपीठ, दूसरा संस्करण, सन् १९८२ ) । निशीथभाष्य - - ( सन्मति ज्ञानपीठ, दूसरा संस्करण, सन् १९८२ ) । पउमचरिउ भाग १ से ३- ( ले. स्वयम्भूदेव, सम्पा. डॉ. हरिवल्लभ चुन्नीलाल भायाणी, सिंघी जैन शास्त्र शिक्षापीठ, भारतीय विद्या भवन, बम्बई-७, वि. सं. २००६, २०१७) ।
पउमचरियं -- (सम्पा. डॉ. हर्मन जेकोबी, मुनि पुण्यविजयजी, प्राकृत ग्रन्थ परिषद्, अहमदाबाद, सन् १९६८ ) |
पंचकल्पभाष्य -- (आगमोद्धारक ग्रन्थमाला, पारडी, वि. सं. २०२८ ) । पंच वस्तु — हस्तलिखित ।
पाइयलच्छीनाममाला -- (सम्पा. बेचरदास दोशी, श्री शादीलाल जैन, बम्बई-३, सन् १९६० ) ।
पाइयसद्द महण्णवो --- ( पण्डित हरगोविन्ददास सेठ, प्राकृत ग्रन्थ परिषद्, वाराणसी, द्वितीय संस्करण, ईस्वी सन् १९६३) । पिण्डनिर्युक्ति – (देवचन्द लालभाई जैन पुस्तकोद्धार, बम्बई, सन् १९१८ ) । पिण्डनिर्युक्ति टीका -- ( देवचन्द लालभाई जैन पुस्तकोद्धार, बम्बई,
सन् १९१८ ) ।
( देवचन्द लालभाई जैन पुस्तकोद्धार, बम्बई, सन् १९१८) ।
पिण्डनिर्युक्ति भाष्य
पुहइचन्दचरियं - (ले. आचार्य शान्तिसूरि, सम्पा. मुनिश्री रमणीक विजय, प्राकृत ग्रन्थ परिषद्, अहमदाबाद, सन् १६७२ ) ।
प्रज्ञापना-- - ( उवंगसुत्ताणि (४) खण्ड- २, जैन विश्व भारती, लाडनूं, सन् १९८८) ।
प्रज्ञापना टीका -- (आगमोदय समिति, बम्बई, सन् १९१८) । प्रवचनसारोद्धार— (देवचन्द लालभाई जैन पुस्तकोद्धार, द्वितीय संस्करण, सं. १६८१) ।
प्रवचनसारोद्धार टीका - ( देवचन्द लालभाई जैन पुस्तकोद्धार, द्वितीय संस्करण,
सं. १६८१) ।
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प्रश्नव्याकरण - ( अंगसुत्ताणि भाग ३, जैन विश्व भारती, लाडनूं, सन् १६७४) ।
प्रश्नव्याकरण टीका --- ( आगमोदय समिति, बम्बई, सन् १९१९ ) । प्राकृतलक्षण -- ( चण्ड ) |
प्राकृत वर्डस् विद प्राकृत टर्मीनेशन्स -- (सम्पा. पी. एल. वैद्य ) । प्राकृतव्याकरण- ( हेमचन्द्र जैन दिवाकर दिव्यज्योति कार्यालय, ब्यावर, सं. २०१६) ।
प्राकृत शब्दानुशासन --- (त्रिविक्रमदेव, सम्पा. पी. एल. वैद्य, जैन संस्कृति संरक्षक संघ, शोलापुर, सन् १९५४) । प्राचीनकर्मग्रन्थ टीका - ( जैन आत्मानन्द सभा, भावनगर, वि. सं. १६७२ ) । बृहत्कल्प - - ( नवसुत्ताणि ( ५ ), जैन विश्व भारती, लाडनूं, सन् १९८६) । बृहत्कल्प चूर्णि - (हस्तलिखित, लाडनूं भंडार ) ।
बृहत्कल्प टीका - ( जैन आत्मानन्द सभा, भावनगर, सन् १९३६ ) । बृहत्कल्प भाष्य --- ( जैन आत्मानन्द सभा, भावनगर, सन् १९३६) । भगवती - ( अंगसुत्ताणि भाग २, जैन विश्व भारती, लाडनूं, सन् १९७४) । भगवती टीका, पत्र १ - ३२७ -- ( आगमोदय समिति, बम्बई, सन् १९१८) । भगवती टीका, पृष्ठ ६०१ - १२०८ - - ( ऋषभदेव केशरीमल श्वेताम्बर संस्था, रतलाम, द्वितीय संस्करण, सन् १९४० ) । भत्तपरिण्णापइण्णय - ( श्री महावीर जैन विद्यालय, बम्बई, द्वितीय संस्करण, सन् १९८४) ।
भविसयत्तकहा तथा अपभ्रंश कथा काव्य
-
५६
भारतीय भाषाएं - (सम्पा. कैलाशचन्द्र भाटिया, दिल्ली, सन् १९८१ ) । भाषा विज्ञान कोश - ( डॉ. भोलानाथ तिवारी ) ।
( सम्पादक देवेन्द्रकुमार शास्त्री, भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली, सन् १९७०)।
मयणपराजयचरिउ - (ले. हरिदेव, सम्पा. डॉ. हीरालाल जैन, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, सन् १९६२) ।
मरणविभत्तिपइण्णय - ( श्री महावीर जैन विद्यालय, बम्बई, प्रथम संस्करण, सन् १९८४) ।
महापच्चक्खाणपइण्णय - (श्री महावीर जैन विद्यालय, बम्बई, प्रथम संस्करण, सन् १९८४) ।
Page #61
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________________
६०
महापुराण - (ले. महाकवि पुष्पदन्त, सम्पा. परशुराम शर्मा, माणिकचन्द्र दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला समिति ) ।
महाभारत - ( भण्डारकर ओरिएण्टल रिसर्च इन्स्टीट्यूट, पूना, सन् १९६१ ) । मुणिचन्द कहाण - (सम्पा. के. आर. चन्द्र, जय भारत प्रकाशन एण्ड कं., अहमदाबाद, द्वितीय संस्करण, सन् १९७७ ) ।
-
यशस्तिलकचम्पू का सांस्कृतिक अध्ययन - (सम्पा. गोकुलचन्द्र जैन, अमृतसर) । राजप्रश्नीय --- ( उवंगसुत्ताणि ( ४ ) खण्ड १, जैन विश्व भारती, लाडनूं, सन् १९८७) ।
राजप्रश्नीय टीका - ( गूर्जर ग्रन्थरत्न कार्यालय, अहमदाबाद, वि. सं. १६६४) ।
राजस्थानी शब्दकोष -- (सम्पा. सीताराम, राजस्थानी शोध संस्थान, जोधपुर, प्रथम संस्करण, सं. २०१८) ।
. (सम्पा. डॉ. राधागोविन्द, संस्कृत कॉलेज, कलकत्ता, सन् १९५९) ।
रावण वह महाकाव्य -
लिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ इण्डिया -- (सम्पा. ग्रियर्सन ) ।
वज्जालग्गम् —— (सम्पा. माधव वासुदेव पटवर्धन, प्राकृत ग्रन्थ परिषद्, अहमदाबाद, प्रथम संस्करण, सन् १९६९ ) ।
वड्ढमाणचरिउ~~~ (सम्पादक डॉ. राजाराम जैन, भारतीय ज्ञानपीठ, सन् १९७५) ।
वाग्भटालंकार - (चौखम्बा विद्या भवन, वाराणसी, सन् १९५७) । वाचस्पत्यम् भाग ६ -- ( - ( सम्पादक तारानाथ, चौखम्बा संस्कृत सिरीज, वाराणसी, तृतीय संस्करण, सं. २०२५) ।
विपाकश्रुत - ( अंगसुत्ताणि भाग ३, जैन विश्व भारती, लाडनूं, सन् १९७४) । विपाकश्रुत टीका - ( आगमोदय समिति, बम्बई, सन् १९२० ) । विलसन्स फिलोलोजिकल लेक्चर्स - (सम्पा. श्री आर. जी भंडारकर ) । विशेषावश्यकभाष्य -- (दिव्य दर्शन कार्यालय, अहमदाबाद, वीर सं. २४८६) । विशेषावश्यकभाष्य कोट्याचार्य टीका- - ( ऋषभदेव केशरीमल, रतलाम,
सन् १९३६) । विशेषावश्यकभाष्य मलधारीहेमचन्द्र टीका - (दिव्य दर्शन कार्यालय, अहमदाबाद, वीर सं. २४८९ ) । व्यवहार --- (नवसुत्ताणि ( ५ ), जैन विश्व भारती, लाडनूं, सन् १९८६) । व्यवहारभाष्य टीका - ( वकील केशवलाल प्रेमचन्द, अहमदाबाद, सन् १९२६) ।
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शब्दकल्पद्रुम भाग १ से ५
शब्दार्थ कौस्तुभ - ( रामनारायणलाल अग्रवाल, प्रयाग ) । संक्षिप्त हिन्दी शब्दसागर --- - (सम्पा. रामचन्द्र, हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग, प्रथम संस्करण, सन् १९६६) ।
संथारगप इण्णय
(श्री महावीर जैन विद्यालय, बम्बई, प्रथम संस्करण, सन् १९८४) ।
संस्कृत इंग्लिश डिक्शनरी - (सम्पा. वी. एस. आप्टे, प्रसाद प्रकाशन, पूना) । संस्कृत इंग्लिश डिक्शनरी -- (सम्पा. मोनियर विलियम्स ) ।
६१
- (सम्पा. राधाकांत देव, चौखम्बा संस्कृत सिरीज, वाराणसी, तृतीय संस्करण, वि. सं. २०२४) ।
संस्कृत प्राकृत जैन व्याकरण और कोश की परम्परा - ( श्री कालूगणी जन्मशताब्दी समारोह समिति, छापर, सन् १९७७ ) ।
समवायांग – ( अंगसुत्ताणि भाग ३, जैन विश्व भारती, लाडनूं, सन् १९७४) । समवायांग टीका --- ( कांतिलाल चुन्नीलाल, अहमदाबाद, सन् १९३८ ) । सारावलीपइण्णय – ( श्री महावीर जैन विद्यालय, बम्बई, प्रथम संस्करण, सन् १९८४) ।
सिरिवालचरिउ (ले. नरसेन देव, सम्पा. डॉ. देवेन्द्रकुमार जैन, भारतीय ज्ञानपीठ, वाराणसी, सन् १९४४) ।
-
सुदंसणचरिउ - (ले. नयनन्दी, सम्पा. डॉ. हीरालाल जैन, प्राकृत शोध संस्थान, वैशाली, सन् १९७० ) ।
सूत्रकृतांग - ( अंगसुत्ताणि भाग १, जैन विश्व भारती, लाडनूं, सन् १९७४) । सूत्रकृतांग चूर्णि ( प्रथम श्रुतस्कन्ध ) - ( प्राकृत टेक्स्ट सोसायटी, वाराणसी, सन् १९७५) । सुत्रकृतांग चूर्णि (द्वितीय श्रुतस्कन्ध ) - ( ऋषभदेव केशरीमल श्वेतांबर संस्था, रतलाम, सन् १९४१ ) । सुत्रकृतांग टीका १ ( प्रथम श्रुतस्कन्ध ) - ( आगमोदय समिति, बम्बई, सन् १६१६) । सूत्रकृतांग टीका २ ( द्वितीय श्रुतस्कन्ध ) – (श्री गोडी जैन ग्रन्थमाला, सन् १९५३) । सूत्रकृतांग निर्युक्ति — (मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली, सन् १९७८) सूरशब्दसागर – (सम्पा. हरदेव बाहरी, स्मृति प्रकाशन, इलाहाबाद, प्रथम संस्करण, सन् १९८१) ।
पार्श्व नाथ
सूर्य प्रज्ञप्ति - ( उवंग सुत्ताणि ( ४ ), जैन विश्व भारती, लाडनूं, सन् १९८८ ) ।
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६२
सूर्यप्रज्ञप्ति टीका - ( आगमोदय समिति, बम्बई, सन् १९१९ ) । सेतुबन्ध -- (सम्पा. पण्डित शिवदत्त, भारतीय विद्या प्रकाशन, दिल्ली, सन् १९८२) ।
स्टडीज इन हेमचन्द्राज देशीनाममाला - (सम्पा. हरिवल्लभ सी. भयाणी, पी. वी. रिसर्च इंस्टीट्यूट, जैनाश्रम हिन्दी यूनिवर्सिटी, बनारस) ।
स्थानांग - ( अंगसुत्ताणि भाग १, जैन विश्व भारती, लाडनूं, सन् १९७४) । स्थानांग टीका --- (सेठ माणेकलाल चुनीलाल, अहमदाबाद, सन् १९३७) । हरिभद्र के प्राकृत कथा साहित्य का आलोचनात्मक परिशीलन – (सम्पा. डॉ. नेमीचंद शास्त्री, प्राकृत शोध संस्थान, वैशाली, सन् १९६५) ।
हिन्दी शब्दसागर ११ भाग
- (सम्पा. श्यामसुन्दर, शम्भुनाथ बाजपेयी, नागरी मुद्रण, वाराणसी, प्रथम संस्करण, वि. सं. २०२२) ।
हिन्दी शब्दानुशासन - (सम्पा. किशोरीदास बाजपेयी) ।
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संकेत सूची
अंत अंतटी अंवि अचि अनु अनुटी अनुद्वा अनुद्वाचू अनुद्वामटी अनुद्वाहाटी आ आचू आचूला आटी आनि आव आवचू-१ आवचू-२ आवटि आवदी आवनि आवमटी आवहाटी-१ आवहाटी-२
अंतकृद्दशा अंतकृद्दशा टीका अंगविज्जा अभिधानचितामणि नाममाला अनुत्तरौपपातिकदशा अनुत्तरोपपातिकदशा टीका अनुयोगद्वार अनुयोगद्वार चूर्णि अनुयोगद्वार मलधारीयटीका अनुयोगद्वार हारिभद्रीयटीका आचारांग आचारांगणि आचारांगचूला आचारांग टीका आचारांग नियुक्ति आवश्यकसूत्र आवश्यक चूणि १ आवश्यक चूणि २ आवश्यक टिप्पणकम् आवश्यक नियुक्तिदीपिका आवश्यक नियुक्ति आवश्यक मलयगिरीटीका आवश्यक हारिभद्रीय टीका १ आवश्यक हारिभद्रीयटीका २ इसिभासियाई उत्तराध्ययन उत्तराध्ययन चूर्णि उत्तराध्ययन नियुक्ति उपासकदशा
इ
उ
उचू उनि उपा
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६४
उपाटी उशाटी उसुटी ओटी ओनि ओभा औप औपटी
भ
4.
चन्द्र जंबू जंबूटी जीत जीभा जीव जीवटी जीविप ज्ञा ज्ञाटी
उपासकदशा टीका उत्तराध्ययन शान्त्याचार्यटीका उत्तराध्ययन सुखबोधा टीका ओघनियुक्ति टीका ओघनियुक्ति ओघनियुक्तिभाष्य औपपातिक औपपातिक टीका कुवलयमाला गच्छाचारपइण्णय चंदावेज्झयपइण्णय चन्द्रप्रज्ञप्ति जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति टीका जीतकल्प जीतकल्पभाष्य जीवाजीवाभिगम जीवाजीवाभिगम टीका जीतकल्प विषमपदव्याख्या ज्ञाताधर्मकथा ज्ञाताधर्मकथा टीका तंदुलवेयालियपइण्णय तित्योगालीपइण्णय दशवैकालिक दशवकालिक अगस्त्यसिंहचूणि दशवकालिकचलिका दशवैकालिक जिनदासचूर्णि दशवकालिक नियुक्ति दशाश्रुतस्कन्ध दशाश्रुतस्कन्ध चूर्णि दशाश्रुतस्कन्ध नियुक्ति दशवकालिक हारिभद्रीया टीका देशीनाममाला; देशीशब्दसंग्रह नंदी चूणि नंदी टिप्पणक
दअचू दचूला
दजिचू
दनि दश्रु दश्रुचू
दश्रुनि
दहाटी
नंदीचू
नंदीटि
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६५
नंदीटी
नि
निचू १, २, ३, ४. निभा निर निरटी पंक पंव पा पिटी पिनि पिभा
प्र
EEEEEEEEEEEEEEEEEEEEE..
प्रज्ञा प्रज्ञाटी प्रटी प्रसा प्रसाटी प्रा प्राक
नंदी टीका निशीथ निशीथचूणि भाग १ से ४ निशीथभाष्य निरयावलिका निरयावलिका टीका पंचकल्पभाष्य पंचवस्तु पाइयलच्छीनाममाला पिण्डनियुक्ति टीका पिण्डनियुक्ति पिण्डनियुक्ति भाष्य प्रश्नव्याकरण प्रज्ञापना प्रज्ञापना टीका प्रश्नव्याकरण टीका प्रवचनसारोद्धार प्रवचनसारोद्धार टीका प्राकृतव्याकरण प्राचीनकर्मग्रन्थ टीका बृहत्कल्प बृहत्कल्प चूर्णि बृहत्कल्प टीका बृहत्कल्प भाष्य भगवती भगवती टीका भत्तपरिणापइण्णय मरणविभत्तिपइण्णय | महापच्चक्खाणपइण्णय राजप्रश्नीय राजप्रश्नीय टीका विपाकश्रुत विपाकश्रुत टीका विशेषावश्यकभाष्य विशेषावश्यकभाष्य कोट्याचार्यटीका
बृभा
भटी
भत्त
महा राज राजटी विपा विपाटी विभा विभाकोटी
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विभामहेटी
. . .
व्य व्यभाटी १-१०
सम समटी
सा
सूचू-१ सूचू-२ सूटी-१ सूटी-२
विशेषावश्यकभाष्य मलधारीहेमचन्द्रटीका देशीनाममालावृत्ति व्यवहार व्यवहारभाष्य टीका भाग १-१० संथारगपइण्णय समवायांग समवायांग टीका सारावलीपइण्णय सूत्रकृतांग सूत्रकृतांग चूणि, प्रथमश्रुतस्कंध सूत्रकृतांग चूणि, द्वितीयश्रुतस्कंध सूत्रकृतांग टीका प्रथमश्रुतस्कन्ध सूत्रकृतांग टीका द्वितीयश्रुतस्कंध सूत्रकृतांग नियुक्ति सूर्यप्रज्ञप्ति सूर्यप्रज्ञप्ति टीका सेतुबन्ध स्थानांग स्थानांग टीका
सूनि
सूर्यटी
स्था स्थाटी
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अनुक्रम
-आचार्य तुलसी -युवाचार्य महाप्रज्ञ --डॉ० नथमल टाटिया
---मुनि दुलहराज
१. आशीर्वचन २. पुरोवाक् ३. भूमिका ४. संपादकीय ५. प्रयुक्त ग्रन्थ सूची ६. संकेत सूची
७. देशी शब्दकोश परिशिष्ट
१. अवशिष्ट देशी शब्द २. देशी धातु-चयनिका
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देशी शब्दकोश
अअंख-निःस्नेह, स्नेह रहित (दे १।१३) । अइगय-१ मार्ग का पश्चाद् भाग । २ समागत । ३ प्रविष्ट (दे ११५७) । अइण-गिरि-तट, तराई, पहाड़ का निम्न-भाग (दे १।१०) । अइणिअ-लाया हुआ (दे १४२४) । अइर-१ अतिरोहित (पिनि ५६०)। २ गांव का मुखिया, राज्य द्वारा
नियुक्त गांव का अधिकारी (दे १११६) । अइरजुवइ-नववधू (दे ११४८)। अइराउल-स्वामीकुल-'देशीपदमेतत्' (प्रज्ञाटी प २५३) । अइराणी-१ इन्द्राणी (अंवि पृ २२३; दे ११५८)। २ सौभाग्य प्राप्त
करने के लिए इन्द्राणी का व्रत करने वाली स्त्री (दे ११५८) । अरिप-कथाबंध, कहानी (दे १।२६) । अइरिका-देवी-विशेष, इन्द्राणी (अंवि पृ ६६) । अइहारा-विद्युत्, बिजली (दे १।३४) । अंक-निकट (दे ११५) । अंककरेलुय-जलज-वनस्पति (आचूला १।११३) । अंकार-सहायता, मदद (दे ११६)। अंकिअ-आलिंगन (दे ११११) । अंकिल-नर्तक (ज्ञाटी प ४४) । अंकिल्ल-नट (औपटी पृ ४) । अंकुसइअ-अंकुश के आकार वाला (दे ११३८) । अंकेल्ल नट (निचू २ पृ ४६८) । अंकेल्लण-चाबुक-विशेष (जंबू ३।१०६) । अंकेल्लि -अशोक वृक्ष (दे ११७) । अंकोल्ल-१ अंकोठ वृक्ष (प्रज्ञा ११३५॥१)। २ गुच्छ-विशेष
(प्रज्ञा ११३७३५) । ३ नर्तक (ज्ञाटी प ४६) । अंगवडण-रोग (दे ११४७) । अगवलिज्ज-शरीर को मोड़ना (दे ११४२) ।
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देशी शब्दकोश
अंगारइय-घुण कीट द्वारा खाया हुआ--'घुणकाणियं अंगारइयं वा वुत्तयं
होति' (निचू ४ पृ ६६) । अंगालिअ-ईख का टुकड़ा, गंडेरी (दे १।२८)। अंगुजट-अंगूठा (आचू पृ ३५२) । अंगुट्ठी-१ चूंघट-'रंगम्मि नच्चियाए, अलाहि अंगुटिकरणेणं' (उसुटी प ५४;
दे ११६) । २ अंगूठा (प्रसा २००)। अंगुत्थल-अंगूठी (दे ११३१) । अंगुलिणी-प्रियंगु, वृक्ष-विशेष (दे १।३२) । अंगोहली-१ देश-स्नान, शरीर को पोंछना, हाथ-मुंह आदि धोना
(नंदीटि पृ १३४)। अंगोहलेऊण-देश-स्नान कराकर-'अंगोहलेऊण दारगं पेसेइ'
(व्यभा १० टी प ५२) । अंघोलि-देश-स्नान, शरीर को पोंछना, हाथ-मुंह आदि धोना
(आवचू १ पृ ५४५)। अंचित-दुभिक्ष-अंचितं नाम दुभिक्षम्' (आवटि प ५३)। अंचिय-१ नाट्य का एक प्रकार-'नटें चउव्विहं-अंचियं रिभियं आरभडं
भसोलं ति' (निचू ४ पृ २) । २ दुभिक्ष (निचू २ पृ ११६) । अंछण-विस्तार, फैलाव (निचू २ पृ २२३) । अंछणय-विस्तार, फैलाव (निभा १५२६)। अंछणिका-रज्जु-विशेष (अंवि पृ ११५) । अंछिय-आकृष्ट, खींचा हुआ (प्र २२६; दे १११४) । अंजणइसिआ-तमाल का वृक्ष (दे ११३७) । अंजणई-वल्ली-विशेष (प्रज्ञा ११४०।५) । अंजणईस-तमाल का वृक्ष (दे ११३७) । अंजणिआ-तमाल का वृक्ष (दे ११३७)। अंजणी-१ आभूषण-विशेष (अंवि पृ १८३) । २. भांड-विशेष
(अंवि पृ २६०) । अंजणेकसक-वनस्पति-विशेष (अंवि पृ ७०)। अंजस-ऋतु (दे १।१४)। अंडअ-मत्स्य (दे १११६) । अंतरिज्ज-कटीसूत्र, करधनी (दे ११३५) ।
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देशी शब्दकोश
अंतरिया-समाप्ति, अंत (जंबू २) । अंतालुहण-प्रिय-अंतालूहणो मम एस पुत्तो' (कु पृ ४७) । अंतीहरी-दूती (दे ११३५) । अंतेल्ली -१ मध्य । २ जठर, पेट । ३ तरंग (दे ११५५) । अंतोखरियत्ता-१ नगर में रहने वाली वेश्या। २ विशिष्ट-वेश्या
(भ १५।१८६)-'अंतोखरियत्ताए ति नगराभ्यन्तर
वेश्यात्वेन' विशिष्टवेश्यात्वेनेत्यन्ये' (टी पृ १२७६) । अंतोवगडा-घर का आंगन (ब २११)-'अंतोवगडा नाम उवस्सयस्स
अभंतरं अंगणं' (चू प १४१)। अंतोहुत्त-अधोमुख (दे १।२१) । अंधंधु-कूप, कुआ (दे १११८) । अंधक-फल-विशेष, वृक्ष-विशेष (अंवि पृ २३८)। अंधग-वृक्ष (भ १८६५)। अंधगवहि-स्थूल अग्नि (भ १८६५)। अंधार-अन्धकार (पंव २५७)। अंधारइअ----अन्धापन (आचू पृ ३७२) । अंधिया-चतुरिन्द्रिय जंतु-विशेष (भ १५१८)। अंबकधूवि-खाद्यपदार्थ-विशेष (अंवि पृ ७१)। अंबकूणग-आम्रफल (भटी पृ १२५७) । अंबकोइलिया---१ आम्रविष्ठा । २ आम की छाल के टुकड़े
(दअचू पृ २३)। अंबखुज्ज-तलवे का मध्य भाग-'यदाम्रकुब्जं पादतलमध्यम्'
(बृटी पृ १०६२) । अंबट्टिक-भोज्य-विशेष-'अंबट्ठिकघतउण्हे पोवलिका ....' (अंवि पृ २४६) । अंबड-कठिन (दे १११६) । अंबपिंडी-भोज्य-विशेष (अंवि पृ ७१) । अंबप्पहार-प्रहार से दुःखी (उशाटी प १९३)। अंबमसी-गूदा हुआ बासी गीला आटा-'अंबसमीत्यत्र सकारमकारयोर्व्यत्यये
__ अंब मसीति केचित् पठन्ति' (दे ११३७ वृ) । अंबर-मत्स्य का मद-'अम्बरशब्देनात्र मत्स्यमदोऽभिधीयते स हि किलात्यन्त
सुगन्धो भवति' (आवटि प ६५) ।
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देशी शब्दकोश
अंबसमी-गूंदा हुआ बासी गीला आटा (दे ११३७) । अंबाडग-बहुबीज वाला आम्रातक फल (प्रज्ञा ११३६) । अंबाडगधवि-खाद्यपदार्थ-विशेष (अंवि पृ ७१) । अंबाडिय-तिरस्कृत (बृटी पृ ५४) । अंबिर-आम्र (दे १११५) ।। अंबिलिका-इमली (अंवि पृ ७०) । अंबुसु---सिंह से भी अति बलवान पशु, शरभ (दे ११११)। अंबेट्रिआ–मुष्टिद्यूत, बालकों द्वारा मुट्ठी से खेला जाने वाला जूआ-'मा रम
__अंबेट्टिआइ पुत्त ! तुम' (दे ११७ वृ)। अंबेट्टी--मुष्टिद्यूत, बच्चों की क्रीडा-विशेष जो 'एकीबेकी' के रूप में खेली
जाती है. (दे ११७)। अंबेल्ली-खट्टी राब-'एहि किराइं सीतलीहोति अंबेल्ली'
(आवचू १ पृ १११)। अंबेसी–घर का द्वार-फलक (दे ११८) । अंबोच्ची-फूलों को चुनने वाली स्त्री (दे श६)। अकंडतलिम-१ निःस्नेह । २ अविवाहित (दे ११६०) । अकरंड्य-मांस के उपचित होने के कारण जिसके पीठ के पास की हड्डी
दिखाई न पड़े (प्र ४।७ टी प ८१)। अकारय-भोजन की अरुचि, रोग-विशेष (ज्ञा १११३।२८)। अकासि-निषेध-सूचक अव्यय, पर्याप्त (दे ११८)। अकोप्प-रम्य (प्र ४१८) । अक्क-दूत (दे श६)। अक्कंत-प्रवृद्ध, बढ़ा हुआ (दे ११९)। अक्कंद-परित्राता, रक्षा करने वाला (दे १।१५) । अक्कबोंदि-वल्ली-विशेष (भ २२१६)। अक्कसाला--१ बलात्कार । २ उन्मत्त-सी स्त्री (दे ११५८)। अक्का -भगिनी, बहिन (दे ११६) । अक्का (कन्नड)। अक्कुठ्ठ---अध्यासित, अधिष्ठित (दे ११११) । अक्कोड-बकरा (दे १११२)। अक्कोडिय---चुभाना, घुसाना-'तंबियाओ सुईओ... वीससु वि अंगुलीनहेसु
अक्कोडियाओ' (बृटी पृ ५७) ।
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देशी शब्दकोश
५
अक्ख-उत्कृष्ट उपकरण (बृभा १५४५) । अक्खक-आभूषण-विशेष (अंवि पृ ६०)। अक्खणवेल-१ मैथुन । २ संध्याकाल (दे ११५६) । अक्खणिया-विपरीत मैथुन (पा ४३२) । अक्खपूप-खाद्यपदार्थ-विशेष (अंवि पृ १८२) । अक्खर-आंख का रोग-विशेष (आव २ पृ १०२) । अक्खरा-आंख की पुतली-'आसमक्खिया अक्खिमि अक्खरा उकड्ढिज्जइ
ति' (आवहाटी २ पृ ६०)। अक्खल- १ अखरोट वृक्ष । २ अखरोट वृक्ष का फल (प्रज्ञा १६) । अक्खलिअ- १ प्रतिफलित, प्रतिबिंबित । २ आकुल-व्याकुल (दे ११२७) । अक्खवाया-दिशा (दे श३५) । अक्खिवण-अपहरण (बृभा २०५४) । अक्खु-आम की छाल-'अक्खं—अंबसालमित्यर्थः' (निचू ३ पृ ४८२) । अक्खय-आम की छाल (निभा ४७००)। अक्खेवि-वशीकरण के द्वारा चोरी करने वाला (प्र ३३)। अक्खोड–१ राजकुल में दातव्य द्रव्य, बेगार तथा सैनिक आदि की भोजन
व्यवस्था (व्यभा २ टी प १०) । २ वह भूभाग, जो बिना बोया
हुआ तथा जनता से अनाक्रांत हो (आवटि प६०)। अक्खोडभंग-राजकुल में दातव्य द्रव्य की राजा द्वारा दी जाने वाली छूट
'खोडभंगोत्ति वा उक्कोडभंगोत्ति वा अक्खोडभंगोत्ति वा एगलैं'
(निचू ४ पृ २८०) । देखें-खोडभंग। अक्खोल-फल-विशेष (अंवि पृ ६४) । अक्खोला-ककड़ी (अंवि पृ ७१) । अखरय-भृत्य-विशेष (पिनि ३६७) । अगअदानव (दे ११६) । अगंडिगेह-यौवन से उन्मत्त बना हुआ (दे ११४०) । अगड-१ कूप (स्था २।३६०) । २ कूप के पास पशुओं के जल पीने का
गर्त ।
अगस्थि–गुल्म-विशेष (जीव ३१५८०)। अगय-असुर (प्रा २।१७४) । अगहण—कापालिक, वाममार्गी (दे ११३१) ।
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________________
अगिला -- अवगणना, अवज्ञा (दे १११७ ) ।
अगुज्झहर —- रहस्यभेदी, गुप्त बात को प्रकाशित करने वाला (दे ११४३) । अग्ग – १ ताजा- 'अग्गेहि वरेहिं पुप्फेहिं जक्खमच्चेइ' (उसुटी प ३५ ) । २ परिहास | ३ वर्णन |
अग्गवखंध - रणमुख, युद्ध का अग्रिम मोर्चा (दे १।२७) | अग्गवेअ – नदी का पूर ( दे १।२९ ) ।
अग्गहण - अवगणना, अवज्ञा (दे १।१७) ।
अग्गाधमक - मत्स्य की एक जाति (अंवि पृ ६३) ।
अग्गाहार - १ उच्च जीविका, बहुमान - 'दिट्ठो सक्कारिओ अग्गाहारो य से दिन्नो' ( उसुटी प २३) । २ छोटी बस्ती - 'अत्थि णाइदूरे सरलपुरं णाम बंभणाणं अग्गाहारं ' ( कु पृ २५८ ) ।
अग्गिअ - १ इन्द्रगोप कीट । २ मन्द (दे १।५३) । अग्गिचुल्लक – अग्नि का स्थान ( अवि पृ २४४ ) । अग्गिरस - गोत्र - विशेष (अंवि पृ १५० ) ।
अग्गिलिय – आगे, पहले ( पंवटी प ५६ ) । अग्गुमर- घर का प्रवेश द्वार - ' अग्घाड - अपामार्ग, लटजीरा (दे ११८ ) । अग्घाडग—अपामार्ग, लटजीरा ( प्रज्ञा १|३७|४) । अग्घाण - तृप्त (दे १।१९ ) ।
अग्घातित-आख्यात ( आचू पृ ३०३ )
देशी शब्दकोश
- गिहमुहं अग्गुमरो' (आचू पृ ३७० ) ।
अघ- -१ गढा । २ ह्रद - 'अघा गर्त्ता ह्रदो वा' (बूटी पृ २०२ ) । अचल–१ गृह । २ कहा हुआ । ३ घर का पिछला भाग । ४ निष्ठुर, निर्दय । ५ नीरस, विरस (दे ११५३) ।
अचाइ - अशक्त, असमर्थ (आ ६।३० ) ।
अचिट्ठ – अप्रगाढ - 'अचिट्ठ कूरेहि कम्मेहि, णो चिट्ठ परिचिट्ठति' (आ४ । १८ ) अचियत्त – १ अप्रीतिकर (द ५।१७ ) । २ अप्रीति - 'अचियत्तं देशीवचनं अप्रत्याभिधायकम् ' ( आवहाटी १ पृ १२७ ) ।
अचोक्ख - अपवित्र ( आवचू १ पृ १२२) ।
अचोक्खलिणी---जल आदि से हाथ न धोने वाली (पिनि ६०२ ) । अच्चकारिय-असत्कारित, अपूजित - 'अच्चकारिओ उवघातं करेस्सति'
( निचू ३ पृ ४१८ ) ।
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देशी शब्दकोश
अच्चाइय-व्यथित - 'अच्चाइओ सागडिओ' (दहाटी प ६१ ) । अन्चिग - व्यथा (कन्नड़) 1
अच्छ -१ प्रचुर । २ शीघ्र (दे ११४९ ) । ३ वृक्ष ( से ६।४७ ) । अच्छंत - आसीन ( उ १६३७८ ) ।
अच्छण - १ बैठना ( अच्छणघर - विश्रामगृह ) ( ज्ञा १।३।१६ ) । २ अवस्थान, आसन ( उ २६/७ ) । ३ अपसर्पण - ' अच्छणं ति ओसक्कणं' ( निचू १ पृ ८३ ) । ४ अवलोकन (व्यभा ३ टीप १०२ ) । ५ सेवा, शुश्रूषा (बृ ३ ) ।
अच्छभल्ल-यक्ष, देव - विशेष (दे ११३७ ) ।
अच्छराणिवात - १ चुटकी । २ चुटकी बजाने जितना समय (सूच् २ पृ ३५६ ) ।
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अच्छरानिवाय - चुटकी ( जीव ३२८६ ) - अप्सरोनिपातो नाम चप्पुटिका" (टीप १०९ ) ।
अच्छहल्ल - रीछ ( पा ३०२ ) ।
अच्छारिय नौकर, कर्मचारी - 'तत्थ सरदकाले अच्छारियभत्ताणि दधिकूरेण णिसट्टं दिज्जं ति' (आवचू १ पृ २६१)
अच्छिक्क - अस्पृष्ट (व्यमा ४। २ टी प २४ ) |
अच्छिघरुल्ल - १ अप्रीतिकर । २ वेश, पोशाक (दे ११४१ वृ ) । अच्छिय-फल- विशेष (आटी प ३४९ ) ।
अच्छिरोड - चतुरिन्द्रिय जंतु - विशेष (प्रज्ञा १।५१ ) । अच्छिरोडय- -चार इन्द्रिय वाला जीव - विशेष ( उ ३६ । १४८ ) । अच्छिल- -चार इन्द्रिय वाला जंतु-विशेष ( उ ३६ । १४८ ) । अच्छिवडण - निमीलन, आंखों का मूंदना (दे ११३९ ) । अच्छिविच्छि— आपस की खींचतान, परस्पर आकर्षण (दे ११४१) ॥ अच्छिवेह - चतुरिन्द्रिय जीव - विशेष (प्रज्ञा ११५१ ) । अच्छिवेहय - चार इन्द्रिय वाला जंतु - विशेष ( उ ३६।१४७) ।
अच्छिहरिल्ल - १ अप्रीतिकर, द्वेष्य । २ वेश, पोशाक (दे ११४१ वृ) अच्छिहरुल्ल - १ अप्रीतिकर । २ वेश, पोशाक (दे १।४१) । अच्छुल्लूढ – निष्कासित, बाहर निकाला हुआ (बृभा ५७५) ॥ अज - सर्प की एक जाति (अंवि पृ० ६३ ) ।
अजढर-नया, ताजा ( सूचू २ पृ ३१२) ।
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देशी शब्दकोश
अजराउर-उष्ण, गरम (दे ११४५)। अजिणविलाल-पर्वत की गुफा में रहने वाले सिंह की एक जाति
(अंवि पृ २२७)। अजुअ-सप्तच्छद, सतौना का वृक्ष (दे १११७) । अजुअलवण्णा-इमली का वृक्ष (दे ११४८) । अजुअलवन्न—सप्तपर्ण, छितवन का पेड़ (पा ८६५)। अजंगित-शरीर तथा जाति से अजुगुप्सित (निचू ३ पृ ४५७) । अज्ज-जिन, अर्हत्, बुद्ध (दे श५)। अज्जअ–१ सुरस नामक तृण । २ गुरेटक नामक तृण (दे ११५४) । अज्जणी-भांड-विशेष (अंवि पृ ६३)। अज्जय-१ वनस्पति-विशेष, लघु तुलसी का पौधा (प्रज्ञा १४४१३)।
२ दादा । ३ नाना (द ७।१८)। अज्जा -१ वृक्ष विशेष (भ २२२१)। २ दुर्गा देवी का प्रशांत रूप-'दुर्गायाः
पूर्वरूपं अत्र कुष्मांडिवत् तधाठिता अज्जा भन्नति'
(अनुद्वाचू पृ १२) । ३ यह स्त्री (पा ८४३) । अज्जिआ-१ दादी । २ नानी (द ७।१५) । आजी-दादी (मराठी)।
. अज्जी (कन्नड़)। अज्जिड्डीय-दिया, प्रस्तुत किया-'आसेण हिसियं, पट्ठी अज्जिड्डीया'
(व्यभा २ टी प ६४) । अज्जुण-तृण-विशेष (भ २१३१६) । अज्जोरुह--वनस्पति-विशेष (प्रज्ञा १) । अज्झ--यह (पुरुष) (दे ११५०) । अज्सअ-पड़ौसी (दे १११७) । अज्झत्थ---आगत (दे १।१०) । अज्झवसिअ---मुंडित मुख (दे ११४०)। अज्झसिअ-दृष्ट, देखा हुआ (दे ११३०) । अज्झस्स—आक्रुष्ट, जिस पर आक्रोश किया गया हो वह (दे १।१३) । अज्झा ---१ असती, कुलटा । २ प्रशस्त स्त्री । ३ नववधू । ४ तरुणी। ५ यह
(स्त्री) (दे ११५०)। अज्झियक-उपयाचित, मांगा हुआ (बृटी पृ १३२७) । अज्झियग--उपयाचित, मांगा हुआ (बृभा ४६६२) ।
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देशी शब्दकोश
अज्झीण-अध्ययन, विभाग-'अज्झयणं अज्झीणं आओ झवणा य एगट्ठा'
(निचू १ पृ ५)। अज्झेल्ली-बार-बार दोहन-योग्य गाय (दे ११७) । अज्झोल्लिआ-वक्षस्थल के आभूषण में की जाती मोतियों की रचना-विशेष
(दे ११३३)। अज्झोस-अध्यवसाय, भावना-'अज्झोसो भावण त्ति एगलैं'
_ (आचू पृ ३७३)। अझिखिय—अनिन्दनीय (दे ३१५५ वृ)। अटिट्टियाविज्जमाण–टिट्-टिट् की आवाज नहीं करता हुआ
(ज्ञा १।३।२६) । अट्ट-१ आकाश-'अट्टे इ वा वियट्टे इ वा आधारे इ वा' (भ २०।१६) ।
२ कृश। ३ महान् । ४ तोता। ५ सुख। ६ धृष्ट । ७ आलसा ।
८ ध्वनि। ६ असत्य (दे ११५०)। अट्टग-आटा (सूचू १ पृ १७८) । अट्ट-गया हुआ (दे १११०)। अट्टहास-खिलखिलाकर हंसना (पंवटी प २३०) । 'अट्टण' साला-व्यायामशाला (भ ११३१३८) । अट्टमट्ट-१ निरर्थक, ऊटपटांग-'अट्टमटं च सिक्खेज्जा, सिक्खियं ण __णिरत्थयं । अट्टमट्टपसाएण, भुंजए गुडतुंबयं ॥' (उशाटी प २४५)।
२ आलवाल, क्यारी (प्रा २११७४) । ३ अशुभ संकल्प-विकल्प । अट्टयकल्ली -कमर पर हाथ देकर खड़ा रहना (पा ७२८)। अट्टरसग-गुच्छ वनस्पति-विशेष (प्रज्ञा ११३७।४)। अट्टालग-प्राकार के भीतर आठ हाथ चौड़ा मार्ग (आचू पृ ३६६)। अटिओ—पुनः पुनः-'अट्ठिओ पुणो पुणो' (निचू १ पृ १२४) । अट्टित्तो---पुनः पुनः (निभा ३५७) । अद्विल्लय–बिनौला (पिनि ६०३) । अट्ठीलय-बिनौला (पिनि ६०३) । अड--१ लोमपक्षी (जीवटी प ४१)। २ कूप, कुंआ (पा ३०८)। ३ कूप ___के पास में पशुओं के पानी पीने के लिए बनाया हुआ गढा (प्रा ११२७१) । अडउज्झिम-विपरीत मैथुन (दे ११४२) । अडंबइल्ला -देश-विशेष (आवहाटी १ पृ ६६)। अडखम्मिअ-जागरूकता, देखभाल (दे ११४१)।
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देशी शब्दकोश
अडड-संख्या-विशेष (भ ५।१८)। अडडंग-संख्या-विशेष (भ ५।१८)। अडणि-धनुष्य का प्रांतभाग (?) (से १५३५६) । अडणी--मार्ग (इ २६।३; दे १।१६) । अडय-१ आत्मवान् । २ प्रशंसनीय (इ ११५) । अडयणा-असती, कुलटा (दे १११८) । अडया–कुलटा (दे १११८)। अडयाल-१ अड़तालीस (निभा २१३२) । २ प्रशंसा-'अडयालशब्दो देशी
वचनत्वात् प्रशंसावाची' (प्रज्ञाटी प ८६)। अडयालग-प्राकार का एक भाग-अडयालग त्ति अट्टालक: प्राकारावयवः
सम्भाव्यते' (उपाटी पृ १००)।। अडाड-बलात्, जबरदस्ती-'अडाडाए बला हरतो अक्कंतिओ'
(निचू ३ पृ २५६ ; दे १११६) । अडिल-चर्मपक्षी-विशेष (जीवटी ४१) । अडिला-चतुष्पद प्राणी-विशेष (अंवि पृ ६६)। अडिल्ल-चर्मपक्षी का एक भेद (प्रज्ञा ११७८) । अड्ड-१ तिर्यक् (आवटि प ४६) । २ जो आड़े आता हो, बीच में बाधक
होता हो, वह । अड्ग-जो आडे आता हो, बीच में बाधक बनता हो-'गलए अड्डगं ऑ8 वा
कळं वा' (सूचू २ पृ ३५५) । अड्डपलाण-यान-विशेष, थिल्लि (भटी पृ ७३०)। अड्डपल्ल-लाट देश में प्रसिद्ध खच्चरों से वाह्य यान (ज्ञाटी प ४७) । अडुपल्लाण–लाट देश में प्रसिद्ध यान-विशेष (औपटी पृ ११२) । अडवियड-१ आडा-टेढा, अस्त-व्यस्त-वितिकिण्णं विप्रकोणं अणाणुपुठवीए
अड्डवियड्डं ति वुत्तं भवति' (निचू ४ पृ ३७) । अडित-चढ़ाया, आरोपित किया-खंधे य अड्डितो' (व्यभा २ टी ६४)। अडिय-१ भिड़ने की क्रिया-विशेष (निचू ३ पृ ३४८) । २ आरोपित
(व्यभा २ टी प६४) । अड्रपल्लाण-लाट देश में प्रसिद्ध यान-विशेष (अनुद्वाहाटी पृ १४६) । अड्डयक्कली--कमर पर हाथ रखना (दे ११४५) ।
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देशी शब्दकोश
११
अड्ढेऊण--रोककर - अड्ढेऊण सणियं विगिचइ, जह उज्जरा न जायंति' ( आवहाटी २ पृ ८७ ) ।
अड्डोरुग -- जैन साध्वी के पहनने का एक वस्त्र (पंक १४८१) । अण- पाप (भटी प ३५ ) |
अणंगण- गुल्म- विशेष (अंवि पृ ६३ ) । अनंत - १ अंगूठी (अंवि पृ ६५) । उपहार (दे १।१० ) ।
अनंतग - वस्त्र ( नि १।१३ )
।
अतिक्क -- जुलाहा, बुनकर ( आवचू १ पृ १५६ )
२ निर्माल्य, देवता को चढ़ाया गया
अणक्क- -१ म्लेच्छ जाति । २ म्लेच्छ देश विशेष ( प्र १।२१) ।
अणघ- नीरोग ( निचू १ पृ १२७ ) ।
अणच्छिआर - अच्छिन्न, नहीं छेदा हुआ (दे ११४४ ) |
अणड-जार पुरुष ( दे १।१८ ) ।
अणत्त-निर्माल्य, देवोच्छिष्ट द्रव्य ( दे १११० ) ।
अणप्प —खड्ग, तलवार (दे १।१२) |
अणप्पज्झ - १ पराधीन - 'देशीपदमनात्मवशवाचकम्' (बूटी पृ १०३३) F २ भूताविष्ट ( निचू २ पृ २९ ) ।
अणफुण्ण-अव्याप्त, अस्पृष्ट (अनुद्वाचू पृ ५६ ) ।
अण फुल-अनापूर्ण, अस्पृष्ट (अनुद्वा ४३८ ) ।
अणफुण्ण - अपूर्ण, अस्पृष्ट, अनाक्रांत (अनुद्वाहाटी पृ ५६ ) । अणरामय अरति, बेचैनी (दे ११४५) ।
अणराह - शिर पर बांधी जाने वाली रंग-बिरंगी पट्टी (दे १।२४) ।
अणरिक्क- १ अवकाश रहित, व्यस्त (दे १।२० ) । २ दधि, क्षीर आदि गोरस भोज्य (निचू १६) ।
अणवदग्ग--- १ अनन्त, निस्सीम - 'अणवदग्गं संसारकंतारं अणुपरियट्टई ' (भ ११४५ ) । २ अविनाशी ( सू २|५|२) अणवयग्ग - अनन्त, अपरिमित (आचू पृ १५६ ) । अणafter- अवकाश सहित (दे ११२० वृ ) | अणह - १ अक्षत, सुरक्षित - ' कयकज्जे अणह - समग्गे दे १।१३ ) । २ नीरोग (निचू १ पृ १२७ ) । अणहप्पणय - - अनष्ट, विद्यमान ( दे ११४८ ) ।
(ज्ञा १।१८।२४;
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देशी शब्दकोश
अणहारअ - खल्ल, वह भूमी जिसका मध्यभाग नीचा हो ( दे ११३८ ) | अणागलिय- अपरिमित ( उपा २|३४) ।
अणाड- -जार पुरुष (दे १।१८ ) ।
अणाडिया - १ कुचेष्टा, विक्रिया ( आवचू १ पृ ४१७ ) । २ नटखटपन'एक्का व मए पुत्तस्स अणाडिया न दिट्ठा' (बृटी पृ ५७) ।
१२
अणाढायमाण- अस्मरण ( आचू पृ ३०३ ) ।
अणादुआल - बिना हिलाये ( सूचू १ पृ १२२) ।
अणालिआ कुचेष्टा, विक्रिया- 'अणालिआ करेइ' (आवहाटी १ पृ २४७ ) । अणिट्ठह-अविगलक, नहीं थूकने वाला ( सू २।२।६६) ।
अणिट्ठहअ - १ अनिष्ठीवक । २ सचेष्ट, जागरूक (भ २५।५७१) । अणिड्डुगलित- अत्यधिक लिप्त - ' अणिड्डुगलिते अतीव लेत्थरियं' ( निचू २ पृ ३०१ ) ।
अणिदा - अनुभव शून्य, ज्ञानशून्य - 'सव्वे असण्णी असण्णीभूतं अणिदाए वेदणं वेदेंति' (भ १७८ ) ।
अणिदाय - ज्ञान का अभाव (भटी पृ १४१७ ) ।
अणिदोच्च - १ भय का होना । २ अस्वास्थ्य ( व्यभा ६ टीप ५१) ।
अणिय -- अग्रभाग ( प्र ७२) ।
अणियण - कल्पवृक्ष का एक प्रकार ( प्रसाटी प ३१४) ।
अणिलुक्क - प्रकट, अतिरोहित - 'अणिलुक्के णिलुक्कमिति अप्पाणं मण्णइ '
(भ १५।१०२ ) ।
अणिल्ल - प्रभात ( दे १।१९ ) ।
अणिह - १ सदृश । २ मुख (दे १।५१) । अणु - चावल की एक जाति (दे १।५ ) । अणुअल्ल - प्रभात ( दे १।१९ ) । अणुआ-- यष्टि, लकड़ी (दे १८५२ वृ ) । अणुइअ -- चना ( दे १।२१) । अणुज्जल---अचंचल (अंवि पृ ४) । अणुदवि प्रभात (दे १।१९ ) ।
अणुद्धरी - कुंयु आदि कीट - विशेष ( निचू ३ पृ १२४) ।
अणुबंधिअ - हिक्का रोग, हिचकी (दे १।४४) ।
अणुय -- १ धान्य- विशेष ( दनि १५५; दे १।५२ ) । २ आकृति ( दे १।५२ ) |
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देशी शब्दकोश
अणुरंगा - गाड़ी - ' अणुरंगा णाम घंसिओ' (निचू ४ पृ १११) । अणुल्लय - द्वीन्द्रिय जंतु - विशेष ( उ ३६ । १२६) । अणुव - बलात्कार ( दे १।१६ ) ।
अणुवज्जण -- सेवा-शुश्रूषा, देखभाल (दे ११४१ वृ ) ।
अणुवज्जिअ - १ जागरूकता, देखभाल (दे १।४१) । २ गत (वृ) । अणुव हुआ--- नववधू (दे ११४८ ) ।
अणुसंधिअ - निरंतर हिचकी आना (दे ११५६) ।
अणुसुति - अनुकूल (दे १॥२५) ।
अणुसूआ - - शीघ्र ही प्रसव करने वाली स्त्री (दे १।२३ ) ।
अणेकज्झ - चंचल (दे १।३० ) |
अणोभट्ट – अप्रार्थित, अयाचित (ओनि १४८) ।
अणोवि - अपरिकर्मित (निचू २ पृ ४२६) ।
अणोरपार - १ अनादि अनन्त - 'संसारे घोरम्मि अणोरपारे' (सू २।६।४६ ) t २ प्रचुर - अणोरपारमिति देशीवचनं प्रचुरार्थे' (आवहाटी १ पृ २३० ) ३ अपार - 'अणोरपारम्मि देशयुक्त्या अपारे' (आवदी प १६१) ।
अणोलय-प्रभात (दे १।१९ ) ।
अणोहट्टय - उच्छृंखल ( ज्ञाटी प २४५) ।
अणोहट्टिय - स्वच्छंद (ज्ञा १।१८।१७) ।
अणोहट्ट - अनिच्छित, अप्रार्थित - 'अणोहट्ठ अजाणियं' (निचू २ पृ १६६) । अण्ण - १ पुरुष के लिए प्रयुक्त सम्बोधन (द ७।१९ ) - 'अण्णं' इति मरहट्ठाणं आमंतणवयणं' (दअचू पृ १६९ ) । २ आरोपित । ३ खण्डित |
अण्णअ - १ तरुण । २ धूर्त्त । ३ देवर (दे १।५५) ।
अण्णइअ - तृप्त (दे १ । १९ ) । २ सर्वार्थ तृप्त, सभी विषयों में तृप्त (वृ) । अण्णत्ति-अवज्ञा, अनादर (दे १।१७ ) ।
१३
अण्णमय - पुनरुक्त, पुन: कहा हुआ (दे १।२८ ) ।
अण्णाण -- १ विवाह - काल में वधू को दिया जाने वाला उपहार - दहेज | २ विवाह के लिए वर को वधू का दान - कन्यादान (दे १।७ ) ।
अण्णाय - आर्द्र, गीला ( से ४६ ) ।
अण्णआ - १ देवरानी । २ ननद । ३ फूफी (दे १।५१ ) ।
अण्णी - १ देवरानी, देवर की पत्नी । २ ननद, पति की बहिन । ३ फूफी, पिता की बहिन (दे १।५१) ।
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१४
देशी शब्दकोश
अण्णे--१ महाराष्ट्र में प्रयुक्त तरुणी स्त्री के लिए संबोधन-शब्द-'अण्णे त्ति
मरहठ्ठसु तरुणित्थीसामंतणं' (द ७११६; अचूपृ १६८)। २ महाराष्ट्र में वेश्याओं के लिए प्रयुक्त चाटु वचन-'मरहट्ठविसए आमंतणं
दोमूलइखरगाणं चाटुवयणं अण्णेत्ति (जिचू पृ २५०) । अण्णोसरिअ--अतिक्रान्त, उल्लंधित (दे ११३६) । अण्हेअअ-...भ्रान्त (दे ११२१)। अतितिण-बड़-बड़ न करने वाला, बकवास न करने वाला (द ८।२६) । अतिकिमण-अलस, मंथर-अलसमभारो भीरू अतिकिमणो मंथरो त्ति वा'
(अंवि पृ २४१)। अतित्थित-अतिक्रान्त (व्यभा १० टी प ६) । अतिप्पणया--अश्रु न बहाना (भ ७।११४) । अतिर-निरन्तर-'अतिर णिरंतरं भण्णति' (जीभा १६८०) । अतिराउल-स्वामीकुल–'अति राउले इति देशीपदं, स्वामिकुलमित्यर्थः'
(प्रज्ञाटी प २५३) । अतिस-अप्रीति (अंवि पृ १२) । अतीत्थित-अतिक्रान्त (व्यभा १० टी प ६) अत्ता-१ फूफी । २ सासू । ३ सखी (दे ११५१)। अत्थ-अनवसर, अकस्मात् (दे १।१४)। अत्थक्क-अकस्मात् (से १११२४) । २ अखिन्न । ३ अनवरत । अत्थग्घ-१ मध्यवर्ती (ओनि ३४) । २ अगाध, गहरा । ३ आयाम,
लंबाई। ४ स्थान (दे ११५४) । अत्थणिउर--संख्या-विशेष (भ ५।१८) । अत्थणिउरंग-संख्या-विशेष (भ ५।१८)। अत्थभिल्ल-रीछ (निचू २ पृ ६३) । अत्थयारिआ-सखी, सहेली (दे १।१६) । अत्थाक्क-अकस्मात् (से १११२४)। अत्थार--सहायता, सहयोग (दे १।१६)। अत्थारिय-कर्मकर, मूल्य लेकर खेत में धान आदि काटने वाला नौकर
'अत्थारिएहिं तु ये मूल्यप्रदानेन शालिलवनाय कर्मकरा:'
(व्यभा ६ टी ३८)। अत्थाह--१ अगाध, गहरा, कंडा। २ आयाम, लम्बाई । ३ स्थान ।
४ मध्यवर्ती, बीच का (दे ११५४) ।
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देशी शब्दकोश
अत्थिय - १ वृक्ष - विशेष । २ बहुत बीज वाला फल (भ २२।३) । अस्थिल - क्षुद्र जंतु (अंवि पृ २५३) ।
अत्थुड - लघु (दे १६ ) ।
अत्थुरण -- आस्तरण ( निचू ३ पृ ३२३) । अत्थुरणग-आस्तरण-1 - विशेष ( निचू ३ पृ ५६८ ) । अत्थुरिय— फैलाया हुआ, बिछाया हुआ (बृभा ६१० ) । अत्थुवड -- भल्लातक, भिलावा वृक्ष का फल ( दे १।२३ ) | अत्थेक्क -- आकस्मिक, अचिन्तित ( से १२।४७) ।
अथक्क -- १९ अकस्मात्, अनवसर (ओटी प ८७) २ प्रसरणशील, फैलने
वाला ।
अदंतवणय - अदन्तधावन, दतौन का निषेध (स्था है | ६२ ) ।
अदंसण - चोर (दे १ । २९) | अदक्खेयव्व-ग्राह्य (ओनि) ।
अदिसल्ल --- अंधा ( निचू ४ पृ १०९ ) ।
अदु - १ अब (आ | ३|१० ) । २ अथ, इसलिए ( सू १।२।२४) । ३ अथवा ( उ २।२३) । ४ अधिकारान्तर का सूचक । ५ इससे ।
अदुत्तरं - आनन्तर्य सूचक अव्यय, अब ( सू २|२| १८ ) । आम आदि का खंछा (अनुद्वाहाटी पृ ७६ ) ।
अदुलअदुव-- अथवा (द ६ । २ ) |
अदुवा - अथवा (द ५। ७५) ।
अयालिय- मिश्रित - 'जत्तियाणि भर हे धण्णानि ........ ताणि सव्वाणि अयालियाणि' (उशाटी प १४६ ) |
अद्द - - १ अभिमुख ( आवचू १ पृ २७८ ) । २ परिहास | ३ वर्णन | अद्दण-आकुल (दे १।१५) ।
अद्दण्ण-- १ व्याकुल ( पंक ६६१; दे १।१५ ) । २ असत्य ( व्यभा ६ टीप ३ ) ।
१५
अद्दन्न --आकुल व्याकुल ( बृभा ३६३३) ।
अद्दाइअ - आदर्श, पवित्र आचरण वाला ( बृ १ ) । अद्दाग – दर्पण (स्था ४ । ४३१)
।
अद्दाय – १ दर्पण, आदर्श, - ' जे भिक्खू अद्दाए अप्पाणं देहति' ( नि १३।३२; दे १ । १४) । २ वह विद्या जिससे दर्पण में प्रतिबिम्बित रोगी के
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१६
बिम्ब को पोंछने से रोगी नीरोग हो जाता है । (व्यभा ५ टीप २६) ।
अद्धक्खण
अर्द्धत - १ पर्यन्त, अंतभाग (दे १८ ) । २ कतिपय, कई एक । प्रतीक्षा (दे १।३४) । २ परीक्षण - परीक्षणमिति केचित् ' (वृ)।
अद्धक्खिअ - संकेत करना (दे १३४) ।
अद्धजंघा – 'मोचक' नाम का जूता- विशेष (दे १।३३) । अद्धजंघिया ---पाद-रक्षक, जूता - विशेष (दे ११३३ वृ) । अद्धविआर -- १ मंडन, भूषण (दे ११४३) । २ मंडल, गोल (वृ) ।
देशी शब्दकोश
अद्धा - १ समय (स्था २ । ३६ ) । २ लब्धि, शक्ति-विशेष । ३ वस्तुतः । ४ साक्षात् । ५ दिन । ६ रात्रि । ७ संकेत ।
अद्वाण -- महान् अटवी - 'अद्धाणं महंता अडवी' (निचू १ पृ ८० ) । अट्ठ – साढ़े तीन - 'अट्टणावि कुमारकोडीणं' ( प्र ४ । ५) । अधंकण - अमायी ( सुचू १ पृ १८९ ) ।
अधवण -- अथवा ( बृभा ४१६३) ।
अधिकरणिखोड -- अहरन को रखने का काष्ठ - विशेष (भ १६ । ७ ) । अधिक्कमणक--- उत्सव - विशेष (अंवि पृ १२१) ।
अनिदोच्च - भयभीत, अस्वस्थ - 'अणिदोच्चमित्यनिर्भयमस्वस्थमित्यर्थः (व्यभा ७ टी प ५१ ) ।
अन्न - पुरुष के लिए प्रयुक्त संबोधन - शब्द ( द ७।१६) । अन्नइलाय - बासी भोजन करने वाला (प्रटी प ११० ) । अन्न ओहुत्त - पराङ्मुख - 'रोसेण य अन्न ओहुत्तो जाओ राया' ( उसुटी प २६ ) ।
अन्नतिलाय -- बासी भोजन करने वाला (प्रटी प प०६ ) । अन्ना- -१ तरुण स्त्री का सम्बोधन शब्द (द ७।१६ ) । २ माता । अपडिच्छिर - जड़ - मति, मूर्ख (दे १।४३ ) ।
अपsिहत - भोज्य पदार्थ - विशेष - 'पूणे वा फेणके वा अक्खपूर्ण वा अपहितें वा' (अंवि पृ १८२ ) ।
अपलोकणिक - सिर का आभरण - विशेष (अंवि पृ १६२ ) । अपातय - - - अकाल ( ? ) - 'अपातयं सस्सवापत्ति' (अंवि पृ ११२ ) । अपारमग्ग - विश्राम (दे १।४३) ।
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देशी शब्दकोश
अपुप्फिय-स्वच्छ, सुगंधित (बृभा ४३८) । अपोल-पोल रहित, अशुषिर (पंवटी' प ६७) । अपोल्ल-अशुषिर, निबिड (प्रसा ६७४) । अप्प-पिता (दे ११६)। अप्पगुत्ता-कपिकच्छू, कवाछ, (दे ११२६)। अप्पजूहिअ-पके हुए चावल आदि (आटी प ३३४)। अप्पज्झ--आत्मवश, स्वस्थचित्त (बृभा ३७३२; दे १११४) । अप्पत्तिय-१ अप्रीति । २ अविश्वास (दश्रु ६।४)। अप्पण्ण-आत्मरक्षा में तत्पर, स्वयं को बचाने में तत्पर (बृभा १९५३) । अप्पसत्थभ-गोत्र-विशेष (अंवि पृ १५०) । अप्पाह--संदेश (व्यभा ७ टी प २६) । अप्पाह?--जानकर, कहकर (सू २।१।१२) । अप्पाहण-संदेश (बृभा २३६)। अप्पाहणी-संदेश (पिनि ४३०)। अप्पाहित-संदिष्ट (बृभा ३२८४) । अप्पाहिय--संदिष्ट (बृटी पृ ७४) । अप्पोया-आस्फोता, वल्ली-विशेष (प्रज्ञा ११४०) । अप्पोल-पोल रहित (निभा २१७०) । अप्पोल्ल-पोल रहित, निगर (ओभा ३२२) । अप्फचिय--अपरिचित (निचू ३ पृ ३३७) । अप्फच्चित-अपरिचित (निचू २ पृ ११७)। अप्फाया--वनस्पति-विशेष (जीवटी प ३५१) । अप्फुण्ण--१ पूर्ण, भरा हुआ (विपा १।२।५३; दे ११२०) । २ आक्रांत,
स्पृष्ट (अनुद्वाचू पृ ५६)। ३ आच्छादित (से २१४)। अप्फुन्न--आपूर्ण, स्पृष्ट, आक्रान्त (अनुद्वा ४३६) । अप्फेया-आस्फोता, वल्ली-विशेष (प्रज्ञा ११४०) । अप्फोता-वनस्पति-विशेष (जीव ३।२६६)। अप्फोतिका वनस्पति-विशेष (अंवि पृ ७०) । अप्फोय-वृक्ष-विशेष (अंवि पृ ६३)। अप्फोया-१ वनस्पति-विशेष (राज १८४) । २ वल्ली-विशेष .
(प्रज्ञा ११४०।३)।
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देशी शब्दकोश
अप्फोव-१ लता (उ १८१५)। २ वृक्ष आदि से आकीर्ण, गहन
(उशाटी प ४३८)। अफुण्ण-परिपूर्ण (प्रज्ञा २६।५६)। अफुन्न-स्पृष्ट (प्रसाटी प ३०४)। अबीय-दुर्भिक्ष (निचू ४ पृ १२८)। अबोट-अनाक्रमणीय (ओटी प ६२) । अब्बद्धसिरी-इच्छा से भी अधिक फल की प्राप्ति (दे ११४२) । अब्भ--अध्यारोह वृक्ष, वृक्ष पर उत्पन्न होने वाला विजातीय वृक्ष____ 'अब्भेति वृक्षे समुत्पन्नो विजातीयो वृक्षविशेषोऽध्यवरोहकः'
(भटी पृ १४७६)। अब्भंगिएल्लअ-घी आदि से चुपड़े हुए शरीर वाला (ओनि ८२) । अब्भक्खण-अकीर्ति (दे ११३१) । अब्भड आहत, टकराना (आवहाटी १ पृ २८८) । अब्भडवंचिउ-अनुगमन करके (प्रा ४३६५)। अब्भपिसाअ-राहु (दे ११४२) । अब्भवालुय-अभ्रक का चूर्ण (उ ३६१७४) । अब्भाकारिय-कर्माजीवी (?) (अंवि पृ ६७) । अब्भायत्त-प्रत्यागत, वापस आया हुआ (दे ११३१)-'अब्भायत्ता भमन्ति
तुह रिउणो' (वृ)। अब्भायत्थ—पश्चाद्गत, फिर गया हुआ-'अब्भायत्थो पश्चाद् गत इति तु
गोपालः' (दे १।३१ वृ)। अभिडिअ-१ सार, मजबूत । २ संगत, युक्त (दे ११७८)। अभिडिऊण-टकरा कर-'सो चक्के अन्भिडिऊण भग्गो' (उशाटी प १४६) । अब्भुट्टि-हिंसक-'आउट्टि त्ति वा अब्भुट्टि त्ति वा एगट्ठा' (आचू पृ २७५) । अब्भुत्त-प्रदीप्त, चमकदार (निचू ३ पृ ३२१)। अब्भुत्तिअ-१ प्रदीप्त, प्रकाशित । २ उत्तेजित्त (से १५॥३८) । अब्भआण-उफनता हुआ-'आकंठा आदाणस्स भरिया, तो तप्पमाणी
भरिया अब्भूआणा छड्डिज्जति, अग्गि पि विज्झावेति'
(निचू ३ पृ ८५)। अभिचार—उच्चाटन आदि (निचू १ पृ १६३)। अभिणूम---१ माया (सू ११२।७) । २ कर्म (सूचू पृ ५३)।
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देशी शब्दकोश
अभिण्णपुड-- खाली पुडिया जिसको बच्चे लोगों को ललचाने के लिए रास्ते
पर रख देते हैं (दे ११४४)। अभिनिपिया-- प्रत्येक का पृथक्-पृथक् चूल्हा (व्य ६।१०)। अभिनिव्वगड-.-१ अनेक और निश्चित परिक्षेप वाला स्थान । २ पृथग्
पृथग् परिक्षेप वाला स्थान (बू ११११ टी पृ ६४६)। ३ वह परिक्षेप जिसमें प्रवेश और निष्क्रमण का एक द्वार
हो पर भीतर अनेक घर हों (व्यभा ८ टी प ४) । अमंगुल--इष्ट (निचू ३ पृ १४२) । अमज्जाइल्ल-- अमर्यादित, अव्यवस्थित (निभा ४०३) । अमणाम- मन के लिए अप्रिय (स्था २ २३३)। अमय--१ चन्द्रमा, चांद (दे १।१५) । २ असुर, दैत्य । अमयणिग्गम-चन्द्रमा (दे १११५)। अमाघाय-अमारि-'अमाघातो रूढिशब्दत्वात् अमारिरित्यर्थ.' (उपाटी पृ ६१)। अमिय—प्राप्त-'अमिया गावीतो, जुज्झं संपलग्गं' (निचू ३ पृ १९७) । अमिल---१ मेष, भेड़ (ओनि ३६८) । २ भांड-विशेष (अंवि पृ ७२) । अमिला-१ भेड़ की ऊन से बना वस्त्र (आचला ५।१४)। २ देश-विशेष
में सूक्ष्म रोओं से निर्मित वस्त्र (निचू २ पृ ३६६) । अमुदग्ग-अतीन्द्रिय मिथ्याज्ञान-विशेष, जीव पुद्गलों से बना हुआ नहीं है
ऐसा ज्ञान (स्था ७।२) । अमुय-अस्मृत, अज्ञात (भ ११४२६) । अमोग्गतिया--सम्मुख जाना, त्वरित गति से जाना—'तस्सागमणवेलाए
सव्वो परियणो पच्चोवणीए णिग्गतो अमोग्गतिया एति'
(निचू ३ पृ ४११)। अमोसली-अप्रमादयुक्त प्रतिलेखना का एक प्रकार (स्था ६।४६) । अम्मका-मां (आवदी प ८०)। अम्मगा-मां (भ ६।१४८) । अम्मणअंचिअ-अनुगमन, पीछे-पीछे जाना (दे ११४६) । अम्मया-माता, अम्बा (ज्ञा १।६।४)। अम्मा --मां (अंत ५१६; दे ११५) । अम्माइआ-अनुगमन करने वाली, पीछे-पीछे जाने वाली (दे ११२२)। अम्मिय-प्राप्त (बृटी पृ ७७६)।
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२०
देशी शब्दकोश
अम्मो - १ माता का सम्बोधन ( ज्ञा १ | १४ | २६ ) । २ आश्चर्यसूचक अव्यय (प्रा २२०८ ) ।
अम्मोगइया - सम्मुख गमन, स्वागत करने के लिए सामने जाना - 'राया सयमेव अम्मोगइयाए निग्गओ' (उसुटी प २३) ।
अम्मोगतिया — सम्मुख - गमन ( आवचू १ पृ ३६५) ।
अय--- - १ विस्मृत । २ आदरणीय । ३ परित्यक्त (दे ११४६ ) |
अयक्क -- दानव (दे १।६ ) ।
अयग - दानव (दे १।६) ।
अयड - कुंआ, कूप ( दे १।१८ ) ।
अयतंचिअ - हृष्ट-पुष्ट, मांसल (दे १।४७) ।
अयसा - सुरा - विशेष (अंवि पृ १५१ ) ।
अयालि मेघाच्छन्न दिवस, आकाश में बादलों के छा जाने से होने वाला अन्धकार, दुर्दिन (दे १।१३) ।
अयोइल्ल - कारावास - डंडं पुरस्कृत्य राया अयोइल्लए ठवेति' (दश्रुचू प ३९ ) । अरइय - - १ अर्श, मसा ( आचूला १३।२८ ) । २ अजीर्ण ( नि ३ । ३४ ) । अरंजरग - जलघट ( सूचू १ पृ ११७ ) ।
अरक – कृमि - विशेष (अंवि पृ ६९ ) ।
अरतीअ – मसा, अर्श (आचू पृ ३७२) ।
अरबाग - १ एक अनार्य देश, अरब देश ( प्रसा ८३ ) । २ अरब देश के वासी (कु पृ ४० ) ।
अरल --१ कीट - विशेष, चीरी । २ मच्छर (दे १।५२ ) ।
अरलाया - चीरी, चार इन्द्रिय वाला छोटा प्राणी जो रात को लयबद्ध ध्वनि करता है, पर दृष्टिगोचर नहीं होता ( दे १।२६) ।
अरलूसा - अडूसा का वृक्ष (अंवि पृ ७० ) । अरविंदर - दीर्घ (दे १।४५) ।
अरहट्ठ --- रहट (ओटी प १९ ) । अरिअल्लि -- व्याघ्र (दे १।२४) ।
अरिज्ज - अग्र, परिमाण (आचू पृ ३३६) ।
अरिसिल्ल - बवासीर रोग वाला ( विपा १।७।७) । अरिहs - निश्चित, अवश्य (दे १।२२ ) । अरुग- व्रण, फोडा ( बृभा ६०२८ ) ।
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देशी शब्दकोश
अरुण – कमल (दे ११८ ) |
-
- व्रण ( बृभा २२२५) ।
अरुय
अलंदक -- कटोरा (अंवि पृ ६५ ) ।
अलंदिका - थाली के आकार का पात्र (अंवि पृ ७२ ) ।
अलंदिग— पात्र - विशेष ( आचू पृ ३४५ ) । अलंप - कुक्कुट (दे १।१३) ।
अलक्कडअ – पागल कुत्ता (बूटी पृ ८२६ ) । अलग्ग – कलंक, आरोप (दे १।११) । अलमंजुल -- आलसी, सुस्त (दे १।४६ ) ।
अलमल -- दुर्दान्त वृषभ, दुष्ट बैल (दे १।२५) ।
अलमलवसह — दुर्दान्त वृषभ, दुष्ट बैल - ' अलमलवस हो सप्ताक्षरं नामेति गोपालः' (दे १२५ वृ ) ।
अलय – विद्रुम, प्रवाल ( दे १।१६ ) ।
अलस
- १ मोम । २ कुसुंभ रंग से रंगा हुआ (दे १।५२ ) । २ मंद- मधुर ध्वनि ( पा ६०२ ) ।
अलसंदक-अतसी, धान्य- विशेष (अंवि पृ २२०) । अलाहि--पर्याप्त, परिपूर्ण ( ज्ञा १ । १ । १ ) । अलिय -- बिच्छू का डंक, कांटा ( विपा १।६।२३ ) । अलिअल्ली - - १ कस्तूरिका । २ व्याघ्र (दे १।५६ ) । अलिआ - सखी (दे १।१६) ।
अलिआर - दुग्ध (दे १।२३) ।
अलिंजरअ - रंगने का बड़ा पात्र ( पा ६२३) ।
अलिंद - पात्र - विशेष (अनुद्वा ३७५ )
।
२१
अदिगा - एक प्रकार का जलपात्र ( आवचू २ पृ ७० ) ।
अलि --- वृश्चिक, बिच्छू (दे १।११) ।
अलित्तय - नौका खेने का बड़ा बांस - 'अलित्तओ कोटिंबियाए फिट्टो महल्लो वंसो' (आचू पृ ३५७ ) ।
अलियाण - अकुशल ( प्र २।१४ ) ।
अलिसिद -- धान्य- विशेष - 'अलिसिंदा चवलागारा' (निचू २ पृ १०९ ) । अलीपट्ट - बिच्छू के डंक की आकृति वाली तीखी खूंटी (विपा १।६।२० ) । अलीसअ --शाक वृक्ष (दे १।२७) |
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२२
देशी शब्दकोश
अलेभड -- अस्थिर - ' तत्थ नवमो वासारत्तो कओ, सो य अलेभडो जाओ' ( आवहाटी १ पृ १४१ ) ।
अल्ल- - दिन ( अंवि पृ २४२; दे ११५ ) ।
अल्लअ - परिचित (३ १।१२) ।
अल्लकम्म -- १ दैनिक व्यवहार की कला । २ सिंचन - कला ( कु पृ २३३) । अल्लट्टपलट्ट - पार्श्व का परिवर्तन ( दे १४८ )।
अल्लट्टपलट्टया--पार्श्व का परिवर्तन ( दे १४८ वृ)।
अल्लत्थ- -१ पानी से भीगा हुआ । २ केयूर, बाजूबंद (दे १।५४) । अल्लपल्ल - बिच्छू के डंक की आकृति वाली तीखी खूंटियां ( विपाटी प ७१ ) ।
अल्लमुत्था -- कंद - विशेष ( प्रसा २३८ ) ।
अल्लल्ल - मयूर (दे १।१३) ।
अल्लविय -- उठाना, भार ढोना - तेण तस्स सत्यकोत्थलओ अल्लविओ' ( उसुटी प२७) ।
अल्ला -१ जननी, माता (दे १।५ ) । २ अवमीलन, आंख बंद करना (से १३।४३) ।
अल्लिय - पास में आना ( पंव ९३७ ) |
अल्लियअ—– समीप गंतू साहूणमल्लियओ' (पंक ६००) ।
अल्लियाव - १ छीना हुआ (पंक ४९२ ) । २ प्रवेश ( आवचू १ पृ ४४६) । अल्लीण- आया- 'न कोइ कयगो अल्लीणो' (व्यभा २ टी प ४६ ) ।
अव अक्खि -- मुंडाया हुआ मुंह (दे ११४० ) ।
अवअच्चिअ --- मांसल (दे १।४७ वृ ) |
अवअच्छ– १ कौपीन, कक्षावस्त्र (दे ११२६ ) । २ कांख, बगल ( वृ ) | अवअच्छि निवापित मुख, मुंडाया हुआ मुंह (दे १।४० ) |
अवअणिअ - असंघटित, अयुक्त (दे १।४४) ।
अवअण्ण-- उदूखल, उलूखल (दे १।२६ ) ।
अवइ - अनंतकाय वनस्पति- विशेष (भटी पृ १४८५ ) ।
अवउज्जिअ - नीचे झुककर - ' अवउज्जिअत्ति अधोऽवनम्य' (आटी प ३४२ ) । अवएज - पात्र - विशेष ( ज्ञाटी प ४८ ) ।
अवएड - पात्र विशेष ( ज्ञाटी प ४७ )
।
अवएड - तापिकाहस्त, तवे का हाथा (भ ११ । १५६ ) ।
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देशी शब्दकोश
अवओडय - गले को मरोड़ना ( विपा १।२।१४ ) ।
अवओडयबंधणय - वह व्यक्ति जिसके गले और हाथों को मरोड़कर उनको पृष्ठभाग के साथ रस्सी से बांध दिया जाए ( अंत ६।२२ ) ।
अवंग - कटाक्ष (दे १ । १५) । अवंगुणित्ता - खोलकर (भ १५।१४२) । अवंगणेत्ता - खोलकर ( ज्ञा १।१६।६५ ) | अवंगत - - उद्घाटित ( बृभा ४०७१) । अवंग - उद्घाटित (भ २।६४) ।
अवकड्ढित-- पराजित - 'अवरुड्ढते पराहूते पराजित परम्मुहे' (अंवि पृ १०८ ) ।
अवकीरिअ -- विरहित ( दे १।३८ ) |
अवकोडक – गले को मरोड़ना, कृकाटिका - गले के पिछले भाग को नीचे ले जाना ( ३।१२) ।
अवक्करस - मद्य, मदिरा (दे १।४६ ) |
अवग - जलीय वनस्पति - विशेष ( सू २।३।४३ ) |
अवगद --- विस्तीर्ण, विशाल (दे १।३० ) ।
अवगर – कूड़ा (भटी पृ ७३० ) ।
अवगूढ --- अपराध (दे १।२० ) ।
अवचुल्ल --- छोटा चूल्हा ( निचू ३ पृ १०९ ) ।
अवचुल्ली – छोटा चूल्हा - 'चुल्लीए समीवे अवचुल्ली' (निचू ३ पृ १०९ ) । अवच्छुरण — क्रोध के वशीभूत होकर अनर्गल बोलना - किमिह जुत्तं पिअम्म अवच्छुरणं' (दे १।३६ वृ ) ।
अवछुरण - कोध के वशीभूत होकर अनर्गल बोलना (दे १।३९) । अवज्झर -- निर्भर - विशेष (ज्ञाटी प १०६ ) ।
अवज्झस १ कटि, कमर । २ कठिन (दे ११५६ ) ।
अवठंभ - ताम्बूल (दे १।३६ ) |
अवड - १ कूप । २ आराम, बगीचा (दे १।५३ ) ।
अवडअ -- १ तृण- पुरुष, घास की बनी हुई पुरुषाकृति ( दे १।२० ) । २ कूप । ३ बगीचा ( दे १।५३ वृ ) |
२३.
अवsक्किअ -- कूप आदि में गिरकर मरा हुआ, जिसने आत्महत्या की हो वह
(दे १।४७) ।
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२४
अवडाहिअ - १ अभिशप्त । ( दे १।४७) । २ उत्कृष्ट ।
अवडिअ - खिन्न (दे १।२१) । अवsिच्छि अनपेक्षित ( से १०।४१ ) ।
अवडुअ - उलूखल, ऊखल (दे १।२६ ) ।
अवड्डा - कृकाटिका (भटी पृ १२५७) ।
अवण - १ पानी की तीव्र धारा जो नीचे से ऊपर की ओर निकलती है । २ घर का फलहक (दे १।५५) ।
अवण्ण - अवगणना, अवज्ञा (दे १।१७ ) ।
अवतंस - पुरुषव्याधि' नामक रोग - विशेष ( बृभा ६३३६ ) । अवतासावि-अवश्लिष्ट ( विपा १ । ११५५) ।
अवतासित - बलात् आलिंगित- 'बलामो टिकया आलिंगितः ' (बूटी पृ १५१० ) ।
अवत्त - उपलिप्त ( बृभा ५८४) ।
अवत्तय --- विसंस्थुल, अव्यवस्थित (दे १ ३४) । अवत्थरा -- पाद - प्रहार (दे १/२२ ) ।
देशी शब्दकं श
अवद्दुस — ऊखल, छाज आदि सामान्य उपकरण (दे १।३० ) । अवधिका — उपदेहिका, दीमक ( प्र १।३३) ।
अवपक्क - तवा (ज्ञाटी प ४७) । अवपुसिअ - संघटित, संयुक्त (दे १३६) ।
अवमद --- भाजन विशेष ( जंबूटी प १०० ) ।
अवमिय- जिसको घाव हो गया हो वह, जख्मी ( बृ ३ ) ।
अवयक्का - कड़ाही (भ ११ । १५६ ) ।
अवयक्खि-मुंडित मुख ( दे १।४० ) ।
अवयग्ग - अंत, अवसान - अवयग्गं ति देशीवचनोऽन्तवाचकः' (भटी प ३५) । अवयच्छिय - १ प्रपारित (ज्ञाटी प १४४ ) । २ मुण्डित मुख (दे १।४० ) ।
अवयड्डिय - - युद्ध क्षेत्र में अपहृत ( दे ११४६ ) ।
अवयत्थिय - प्रसारित - 'अवयत्थिय-महल्ल - विगय- बीभच्छरत्ततालुयं'
(ज्ञा १।८।७२ ) । अवयरिअ - विरह, वियोग (दे १।३६ ) ।
अवयाण - आकर्षण - रज्जु, खींचने की डोरी (दे १।२४)।
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देशी शब्दकोश
अवयार - माघ पूर्णिमा का एक उत्सव - विशेष, जिसमें इक्षु-खंड से दतवन करना आदि क्रियाएं की जाती हैं (दे १।३२) । अवयास --- आलिंगन ( पिनि ५८१ ) । अवयासण- आलिंगन ( कु पृ १७३) । अवयासाविअ - आलिंगित ( विपाटी प ६७ ) । अवयासिअ -आलिंगित ( बृभा ५७१० ) । अवयासिणी-नासा-रज्जु, नाक में डाली जाती डोर (दे ११४६) ।
अवयि रोग - विशेष (अंवि पृ २०३ ) |
अवरज्ज- -१ गत दिवस । २ आगामी दिवस । ३ प्रभात (दे ११५६ ) । अवरत्तअ- पश्चात्ताप (दे १ । ४५ ) ।
अवरत्तेअ-पश्चात्ताप, अनुताप (दे ११४५ वृ ) ।
अवरद्धिग-१ लूतास्फोट, मकड़ी के काटने से होने वाला फोड़ा । २ सर्पदंश (पिनि १४ ) ।
अवराह - कटि, कमर ( दे ११२८ ) |
अव रिक्क अवकाश रहित, व्यस्त (दे १२० ) |
अवरिज्ज - अद्वितीय ( दे १।३६ ) |
अवरिद्धि- १ मकड़ी के काटने से होने वाला फोड़ा । २ सर्पदंश ( पिटी प १६३) ।
अवरिहड्डपुराण - १ अकीर्ति । २ असत्य । ३ दान (दे १।६० ) । अवरुडण - परिरंभण, आलिंगन ( पा ४६२ ) ।
अवरु डिअ - आलिंगन ( आवहाटी १ पृ १८३ ; दे १।११) । अवरेय - रिक्तता ( उशाटी प ३०५ ) ।
अवरोह - कटि, कमर ( दे १।२८ ) |
अवलय- - घर, मकान (दे १।२३) ।
अवलंब - - १ बाहर के दरवाजे का प्रकोष्ठ (ओलिंद ? ) । २ दीमक का ढूह (ओलिभा दे १११५३ ? ) | ( स्था २/३६१) ।
अवलिच्छिअ-अप्राप्त- 'अवलिच्छिअसेससाअरो मअरहरो' ( से 81७८ ) । अवलिय-असत्य (दे १।२२) ।
अवलुआ - कोप (दे १।३६ ) ।
. अवल्ल - बैल ( आवचू २ पृ १५३) ।
अवल्लक - नौका खेने का उपकरण विशेष ( सूचू १ पृ ३९ ) ।
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अवल्लय - नौका खेने का उपकरण - विशेष (आचूला ३।१९ ) । अवल्लाव- -असत्य कथन, अपलाप (दे १ । ३८ वृ ) । अवल्लावअ - अपलाप, असत्य कथन ( दे १।३८ ) |
अवव -- संख्या - विशेष - 'चतुरशीतिरववाङ्गा शतसहस्राणि एकमववम्' ( जीवटी प ३४५ ) 1
अववंग - संख्या - विशेष (भ ५।१८ ) |
अवसंतुइय - बाहर निकालकर (दअचू पृ ११५.) । अवसमिआ -- गूंदा हुआ बासी आटा (दे १।३७ ) । अवसह --- १ उत्सव । २ नियम (दे १५८ )
अवसावण
-१ काञ्जिका - अवसावणं लाडाणं कंजियं भण्णई' ( बृटी पृ ८७१) । २ भात वगैरह का पानी । अवह- शरीर का अवयव (अंवि पृ ६६ ) । अवहट्ठे-अभिमानी, अहंकारी (दे १।२३ ) । अवहड - मुसल (दे १।३२) । अवहण - उलूखल (दे १ । २६ वृ ) ।
अवहत्थरा -- पाद - प्रहार (दे १।२२ वृ ) |
अवहन्न- - ऊखल ( बृभा २६३३ ) । अवहाअ - विरह ( दे ११३६) ।
अवहित्था - मन की अस्त-व्यस्तता, अकुलाहट ( से १११९ टी) । अवहेअ - दया पात्र, अनुकंपा का पात्र (दे ११२२ ) ।
अवहेडग - आधासीसी रोग ( उशाटी प १४३) । अवहेडय—-आधासीसी रोग, आधे शिर का रोग ( उनि १५० ) 1
देशी शब्दकोश
अवहेडिय -- नीचे की तरफ मुड़ा हुआ, झुका हुआ - 'अवहेडिय पिट्टसउत्तमं गे" ( उ १२।२६ ) ।
अवहेरी - तिरस्कार, अवहेलना ( उसुटी प १६२ ) ।
अवहोडय -- बन्धन का एक प्रकार, हाथ और सिर को पीठ से बांधना'अव होडएण जक्खस्सेव पुरओ बंधेऊण' (उसुटी प ३५ ) |
अवार - बाजार, दुकान ( निचू २ पृ १६० ; दे १।१२ ) ।
अवारी - दुकान, बाजार (दे १।१२ ) ।
अवालुआ- होठ का प्रान्त भाग (दे ११२८ ) - 'अवालुआ फुडं फुडइ' (वृ) । अविअ - कहा हुआ (दे १११० ) ।
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देशी शब्दकोश
अविच्छिय-प्रसारित (ज्ञाटी प १४४) । अविणयवइ-जार-पुरुष (दे १११८ वृ)। अविणयवर-जार-पुरुष (दे १।१८) । अवियत्त--अप्रीति (व्यभा २ टी प ३४) । अवियाउरी–१ प्रसव करने पर जिसकी संतान तत्काल मर जाती हो, वह
स्त्री (ज्ञा ११२१८) । २ वन्ध्या (आवचू १ पृ २६४) । अविरल्ल-अविस्तारित, एकत्रित (व्यभा ४१४ टी प १०)। अविरल्लण-अविस्तारित, एकत्रित (व्यभा ५ टी प १०)। अविराय—अविध्वस्त (जी ३।११८) । अविरिक्क–अविभक्त (व्यमा ६ टी प ६) । अविल-.१ पशु । २ कठिन (दे १५२) । अविला-गड्डरिका (पिटी प २०)। अविहाड-१ बालक, बच्चा-'देशीभाषया बालकः' (बृटी पृ ६०८)।
२ अप्रकट (व्यभा ७ टी प ५)। अविहाविअ- १ दीन । २ मौन (दे ११५६) । अवेलि-खाद्य पदार्थ-विशेष (अंवि पृ ७१) । अवेसि-द्वार-फलक (दे श८)। अवेसिण-चौखट, द्वार-फलिह (पा ७६१) । अवोगिल्ल-अवाचाल-'महाराष्ट्रकमवोगिल्लमवाचालं'
(व्यभा ७ टी प २५)। अवोच्चत्य-अविपरीत (निचू २ पृ १२६)। अवोवच्छ—अविपर्यस्त (व्यभा ८ टी प ६)। अव्वंग-अक्षत (व्यभा ६ टी प ६६) । अव्वा-जननी, माता (दे ११५)। अव्वो—सम्बोधन-सूचक अव्यय (उसुटी प २१)। अव्वोकड्ढ-खींचा हुआ-'उक्कड्ढमोकड्ढे त्ति वा पुणो' (अंवि पृ८६)। अव्वोगड-~-१ अविभक्त-'अब्बोगडमविभत्तं' (बृभा ४७६६)। २ अविकृत
____ 'अव्वोगडं अविगडं' (व्यभा ७ टी प ६१)। असंखड-वाचिक कलह (निचू १ पृ ४६) । असंखडिय-कलह करने वाला (ओभा २२६)। असंखडी-कलह (प्रसाटी प २२८) ।
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२८
असंगय- वस्त्र (दे १।३४) ।
असंगिय - १ अश्व । २ अनवस्थित, चंचल (दे १।५५ ) |
असंथड - असमर्थ ( आचूला ४।३२ ) । असंथडिय --- अतृप्त ( बृचूप २०८ ) । असंथडी -- अतृप्त ( बृभा ५८१७) ।
असंथर – १ दुर्भिक्ष- 'असंथ र दुब्भिक्ख' । २ असमर्थ ( निचू १ पृ ११६) । ३ अप्राप्ति । ४ अतृप्ति (व्यभा ४ टी प ८ ) 1
असंथरंत - १ तृप्त न होता हुआ (ओनि १८३ ) । २ समर्थ न होता हुआ (ओनि २१० ) ।
देशी शब्दकोश
असंथरण - १ निर्वाह का अभाव ( आचू पृ ३३७ ) । २ असमर्थता ( निचू १ ) । ३ पर्याप्त लाभ का अभाव ( पंव ३ ) |
असंथरमाण - १ तृप्त न होता हुआ ( नि १० । ३२ ) । २ समर्थ न होता हुआ । ३ खोज न करता हुआ (व्यभा ४ टी प ७१) ।
असंफर - नग्न पैर ( बृभा ३८६५ ) ।
असंफुर – ऐसा रोगी जिसकी शक्ति क्षीण होने के कारण पैर सकुचा जाते हैं और जो ठीक से सो नहीं पाता (बृभा ३६०७) । असण-वृक्ष विशेष, एकास्थिक वृक्ष (भ ८।२१६) । असधीण - प्रवास में गए हुए (निचू २ पृ १४२) । असरमाण - अनिर्वाह ( निचू १ पृ ४१ ) 1
असराल —- प्रचुर -‘असराललोहपडिबद्धो' (कु पृ ३७) । असरासअ – कठोर हृदय वाला, निष्ठुर (दे ११४० ) |
असवत्तअ - तृणविशेष - 'दब्भो कुंभीचक्को वा गोल्ल विसए असवत्तओ भण्णति' (आचू पृ ३५७) ।
असहीण - परदेश गमन ( निचू २ पृ १६१) । असाढ्य - तृण - विशेष (प्रज्ञा १।४२ ) । असारा — कदली-वृक्ष, केले का वृक्ष (दे १११२) ।
असारिय - निर्जन स्थान ( बृटी पृ १३७१) ।
असिअय-दात्र, दांती (भ १४८५ ) |
असिय-दात्र, दांती - 'असिएहिं लुणंति' (ज्ञा १।७।१५; दे १।१४ ) । असियग— शस्त्र - विशेष, दांती - 'सत्थं वा असियगमादी' ( सूचू २ पृ ३४१) । असिया-मसा का रोग ( आचू पृ ३७२ ) ।
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देशी शब्दकोश
असीमालिका – कंठ का आभूषण (अंवि पृ १६२ ) ।
अह - दुःख (दे ११६ ) ।
अहट्ट - आडम्बर, उपाधि ( आवचू १ पृ ४४६ ) ।
अहर-असमर्थ (दे १।१७) ।
अहवण - १ अथवा - ' अहवण' त्ति अखण्डमव्ययं अथवार्थे वर्त्तते' ( बूटी पृ ३०३ ) । २ वाक्यालंकार में प्रयुक्त होने वाला अव्यय । अहव्वा - असती, कुलटा (दे १।१८ ) । अहासंथड - - - निष्कम्प, निश्चल - ' अहासंथडं नाम णिप्पकंपं' ( निचू २ पृ १७० ) ।
अहिअल --- कोप, क्रोध (दे १।३६ ) |
अहिआर - लोकयात्रा, लोक व्यवहार, जीवन-यात्रा (दे १।२९ ) । अहिक्खण - १ उपालंभ ( दे ११३५) । २ बार - बार - 'अभीक्ष्णमित्यन्ये' (वृ) ।
अहिगर - अजगर ( जीव १ ) |
अहिगरणसाला - लोहकारशाला (भटी पृ १२८२) ।
अहिगरणिखोsि - अहरन को रखने का काष्ठ- विशेष (भटी पृ १२८२) । अहिगरी - अजगरी ( जीव २ ) ।
अहिड्डु --- पीड़ित (पा ५४६) ।
अहिका - सांप की एक जाति (अंवि पृ २२६) ।
अहिका - सर्पिणी (अंवि पृ ६९ ) 1
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अहिपच्चइअ - १ अनुगमन, पीछे-पीछे चलना (दे ११४९ ) । २ आयात,
आगत ।
अहिमर - - १ वधक ( निचू ३ पृ ३७) । २ आघात करने वाले चोर, अश्व आदि को चुराने वाले चोर - ' अहिमरा णाम दद्दरचोरा, अस्सहरणं वा मारणं वा काउकामा ' ( निचू १ पृ ५३) ।
अहिमार - पुष्प फल वाला वृक्ष - विशेष (अंवि पृ २३२ ) । अहिमारु -- वृक्ष - विशेष - एगं अहिमारुदारुयं ' ( उशाटी प १४३ ) । अहिरिक्क — उत्त्रास, भय (व्यभा ३ टी प ६२ ) ।
अहिरीअ - निस्तेज, फीका (दे १।२७) । अहिरेमइअ --- पूर्ण, भरा हुआ ( पा १४२ ) । अहिलाण - मुख का बन्धन- विशेष (भटी पृ८८२) ।
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देशी शब्दकोश
अहिलिअ--१ अभिभव, पराभव । २ कोप (दे ११५७) । अहिलका–चतुरिन्द्रिय जंतु-विशेष (अंवि पृ २३७) । अहिलोडिका-जीव-विशेष, गोपालिका (बृटी पृ १५४८) । अहिलोढी-सरटी, मादा गिरगिट-'अहिलोढी सरडी वि भण्णति'
(दश्रुचू प ६८)। अहिल्ल-ईश्वर, धनवान् (दे १।१०)। अहिवण्ण--पीले और लाल रंग वाला (दे ११३३)। अहिविण्णा-उपपत्नी (दे ११२५) । अहिसंधि-बार-बार, पुनः-पुनः (दे १।३२) । अहिसाय--परिपूर्ण (दे १।२०) । अहिसिअ-१ अनिष्ट ग्रहों की आशंका से खेद करना, रोना (दे ११३०)।
२ अनिष्ट ग्रह से भयभीत । अहिहर–१ देवकुल, पुराना मन्दिर । २ वल्मीक (दे ११५७) । अहिहाण-प्रशंसा, स्तुति (दे १।२१) । अहोरण-उत्तरीय वस्त्र (दे २२५) ।
आ
आअ-१ अध्ययन, परिच्छेद-'अज्झयणं अज्झीणं आओ झवणा य एगट्टा'
(निचू १ पृ ५)। २ बहुत। ३ दीर्घ । ४ कठिन । ५ लोहा।
६ मुसल (दे ११७३)। आअड्डिअ-दूसरे की प्रेरणा से चलित (दे १।६८)। आअडि-आकृष्ट (से १११६) । आअर-१ उदूखल । २ कूर्च, दाढी (दे ११७४) । आअल्ल-१ रोग । २ चंचल (दे ११७५)। आअल्लि-लताओं से सघन प्रदेश (दे ११६१) । आअल्ली -लताओं से सघन प्रदेश (दे ११६१) । आई-वाक्य की शोभा के लिए प्रयुक्त अव्यय-'आइं ति देशभाषायाम्'
(ज्ञाटी प १६५)।
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देशी शब्दकोश
आइंखणा -कर्ण पिशाची देवी ( प्रसा ११३) ।
आइंखणिया- १ कर्णपिशाचिका देवी । २ डोंबी, चांडाली - 'आइंखणिय ति क्षणिका दैवज्ञा आख्यात्री लोकसिद्धा डोंबी' ( पंवटी प २३२) ।
आइंखिणिया- १ डोमिनी, चंडालिनी (बृभा १३१२) | पिशाचिका देवी ( निभा ४२६० ) ।
२ कर्ण
आइण्ण- -१ कुलीन घोड़ा ( प्र ४१७ ) ।
आगासे उक्खिवित्ता' (आवहाटी १ पृ २८५) ।
२ पिरोना - 'मोत्तियं आइण्णंतो
आइद्ध - प्रेरित ( से ६।७ ) ।
आइप्पण - १ चूर्ण, आटा । २ उत्सव में गृह शोभा के लिए चूना आदि की पुताई ( दे १७८ ) । ३ उत्सव के प्रसंग पर गृह, गृहद्वार को सजाने के लिए गीले चावल के आटे से विभिन्न आकृतियों का निर्माण करना ( वृ ) ।
आइसण- उज्झित, त्यक्त (दे १।७१) ।
आउ- - १ नक्षत्र देव - विशेष (स्था २।३२४) । २ जल ( सू २|१|२७ ;
दे १।६१) ।
आउंबालिय - आप्लावित ( पा १३६ ) ।
आउट्ट - १ आदर, सम्मान - किं मम एहेण आउट्टेण' (उशाटी प १४६ ) । २ प्रणत (व्यभा ६ टीप १८ ) । ३ करना - ' करणार्थे आउट्ट शब्दः ' (दश्रुचूप ६८ ) ।
आउट्टण - निवेदन ( बृभा २९३ ) ।
आउट्टणा - आराधना, प्रसन्न करना (निचू २ पृ १०९ ) ।
आउट्टि - असंयम (व्यभा १ टी प २४) ।
आउट्टित - आराधित- 'आउट्टिता इट्ठदाणं देहिति' (निचू २ पृ १०६) । आउट्टिया -- जानबूझकर - 'आउट्टिया णाम आभोगो-जानान इत्यर्थः' (निचू ३ पृ ३१७) ।
आउडिज्जमाण -- १ आसंबध्यमान । २ परस्पर आहन्यमान
आउर - संग्राम (दे १।६५) ।
आउल-अरण्य (दे १।६२ ) 1
३१
(भटी प २१६) । ३ पीटे जाते हुए (सू २/२०४० ) ।
आउलि - वृक्ष - विशेष ( राजटी पृ ८९ ; दे ५५ ) ।
आउस - १ क्षुरकर्म ( नंदीटि पृ १३८ ) । २ कूर्च, दाढी (दे १।६५ ) । आऊडिअ - जुए में की जाने वाली प्रतिज्ञा (दे ११६८ ) |
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देशी शब्दकोश
आऊर--१ अत्यधिक । २ उष्ण, गरम (दे ११७६) । आऊसिय-प्रविष्ट, संकुचित (ज्ञा ११८७२)। आएस-अतिथि, पाहुना (व्य ६।१)। आओडण-मजबूत करना, दृढ करना (से ६।६) । आओडिम-दबाकर या कूटकर बिठाना, जैसे किसी धातु आदि में मूर्ति या
अक्षर उकेरना,-'आओडिमं जहा रूवओ बिबेण बिबेओ
ओवीलिज्जति' (दअचू पृ ३६)। आओस–सन्ध्या-'आओसे संगारो अमुइ वेलाए निग्गए ठाणं' (ओभा ६१) ।' आंबिली-इमली (व्यभा ६ टी प ८) । आकर-१ भाजन-विशेष-'आकरो नाम गृहस्थ-सम्बन्धि सक्तुभृत
स्थाल्यादिभाजनम्' (आवटि प ६६) । २ भीलों की बस्ती। ३ भीलों का कोट्ट, दुर्ग-'आकरो नाम भिल्लपल्ली भिल्लकोट वा'
(बृटी पृ११०४)। आगत्ति-कूपतुला-कूप से पानी खींचने का साधन (दे ११६३)। आगर-१ भीलों की बस्ती । २ भीलों का गांव या दुर्ग (बृभा ४०३५) । आगल-आगामी काल में होनेवाला-'आगलफलाणि वि मग्गइ त्ति'
(सूचू १ पृ ११८) । आगल्ल-ग्लान-से कम्मण तेण एस आगल्लो' (बृभा ५३२१)। आघतण-वध-स्थान (आवहाटी २ पृ १६६) । आघयण-वध-स्थान-तत्थ णं महं एग आघयणं पासंति' (ज्ञा १।६।२५) । आघवण-कथन (अंत ३१८६)। आधविय-गुरु के पास ग्रहण करना-'आधवियं ति प्राकृतशेल्या छांदसत्वाच्च
गुरोः सकाशादागृहीतम्'। (अनुद्वाहाटी पृ १५) । आचमणिका-भाण्ड-विशेष (अंवि पृ २५५) । आडंबर-पाणजातीय लोगों का यक्ष-विशेष (व्यभा ७ टी प ५५) । आडा-पक्षिणी-विशेष (अंवि पृ ६६)। आडाडा-बलात्कार (दे ११६४) । आडुआलि-मिश्रण (दे ११६६) । आडुआलित्त-मिश्रित (आवहाटी १ पृ २२८) । आडताल--मिश्रित करना, ठंडा करने के लिए हिलाना
(दअचू पृ २८; दे ११६६) ।
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देशी शब्दकोश
३३
आडोलिया - १ खिलौना - विशेष ( ज्ञा १1१८1८ ) । २ रुद्ध, रोका हुआ ( ? ) (टीप २४४) ।
आडोविअ कुपित (दे १७० ) ।
आढत्त- -१ आरब्ध ( उशाटी प २२३) । २ आक्रान्त |
आदिअ -- १ अभीष्ट । २ माननीय । ३ अप्रमत्त । ४ गाढ, सघन (दे ११७४) आणंदवड - आनन्दपट - प्रथम बार रजस्वला वधू के रक्त से रंजित वस्त्र विवाह की सुहागरात्रि में पति अपनी नवोढा पत्नी के कुंवारेपन का अपहरण करता है । उस समय योनिद्वार से रुधिर निकलता है । उस रुधिर से रंगा हुआ वस्त्र अन्यान्य बंधुजनों को आनंदित करता है, इसलिए इस पट का नाम 'आणंदवड ' है (दे १।७२ ) | देखें - वहूपोत्ति ।
आणविखऊण - परीक्षा करके ( आवहाटी १ पृ १६४) । आणाइ - शकुनिका पक्षी, चील (दे १।६४) ।
आणामा
• १ एक प्रकार की प्रव्रज्या । २ वैनयिकवादियों का एक भेद ( सू चू १ पृ २०७ ) ।
आणावचरणिग - जलचर प्राणी - विशेष (अंवि पृ २२७ ) । आणिअ - १ अभीष्ट । २ माननीय । ३ अप्रमत्त । ४ गाढ, सघन (दे १।७४) ।
आणिक्क – १ तिर्यक् मैथुन ( दे १।६१ ) । २ तिरछा - आणिक्क तिर्यगर्थे देशी' (से ६।८६ टी) ।
आणिमल - हाथी का मल - दिट्ठोऽणलगिरिस्स (गंधहत्थिणो ) आणिमलो" ( निचू ३ पृ १४५ ) ।
आणुअ -- १ मुख । २ आकृति ( दे १।६२) ।
आणूव -- श्वपच, डोम ( दे १ । ६४ ) ।
अतिण्ण-- पूजित - 'आतिष्णं ति वा पूजितं ति वा एगट्ठा' (दजिचू पृ २०४) आचण -शुद्धि के साधन - गोमूत्र, गोबर, खारी मिट्टी आदि ( व्यभा ३ टीप १३ ) ।
आदण्ण-आकुल (दअचू पृ २५) ।
आदिल्ल --- आदि, प्रथम (पंक १२१) ।
आदुयाल -- मथित, विलोडित ( आवचू १ पृ १२३ ) । आद्दहण – श्मशान - 'तत्त्व विगतं शरीरं आणं परेहिं णिज्जू' ( सू २ पृ ३१६) ।
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देशी शब्दकोश
आधारिका-तापसों का चर्ममय 'थोकनउ' जो कांख में धारण किया जाता है ( नंदीटि पृ १०१ ) ।
आपुरायण - गोत्र - विशेष (अंवि पृ १५० ) । आफकी -- वृक्ष - विशेष (अंवि पृ ७० ) । आफर - द्यूत, जुआ (दे १।६३ ) |
३४
आभट्ट - विज्ञप्त, संभाषित ( उशाटी प १७३) ।
आभोग — उपकरण - एगाभोग पडिग्गह केई सव्वाणि न य पुरओ', आभोगः उपकरणम्' (ओनि ३६, टीप ३३ ) ।
आभोगिणी - मानसिक निर्णय कराने वाली विद्या - विशेष (बृभा ४६३३) । आमंड - आंवला ( आवहाटी १ पृ २६१) ।
१।६८ ) |
आमंडण - भाण्ड, पात्र (दे आमंथिय (ओमंथिय ? ) ओंधा किया हुआ ( कु पृ २७) । आमडाग - १ कच्चे पत्ते । २ अर्द्धपक्व या अपक्व अरणिक- तंदुलक (आटी प ३४८ ) ।
आमलक बहुबीजक वनस्पति- विशेष - 'नवरमिहामल कादयो न लोकप्रसिद्धाः प्रतिपत्तव्या:, तेषामेकास्थिकत्वात्, किन्तु देशविशेषप्रसिद्धा बहुबीजका एव केचन' (प्रज्ञाटी प ३१) ।
१ नूपुर रखने की पेटी । २ सज्जागृह ( दे १।६७ ) । आमलिता-पूपिका (?) (आचू पृ ३४२) । आमली- छोटे आंवलों का वृक्ष (अंवि पृ ७० ) । आमिल - समस्त प्रकार के रोम, केश - 'आमिलं सव्वरोमजाति' (दनि १५८, अचू पृ १४१) ।
आमेल - केशों का एक प्रकार का जूडा, बालों को बांधने की एक पद्धति (दे १।६२) ।
आमेलअ - आमोडक, बालों को बांधने का पुष्प - निर्मित बंध - विशेष ( उशाटी प १४३) ।
आमेलिअ - आपीड, पुष्पमाला ( से | २१) ।
आमलय
- आमोअ - हर्ष (दे १।६४) ।
आमोड – केशों का एक प्रकार का जूडा, बालों को बांधने की एक पद्धति
(दे १।६२) ।
आमोरअ - विशेषज्ञ, दक्ष ( दे ११६६ ) । आमोसल – गोत्र - विशेष (अंवि पृ १५० ) ।
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देशी शब्दकोश
३५
आय--१ कुहन वनस्पति- विशेष ( प्रज्ञा १।४७ ) । २ वनस्पति - विशेष से बना वस्त्र - 'आयं णाम तोसलिविसए सीयतलाए अयाणं खुरेसु सेवालतरिया लग्गति, तत्थ वत्था कीरंति' (निचू २ पृ ३६९ ) । ३ देश - विशेष की अजा-बकरी के सूक्ष्म रोम से निर्मित वस्त्र ( आटी प ३९३) । आयंचण - गोमूत्र, गोबर, मेंगनी तथा खारी मिट्टी आदि ( निचू ४ पृ ३५८ ) । आयंचणिया- कुंभकार का वह पात्र, जिसमें वह घड़ा आदि बनाते समय मिट्टी का पानी रखता है (भटी पृ १२५७) ।
आयंस - बैल आदि के गले का आभूषण - आदर्शस्तु वृषभादिग्रीवाभरणं' ( अनुद्वामटी प ४३ ) ।
आयड्ढि - विस्तार (दे १।६४) ।
आयल्ल -- रोग ( पा ८२ ) ।
आयल्लय – बेचैन करने वाला, दर्दनाक - 'आयल्लयवृत्तंतो जइ वितए साहिओ' ( कु पृ १८१) ।
आयाबल - बाल - आतप, प्रातःकालीन सूर्य का आतप (दे ११७० ) । आयाम- बल । २ दीर्घ (दे १।६४) । आयावल-सुबह की धूप ( दे १1७० ) ।
आयावलय - सुबह की धूप ( पा ६०९ ) ।
आयासतल - प्रासाद का पिछला भाग (दे १।७२) ।
आयासलब - पक्षिगृह, नीड (दे १\७२) ।
आयुस - क्षुरकर्म, हजामत - 'हाविता पुच्छिता - केण आउस कारितं ?' ( नंदीट पृ १३६) ।
आयोइल्लाग - कैदी (दश्रुचू प ३९ ) ।
आरंदर - १ जनसंकुल । २ संकीर्ण (दे १७८ ) । आरंभिअ - मालाकार, माली (दे ११७१) । आरकुड — धातु- विशेष, पीतल (अंवि पृ १६२ ) । आरडिअ - १ विलाप, क्रन्दन । २ सचित्र (दे १।७५ वृ) ।
आरण - अधर, होठ (दे ११७६ ) ।
आरणाल– १ कमल (दे १०६७) । २ कांजी (वृ) ।
आरद्ध - १ प्रवृद्ध | २ उत्सुक । ३ घर में आया हुआ (दे ११७५) आरनाल--१ कांजी - 'कंजियं देसी भासाए आरनालं भण्णति'
( निचू १ पृ७४) । २ कमल (दे १।६७ ) ।
आरबी- देश - विशेष की दासी, अरब देश की दासी (ज्ञा १११-२ ) ।
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३६
आराइअ – १ स्वीकृत । २ प्राप्त ( दे १७० ) । आराडिड - क्रन्दन ( आवचू २ पृ १६५) ।
आराडी - १ विलाप । २ चित्रों से मंडित (दे १४७५) ।
आरिग - आरी, शस्त्र - विशेष ( पंक २०२४) ।
आरिल्ल - तत्काल उत्पन्न ( दे १९६३ ) |
आरेइअ - १ मुकुलित । २ मुक्त | ३ भ्रान्त । ४ रोमाञ्चित, पुलकित (दे १।७७)।
आरोग्गअ - भक्षित, खाया हुआ (दे १।६९ ) ।
आरोट्ट - १ 'अरोडा' जाति - विशेष । २ छात्रजाति का संबोधन ( कु पृ १५१) ।
आरोस – म्लेच्छ जाति - विशेष ( प्र १२० ) ।
आरोह-स्तन (दे १।६३) ।
देशी शब्दकोश
आल- . १ व्यर्थ, निरर्थक - "मए आलो अब्भुवगओ, किं सक्का इयाणि निव्वहिउं ?" (बृटी पृ ५६ ) । २ कंलक, दोषारोपण ( प्रसाटी प १४५ ) । ३ छोटा प्रवाह । ४ कोमल, मृदु (दे १।७३) ।
आलइअ - पहना हुआ, आविद्ध- 'आल इअमालमउडो' (आवहाटी १ पृ १२३) । देखें-लइअ ।
आलं किअ - लंगड़ा किया हुआ (दे ११६८ ) |
आलंब - भूमिछत्र, वनस्पति- विशेष जो वर्षा में उत्पन्न होती है (दे १।६४) । आलक - चतुरिन्द्रिय जंतु - विशेष (अंवि पृ २३७ )।
आलजाल -- ऊलजलूल, निरर्थक - 'आलजालं अणेगविहारं सदेसकहं तेसि दूरं ' ( निचू ३ पृ ३५५) ।
आलत्थ - मयूर (दे १।६५) ।
आलप्पाल - १ आल- जंजाल - 'एयं आलप्पालं अव्वो दूरं विसंवयइ' ( उसुटी प २१) । २ दुराचार, कलंक - 'आलप्पालं आढत्तं' ( कु पृ ४७) ।
आलयण - शय्यागृह (दे ११६६ ) |
आलास - वृश्चिक, बिच्छू (दे १।६१) ।
आलि-वनस्पति- विशेष (जंबूटी प ४५) ।
आलिंगिणी - १ जानु, कूर्पर आदि के नीचे रखने का तकिया ( बृभा ३८२४) । २ रुई का बड़ा बिछौना (व्यभा १० टी प ७१ ) ।
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देशी शब्दकोश
३७
आलिसंद-धान्य-विशेष (प्रज्ञा १४५३१) । आलिसंदग--धान्य-विशेष, चवला (भ ६।१३०) । आलीघरय—वनस्पति-विशेष (ज्ञा १६।२०)। आलील-निकट भविष्य में होने वाला भय (दे ११६५) । आलीवण---प्रदीप्त अग्नि (दे ११७१) । पलेवणुं (गुज)। आलु-आलू, कन्द-विशेष (भ २३।२)। आलका-कुण्डिका, छोटा घड़ा (अनुटी पृ ५) । आलुगा-छोटा घड़ा (सूचू १ पृ ११७) । आलुय-आलू, कंद-विशेष (भ २३।१)। आलुया-कुंडिका (अंतटी पृ ५) । आवंग- अपामार्ग का वृक्ष (दे ११६२) । आवट्टिआ-१ नववधू । २ परतन्त्र स्त्री (दे ११७७) । आवडिअ---१ संबद्ध । २ सार (दे ११७८) । आवरेइअ-कारिका, मद्य परोसने का पात्र (दे ११७१) । आवलिका-कंठ का आभूषण-'हार-अद्धहार-आवलिका' (अंवि पृ १६२) । आवल्ल-बलीवर्द, बैल (उशाटी प १६२)। आवल्लक-१ नौका चलाने का एक साधन । २ वलयबाहा-नौका का लंबा
काष्ठ जिस पर ध्वजा बांधी जाती है-'दीर्घकाष्ठलक्षणबाहुषु
आवल्लकेष्विति सम्भाव्यते' (ज्ञाटी प १४३) । आवाडा-चिलात, एक अनार्य जाति-'आवाडा नाम चिलाता परिवसंति'
(आवचू १ पृ १६४)। आवाल-जल के निकट का प्रदेश (दे ११७० वृ)। आवालय-जल के निकट का प्रदेश (दे ११७०)। भावाह-१ वरपक्षसंबंधी भोज (व्यभा ६ टी प ८)। २ नव विवाहित वर
वधू को लाना-'आवाहः अभिनवपरणीतस्य वधूवरस्यानयनम्'
(प्रटी प १३६)। आधि- १ प्रसव-पीड़ा । २ नित्य । ३ दृष्ट, देखा हुआ (दे ११७३) । आविस-१ इन्द्रगोप, क्षुद्र कीट-विशेष । २ मथित (दे ११७६) । ३ पिरोया
हुआ (पा ६५५) । आविअज्झा-१ नववधू । २ पराधीन स्त्री (दे ११७७) । आविद्ध -प्रेरित (दे ११६३)।
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३८
आवेल्लक - नौका चलाने का साधन, डांड (ज्ञाटी प १४३) । आवेल्लय - यानपात्र चलाने का साधन - ' चालियाई आवेल्लयाई” (कु पृ ६७) ।
आसंग —— शयनकक्ष, वासगृह (दे १।६६ ) ।
आसंघ
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१ अध्यवसाय, परिणाम ( से ११२५ ) । २ श्रद्धा । ३ आशंसा । आसंघा - १ इच्छा ( दे १।६३) । २ आस्था ( वृ) । ३ आसक्ति आसंघिय - १ अध्यवसित । २ अवधारित ( से १०।६६ ) । ३ संभावित । आसक्खअ - पक्षि - विशेष (दे ११६७ ) |
। २५) ।
१।६९ ) ।
आसय — निकट (दे १।६५) । आस' मिठ' - अश्व प्रशिक्षक ( नि आसरिअ— सम्मुख आया हुआ (दे आसल - स्वादिष्ट ( जीवटी प ३५१) । आसवण- - शयनकक्ष, वासगृह (दे ११६६) । आसातिका - कृमि विशेष (अंवि पृ २२९) । आसालिका— द्वीन्द्रिय जन्तु (अंवि पृ २३७) । आसिअअ - लोहमय, लोह - निर्मित ( दे १६७ ) ।
आसित्तिया - खाद्य विशेष - "विसाहाहि आसित्तियाओ भोच्चा कज्जं साधेति' (सूर्य १०।१२० ) ।
आसिय-जाना, निकलना - आसियं ति णिग्गच्छति' (निचू २ पृ २७६) । आसियग - - लोह निर्मित शस्त्र - विशेष ( सूचू १ पृ ११६) ।
आसियावण - अपहरण - ' तुच्छलोभेण य आसियावणादी भवे दोसा' ( निभा २४५२) । आसियावित - अपहृत ( निचू ३ पृ २१ ) ।
आसीवअ-दरजी, वस्त्र सीने वाला (दे १।६९) ।
आसीसा - आशीर्वाद ( प्रा ३।१७४) ।
आसूणिय - राधा, प्रशंसा - 'आसूणिकं णाम श्लाघा, येन परैः स्तूयमानः सुज्जति' ( सूचू १ पृ १७८ ) ।
आसूय - औपयाचितक, मनौती (पिनि ४०५) ।
आसेक्क नपुंसक - विशेष (अंवि पृ २२४ ) ।
देशी शब्दकोश
आहच्च -- १ आकर, उपस्थित होकर - संति संपाइमा पाणा, आहच्च संपयंतिय' (आ १।१६४) । २ कदाचिद् ( प्रज्ञा १७।२ ) ।
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देशी शब्दकोश
३ अत्यधिक (दे श६२) । ४ शीघ्र । ५ व्यवस्था करके ।
६ छीनकर। ७ अन्यथा । ८ निष्कारण। आहट्ट-प्रहेलिका, पहेलियां-'तेसु न विम्हयइ सयं, आहट्ट-कुहेडएहिं च'
_(बृभा १३०१)-'आहट्ट त्ति प्रहेलिका (प्रसाटी प १८०) । आहरणा-खर्राटे, घोरण-'आहरणा-घोरयति घोरणं करोति महता शब्देन'
(ओटी प ५८)। आहाडक-बिलाशयी प्राणी (अंवि पृ २२६)। आहाडीय--बार-बार आना-जाना (आवटि प २४) । आहित्य-१ आकुल-'आहित्थं उप्पिच्छं च आउलं रोसभरियं च' - (जीवटी प १९४; दे ११७६) । २ कुपित । ३ चलित (दे ११७६), आहिरिक्क--प्रतीकार (दश्रुचू प ४३)। आहु-उल्लू (दे १।६१)। आहुंदुर-बालक-'आहुंदुरा करि-हरीण' (दे ११६६) । आहुंदुरु–बालक (दे ११६६ वृ)। आहड-१ अनुराग की आवाज, सीत्कार-रति में 'सी' 'सी' की ध्वनि ।
२ बेचने योग्य वस्तु (दे ११७४) । आहडिअ-निपातित, गिराया हुआ (दे ६६) । आहेण--१ विवाह के बाद वधू-प्रवेश के समय किया जाने वाला भोज ।
२ अन्य धरों से लाई जाने वाली भोजन-सामग्री । ३ जो भोज्यपदार्थ वधू के घर से वर के घर में ले जाया जाता है, वह । ४ वरपक्ष और वधूपक्ष का पारस्परिक लेन-देन 'जमन्नगिहातो आणिज्जति तं आहेण, जं बहूगिहातो वरगिहं णिज्जति तं आहेणं, अहवा वरवहण जं आभव्वं परोप्परं णिज्जति तं सव्वं आहेणकं'
(निचू ३ पृ २२२-२३)। आहेणक-देखें-~आहेण (निचू ३ पृ २२३) । आहोडिय-संप्रधूमित, धूप-वासित (आचू पृ ३६३)।
इंखिणि-कर्ण-पिशाचिका देवी-'विज्जाभिमंतिया घंटिया
कण्णमूले
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देशी शब्दकोश
चालिज्जति, तत्थ देवता काधिति, कहेंतस्स पसिणापसिणं भवति,
स एव इंखिणि भण्णति' (निचू ३ पृ ३८३)। इंखिणिया-१ अवहेलना-'अदु इंखिणिया उ पाविया' (सू ११२।२४) ।
२ घुघरु, घंटिका-इंखिणियाओ-घंटियाओ'
(आवचू १ पृ १५७)। 'इंखिणी-१ खिसणा, निन्दा-'अहऽसेयकरी अण्णेसि इंखिणी' (सू १।२।२३)
-'इंखिणी णाम खिसणा निन्दणा हीलणा' (सूचू १ पृ ५६)।
२ किंकिणी, छोटी घंटिका (आवदी प ६०)। इंगाली-इक्षुखण्ड (दे ११७६)। 'इंघिय-घ्रात, सूंघा हुआ (दे १८०)। इंचक-मत्स्य-विशेष (अंवि पृ २२८)-'इंचका कुडुकालक सित्थमच्छका...' इंदगाइ-वे कीट जो युक्त होकर एक के ऊपर एक चढ़कर घूमते हैं
(दे ११८१)। इंवग्गि-हिम, बर्फ (दे १८०)। इंदग्गिधूम-हिम, बर्फ (दे ११८०) । इंदट्ठलअ-'इन्द्रमह' उत्सव की संपन्नता पर विधिपूर्वक 'इन्द्रध्वज' को
हटाना (दे ११८२) इंदड्रलय-'इन्द्रमह' उत्सव की संपन्नता पर विधिपूर्वक 'इन्द्रध्वज' को
हटाना (दे ११८२)। इंदमह-१ कार्तिकेय । २ कुमारावस्था (दे १८१) । इंदमहकामुय-कुत्ता (दे १२८२)। इंदिआलि-भूमीकर्म की विद्या का अभीष्ट शब्द, मंत्र-विशेष का शब्द
'इमा भूमीकम्मस्स विज्जा—इंदिआली इंदिआलि माहिंदे मारुदि
स्वाहा' (अंवि पृ८)। इंदिआली-भूमिकर्म की विद्या का अभीष्ट शब्द, मंत्र-विशेष का शब्द
(अंवि पृ८)। इंदिदिर--भ्रमर (दे ११७९)-'कैश्चित् इंदिदिर शब्दोऽपि देश्य उक्तः' । इंदोवत्तइन्द्रगोपक, वर्षाऋतु में होने वाला लाल या सफेद रंग का कीट
विशेष (दे ११८१)। इक-प्रवेश-'इकमप्पए पवेसणमेयं' (विभा ३४८३)-'इकशब्दो देशीवचनः
क्वापि प्रवेशार्थे वर्तते' (टी पृ ३४३)।
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देशी शब्दकोश इक्कड-तृण-विशेष-वणस्सतिभेदो इक्कडा लाडाणं पसिद्धा'
(निचू २ पृ ४८१)। इक्कण-चोर (दे ११८०)। इक्कलिया-अकेली (उसुटी प १४५) । इक्कल्लय-अकेला (उसुटी प ११२) । इक्कास-१ रस-विशेष (अंवि पृ १३४) । २ भोज्य (अंवि पृ १०१)।
३ गुग्गुल वृक्ष का गोंद (अंवि पृ २३२) । इक्कुस-नीलोत्पल (दे १७६)। इग-अवयव, प्रदेश-'इगमवि देशीपदं क्वापि प्रदेशार्थे वर्तते' ' (आवहाटी १ पृ ३१६)। इग्ग-भयभीत (दे ११७६)। इग्घिअ-भत्सित (दे १८०)। इज्जा-१ मां । २ देवी । ३ देवपूजा-'इज्जत्ति वज्जा माया मज्जा भणिया
देवपूया वा इज्जा' (अनुद्वाचू पृ १३); 'देशीभाषया इज्येति माता'
(अनुद्वामटी प २६)। इट्टग—खाद्य-विशेष,सेवई (पिनि ४६१)। इट्टगा-खाद्य-विशेष, सेवई (जीभा १३६७)। इट्टाल-ईंट (द ५१६५)। इडुकार-वर्धकी, बढई (अंवि पृ १६१)। इडर–१ धान्य रखने का कोठा (अनुद्वा ३७५) । २ गाड़ी का एक अवयव
(ओटी पृ ३७४) । ३ ढक्कन (भटी प ३१३) । इड्डरक-बड़ी पेटी-'इड्डरकं महत् पिटकं येन समस्तापि रसवती
स्थभ्यते' (राजटी पृ ३२५) । इडरगढक्कन-पईवं इड्डरयं अंतो अंतो ओभासेइ........, नो चेव
इड्डरगस्स बाहिं' (भ ७१५६)। इड्डरय-ढक्कन-'तं पईवं इड्डरएणं पीहेज्जा' (भ ७।१५६)। इड्डरिका-१ खाद्यविशेष, इडली-रात्रिपरिवसनेन सम्पन्न इड्डरिकादिः,
यतस्ताः पर्युषित-कलनीकृताः अम्लरसा भवन्ति' (स्थाटी प २१३) । २ एक प्रकार की मिठाई (प्रसाटी प ५१) । इड्डलिगे-'चावल का रखा और उड़द से निष्पन्न खाद्य-विशेष
(कन्नड़)। इड्डिर-गाड़ी का एक अवयव (ओनि ४७८) ।
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४२
इड्ढिसिय- याचक - विशेष (भटी पृ८८४) ।
इणं - यह (दे १७६ वृ) ।
इह - अब ( पनि ६३४; दे १।७६ वृ) । इणमो - यह (दे १।७६ वृ ) । इतिपिंड - भोज्य- विशेष - 'सत्तु पिडि (अंवि पृ७१) ।
इत्ता - इस समय (व्यभा ४ | ३ टी प १९ ) ।
इत्तोप्पं - इतः प्रभृति, यहां से लेकर ( पा ४४८ ) । इत्थोदोस व्यभिचारिणी -' इत्थी दोसो णाम व्यभिचारिणी'
(सूच १ पृ १०८ ) ।
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- भ्रमर (दे १७६ ) 1
इदूर - सूत आदि से बुना हुआ धान्य रखने का साधन - विशेष - सुम्बादिव्यूत ढञ्चनकादि तदिदूर' (अनुद्वामटी प १३९ ) ।
........तप्पणपिडि त्ति इतिपिडि त्ति'.
इद्द -
इद्ध - चित्त-' इद्धं चित्तं भणति' (जीभा २५२६) । इब्भ -- वणिक्, व्यापारी (दे १८७९ ) ।
देशी शब्दकोश
इय - १ इस प्रकार ( बृभा २१५२ ) । २ प्रवेश ।
इर - किल - संभावना, निश्चय आदि अर्थों का सूचक अव्यय ( प्रा २/१८६) । इरमंदिर - करभ, ऊंट (दे १८१) |
इरहा — अथवा – 'जइ रायवसेणं अन्नेणं समं वसेज्जा । इरहा बंभचारिणी' ( उसुटी प ३० ) ।
इराव - हाथी (दे ११८० ) |
इरिआ -- कुटी, झोंपड़ी (दे १५० ) |
इरिकाक - पुष्प - विशेष - - तधा चंपगपुप्फं ति इरिकाकं ति वा पुणो' (अंवि पृ ६३ ) ।
इरिण – १ स्वर्ण (दे १।७९ ) । २ सुन्दर - रमणीयेसु इरिणं वा ' (अंवि पृ १३४) ।
इरिमंदिर - लक्ष्मी मंदिर - 'इरिमंदिर पत्तहारतो गततो मज्झ कंत वणिजारतो' (दअचू पृ २८ ) ।
इलअ - छुरिका - 'इलएण छिहलि छिदित्ता भणति' (निचू १ पृ २१) । इलिका — क्षुद्र जंतु, इल्ली ( अंत्रि पृ २२६) ।
इलिया - क्षुद्र जन्तु ( बृभा १२० ) ।
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देशी शब्दकोश
इल्ल- १ दरिद्र । २ कोमल । ३ प्रतीहार, द्वारपाल । ४ लवित्र ।
५ कृष्णवर्ण वाला (दे
—
१।८२) ।
इल्लि - १ व्याघ्र । २ सिंह । ३ छाता (दे ११८३) । ४ व्याघ्र चर्म से बना प्रावरण (अंवि पृ ७१ ) ।
इल्लीर - १ गृहद्वार । २ वृषी, ऋषियों का आसन । ३ वर्षा से बचने का साधन (दे ११८३) ।
इसिय-तृणमय शलाका ( सू २।१।१७ ) । इहरा - अन्यथा ( उशाटी प १६० ) ।
Cho
४३.
ई - इस प्रकार ( बृभा २१५३) । ईस - कीलक (दे ११८४) ।
ईसअ - 'रोझ' नामक मृग की एक जाति (दे ११८४) ।
ईसर - कामदेव (दे ११८४) ।
ईसिअ - १ भील के सिर पर बांधा जाने वाला पत्रपुट, पत्तों का वेष्टन । २ वशीकृत (दे ११८४) ।
ईसिणिया- देश - विशेष की दासी ( ज्ञा १।१।८२ ) ।
ईसी - भूमि - 'ईसि पाडेइ त्ति भूम्यां पातयति' (भटी पृ १२६४ ) ।
-
उअ- -१ देखो उअ निच्चल - निप्फंदा भिसिणीपत्तंमि रेहइ बलाओ निम्मल - मरगय- भायण परिट्टि संखसुत्तिव्व ॥ ( प्रा २।२११) । २ सरल, ऋजु-‘उअउण्ण मदेहलिमुल्लंघिअ' (दे ११८८ वृ ) ! उअअ - ऋजु, सरल (दे १८८ ) ।
उअक्किअ - पुरस्कृत (दे १।१०७) । उअचित्त-अपगत (दे १।१०८ ) ।
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४४
देशी शब्दकोश उअचिय-परिमित (औपटी पृ ३२) । उअट्टी-नीवी, स्त्री का कटिवस्त्र या कटिवस्त्र के दी जाने वाली रस्सी की
___ गांठ, नाडा (नारा) (पा ४६१)। उअत्त-निष्क्रांत, अतिक्रांत-'जाहे जलं वेलाए उअत्तं भवति'
(निचू ३ पृ १४०)। उअपोत-आकीर्ण, व्याप्त-'उअपोते देशीपदत्वाद् आकीर्णे'
(बृटी पृ८८६)। उअरी-शाकिनी, देवी-विशेष (दे ११६८)-'उछयवाडे मज्जारिरूवयाओ
___भमन्ति उअरीओ' (वृ)। उअह--देखो-'उअह त्ति पेच्छहत्थे' (दे श६८) । उअहारी-दोहन करने वाली स्त्री (दे १११०८) । उआलि-अवतंस, शिरोभूषण (दे ११६०) । उइंतण-उत्तरीय वस्त्र, चादर (दे १११०३)। उगुणी-वनस्पति-विशेष (अंवि पृ ७०) । उंचहिआ-चक्रधारा (दे १११०६)। उंछ--१ गॉ, जुगुप्सनीय (सूटी १ प १०८) । २ छीपा, कपड़ों को छापने
वाला (पा ७७०)। उंछय-वस्त्र छापने का काम करने वाला (दे ११९८) । उंजण--उत्सेचन (दजिचू पृ १५६) । उंड--१ मुख-'देसीवयणतो उंडं-मुहं' (अनुद्वाचू पृ १३)। २ ऊंडा, गहरा
(औपटी पृ ५; दे ११८५)-'खणिआ उड्डेहि कूवया य अइउंडा' (वृ)। उंडअ-पांव में पिण्डरूप में लग जाए उतना गहरा कीचड़ (ओभा ३३)
--'उंडका-पिण्डकास्तद्रूपो यो भवति, पादयोर्यः पिण्डरूपतया लगति स पिण्डक इत्यर्थः' (टी प २६)। उंडे-मिट्टी, गोबर
(कन्नड़)। उंडग-१ स्थण्डिल (द ४।२३)। २ पिण्ड, लोथड़ा-'बालाई मंस उंडग
मज्जाराई विराहेज्जा' (ओभा २४६) । उंडणाही-अंतरिक्ष में होने वाले क्षुद्र जंतु-'अंतलिक्खेसु संताणका उंडणाही
घुक्कभरधा वा वि विण्णेया' (अंवि पृ २२६) । उंडय--मांसपिण्ड-'तेसिं जीवंतगाणं चेव हिययउंडए गिण्हावेइ'
(विपा ११५।१४)। उंडरुक्क-मुंह से वृषभ की भांति शब्द करना-'देसीवयणतो उंडं-मुहं तेण
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देशी शब्दकोश
४५.
___ रुक्कति सद्दकरणं, तं च वसभढिक्कियाइ' (अनुद्वाचू पृ १३) । उंडल-१ मंच, मचान । २ समूह (दे १११२६) । उंडि-मुद्रा (व्यभा ६ टी प ३५) । उंडिअ-मुद्रा वाला (व्यभा ६ टी प ३५)। उंडिय-मांस-पिण्ड-'तेसिं जीवंतगाणं चेव हिययउंडियाओ गिण्हावेइ'
(विपा ११५॥१५)। उंडिया--मुद्रा-विशेष, पत्र पर लगाई जाने वाली मुहर (बृभा १८६)
__ - उंडिया लेहस्स मुद्दा इति चूणौँ' (टी पृ ६१)। उंडी-पिंड, गोलाकार वस्तु-'तत्थ णं एगा वणमयूरी दो पुढे परियागए.
पिटुंडीपंडुरे निव्वणे निरुवहए भिण्णमुट्ठिप्पमाणे मयूरी-अंडए पसवइ'
(ज्ञा १३१५)। उंडुय- स्थान–'सपिंडपायमागम्म उंडुयं पडिलेहिया' (द ५११८७) । उंडेरग-एक प्रकार का धान्य (आवचू २ पृ ३१७) । उंडेरय--खाद्य वस्तु, बड़ा (आवचू २ पृ १६८) । उंढिय-संकुचित-'जह वा उंढियपादे पाअं काऊण हत्थिणो पुरिसे'
(व्यभा १० टी प ७३)। उंत-मंत्र का अभीष्ट शब्द, देव-विशेष (अंवि पृ ६) । उंदर-चूहा (उशाटी प १६६) । उंदु-मुख-'देशीवचनं उन्दु-मुखं' (अनुद्वामटी प २६)। उंदुक-स्थान-'उंदुकं इति स्थानम्' (बृटी पृ ३८०)। उंदुय-स्थान (बृभा १२२३) । उंदुर--१ वृक्ष पर रहने वाला प्राणी-विशेष (अंवि पृ २२६) । २ पर्वत की
कन्दरा में रहने वाला प्राणी-विशेष (अंवि पृ २२७) । उंदुरअ-लम्बा दिन (दे १११०५) । उंदुरी-चुहिया (अंवि पृ ६६) । उंदुरुक्क-मुंह से वृषभ की भांति शब्द करना- उंदुरुक्क त्ति देशीवचनं
उन्दु-मुखं तेन रुक्कं-'वषभादिशब्दकरणमुन्दुरुक्कं देवतादिपुरतों
- वृषभजितादिकरणमित्यर्थः' (अनुद्वामटी प २६) । उंदोइया--चुहिया (बृटी पृ ३६०) । उंबभरिया-एकास्थिक वृक्ष-विशेष (भ ८।२१६।२).। . उंबर-प्रचुर (दे ११६०)। उंबरउप्फ-- नवीन अभ्युदय, अपूर्व उन्नति (दे ११११६)। ...
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४६
डंबा - बन्धन (दे ११८६ ) । उंबी -- पका हुआ गेहूं (दे १८६ ) |
उबेभरिया – एकास्थिक वृक्ष - विशेष (प्रज्ञा १३५ ) ।
उकरड—कूड़ा-करकट डालने का स्थान - भाषायाम् उकुरडो इति प्रसिद्धं मलनिक्षेपणस्थानम्' (राजटी पृ २६ ) ।
उकुरटिका - अकुरड़ी, कूड़ा डालने का स्थान (ओटी प १६२ ) । उक्क -- पाद- पतन, पैरों में गिरना (दे ११८५ ) ।
४ घूस,
उक्कंचण --- १ बंधन - वंसंग कडणोक्कंचण छावण छेवण दुवार भूमी य' ( बृभा ५८३ ) । २ माया (दश्रुचू प ४० ) । ३ झूठी प्रशंसा, चापलूसी, अगुणी के गुण बताना (ज्ञाटी प८६) । रिश्वत । ५ मूर्ख या भोले पुरुष को ठगने वाले धूर्त का, समीपस्थ विचक्षण व्यक्ति के भय से, कुछ समय के लिए निश्चेष्ट रहना (ज्ञाटी प २४५ ) । ६ मानोन्मान में कुटिलता करने वाले ठग का, अधिकारी की उपस्थिति में, कहीं यह राजा को मेरी शिकायत न कर दे, इस चिन्तन से छुप जाना ( सूचू २ पृ ४६२ ) । · उक्कंठुलय- उत्सुक (कु पृ १३४) ।
उक्कंडा -- रिश्वत, लंचा (दे १/६२) ।
उक्कंति- - कूपतुला, कुएं से पानी खींचने का साधन (दे ११८७ ) |
उक्कंती - कूपतुला (दे ११८७ ) ।
उक्कंदि - कूपतुला, कूप से पानी खींचने का साधन (दे ११८७ ) ।
उक्कंदी - कूपतुला (दे ११८७ ) ।
देशी शब्दकोश
उक्कंपित - बांस की खपचियों से बांधा हुआ (दश्रुचू प ६५ ) ।
उक्कंबिय - बांस की खपचियों से बांधा हुआ - ' कडिए वा उक्कंबिए वा छन्ने वा लित्ते वा' (आचूला २।१० ) ।
उक्कड —— त्रीन्द्रिय जंतु - विशेष (प्रज्ञा ११५० ) ।
उक्कडिअ - तोड़ा हुआ, छिन्न ( पा ४६६) ।
उक्कल -- मकड़ी (उ ३६।१३७) ।
उक्कलिय - १ त्रीन्द्रिय जन्तु, मकड़ी (प्रज्ञा १।५० ) । २ उबला हुआ ।
उक्कली - मकड़ी, लूता ( दअचू पृ १८८ ) ।
उक्का - कूपतुला, कुएं से पानी खींचने का साधन (दे ११८७ ) । उक्कारिका — खाद्य पदार्थ - विशेष (अंवि पृ १८५२ ) ।
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देशी शब्दकोश
उक्कारिग - अलग होने का भेद - विशेष, जैसे एरंड के बीज से छिलका अलग होता है ( सूचू १ पृ १३० ) ।
उक्कासिअ -- उत्थित, उठा हुआ (दे १ । ११४) ।
उक्किट्ठि - निन्दा - पाणिए निब्बुड्डो, उक्किट्ठी कया, एवं डंभएहिं लोगो खज्जइति' (आवहाटी १ पृ २७५) ।
उक्कुंड - उन्मत्त (दे १।११) ।
उक्कुट्ट - आनन्द की महाध्वनि - उत्कृष्टिनाद - आनन्दमहाध्वनिरित्यर्थः ' (प्रटी प ४९ ) ।
उक्कुट्ठि - १ खुशी की ध्वनि (ति १३५ ) । २ ऊंचे स्वर से पुकारना - 'उक्कुट्ठी पुकारो' (जीभा १७२२ ) । ३ निंदा - ण य कोलाहलं करे, ण उक्कुट्टिबोलं वा करेज्ज रायसंसारियं वा' ( सू चू १ पृ १८२ ) । उक्कुड निक्कुडिया - बार बार उठ-बैठकर झांकना - 'उक्कुडनिक्कुडियाहि पलोएइ भिक्खा वेला या न वत्ति' (आवमटी प २८ १) । उक्कुडिक – कूडा करकट डालने का स्थान ( अंवि पृ २०६ ) । उक्कुड़निउडिया - बार बार उठ-बैठकर झांकना - 'उक्कुडुनिउडियाहि पलोएति कं वेलं देसकालो भविस्सइ त्ति' (आवचू १ पृ २८६) । उक्कुरुड - १ ईंट, काठ आदि का ढेर ( बृभा २६५३) । २ अकुरडी, घूरा, कचरा डालने का स्थान ( बृभा १९२५; दे १।११० ) । ३ रत्नों की राशि - 'उक्कुरुडी रत्नादीनामपि राशि:' (वृ) ।
उक्कुरुडय - ढेर, कूड़ा डालने का स्थान ( अनुद्वा ३४६ ) | उक्कुरुडिक - घूरा, कूड़ा डालने का स्थान (अवि पृ २०६ ) |
उक्कुरुडिया - कूड़ा डालने की जगह - " एयं तुमं दारगं एगंते उक्कुरुडियाए उझाहि' (विपा १ । १ ६५) ।
४७
उक्कुरुडी - घूरा, कचरा डालने का स्थान ( दे १ । ११० ) - ( णच्चसि चडिअ उक्कुरुड' (वृ) ।
उक्कुलिणी - गृह - उपकरण, भांड - विशेष (अंवि पृ ७२ ) । उक्केर – १ समूह (ओनि ७०४ ) २ उपहार, भेंट (दे १।९६) ।
-
उक्लाविय— उके लाया हुआ, खुलवाया हुआ - 'राइणा उक्केलावियाई चोल्लयाई, निरूवियाई समंतओ' (उसुटी प ६५ ) । उक्केल्ल — उकेलना, एक-एक कर उखाडना ( दजिचू पृ १२४) । उक्कोड - १ राज्यकर ( प्र ३।११) । २ रिश्वत (आचू पृ २३७) ।
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देशी शब्दकोश
३ राजकुल में दातव्य द्रव्य, बेगार तथा सैनिक आदि की भोजनव्यवस्था (निचू ४ पृ २८० ) ।
उक्कोडभंग – राजकुल में दातव्य की राजा द्वारा दी जाने वाली छूट, देखें'खोडभंग' (निचू ४ पृ २८० ) ।
उक्कोडा - रिश्वत, लंचा ( विपा १|१|४६; दे ११९२ ) । उक्कोडी – प्रतिशब्द, प्रतिध्वनि (दे १।९४)। उक्कोल - घाम, गरमी (दे १।८७) |
४८
उक्कोस - अरुण रंग का पक्षी - विशेष (अंवि पृ २२५) ।
उक्ख – जैन साध्वियों के पहनने के वस्त्र - विशेष का एक अंश - परिधाणवत्थस्स अब्भित रचूलाए उवरिकण्णो नाभिट्टा उक्खो भण्णई' (बृटी पृ ३३४) ।
उक्खंड - १ संघात । २ विषमोन्नत प्रदेश ( दे १११२६ ) ।
उक्खंडिय - आक्रांत (दे १।११२ ) ।
उक्खंद - छावनी, घेरा डालना ( निचू २ पृ ४२७) ।
उक्खडमड्डा – पुनः पुनः - ' उक्खडमड्डा इति देशीपदमेतत् पुनः पुनः शब्दार्थश्च' (व्यभा २ टीप ४७ ) ।
उक्खणण - खांडना, निस्तुषीकरण (दे १।११५ वृ ) । उक्खणिअ - कंडित, निस्तुषीकृत (दे १।११५) । उक्खल - ओखली (निचू ३ पृ ३७८) । उक्खलित - उन्मूलित, चलित ( आचू पृ ३३९) ।
उक्ख लिय - उन्मूलित, उत्पाटित ( से ६।२६ ) ।
उक्ख लिया - १ स्थाली, पात्र - विशेष (पिनि २५०) २ उलूखल, ऊखल ( आवचू २ पृ ३१७ ) ।
उक्खली -थाली, पिठर - 'अलिंदक त्ति पत्ति त्ति उक्खली थालिक त्ति वा ' (अंवि पृ ७२; दे ११८८ ) ।
उक्खलुंपिय – खुजला कर - णो गाहावई अंगुलियाए उक्खलुंपिअ - उक्खलुंपि जा एज्जा' - ( आचूला १/६२ )
उक्खल्लय — अंगूठे को आच्छादित करने वाला जूता (आचू पृ ३५२ ) । उक्खा - पिठर, स्थाली - 'दोहि उक्खाहि परिए सिज्जमाणे पेहाए'
( आचूला १।२१) ।
उक्खिण्ण - १ अवकीर्ण । २ गुप्त, आवृत । ३ पार्श्व में शिथिल, एक तरफ से ढीला (दे १।१३० ) ।
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देशी शब्दकोश
४६
उक्खिन्न- व्याप्त (बृचू प १४१)। उक्खिरण-दान, उपहार-रहग्गतो य विविधफले खज्जगे य कवड्डगवत्थ
मादी य उक्खिरणे करेति' (निचू ४ पृ १३१)। उक्खिरणग-दान, उपहार (निभा ५७५४) । उक्खंड-१ उल्मुक, अलात । २ समूह । ३ वस्त्र का एक भाग, अंचल
(दे २१२५)। उक्खुडहुंचिय-उत्क्षिप्त, उछाला हुआ (दे ११४ वृ)। उक्खुरहुंचिय-उत्क्षिप्त, उछाला हुआ (दे ११४ वृ)। उक्खुलंपिय-खुजला कर (आटी प ३४०)। उक्खलंबिय-खुजला कर (आचूला ११६२ पा) । उक्खुलणियत्थ-जिसके वस्त्र अस्त-व्यस्त हों, वह (बृभा ४११२)। उक्खुलि-ऊखली (अंवि पृ १६३)। उखड्डमड्डा-बार बार-'उखड्डमड्ड त्ति वा बहुसो त्ति भूयो भूयो त्ति वा पुणो
पुणो त्ति वा एगट्ठ' (निचू ४ पृ ३०८)। उखलिका-ऊखली (अंवि पृ २२१) । उखली-उलूखल, ऊखली (आवहाटी २ पृ २४३)। उखा--थाली (भटी प ३२६)। उखुल-अस्तव्यस्त (बृटी पृ ११२१)। उगारिया-क्षुद्र जन्तु, दीमक (सूचू १ पृ १४५) । उगाल-फलक (व्यभा ४।४ टी प १०२) । उगाली-फलक (व्यभा ४।४ टी प १०२) । उग्गह-योनिद्वार-'उग्गह इति जोणिदुवारस्स सामइकी संज्ञा'
(निचू २ पृ १८६)। उग्गहिय--अच्छे प्रकार से ग्रहण किया हुआ (दे १।१०४)। उग्गाल-पान की पिचकारी (पंव ३८) । उग्गाहिय-१ गृहीत । २ उत्क्षिप्त । ३ प्रवर्तित (दे ॥१३७)। ४ उच्चालित
(पा ५४६)। उग्गुंडिय-धूल से सना हुआ-पंसुउग्गुंडियंगमंगा' (भ ७।११६) । उग्गुतिय-- उत्तेजित-'सिंगाररसुग्गुतिया मोहकुवितफुफगा' (दअचू पृ ५६)। उग्गुलंछिआ-हृदय-रस का उछलना-१ भावोद्रेक । २ वमन के संवेदन
के कारण होने वाली उथल-पुथल (दे ११११८)।
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उग्घट्टि– अवतंस, शिरोभूषण (दे १1९० ) ।
उघाडपोरिसि - प्रहर का तीन चौथाई भाग - 'उद्घाटपौरुष्यां समयभाषया पादोन प्रहरे' (प्रसा ५६० टीप १६६ ) । उग्घाय – १ संघात । २ विषमोन्नत प्रदेश (दे १।१२६) । उग्घुट्ट - १ पौरुष, शूरता ( दे १।६६ ) । २ लुप्त, विनष्ट । उचूलयालग - नीचा सिर और ऊपर पांव कर पानी में डुबोना ( विपाटी प७२ ) ।
उच्च-नाभितल (दे ११८६) ।
उच्चतंग - दंतराग, दांतों को रंगने की मसी- 'उच्चंतगो दंतरागो भन्नइ' (प्रज्ञाटी प ३६२) ।
उच्चपिअ - १ दबाया हुआ, रौंदा हुआ - 'सीसं उच्चपिअं कबंध म्मि' ( तंदु १४६ ) । २ दीर्घ (दे १ । ११६) ।
उच्चड्डिय— उत्क्षिप्त, ऊपर उछाला हुआ (दे १।१०६) । उच्चत्त-- निश्चित अवधि तक स्वामी के कथनानुसार कार्य करने वाला (भृतक ) - 'एच्चिरकालोच्चत्ते, कायव्वं कम्म जं बेंति' ( निभा ३७२० ) ।
उच्चत्तवरत्त - १ दोनों पार्श्व में स्थूल । २ अनियत भ्रमण (दे १ । १३९) । उच्चत्तवरत्तय — दोनों पाश्र्वों को ऊंचा - नीचा करना, इधर-उधर करना (पा ६६३ ) ।
उच्चत्थ- दृढ़, मजबूत ( दे १।६७ ) |
उच्चप्प—आरूढ, ऊपर बैठा हुआ (दे १।१००) ।
देशी शब्दकोश
उच्चरग–— कमरा, कक्ष ( निचू १ पृ ६७ ) ।
उच्चाड - विपुल (दे १।६७ ) 1
उच्चाडिर - १ रोकनेवाला । २ अफसोस करने वाला (प्रा २।१६३) ।
उच्चात—परिश्रान्त ( व्यभा ६ टी प २५ ) ।
उच्चाय - परिश्रान्त (ओनि ५१८ ) । २ आलिंगन, परिरम्भ ।
उच्चार – विमल, स्वच्छ (दे ११६७) ।
उच्चारय - गृहीत ( दे १।११४) ।
उच्चिइय - आभूषण - विशेष ( जीवटी प १४७ ) ।
उच्चिवलय - गंदा पानी ( पा १५८ ) ।
'उच्चिडिम - मर्यादा - रहित, निर्लज्ज - ( उच्चिडिमं मुक्कमज्जायं' ( पा ५११ ) । उच्चुंच - दृप्त, अभिमानी (दे १ ९९ ) ।
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देशी शब्दकोश उच्चुप्पिय-आरूढ़ (दे ११००)। उच्चुलउलिय--कुतूहलवश त्वरता से जाना (दे १११२१)। उच्चुल्ल-१ उद्विग्न । २ अधिरूढ़, चढ़ा हुआ। ३ भयभीत (दे २११२७) । उच्चर-विविध प्रकार-'उच्चूरपउरलंभे' (व्यभा ४१२ टी प ८२)। उच्चेल्लर-१ हल आदि से बिना जोती हुई भूमी। २ साथल के रोम
(दे १११३६) । उच्चेव-प्रकट (दे ११९७) । उच्चोल-१ विश्रान्त । २ नीवी, स्त्री के अधोवस्त्र के दोनों छोरों पर दी
जाने वाली गांठ (दे १११३१)। ३ चुल्लू, चुलुक-'पाणिए उच्चोल
एहिं मारिज्जइ' (आवहाटी २ पृ १२५) । उच्चोली-गठरी-परिकरेण बंधह चुण्णस्स उच्चोलीओ'
__ (सूचू १ पृ १६३ टि)। उच्छ-आंतों का आवरण (दे ११८५) । उच्छंगिय–पुरस्कृत (दे १११०७) । उच्छंट-जल्दी-जल्दी चोरी करना (दे १।१०१) । उच्छंटअ-शीघ्र चोरी करना (पा ६७६) । उच्छंद-छीला हुआ, तोड़ा हुआ (आचू पृ ३४४) । उच्छंदण-मर्दन, अभ्यंगन-'मक्खणऽब्भंगण उच्छंदण उव्वट्टण' (अंवि पृ १९३)। उच्छट्ट-चोर, डाकू (दे ११०१)। उच्छडिय-चुराई हुई वस्तु (दे ११११२) । उच्छय-व्याप्त-'देवेहि य देवीहि य समंतओ उच्छयं गयणं'
(आवहाटी १ पृ १२३)। उच्छल्लिङ-एक ओर ले जाकर-'उच्छल्लिङ ति एकपार्वे नयित्वा'
(निचू १ पृ.६८)। उच्छल्लित्तु- एक ओर ले जाकर (निचू १ पृ ६८) । उच्छल्लिय-१ एक ओर ले जाकर (निभा २८१) २ जिसकी छाल छील
दी गई हो वह (दे १११११) । उच्छविय-शय्या, बिछौना (दे १११०३)। उच्छाह-सूत का तंतु (दे श६२) । उच्छिदण-१ ब्याज पर लेना। २ उधार लेना (पिनि ३१७) । उच्छिपक–चोरों का एक प्रकार (प्र ३३)।
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देशी शब्दकोश
उच्छित्त–१ विक्षिप्त । २ उत्क्षिप्त (दे १३१२४) । उच्छिल्ल---छिद्र (दे ११६५) । उच्छु-१ राई (उसुटी प ५६) । २ वायु, पवन (दे ११८५)। उच्छुअ-भय से की हुई चोरी (दे ११९५) । उच्छुअरण-ईक्षु का खेत (दे २११७) । उच्छुआर-संछन्न, ढका हुआ (दे ११११५) । उच्छुआरिअ-छादित, ढका हुआ (दे ११११५ वृ)। उच्छंडिअ-१ बाण आदि से अत्यन्त व्यथित । २ अपहृत (दे १।१३५) । उच्छुच्छु-दृप्त, अभिमानी (दे ११६६)। उच्छुड्डु-आहत-'ततो उच्छुड्डं फुमति रागो लग्गति' (निचू २ पृ २२०)। उच्छुद्ध--१ विक्षिप्त-'उच्छुद्धणयणकोसे' (अनु ३।५२) । २ रोगग्रस्त
-'उच्छुद्धसरीरे वा, दुब्बलतवसोसिते व जो होज्जा' (बृभा ४५५८) ।
३ परित्यक्त (बृभा ३१३२) । ४ बिखरा हुआ (ओभा २२१)। उच्छुर—अविनश्वर (दे १६०)। उच्छुरण-१ ईख का खेत (दे १।११७) । २ ईख-'उच्छुरणं इक्षुरिति
केचित्' (वृ)। उच्छुल्ल-१ अनुवाद । २ विश्रान्त (दे १११३१) । उच्छूढ--चुराना, अपहरण करना-'सायं एफल्लयाई जायाइं चोरेहिं उच्छूढाई'
(बृटी पृ १०८)। उच्छर–१ असमय, विलंब -'रन्धनवेलां तामुच्छूर एव करोति येन साधोरपि
" भक्तं भवति' (ओटी प १४८) ! २ प्रचुर (निचू ३ पृ २०६) । उच्छूरिय-सुप्रावृत-'उच्छूरिया णडी विव दीसति कुप्पासगादीहिं'
(बृभा ४१२५)। उच्छलग-परिखा, शत्रु-सेना का नाश करने के लिए ऊपर से आच्छादित
गर्त्त-विशेष (उ ६।१८ पा)। उच्छेव-१ छत का नीचे गिरना 'परिपेलवच्छातिते व्वे गलणं उच्छेवो'
(निचू २ पृ ३३८) । २ दीवार का छेद (व्यभा ४१४ टी प ६)। उच्छेवण-घृत (दे १।११६) । उच्छोलणा–प्रचुर जल (द ४।२६)-'उच्छोलणा-पभूओदगेण'
(जिचू पृ १६४)। उजल्ल-बलवान् (प्रा २।१७४) ।
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देशी शब्दकोश
उज्जंगल- - १ बलात्कार । २ दीर्घ ( दे १।१३५) । उज्जग्गिर - जागृति, अनिद्रा (दे १।११७) । उज्जग्गुज्ज- स्वच्छ (दे १।११३) ।
उज्जड — उजाड़, बस्ती - रहित स्थान (दे ११ε६) ।
उज्जणिअ - टेढ़ा, वक्र (दे १।१११) ।
उज्जर- १ प्रवाह ( आवहाटी २ पृ ८७) । २ मध्यगत, भीतर का । ३ निर्जरण, क्षय ।
'उज्जल -- अत्यधिक - 'वेयणा पाउब्भूया - 'उज्जला विउला कक्खडा.... ' ( अंत ३६० ) ।
- उज्जला- छोटी संघाटी (व्यभा ७ टी प ४५ ) 1
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उज्जल्ल- १ पसीने से लथपथ, मलिन - 'मुंडा कंडू विणट्ठेगा, उज्जल्ला असमाहिया' ( सू १ | ३ | १० ) । २ हठ (प्रा २।१७४) ।
उज्जल्ला
- १ अत्यन्त मलिन ( बृभा २४५७) । २ बलात्कार ( दे १६७ ) । उज्जाण - प्रतिलोमगामी नौका ( निभा १८३ ) । · उज्जाणिय-नीचा किया हुआ (दे १।११३ ) । उज्जात - (विवेक) शून्य ( सूचू १ पृ ६१ ) । उज्जीरिय—- अपमानित, तिरस्कृत ( दे १।११२ ) । • उज्जुग — बिल - 'उज्जुगं बिलं' (दश्रुचू प ६८ ) । उज्जूरिय--१ क्षीण (दे १।११२) । २ शुष्क (वृ)। उज्जू हिगा — जंगल की ओर जाने वाली गायों का समूह - 'गोसंखडी उज्जू हिगा भन्नति' ( निचू ३ पृ ३४८ ) ।
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उज्जोमिआ – रस्सी, डोरी (दे १ । ११५) ।
उज्जोवण - १ गायों को चरने के लिए खुला छोड़ना । २ गाड़ी आदि को चलाने में प्रवृत्त होना - 'उज्जोवणं ति गावीणं पसरणं सगडादीणं वा पयट्टणं' (निचू २ पृ ε)।
उज्झंखणी -- १ लोकापवाद ( निभा ६५८ ) । २ फुंहार, शीतल वायु'दगवातो सीतभरो, सा य उज्झखणी भण्णति' ( निचू २ पृ३३८ ) । उज्झमण- - पलायन (दे १।१०३) ।
- उज्झरिय - १ टेढ़ी नजर से देखा हुआ, कानी आंख से देखा हुआ । २ विक्षिप्त पागल । ३ क्षिप्त, फेंका हुआ । ४ त्यक्त (दे १।१३३) ।
- उज्झस - उद्यम, प्रयत्न (दे १६५ ) ।
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५४
देशी शब्दकोश
उज्झाइ-विरूप, मैला (बृभा ३९१३) । उज्झाइग-विरूप (बृभा ३६६४) ।। उज्झिखिअ—लोकापवाद, लोक-निन्दा (दे ३।५५ वृ)। उद्र-१ जल-जंतु विशेष । २ सिंधु देश के कोमल चमड़ी वाले मत्स्य-विशेष-- __'उट्टा मच्छा सिंधुविसए, तेसिं चम्मयं मउयं भवति' (आच पृ ३६४) ।
३ कुत्ते की आकृति वाले जलचर प्राणियों का चर्म (निचू २ पृ. ४०० )
देखें-'उद्द'। उट्टिक-बड़ा भाजन-विशेष (अंवि पृ २१४) । उट्टिया-पात्र-विशेष (अंवि पृ २२१)। उद-१ घड़े आदि का किनारा, कांगरा-'बोडो जस्स उट्ठा पत्थि'
(आवचू १ पृ १२२) । २ कुत्ते की आकृति वाले जलचर प्राणियों का चमड़ा-'सुणगागिती जलचरा सत्ता तेसिं अजिणा उट्ठा'
(निचू २ पृ ४००)। उट्ठल-उल्लास (दे १।६१)। उठुल्ल-उल्लास (दे श६१)। उट्ठी-१ मुट्ठी । २ अंश-'महीए एका उट्ठी छुब्भइ' (मावहाटी २ पृ.६०) । उट्रोणा-उठकर-'उट्ठोणा (? उद्वित्ता) से णं इमं लोगं तिरियं करेति'
(सूचू १ पृ.२११)। उडद-उरद, माष (निरटी पृ २७)। उडिद-उरद, माष (दे ११६८) । उडु-तृण का आच्छादन (दे ११८६) । घडक्किय-दांतों से काट कर दागी करना-'सव्वतउसाणि दंतेहिं
उडुक्कियाणि' (दअचू पृ २६)। उडि-काटना, टुकड़े करना
(कन्नड)। उडरुक्क-मुंह से वृषभ की भांति शब्द करना (अनुद्वाहाटी पृ १६) । उडरुक्ख-मुंह से वृषभ की भांति शब्द करना-'उडुरुक्खं ति देशीवचनं
वृषभजितकरणाद्यर्थम्' (अनुद्वाहाटी पृ १६) । उड़हिय-१ विवाहित स्त्री का कोप । २ जूठा, उच्छिष्ट (दे १११३७) । उड्ड-१ दीर्घ, बड़ा (सू ११५।३४) । २ उड़ीसा देश का वासी (प्र ११२१) ।
३ कुआ आदि खोदने वाला (निभा ३७२०; दे ११८५) । ओडु
(कन्नड)। ४ तीव्र (आचू पृ १४३) । ५ कूप (आवटि प २४) । उड्डंचक-उड्डाह, उपहास-'देशीपदमेतत्' (बृटी पृ १६०) ।
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देशी शब्दकोश
५५ उड्डंचग-१ उपहास करने वाला (निभा १०६५) । २ याचक-'उदञ्चका
याचकाः' (बटी पृ १६०)। उड्डंचय-अवहेलना-'वंदणादिसु उड्डंचये करेज्ज' (निचू २ पृ १७२) । उड्डडग-वे भिक्षु जो पाणिपात्र होते हैं (आचू पृ १६९)। उड्डंबालग-कोतवाल-'तत्थ चारियत्ति काऊण उड्डंबालगा अगडे पक्खि
विज्जंति' (आवहाटी १ पृ १३६) । उड्डंस-खटमल (उ ३६।१३७) । उडुण-अंगीकार-तत्थोड्डणं अप्पणो कुणति' (व्यभा ४१३ टी प १८)।
* २ दीर्घ । ३ बैल (दे १११२३)। उड्डष्ट-प्रद्विष्ट (आचू पृ १४३) । उड्डुस-खटमल (दे ११६६) । उड्डहण-१ लोकापवाद (निचू ३ पृ ४६८) । २ चोर (दे १३१०१)। उड्डाअ-उद्गम, उदय (दे ११६१)। उड्डाण-१ प्रतिध्वनि । २ कुरर पक्षी । ३ विष्ठा। ४ अभिमानी । ५ मनोरथ
(दे १२१२८)। उड्डावणक-आकर्षण-'तस्स कड्ढणट्ठाए उड्डावणकं करेति'
(निचू ४ पृ ७६) । उड्डास-संताप, परिताप (दे श६६)। उड्डाह-निन्दा (पिनि ४१४) । उड्डिाहरण-छुरी के अग्रभाग पर रखे हुए फूल को पांव की अंगुलियों से
लेकर ऊपर उछलना (दे १११२१)। उड्डिय-१ उत्क्षिप्त, फेंका हुआ-'अस्सेण हेसियं पट्ठी च उड्डिया'
(निचू ४ पृ ३४३) । २ बेचने के लिए रखना
(आवहाटी १ पृ२६४) । उड्डिहिअ-ऊपर फेंका हुआ (पा ५१७) । उड्डय-डकार (आचूला ८।२६) । उड्डयर-- जो मलमूत्र का विसर्जन करते हुए चंचलता के कारण हाथ आदि
__ पर भी लेप लगा लेता है (बृटी पृ ५१४) । उड्डुहिअ-छिन्न (दे १११०५ व)। उडडोय-१ डकार (जीभा १०८) । २ उबाक, ओकाई (निचू ३ पृ८०)। उडढ-१ दीर्घ, बड़ा (सू ॥५॥३४) । २ वमन (बृटी पृ १५३६) । - ३ पात्र का किनारा (निचू ४ पृ १५७) ।
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उड्ढल – उल्लास (दे ११६१) । उड्ढल्ल - - उल्लास (दे १ ९ १ ) ।
उणुयत्त — अवस्थित, ठहरा हुआ - 'सावि तं पलोएंती तहेव उणुयत्तेति' ( आवहाटी १ पृ १८२ ) ।
उष्णम - समुन्नत (दे ११८८ ) |
उण्णलिय – १ कृश, दुर्बल । २ ऊंचा किया हुआ (दे १।१३६) ।
उण्णुइअ - १ हुंकार । २ आकाश की ओर मुंह किए हुए कुत्ते की आवाज (दे १।१३२ ) । ३ गर्वित ( व्यभा ४। २ टी प ६६ ) |
उन्हाली - चतुष्पद प्राणी - विशेष - मज्जारी मुंगसी व त्ति उण्हाली अडिल वा' (अंवि पृ ६९ ) ।
उहिआ - खिचड़ी (दे १२१८८ ) ।
देशी शब्दकोश
उन्हेला - कीट - विशेष, घृतपिपीलिका - उण्हेला णाम तेल्लपाइयाओ, तातो तिक्खेहिं तुंडेहि अतीव दंसंति' (आवमटी प २८६) ।
उन्होदयमंड- - भ्रमर (दे १।१२० ) ।
उन्होलक - वृक्ष - विशेष (अंवि पृ ६३) ।
उन्होला क्षुद्र जन्तु- विशेष - ' उण्होला - तेल्लपातियाओ । तातो तिक्खेहिं अतीव दंसंति' (आवचू १ पृ ३०४) ।
उतपोत-आकीर्ण (बृभा ३१७२) ।
उत्तइय - उत्तेजित (दअचू पृ ५६ पा) ।
उत्तंपिअ - खिन्न, उद्विग्न (दे १।१०२ ) ।
उत्तप्प- - १ गर्वित । २ अधिक गुण वाला (दे १।१३१ ) ।
उत्तम्मिअ- खिन्न ( दे १।१०२ ) ।
उत्तरणवरंडिआ - उडुप, नौका, जहाज आदि (दे १।१२२ ) - 'समुद्रनद्यादी जलतरणोपकरणं प्रवहणादि' (वृ) ।
उत्तरणवरंडी- - जलसंतरण के साधन नौका आदि - भवउत्तरणवरंडि संभर सव्वण्णुमण्णा तुझ । णरगोत्तिरिविडिमज्भे होही उत्थल्लपत्थल्ला ||' (दे १ । १२२ वृ) ।
उत्तरिविडि – एक के ऊपर एक रखे हुए भाजनों का ढेर (दे १ । १२२ पा) । उत्तलहअ - - वृक्ष (दे १। ११९ ) ।
उत्ताणपत्त - एरण्ड से संबंधित, एरण्ड के पत्ते (दे १।१२० वृ) | उत्ताणपत्तय- एरण्ड-संबंधी, एरण्ड के पत्ते (दे १।१२० ) |
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देशी शब्दकोश
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उत्साणय-तत्पर (आवचू १)। उत्ताल-लगातार रुदन, अंतर रहित क्रन्दन की आवाज (दे १११०१)। उत्तावल-१ उतावल, शीघ्रता । २ शीघ्रकारी, आकुल-'उत्तावलो
सहिसल्थो' (कु पृ १८०)। उत्ताहिय-ऊपर उछाला हुआ (दे १११०६) । उत्तिग-१ चींटियों का बिल (आ ८११०६) । २ सर्पच्छत्र वनस्पति
(द ८।११)। ३ छिद्र-'उत्तिगो पुण छिड्डं' (निभा ६०१८) । उत्तिरिबिडि-एक के ऊपर एक रखे हुए भाजनों का ढेर (दे १२१२२) ।
उतरड (गुज), उत्तरंड (मराठी)। उत्तइय-उत्तेजित (दनि १११ पा) । उत्तुण-अभिमानी, गर्वयुक्त (उसुटी प २३४; दे श६६) । उत्तपित--चिकना किया हुआ (प्रटी प ५६) । उत्तपिय-स्निग्ध, चिकना (प्र ३।१६) । उत्तुयय-उत्तेजित (व्यभा ६ टी प ३२) । उत्तरिद्धि-१ अभिमानी (दे ११६६) । २ दर्प, गर्व (व) । उत्तहिअ--उत्खोटित, छिन्न, नष्ट (दे ११०५) । उत्तइय-गर्व-एवं भणितो संतो उत्तूइओ सो कहेइ सव्वं-उत्तूइओ ति
- देशीपदमेतद् ग वर्तते' (व्यभा ४२ टी प ६६) । उत्तह-तटशून्य कूप (दे ११६४) । उत्तेड-बिन्दु-'भंडगपासवलग्गा उत्तेडा बुब्बुया न सम्मंति' (पिनि १६)। उत्थंघिय-उत्थापित (से ५१६०)। उत्थग्घ-संमर्द, उपमर्द (दे ११६३) । उत्थरिय-१ उत्थित (दे ७/६२) । २ आक्रांत (पा ५८५) । ३ निर्गत । उत्थलिअ-१ गृह । २ ऊंचा गया हुआ (दे १११०७) । उत्थल्ल-उथलना, पलटना (दअचू पृ ११५) । उत्थल्लण-धकेलना, उछालना (प्र ३३१०)। उत्थल्लपत्थल्लण-उथल-पुथल-'उत्थल्ल-पत्थल्लणेण भुक्तम्'
(ओटी प १९२) । उत्थल्लपत्थल्ला-दोनों पावों से परिवर्तन, उथल-पुथल (दे ११११२) । उत्थल्ला -१ परिवर्तन (दे ११६३) । २ उद्वर्तन । उत्थाण–अतिसार रोग (व्यभा ७ टी प ८५) ।
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देशी शब्दकोश
उदअ – गढा, अवपात - 'गर्त्ताविशेषेषु उदक इत्येवंरूढेषु' (प्रटी प २२ ) । उदक – जल का पात्र - विशेष जिससे जल ऊंचा छिड़का जाता है ( जीवटी प १४६ ) ।
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उदकघसर-नाली, मोरी (ओटी पृ ३६५) ।
उदग—अनंतकायिक वनस्पति- ' तत्थ उदगं नाम अनंतवणप्फई, से भणियं च उदए अवए पणए सेवाले' (दजिचू पृ २७७)। उदरिय - १ आजीविका के लिए इधर उधर घूमने वाले । २ पाथेय युक्त
यात्री - उदरिया णाम जहिं गता तेहि चेव स्वगावी छोढुं समुद्दिसंति पच्छा गम्मति । गहियसंबला उदरिया' ( निचू ४ पृ ११० ) । उदसी छाछ - 'तक्कं उदसी छासि त्ति एगट्ठ' (निचू १ पृ ६२ ) । उदाण - वनस्पति का एक प्रकार (अंवि पृ २६६) ।
उदूक्खल - मुशल- 'मुशलं उक्खलं वा' (आचू पृ ३३९) ।
उद्द- १ सिन्धु देश के मत्स्य - विशेष - उद्रा: सिन्धुविषये मत्स्याः ' । २ मत्स्यचर्म का बना हुआ वस्त्र - विशेष (आचूला ५। १५; टीप ३ε३) । - देखें - उट्ट' । ३ जल - मानुष । ४ ककुद, बैल के कंधे का कूबड़ (दे १।१२३) ।
उद्दसंग - मत्कुण, त्रीन्द्रिय जन्तु - विशेष (प्रज्ञा १३५० ) । उद्दद्दर - सुभिक्ष- 'दुविधा दरा-धण्णदरा पोट्टदरा य, ते उद्दं जाव भरिया तं उद्दद्दरं भण्णति । पर्यायवचनेन सुभिक्षमित्यर्थः ' ( निचू ३ पृ ८० ') । उद्दरिअ - १ उखाड़ा हुआ (दे १।१००) । २ स्फुटित, विकसित
( पा ५१३) । ३ उद्दर्पित ( नंदीटि पृ १०१ ) । ४ युद्ध से पलायित । उद्दा - ऊदबिलाव, जलमार्जार ( सू २७।१५) । उद्दात - शोभमान ( ज्ञा १|१|३३) ।
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उद्दाइय - दीमक, कीट ( निचू १ पृ १५५) । उद्दाण - १ परित्यक्त ( निचू २ पृ १४ ) । चेइयाई वंदामि' (उसुटी प २ ) । ३ उद्दाणग — मृत - “उद्दाणगं जायं तं मए विगिचियं (आवहाटी २ पृ १४० ) । उद्दाणभत्तारा - पति के द्वारा परित्यक्त स्त्री - 'उद्दाणभत्तारा भत्तारेण परिठविता' (निचू २ पृ १४) ।
२ मृत - 'उद्दाणे भोइयम्मि चुल्हा (दे ११८७ ) |
उद्दाम -१ संघात । २ विषमोन्नत प्रदेश ( दे श१२६) । उद्दाल - वृक्ष - विशेष ( जीव ३।५८१) । उद्दालक - वृक्ष - विशेष ( जीवटी प १४५ ) 1
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उद्दिक-घट का एक प्रकार (अंवि पृ २५५) । उद्दिट्ठा-अमावस्या (स्था ४।३६२)। उहिसिअ-उत्प्रेक्षित (दे ११०६)। उद्दीढ-भक्षित, खाया हुआ (निचू ३ पृ ५८७) । उदंडग-उपहास का पात्र (बृभा ४००२) । उद्दूढ-१ चुराया हुआ, मुषित-'देशीवचनत्वाद् मुषितं' (बृटी पृ ८२५) ।
२ पराजित (अंवि पृ २५०) । उददेसग--जंतु-विशेष, दीमक (जीवटी प ३२)। उद्देहि-उपदेहिका, दीमक (दे ११६३) । उददेहिगा-१ दीमक । २ दीमक द्वारा कृत वल्मीक की मिट्टी
(पिटी प २०)। उद्देहिया-दीमक-'उद्देहियाखइयं वा कळं दुब्बलं' (आचू पृ २१२) । उद्धइय-आभ्यंतर-'उद्धइयाहिं देसीभासातो जं अब्भंतरं वुच्चति'।
(आचू पृ २१५)। उद्धच्छवि-विसंवादित, विपरीत, अप्रमाणित (दे १११४) । उद्धच्छविअ-सज्जित (दे १११६) । उद्धच्छिअ-निषिद्ध (दे १११११) । उद्धट्ट-ऊंचा (सूचू १ पृ १०४)। उद्धट्रक-उपहास पैदा करने वाली भाषा या आवाज (बूटी पृ १६७०) । उद्धत्थ--विप्रलब्ध, वंचित (दे ११६६)। उद्धरण-उच्छिष्ट, जूठा (दे १११०६)। उद्धवअ-उत्क्षिप्त, ऊपर फेंका हुआ (दे १।१०६) । उद्धविअ-पूजित (दे १११०७) । उद्धाअ-१ ऊबड़-खाबड़ प्रदेश, ऊंचा-नीचा प्रदेश । २ श्रान्त, थका हुआ।
. ३ संघात, समूह (दे १३१२४)। उद्धाण-उद्वसित, उजड़ा हुआ (व्यभा ४१४ टी प ७०) । उद्धाविय-समुद्रचारी डाकू आदि अत्यन्त क्रूर मनुष्य-'किं वा अहं सभग्गो
त्ति चिंतयंतो च्चिय सहसा उद्घाविएहिं बद्धो' (कु पृ ६६)। उद्धि--गाड़ी का एक अवयव (सूर्य १०।३७) । उंध (गुज)। उद्घमात-व्याप्त (नंदीचू पृ६) । उद्धमाय -पूर्ण (पा १४२) ।
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उधेइ-दीमक (निचू ३ पृ १२४) । उदई (राज)। उन्नालिअ-उन्नामित, ऊंचा किया हुआ (पा ५०८) । उपघसर-नाली, मोरी (ओटी पृ ३६५ पा)। उपासना-नापित-कर्म, हजामत-उपासना नाम श्मश्रुकतनादिरूपं नापित
कर्म' (आवमटी प १६६)। उप्पंक-१ कर्दम, पंक । २ ऊंचाई । ३ समूह । ४ अत्यधिक (दे १।१३०) । उप्पर-ऊपर (जीभा १४६२) । उप्पल-संख्या-विशेष-'चतुरशीतिरुत्पलाङ्गा-शतसहस्राणि एकमुत्पलम्'
(जीवटी प ३४५)। उप्पलंग-संख्या-विशेष (भ ५।१८) । उप्पल्लाणित-अश्व से पलाण उतारना-उप्पल्लाणितो आसो। विस्सामितो
राया' (उसुटी प २५१)। उप्पाडक-त्रीन्द्रिय जन्तु-विशेष (अंवि पृ २६७) । उप्पातिका-मत्स्य की एक जाति (अंवि पृ २२८) । उप्पाय-त्रीन्द्रिय जन्तु-विशेष (प्रज्ञा ११५०)। उप्पाहल-उत्कण्ठा (पा ८०३) । उप्पि -ऊपर (अनु ३।६) । उप्पिगलिआ-करोत्संग, हाथ को गोदरूप बनाना (दे १११८) । उप्पिजल-१ मैथुन । २ धूल । ३ अपकीर्ति, अपयश (दे १।१३५) । उप्पिच्छ-१ त्वरित । २ तीव्र श्वास-श्वासयुतं त्वरितं वा'
(अनुद्वाचू पृ ४६) । ३ त्रस्त, भीत (ज्ञाटी प १६८)। ४ आकुल । ५ कुपित-'उप्पिच्छं नाम आकुलम् आहित्यं उप्पिच्छं
च आउलं रोसभरियं च' (जीवटी प १६४) । उप्पित्थ-१ व्याकुल-'उप्पित्थशब्दस्त्रस्तव्याकुलवाची देशीति क्वचित्'
(से ११४०)। २ लयबद्ध श्वास (राजटी पृ १८६)।
३ कुपित । ४ विधुर (दे १११२६) । उप्पियण-बार-बार श्वास लेना (व्यभा ४/४ टी प ५०)। उप्पीड-समूह, राशि (से ४।३७) । उप्पील-१ संघात, समूह-'पसरिओ बहुलो धूमुप्पीलो' (कु पृ १०८;
दे १११२६) । २ विषमोन्नत-प्रदेश (दे १२१२६)। उप्पुय-उत्सुक (प्रटी प ५२) ।
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देशी शब्दकोश
उप्पेअ- अभ्यंग, तैल आदि से मालिस-'उप्पेअं देशीपदमेतत् अभ्यङ्गम्'
(व्यभा ६ टी प १०)। उप्पेस-त्रास (से १०।६१) । उप्पेहड-१ उद्भट, तीव्र (दे ११११६) । २ आडंबरयुक्त (पा ६०)। उप्फंदोल-अस्थिर (दे १११०२)। उप्फल्ल-दुर्जन, खल (ति ६०१)। उप्फाल-दुर्जन (ति ६००; दे ११९०) । उप्किस--उफनना (बृटी)। उप्फुकिआ-धोबिन, कपड़ा धोने वाली (दे ११११४)। उप्फुडिअ-बिछाया हुआ, आस्तृत (दे १।११३) । उप्फुण्ण-आपूर्ण, भरा हुआ (दे ११६२) । उप्फुन्न--स्पृष्ट, छुआ हुआ (प्रसाटी प ३०४)। उप्फुरुहंसिगा-प्रज्वलित अंगीठी (सूचू १ पृ १२५) । उप्फेणउप्फेणिय-क्रोध से उफनते हुए–'उप्फेणउप्फेणियं सीहसेणं रायं एवं
वयासी' (विपा १।६।१८)। उप्फेणओफेणीय -क्रोध से उफनते हुए (विपाटी प ८३) । उप्फेस-१ मुकुट (स्था ५।७२) । २ त्रास, भय (दे ११९४) । ३ अपवाद,
निन्दा (व)। उप्फेसण-त्रास, भय (उसुटी प ५८)। उप्फेसया-निन्दा-'असरिसजण उप्फेसया ण हु सहियव्वा कुले पसूएण'.
(दे ११६४ वृ)। उप्फोअ-उद्गम, उदय (दे ११६१)। उप्फोस-१ त्रास (निभा १४८०) । २ प्रक्षालन (निभा ४०८५) । उप्फोसण-सिंचन, छिड़काव-'आवरिसणं पाणिएण उप्फोसणं'
(निचू २ पृ १७५) । उबेड्ड–अन्तःप्रविष्ट (आवचू २ पृ १६५) । उब्बिब-१ खिन्न । २ शून्य । ३ भयभीत । ४ उद्भट, उग्र । ५ क्रांत ।
६ प्रकट वेष वाला (दे १।१२७) । उब्बिबल-कलुषित जल, मैला पानी (दे १११११)।। उब्बूक्क-१ प्रलपित । २ संकट । ३ बलात्कार (दे १।१२८)। उब्बुड्ड-अन्तःप्रविष्ट, गड़ी हुई–'उब्बुड्डणयणकोसे' (अनुटी प ७)।
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देशी शब्दकोश
उब्बर-१ अधिक । २ संघात, समूह । ३ स्थपुट, विषमोन्नत प्रदेश
(दे १।१२६)। उब्भ-१ खड़ा हुआ (निचू १पृ ५४) । २ ऊर्ध्व (दे श८६ वृ)। उब्भंड-फूहड, अस्त-व्यस्त वेशभूषा (बृभा ६१५७) । उभंत-ग्लान (दे ११६५) । उब्भग्ग-व्याप्त (दे ११६५)-'तिमिरोब्भग्गणिसाए' (वृ)। उन्भज्जी-क्षीरपेया-'कलमोतणो उ पयसा, उक्कोसो हाणि कोद्दवुब्भज्जी'
(ओभा ३०७) । उन्भट-मांगा हुआ-'उब्भट्ठपरिन्नायं अन्नं लद्धं पओयणे घेत्थी'
(पिनि २८१)। उब्भाअ-शांत (दे ११६६) । उभालण–१ धान्य को छाज आदि से साफ-सुथरा करना (दे १।१०३) ।
२ अपूर्व (वृ)। उब्भालिअ-सूर्प आदि से साफ किया हुआ (पा ५३८) । उब्भावण-परिभव (ओनि १४८) । उब्भावणा-अपभ्राजना, तिरस्कार (उशाटी प १६६) । उब्भाविअ-मैथुन (दे १।११७ वृ)। उन्भासुअ--शोभा-हीन (दे १।११०)। उन्भुआइअ—उभरा हुआ (दे १२१०५ वृ)। उन्भुआण-उफनता हुआ, अग्नि से तप्त दूध आदि का उछलना
(दे १११०५)। उब्भुग्ग-चल, अस्थिर (दे १११०२)। उन्भुत्तिअ-उद्दीपित, प्रदीपित (पा १६) । उन्भुभंड-भांड-विशेष (अंवि पृ १९३)। उन्भे-तुम सब (दे १८६ वृ)। उभज्झी -क्षीरपेया (ओटी प १९६) । उमत्थिय-बांधकर-सव्वोवही (एगट्ठा कज्जति भायणं उमथिए) एगट्ठाणे
पुढो कज्जति' (निचू ३ पृ ३७४) । उमाण-प्रवेश-उमाणं ति प्रवेशः' (आटी प ३२६) । उमुत्तिल्लय-१ बहु-मूत्र रोगवाला । २ मूत्राशय में सूजनवाला-'जेण वा
कट्ठाइणा संचालेति तं सविसं उमुत्तिल्लयं वा खयं वा कट्टेण हवेज्जा' (निचू २ पृ २८)।
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उम्मइअ-मूढ़, मूर्ख (दे १११०२) । उम्मंड-१ हठ, आग्रह । २ उद्वृत्त, बचा हुआ (दे २१२४) । उम्मच्छ-१ असंबद्ध । २ भंगयुक्त, विकल्प से कथित । ३ क्रोध
(दे १११२५)। उम्मच्छविअ-उद्भट, तीव्र (दे ११११६) । उम्मच्छिअ-१ रुष्ट । २ आकुल (दे १।१३७) । उम्मड्डा-बलात्कार (दे ११६७) । उम्मत्त-१ धतूरा (दे १८६) । २ एरण्ड (वृ)। उम्मत्थ-अधोमुख, विपरीत (दे ११६३) । उम्मर-देहली (आच पृ ३६४; दे ११६५) । उम्मरिअ--उत्खात (दे १।१००)। उम्मल-जमा हुआ, स्त्यान, कठिन (दे ११६१) । उम्मल्ल-१ नृप । २ मेघ । ३ पुष्ट, पीवर । ४ बलात्कार (दे १११३१) । उम्मल्ला -तृष्णा (दे ११६४) ।। उम्माल-देवता को चढाई गई वस्तु, निर्माल्य (पा ३५२) । उम्मह-अभिमानी (दे ११९६)। उम्हाविअ-मैथुन (दे १।११७) । उचित-परिकमित, संस्कारित (ज्ञाटी प १७) । उयचिय--परिकर्मित (ज्ञाटी प १७) । उयदिणी-जंघा-'उयट्टिणीए णीणेऊण दरिसिओ'-जंघाया निष्काश्य दशितः'
(उशाटी प ११८) । उयटी-.-१ कटी। २ जंघा-'जेण घेत्तुं उयटीए छुढो-येन गहीत्वा
कट्यां (जंघायां ?) क्षिप्तः' (उशाटी प ११८) । उयणिसय-रहस्य-कला, जादू-टोना, मुगटनी कला (कु पृ २२) । उयरिय-उतरकर-'मझे वा उयरिय पाणियं पियह' (ओटी पृ ३६२) । उयरी-गर्भवती (कु पृ १६२) । उयल्ल-मृत-जाहे अदिस्सो जाओ ताहे तहठिया चेव रागसंमोहियमणा
उयल्ला' (आवहाटी १ पृ १८२)। उयविय-जीत लेने पर-'उयविए प्रसाधिते अर्धभरते'
(व्यभा ६ टी प ४५)। उर-आरम्भ (दे ११८६)।
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देशी शब्दकोश
उरंउरेण-साक्षात् -'रहबलेण वा चाउरंगेणं पि उरंउरेणं गिण्हित्तए'
(विपा १३५०) ! उरंमुह—ओंधेमुंह-'परंमुहा पडंतु उरंमुहा पासेल्लिया (वा)' ?
(आवहाटी १ पृ २८५)। उरच्छक-मद्य का बड़ा पात्र (अंवि पृ २५६) । उरणा—वेणी में गूंथा जाने वाला ऊन का आभरण (अंवि पृ ६४)। उरणि-जन्तु-विशेष (भा ५८८३)। उरणी-त्रीन्द्रिय जंतु-विशेष (अंवि पृ २३७) । उरत्त-खण्डित, विदारित (दे ११९०)। उरत्थय-कवच, वर्म (पा २७४) । उररि-पशु, बकरा (दे ११८८) । उरल-१ स्थूल, बड़ा । २ असघन, विरल-'उरलं ति विरलं न तु घनम्'
(प्रज्ञाटी प २६६) । उराल--१ सुन्दर-'अणुस्सुओ उरालेसु जयमाणो परिव्वए' (सू १९३०)।
२ प्रधान (स्था १०।१०३) । ३ भीषण-'भीमा भय भेरवा उराला' (उ १५।१४) । ४ विशाल, विस्तृत-'भण्णइ य तहोरालं वित्थरवंतवणस्सति पप्प । पयतीय पत्थि अण्णं एद्दहमेत्तं विसालंति ॥' (अनुद्वाहाटी पृ८७) । ५ हरित वनस्पति-विशेष
(प्रज्ञा ११४४)। उरालक-धान्य-विशेष (अंवि पृ ६६) । उरालिय-औदारिक शरीर-मंसटिण्हारुबद्धं उरालियं समयपरिभासा'
(अनुद्वाहाटी पृ८७)। उरिणण-पास निकालना (ओटी पृ ३७३ पा)। उरुणण-कपास निकालना (ओटी पृ ३७३)। उरुणी-गृह-उपकरण (अवि पृ १४२) । उरुपल्ल-१ अपूप, पूआ। २ धान्यों के मिश्रण से बना खाद्य, खिचड़ी आदि
उरुमिल्ल-प्रेरित (दे १११०८)। उरुलुंचग-त्रोन्द्रिय जन्तु-विशेष (प्रज्ञा ११५०)। उरुसोल्ल-प्रेरित (दे १।१०८)। उलइय (ओलइय?) लटका दिया (व्यभा १० टी प८०)। उलग-हल चलाने वाला-'उलगादिभतओ भतीए घेप्पत्ति' (दश्रुधू प ३८) ।
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देशी शब्दकोश
उलणा-देवी-विशेष (अंवि पृ २२३)। उलवी-पानी को सुगंधित करनेवाला एक प्रकार का घास (पा ६२८)। उलाण-बाज पक्षी-'उलाणसिंगतससयाण जालच्छइयाए'
(निचू २ पृ २८१)। उलिअ-निकणित आंख वाला, टेढी आंख वाला (दे ११८८)। उलित्त-ऊंचा कुंआ, ऊंची भूमी पर स्थित कुंआ (दे ११८६)। उलुउंडिअ--१ प्रलुठित । २ विरेचित (दे ११११६) । उलुकसिअ-पुलकित (दे ११११५) । उलुखंड-उल्मुक, अलात (दे १११०७) । उलुफुटिअ-१ विनिपातित । २ प्रशान्त (दे १११३८) । उलुहंत-काक, कौआ (दे १११०६)। उलहलिअ-जो कभी तृप्त नहीं होता, अतृप्त (दे ११११७) । उल्लअण–अर्पण (से १११५१) । उल्लंकय-काष्ठपात्र-'उल्लंकओ कटुमओ पत्तो' (निभा ४११३) । उल्लंचिय-खाली करना-'सो तस्स कए समुहं उल्लंचिउमाढत्तो'
(आवहाटी १ पृ २७६)। उल्लंठ-उद्धत-'उल्लंठवयणा विग्घाणि करेंति' (उसुटी प ६६) । उल्लंडग-मिट्टी का गोला-'उल्लंडगा परिबज्झंति मृद्गोलकमित्यर्थः'
(निचू ३ पृ १६०)। उल्लंडिअ-बाहर निकाला हुआ, रिक्त किया हुआ (पा ५६२)। उल्लग-कृश, क्षीण-सा उल्लगसरीरा जाया' (उशाटी प ३००)। उल्लढ-शुष्क, सूखा (ओटी पृ ३५६ पा)। उल्लण--छाछ से गीला किया हुआ ओदन, खाद्य-विशेष (पिनि ६२४) । उल्लणिया-शरीर पोंछने का वस्त्र, तोलिया (उपा ११२६) । उल्लत्थपल्लत्थ--असमंजस, उलट-पलट, अव्यवस्थित-'उल्लत्थपल्लत्था से
आलावया दिज्जति' (आवहाटी २ पृ ९१)। उल्लद-उतार कर-'तत्थ बइल्ले उल्लदेत्ता उवक्खडेंति'
(आवहाटी १ पृ १९४)। उल्लरय-कौडिओं का आभूषण (दे ११११०) । उल्ललिअ-शिथिल, ढीला (दे १११०४) । उल्लसिय–पुलकित (दे ११११५) ।
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देशी शब्दकोश
उल्लाय-पाद-प्रहार (तंदु १६२) । उल्लायक-कर्माजीवी (अंवि' पृ ६०)। उल्लिअ-१ खींचा हुआ, छीला हुआ-'उल्लिओ फालिओ गहिओ मारिओ य
अणंतसो' (उ १६६४) । २ उपागत (कु पृ १६१) । उल्ली-काई, शैवाल-'पणओ उल्ली' (निचू २ पृ १९७) । २ दांत पर
जमनेवाली पपड़ी-'उल्ली दंतेसु दुग्गंधा' (आव २ पृ ७२)।
३ चुल्हा,चुल्ली (दे ११८७) । उल्लुंटिअ--चूणित, चूरा-चूरा किया हुआ (दे १।१०६) । उल्लुक्क-त्रुटित, टूटा हुआ (दे ११६२)। उल्लुग-विकृत, त्रुटित (प्रटी प २२) । उल्लुट्ट-मिथ्या (दे ११८६) । उल्लुरुह-छोटा शंख (दे १११०५) । उल्लूड-विध्वंस (व्यभा ५ टी प ७)। उल्लडित-विध्वंसित, नष्ट (व्यभा ५ टी प ७)। उल्लूढ-१ आरूढ़ (दे १।१००) । २ अंकुरित (वृ)। उल्लूरधूविता-खाद्य-पदार्थ-विशेष (अंवि पृ ७१) । उल्लूरिया-मिठाई (उसुटी प ८६) । उल्लह-शुष्क, सूखा--'उल्लूहं च नलवणं हरियं जायं' (ओटी प ३५६) । उल्लेव-हास्य, हंसी (दे १११०२) । उल्लेवअ--हंसी, हास्य (दे १।१०२ वृ)। उल्लेहड-लम्पट, लुब्ध (दे ११०४) । उल्लोइय-खड़ी आदि से भींत को पोतना (जंबू ११३७) । उल्लोग-थोड़ा, अल्प (बृभा १६०५) । उल्लोच-वितान, चंदोवा (दे ११६८)। उल्लोट्ट-अपवर्तन, मुडना (प्रटी प ८६)। उल्लोपिक-भोज्य-पदार्थ-विशेष (अंवि पृ १८२)। उल्लोय-चंदोवा, वितान (बृभा ५६८१) । उल्लोल-१ शत्रु (ति ८८५; दे ११६६)। २ जलतरंग (पा ५६)।
३ कोलाहल । उल्लोहित-पुता हुआ-'उल्लोहितं उव्वलितं तधा उच्छाडितं ति वा'
(अंवि पृ १०६)।
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देशी शब्दकोश
उल्हक-छोटा चूल्हा (पिनि ५४) । उल्हसिअ-उद्भट, तीव्र (दे ११११६) । उव-पक्षी-विशेष (अंवि पृ ६२) । उवअ-हाथी को पकड़ने के लिए बनाया गया गढा (पा ६००)। उवइक-दीमक (बृटी पृ १६६६) । उवइग-दीमक (निचू १ पृ६६) । उवइय--त्रीन्द्रिय जन्तु-विशेष (जीव ११८८)। उवउज्ज-उपकार (दे १११०८)। उवएइआ-मद्य परोसने का पात्र (दे ११११८) ।' उवक- गढा, खातिका (बृटी पृ २२२) । उवकय---सज्जित (दे २११९)। उवकयय-सज्जित (दे ११११६ वृ) । उवकसिअ---१ सन्निहित, पास में पड़ा हुआ। २ परिसेवित। ३ सर्जित,
सृष्ट (दे १११३८)। उवक्खडाम-कोरडू, जो धान्य-कण पकाने पर भी नहीं पकता-'उवक्खडामं
णाम जहा चणयादीण उक्खडियाण जे ण सिझंति ते कंकडुया,
तं उवक्खडाम भण्णति' देखें-कंकडुय' (निचू ३ पृ ४८४) । उवग-१ योग्य-'उवगा नाम योग्याः' (सूचू १ पृ ४५) । २ गढा
(निचू ४ पृ ४८)। उवचिक-त्रीन्द्रिय जंतु-विशेष (अंवि पृ २६७) । उवचुल्ल-छोटा चूल्हा (निचू १ पृ ८२) । उवचल्लग-छोटा चूल्हा (निचू १ पृ ८२) । उवजंगल-दीर्घ (दे ११११६) । उट्टिअ-अनाथ, अशरण-'उवट्टितो अणाहो असरणेत्यर्थः'
(निचू १ पृ १२२) । उवतिग-दीमक-'संचारोवतिगादी, संजमे आयाऽहि विच्चुगादीया'
(बृभा ६३२२)। उवत्थवण-अस्तमन (वेला) (निचू १ पृ ८७) । उवदीव-द्वीपान्तर, अन्यद्वीप (दे १११०६) । उवयिय-त्रीन्द्रिय जन्तु-विशेष (जीवटी प ३२) । उवर-कक्ष, कोठरी, तलघर (निभा १७३) ।
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देशी शब्दकोश उवरिग-माल का निरीक्षण करने वाला अधिकारी--'सामि ! पेसेह उवरिगो
जो भंडं निरूवेइ' (उसुटी प ६५) । उवरिल्ल-ऊपर (पंक १४१) । उवरिल्लअ-मजबूत वस्त्र, मोटा कपड़ा-विरइओ उवरिल्लएण पासो,
णिबद्धो य कीलए' (कु पृ ५३)। उवरेग-व्यापाररहित-'तत्थ वरिसमेत्तं उवरेगं गओ' (उसुटी प ७६) । उवलभत्ता-कंगन (दे १११२०) । उवलयभग्गा -कंगन (दे १२१२०) । उवललय-मैथुन (दे १११७) । उवलुअ-लज्जायुक्त, लज्जालु (दे १११०७)। उवलेह-सन्तुष्ट-'तीसे महिलाए कप्पासमोल्लं दिन्नं, सा य उवलेद्दा'
(उशाटी प १६२) । उवसग्ग-मंद (दे ११११३)। उवसेर-रति-योग्य (दे १।१०४) । उवहत्थिय–समारचित, सज्जित (दे ११११६ व)। उवहा-मच्छ (निभा ४२२३ पा)। उवहावण-परिभव (ओटी प १३१) । उवाई-पोताकी' विद्या की प्रतिपक्षी विद्या (उसुटी प ७३) । उवातिय-खाद्य-विशेष (निचू ३ पृ ५२१) । उवारस-एक प्रकार का प्रावरण-'उवारसा कंबला खरडगपारिगादि
पावारगा' (निचू २ पृ ४००)। उवासणा-क्षीरकर्म, हजामत (बृभा २०६७)। उविअ-१ संस्कारित, परिकर्मित (ज्ञा १।१।२४) । २ शीघ्र (दे ११८६) । उन्वक्क–धौत, दूध में भिगोकर निकाला हुआ-'जह पुण ते चेव तिला
उसिणोदगधोयखीरउव्वक्का' (व्यभा ३ टी प ११०)। उव्वट-१ नीराग, रागरहित । २ गलित (दे २१२९ )। उठवी-नीवी, स्त्री के कटिवस्त्र की नाडी (दे १११५१ पा)। उव्वण्ण-उत्कण्ठित (व्यभा ७ टी प ६)। उव्वत्त-१ रागरहित । गलित (दे १११२६)। उव्वर–१ कक्ष, तलघर-'पुव्वखओ जो भूघरोव्वरो' (निचू १ पृ ६७)।
२ धान्य रखने का कोठा (बृभा ३२६६) । ३ घाम, ऊष्मा (दे ११८७)।
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देशी शब्दकोश
उव्वरअ--कोष्ठागार-'उव्वरओ त्ति वा कोट्ठगो त्ति वा एगट्ठ' विशेषचूर्णी'
(बृटी पृ ६२६) । उव्वरग-कोठरी-सव्वोवगरणं उव्वरगे छुभंति, अह णत्थि उव्वरगो तो
सव्वोवकरणं एगकोणे करेंति' (निचू २ पृ १७८) । उव्वरिअ-१ अधिक । २ अनीप्सित । ३ निश्चित । ४ ताप । ५ अगणित
(दे १।१३२) । ६ अतिक्रान्त, उल्लंधित । उव्वविय-तीन इन्द्रिय वाला जन्तु-विशेष (जीव ११८८) । उन्वहण-महान् आवेश (दे १।११०)। उव्वा-धर्म, ताप (दे श८७)। उव्वाअ-खिन्न (दे १३१०२) । उव्वाउल-१ गीत । २ उपवन (दे १११३४) । उव्वाडुअ---१ विपरीत मैथुन । २ मर्यादा-शून्य मैथुन (दे १११३३) । उवाढ–१ विस्तीर्ण, विशाल । २ दुःखमुक्त (दे २१२६)। उव्वात-श्रान्त, थका हुआ (निचू ४ पृ २८७) । उव्वाय-परिश्रान्त, थका हुआ-धावंतो उव्वाओ, मग्गन्नू किं न गच्छइ
कमेणं' (बृभा ३२०)। उव्वाह-धर्म, ताप (दे ११८७) । उव्वाहिअ-उत्क्षिप्त, ऊपर उछाला हुआ (दे १११०६)। उव्वाहुल-१ कामासक्ति से उत्पन्न उत्सुकता। २ द्वेष्य, द्वेष-पात्र
(दे १११३६)। उविडिम-१ अधिक प्रमाणवाला । २ मर्यादारहित, स्वच्छंद
(दे १११३४) । उविवार-भूकंप-'उब्विवारा जलोहंता तेतणीए मतोट्टितं' (इ ४५।१४) । उविव्व-१ उद्भट वेषयुक्त (पा ५६७) । २ क्रुद्ध । उव्वीढ-उत्खात, खोदा हुआ (दे १११००)। उव्वुण्ण-१ उद्विग्न । २ उसिक्त । ३ उद्भट, तीव्र । ४ शून्य
(दे १११२३)। उज्वेत्ताल-निरन्तर रुदन (दे १।१०१)। उध्वेल्लय-त्वरा-'एसो सो चेय मओ चल-चल्लुव्वेल्लयं करेऊण'
(कु पृ १८६)। उव्वेल्लिर–१ उत्फुल्ल, चंचल (कु पृ ७८) । २ शीघ्रगामी (कु पृ २०१)।
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उodहलिया --वनस्पति- विशेष (भ २३।४) । उव्वेहासित - ऊंचा किया हुआ (अंवि पृ १४८)।
उसणसेण - बलभद्र (दे १।११८ ) ।
उसणी - एक प्रकार का धान्य जिसमें से तेल निकलता है (अंवि पृ २३२) । उसद्ध-- उत्कृष्ट - 'उसद्धं - उत्कृष्ट' (आचू पृ ३६२ ) ।
देशी शब्दकोश
उसध - पुष्प - विशेष (अंवि पृ २३२ ) ।
उसीर -- पद्मनाल, कमलनाल (दे १६४ ) ।
उसु
- बालक का इषु के आकार का एक आभरण (पिनि ४२४) । २ तिलक - 'उसू तिलगा' ( निचू ३ पृ ४०७ ) ।
उसुअ-दूषण, भूल (दे १1८8 ) |
उसुक—– तिलक, आभरण- विशेष (निचू ३ पृ ४०७)। उसुकाल - उदूखल (निचू ३ पृ ३७८) ।
उसुयाल -- ऊखल, उदूखल (आचूला ५।३६) ।
उस्स-ओस (स्था ४।६४० ) ।
उस्सण्ण- -१ प्राय: (बृभा २०४) । २ प्रभूत ( व्यभा २ टीप ६२ ) ।
उस्सन्न- - प्रायः (भ १५११८६ वृ ) ।
उस्सयण -- अभिमान - 'पलिउंचणं च भयणं च थंडिल्लुस्सयणाणि च । (सू २||११) ।
उस्सरण - वपन, बुआई - 'निच्चुदग नदी कुडंगमुस्सरणं' (बृभा ४०३५) ।
उस्सा - गाय (दे ११८६ वृ) ।
उस्सिघण - मर्दन - 'उस्सिंघण - मक्खणभंगण उच्छंदण उव्वट्टण' (अंवि पृ १९३ ) ।
उस्सुग --- मध्य भाग ( आचूला १।११६ पा ) ।
उस्सूलग - परिखा, खाई ( उ ६।१८) | देखें - 'उच्छूलग' ।
उस्सूलय - १ परिखा । २ शत्रु सेना का नाश करने के लिए ऊपर से आच्छादित गर्त्त - विशेष ( उशाटी प ३१० ) ।
उस्सेल्लय - सर्षपनाल से निष्पन्न शाक- एगेण साहुणा सासवणालुस्सेल्लयं सुसंभृतं लद्ध' (निचू ३ पृ २६४) ।
उहर – १ छोटा घर, उपगृह ( प्र १|१२ ) - 'उहर त्ति उपगृहाणि आश्रयविशेषा:' ( टीप ११) । २ छोटा - 'उहरग्गाममयमी'
(व्यभा ७ टीप ५६ ) ।
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देशी शब्दकोश
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उहरक-छोटा गांव (व्यभा ७ टी प ५६) । उहावणा-अपमान (व्यभा ६ टी प ५) ।
ऊ-१ गर्दा, निन्दा सूचक अव्यय-ऊति णाम मरहट्टादिसु णादिदुगुंच्छिज्जति'
(आचू पृ २३३) । २ प्रस्तुत वाक्य के विपरीत अर्थ की आशंका से उसे
उलटना। ३ विस्मय । ४ सूचना । ऊआ—यूका, जू (दे१।१३६) । ऊढिअय-१ प्रावृत, आच्छादित । २ आच्छादन, प्रावरण (पा ६३७) । ऊणंदिअ---आनन्दित (दे १११४१) । ऊणिमा-पूर्णिमा-'तओ तीए चेव ऊणिमाए भरिऊण भंडस्स पत्थिओ'
(उसुटी प ६४) । ऊणिस-तकिया 'सामायंति मुहाई ऊणिसगहियाण व थणाण' (कु पृ १७) । ऊमत्तिअ-दोनों पावों में आघात करना (दे १११४२) । ऊयरिणिया--जंतु-विशेष-'पत्तगबंधे ऊयरिणिया लग्गा' (निचू १ पृ ६८)। ऊर–१ ग्राम । २ संघ (दे १११४३) । करणिया--जन्तु-विशेष (निभा २८१)। ऊरणी-मेष, भेड़ (दे १११४०)। ऊरणीया--जंतु-विशेष । (निचू १ पृ६८) ऊल-गतिभंग, उतावल (दे १११३६)। ऊसढ-श्रेष्ठ, वर्ण आदि गुणों से युक्त, ताजा-'ऊसढं ऊसढे ति वा, रसियं
रसिए ति वा' (आचूला ११५७)। ऊसण-कामासक्ति से उत्पन्न उत्सुकता (दे १११३६) । ऊसत्थ-१ जम्भाई । २ आकुल (दे १।१४३)। ऊसय---उपधान, तकिया (दे १३१४०) । ऊसल-पीन, पुष्ट (दे १।१४०)। ऊसलिअ-१ रोमांचित, पुलकित (दे १३१४१) । २ उल्लसित (वृ) । ऊसविअ--१ उद्भ्रांत । २ ऊंचा किया हुआ (दे १११४३)।
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देशी शब्दकोश
ऊसाइअ--१ विक्षिप्त (दे १११४१) । २ उत्क्षिप्त-'ऊसाइअं उत्क्षिप्तमिति
धनपालः' (वृ)। ऊसायंत-खेद होने पर शिथिल (दे १।१४१) । ऊसार-विशेष प्रकार का गढा (दे १११४०) । ऊसिक्किअ—प्रदीप्त (पा १६)। ऊसिग-मध्यभाग (आचूला ११११६ पा)। ऊसुंभिअ-१ अवरुद्ध गले से रोना, धीरे रोना (दे १११४२) ।
२ उल्लसित (७)। ऊसुक्किअ-विमुक्त (दे १।१४२) । ऊसुय-मध्य-भाग (आचूला १।११६) । ऊसुर-ताम्बूल, पान (प्रा २।१७४) । ऊसूरुसंभिअ-अवरुद्ध गले से रोना, धीरे रोना (दे १११४२) । ऊहट्ट- उपहसित (दे १।१४०) ।
एआवंती-इतने-'एआवन्ती सव्वावन्ती ति एतौ द्वौ शब्दो मगधदेशी.
___ भाषाप्रसिद्धया एतावन्तः सर्वेऽपीत्येतत्पर्यायौ' (आटी प २६) । एकल्ल— अकेला (ज्ञा ११४१५७) । एकहेला--एक साथ (प्रटी प ४६) । एकाणंसा-देवी-विशेष (अंवि पृ २२३)। एकूडिया-तीतर आदि का मांस पकाने की प्रक्रिया-'आतंकाभिभूता
रसगादिहेउं बगतित्तिरादीहि य एकुडियाओ पकरेंति'.
(आचू पृ १६)। एक्क- स्नेहिल (दे १११४४)। एक्कंग-चन्दन (दे १।१४४) । एक्कक्कम-परस्पर (से ५१५९) । एक्कघरिल्ल—देवर, पति का छोटा भाई (दे १।१४६) । एक्कणड-कथिक, कथा कहने वाला (दे १११४५) । एक्कमुह-१ धर्म रहित ! २ दरिद्र । ३ प्रिय, इष्ट (दे १३१४८) ।
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देशी शब्दकोश
एक्कमक्क --- परस्पर ( प्र ४ | ) |
एक्कयाण – अकेला - " किमंगरायं तुमं हरिणजातीण एक्कयाण परिनिव्विट्ठो'. (व्यभा ४ | ३ टीप ८ ) ।
एक्कल्लग – एकाकी ( अनुद्वाहाटी पृ ३५) ।
एक्कल्लपुडिंग- -- अल्प बिन्दु वाली वृष्टि (दे १।१४७ ) ।
एक्कल्लय- अकेला ( उसुटी प८६ ) | एक्कल्लु - अकेला ( उसुटी प ८० ) । एक्कवई - रथ्या (दे १।१४५ वृ ) ।
एक्कसरय – एक बार (व्यभा ६ टीप २) |
एक्कसराए - १ एक साथ । २ एक बार ( बूटी पृ ४६६ ) । एक्कसरिअं -- १ शीघ्र ( आवचू १ पृ २४९ ) । २ संप्रति, आजकल (प्रा २।२१३) ।
एक्कसाहिल -- एक स्थान में रहने वाला, स्थिरवासी (दे १।१४६ ) एक्कसि - एक बार (व्यभा १० टी प ६० ) ।
एक्कसिंबली -- शाल्मली पुष्पों के साथ नूतन फली (दे १।१४६) । एक्क सिय-- एक बार ( बृचू प २०८ ) |
एक्कार - लोहकार (दे १। १४४ वृ ) ।
एक्कावण्ण- इक्यावन ( निचू ४ पृ ११३) ।
एक्क्कम -- अन्योन्य, परस्पर ( दे १।१४५ ) ।
एगओवत्त- द्वीन्द्रियजन्तु - विशेष ( प्रज्ञा १ (४९) ।
1
एगट्टिया - नौका - एगट्टियाए मग्गण - गवेसणं करेंति' (ज्ञा १।१६।२८२) । एगल्ल- एकाकी ( जीभा २१५ ) ।
एगसरग - एक बार - एगसरगं ति एक्कं वारं दिज्जति' (निचू ४ पृ ३४६ ) । एगायत --अकेला - "एगायताऽणुक्कमणं करेंति' ( सू २।५।४८ ) |
एगाहच्च - एक ही प्रहार से मारना - तं पुरिसं एगाहच्चं कूडाहच्चं जीवियाओ ववरोवेइ' (भ ७।२०२) ।
।
एगुणि--- उन्नीस ( उशाटी प 8 ) एडण - उत्सर्जन - 'तए णं सा नागसिरी " तित्तालाउयस्स बहुसंभार - संभियस्स ने हावगाढस्स एडणट्टयाए' (ज्ञा १ । १६ । १४ ) |
एडावण-उत्सर्जन - 'अंबकूणग - एडावणट्टयाए एगंतमंते संगारं कुब्वंति'
(भ १५।१३४) ।
७३
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देशी शब्दकोश
एडिज्जमाण-उत्सृज्यमान, उत्सर्जन करता हुआ (ज्ञा १।१६।७५) । एडेत्ता-उत्सृज्य, उत्सर्जन करके (ज्ञा १११६।७३)। एणुवासिअ-मेंढक (दे १।१४७) । एताहे-अब (दे १११४४ वृ)। एत्तोपं-यहां से लेकर, यहां से (दे १११४४) । एद्दह-इतना (दे १११४४ वृ)। एमाण-प्रवेश करता हुआ (दे १११४४)। 'एमिणिआ-वह स्त्री, जिसके शरीर को, किसी देश के रिवाज के अनुसार,
सूत के धागे से नाप कर उस धागे को फेंक दिया जाता है
(दे १११४५)। एयावंति-इतना (आ ११७)। एरंडइअ-पागल-'एरंडइए साणे त्ति हडक्कायितः श्वा' (बूटी पृ ८२६) । एरंडइत--पागल (दश्रुचू प ५१) । एग-नागरमोथा (बृभा १२२३)। एराणी-१ इन्द्राणी । २ इंद्राणीव्रत का पालन करने वाली स्त्री
(दे १११४७) । एरावण-गुच्छ-वनस्पति-विशेष (प्रज्ञा ११३७।४)। एल--कुशल (दे १।१४४) । एलवालुंकी-एक प्रकार की ककड़ी की बेल (प्रज्ञा ११४०।१)। एलविल- १ धनाढ्य । २ वृषभ, बैल (दे १११४८) । एलालय-आलू की एक जाति, कंद-विशेष (अनु ३३५१)। एलालुग-ककड़ी-'एलालुग माउलिंग फलमादी' (बृभा २४४२) । एलावालुंकी-वनस्पति-विशेष (भ २२।६) । एवड-इतना-'एवड्डे आलावगं सक्केहिति गेण्हिर'
(आवहाटी १ पृ६६)। एवण्हं—वाक्यालंकार-'एवण्हमिति वाक्यालङ्कारे (बृटी पृ १४६१) । एव्वेल-अधुना, अभी-'एव्वेलं पहामोत्ति नमोक्कारं घोसंतस्सेव'
(आवहाटी १ पृ ३०३)।
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देशी शब्दकोश
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ओ
ओअ--वार्ता, कहानी (दे १।१४६) । ओअंक-गर्जारव, गजित (दे १११५४) । ओअग्गिअ-१ अभिभूत । २ केश आदि को एकत्रित करना (दे १५१७२) । ओअग्घिअ----घ्रात, सूंघा हुआ (दे १११६२) । ओअल्ल-१ पर्यस्त, प्रक्षिप्त । २ प्रकंप, थरथराहट । ३ गौओं का बाडा ।
४ लटकता हुआ (दे १११६५) । ५ खराब आचरण । ६ जिसकी
आंखें निमीलित होती हों वह (से १३।४३)। ओआअ-१ गांव का स्वामी। २ अपहृत, जिसका अपहरण कर लिया गया
हो वह । ३ आज्ञा। ४ हाथी आदि को बांधने के लिए बनाया हुआ
गर्त (दे १।१६६)। ओआअव-अस्त-समय, अस्तमन-वेला (दे १११६२) । ओआल-छोटा प्रवाह (दे १११५१)। ओआलित---द्रवित किया, पिघाला-'रण्णो चित्तं ओआलितं'
(आवहाटी १ पृ २३४) । ओआली--- १ खड्ग का एक दोष । २ पंक्ति (दे १।१६४) । ओआवल-बाल-आतप, सुबह का सूर्य-ताप (दे १।१६१)। ओइत्त—परिधान, वस्त्र (दे १११५५) । ओइत्तण-परिधान, वस्त्र (दे १११५५) । ओइल्ल---आरूढ (दे १११५८)। ओउंबालग-कोट्टपालक, आरक्षक (आवचू १ पृ २८६)। ओएल्ल-कुण्ठित-'तत्थ वि य से धारा ओएल्ला' (ज्ञा १११४१७७)। ओंडल ----केश-रचना, धम्मिल्ल (दे १।१५०) । ओंडि---मुट्ठी (आव २ पृ १०१)। ओकडढक--१ घर से धन आदि ले जाने वाले चोर । २ जो चोरों को बुला
कर चोरी कराते हैं। ३ चोरों के पृष्ठवाहक-सहायक (प्र ३।३)। ओकासक-कर्ण का आभूषण जो नीचे लटकता रहता है (अंवि पृ १६२)। ओक्कणी-यूका, जू (दे १४१५६)। ओक्कतल्लिय-- चबाकर निकाला हुआ, वमन किया हुआ-'अंबकोइलियाओ
कुक्कुडएहि ओक्कतल्लियाओ हरिएसेहिं णिज्जाइयातो' (दअचू पृ २३) । ओक्करिसु (कन्नड) ।
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देशी शब्दकोश ओक्किअ-१ निवास, अवस्थान (दे १११५१) । २ वमन (वृ)। ओक्कुट--सचित्त वनस्पति का चूर्ण-'सचित्तवणस्सती चुण्णो ओक्कुट्ठो भण्णति'
(निचू २ पृ २६०)। ओक्खंडिअ--आक्रान्त (दे ११११२)। ओक्खंद-शत्रु-सेना द्वारा नगर का घेराव-कोसलेण रण्णा ओक्खंदं दाऊण
भेल्लियं तं संणिवेस' (कु पृ ६६)। ओक्खिण्ण-१ अवकीर्ण । २ आच्छादित । ३ जिसके दोनों पार्श्व अत्यंत
शिथिल हों, वह (दे १११३० वृ)। ओखंद-१ सेना का पडाव या सेना का घेराव (निभा २४०१) । २ डाका,
धाटी (बृभा ४८३८)। ओगंठी-चूंघट, मस्तक पर डाला हुआ वस्त्र-'कंबलरयणोगुठि काउं रणो
ठिओ पुरतो' (ति ७९१) । ओग्गाल-जल का लघु प्रवाह (दे १११५१)। ओग्गिअ- अभिभूत, पराजित (दे १११५८) । ओग्गीअ-हिम, बर्फ (दे १।१४६) ।। ओघसर-१ अनर्थ । २ घर से निकलने वाला जलप्रवाह (दे १।१७०)। ओचार-धान्य रखने का कोठा या पात्र-विशेष-'अपचारि-दीर्घतरधान्य
कोष्ठाकारविशेषः' (अनुद्वामटी प १४०) । ओचिय-आरोपित (जीवटी प १६६) । ओचुल्ल-चुल्ली का एक भाग (दे १११५३) । ओचलयालग-नीचा सिर और ऊपर पांव कर पानी में डुबोना
(विपाटी प ७२) । ओच्चेल्लर-१ खिल भूमि, ऊषर भूमि, हल आदि से बिना जोती हुई
भूमि । २ साथल के रोम (दे १११३६) । ओच्छग-वस्त्र (आवहाटी' २ पृ १२८) । ओच्छट्ट-- चोर (दे १।१०१ वृ)। ओच्छत्त-दतौन, दतवन (दे १११५२) । ओच्छविय-आच्छादित (ज्ञाटी प ३१) । ओच्छाइय--आच्छादित (प्रटी प १३४) । ओच्छिअ-केशों को संवारना (दे १११५०)।
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देशी शब्दकोश
ओच्छुपीय - बीज, धान्य- एगत्थ ओच्छुपीया नीणिज्जंति' ( आवचू १ पृ १११) । ओछाडित आच्छादित (अंवि पृ २४४) । ओज्जल्ल - बलवान्, प्रबल ( दे १ । १५४) । ओज्जाय ---- गर्जित (दे १ । १५४) । ओज्झमैला, अस्वच्छ ( दे १।१४८ ) । ओज्झमण - पलायन (दे १|१०३ वृ) ।
ओज्झर - निर्भर ( से १।५६ ) ।
ओज्झरिय - १ टेढी नजर से देखा हुआ, कानी आंख से देखा हुआ । २ विक्षिप्त, पागल । ३ क्षिप्त, फेंका हुआ । ४ व्यक्त (दे १।१३३ वृ ) ।
ओज्झरी-ओझ, आंत का आवरण (दे १।१५७) ।
ओज्झाय-दूसरे को धक्का देकर छीन लेना (दे १।१५६ ) |
ओट्टिय ( दोट्टिय, दोद्धिय ? ) तुंबा (आवहाटी १ पृ २८३ ) ।
ओड - १ भूमि खोदने वाला ( स्थाटी प १९६ ) । २ कूप ( आवटि प २४) ।
ओडड्डू – अनुरक्त, रागी ( दे १ । १५६ ) ।
ओडिका - अंश, खंड ( आवटि प ६७ ) ।
ओड्ड-वस्त्र-शिल्पी (अंवि पृ १६१) ।
ओड्डय - छिपाव, गुप्त - तेसिं च पोत्ताणि हीरंति, ओडएण अच्छंति' (( आवचू १ पृ १११) ।
ओड्ढण - ओढन, उत्तरीय वस्त्र (दे १।१५५)।
ओड्ढिय - ओढा हुआ, धारण किया हुआ - परिहिअमोड् ढणमोड्ढिअमोइत्तं' (दे १।१५५ वृ) ।
ओणिव्व - वल्मीक, कृमि-पर्वत, चींटियों द्वारा खोदी गई मिट्टी का ढेर (दे १ । १५१ ) ।
ओणवी - नीव्र, छत का प्रान्त भाग ( दे १।१५० ) ।
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ओणुणअ- अभिभूत पराभूत (दे १।१५८ )।
ओणेज्ज - सांचे में मोम आदि की विभिन्न आकृतियों की रचना - 'ओणेज्जं मदणविच्छित्ति-विसेसा' (दअचू पृ ३९ ) ।
ओत्तलहअ - वृक्ष (दे १ । ११९ वृ) । ओत्थइअ - व्याप्त ( से ११।५९) ।
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देशी शब्दकोश
ओत्थय–१ पिहित, ढका हुआ-'अत्थरयमिउमसूरगोत्थयं' (दश्रु ८।४२)।
२ अवसन्न, खिन्न (दे १११५१) । ओत्थर-उत्साह (दे १।१५०) । ओत्थरिअ--१ आक्रांत, जिस पर आक्रमण किया हो वह । २ आक्रमण करता
हुआ (दे १।१६६) । ओत्थल्लपत्थल्ला- उथल-पुथल, दोनों पावों से परिवर्तन (दे १।१२२ ब)। ओथकित--अत्यंत जुगुप्सित-धिद्धि त्ति ओथविकत-तालियस्सा'
(बृभा ४११५) । ओदंपिअ--१ आक्रांत । २ नष्ट (दे १११७१) । ओपल्ल-कुण्ठित, अपदीर्ण (ज्ञाटी प १६६)। ओपविका--क्षुद्र जंतु (अंवि पृ २२६)। ओपित-- संस्कारित, परिकर्मित (प्रटी प ७६) । ओपुप्फ-निष्फल, व्यर्थ-'जुण्णं ओपुप्फनिप्फलं' (अंवि पृ ८१)। ओपेसेज्जिक-धान्य पीस कर आजीविका चलाने वाला (अंवि पृ १६०)। ओप्प-चमक-'तूवरिया सुवण्णस्स ओप्पक रणमट्टिया' (दअचू पृ ११०)। ओप्पा--शाण आदि पर मणि आदि रत्नों का घर्षण करना (दै १।१४८) । ओप्पिअ--शाण पर घिसा हुआ (दे १।१४८ वृ) । ओप्पील-समूह (पा १८) । ओप्फिट्ट-अलग होना, पृथक् होना-'ताहे सो (गोसालो) सामिस्स मूलओ
___ ओप्फिट्टो' (आवचू १ पृ २६६) । ओब्भालण--१ सूर्प आदि से धान्य को साफ करना। २ अपूर्व
(दे १११०३ वृ)। ओभंजलिया-चतुरिन्द्रिय जीव-विशेष (प्रज्ञा ११५१) । ओभट्ठ-प्रार्थित, वांछित (ओनि १४७) । ओमंथ-नत, अधोमुख (बृभा ६६५) । ओमंथिय-नमाया हुआ, अधोमुख किया हुआ-'ओमंथियवयणनयणकमला'
(ज्ञा १११।३४)। ओमच्छग- अधोमुख (निचू २ पृ १२७) । ओमत्थ-अधोमुख (अनुद्वाचू पृ ५०)। ओमत्थग- अन्तिम-'चरिमस्स आदिसमयातो आरब्भ ओमत्थगं'
(नंदीचू पृ २५)।
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देशी शब्दकोश
७९.
ओमत्थिय-नत, अधोमुख किया हुआ (ओनि ३८६)। ओमालय-शोभित (कु पृ २२८)। ओमालिय-पूजित (कु पृ २५) । ओमोदरिता-दुभिक्ष-'ओमोदरिता दुभिक्खं' (निभा ३४२) । ओयड्ढिया-चादर, दुपट्टा (उसुटी प ४५) । ओयड्ढी--दुपट्टा, चादर-'घेत्तुं ओयड्ढीए छूढो' (उसुटी प ४५) । ओयम-गोत्र-विशेष (अंवि पृ १५०) । ओयल्ल-मृत (आवटि प ३८) । ओयविय-१ परिमित, संस्कारित-'ओयविय-खोमियदुगुल्लपट्टपडिच्छन्ने'
(दश्रु ८।२०) । २ खेदज्ञ-'ओयवियं खेदज्ञं' (ओटी प ५१)। ओयाण--अनुस्रोत में चलने वाली नौका (निभा १८३) । ओयिंघण-उपबंहण, वृद्धि (सूचू १ पृ ११५)। ओर-.-१ चारु, सुंदर (दे १११४६)। २ समीप । ओरंपिअ-१ आक्रान्त । २ नष्ट (दे ११७१) । ३ छिला हुआ
(पा ५८१)। ओरत्त---१ विदारित । २ अभिमानी। ३ कुसुभ रंग से रंगा हुआ
(दे १११६५) । ओरल्ली--दीर्घ और मधुर ध्वनि (दे १११५४) । ओराणि---आभूषण-विशेष (अंवि पृ ७१) । ओराल—१ उदार, प्रधान (स्था ४१४५१) । २ भयंकर-'ओराले त्ति भीमो
भयानक:' (ज्ञाटी प ८)। ३ विस्तृत, विशाल-ओरालं नाम वित्थरालं विसालं ति भणियं होई'। ४ मांस आदि से युक्त शरीर
--'समयपरिभाषया...' (प्रज्ञाटी प २६६)। ओरालिय--१ व्याप्त । २ उपलिप्त-'दिट्ठो रुहिरोरालियसिरो'
(उसुटी प ५)। ३ पोंछा हुआ। ४ फैलाया हुआ। ओरिल्ल-अचिरकाल का, थोड़े समय का, नया (दे १११५५)। ओरुज-वह क्रीडा जिसमें बार-बार 'नहीं-नहीं' कहा जाता है (दे १।१५६) । ओलअ-१ बाज पक्षी (दे १।१६०) । २ अपलाप (वृ)। ओलअणी-नववधू, नवोढा (दे १११६०)। ओलइणी---प्रिया, प्रिय पत्नी (दे १११६०) । ओलइय-१ संलग्न, लगा हुआ, चिपका हुआ (जीभा ५३८)। २ छिपाया
हुआ-आउहाणि ओलइयाणि' (उशाटी प ११६) । ३ शरीर से
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देशी शब्दकोश
सटा हुआ, पहना हुआ-'अंगपिणद्धम्मि ओलअं' (दे १।१६२) । ओलंडण-अवलंघन (ज्ञा १।१।१८६)। ओलंडिय-अवलंधित–'तुम मेहा ! राओ समणेहि अप्पेगइएहिं ओलंडिए
अप्पेगइएहिं पोलंडिए' (ज्ञा १।१।१५५)। ओलंभ-उपालम्भ- भगवया महावीरेणं. अप्पोलंभनिमित्तं पढमस्स
नायज्झयणस्स अयमठे पण्णत्ते' (ज्ञा १।१।२१३)।
(राज० ओलंभा) ओलगय-सेवक (दजिचू पृ २६६) । ओलग्गअ----सेवक-'कुमारोलग्गएहिं सद्धि पध्वतितो' (उशाटी प ११५) । ओलग्गग-ग्रामवासी (दश्रुचू प ६५)। ओलवणी-छत-'कडणं डंडगोवरि ओलवणी' (पंवटी प ११२) । ओलायग----बाज पक्षी-'वीरल्लो ओलायगो' (निचू २ पृ १३७) । ओलावय-बाज पक्षी (दे १११६०)। ओलावी-मादा बाजपक्षी (आवचू १ पृ ४२५) । ओलिप-खोलना-ओलिंपमाणे वि तहा तहेव काया कवाडंमि विभासियव्वा'
(पिनि ३५४)। ओलिभा-दीमक (दे १११५३)। ओलित्ती-खड्ग आदि का एक दोष (दे १११५६) । ओलिप्प-हास, हंसी-मजाक (दे १११५३)। ओलिप्पंती-खड्ग आदि का एक दोष (दे १११५६)। ओलिया-कुलपरिपाटी-'अहं ओलिया कहिज्जामि' (सूचू २ पृ ४१४) । ओली--१ फली-'ओली सिंगा' (आचू पृ ३४१) । २ कुलपरिपाटी, कुल का
आचार (दे १११४८) । ३ पंक्ति (वृ)। ओलंकी-१ बालकों की क्रीडा-विशेष, लुकाछिपी का खेल (दे १११५३) ।
२ आंखमिचौनी-'ओलुकी छन्नरमणम् । नंष्ट्वा यत्र शिशवः . क्रीडन्ति । चक्षुःस्थगनक्रीडेति केचित्' (वृ)। ओलुंपअ-तापिका-हस्त, तवे का हाथा (दे १११६३) । ओलुग्ग--१ जीर्ण, रुग्ण (ज्ञा ११२३४) । २ कृश, निर्बल
(विपा १।२।२४) । ३ सेवक । ४ निस्तेज (दे १११६४) । ओलट्ट-१ अघटमान, अनुचित । २ मिथ्या, असत्य (दे १११६४) । ओलेहड–१ दूसरे में आसक्त । २ तृष्णापर । ३ प्रवृद्ध, बूढा (दे १११७२) ।
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देशी शब्दकोश ओल्ल-१ ओला, हिमपात (जीचू पृ६) । २ पति । ३ राजपुरुष-विशेष । ओल्लणी-- इलायची, दालचीनी आदि मसालों से संस्कारित दही, श्रीखंड
(दे १११५४)। ओल्लरण-सोना, शयन (दे ११६३ वृ) । ओल्लरिअ—सुप्त (दे १११६३) । ओव-हाथी आदि को बांधने के लिए किया गया गर्त (दे १११४६) । ओवइय-तीन इन्द्रियवाला क्षुद्र जन्तु-विशेष (जीव ११८८)। ओवग-गढा-'ओवग कूडे मगरा, जइ घुटे तसे य दुहतो वि'
(बृभा २३६०) ओवग्गिअ-आक्रांत, अभिभूत (पा ५८५) । ओवट्टिअ-खुशामद, चाटुकारिता (दे १११६२) । ओवट्टी-नीवी, स्त्री के कटि-वस्त्र की नाडी (दे १११५१ पा)। ओवट----१ मेघ के पानी का सिंचन, छिड़काव (दे १११५२) । २ वृष्टि,
बारिश (से ६।२५) । ओवड-गढा, गर्त-'ओवड त्ति खड्डातीते पडेज्ज' (निचू ४ पृ ४८) । ओवड़ढी--पहनने के वस्त्र का एक भाग (दे १।१५१)। ओवयण-प्रोङ्खणक (ज्ञा १।१।६०)। ओवर--निकर, समूह (दे १।१५७) । ओवरअ--समूह (दे १।१५७ वृ)। ओवसेर-१ चन्दन । २ मैथुन-योग्य (दे १११७३) । ओवात--आचार्य-निर्देश'-'ओवातो णाम आचार्यनिर्देशः' (सूचू १ पृ२२१) । ओवातिका-. जलचर प्राणी-विशेष (अंवि पृ ६६)। ओवारि--१ धान्य भरने का कोठा । २ भीतरी कमरा (अंवि पृ १६५) ।
ओरी (राजस्थानी)। ओवारिया-..१ भीतरी अपवरक । २ धान्य भरने का कोठा
(व्यभा ७ टी प १०)। ओवास—कान का आभूषण-विशेष-वतंसक ओवास कण्णपीलक कण्णपूरक'
(अंवि पृ १८३)। ओवासण--नापित-कर्म, हजामत (आवचू १ पृ१५६) । ओविय--१ परिकर्मित (ज्ञा १११।२४) । २ सुन्दर (ज्ञा १।११६५) ।
३ प्रकाशित-'ओपितानां-उज्ज्वलितानाम्' (ज्ञाटी प २२६) ।
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४ आरोपित (जंबूटी प ४३ ; दे १।१६७ ) । ५ रुदित । ६ खुशामद । ७ मुक्त, परित्यक्त । ८ हृत, छीना हुआ
(दे १ । १६७) । & व्याप्त, खचित ( आवमटी ) १० विभूषित । ओवुलीक - प्राणी विशेष ( अवि पृ ६९ ) ।
ओव्वरग - ओरी, भीतर का कमरा (दअचू पृ ४२) । ओस – ओस, निशाजल ( भ १५ । १८६ ) ।
देशी शब्दकोश
ओसअ - ओस ( से १३।५२ ) ।
ओसक्क – अपसृत, पीछे हटा हुआ (दे १११४९) ।
ओसट्ट -- ऐसा भोजन, जिसमें फेंकना अधिक होता है ( निभा २४९४ ) | ओसण -- उद्वेग, खेद (दे १ । १५५) ।
ओसण -- त्रुटित, खंडित (दे १ । १५६ ) |
ओसणं - १ अनेक बार - 'ओसणंति- अणेगसो एक्केक्कं पावायतणं हिंसादि आयरति' (दश्रुचू प ४० ) । २ प्राय: ( जीभा १६० ) । ३ प्राचुर्य, बाहुल्य (स्थाटी प १८३ ) ।
ओसद्ध - पातित, गिराया हुआ ( पा ५६५) ।
ओसन्न – १ प्रायः - 'ओसन्न दिट्ठाह भत्तपाणे' (दचूला २।६ ) । २ खंडित, अपूर्ण - 'ओसन्नो खुतायारो सबलायारो' (दश्रुचू प ९ ) । ओसर — छोटा कमरा (अंवि पृ १३६ ) | आसरा ( राजस्थानी ) ।
ओसरिअ - - १ अधोमुख । २ आंख को संकुचित कर देखना, कानी आंख से देखना । ३ आकीर्ण, व्याप्त ( दे १।१७१) ।
ओसरिआ - अलिंदक, बाहर के दरवाजे का प्रकोष्ठ (दे १ । १६१) । ओसव्विअ - - १ शोभा-रहित । २ अवसाद (दे १।१६८) । ओसा - १ ओस, निशाजल ( आव ४ । ४) । २ हिम (दे १ । १६४) ।
ओसाअ - प्रहार की पीड़ा (दे १ । १५२ ) ।
ओसाणिहाण - विधि पूर्वक अनुष्ठित (दे १।१६३) ।
ओसायंत - १ जंभाई खाता हुआ आलसी । २ दुःख करता हुआ । ३ वेदना - युक्त (दे १।१७० ) ।
असार – गो-वाट, गो-बाड़ा ( दे ९ | १४६ ) ।
ओसिअ - १ बलरहित ( दे १ । १५० ) । २ अपूर्व ।
ओसिंघिअघ्रात, सूंघा हुआ (दे १।१६२ ) - ओसिंघिशब्दोऽपि देश्य एव ' ( वृ) ।
ओसिक्खिअ - १ गमन में व्याघात । २ अरति निहित (दे १।१७३) ।
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देशी शब्दकोश
ओसित्त - - उपलिप्त ( दे १।१५८ ) ।
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ओसीअ - अधोमुख, अवनत (दे १ १५८ ) । ओसीस - अपवृत्त, दुश्चरित्र (दे १।१५२ ) । ओसुंखिअ - उत्प्रेक्षित, कल्पित ( दे १।१६१) ।
ओसुद्ध - १ नीचे गिरा हुआ, विनिपतित (दे १।१५७) । २ विनाशित (से १३।२२) ।
ओस्स – ओस, निशाजल ( नि १३।८ ) ।
ओहंक -हास, हास्य (दे १।१५३) । ओहंजलिया - चतुरिन्द्रिय जीव की जाति विशेष ( जीवटी प ३२ ) । ओहंस - - १ चंदन । २ चंदन घिसने का शिलापट्ट (दे १।१६८ ) । ओहट्ट - १ घूंघट | २ कटि-वस्त्र । ३ अपसृत (दे १।१६६) । ओहट्टि ----दूसरे को धक्का देकर छीन लेना (दे १।१५९ ) । ओह - १ प्रार्थित, वांछित - 'ओभट्टमणोभट्ठे लब्भइ जं जत्थ पाउग्गं' (ओटी प ६७ ) । २ हास्य (दे १११५३) ।
ओहडणी -- अर्गला (दे १।१६०) ।
ओहत्त---अवनत (दे १ । १५६) ।
ओहरण - १ विनाशन, हिंसा । २ असंभव अर्थ की संभावना (दे १ । १७४) ।
३ अस्त्र । ४ आघात ।
ओहरिय - १ प्रहत - खुरधारे असी बंधंसि ओहरिए' (ज्ञा १।१४।७७)। २ उत्तारित, उतारा हुआ - "ओहरियभारोव्व भारवहे'
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( उ २१।१३) । ३ प्रक्षिप्त, फेंका हुआ (से १३।३) । ४ नीचे गिराया हुआ (से ३।३७) ।
ओहरिस - १ घ्रात, सूंघा हुआ । २ चन्दन घिसने की शिला, चन्द्रौटा (दे १। १६९) ।
ओहसिअ --- १ वस्त्र । २ कम्पित ( दे १ । १७३)।
ओहाइअ ---अधोमुख (दे १ । १५८) ।
ओहाडण - - १ प्रायश्चित्त का एक प्रकार । २ पिधानक ( निचू ४ पृ ४२८)। ओहाडणी - पिधानक, ढकनी ( जीव ३ । २६४ ; दे १।१६१) । ओहाडिअ - -- ढका हुआ - 'ओहाडियचिलिमिलियागंसि' (बृ १1१४) । ओहामिअ- १ तिरस्कृत (ओनि ६० ) । २ तोला हुआ ( पा ५३९ ) । ३ स्थगित । ४ अभिभूत ।
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देशी शब्दकोश
ओहार - १ जलजंतु-विशेष, मत्स्य ( प्र३।७ ) । २ कछुआ । ३ नदी आदि का अन्तर द्वीप, मध्यद्वीप । ४ अंश, विभाग ( दे१ । १६७) । ओहावण - अपभ्राजन, तिरस्कार ( उशाटी प १६२ ) । ओहिजलिया - चतुरिन्द्रिय जंतु - विशेष ( उ ३६।१४८ ॥ ओहिज्जत - अतीत, अतिक्रांत, क्षीण (अंवि पृ ८ १ ) । ओहित्य - १ विषाद । २ वेग । ३ विचारित ( दे ओहीरमाणी-नींद लेती हुई ( ज्ञा १।१।१८ ) । ओहोरिअ - १ उद्गीत ( दे १।१६३ ) । २ अवसन्न, खिन्न - 'ओहीरिअं उद्गीतम् । अवसन्नमित्यन्ये' ( वृ ) ।
१ । १६८ ) |
ओहुअ-अभिभूत (दे १।१५८ ) | ओहुड - विफल ( दे १ । १५७ ) ।
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ओहुपंत - जिस पर आक्रमण किया जाता हो, वह ( से ३|१८ ) । ओहर - १ खिन्न ( दे१ । १५७) । २ अवनत । ३ स्रस्त, खिसका हुआ - 'ओहुरं खिन्नम् । 'ओहुरं अवनतं स्रस्तं चेत्यवन्तिसुन्दरी' (वृ ) |
कइअंक —– निकर, समूह (दे २।१३) । कइअंकसइ — निकर, समूह (दे २।१३) । कइउल्ल – थोड़ा, अल्प (दे २।२१) । कइक कोई (अंवि पृ २५१) ।
कइतविय - कृत्रिम ( सूनि ५९ ) ।
कइलबइल्ल — स्वच्छन्दचारी वृषभ, चिन्हित सांड (दे २।२५ ) - 'कइलबइल्लोव्व तुमं घरा घरं किं भमेसि णिल्लज्ज ! ' ( वृ ) |
कइल्लिय—कृत - 'अणुकंपा कइल्लिया होहित्ति' (उशाटी प ८६ ) | कइवाह - तत्काल, शीघ्र - 'सव्वं ते पज्जत्तं नणु कइवाहं पडिच्छामि' ( ति ६५६ ) ।
कविया - पात्र विशेष, पीकदान (ज्ञाटी प ४७ ) । कउअ - १ प्रधान । २ चिह्न (दे २१५६ ) । कउल – १ करीष, कंडा । २ कंडे का चूरा (दे २|७ ) ।
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देशी शब्दकोश
कउह-नित्य (दे २१५)। कंकड़य-चना आदि धान्य जो अग्नि से नहीं पकता, कोरडू-'चणयादीण
उवक्खडियाण जे ण सिझंति ते कंकडया' (निचू ३ पृ ४८४) ।
देखें-उवक्खडाम कंकण-चतुरिन्द्रिय जंतु-विशेष (उ ३६।१४७) । कंकदुय-कोरडू धान, वह धान जो पकाए जाने पर भी नहीं पकता
(कु पृ २१०) । कंकिल्लि-अशोक वृक्ष (प्रसा ४४०)। कंकेल्लि -अशोक वृक्ष (औपटी पृ १७; दे २।१२) । कंकोड---१ वनस्पति-विशेष, ककरैल की सब्जी (दे २१७) । २ सांप की एक
जाति । कंग-१ धान्य-विशेष-'बृहच्छिरा कंगू' (निचू २ पृ १०६) । २ पीत तण्डुल
(प्रसा ६६६)। कंगुलिया-मलमूत्र-'कंगुलिकां-लध्वीं महतीं च नीति विधत्ते'
(प्रसा ४३३)। कंचणिका-भाजन-विशेष (अंवि पृ ७२) । कंचणिया-रुद्राक्ष की माला (भ २।३१) । कंचिक्क–नपुंसक-'भेसेति कतो इधेस कंचिक्को' (बृभा ५१८३) । कंची-मुसल के मुख पर रहने वाला लोह-वलय (दे २।१)। कंजुसिणोदेहि-कांजिका-'कंजुसिणोदेहि त्ति इह च लाटदेशेऽवश्रावणं
काजिक भण्यते' (बृटी पृ ८७१)। कंटउच्चि-कण्टकप्रोत, कांटों से बींधा हुआ (दे २।१७) । कंटक-बिच्छु की विष-प्रधान पूंछ-'वृश्चिकस्य महाविषलांगूलं कण्टक
- उच्यते' (व्यभा ६ टी प ५७) । कंटाली-वनस्पति-विशेष, कण्टकारिका (दे २।४)। कंटासक-फल-विशेष, पनस (?) (अंवि पृ ६४)। कंटिका-करधनी-'जंबूका मेखल त्ति वा कंटिक त्ति व जो बूया'
(अंवि पृ ७१)। कंटल्ल-ककरैल, एक प्रकार की सब्जी जो वर्षा में ही होती है (पा ३८२)। कंटेण-पशु-विशेष (अंवि पृ ६२) । कंटोल-ककरैल वनस्पति की सब्जी (दे २१७) । कंठ-१ सूकर, सूअर । २ मर्यादा, सीमा (दे २।५१) ।
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देशी शब्दकोश
कंठकप्पड-कंधे पर रखी जाने वाली चादर-णिबद्धं च णेण कंठकप्पडे तं
पुट्टलयं' (कु पृ १०५)। कंठकंची-१ वस्त्र आदि के अन्त में लगाई गई गांठ। २ कंठ के ऊपर
उभरी नाडिग्रन्थि 'रसोली' (दे २।१८) । कंठदीणार-बाड़ का छिद्र (दे २।२४)-'आवंति कंठदीणारएण कुडिय
भमिरा भुयंग त्ति (वृ)।। कंठमल्ल-१ शव को वहन करने का साधन (दे २।२०)। २ यानपात्र,
वाहन (वृ)। कंठमुखी-आभूषण-विशेष (भ ६।१६०)। कंठाकंठि-गले मिलना-'अब्भुठेत्ता कंठाकंठिं अवयासेइ' (ज्ञा ११२।६६) । कंठाकंठिय-गले मिलना (ज्ञा १।२।६०) । कंठाल-मोटे कंठ वाला (कु पृ १३५) । कंठिअ-द्वारपाल, दौवारिक (दे २०१५) । कंड-१ दुर्बल । २ विपन्न । ३ फेन (दे २१५१)। कंडपडवा-यवनिका, परदा (दे २।२५) । कंडरा-~-शरीर का एक अवयव (अंवि पृ ११६)। कंडरिय-अनंतकाय वनस्पति-विशेष (भ २३।१)। कंडु-पात्र-विशेष (सूचू १ पृ १२४)। कंडर-बगुला (दे २१६)। कंडसग-रजोहरण का बंधन-विशेष (नि ५१७०)-'कंडूसगबंधो णाम जाहे
रयहरणं तिभागपएसे खोमिएण उण्णिएण वा चीरेणं वेढियं भवति'
(निचू २ पृ ३६७) । कंडसी-गोत्र-विशेष (अंवि पृ १५०) । कंतार-मार्ग-'कंतारं नाम अध्वानं' (निचू १ पृ १६४) । कंतु-कन्दर्प, कामदेव (दे २।१)। कंथा–टुकड़ा, अंश-कण्हेण भेरी जोयाविया जाव कंथा कया'
(बृभा ३५६)। कंद--१ दृढ । २ उन्मत्त । ३ आच्छादन (दे २१५१)। कंदल-१ प्रत्यग्र लता (ज्ञा १।६।२०) २ कपाल (दे २।४) । ३ पुष्प-विशेष
(अंवि पृ ६३)।। कंदी-मूला, कन्द-विशेष (दे २।१) ।
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देशी शब्दकोश
कंदुग्घुसिय-- नील कमल ( ? ) ( कु पृ ३५) । कंदुट्ट - नील कमल (पा ५७) ।
कंदोट्ट - नील कमल (दे २1१ ) 1
कंपड - पथिक (दे २।७ ) ।
कंबर - विज्ञान, प्रज्ञा, कलाकौशल ( दे २।१३) । कंबलिक - धान्य- विशेष (अंवि पृ २२० ) । कंबिया - पुस्तक का आवरण पृष्ठ ( जीव ३।४३५ ) |
कंसार -- कसार, एक प्रकार की मिठाई ( बूटी पृ ४०३) । कंसारिआ - त्रीन्द्रिय जंतु - विशेष (बूटी पृ ८०० ) । कंसारिका --- कसारी, त्रीन्दिय जंतु- विशेष (बृटी पृ ६६७ ) । कंसारी - त्रीन्द्रिय जंतु - विशेष ( जीत १८ ) ।
कंसाल - वाद्य विशेष (भटी पृ८८३)
ककाण -- गरदन - 'आरुस्स विज्यंति ककाणओ से' ( सू २२५४२) ।
ककितजाण - गोत्र - विशेष (अंवि पृ १५० ) । ककी - पक्षी - विशेष (अंवि पृ २३९ ) ।
ककुलुंडि – पात्र विशेष ( अंवि पृ २१४ ) ।
ककुह- १ राजचिन्ह - 'अवहट्टु रायककुहाई' ( प्रसाटी प १३ ) । २ प्रधान (ज्ञाटी प २४० ) ।
कक्ककुरुय - माया ( प्रसा ११५ ) | कक्कडग - तर्कशास्त्रगत हेतु का उभयहा वि दोसो भवति कक्कड - वायु- विशेष जो पेट में समुच्छ्इ जेणं' (भ १०३९) ।
एक प्रकार - ' कक्कडगहेऊ जत्थ भणिते ( निचू ३ पृ ३५० ) ।
कक्कडी - ककडी ( बृभा १०५१) । कक्कडीय- मत्स्य विशेष (अंवि पृ १८३ ) |
उत्पन्न होती है - 'कक्कड़ए नामं वाए
कक्कब - - इक्षुरस का त्रिकार, गुड की पूर्व अवस्था ( पिनि २८३) । कक्कय - गुड़ की पूर्व अवस्था - " - गिल्लसन्निही - गुलकक्कयघयतेल्लाई' (जीचू पृ १४) ।
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कक्कर – मधुर - 'कक्करं नाम महुरं' ( उचू पृ १६० ) । कक्करपिंडग - खाद्य पदार्थ - विशेष (अंवि पृ २४६ ) । कक्करी – घट - विशेष ( जंबूटी प १०० ) ।
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कक्कस - दध्योदन, करंबा ( दे २।१४ ) |
कक्कसार — दध्योदन, करम्बा ( दे २०१४ ) - ( मयकरिअं लहसि कक्कसारं "
(वृ) ।
कक्कास - पर्व वनस्पति, बांस का एक प्रकार (भ २१।१७ ) ।
देशी शब्दकोश
कक्कड - कृकलास, गिरगिट ( दे २१५) ।
कक्कुस -तुष- 'तुस त्ति कोंटको वत्ति कक्कुसो तप्पणी त्ति वा ' (अंवि पृ १०६ ) ।
कक्खड - पीन, पुष्ट (दे २।११) ।
कक्खडंगी - सखी, सहेली (दे २।१६ ) ।
कक्खल – कठोर, कर्कश - 'कक्खलफासाहिं कमणीहि ' ( निभा ६२६ ) 1 कक्खारुग – फल- विशेष (अंवि पृ ६४) ।
कग्घाड – १ अपामार्ग, चिरचिरा, लटजीरा । २ किलाटी, मावा (दे २।५३) ।
-
कग्घायल - किलाटी, दूध का विकार (दे २।२२) । कचक्खी - गोत्र - विशेष (अंवि पृ १५० ) ।
कच्च - कार्य (दे २।२) ।
कच्चग - पात्र - विशेष (व्यभा ८ टी प २२) ।
कच्चाल - प्रवृत्ति या व्यापार का स्थान, कार्यालय (दे २१५२ पा ) ।
कच्चोल -- कलश, पात्र - विशेष (उसुटी प २८० ) ।
कच्छ - गुठली का एक अवयव जो तुष रहित हो (आचू पृ ३४० ) । कच्छभाणिया - साधारण वनस्पति- विशेष ( सू २।३।४३ ) | कच्छभाणी - जलीय वनस्पति- विशेष (प्रज्ञा १२४६ ) |
कच्छभी- -तापस का उपकरण- विशेष - ' हत्थ कय कच्छभीए - कच्छपिका तदुप - करणविशेषः' (ज्ञाटी प २२७ ) ।
कच्छर – पंक, कीचड़ (दे २२) |
कच्छवी - पुस्तक का एक प्रकार जिसके दोनों किनारे छोटे तथा मध्यभाग मोटा हो - 'कच्छवि अंते तणुओ मज्झे पिहुलो मुणेयव्वो' ( प्रसा ६६५) ।
कच्छा— कच्छा, लाट देश में पहना जाने वाला स्त्रियों का परिधान विशेष'लाडाणं कच्छा सा मरहट्ठयाणं भोयडा भण्णति' (निचू १ पृ ५२ ) । कच्छुरिअ - ईर्षित, जिसकी ईर्ष्या की गई हो वह (दे २।१६) | कच्छुरी - कपिकच्छू, केंवाच (प्रज्ञा १|३७|१; दे २।११) ।
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देशी शब्दकोश
२६ कच्छल्ल–१ गुल्म-विशेष (प्रज्ञा ११३८।२)। २ खाज रोग से ग्रस्त-'तत्थं
णं पास इ एगं पुरिसं-कच्छुल्लं कोढियं दाओयरियं'
(विपा २७७)। कच्छोटक-लंगोटी धारण करने वाला (भटी प ५०)। कच्छोट्टग-कच्छा, लंगोटी (आवहाटी १ पृ २७६) । कज्ज-कचरा (ओटी प १६२) । कज्जउड-अनर्थ (दे २११७) । कज्जत्थ-कूड़ा-करकट डालने का स्थान, अकुरड़ी-कज्जत्थोकुरटिकास्थानम्'
(ओटी प १६२)। कज्जलमाणी-डूबती हुई (नि १८।१६) । कज्जलावेमाणा-डूबती हुई–'णावं कज्जलावेमाणं पेहाए'
(आचूला ३।२२)। कज्जव–१ तृण आदि का समूह (दे २।११) । २ विष्ठा (वृ)। कज्जवय-कूड़ा-कचरा (अनुद्वा ३४६) । कज्जरी-खजूर का वृक्ष (अंवि पृ ७०) । कज्जोव-उल्का (अंवि पृ २४५) । कज्झाल–सेवाल, एक प्रकार की घास जो जलाशयों में होती है (दे २१८)। कटार–छुरी (प्रा ४/४४५) । कद्र-१ खंड, टुकड़ा (अनुटी प ५) । २ काट, जंग (व्यभा ५ टी प ६) । कटर-१ खंड, अंश-चित्तकट्टरे इ वा' (अनु ३।४०) । २ कढी' में डाला
हुआ घी का बड़ा-'तीमनोन्मिश्रघृतवटिकारूपस्य देशविशेषप्रसिद्धस्य'
(पिटी प १७२)। कट्टरिगा-शस्त्र-विशेष, छुरी (निचू २ पृ ५६) । कट्टारिया–कटार, छुरी (निचू २ पृ ५६) । कट्टारी-क्षुरिका, छुरी (दे २।४) । कट्टित-कटा हुआ (अंवि पृ २५५) । कट्ठ-आभूषण-विशेष, एक प्रकार का हार (अंवि पृ ६५) । कठैसालुक-कंठ का रोग-विशेष (अंवि पृ २०३) । कट्टकरण—खेत-'कट्ठकरणं णाम छेत्तं' (आवहाटी १ पृ १५२) । कट्खोड-आसन-विशेष-भद्दासणं पीढगं वा कट्टखोडो नहट्टिका'
(अंवि पृ १५)।
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देशी शब्दकोश
कट्टगंध-नौका खेने का बड़ा बांस (आचू पृ ३५७) । कट्ठाहार-त्रीन्द्रिय जन्तु-विशेष (प्रज्ञा १३५०)। कट्टिअ-द्वारपाल (दे २।१५) । कट्ठियव्वग-खाद्य-विशेष (निचू २ पृ २४१) । कठेवट्टक-कण्ठ का आभूषण (अंवि पृ १६३) । कट्ठोरग-कटोरा (निचू १ पृ ५१) । कड–१ क्षीण । २ मृत (दे २।५१) । कडअल्ल-द्वारपाल (दे २।१५)। कडअल्ली -कण्ठ, गला (दे २।१५) । कडइअ--स्थपति, बढ़ई (दे २।२२)। कडइल्ल-द्वारपाल (दे २।१५) । कडंत-१ मूली का शाक । २ मुसल (दे २१५६) । कडंतर-पुराना छाज आदि उपकरण (दे २।१६) । कडंतरिअ- विदारित (दे २।२०)। कडंब-करटिका, वाद्य-विशेष (राज ७७) । कडंभुअ-१ कुम्भग्रीव नामक पात्र-विशेष (दे २।२०) । २ घड़े का कण्ठ
___ भाग-'कडंभु घटस्यैव कण्ठ इति शीलाङ्कः' (वृ)। कडग--१ यवनिका, परदा (आवहाटी २ पृ १७८) 1 २ बांस की चटाई से
बना घर (व्यभा ४१४ टी प १०१)। कडच्छकी-कडछी-'दव्वी तध कवल्ली य दीविक त्ति कडच्छकी'
(अंवि पृ ७२)। 'कडच्छु-लोहे की की, डोई (दे २१७) । कडच्छुत-की (निचू २ पृ २५१)। कडच्छुय-चम्मच (ज्ञा ११८१५५) । कडजुम्म-युग्म राशि जिसमें चार शेष रहते हैं—'सर्वासां दिशां प्रत्येकं ये
प्रदेशास्ते चतुष्केनापहियमाणाश्चतुष्कावशेषा भवन्तीति कृत्वा तत्प्रदेशात्मिकाश्च दिश आगमसंज्ञया कडजुम्मत्ति शब्देनाभिधीयन्ते'
(आटी प १३)। कडणा-१ छत (भ ८।२५७) । २ ट्टिका, बाड़ (भटी पृ ६६१) । कडतला-लोहे का वह हथियार जो एक ओर से धारवाला और वक्र होता
है (दे २।१६)।
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देशी शब्दकोश
कडपल्ल - धान्यशाला - 'कडपल्ल त्ति वा तणपल्ल त्ति वा धन्नसालत्ति वा वलयत्ति वा एगट्ठा' (बृचू प १४१ ) |
कडप्प -१ निकर, समूह (बृटी पृ ५४; दे २।१३ ) । २ वस्त्र का एक भाग (वृ) ।
कडयडाविअ - कड् कड् आवाज से चबा जाना ( कु पृ ६८ ) | कडला - पैर का आभूषण (जंबूटी प १०६ ) ।
कडवय – समूह (बृटी पृ ५४ ) ।
कडवल्ल
-१ बांस की टोकरी (निचू ४ पृ १६२ ) । २ सूखे मांस से बना भोज्य- 'मंसा सुक्खाविति सुक्खस्स वा कडवल्ला कता (आचू पृ ३३५) ।
६१
कडसक्करा -- बांस की शलाका- 'बहवे लोहखीलाण य कडसक्कराण य चम्मपट्टण य' ( विपा १।६।२० ) ।
कडसी - श्मशान ( दे २।६ ) |
कडार - नालिकेर, नारियल ( दे २।१० ) ।
कडाली - घोड़े के मुख को बांधने का उपकरण विशेष ( अनु ३।५२ ) ।
कडाहक – कडाही (अंवि पृ २१४) ।
कडाहपल्हत्थिअ - दोनों पाश्र्वों को बदलना, दोनों पाश्र्वों का अपवर्तन (दे २।२५) ।
aise -- खिड़की (अंवि पृ २९ ) ।
कडिखंभ - १ कमर पर रखा हुआ हाथ (दे २।१७) । २ कमर पर किया हुआ आघात - 'डिखंभो कटीन्यस्तो हस्तः । कट्याघात इति केचित्' (वृ) ।
कडिण - तृण- विशेष ( सू २।२।४) ।
कडिल्ल - १ मांड आदि पकाने का बर्तन ( उपा २।२१) । २ तवा' तत्तकडिल्ले व जह बिंदु' (पंक १८७४) । ३ गहन
(बृभा ५५६६; दे २५२ ) । ४ कटीवस्त्र ( जीविप पृ ५३ ;
दे २१५२) । ५ द्वारपाल । ६ शत्रु । ७ आशीर्वाद । ८ जंगल ।
६ निश्छिद्र (दे २५२ ) । १० गहन- प्रदेश ( व्यभा ४। १ टी प ६० ) ।
डिल्लक -- लोहे का बड़ा पात्र ( पिटी प १५८ ) ।
कडिल्लग — अटवी, जंगल - 'सो अभिमुहेति लुद्धो संसारकडिल्लगम्मि अप्पाणं'
(पंक २३७८ ) ।
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६२
कडिल्लय — कटि वस्त्र - "अहवा रज्जसि पावे एयं पि कडिल्लयं णत्थि ' ( कु पृ ५१) ।
कल्हिक — लोहे का बड़ा पात्र ( प्रसादी प १५३ ) । कडुआल - - १ घण्टा । २ छोटी मछली (दे २।५७) । कडुइया -- वल्ली - विशेष ( प्रज्ञा १|४० ) ।
कडुच्छ--- चम्मच (भ ५३१८९ ) ।
कडुच्छय – चम्मच (भ ११।५९ ) । कडुच्छिका - कर्धी डोई (ओटी प १६९ ) । कडुच्छुग — कर्धी (जंबू १।४० ) |
-
कडुच्छुत — चम्मच - कडुच्छुते घयं ताविज्जति' ( निचू २ पृ २५१) । कडुच्छुय- - चम्मच (अनुद्वा ३६२) ।
कडुभ - कूब, पीठ का उभरा हुआ भाग ( निचू २ पृ १९१) । कडुभंड-मसाला- 'वेसणं कडुभंडं जीरयं' (निचू २ पृ २५) । कडुमाय- पशु- विशेष (अंवि पृ ६२ ) ।
कडुय -- अपराधी को दंड का निर्देश देनेवाला - 'कडुओ उ दंडकारी' (बृभा ३५७६) ।
कडुयाल- छोटी मछली ( पा ३०१) ।
कडुयालय - छोटी मछली ( कु पृ १६१) ।
देशी शब्दकोश
कडुहुंड - भोजन में प्रयुक्त सामग्री - विशेष - तत्थ भोयणे उवउज्जंति कडुहुंडाई' ( आवचू १ पृ २८० ) ।
कडकीका वृक्ष विशेष ( अंवि पृ ७० ) ।
कडेवर- -१ शरीर (भटी पृ १२६० ) । २ निश्चेतन देह, शव । ३ द्वीन्द्रिय आदि जीव (भटी पृ १३७१ ) ।
कढण - तृण- विशेष ( निचू २ पृ ४३० ) ।
कढ — गोत्र - विशेष (अंवि पृ १५० ) ।
कढिकढी - 'तक्कोल्लणसूवकंजिकक ढियाई' (पिनि ६२४; दे २०६७ ) ।
कठिण ---तृण - विशेष (आवचू २ पृ १२७ ) ।
कढिग -- तृण - विशेष ( प्र ८१० ) ।
कढिय-कढ़ी, खाद्य पदार्थ विशेष ( जीभा ३६४) ।
कणइअ - १ आर्द्र, गीला । २ किया हुआ । ३ चित्रित : ४ कण-धान्य से आकीर्ण (दे २।५७) ।
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देशी शब्दकोश
कणइल्ल-शुक, तोता (दे २।२१) । कणई-लता (दे २१५)। कणंगर-पाषाणमय लंगर (विपा श६।१७)। कणक-बाण-'नाराय-कणक-कप्पणि-वासि-परसु' (प्र ११२८)। कणकाली-अस्तर-विशेष (ज्ञाटी प १६) । कणग-१ ग्रह-विशेष-'कणगा गिम्हे सिसिरे पंच वासासु सत्त उवहणंति'
(निचू ४ पृ २४५) । २ चतुरिन्द्रिय जंतु-विशेष (जीवटी प ३२)। कणय-१ बाण (भ २।८९; दे २१५६) । २ बिल्व, बेल (उशाटी प १४२) ।
३ अवचय, फूलों का चुनना (दे २१५६)। कणयंदी-पाटला, पाढर वृक्ष (दे २।५८ वृ)। कणिआरिअ-कटाक्ष, टेढी नजर से देखना, कानी आंख से देखना
(दे २।२४)। कणिक्क---मत्स्य की एक जाति (जीवटी प ३६) । कणिक्का-समित, आटा-समिता-कणिक्का सा महुघएहि तुप्पेउं महिउं
च भगंदले छुभति ते किमिया तत्थ लग्गति' (निचू १ पृ १००)। कणिस-शस्य का तीक्ष्ण अग्रभाग (उपाटी पृ ६६; दे २।६) । कणिसवाया-धान्य का अग्रभाग (कु पृ १५३) । कणी-फडकना, धड़कना (पा ९८५) । कणुय-१ त्वक् का अवयव-विशेष । २ गुठली का तुषरहित अवयव
___ (आचू पृ ३४०)। कणेरु–हथिनी (अंवि पृ ६६)। कणोडिआ-गुंजा, घुङ्गची (दे २।२१)। कणोवअ-गरम किया हुआ जल, घृत, तैल आदि (दे २११६) । कण्ण-१ गोल आकृति-'जहानामए कण्णावली य गोलावली य वट्टावली य' ' (अनु ३।३६) । कण्णे-गोला, गोलाकृति (कन्नड़)। २ कोण
(निचू १ पृ६६)। कण्णंबाल-कान का आभूषण, कुण्डल आदि (दे २।२३)। कण्णच्छुरी-गृहगोधा, छिपकली (दे २।१६) । कण्णत्तिय-खेचर पंचेन्द्रिय प्राणी-विशेष (जीवटी प ४१)। कण्णरोडय-कानों को बहरा करने वाला (शब्द)-'सो तीसे कण्णरोडयं
__ असहतो भणति' (आवहाटी १ पृ ६०) ।
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देशी शब्दकोश
कण्णविवोड-कान खींचना (बूटी पृ १५२३)। कण्णस्सरिअ-कानी नजर से देखना, कटाक्ष (दे २।२४) । कण्णाआस-कान का आभूषण, कुण्डल आदि (दे २।२३)। कण्णाइंधण-कान का आभूषण, कुंडल आदि (दे २।२३) । कण्णाउडय-कान मरोडना-'कुंभकारेण तस्स खुड्डगस्स कण्णाउडओ दिण्णो'
(आवचू १ पृ ६१४)। कण्णाकण्णि-आकंठ-'कण्णाकण्णि भरिते' (निचू ४ पृ १५६) । कण्णास-पर्यन्त, अन्त भाग (दे २।१४)। कण्णासय–पर्यन्त-रच्छाकण्णासयम्मि ठूण' (दे २।१४ वृ)। कण्णाहड-कर्णाकणिकया- अम्हं आयरियाणं सुतीए कण्णाहडं च सोउं जे'
(ति ७०७)। कण्णाहाडिय-कानों से गुपचुप सुनकर जान लेना-'तेण तेसिं पासओ
विज्जा कण्णाहाडिया' (आवहाटी १ पृ २७४) । कण्णाहेडित-कान लगाकर सुनना-'गुरुसमीवातो तेणागतं, ण कण्णाहेडितं'
(अनुद्वाचू पृ८)। कण्णिवल्लि-वनस्पति-विशेष (अंवि पृ ५)। कण्ण-मकान का अग्रभाग आदि (?)-तत्थ जूयं खेल्लिमो, खत्तं खणिमो
_ कण्णुं तोडिमो, पंथं मूसिमो' (कु पृ ५७) । कण्णोच्छडिया-१ दत्तकर्णा, ध्यानपूर्वक सुनने वाली स्त्री। २ प्रत्युत्तर
करने के लिए दूसरे की बात को पकड़ने वाली (दे २।२२)। कण्णोड्डिया-नीरंगिका, घुघट, आवरण (दे २।२०)। कण्णोड्डी-- घट, नीरंगिका-'मुंच कण्णोड्ढि' (दे २।२० वृ)। कण्णोढत्ती-१ दत्तकर्णा, ध्यानपूर्वक सुनने वाली स्त्री। २ प्रत्युत्तर करने
के लिए दूसरे की बात को पकड़ने वाली (दे २।२२)। कण्णोल्ली -१ चोंच । २ अवतंस, कलंगी (दे २१५७) । कण्णोस्सरिअ-१ कानी नजर से देखना, कटाक्ष, टेढ़ी नजर से देखना
(दे २।२४) । २ टेढ़ी नजर से देखा हुआ (व)। कण्ह--१ वल्ली-विशेष, जटामासी (प्रज्ञा ११४०)। २ हरित वनस्पति
विशेष, कृष्ण तुलसी (प्रज्ञा १४४) । कण्हगुलिका-बिलाशयी जंतु-विशेष-'तत्थ बिलासयेसु कण्हगुलिका
सेतगुलिका खुल्लिका' (अंवि पृ २२६) ।
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देशी शब्दकोश
कण्हाकडभु-वनस्पति-विशेष (भ २३३१) । कण्हाल-काली मिट्टी की भूमी-जहा कण्हाले जं पाणियं पडति तं
कतोवि ओलुटति' (आवचू १ पृ १२१)। कण्हुइ-१ कुतश्चित्, कहीं भी (उ ११७) । २ किंचित् (दश्रुचू प ६१) । कण्हेरी-मादा पशु-विशेष (अंवि पृ ६६) । कतवार-तृण आदि का समूह (दे २।११) । कत्ता-अन्धिका द्यूत की कपर्दिका, कौड़ी (दे २॥१)। कत्तोइ--कहीं (विपाटी प ८३)। कत्थइ-क्वचित् (प्रा २।१७४) । कत्थभाणी-जलीय वनस्पति-विशेष (प्रज्ञाटी प ३४) । कत्थलायण--गोत्र-विशेष (अंवि पृ १५०)। कत्थल-गुल्म-विशेष (जीव ३१५८०)। कदुक्का-नालिकाक्रीड़ा (सूचू १ पृ १७९) । कमिअ-महिष, भैंसा (दे २।१५) । कदुइय--वल्ली-विशेष (प्रज्ञा ११४०।२)। कनंगर-पाषाणमय लंगर (विपाटी प ७१) । कन्न 'लइअ'-कानों में पहिना हुआ, कानों में पिनद्ध (पिनि ५६१)। कन्नामोडि--कान मरोड़ना, कान खींचना (बुचू प २०६)। कन्नारोडग-कानों को बहरा करने वाला (शब्द) (आव १ पृ ११०) । कन्नारोडय-कानों के लिए अवरोधक, रोड़ा (बृटी पृ ५३) । कन्नोली-कान का आभूषण (पा ८४) । कपिह-दुष्ट घोड़ा (उचू पृ३०)। कप्पट---१ बच्चा (व्यभा ७ टी प ४०) । २ ईश्वर-पुत्र, धनिक-पुत्र
(व्यभा ४।२ टी प ३७)। कप्पटुंग-बच्चा (निभा ३८०)। कप्पट्ठिया-श्रेष्ठिवधू । २ कुलपुत्री (स्थाटी २५३) । कप्पट्री-१ तरुण स्त्री (वृभा १८४२) । २ बालिका
(व्यभा ४।४ टी प १२)। ३ कुलवधू (व्यभा ४।३ टी प ५२) । कप्पड-कपड़ा, वस्त्र (प्रसा ४३४) । कप्पणिय-जाति-विशेष-'मुरुंडोडगोडकप्पणिया' (कु पृ ४०)। कप्पयारी-दासी-'दासीओ कप्पयारीउ त्ति' (सूचू १ पृ २०१) ।
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देशी शब्दकोश
कप्परिअ-विदारित, फाड़ा हुआ (दे २।२०) । कंप्पांग-डंडा, शस्त्र-विशेष-'सो य मणिप्पहं कप्पागं मग्गइ'
(आवहाटी २ पृ १४०)। कप्पासट्टिमिज-त्रीन्द्रिय जंतु-विशेष (उ ३६।१३८) । कप्पासट्ठिसमिजिय-त्रीन्द्रिय जन्तु-विशेष (प्रज्ञा ११५०) । कप्फाड-कंदरा, गुफा (पा ९६८)। कफाड-गुफा, गुहा (दे २१७) । कब्बट्ठ-बालक-'कल्पस्थः समयपरिभाषया बालक उच्यते' (बृभा ८६५ टी)। कब्बट्री-१ तरुण स्त्री (बृभा १८४२) । २ छोटी लड़की-'इह समय
परिभाषया कब्बट्ठी लघ्वी दारिका भण्यते' (पिटी प ६१)। कब्बाल--ठेके पर भूमि खोदने वाला-'चत्तारि भयगा पण्णत्ता, तं जहा
दिवसभतएकब्बालभयए' (स्था ४।१४७)। कभल्ल-१ मिट्टी का पात्र-विशेष, खप्पर-भज्ज णयकभत्लेइ वा'
(अनु ३।३७) । २ खोल, कपाल-'यथा कच्छभो....... अंगाणि
कभल्ले संहरति' (दअचू पृ १६५) । कभेइका--कृमि-जाति (अंवि पृ ७०)। कम-मार्ग-'भणंति आयरिया-वेण्णे ! कम देहि त्ति' (निचू ३ पृ ४२५) । कमढ--१ मेल-'जल्लो तु होति कमढं' (निभा १५२२), 'खरंटो उ जो
मलो तं कमढं भण्णति' (निचू २ पृ २२१)। २ साध्वियों का पात्रविशेष (पंव ७६०)। ३ दही की कलशी। ४ बलदेव । ५ मुख, मुंह । ६ पिठर, स्थाली (दे २।५५) । ७ कच्छप
(व्यभा ३ टी प ६२)। कमढग—पात्र-विशेष (व्य २।२६) । कमढय-पात्र-विशेष- लेपिततुम्बकभाजनरूपं कांस्यमयबृहत्तरकरोटिका
कारमेकैकं संयतीनां निजोदरप्रमाणेन विज्ञेयम्'
(प्रसाटी प १२५)। कमढित--धूणित, निमग्न-'निहाकर्माढतो जोण्हं मण्णमाणो दिवा'
(निचू ३ पृ २६७) । कमणिल्ल-जूते पहने हुए (निभा ६२५) । कमणी-निःश्रेणी, सीढी (दे २।८)। कमल-१ हरिण, मृग (अनुद्वहााटी पृ १६; दे २।५४) । २ पिठर,
स्थाली। ३ पटह, ढोल । ४ मुख, मुंह (दे २।५४)। ५ झगड़ा ।
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देशी शब्दकोश
कमिअ-- उपसर्पित, पास आया हुआ (दे २/३ ) |
कमेड — छिपकली, गिलहरी ( ? ) - एमेव अडति बोडो लुक्क णिलुक्को जह कमेडी' (जीभा १२३७) ।
कम्मण -- कंकड आदि (अंवि पृ ५) ।
कहिअ - माली, मालाकार (दे २८ ) |
कयंत - भाग्य ( प्र ३ । २४) । कयग - कैतव, माया ( निभा २१७४) ।
कयल — अलिंजर, पानी भरने का बड़ा घड़ा (दे २१४) ।
कयवर -- कचरा (आ ११८५) ।
कयार- . १ कचरा ( विभा १९६७; दे २।११) । २ धूल - ' कयारो त्ति व जो बूया........धूली रयो त्ति रेणु त्ति' (अंवि पृ १०६ ) ।
-- उत्तम जाति का अश्व ( कु पृ २३) ।
कयाहकरइल्ली -- शुष्क वृक्ष, सूखा पेड़ ( दे २।१७ )
करंक - १ बड़ा बर्तन ( सूचू १ पृ ११९ ) । २ भिक्षापात्र । ३ अशोक वृक्ष
(दे २।५५) ।
करंज
--
१ एक अस्थि वाला वृक्ष - विशेष (प्रज्ञा १।३५) । २ सुखी छाल (दे २८ ) |
६७
करंड - पीठ के पास की हड्डी - 'अणगारस्स पिट्ठिकरंडयाणं अयमेयारूवे तवरूवलावणे होत्था ' ( अनु ३ | ३९ ) ।
करंडक - पीठ के पास की हड्डी (प्रटी प ८४) । करंडुय - पीठ के पास की हड्डी (जंबू २।४७) ।
करक - शव - 'उक्खित्तं तं करकं' (कु पृ २२५) ।
करकर - १ तृण - विशेष ( प्रज्ञा १।४२ ) । २ अत्यंत व्यक्त (शब्द) ( आवहाटी १ पृ १६५ ) ।
करकराण - करकर शब्द करना ( व्यभा ४ | ३ टीप १९ ) ।
- करकी - भाजन - विशेष (अंवि पृ ७२ ) ।
करगिल्ल - पात्र ( आवमटी प ३९७ ) 1
करघायल - दूध का विकार, मावा ( दे २।२२) ।
करच्छोडिया - ताली बजाना - दिन्ना य करच्छोडिया' (उसुटी प २८ ) ।
करटिका - वाद्य विशेष ( नंदीटि पृ 2 ) 1
करड -१ श्राद्ध - विशेष - ' सिवढोढसिवाइ करडं वा' (निभा ३४८३) । २ व्याघ्र | २ चितकबरा (दे २२५५ ) |
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हद
करडयभत्त- मृतभोज, श्राद्ध - विशेष (आचू पृ ३३५) । करडा - चिड़िया (दे २।५५ वृ) |
करडाक — धूम्रपान का साधन ( अंवि पृ २५४) । करडि -- वाद्य विशेष ( जंबूटी प १०० )
करडुयभत्त- मृतभोज (पिनि ४६४ ) ।
करणि- १ शपथ, सौगंध - अण्णहा तेहि भणितो-मज्जे णिज्जीवे को दोसो ? तेहि यसो भहि कणि गाहितो लज्जमाणो एगंते परेण आणियं पियति' (निचू ३ पृ ५२१ ) । २ क्रिया, कर्म
( आवचू २ पृ २८१ ) । ३ सादृश्य, समानता - ' तेण चाणक्कभज्जा अलग्गिता, ताहे सो करणि गाहितो...' (आवहाटी २ पृ २१८ ) । ४ रूप, आकार (दे २७) । ५ अनुकरण ६ स्वीकार ।
करणी - आकार, रूप (पा ७८६ ) ।
करदुय --- मृत्यु के उपलक्ष में किया जाने वाला भोज - मरणेत्ति करदुयादीणि कारवेइ वा' (आचू पृ १६) ।
करधाण - वाद्य - विशेष ( आवचू १ पृ १८७ ) ।
करम - क्षीण, दुर्बल (दे २१६ ) |
करमंद - १ वृक्ष - विशेष (अंवि पृ २३१ ) । २ फल- विशेष (अंवि पृ ६४) ।
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करमद्द – गुच्छवनस्पति, करौंदा ( प्रज्ञा १|३७|४) ।
करमरिअ - बलात् अपहृत स्त्री ( पा २१२) । करमरी – अपहृत स्त्री (दे २।१५) ।
करवंदी - मल्लिका, मोगरा (दे २0१८ ) |
करयडी - स्थूल वस्त्र, मोटा कपड़ा ( दे २।१६ वृ) |
करयरी - स्थूल वस्त्र, मोटा कपड़ा (दे २ । १६) ।
देशी शब्दकोश
करल - भोजन से संबंधित रोग - विशेष - 'सव्वाहारगते खंडोट्टं वा गुरुलं वा करलं वा बूया' (अंवि पृ २०३ ) ।
करह – धनुष का वह भाग जहां प्रत्यंचा आरोपित होती है।
( पिटी प २० ) ।
कराइणी - शाल्मली वृक्ष, सेमल का पेड़ (दे २1१८ ) | कराटिया - मिट्टी का बर्तन (ज्ञाटी प ११७) । करायणी -- शाल्मली वृक्ष (दे २११८ वृ) । कराली - दतवन, दतौन (दे २।१२ ) ।
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देशी शब्दकोश
करिआ-मदिरा परोसने का पात्र (दे २।१४) । करिण्हुका-उद्भिज्ज जंतु-विशेष (अंवि पृ २२६)। करिमअर-जलहस्ती (से ५।५७) । करिलेग-करील वृक्ष, करील (अंवि पृ २३८) । करिल्ल --१ वंशांकुर, बांस का कोपड़ (दे २।१०) । २ अंकुर
(अनु ३।३५)। ३ करैला (विभा २६३)। ४ करील वृक्ष ।
५ वंशांकुर के समान । करुल्ल-कपाल, खप्पर, फूटे घड़े का टुकड़ा-गोवालाणं जेणं जं करुल्लं
__ आसाइयं सो तत्थ पजिमिओ' (आवहाटी १ पृ १३४) । करेड्डु----कृकलास, गिरगिट (दे २।५)। करेडुयभत्त-मृतभोज-'वणियकुले मयकिच्चं करेडुयभत्तं'
(निचू ३ पृ ४१८) । करोड–१ कटोरा (निभा ३२८३) । २ नारियल । ३ कौआ । ४ बैल
(दे २१५४) । करोडक-कटोरा (अंवि पृ ६५) । करोडय--पात्र-विशेष (सूचू १ पृ ११८) । करोडि-परोसने का एक उपकरण (जीवटी प १४६) । करोडिया-मिट्टी का पात्र (भ २।३१) । करोडी-१ एक प्रकार की चींटी (दे २।३)। २ शव। ३ भाजन-विशेष,
कटोरी (अंवि पृ ७२)। कलअ-१ फली (आचू पृ ३४१) । २ अर्जुन वृक्ष । ३ स्वर्णकार
(दे २१५४) कलंक-१ बांस की बनाई हुई जालीदार बाड़ (ज्ञा २।१।१६)। २ बांस
(दे २१८)। कलंकल-अनिष्ट, अशुभ-'कम्मकलंकलवल्लि छिदइ संथारमारूढो'
(महा १३०) । कलंकवई-वृति, बाड़ (दे २।२४) । कलंबचीरपत्त-एक प्रकार का शस्त्र-खुरपत्ताण य कलंबचीरपत्ताण य'
(विपा ११६।१६)। कलंबचीरिया-तृण-विशेष जिसका अग्रभाग अत्यंत तीक्ष्ण होता है
(जीव ३१८५)। कलंब-नालिका नाम की वल्ली (दे २।३) ।
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देशी शब्दकोश
कलंबुया-जलीय वनस्पति-विशेष (प्रज्ञा ११४६) । कलकल-चने से मिश्रित जल-'अप्पेगइया कलकलभरिएहि अप्पेगइया
खारतेल्लभरिएहिं महया महया रायाभिसेएणं अभिसिंचंति'
(विपा ११६।८)। कलम-१ उत्तम चावल (जीभा ३६८)। २ चना-'कलमो चणगो
भण्णति' (निचू १ पृ ७०) । ३ चोर (पा १२४) । कलमल-दुर्गन्ध, अशुचि (तंदु १४६) । कलयंदि-१ पाटला, पाढर वृक्ष । २ विख्यात (दे २१५८)। कलव-गोत्र-विशेष (अंवि पृ १५०) । कलव--तुम्बी-पात्र (दे २।१२) । कलह-तलवार की म्यान (दे २१५)। कलहिमी-वृक्ष-विशेष (अंवि पृ २३८) । कलाय–सुवर्णकार (प्रटी प ३०)। कलाल-१ घोड़ों की देखरेख करने वाला (आवहाटी २ पृ ६८)।
२ मदिरा बनाने-बेचने वाला (अनुद्वाहाटी पृ ७२)। कलासिक-वाद्य-विशेष (आवचू १ पृ ३०६)। कलि-शत्रु (दे २।२)। कलिअ-१ अभिमानी । २ नेवला, नकुल । ३ मित्र, सखा (दे २१५६)। कलिआ-सखी (दे २।५६ वृ)। कलिओअ-वह युग्म-राशि जिसमें एक शेष रहता है-'एगपज्जवसिए
कलिओए' (आटी प १३) । कलिंच-बांस की खपाची (नि ११२)। कलिंचि-तृणपूलिका-'कलिंचि त्ति तणपूलिया इति विशेषचूणों'
(बृटी पृ ४४३)। कलिज-१ बांस की टोकरी-'कलिंजो णाम वंसमयो कडवल्लो सट्टती वि
भण्णति' (निचू ४ पृ १६२)। २ छोटी लकड़ी (दे २।११) । कलिदक-गाय आदि पशुओं का भोजन-पात्र (प्रसाटी प २७) । कलिंब-सूखी लकड़ी (कु पृ १७६) । कलिग-कंगण (उचू पृ १७६)। कलिम-नीलकमल (दे २१६) । कलिमाजक-फल-विशेष (अंवि पृ ६४) ।
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कलुय-द्वीन्द्रिय जन्तु-विशेष (प्रज्ञा १४६) । कलेर-१ कंकाल । २ भयंकर (दे २१५३) । कलोवाइ -पात्र-विशेष (आचूला १२२१) । कल्किक - मांस (सूचू १ पृ २०१ टि)। कल्पिक-मांस-मांसं कल्पिक इत्यपदिश्यते' (सूचू १ पृ २०१)। कल्ल-बीता हुआ कल-गयसुकुमालेणं अणगारेणं ममं कल्लं पच्चावरण्ह
कालसमयंसि वंदइ नमसइ' (अंत ३।१०१)। कल्लविअ-१ भिगोया हुआ, आद्रित । २ विस्तारित (दे २।१८) । कल्ला -मद्य (आवचू २ पृ २६७; दे २।२) । कल्लाकल्लि-१ प्रतिदिन (ज्ञा १८४१) । २ प्रातःकाल
(विपाटी प ८६)। कल्लाडक-मत्स्य-विशेष (अंवि पृ २२८) । कल्लाण-१ वृक्ष-विशेष (आचू पृ ३४१)। २ चक्रवर्ती का आहार-विशेष
(निभा ५७२)। कल्लाणग-चक्रवर्ती का आहार-विशेष-'कल्लाणगं णाम आहारो'
(निचू २ पृ २१)। कल्लाल-कलाल, मदिरा बेचनेवाला (जीभा ४२६) । कल्लग-नुकीला-कोंकणविसए णदीसु अंतो जलस्स कल्लुगा पासाणा भवंति'
(निचू ३ पृ ३७०)। कल्लरिका--मिष्ठान्न, मिठाई (आवमटी ३६०)। कल्लेउय-कलेवा-'कल्ले उयं च करेइ' (ओटी प १७२।। कल्लोल-शत्रु (दे २।२)। कल्हार-सफेद कमल (प्रज्ञा ११४६) । कल्होड-बछड़ा (दे २६)। कल्होडक-बछडा (बृटी पृ ६६६) । कल्होडी-वत्सतरी, बछिया (दे २१६) । कवचिका-उपकरण-विशेष (अंवि पृ ७२) । कवचिया–पात्र-विशेष (भ ११११५६ पा)। कवय-वनस्पति-विशेष, भूमिच्छत्र (दे २१३) । कवल -प्राणी-विशेष (अंवि पृ ६४)।
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देशी शब्दकोश
कवल्ल-१ तवा-'तत्तंसि अयकवल्लंसि उदयबिंदुं पक्खिवेज्जा'
(भ ३।१४८) । २ कडाही (सू १।५।१५) । कवल्लि-कडाह-'डझंतेण वि गिम्हे कालसिलाए कवल्लिभूयाए'
(सं ११६)। कवल्ली-१ पकाने का भाजन-विशेष (विपा १।३।२) ।
२ कडाह (अंवि पृ ७२) । कवल्लुय--कडाही (ति ६५१) । कवल्लूर- कडाही (सूचू २ पृ ४४४)। कवास-अर्धजंघा, एक प्रकार का जूता (दे २१५)। कविचिया–पात्र-विशेष, कलाचिका (भ ११३१५६) । कविड-घर का पिछला आंगन (दे २।६)। कविल----कुत्ता (दे २१६)-'अलसः! ण लज्जसि कविलोव्व कडसीए' (वृ)। कविल्ली-पात्र-विशेष (अनुद्वामटी प १४६) । कविल्लय-कडाही (आचू पृ ३७३) । कविस–मद्य, मदिरा (दे २।२) । कविसा-अर्धजंघा, एक प्रकार का जूता (दे २।५) । कवेली--पात्र-विशेष (अनुद्वाचू पृ ५४)। कवेल्लक-लोहे का पात्र-विशेष (भ ३।४८) । कवेल्लुअ-खपरैल (स्था ८।१०) । कवेल्लुग-१ तवा (जंबू २११४१) । २ खपरैल, खापड़
(आवचू २ पृ २३) । कवेल्लुय--कडाही (जंबूटी प २२)। कवोडी—कांवर (निचू ३ पृ २१३)। कव्व--१ पानी उलीचने का पात्र-विशेष-'उत्तिगादिणावाए चिट्ठमुदगं ___ अण्णयरेण कव्वादिणा उस्सिचणएण उस्सिचइ' (निचू ४ पृ २०६)।
२ मांस। कव्वय---काष्ठपात्र-'कव्वयं तं पि कट्ठमयं (पत्तं)' (निचू ३ पृ ३४३) । कव्वाड-१ ठेके पर भूमि खोदने वाला (स्था ४।१४७ पा)। २ दाहिना
हाथ (दे २।१०)। कव्वाल---१ ठेके पर भूमि खोदने वाला-'कव्वालो खितिखणतो उडमादी'
(निचू ३ पृ २७३) । २ कर्म-स्थान, प्रवृत्ति का स्थान । ३ घर (दे २०५२)।
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कसई- अरण्यचारी वनस्पति का फल (दे २१६) । कसक-बिल में रहने वाला जंतु-विशेष (अंवि पृ २२६) । कसकी-वनस्पति-विशेष (अंवि पृ ७०)। कसट्ट--कचरा (ओनि ५५७) । कसणसिअ--बलभद्र, वासुदेव का बड़ा भाई (दे २।२३) । कसर-खुजली (भ ७।११६) । २ अधम बैल (दे २।४) । कसरक्क-१ चर्वण-शब्द-खज्जइ न उ कसरक्केहि' (प्रा ४।४२३)।
२ फूल की कली। कसरि-मिष्ठान्न-विशेष (अंवि पृ १७६) । कसव्व-..१ अल्प । २ आर्द्र, गीला । ३ प्रचुर । ४ वाष्प, भाप (दे २१५४)।
५ कर्कश। कसिआ-अरण्यचारी नामक वनस्पति का फल (दे २।६) । कसित-गोत्र-विशेष (अंवि पृ १४६)। कसुग-हीन वचन-'भणंति कक्कसकसुगादीणि वा' (सूचू १ पृ २२१) । कसोति–खाद्य-विशेष-'महाहिं कसोति भोच्चा कज्जं संधेति'
(सूर्य १०।१७) । कस्स -कर्दम (दे २।२)। कस्सय–उपहार, भेट (दे २०१२) । कहकहग---'कह-कह' की आवाज, खुशी की आवाज (राज २८१)। कहक्कह--अट्टहास-'चलणे देहे पत्थर, सविगार कहक्कहे लहुओ'
(बृभा ६३१६) । २ आनन्द की ध्वनि (ति १३५)। कहल्ल-खप्पर, कपाल-'चिययाओ फुल्लियकिंसुयसमाणे खइरिंगाले कहल्लेणं
गेण्हइ' (अंत ३।८६)। कहितेल्लय-कहा (आवचू १ पृ २३३) । कहेड–तरुण (दे २०१३)। कहेडय - तरुण (दे २।१३ वृ)। काअ-१ लक्ष्य बींधने योग्य । २ उपमानभूत पदार्थ या व्यक्ति (दे २।२६) । काइणी-गुंजा, लाल रत्ती (दे २।२१)। काइय-मूत्र-'सण्णं काइयं च वोसिरंति' (आवहाटी १ पृ १४५) । काउ-कांवर (निभा १४८६)।
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काउंबरि - १ बहु बीज वाली वनस्पति- विशेष ( प्रज्ञा १।३६ ) । विशेष ( कु पृ ८९ ) ।
काउडी - - कांवर ( आवचू २ पृ ५५ ) ।
काउड्डावण – उच्चाटन, मंत्र-तंत्र से पर शरीर को आकृष्ट करना - 'कम्मजोए वा हिउड्डाणे वा काउड्डावणे वा' (ज्ञा १।१४।४३) ।
का उल्ल---बक, बगुला (दे २18 ) | काउल्ली--बगुली ( सूचू १ पृ ५६ ) ।
का ओलि - वनस्पति- विशेष (भ २३१८ ) | कांचनिया – रुद्राक्ष की माला ( ज्ञाटी प ११७) ।
काकंडक - - वर्ण- विशेष (अंवि पृ १०५ ) ।
काकणि- १ छोटे-छोटे टुकड़े - 'काकणिमसाई खावेंति' (विपा १ । ३ । १४) । २ राज्य - 'काकणि क्षत्रियभाषया राज्यम्' ( विभामटी १ पृ ३४९) ।
काकमज्जुक – काले रंग का पक्षी - विशेष (अंवि पृ २२५ ) । काकुंथिका - उद्भिज्ज जन्तु - विशेष (अंवि पृ २२९ ) । काकुरुडी — गोत्र - विशेष (अंवि पृ १५० ) । कागणि- १ कांगनी, वल्ली - विशेष
देशी शब्दकोश
२ औषधि -
(प्रज्ञा १४० | ५ ) । २ राज्य - ' रायपुत्ताणं रज्जं कागणि भण्णति' (अनुद्वाहाटी पृ ११) । कागिणी राज्य- 'रज्जं कागिणी भण्णति' ( निचू २ पृ ३६२), 'चंदगुत्तपवोत्तोउ, बिंदुसारस्स णत्तुओ |
असोगसिरिणो पुत्तो, अंधो जायति कारिणि ॥' (अनुद्वाहाटी पृ ११) ।
काण -- १ सच्छिद्र, खाया हुआ (आचू पृ ३४१ ) । २ चुराया हुआ ।
काणइल्ल - प्रातिहारिक (आवहाटी १ पृ १३४ ) ।
काणक -१ चुराई हुई वस्तु ( प्रसाटी प २३२ ) । २ न्यून (प्रटी प ५८ ) । काग – १ सच्छिद्र ( आचूला १।११६) । २ चुराई हुई वस्तु
( प्रसा ७६६ ) ।
काणच्छ— कटाक्ष, टेढी नजर से देखना ( निभा ५१४४; दे २।२४) । काणच्छिया --- टेढी नजर से देखने की क्रिया - "काणच्छियाओ य जहा वि तहा करेइ' (आवहाटी १ पृ १४६ ) ।
काणटिट्टि - कृमि जाति का प्राणी (अंवि पृ ७० ) ।
काणत्थेव – विरल जल-वृष्टि, बूंद-बूंद बरसना (दे २।२९ ) ।
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काणद्धी—परिहास (दे २।२८)। काणवी-लता-विशेष (अंवि पृ ७०) । काणिट्ट-लोहे की ईंट (पंक १०७६) । काणिय-कीट द्वारा खाया हुआ-'घुणकाणियं अंगारइयं वा वुत्तयं'
(निचू ४ पृ६६)। कातरिया-माया-'कातरिया णाम माया' (सूचू १ पृ ५५) । कातोदूक-मंगूस की एक जाति (अंवि पृ २२६) । कानंगर-पाषाणमय लंगर (विपाटी प ७१) । काम-खेचर पक्षी-विशेष (जीवटी प ४१) । कामकिसोर--गर्दभ, गधा (दे २।३०) । कामगद्दभ-काम-प्रवृत्त-'अवि कामगद्दभेसु वि ण णासए किं पुण जतीसु'
(निभा ४४२१)। कामजल-स्नान-पीठ-'कामजलं हाणपीढं' (निचू ३ पृ ३७८) । कामज्जगजलकाक, बतख (सूचू १ पृ १५८) । कामिजल-जल-पक्षी-विशेष (दे २।२६) । कामेयग-लोमपक्षी (जीवटी प ४१) । काय-१ कुहन वनस्पति-विशेष (भ २३।४) । २ वस्त्र-विशेष ।
(नि १७।१२) । ३ कांवर, कापोतिका (बृभा २७८३) ।
४ कायस्थ जाति (कु पृ ४०)। कायंचुल-कामिञ्जुल, जल-पक्षी-विशेष (दे २।२६)। कायंदी--परिहास, उपहास (दे २।२८) । कायंधुअ-कामिञ्जुल, जल-पक्षी-विशेष (दे २१२६)। कायक-इन्द्रनीलवर्ण वाले कपास से निष्पन्न वस्त्र-विशेष (आचूला ५।१४)
-'क्वचिद्देशे इन्द्रनीलवर्णः कर्पासो भवति तेन निष्पन्नानि कायकानि'
. (टी प ३६३)। कायपिउच्छा-कोकिला, कोयल (दे २।३०)। कायमाइ-गुच्छ वनस्पति-विशेष, काकमाची (प्रज्ञा ११३७२)। कायमाण-तृणकुटी-'तेहि रण्णो कायमाणं कयं' (ओटी प ४६) । कायर-१ प्रिय, स्नेहपात्र-'केचित् प्रिये कायरो इत्याहुः' (दे २१५८ वृ)।
२. पक्षी-विशेष (अंवि पृ ६२)। कायल-१ प्रिय, स्नेहपात्र । २ कौआ (दे २१५८) ।
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कार-कटु, कड़वा, तीता (दे २१२६) । कारंकड–परुष, कठिन (दे २।३०)। कारंकडअ—परुष, कठिन (दे २।३० वृ)। कारा-रेखा (दे २।२६)। कारिअल्लिका-करेले की लता (अंवि पृ ७०)। कारिम-कृत्रिम, बनावटी, नकली (दे २।२७) । कारियल्ल-करैला की वल्ली (प्रज्ञा २४०१२)। कारियल्लई-वल्ली-विशेष, करेला का गाछ (प्रज्ञाटी प ३३) । कारिया-करेले का गाछ, गुच्छवनस्पति-विशेष (प्रज्ञा ११३७।५) । कारल्लय-करैला (अनु ३।५०)। कारल्ला-करैला (अनुटी पृ ६) । कारोडिय-कापालिक-.."लाभत्थिया किव्विसिया कारोडिया कारवाहिया' .
(भ ६२०८)। काल-१ काला, अन्धकार (विपा १।८।१२; दे २।२६) । २ पुष्प-विशेष
(अंवि पृ ७०) । कालअ-धूर्त, ठग (दे २।२८)। कालंची-भाजन-विशेष (अंवि पृ ५२)। कालवट्ठ-धनुष (दे २।२८) । कालाडग-मत्स्य की जाति (अंवि पृ ६३)। कालापरण्णपिडि-खाद्य-विशेष (अंवि पृ ५) । कालिआ-१ शरीर । २ कालान्तर । ३ मेघ (दे २।५८)। कालिंग--तरबूज की वल्ली (अंवि पृ २३६)। कालिंगी-जंगली तरबूज की बेल (प्रज्ञा ११४०।१) । 'कालिजण-तमाल का वृक्ष (दे २।२६ वृ)। कालिजणी-तमाल की लता (दे २।२६) । कालिंब-१ शरीर । २ मेघ (दे २।५६) । कालियवाय-प्रतिकूल वायु-'थणियसद्दे कालियवाए जाव समुट्ठिए'
(ज्ञा १९६)। काली-१ तृण-विशेष । २ काकजंघा नामक तृण-'काली नाम तृणविशेषो,
केइ काकजंघां भणंति' (उचू पृ ५३)।
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देशी शब्दकोश
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कालेज्ज-१ कलेजा, हृदयवर्ती मांस-खंड (सूनि ७३) । २ तमाल वृक्ष का
पुष्प (दे २।२६ व)। कालेयक-फल-विशेष (अंवि पृ २३२) । काव-कांवर वहन करने वाला (जीव ३१६१६) । कावलिअ-असहिष्णु (दे २।२८) । कावी-नीलवर्ण वाली (दे २।२६) । कावेल्ली--पात्र-विशेष (अनुद्वाहाटी पृ ७६)। कावोडि-कांवर (आवहाटी २ पृ ४४) । कावोडी-कांवर-‘बालादिसल्लविद्धवहणट्ठा कावोडी' (निचू ४ पृ १०६)। कावोय-कांवर वहन करने वाला (अनुद्वामटी प ४२) । कास-गुच्छ वनस्पति-विशेष (प्रज्ञा १॥३७॥४) । कासार-सीसकपत्र, सीसे की चादर (Lead-Sheet) (दे २।२७)। कासिअ-१ सूक्ष्म वस्त्र । २ श्वेत वर्ण (दे २।५९) । कासिज्ज-काकस्थल नामक देश (दे २।२७) । काहल-१ वाद्य-विशेष (भटी पृ ८८३) । २ मृदु । ३ ठग (दे २।५८) । काहली-तरुणी (दे २।२६) । काहल्ली-१ प्रतिदिन उपभोग में आने वाला धान्य आदि । २ तपनी, तवी,
रोटी आदि बनाने-पेकने का सावन (दे २१५६) । काहार-१ नक्षत्र का संस्थान-विशेष (सूर्य १०।२८) । २ कहार, जल
__आदि लाने वाला कर्मकर (दजिचू पृ १२६; दे २।२७) । काहिल-गोपाल, ग्वाला (दे २।२८)। काहिल्लिआ-तवा (पा ६३६) । काहेणु-गुंजा, लाल रत्ती (दे २।२१) । किंकाणत-कृकाटिका, गरदन का पिछला भाग (सूचू १ पृ १३८) । किंकिअ-सफेद, श्वेत (दे २।३१) । किंखाइ-फिर कैसे-'से किं खाइ णं भंते !' (भ २॥१३४)-'किं खाई ति अथ
किं पुनरित्यर्थः' (भटी प १४६)। किंखाति-फिर कैसे (भटी प १४८) । किंजक्ख-शिरीष वृक्ष (दे २।३१)। किंधर-छोटी मछली (दे २।३२)। किंपअ-कृपण, कंजूस (दे २।३१) ।
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किंबोड-स्खलित (दे २।३१) । किक्किड-गिरगिट (दे २०७४) । किक्किडि--सर्प (दे २।३२) । किच्चण-प्रक्षालन, धोना-'किच्चणं च पोत्ताणं' (ओनि १६८)। किज्जर-भाजन-विशेष (अंवि पृ २२१) । किट-लोह आदि धातुओं का मल-'अट्टिरासिसि वा किट्टरासि सि वा,
तुसरासि सि वा' (आचूला १।३)।। किट्रि-विभाग-विशेष की प्रक्रिया-किट्टयो नाम पूर्वस्पर्धकेभ्यः प्रथमादिवर्गणा
गृहीत्वा विशुद्धि-प्रकर्षवशादत्यन्तहीनरसाः कृत्वा तासामेकोत्तरवृद्धिन
त्यागेन बृहदन्तराल तया व्यवस्थापनम्' (प्रसाटी ५ १९८) । किट्टिका-वनस्पति-विशेष (जीव ११७३)। किट्टिया-अनंतकाय वनस्पति विशेष (भ ७।६६) । किट्टिस-१ ऊन आदि का शेष बचा हुआ अंश । २ एक प्रकार का सूता
'उण्णितादीणं अवघाडो किसिमहवा..."साणगादयो रोमा ते सव्वे
किट्टिसं भन्नति' (अनुद्वाचू पृ १५)। किट्टी-समझा बुझा कर संभोग के लिए एकांत में ले जाई जाने वाली स्त्री
(व्यभा ४।३ टी प ५७)। किट्रिया- अनन्तकाय वनस्पति-विशेष (भ ७।६६)। किडि- १ वृद्ध -'किडि खुड्ड वसभा वा' (निभा ३०६०) । २ सूअर
(दे २।३१ वृ)। किडिका-खिड़की (अंवि पृ २७) । किडिकिडिया---निर्मास अस्थि के कारण उठने-बैठने से होने वाली ध्वनि
'निम्मंसे किडिकिडियाभूए अट्ठिचम्मावणद्धे'
(ज्ञा १११।२०२)। किडिग-- रोग-विशेष (अंवि पृ २०३) । किडिभ-कुष्ठविशेष-किडिभं कुटुभेदो सरीरेगदेसे भवति' (निचू ३ पृ ३२४)
-किडिभं जंघासु कालाभं रसियं बहति' (निचू ३ पृ ६२)। किडिभक-व्यापन्न शरीर वाला (अंवि पृ २०३) । किडिभिल्लकोढी-कच्छुल्ले किडिभिल्ले छप्पतिगिल्ले य णिल्लोम'
(निभा ४०१८)। किडिया-छोटाद्वार, खिड़की-सावयादिभए दुवारगुत्तीकरणं तेहिं देहाहि
दंडएहिं किडिया कज्जति' (निचू २ पृ ४०)।
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देशी शब्दकोश
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किढि-वृद्धा-'अणिच्छे किड्ढि साविया धोवति' (निच ३ पृ १०६)। किडढी-समझा बुझाकर संभोग के लिए एकांत में ले जाई जाने वाली स्त्री
(व्यभा ४।३ टी प ५७) । किढ-वृद्ध, बूढा (बृभा ४१४१)। किढग-वृद्ध-'जह किढगाण विमोहो समुदीरति किं तु तरुणाणं'
(व्यभा ७ टी प ४१) । किढि-१ वृद्धा (निचू २ पृ ३७६)। किढिण-तापसों का पात्र-विशेष जो बांस से बना हुआ होता है
(भ ११६४) । किढिया-वृद्धा (निभा २२३२) । किढी--१ काठ लाने वाली (आवहाटी १ पृ १५८) । २ वृद्धा, स्थविरा
(बृभा १६५६)। किणिक-वाद्यों को चर्म से मढने वाले शिल्पी (व्यभा ४१३ टी प २१) । किणिकाण-वाद्य-विशेष (आवचू १ पृ ३०६)। किणिय--१ जो वादित्रों को चर्म आदि से मढने का काम करते हैं।
२ जो नगर में घुमाते हुए ले जाने वाले वध्य पुरुषों के आगे
वादित्र बजाते हैं (व्यभा ४।३ टी प २१)। किणिह-कृमि की एक जाति (अंवि पृ ७०) । किणो–क्यों, किसलिए ? (प्रा २।२१६) । किण्ण-शोभित, सुन्दर (दे २।३०)। किण्णि---मदिरा का मैल-सुराए किणिमादिकिट्ठिसंपक्कसं'
(निचू ४ पृ २२३)। किण्ह -१ सूक्ष्म वस्त्र । २ श्वेत वर्ण (दे २।५९) । किण्हपत्त-चतुरिन्द्रिय जीव-विशेष (प्रज्ञा १५१) । कित-चुंगी लेने वाला (व्यभा २ टी प ६५) । किपिल्लक--प्राणी-विशेष (अंवि पृ ६६) । किपिल्लिका-कृमि की एक जाति (अंवि पृ ७०) । किमिराय-लाख से रंगा हुआ वस्त्र (दे २।३२) । किमिहरवसण-कौशेय वस्त्र, रेशमी वस्त्र (दे २।२३) । कियत-चुंगी लेने वाला-'सुकठाणेसु कियतो उवट्टितो भणइ'
(व्यभा २ टी प ६५)।
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देशी शब्दकोश कियाडिया-कान का ऊपरी भाग-तं चेल्लगं कियाडियाए घेत्तुं सीसे खडुक्क
दाउं..." (व्यभा १ टी प १३) । किर-सूकर, सूअर (दे २।३०)। किराड-खुदरा माल बेचने वाला व्यापारी (कु पृ १०६) । किराडय-व्यापारी-'जाहि किराडयं उच्छिण्णं मग्गाहि'
(आवहाटी २ पृ २२१) । किरि-ज्येष्ठ, बड़ा-'सिरिओ वि किरि भायनेहेण कोसाए गणियाए
घरमल्लियइ' (उसुटी प ३०)। किरिइरिआ-१ कर्णोपकणिका, एक कान से दूसरे कान गई हुई बात ।
२ कुतूहल (दे २।६१) । किरिकिरिया-बांस आदि की कम्बा से निष्पन्न वाद्य-विशेष
(आचूला १११३)। किरीडय-रेशम का कीड़ा -'किरीडयलाला मलयविसए मयलाणि पत्ताणि
कोविज्जति' (निचू २ पृ ३६६)। किलणी-रथ्या, गली (दे २।३१) । किलिच-बांस की खपची (द ४।सू १८; दे २।११)। किलिम्मिअ-कथित, उक्त (दे २१३२) । किविड-१ खलिहान, अन्न साफ करने का स्थान । २ खलिहान में जो हुआ
हो वह (दे २।६०) । किविडी–१ पार्श्वद्वार । २ घर का पिछला आंगन (दे २१६०) । किविल्लिका-कीट-विशेष (अंवि पृ २५३) । किविल्लिग-क्षुद्र जन्तु (अंवि पृ २२६) । किसोर-घोड़ी का गर्भस्थ बच्चा (निचू ३ पृ ४११) । कोडी-चींटी-'जस्स कीडीओ खायंति उत्तमंग' (आवदी प १६८) । कीर-शुक, तोता (दे २।२१)। कील-१ कंठ-कीलेहि विज्झंति असाहकम्मा'-कीलेषु-कण्ठेषु
(सूटी १ प १२६) । २ स्तोक, अल्प (दे २।२१)। कोलणिआ-रथ्या, गली (दे २१३१)। कोलणी-रथ्या (दे २।३१ वृ)। कीला-नववधू, दुलहिन (दे २१३३)। कुइग-दही के ऊपर का नितरा हुआ पानी-'कूचिका नाम दध्न उपरि
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देशी शब्दकोश
द्रवस्वरूपो माथुशब्दतया ख्यातो वस्तुविशेषः, स च किल जीरकादिभिः
संस्कृतोऽतीव स्वादुर्भवति' (आवटि प २४) ।। कुउआ-तुम्बी-पात्र (दे २।१२)-'भिक्खु ! को तुह कुउअं पूरिस्सइ
पिण्डवाएण' (वृ)। कुऊल-१ नीवी, अधोवस्त्र को बांधने का नाड़ा (दे २।३८)। २ पहने हुए
कपड़े का प्रांत भाग, अञ्चल-'कुऊलं परिहितवस्त्रप्रान्त इति
केचित्' (वृ)। कुंकुण- चतुरिन्द्रिय जंतु-विशेष (उ ३६।१४६) । कुंचल-मुकुल, कलिका (दे २।३६) । कंचवीरग-जलयान-विशेष-'कुंचवीरगो सगडपक्खसारिच्छं जलयाणं
___ कज्जति' (निचू ४ पृ ५०)। कुंटल--जादू-टोना (दजिचू पृ २८२)। कुंटलविंटल-१ मन्त्र-तन्त्र का प्रयोग (व्यभा ४१३ टी प ४६)। २ मंत्र- तंत्र से आजीविका चलाने वाला। कुंटार-म्लान (दे २।८०)। कंटि–१ गठरी । २ वस्त्र में बंधा हुआ (दे २।३४) । ३ वस्त्रविशेष । कुंटुल्लिग-बच्चों का खिलौना (सूचू १ पृ ११७ टि)। कंड-१ गोत्र-विशेष (अंवि पृ १४६) । २ बांस से बना हुआ ईख पेरने का
जीर्ण काण्ड (दे २।३३)। कुंडग-तुष मिश्रित चावलों की भूसी-'तुसमुहीकणिया कुक्कसमीसा कुंडग
भण्णति' (निचू २ पृ २३७) । २ कुंडा (अवि पृ ६५)। कुंडरोट्ट-निस्तुषधान्य-'कुंडरोट्टो पुण णितुसा' (निचू २ पृ २३७) । कंडिअ---ग्राम का अधिपति, गांव का मुखिया (दे २१३७)। कंडिअपेसण-ब्राह्मणविष्टि, ब्राह्मण को जबरदस्ती से दी जाने वाली सेवा
(दे २।४३)। कुंडिल्लगा-बच्चों का खिलौना-'कुंडिल्लगा चेडरूव-रमणिका'
(सूचू १ पृ ११८) । कंडक्क-वनस्पति-विशेष (आटी प ५७) । कंडल्लिग-बच्चों का खिलौना (सूचू १ पृ ११८ टि)। कंढ-१ आलसी (उशाटी प १०८) । २ मूर्ख (उसुटी प ३२) । कंढय-१ चुल्ली, चुल्हा । २ छोटा बरतन (दे २।६३)। कुंत--१ ठेका, इजारा-'कुन्तकम्-एतावद् द्रव्यं त्वया देयमित्येवं नियंत्रणया
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देशी शब्दकोश
__नियोगिकस्य देशादेर्यत् समर्पणमिति' (विपा ११११४६ टी ३६) ।
२ शुक तोता (दे २।२१)। कुंतक-ठेका, इजारा (विपाटी प ३६) देखें-'कुंत'। कुंतल-सातवाहन, नृप-विशेष (दे २।३६) । कंतली--करोटिका, परोसने का एक उपकरण (दे २१३८) । कुंती-मंजरी, मांजर (दे २।३४) । कुंतीपोट्टलय-चतुष्कोण (दे २१४३) । कुंदअ--कृश, दुर्बल (दे २।३७)। कुंदीर-बिम्बीफल, कुन्दरुन का फल (दे २।३६) । कंदुरुक्क-मुर्गे की ध्वनि-'सो गंतुकामो रयणिपज्जवसाणे भणइ कुंदुरुक्क
पडिबोहियल्लओ' (आवमटी प ५१२) । कुंदुल्लुय--उल्लू (पा ३६३) । कंधर --छोटी मछली (दे २।३२) । कंपल- कोंपल (पा ८८)। कंबर-छोटी मछली (पा ३०१)। कंभ--ललाट-सिंगं पुण कुंभपासेहि, कुंभशब्देन ललाटमेव भण्यते'
(प्रसाटी प ३८) । कंभकंडक-वृक्ष-विशेष (अंवि पृ २३२)। कुंभकारिआ क्षुद्र जंतु-विशेष (अंवि पृ २३८) । कुंभिणी-जल का गर्त (दे २।३८)। कंभिया--लोहमय या ताम्रमय पात्र (सूचू २ पृ ३७३) । कुंभिल-१ चोर । २ पिशुन (दे २।६२) । कंभिल्ल-खोदने योग्य (दे २।३६) । कुंभी-केश-रचना, केश-संयम (दे २।३४) । कंभेल्ल-खाद्य-विशेष-'कुंभेल्लसालिमाति पिहुखज्जा' (दअचू पृ १७३) । कुकह-थूभ, ककुद (आवचू १ पृ ३७२)।। कुकंदल-शरीर का अवयव-विशेष (अंवि पृ १२३) । कुकुड-मत्त, उन्मत्त (सूचू २ पृ ३१८) । कुकुला-नववधू (दे २।३३) । कुक्कयय-तुम्बवीणा (सू ११४१३८)। कक्कस-धान्य आदि का तुष (निचू २ पृ २३७) ।
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११३. कुक्कड-१ उन्मत्त, मत्त (बृभा २०१६; दे २।३७) । २ शरीर का अवयव
विशेष (वि पृ ११४) । कुक्कुडिगा-ककड़ी (अंवि पृ ७१) । कुक्कुरुड-निकर, समूह (दे २।१३) । कुक्कुस-धान्य आदि का तुप (आचूला ११७६; दे २०३६) । कुक्कुह–चतुरिन्द्रिय जंतु-विशेष (प्रज्ञा ११५१) । कक्कहग--ताम्रवीणा-'कुक्कुहगो णाम तंबबीणा' (सूचू १ पृ ११६) । कक्कहाइय-चलते समय के अश्व का शब्द-विशेष-सीहे कुडुंबयारस्स पोट्टलं,
कुक्कुहाइयं अस्से । जाणंति बुद्धिमंता, महिलाहिययं न
जाणंति ॥' (तंदु १६४)। कुक्खलिका-उपकरण-विशेष (अंवि पृ १६१)। कुक्खि -कुक्षि, पेट (दे २।३४)। कुच्चविच्च-गृहस्थों की क्रियाएं-'ण य ताण कुच्चविच्चाणि निज्झाति
यव्वाणि' (आवचू १ पृ ३५४) । कुच्चोलि-संवत्सर (?) (अवि पृ २३६) । कुच्छर--दक्ष (दे २०१३ पा)। कुच्छिमइ-गर्भवती (दे २।४१) । कुच्छिल्ल-१ बाड़ का छिद्र (दे २।२४) । २ छिद्र, विवर (पा १०५) । कुट्टयरी-चण्डी, पार्वती (दे २।३५) । कुविद-मिट्टी के साथ कूटी हुई वट, पीपल, आदि वक्षों की छाल-'वड
पिप्पल-आसत्थयमादियाण वक्को मट्टियाए सह कुट्टिज्जति सो
कुट्टविंदो भण्णति' (निचू ४ पृ २०६)। कुद्रा-१ इमली-'कुट्टा चिञ्चनिका' (बृभा १७०६ टी) । २ गौरी, पार्वती
(दे २१३५)। कुट्टाअ-चर्मकार, मोची (दे २।३७) । कुट्टि-नकल-'कुट्टि वा करोतीत्यर्थः' (निचू ३ पृ ३६)। कुट्टिब-द्रोणी, नौका (पा ३२६) । कुट्टिद-नकल करने वाला, नकलची (निचू २ पृ १२१)। कुट्टिया-नकल (निचू २ पृ १७२) । कुठारी-कुठार (अंवि पृ ७२) । कुठारीक-भाजन-विशेष (अंवि पृ ७२)।
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११४
कुंडंग – १ बांस का झुरमुट ( ज्ञा १।१८।२१) । २ लतागृह, निकुञ्ज (बृभा ६१४६; दे २।३७ ) ।
कुडंगअ - लतागृह (पा ७२१) ।
कुडंगी - १ वन, जंगल- अइगुविलगव्वरा वंसकुडंगी सिग्धं लंघियव्वा' ( आवहाटी १ पृ २५६ ) । २ बांस की जाली (प्राक १ टी पृ २१) ।
देशी शब्दकोश
कुडंड - बांस की डोरी, खपाची - ' अपवरकस्य द्वारं बहिः 'कुडण्डेन' वंशटोक्करादिना बध्यते येन न निर्गत्यापगच्छति' (बृटी पृ १६४१) ।
कुडंडिता - ताला लगाना, कूंटा लगाना - "घरे छोढूण बाहिरि कुडंडिता' (आवचू १ पृ ३१९ ) ।
कुडक्ख - कुडक्क (कुर्ग ) देश का निवासी ( कु पृ ४० ) ।
कुडग --- कुक्कसमिश्रित तुषमुखी कणिका ( निचू २ पृ २३७ ) । कुडपूरि - मादा पक्षी - विशेष (अंवि पृ ६९ ) ।
कुडभी-छोटी पताका (उशाटी प ३०३) ।
कुडय - १ लतागृह, लता से आच्छादित घर (अनुद्वा ३५२; दे २ । ३७) । २ कुरैया का वृक्ष ( औप ह ) ।
कुडा - १ बांस का एक प्रकार, पर्व वनस्पति । २ वृक्ष - विशेष (भ २१ । १७ ) ।
कुडिअ - कुब्ज, वामन ( पा ४११ ) ।
कुडिआ - बाड़ का विवर (दे २।२४) ।
कुडिच्छ – १ बाड़ का विवर । २ कुटी, झोंपडी । ३ त्रुटित, छिन्न (दे २।६४) ।
कुडिय - चुराई हुई वस्तु की खोज करने वाला ( उशाटीप १०९ ) । कुडियंठ - पाल - ततो कुविएण कुडियंठो मत्थए दाऊण अंगाराणं से भरिता' ( आवहाटी १ पृ १८२ ) ।
कुडियंडी - शिरोवेष्टन - 'कुडियंडी सीसकरणं वा' (आचू पृ ३५८ ) ।
कुडिल्ल - छिद्र (पा १०५ ) ।
कुडिल्लय - कुटिल ( दे २।४० ) ।
कुडीर - बाड़ का छिद्र (दे २।२४) ।
कुडुंब - महावत ( पिटी प ७२ ) ।
कुडुंबक - १ वनस्पति- विशेष, धनिया । २ कन्द- विशेष । (अंवि पृ २४३) । कुटुंबिय - - ताला लगाना, कूंटा लगाना ( आवहाटी १ पृ १५० ) ।
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कुडंभग-जलमंडूक की भांति फुदकना अथवा जल में मंडूक की भांति
आवाज करन:-'कुडंभगो जलमंडुओ भण्णति ......."सुंदरं कुडुभगं
करेसि त्ति मं पि सिक्खावेहि' (निचू १ पृ ७०)। कुडुक-कुरुदेश का वासी (व्यभा ४/४ टी प ५२) । कुडुकालक-मत्स्थ की एक जाति (अंवि पृ २२८) कुडक्क--१ कुरु देश का वासी (व्यभा ४/४ टी प ५२) । २ लतागृह
(व्यभा १० टी प १५) । ३ निर्दय, निष्ठुर (निचू २ पृ २६६;
दे २।६३) । ४ देश-विशेष (व्यभा ४।४ टी प ५२) । कुडुच्चिअ-संभोग, मैथुन (दे २।४१) । कुडुह-उभरा हुआ भाग (नंदीचू पृ ६४) । कुडु---१ दीवार (भ ८।२५७) । २ पात्र-विशेष (निचू ३ पृ ३८६)।
३ कुतूहल, आश्चर्य (आवमटी प ५३०; दे २।३३)। कुड्डगिलोई-छिपकली (दे २।१६)। कुड्डलेवणी-चूना, खड़ी, खटिका (दे २।४२) । कुढ-१ चुराई हुई या छीनी हुई वस्तु की खोज करने वाला
(दअचू पृ ५१; दे २।६२) । २ चुराई हुई चीज को छुड़ानेवाला
(दे २।६२)। कुढारक-घटाकार पात्र (अंवि पृ ६५)। कुढावय-अनुगमन-'तुरयस्स कुढावयम्मि पडिलग्गो'
(विभामहेटी पृ ५३४) । कुढिय-१ चुराई वस्तु को खोजने वाला (पंक ५७४) । २ चुराई वस्तु को
खोजकर लानेवाला (निचू १ पृ १२२) । ३ ग्रामप्रधान ।
४ आरक्षक (आवहाटी १ पृ १८१) । कुढेरग-कन्द-विशेष (पंक ७३३) । कुण-हास्यास्पद शब्द-वेयणचेट्टाहिं एवं कुणं......."वा करोतीत्यर्थः'
(निचू ३ पृ ३६)। कुणक्कय--कुहन वनस्पति का एक प्रकार (प्रज्ञा १।४७) । कुणिआ-बाड़ का छिद्र (दे २।२४) । कुणिक-सेवक-विशेष-'कुणिकाश्व सेवकविशेषाः' (प्रटी प १५) । कुणिणह-अक्षिरोग-विशेष (अंवि पृ २०३) । कुणिम-१ मांस (सू १।४।८)। २ रुधिर, मांस, वसा आदि से संकीर्ण
अपवित्र स्थान (सू ११५।२७) । ३ शव (प्र ३६)। ४ शव का
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रुधिर, वसा आदि - तं च से कुणिमं गलति उवरि' ( आवहाटी २ पृ ४८ ) ।
कुणिय - हास्यास्पद शब्द - '
- "कुणियं वा भणतो हसिज्ज सि' ( निचू ३ पृ ३६ ) । कुत किट्ट - रोम - विशेष - ' कुतकिट्टा वि रोमविसेसा चेव देसंतरे, इह अप्पसिद्धा (निचू ३ पृ ५७) ।
कुतत्ती - मनोरथ, वांछा (दे २१३६) ।
कुतलग – छोटे-छोटे टुकड़े (दअचू पृ ११५) ।
कुतव - चूहे के रोमों से बना वस्त्र - ' कुतवं उंदररोमेसु (अनुद्वाहाटी पृ२२ ) ।
कुतिपि - बिल में रहने वाला क्षुद्र-कीट (अंवि पृ २२६) । कुत्त - ठेका, इजारा ( विपा १|१|४९ पा ) देखें - कुंत । कुत्तिका - मधुनिष्पन्न करने वाली मक्षिका-विशेष ( प्रसाटी प ५३ ) । कुत्तिय - चतुरिन्द्रियजन्तु - विशेष (आवचू २ पृ ३१९) ।
कुत्तुंबक- वाद्य - विशेष ( जीव ३।७८ ) |
देशी शब्दकोश
कुत्थर - १ विज्ञान, प्रज्ञा, कलाकौशल (दे २।१३ ) । २ वृक्ष कोटर । ३ सर्प आदि का बिल ।
कुत्थंबरी - बहुबीजक वनस्पति- विशेष (भ ८१२२०)।
कुत्थुहवत्थ - १ नीवी, अधोवस्त्र को बांधने का नाड़ा (दे २।३८) |
कुत्थंभरिय - वनस्पति- विशेष, धनिया (भ २२३) ।
कुटुक्का - नालिका से खेला जाने वाला द्यूत - 'नालिका क्रीडा कुदुक्का - क्र त्ति' ( सूचू १ पृ १७९ ) ।
कुदुव्वर - वाद्य विशेष ( आवचू १ पृ ३०९ ) ।
कुद्द -- प्रभूत, प्रचुर (दे २।३४) ।
कुद्दण - रासक, एक प्रकार का नृत्य (दे २१३८) ।
कुधवा --- वल्ली विशेष ( प्रज्ञा १।४० ) ।
कुधुलूक - पक्षी विशेष, उलूक की एक जाति (अंवि पृ ६२ ) ।
कुप्पढ–१ गृहाचार, घर का रिवाज (दे २०३६) । २ समुदाचार - ' कुप्पो गृहाचारः समुदाचार इत्यन्ये' (वृ) ।
कुप्पर- १ तीक्ष्ण, तीखा ( पिनि ४१८ ) ।
२ कीलाघात, रति-क्रीडा के समय छाती पर एक विशेष प्रकार का आघात करना । ३ समुदाचार, आचार-व्यवहार का सम्यक् पालन । ४ क्रीडा, उपहास ( दे २/६४ ) । कुप्पल – जलयंत्र का एक भाग (अंवि पृ २५५) ।
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देशी शब्दकोश
११७ कुप्पासया-केंचुली (कु पृ १७०) । कुप्पिस-कञ्चुक, कांचली (दे २।४० वृ)। कुब्ब-धंसा हुआ, क्षीण-'कुब्बं ति निम्नं क्षाममित्यर्थः' (उपाटी पृ ६७) । कुभिधि-पुष्प-विशेष (अंवि पृ ७०) । कुमार-आश्विन मास, कुंआर का महीना (स्था २।१)। कमारी-गौरी, पार्वती (दे २।३५) । कुमारील—केशमय बहुपदी जन्तु-विशेष (अंवि पृ २२८) । कुमुली-चुल्ली, चुल्हा (दे २।३६) । कुम्मण-म्लान, शुष्क (दे २।४०)। कुम्मरिय-कसाई (ओभा ६०)। कुयवा-वल्ली-विशेष (प्रज्ञा ११४०) । कुरबक-कर्णाभूषण, कुंडल (अंवि पृ ६४) । कुरर-मार्जार नाम का पक्षि-विशेष (उशाटी प ५२१)। कुररी-पशु (दे २।४०)। कराइ-सीमान्तवर्ती राजा-'पच्चंत णिवो कुराया' (निचू २ पृ ४६८) । कुरिण-बड़ा जंगल-'कुरिणमिव पोयाला जे मुक्का पव्वई मेत्ता'
(ओनि ४४६)। कुरिल-कुरल पक्षी (अंवि पृ २३७) । कुरुंडित-जासूस, चर (व्यभा १० टी प ७) । कुरुंडिय-जासूस, चर-'कुरुंडितो नाम उवचरओ' (व्यभा १० टी १८)। कुरुकया—पाद-प्रक्षालन (व्यभा ६ टी प २६) । कुरुकया-पाद-प्रक्षालन, शौचक्रिया (ओनि ३१८)। करकरिअ-कामासक्ति से उत्पन्न उत्कंठा, औत्सुक्य (दे २।४२) । कुरुग-माया (आवहाटी २ पृ १६) । कुरुचिल्ल–१ ग्रहण, उपादान । २ कुलीर, केकड़ा (दे २।४१) । करुच्च-अनिष्ट, अप्रिय (दे २।३६)। करुड-१ निपुण । २ निर्दय (दे २।६३) । कुरुडक-पुष्प-विशेष (अंवि पृ ७०) । करुण--१ राजकीय अथवा अन्य खेत जिस में बीज बो दिए गए हों
(व्यभा ४११ टी प ८) । २ राजा का या दूसरे का धन । कुरुमाण-~म्लान (दे २।४०)।
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कुरुमुयाग - घर का एक उपकरण - 'उमरो कुरुमुयागं उक्खलं मुसलं वा' (आचू पृ ३६४) ।
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कुरुय - मायावी - णिदा वा सा पसंसा वा पप्पाति कुरुए जगे' ( इ ४।२० ) । कुरुल - १ निर्दय । २ निपुण । ३ कुटिलकेश, घुंघराले बाल (दे २।६३) । कुरुविंद - तृण - विशेष ( प्र ४१७ ) ।
कुरुविल्ल - केकड़ा ( पा ३०५ ) |
कुलत्थ - कुलथी, धान्य- विशेष ( जंबू २।३७ ) ।
कुलफंसण - कुलकलंक (दे २१४२ ) ।
कुलसंत- चुल्हा, चुल्ली (दे २४३६) ।
कुलिंगवच्छा-चींटी के सदृश जीव- विशेष (भटी पृ १३८९ ) ।
कुलिच्चग – क्रूर (दश्रुचू प २४) ।
-
कुलित - घास काटने के लिए दो हाथ प्रमाण का छोटा काठ जिसके अंत लोहे की दंती लगी रहती है - 'कुलितं णाम सुरट्ठाविसते दुहत्थप्पमाणं कट्ठ, तस्स अंते अयकीलगा, तेसु एगायओ एगाहारो य लोहपट्टी अडिज्जति, सो जावतियं दोव्वादि तणं तं सव्वं छिदंतो गच्छति ( निचू १ पृ ३१) ।
कुलिय -- खेत में घास काटने का छोटा काष्ठ ( निभा ६० ) । देखें कुलित कुलीयंधक - आभूषण - विशेष (अंबि पृ १८३ ) |
कुल्ल - १ नितंब ( उसुटी प १३० ) । २ ग्रीवा, गला । ३ असमर्थ । ' ४ छिन्नपुच्छ, जिसकी पूंछ कट गई हो वह (दे २१६१ ) ।
कुल्लग – कुल्हा, पुतभाग ( निचू ३ पृ ३२३) । कुल्लड - - १ चुल्ली । २ छोटा पात्र ( दे २।६३) । कुल्लडय -- कुलडी, छोटा बरतन ( पा ७३६) । कुल्लfset - मिट्टी का खिलौना ( सूटी १ प ११८ ) । कुल्लरिअ - हलवाई, मिठाई बनाने वाला ( दे २॥४१) । कुल्लरिका - एक प्रकार की मिठाई ( प्रसाठी प ५१ ) । कुल्लुरी - खाद्य - विशेष ( प्रसाटी प ५६ ) कुले'र (गुज ) । कुल्लूरिक - हलवाई ( आवहाटी १५१८३ ) ।
कुल्ह -- शृगाल (दे २।३४) ।
कुवण - यष्टि, लाठी- 'कुवण त्ति लउडगो' (निचू ३ पृ ५०१ ) । कुवणय - यष्टि, लाठी ( बृभा ε१५ ) ।
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कुविक - हीन अवयव वाला (अंवि पृ १५३) ।
कुव्वर - खप्पर ( आवचू २ पृ २४७ ) 1
कुसण - १ गोरस । २ पानक, मूंग की दाल आदि का पानी - कुसणं गोरसं पाणगं वा' (आचू पृ २५० ) । ३ तीमन, कढी आदि व्यञ्जन (पिनि २०२; दे २/३५) । ४ गोरस से बना हुआ करंबा आदि खाद्य ( पनि २८२ ) ।
कुसत्त - आस्तरण- विशेष ( ज्ञा १|१|१८ ) ।
कुसी - कृमि की एक जाति (अंवि पृ ७० ) । कुसुंभिल - - पिशुन, चुगलखोर (दे २।४० ) । कुसुकुंडी - मधुर सुरा - विशेष (अंवि पृ २२१) ।
कुसुण- दही आदि (पिनि ६०७ ) ।
कुसुणित - गोरस से बना हुआ करंबा आदि खाद्य - - 'कुसुणितमपि करंबादिरूपतया कृतमपि' (पिटी प ६१ ) ।
कुसुमण्ण-कुंकुम ( दे २।४१) । कुसुमाल - चोर (दे २ १० ) ।
कुसुमालिअ -- अन्यमनस्क (दे २।४२) ।
कुहंडिय-- ताला लगाना, ढकना - सा घरे छोढूणं बाहिरि कुहंडिया' ( आवहाटी १ पृ १५० )
कुहड - कुब्ज, कूबड़ा ( पंव = ३२; दे २।३६) ।
कुहणय - कुहन वनस्पति का एक प्रकार ( प्रज्ञा १।४७ ) ।
कुहव्वय - कन्द - विशेष ( उ ३६।६७ ) ।
कुहाड - कुल्हाड़ी, फरसा (निचू २ पृ ५) ।
कुहावणा - - बहुरूपिये की वृत्ति से अर्थार्जन करना - वट्टादि इंदजालं, खेड्डा कुहावना एसा' (जीभा १७२१) ।
१.१६
कुहिअ - लिप्त, पोता हुआ (दे २।३५) ।
कुहिणी - १ कोहनी, कूर्पर । २ रथ्या, गली (दे २।६२) ।
कुहिय - वायु- विशेष, दौड़ते हुए अश्व के उदर- प्रदेश के पास उत्पन्न होने वाला एक प्रकार का वायु- घणगज्जिय-हयकुहियं विज्जू दुग्गेज्झ गूढहियआओ' (ग ६५)।
कुहुण - वनस्पति- विशेष (भ २३ | ४ ) ।
कुहेड - - १ चमत्कार, मंत्र-तंत्र के द्वारा झूठा चमत्कार ( उसुटी प २७१) २ गुरेटक, एक प्रकार का हर्रे का गाछ (दे २।३५) ।
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१२०
कुहेडग ---१ अदरक (प्रसः २१० ) । २ अजवायन । कूइय - दुग्ध - वराटिका, खोआ, मावा ( आवटि प १३ ) । कूचित - छेना, भोज्य पदार्थ विशेष (अंवि पृ २२०) । कूचिया - छेना (नंदीटि पृ १८२) । कूड-जाल, फंदा (बृभा २३६० ; दे २।४३) । कूडाहच्च – कुचल कर मारना (भ ७२०२) । कूणिअ-ईषद् विकसित ( दे २०४४ ) |
कूभंड- बड़ा फल, कुम्हडा (अंवि पृ २३१) |
कूभंडग - कुम्हडा, कुष्मांडक (अंवि पृ २३९) ।
कमंडी - वल्ली - विशेष (अंवि पृ७० ) ।
2
कूय - जहाज का मध्य-स्तंभ जहां पाल बांधा जाता है ( निचू १ पृ ७४) । २ कुतुप, तैल-भाजन ( ज्ञाटी प ६३) ।
कूर - थोड़ा (प्रा २।१२६) ।
कूरउंडिया - --खाद्य-विशेष (आवचू २ पृ ६९ ) । कूरओडिया- - खाद्य विशेष (आवहाटी २ पृ८८ ) ।
कूरखोट्ट - ओदन का भोजन (ओटी पृ ३७९) ।
कूल - १ तिनका-' इतरोवि य तं नेड्डं घेत्तूणं पादवस्स सिहराओ । कूलं एक्केक्कं अंछिऊण तो उज्झती कुवितो || (आवचू १ पृ ३४५) । २ सेना का पिछला भाग (दे २१४३ ) |
देशी शब्दकोश
कूव - १ चुराई हुई चीज को लाने वाला ( ज्ञा १।१६। २०९ ) । २ चुराई हुई वस्तु की खोज में जाना (दे २।६२ ) ।
कूवग्गाह – तैलपात्र को धारण करने वाला (भ ६ । २०४) ।
कूवल - - जघन - वस्त्र, अधोवस्त्र (दे २१४३ ) |
कूविय - १ चोर की खोज करने वाला - सुबहुस्स वि कूवियबलस्स आगयस्स दुप्पहंसा यावि होत्या ' ( ज्ञा १।१५।१८ ) । २ चुराई हुई वस्तु को खोजकर लाने वाला ( पिनि ११९ ) ।
कूवियत्त - मुक्तता ( दिलाना ) - जो कुणति कूवियत्तं, सो वण्णं कुणति तित्थस्स' ( निभा ३५१ ) ।
'कूविय' बल - १ मोष व्यावर्तक सेना ॥ २ चोरों की खोज करने वाली सेना ( ज्ञा १।१८।१८ ) |
कसार - गर्त, खड्डा (दे २/४४ ) |
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देशी शब्दकोश
केआरबाण-पलाश वृक्ष (दे २।४५) । केउ-कन्द, कांदा (दे २१४४)। केकर-ऐंचाताना, आंख का रोग, जिसमें आंख की पुतली ताकते समय दूसरी
तरफ खिची रहे (दअचू पृ १६७)। केचइ-वलय-वनस्पति-विशेष (प्रज्ञा ११४३)। केतरात-मुद्रा-विशेष, एक प्रकार का सिक्का (निचू ३ पृ १११) । केदकंदली-कन्द-विशेष (उ ३६।६७) । केद्दह–कितना-'केदह त्ति किंप्रमाणानि' (बृभा ७६८ टी)। केयण-१ माया। २ टेढ़ी वस्तु चंगेरी आदि-'छज्जिया-लेवणगंडो केयणं ति
भण्णति' (निचू ३ पृ १४६) । केयर-टेढ़े अंग वाला (कु पृ १३०) । केयवसक-फल-विशेष (अंवि प्र २३८) । केया-रज्जु, रस्सी (भ १३।१४६; दे २१४४) । केयाघडिया-रज्जु के प्रान्त से बंधी हुई घटिका
(भ १३।१।१ टी पृ ११५२)। केर--संबंधित वस्तु (प्रा ४।३५६) । केला--भांड-विशेष (अंवि ३०)। केली—कुलटा, व्यभिचारिणी स्त्री (दे २।४४) । केवग-कितना (निचू ३ पृ १०४) । केवडिय-१ पूर्वदेश में प्रचलित केतर' नाम का सिक्का (बृभा १९६६) ।
२ कितना (पंक १८०१) । केसुक-पलास (अंवि पृ २३९) । कोआसित-विकसित (जंबूटी प ११३) । कोइलच्छद-तैलकण्टक, वनस्पति-विशेष-'जो एत्थ कोइलच्छदो सो
तिलकंटओ भण्णइ' (प्रज्ञाटी प ३६२)। कोइला---कोयला (दे २।४६) । कोउआ-कंडे की अग्नि, करीषाग्नि (दे २०४८) । कोऊहल्लिल-कुतूहल करने वाला (ओटी पृ २१६) । कोंटक-तुष-'तुस त्ति कोंटको व त्ति कक्कुसो तप्पणो त्ति वा'
(अंवि पृ १०६)।
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१२२
कोंटल - १ शकुन आदि की सूचना ( ओभा २२१) । २ जादू-टोना
(दश्रुचू प ७६ ) ।
कोंटलय - १ ज्योतिष संबंधी सूचना । २ शकुन आदि निमित्त संबंधी सूचना - 'पउंजणे कोंटलयस्स य' (ओभा २२१) ।
कोंटलवेंटल - जादू-टोना - ' कोंटलवेंटलेण कार्मणवशीकरणादिना' ( आवहाटी १ पृ १२६ ) ।
कोंटि — शस्त्र - विशेष - कोंटि आभामिऊणं पहाविओ' ( कु पृ ४७)। कोंड - गोत्र - विशेष (अंवि पृ १४९ ) ।
कोंडइल - पक्षि-विशेष ( निचू ३ पृ २६०) ।
कोंडलिआ - १ कुत्ते को बींधने वाला जंतु - विशेष, साही (दे २।५० ) । २ कीट (वृ ) ।
कोंडल्लु —— उल्लू (दे २॥४६) ।
कोंडिअ - ग्रामनिवासी लोगों के संगठन को छिन्न-भिन्न कर छल-कपट से गांव की उपज का उपभोग करने वाला ग्राम-भोक्ता ( दे २१४८ ) । कोंढुल्लु — उल्लू (दे २१४९) ।
कोंतिय - १ तृण विशेष ( भ २१।१६ ) । २ शहद का एक प्रकार ( निचू २ पृ २३८ ) ।
कोक वृक विशेष (प्रटी प ९ ) ।
कोकंतिका – लोमड़ी (प्रटी प ९ ) ।
कोकंतिय – लोमड़ी - शृगालाकृति लमटक:' (आटी प ३३८ ) ।
देशी शब्दकोश
कोकंतिया - लोमड़ी (प्रज्ञा १/६६ ) |
कोकासित - विकसित ( जीव ३।५९६ ) । कोकासिय— विकसित ( प्र ४१७ ) ।
कोकि- मादा पक्षि- विशेष (अंवि पृ ६९ ) ।
कोक्कास - इस नाम का एक व्यक्ति जिसने यंत्रमय कापोत बनाकर शालि उत्पन्न की थी ( व्यभा ५ टीप २० ) ।
कोक्कासि - विकसित ( दे २५० ) ।
कोच्चप्प - झूठा हित ( दे २०४६ ) |
कोच्चित- शैक्ष, नया शिष्य- कोच्चितो नाम शैक्षक:' (व्यभा ६ टीप १४ ) । कोच्छ - गोत्र - विशेष (अंवि पृ १४९ ) ।
कोच्छर - दक्ष (दे २ । १३ पा ) |
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देशी शब्दकोश
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कोज्जक-कमल की एक जाति-इंदीवरं कोज्जकं ति पाडलं कंदलं ति वा'
(अंवि पृ ६३)। कोज्जन-पक्षि-विशेष (भटी पृ ११५३)। कोज्जप्प-स्त्री-रहस्य, स्त्री-चरित्र (दे २।४६) । कोज्झरिअ-आपूरित, भरा हुआ (दे २०५०)। कोटिंब-उडुप, नाव (निचू ३ पृ ३६४) । कोटेंभ-हाथ से आहत जल (पा ३२७) । कोट्ट-१ नगर (सूचू १ पृ १३८; दे २।४५) २ किला, दुर्ग (प्रटी प १७) ।।
३ आक्रमण-परबलकोटं च वट्टति' (निचू १ पृ८) । ४ फल पकाने का स्थान-'फलाणि व जत्थ पच्चंति तं कोटें' (निचू ३ पृ २१४) ।
५ क्रीडा । ६ दुर्गा (प्रटी प १७) । कोटुंब-गौड देश में बना वस्त्र-विशेष-कोटबानि गौडदेशोद्भवानि'
(व्यभा ७ टी प ७)। कोट्टकवास-वृक्ष-विशेष (अंवि पृ २३८) । कोट्टकिरिया-दुर्गा-कोट्टकिरिया महिषावरूढदुर्गा' (ज्ञाटी प १४६)। कोट्टग-१ चण्डाल-बस्ती (बृभा ६६३) । २ अटवी का वह स्थान जहां फलों
के ढेर किए जाते हैं (बृटी पृ २७६) । ३ हरे फलों को सुखाने का
स्थान-विशेष (निभा ४७३२) ४ बढ़ई (जीभा ४२६)। कोट्टज्जा---नगर की देवी (कु पृ ८३) । कोनी-महिष का व्यापादन करने के पश्चात् उस रूप में अवस्थित दुर्गा
देवी का एक नाम-'दुर्गा महिषव्यापादनकालात् प्रभृति तद्रूपस्थिता
कोट्टनी भण्णति' (अनुद्वाचू पृ १२) । कोद्रपाल-कोतवाल (प्रटी प ४६) । कोट्टर-पोला भाग-'अज्झुसिरो जत्थ कोट्टरं णत्थि' (निचू २ पृ १५२)। कोटा--१ गला, गर्दन-पच्छा तेण कोट्टाए गहिओ' (उसुटी प ५३)।
२ पार्वती (दे २।३५) । कोट्टाक-वर्धकी, बढ़ई (अंवि पृ १६०) । कोट्टाग--बढई, काष्ठतक्षक (आचूला ११२३) । कोट्रिब-१ गाय-'जह पढमपाउसम्मि, गोणो वातो उ हरितगतणस्स । अणुमज्जति (अणुसज्जति) कोटिंबं, वावण्णं दुब्भिगंधीयं ।'
(निभा ३५७८)। २ गोशाला, ऐसा स्थान जहां गायों के लिए खाद्य रखा जाता है
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देशी शब्दकोश
- कोटिंबे त्ति जत्थ गोभत्तं दिज्जति' (निचू ४ पृ १२२ ) । कोट्टिगे - गोशाला (कन्नड़) । ३ नौका (अंवि पृ १६६ ; दे २/४७ ) । कोबिया-नौका (आचू पृ ३५७) ।
कोबी - गाय - 'गोणी अणुसज्जति कोट्टिबि' (बृभा ५१५५) । कोट्टित - कूट कर पिंडीभूत किया हुआ (अंवि पृ २३९ ) । कोट्टिल्ल — छोटा मुद्गर - विशेष ( विपा १।६।२१) ।
कोट्टी- १ दुर्दोहा, दुहते समय जो हैरान करती है वह गाय या भैंस | २ स्खलना, भुल (दे २।६४) ।
१२४
कोट्टुभ - हाथ से आहत जल (दे २|४७) |
कोट्ठग-पाठशाला - क्रोष्टका नाम वट्टानां (चट्टानां ? ) शाला' ( व्यभा १० टी प ६६) ।
कोटिंब - नौका- 'उडुपे त्ति कोटिंबो' (निचू १ पृ ७० ) । कोठार:-धान्य का कोठा ( निभा १२८ ) । कोड - वृद्ध ( अवहाटी २ पृ ३१ ) । कोडय—- छोटा शराव (पा ७३९) । कोडग - पक्षि - विशेष ( औप ६ ) ।
कोडिअ - १ मिट्टी का छोटा पात्र, लघु शराव (दे २/४७) । २ दुर्जन ।
कोडित - दबा-दबाकर भरा हुआ (बृभा ४०११) ।
कोडिय -- दबा दबा कर भरा हुआ - 'कोडियं ति गाढचम्पितम् ' (बूटी पृ १०६८ ) ।
कोडिल्ल - पिशुन, चुगलखोर (दे २/४० ) ।
कोडुंब - १ प्रयोजन - कारणेसु य कोडुंबेसु य मंतेसु य रहस्सेसु य' (भ १८४० ) । २ कार्य (दे २।२) ।
कोड - १ स्पष्ट, प्रसिद्ध - दोन्हं भाउगाण एगा भज्जा लोगे कोड्डं दोण्ह वि समा' (आवहाटी १ पृ २८० ) । २ आश्चर्य, कुतूहल, जिज्ञासा ( उशाटी प १२७; दे २/३३ ) |
कोण
लकड़ी, यष्टि (जीभा ५०७ ) । २ श्याम वर्ण (दे २।४५) । ३ वीणा वादन - दंड - 'वेयालियवीणाए चंदणसारनिम्मियकोणपरिघट्टियाए' (राज १७३) । कोणयष्टि - कोणओ लगुडो भण्णति' ( निचू २ पृ ५) ।
कोण - रेखा (दे २।२६ ) ।
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देशी शब्दकोश
कोण्ण-- घर का कोना (दे २।४५) ।
कोण्हुय -- गीदड़ - 'चुक्को मंसं च मच्छं च कलुणं झायसि कोण्हुया !' ( आवहाटी १ पृ २३४) ।
कोतव - चूहों के रोओं से बना प्रावरण ( नि १७।१२) ।
कोत्तलंका – मद्य परोसने का पात्र - विशेष (दे २ । १४ ) - 'मयकोत्तलंकसउणं' (वृ) कोत्थ -- उदर- प्रदेश - गणियार कणेरुको त्यहत्थी - कोत्थं ति उदरदेशस्तत्र हस्तो यस्य कामक्रीडापरायणत्वात्' (ज्ञाटी प ७४) ।
१२५.
कोत्थकापल - थैला - पडलं कोत्थकापलं मंजूसा कट्टुभायणं' (अंवि पृ २७ ) । कोत्थर - १ कोटर, गह्वर - 'खोल्लं कोत्थरं ' ( निचू ३ पृ ५०० ) । २ विज्ञान, प्रज्ञा, कलाकौशल ( दे २।१३ ) ।
कोत्थल - १ कपड़े का थैला - 'जहा दुक्खं भरेजं जे होइ वायरस कोत्थलो' ( उ १६।४० ) । २ कुशूल, अनाज का कोठा (दे २०४८ ) । ३ कीट - विशेष, भौंरी ( प्रज्ञा १।५० ) ।
कोत्थलकारी - भौंरी, भ्रमरी (बृभा १७८७ ) । कोत्थलग - चमड़े की मशक, थैला (पिटी प १८ ) । कोत्थलगारी - भौंरी, कीट - विशेष ( पंव २७४) । कोत्थलय वस्त्र का थैला ( उसुटी प २७ ) | कोत्थलवाहग - त्रीन्द्रिय जंतु - विशेष ( जीवटी प ३२ ) । कोविया - क्षुद्र कीट - विशेष, मातृवाहा ( उसुटी प २३६) । कोद्दालक - वृक्ष - विशेष ( जीवटी प १४५ ) ।
कोनाली — गोष्ठी - 'कोनाली त्ति गोष्ठी' (बृभा २३६६ टी ) । कोप्प – १ कुए का पानी (अंवि पृ २६६ ) । २ अपराध (दे २१४५) ।
कोप्पर -१ सेना का पड़ाव, छावनी ( आवचू २ पृ १५५) । २ नदी का तट - 'णतिकोप्रो' (निचू १ पृ७२ ) ।
कोमुई – पूर्णिमा (दे २०४८ ) - कोमुइमाह च शाम्बो या काचित् पौर्णमासी स्यात्' (वृ) ।
कोमार — मिट्टी - कोमारा मट्टिया' (निचू २ पृ ४०७ ) ।
कोयर - (कोय ? ) - 'कोयव' देश में निष्पन्न वस्त्र ( निचू २ पृ ३६८ ) । कोयव -- रूई से भरा कपड़ा, रजाई (ज्ञा १।१७।२२ ) ।
कोयवग - १ रूई से भरे हुए कपड़े का बना हुआ प्रावरण- विशेष, रजाई ( निभा ४००२) । २ सिल्हक का सूता - कोयवगो वरक्को'
( निचू ३ पृ ३२१) ।
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कोयar -- रजाई (ज्ञा १।१७।२२) |
कोयवी- १ रूई की रजाई (जीभा १७७० ) । २ सिल्हक का सूता ( निभा ४००२) ।
देशी शब्दकोश
कोयहा - रजाई, रूई से भरे हुए कपड़े का बना प्रावरण ( आचूला ५। १४) । कोयासिय- विकसित ( औप १९ ) ।
कोरण - पात्र आदि का मुंह बांधना - भायणस्स मुहकोरणे णिक्कोरणे वा' ( निचू ३ पृ ४७२ ) ।
कोरिल्लय – पुराना, जीर्ण-शीर्ण - 'कोरिल्लएणं धणुणा कोरिल्लयाए जीवाए कोरिल्लएणं उसुणा' (राज ७५६ ) 1
कोल - ग्रीवा, गला ( सू ११५१६; दे २१४५) ।
कोलंब - १ पर्वत का अग्रभाग - गिरिकडकोलंब' (ज्ञा १1१८1१८ ) | २ पात्र विशेष - कटुकोलंबए इ वा ( अनु ३।३७; दे २/४७) | ३ गुफा का प्रान्त भाग ( विपा १।३।६ ) |
कोलक— वनस्पति - विशेष (अंवि पृ २३१) ।
कोलज्जा - नीचे गोल और ऊपर से खाई के आकार का धान्य- कोष्ठक ( आचूला १1८8 ) |
कोलथ-धान्य-विशेष (अंवि पृ २२० ) ।
कोलवाल - डोरा - 'मोत्तियं आइण्णंतो आगासे उक्खिवित्ता तहा णिक्खिवइ जहा कोलवाले पडइ' (आवहाटी १ पृ २८५ ) ।
कोलाहल - १ पक्षियों का कलरव (भ ७।११७; दे २।५०) ।
कोलिक - १ अधम जाति का
मनुष्य - "न व्यत्याम्रेडितं कोलिकपायसवत्' । २ मकड़ी, जाल का कीड़ा
)
(अनुद्वाहाटी पृ (अंवि पृ २३७ ) ।
कोलिज्जा - नीचे गोल और ऊपर खाई के आकार का धान्य-कोष्ठक ( आचूला १।८६ पा )
कोलित - तंतुवाय, जुलाहा (नंदीटि पृ १३६ ) । कोलित्त - अलात, अधजली लकड़ी (दे २/४६ ) |
कोलिय - - १ जुलाहा, तन्तुवाय ( नंदी ३८१६; दे २१६५) । वाला कीड़ा, मकड़ा (बृभा १७०७ ; दे २।२५) ।
कोलियग - जाल बनाने वाला कीड़ा, मकड़ा ( आवचू २ पृ ७२ ) । कोलियापुडग - मकड़ी का जाला - - कोलियापुडगो मक्कडसंताणओ' ( निचू २ पृ ४०७ ) ।
२ जाल बनाने
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देशी शब्दकोश
कोली - मकड़ी (अंवि पृ ६९ ) । कोलीर - हिंगुल, कुरुविन्द ( दे २/४६ ) । कोलेज्जय-नीचे गोल और ऊपर खाई के आकार का धान्य- कोष्ठक (आचू पृ ३३६) ।
कोलेज्जा - नीचे से वृत्त और ऊपर से खाई के आकार का धान्य भरने का कोठा (आचूला ११८६ पा ) |
। २ कोयला ( निचू १ ) |
कोल्ल - १ शृगाल ( निभा १३४९ ) कोल्लर - १ हौदा (भटी पृ ७३० ) दे २।४७) ।
कोल्लु - कोल्हू (बृभा ५७५) । कोल्लुक -- कोल्हू (बृटी पृ १६७ ) ।
कोल्लुग - सियार - 'कोल्लुगा णाम सिगाला' (निचू २ पृ १७९) ।
कोल्हाहल -- कुन्दरुन का फल, बिंबीफल ( दे पहिआ कोल्हाहलाइ चुण्टन्ति' (वृ ) ।
। २ पिठर, स्थाली ( औपटी पृ ११२;
कोविआ— शृगाली (दे २१४६ ) |
कोविडाल -- वृक्ष - विशेष (अंवि पृ ६३ ) ।
कोविराल - वृक्ष की एक जाति (अंवि पृ ६३ ) ।
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कोल्हुक - गीदड़ ( आवचू १ पृ ४६५) । कोल्हुग - १ कोल्हू (निचू ४ पृ ४३५) । २ सियार ( उसुटी प १८६ ) । कोल्हूय - १ शृगाल, सियार ( उसुटी प १८६; दे २२६५) । २ कोल्हू, चरखी (दे २।६५) ।
२१३६ ) - ' दट्ठ कुंदी रोट्ठि
कोवीण - एक प्रकार का कल्पवृक्ष जो आभरण देता है ( ति ५६ ) । कोस - १ अंगुलियों एवं अंगुष्ठ को आच्छादित करने वाला जूता (निचू २ पृ८७) । २ कुसुंभ रंग से रंगा हुआ वस्त्र । ३ समुद्र (दे २।६५) ।
कोसग - १ उपकरण विशेष (जीभा १७७२ ) । २ नाखूनों की सुरक्षा के लिए अंगूठे और अंगुलियों को आच्छादित करने वाला उपकरण'कोसग नहरक्खट्ठा' (बृभा २८८५) ।
कोसट्ट - आवरण, कोश - " रुहिरे उप्पन्ना किमितो तत्थेव मलेत्ता को सट्टं उत्तरेत्ता' (अनुद्वाचू पृ १५) ।
को सट्टइरिआ - चंडी, पार्वती (दे २।३५) ।
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देशी शब्दकोश कोसय-लघु शराव (दे २।४७) । कोसल--नीवी (दे २।३८)। कोसलिअ-भेंट, उपहार (दे २।१२) । कोसलिआ-भेंट (दे २।१२ वृ)। कोसल्ल-उपहार, भेंट-'तं पुरजणकोसल्लं, नरवइणा अप्पियं कुमारस्स'
(उसुटी प ८६) । कोसल्लिअ-भेंट, उपहार (दे २।१२ वृ)। कोसेज्जा-टसर, सूती वस्त्र-कोसेज्जा वडओ भण्णति'
(निचू २ पृ६८; दे २।३३)। कोहलिआ कुष्मांडी, कोहंडा का गाछ (पा ३७२) । कोहल्ली-तापिका, तवा (दे २१४६) । कोहिल्ल-क्रोधी (ओटी पृ २१६) ।
खइय-स्वभाव (स्थाटी प २६२)। खइव स्वभाव-खइव त्ति संवेगशून्यधर्मकथनलक्षणो हेवाक: स्वभावो यस्यां
सा तथा' (स्थाटी प २६२) । खउर–१ तापसों का पात्र-विशेष (बृभा ३४५) । २ खैर आदि का गोंद
(निचू ४ पृ ६७)। ३ नीच-असूयपुत्ता ! खउरपुत्ता ! सुट्ठ अक्कोसामि' (आवहाटी १ पृ १४१)। ४ कलुषित-'दरदट्ठविवण्ण
विदुमरअक्खउरा' (से ५।४७) । ५ व्याप्त (से ६।११)। खउरकढिणय-तापसों का उपकरण-विशेष, जो बांस, शुम्ब आदि द्रव्यों को
अत्यंत कूट-पीसकर कमठ के आकार का बनाया जाता है। उसको बिल्व और भिलावे के रस से लिप्त कर देने पर
उसमें से पानी भी परिस्रवित नहीं होता (नंदीटि पृ१०५)। खउरल्लिय-कलुषित, लिप्त (जीभा ७०५)। खउरित-निर्भत्सित, तिरस्कृत-'खउरिता खरंटिता रोषेणेत्यर्थः'
(निचू २ पृ २६२)। खउरिय-१ कलुषित (बृभा ३७३०) । २ मुण्डित । ३ धवलित
(से १०।४३)।
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देशी शब्दकोश
खउस -- एक प्रकार का जूता (निचू २ पृ १० ) ।
खंजण – १ कज्जल - 'खञ्जनं दीपादीनाम्' ( स्थाटी प २०८ ) । २ गाड़ी के पहिए के भीतर का काला कीच (प्रज्ञाटी प ५२५) । ३ कर्दम, पंक (दे २।६९) ।
खंजर - शुष्क वृक्ष (दे २।६८ ) |
खंड - १ मुंड । २ मदिरा-पात्र (दे २७८ ) । खंडई - असती, कुलटा (दे २।६७ ) |
खंडरक्ख - १ शुल्कपाल, चुंगी वसूल करने वाला ( बुभा ३४९६) । ३ कोतवाल (प्रटी प ४६)। खंडिय - १ स्तुतिपाठक (भ ६२०८; दे २७८ ) । २ विद्यार्थी ( उ १२।३० ) । ३ जिसका निषेध न किया जा सके वह (दे २१७८ ) ।
( प्र ३ । ३ ) । २ घुमक्कड़
खंडियग-भाट, विरुद - पाठक ( ज्ञा १ । १ । १४३) ।
खंडी - १ किले का छिद्र ( ज्ञा १।२ । ११ ) । २ छोटा द्वार ( विपा १।३।६ ) खंडो - भोजन से संबंधित रोग - विशेष (अंवि पृ २०३) ।
खंत - १ पिता (पिनि ४३२ ) । २ वृद्ध ( दअचू पृ ४१) ।
खंतंग - पिता (निचू ४ पृ १२३) । खंतय - पिता ( उसुटी प २४) । खंतिग-पिता ( निभा ४३६६ ) । खंतिगा - माता ( निचू ४ पृ १२३) । खंतिया - माता ( षिनि ४३० ) । खंती - माता, जननी ( पिनि ४३१) ।
खंध - १ प्राकार । २ पीठ । ३ घर ( निचू ३ पृ ३७९ ) । ४ दीवार (आचू पृ ३३९ ) ।
खंधग्गि — स्थूल काष्ठ की अग्नि (व्यभा ३ टीप ७; दे २|७० ) ।
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खंधमंस - बाहु, भुजा (दे २।७१) ।
खंधयट्ठि - बाहु, भुजा (दे २|७१ ) |
खंधोधार - :- अत्यन्त उष्ण जल की धारा (दे २|७२)।
खंस – १ ललाट का आभूषण बनाने वाला (अंवि पृ १६० ) । २ कर्माजीवी (अंवि पृ १६० ) ।
खक्खर–१ घोड़े को संत्रस्त करने का साधन - हन्टर, चाबुक आदि । २ टूटे
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१३०
देशी शब्दकोश
हुए बांस का टुकड़ा ( विपा १।२।१४ टी ) । ३ खखर् आवाज ( आवहाटी १ पृ २८३) ।
खग्गअ - गांव का मुखिया (दे २२६९ ) ।
खग्गूड- -१ निद्रालु ( बृभा १५४३ ) । २ रसलोलुप ( निभा ४४९२ ) । ३ धूर्त्त - सदृश - 'खग्गूडो शठप्रायो भवेत्' । ४ नास्तिक - 'खग्गूडत्ति निर्धर्मप्रायाः' (ओटी प ४४) । ५ उच्छृंखल, स्वच्छंद ( व्यभा ४ | ३ टी प २३) ।
खघाणस - गोत्र - विशेष (अंवि पृ १५० ) । खच्चल्ल -- भालू, रींछ (दे २।६९) ।
खच्चोल - व्याघ्र, बाघ (दे २।६९ ) । खज्जग-जीर्ण (आचू पृ ३२९ ) ।
खज्जिअ - १ जीर्ण । २ उपालब्ध (दे २७८ ) ।
खज्जोअ --नक्षत्र (दे २।६६) |
खट्ट - १ खट्टा ( जीव १।६५ ) । २ खाट ( आवहाटी १ पृ २३६ ) । ३ तीमन (दे २१६७) ।
खट्टंग - छाया (दे २६८ ) ।
खट्टकि- कसाई (निचू ३ पृ २७१) ।
खट्टक्क - कसाई ( दे २।७०) ।
खड - १ तृण, घास - 'जह अग्गिम्मि वि पबले खडपूलिय खिप्पमेव झामेइ' (म २६२ ; दे २/६७ ) २ म्लेच्छ जाति - विशेष ।
खडइअ - संकुचित (दे २|७२) ।
astreet - खिड़की, छोटा द्वार (ओटी प १९८ ) ।
astraar - खिड़की, छोटा द्वार - 'तओ अज्जा खडक्कियाए नयरं पविट्ठा' ( उसुटी प १४१ ) । खडक्की - लघुद्वार, खिड़की (दे २७१) ।
खडखड ---खट्खट् की आवाज (निचू १ पृ १२ ) । खडखडग — छोटा और लंबा ( जीव ३। १६२ पा) ।
खडपूयय - घास का पूला (व्यभा ३ टी प १७ ) । खडपूलग- - घास का पूला - " तेहि य ते दंता खडपूलगेहिं गोविता' ( निचू ४ पृ ३६१ )
। खडपूलय - तृण का पूला- 'तेण तीसे सिंगे खडपूलओ बद्धो ' ( विभाकोटी पृ ४१८ ) ।
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देशी शब्दकोश
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खडफडा--हलचल-किं एवट्टाए खडफडाए' (आवचू २ पृ १३) । खडय-टक्कर-'ते भीता.""खडयं देज्जा' (निचू ३ पृ ३४५) । खडयप्पयाण-दौड़ना (जीविप पृ ३४)। खडहड-गीले गुड का एक प्रकार-'फाणिओ गुलो भण्णति, सो दुविहो
छिड्डगुडो खडहडो य' (निचू २ पृ २३८) । खडहडअ-खड-खड की आवाज-'चालियमहल्लघंटाखडहडओ कोट्टज्जाघरेसु'
(कु पृ८३)। खडहडग–१ छोटा और लंबा (जीव ३।२६२) । २ गिलहरी (ति ३१). खडहडी-गिलहरी (दे २१७२) । खडियाचुप्पडिया-जादू-टोना-'कुंटलविंटलं नाम खडियाचुप्पडियादि'
(आवमटी प २७०)। खडुआ–१ मोती (दे २०६८) । २ कंकड (?) (कु पृ ४१) । खडुक्का-मुंड सिर पर अंगुली का आघात, ठुनकाना, 'ठोला' मारना
(व्यभा १ टी प १३) । खड़ग-१ मुंड मस्तक पर अंगुली का प्रहार (निचू ४ पृ ३१२)। २ हाथ
का आभूषण (अवि पृ ६४)। खडुहा-ठोकर, आघात-कण्णामोड-खडुहा-चवेडादी' (जीभा २३७६)। खड्ड--१ श्मश्रु, दाढीमूंछ (दे २।६६) । २ बड़ा, महान् । ३ गर्त के आकार
वाला । खड्डग --बड़ा-'खड्डगच्छगलमहिससूगरादिषु' (सूचू २ पृ ३५६) । खड्डय-गर्त (आवचू २ पृ ७२)। खड्डा-१ गर्त के आकार वाला (उपा २।२१)। २ गत-'जारिसियाओ
इच्छिज्जति तारिसा खड्डा खणंति' (आवचू १ पृ ८१)। ३ खानि, आकर (दे २।६६) । ४ पर्वत का गर्त-'खड्डा-खानिः। पर्वतखातमि
त्यन्ये' (वृ)। खडिअ—मत्त, उन्मत्त (दे २॥६७)। खड्डुग—मुद्रारल, राजमुद्रा से अंकित अंगूठी (आवचू १ पृ ५४६) । खड्ड्य -बालक (अनुद्वाहाटी पृ ११)। खड्ड्या -आघात, मुंड मस्तक पर अंगुली का प्रहार-'खड्डुया मे चवेडा में'
(उ ११३८)। खणय-सेंध- रत्ति खणो णीहिति' (आवचू १ पृ ३१३) ।
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देशी शब्दकोश खणि-खाली, रिक्त-भायणाणि खणीकरेंतीए दोसीण छड्डेउकामाए'
(आवचू १ पृ ३००)। खणसा-मानसिक दुःख (दे २०६८)। खण्ण-१ सेंध-'चोरो खण्णमुहेण पविट्ठो' (दअचू पृ ८४)। २ संपूर्ण रूप से
लुंटित, त्रस्त-'खण्णा इति देशीपदमेतत् सर्वात्मना लूषिताः' . - (व्यभा ३ टी प ७७) ३ खोदा हुआ (दे २।६६) । खण्णवाय-- खनन-विद्या (कु पृ १०४) । खण्णुअ-१ स्थाणु (ज्ञा ११२१६) । २ कीलक, खूटी (दे २।६८)। खतय-राहु का नाम-'राहुस्स णं देवस्स नव नामधेज्जा पण्णत्ता, तं जहा
सिंघाडए जडिलए खतए खरए...' (भ १२।१२३)। खत्त-१ खाई, परिखा (भ १३१८६) । २ गोबर-विशेष (पिनि १३) ।
३ सेंध, चोरी के लिए दीवार में किया जाने वाला छेद
(दअचू पृ २७) । ४ खोदा हुआ (नंदीटि पृ १३३; दे २।६६)। खत्तपक-सिक्का-विशेष-'काहापणो खत्तपको पुराणो त्ति' (अंवि पृ ६६) । खत्तय-१ ग्रह-विशेष, राहु (भ १२।१२३ पा) । २ सेंध लगाकर चोरी करने
वाला । ३ खेत खोदने वाला। ख़त्तोदय-गोबर का पानी (भ १५॥१८६)। खत्थ-विमना, झंझलाया हुआ-'स खत्थो भणति-मए पुव्वं भणितं'
(दअचू पृ २७)। खदुया-कंकड (?) (कु पृ ४१) । खद्ध--१ शीघ्र (आचूला ११४६) । २ प्रचुर-'जस्स जस्स इच्छइ तस्स तस्स
खद्धं-खद्धं दलयइ' । ३ उच्च, उद्धततापूर्वक (सम ३३॥१)। ४ भुक्त, ___ भक्षित (ओनि १५२; दे २।६७)। ५ विशाल (ओनि ३०८) । खद्धं-खद्धं-१ त्वरित । २ बहुत (आचूला ११४६) । खद्धादाणिय-धनी-'खद्धि आदाणि जेसु गिहेसु ते खद्धादाणियगिहा
ईश्वरगृहा' (निचू ३ पृ १४७)। खद्धाययण-बड़े-बड़े ग्रास लेना (प्रसाटी प ३३)। खन्न--१ मत्स्य की एक जाति (जीव ३।७८१)। २ खोदा हुआ (पा ७०३) । खपल्लापाडण-रूक्ष पदार्थ विशेष (अंवि पृ १०६)। खपुसा-१ शीत, कंटक आदि से पैर की सुरक्षा करने वाला जूता-'हिमाऽहि
कंटाइसू उ खपुसादी' (बृभा २८८५) । २ टखने को ढकने वाला जूता-'या घुटकं पिदधाति सा खपुसा' (निचू २ पृ ८७)।
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देशी शब्दकोश
खप्पर: -- रूक्ष (दे २/६६ ) ।
खप्पुर - रूक्ष (दे २।६६ वृ) ।
खफुट्ट - रूक्ष पदार्थ - विशेष (अंवि पृ १०६) ।
खम्मक्खम- १ संग्राम । २ मानसिक दुःख ( दे २७६ ) । ३ विशेष मनोदुःख, पश्चात्ताप के साथ निःश्वास छोड़ना - ' खम्मक्खमो संग्रामो मनोदुःखं च । मनोदुःखविशेषोऽनुशय निःश्वसित मित्यन्ये ' ( वृ)
खयक्का - कीलक, खेर का कांटा - सो खंतो पाए खयक्काए विद्धो' ( उशाटी प ८५) ।
खर- १ तेल- किं देमि त्ति नरवई, तुब्भं खरमक्खिया दुचक्कि त्ति' ( बृभा ४६८ ) । २ दास (बृभा ३३७७) । ३ घास - विशेष (व्यभा ८ टीप ५) ।
खरंट - १ उपालंभ ( निभा ५४०९ ) । २ चिपका हुआ - खरंटो उ जो मलो तं कम भण्णति' (निचू २ पृ २२१) । ३ तिरस्कार ( निचू ३ पृ ४९७ ) ।
: खरंटणा - निर्भर्त्सना - धी मुंडिओ दुरप्पा, धिरत्थु मुक्कोसि खरंटणा एसा' ( निभा ४७५६ ) ।
खरंटिय— तिरस्कृत ( निचू २ पृ ५२ ) ।
खरग – कर्मकर, नौकर (निचू ३ पृ २४५) ।
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. खरड --१ हाथी की पीठ पर बिछाया जाने वाला आस्तरण - विशेष - 'हस्तिनः पृष्ठे यदास्तीर्यते खरड : ' ( प्रसा ६५० टी) । २ विकलांग
(अंवि पृ १५२ ) । ३ रोग - विशेष (अंवि पृ २०३ ) |
खरडग - प्रावरण- विशेष (निचू २ पृ ४०० ) ।
खरडिअ - १ रूक्ष । २ भग्न ( दे २७९ ) ।
खरण - बबूल की कण्टकमय डाली - ' खरकटं - बब्बूलादिडालं खरणमिति लोके यदुच्यते' (स्थाटी प २३६) ।
खरत - १ दास, नौकर ( बृचू प १४२ ) । २ इस नाम का एक वैद्य - 'तस्स य मित्तो खरतो नाम वेज्जो' (आवमटी प २६७ ) ।
खरमुहि- - वाद्य विशेष (भ ६।१८२) ।
खरय - १ राहु का एक नाम (भ १२।१२३) । २ दास ( निभा ४०५० ) । ३ कर्मकर, नौकर (ओनि ४४० ) ।
खरहिअ - पत्र (दे २१७२) । खरिअ - भुक्त (दे २।६७) ।
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देशी शब्दकोश
रिसुय--कंद-विशेष (प्रसा २३८) । खरिगा-दासी (निभा ३६६५) । खरिमुही-नपुंसक दासी (व्यभा ६ टी प १७) । खरियत्ता-वेश्या के रूप में-.....रायगिहे नगरे बाहिं खरियत्ताए उववज्जि--
हिति' (भ १५॥१८६) । खरियमुही-नपुंसक दासी (व्यमा ६ टी प १८) । खरिया-१ दासी (बृभा २५१७) । २ वेश्या । खरी- दासी (बृभा ३३७७)। खरुल्ल-१ कठिन । २ स्थपुट, विषमोन्नत (दे २१७८)। खलइअ-खाली, रिक्त (दे २१७१)। खलक-शरीर का अवयव विशेष-'घूरीयाओ त्ति जंघाः खलका वा'
(सूटी प ३२३) । २ खलिहान, धान्य साफ करने का स्थान
(ज्ञाटी प १२६)। ३ पानक (अंवि पृ ६४) । खलखल---चूड़ियों की आवाज (उशाटी प ३०३) । खलखलाविय-क्षुब्ध होना, लड़खड़ाते चलना (आवचू २ पृ १४)। खलखिल-निर्जीव-'खलखिलं निर्जीवमित्यर्थः' (व्यभा ६ टी प ६६) । खलग-मांस सुखाने का स्थान-'खलगं जत्थ मंसं सोसंति' (निभा ३४८१), खलगंडिअ-मत्त (दे २।६७ वृ) ।। खलय-पुंज, राशि, ढेर-मच्छखलए करेंति-मत्स्यपुञ्जान् कुर्वन्ति'
(विपाटी प८१) २ खलिहान-निद्धन्नयं च खलयं, पुप्फेहि विवज्जियं च आराम' (तंदु १६६) । ३ स्थान-'जूयखलयाणि य
पाणागाराणि य' (ज्ञा १।२।११)। खलयारिय-तिरस्कृत-'डिभेहिं मुणिउ ति काऊण खलयारिओ'
(आवहाटी १ पृ १४३) । खलहल-चूड़ियों का आपस के आघात से होने वाला 'खल-खल' शब्द
(उसुटी' प १४१)। खलाविय-नुकसान किया, हानि पहुंचाई (आवचू १ पृ ४६३)। खली-तिल-पिण्डिका, खली, तेल रहित तिलों की सीठी (दे २१६६) । खलुंक-१ अविनीत बैल । (स्थाटी प २४८) ! २ अविनीत शिष्य
(उ २७।१५)। खलंकिज्ज-१ अविनीत बैल संबंधी । २ उत्तराध्ययन सूत्र का सताइसवें
अध्ययन का नाम (उ २७) ।
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देशी शब्दकोश
खलुंग - अविनीत बैल ( सूचू २ पृ ३५६) ।
खलुक्का - मुंड मस्तक पर अंगुली का प्रहार - खल्लाडसिरे खलुक्का दिण्णा' ( निचू ४ पृ ३१२) ।
खलुग - टखना ( निभा १४०२ ) ।
खलुय – गुल्फ, पांव का मणिबंध ( विपा १।६।२३ ) ।
खलुहय - टखना ( निचू २ पृ ६१) ।
खल्ल- -१ गढा (अनुद्वा ३६८ ) । २ बाड का छिद्र । ३ विलास (दे २।७७)। ४ धंसा हुआ, निम्न मध्य (दे १२३८ ) । ५ खाली, रिक्त ।
खल्लइअ - १ संकुचित । २ प्रकृष्ट (दे २७९ ) । खल्लग- -१ चमड़े का थैला ( जीभा १७७२ ) । २ पत्रपुट, दोना ( निचू ३ पृ ४३ ) ३ जूता ( निचू २ पृ ८७) । -१ पत्र - पुट, दोना ( बुभा २७१४) । २ जूता - विशेष ( निचू २८८ ) ।
खल्लर - १ छोटी तलाई - 'खल्लर - खिल्लूर - छिल्लर शब्दा देश्या एकार्थका: ' (दअचू पृ ८ ) । २ पाल - 'खल्लरं बद्ध' (अनुद्वाहाटी पृ २९ ) । -खल्ला - १ खाल, चमड़ा (भटी पृ १२८२; दे २।६६ ) | २ जूता ( निचू २ पृ ८७ ) । खल्ला (राज) ।
खल्लित -- टखने तक पहना जाने वाला जूता ( दहाटी प ६६) । खल्लि संकेत ( दे २७० ) ।
खल्ली - गंजा सिर-सा खहली उण्हेण डज्झति' (उशाटी प १६५) ।
खल्लय
खल्लीड - गंजा, खल्वाट (आवचू १ पृ ४२३) ।
खल्लूड - कंद - विशेष ( जीव १ / ७३ पा ) ।
खल्लूडक — कंद - विशेष - 'खल्लूडकाः - कन्दभेदा:' ( प्रसाटी प ५७) । खव- - १ बायां हाथ । २ गधा (दे २१७७ ) |
खवअ - कंधा (दे २।६७ ) ।
खवडिअ - स्खलित (दे २१७१) ।
खवलिअ - १ आमंत्रित । २ कुपित - किह अकाले मच्चू खवलिओ' (आवचू १ पृ २३३; दे २|७२) ।
खवल्ल- - मत्स्य की जाति- विशेष (प्रज्ञा १।५६ ) ।
खसा - टखने तक पहना जानेवाला जूता - खवुसा उ खलुगमेत्तं' ( निभा ६१८ ) ।
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खव्व–१ बायां हाथ । २ गधा (दे २।७७) । खव्वुल्ल-मुख (दे २०६८)। खसर-रोग-विशेष, खुजली (जंबू २।१३३)। खस्सिअ-टखनों तक पहना जाने वाला जूता-'उवरितला मे फुटंति ।
खस्सिताओ से कतामो' (दअचू पृ ४१)। खाइ--१ वाक्यालंकार में प्रयुक्त अव्यय। २ पुनः अर्थ का सूचक अव्यय- से _ कहिं खाइ णं भंते ! सिद्धा परिवसंति ?' (औप १९२) । ३ परिखा
(आवचू १ पृ ३६)। खाइआ-१ परिखा (दे २।७३) । खाई-वाक्यालंकार के रूप में प्रयुक्त अव्यय-से केणं खाइं अट्ठणं भंते !
एवं वुच्चइ' (भ १७२१) । खाइणं-वाक्यालंकार में प्रयुक्त अव्यस–'खाइणं ति देशी-भाषया वाक्यालंकारे'
(औपटी पृ २१८) । खाइया-खाई, खातिका (भ ५।१६६)। खाखटिका-सेवई आदि खाद्य पदार्थ-विशेष (अंवि पृ १८२)। खाडइअ-प्रतिफलित (दे २.७३) । खाडइला–गिलहरी, वह प्राणी जिसके शरीर पर काली और श्वेत धाराएं
होती हैं (नंदी ३८।४) । खाडलिल्ल-गिलहरी (प्रटी प १०) । खाडहिला-गिलहरी (प्र ११८)। खाडहिल्ला-गिलहरी (उपाटी पृ ६६) । खाडहेल्ला-गिलहरी (आवहाटी १ पृ २७८)। खात--१ भूमिगृह (निचू १ पृ ११४) । २ कूप, बावड़ी आदि
(आवटि प ५८)। खातिका-खाई, परिखा (प्र १।१४)। खातोदग-खुदे हुए जलाशय का पानी (भ १५॥१८६)। खायं--वाक्यालंकार में प्रयुक्त अव्यय-तो खायं अहमवि ओलग्गामि'
(बृटी पृ ५३) । खायर-खदिर वृक्ष सम्बंधी-'खायरो य सूलो""पादो छिज्जए'
(निचू १ पृ १६)। खार-गायों के विचरण करने का वह स्थान जहां तिक्त कुंतल आदि जलाए
जाते हैं, जिससे कि गायों के कीट-जन्य उपद्रव शांत हो जाएं
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'खारो जत्थ तित्तकुंतलया डज्झंति, गावीसु रमंतीसु मसगाई सरीराइ
उवसमणत्थं डझंति' (आचू पृ ३७०)। खारंफिडी-- गोधा, छिपकली (दे २१७३)। खारक --चतुष्पद प्राणी-विशेष (अंवि पृ ६६) । खारय–अर्ध विकसित फूल या कली (दे २।७३) । खारा--भुजपरिसर्पिणी (जीव २।६) । खारापक-राख-'छगणि छारिक्खारापको' (अंवि पृ २५४) । खालक-१ वृक्षवासी प्राणी-विशेष-'तत्थ वुक्खचरा विराला उंदुरा खालका'
(अंवि पृ २२६) । २ छोटा पशु-विशेष (अंवि पृ २२७) । खालग-चतुष्पद जंतु-विशेष (अंवि पृ २३८)। खाह-खांसी-खाहुत्थूभाउ कुणइ जत्तेणं' (बृभा २६२५) । खाहिया–खाई, परिखा (अनुद्वाहाटी पृ ७८) । खिखिणी-१ लघु घंटिका (आवचू १ पृ १८६) । २ शृगाली (दे २७४) । खिखिय-सियार की खि-खि आवाज (उशाटी प १२१)। खिग-उद्दण्ड (जीविप पृ ५२)। खिसणा-तिरस्कार (ओनि ७१५) । खिसा-निष्ठुर और निःस्नेह वचन, निंदा, अवहेलना-णिठ्ठरं णिण्हेहवयणं
खिसा' (निचू ३ पृ ६)। खिक्खिड-गिरगिट (दे २१७४) । खिखिरी-डोम आदि लोगों की चिह्नरूप लाठी जिसे देखकर लोग उनको
___ न छूने का परिज्ञान कर लेते हैं (दे २।७३)। खिच्च-खिचड़ी (दे १११३४)। खिज्जिय-१ रोष (ज्ञा १।६।४१) २ उपालम्भ (दे २१७४) । खित्तय--१ अनर्थ । २ दीप्त, प्रज्वलित (दे २७६)। खिल्ल-फोड़ा-फुसी (तंदु ११६) । खिल्लर-१ तलैया (निचू २ पृ ३०३) । २ चारों ओर गोलाकार पाल
(आवहाटी १ पृ ३७)।। खिल्लूर-छोटी तलाई-'खल्लर-खिल्लूर-छिल्लरशब्दा देश्या एकार्थकाः'
(दअचू पृ ८)। खिवल-(नौका को) खेना, आगे ले जाना-'खिवलं ढोक्कणं णयणं वा'
(आचू पृ ३५७) ।
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खीरपक-मिट्टी - विशेष (अंवि पृ २३३ ) |
खुइत - १ खांसना । २ छींकना - खुत्ति कतं तं खुइतं छीयं वा होति इह उ खुइतं तु' (जीभा ६०७ ) ।
खुखुणअ - नाक का छिद्र, नथुना (दे २१७६) ।
खुखुणक -- १ आभूषण - विशेष । २ वीणा - विशेष ( सूटी प ११६ ) । ३ टखना, गुल्फ - "खूंखुणका नाम घुघुरुकास्ते धावतां पततां भज्यन्ते' ( आवटि प २४ ) ।
खुंखुणग-गुल्फ, टखना - ' जाणूणि य फोडिज्जति अप्पेगइयाणं खुखुणगा भज्जति' (आवहाटी १ पृ १३७) ।
देशी शब्दकोश
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खंखुणी - गली मुहल्ला (दे २|७६ ) । खुंडय -- स्खलित (दे २।७१) ।
खुंडिय - अर्जित प्राप्त - वाणियएण छ रयणाणि खुंडियाणि' (दजिचू पृ १३) । खुपक- वर्षा को रोकने वाला पलास-पत्रों से बना हुआ उपकरण -' - कुडसीसगं पलासपत्रमयं खुम्पकम्' ( जीविप पृ ५० ) ।
खुंपा -- वर्षा के निवारण के लिए बनाया हुआ तृणमय उपकरण (दे २१७५) खुक्खुरक-- चमड़े का थैला ( आवटि प ५९ ) ।
खुखु – खु-खु शब्द, दौड़ते हुए घोड़े की आवाज - ' आसस्स धावमाणस्स 'खु-खु त्ति करेति' (भ १०।३९) ।
खुज्जा- - देश - विशेष की दासी ( ज्ञा १|१|८२ ) |
खुट्ट-- १ त्रुटित (दे २ । ७४) । २ न्यून, कम ( कु पृ २०९ ) ।
खुट्टिमा - गंधार स्वर की एक मूर्च्छना ( जीवटी प १९३) । खुडलग -- छोटा (निचू ४ पृ १४८ ) ।
खुडि-खंडित (से १३० ) ।
खुडिय- स्खलित ( आवहाटी २ पृ ४४) ।
खुड्ड – १ अधम, नीच (स्था ६।६८ ) । २ छोटा ( उ १६; दे २।७४) । ३ कामचेष्टा (निचू २ पृ २४) । ४ अंगूठी |
खुड्डत - हंसी मजाक करते हुए क्रीडा करना ( बुभा ४६३८ ) । खुड्डुक -- १ बालक (अंवि पृ १६९ ) । २ अंगूठी ( ज्ञाटी प ३० ) ।
खुडुग- - १ अप्राप्त वय वाले और काम करने में अयोग्य - 'खुड्डुग त्ति अप्राप्तवयसः अकर्मयोग्या वा ( सूचू १ पृ ८४) । २ लघु, छोटा (द ६।६ ) । ३ मुद्रिका, अंगूठी (आवहाटी २ पृ
१२१) ।
खुड्डुगुल - फाणित, गीला गुड़ (बुटी पृ ६६९)।
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देशी शब्दकोश
खुडुगुल्ल – गीला गुड़ - ' खुड्डगुल्लो त्ति फाणितं ' ( बृटी पृ ६९ ) । खुडुमुह - मधुरभाषी - खुड्डुमुहा संति इहं, जे कोविज्जा जिणवई पि' (बृभा २१३९) ।
खुड्डय - छोटा (आ ३।५७ ) |
खुड्डुल - छोटा (निचू ४ पृ १४६) ।
खुड्डुलग - १ छोटा (निचू ४ पृ १४८ ) । २ जंतु - विशेष (अंवि पृ२३८) । खुड्डुलय - छोटा (ओनि ६१ ) । खुड्डलिय- - स्वल्प (आवचू २ पृ २८८ ) । खुड्डाखुड्डि - अत्यंत छोटा (आचू पृ ३५२) । खुड्डाखुड्डिया - अत्यधिक छोटी (जंबूटी १ ४१ ) ।
खुड्डाग - १ लघु (भ ८ १८७ ) । २ अंगूठी (भटी पृ ८४३ ) |
खुड्डालजर - लघु पात्र, छोटा कुंडा ( जीव ३।७२६) । खुडिअ -मैथुन (दे २७५) ।
खुड्डित्ता - तोड़कर (भ १५।७४) ।
खुड्डिमा - गंधार स्वर की मूच्छंना (जंबूटी प ३८ ) । खुड्डिय - छोटा (राज ७७२) । खुड्डी - छोटी (निभा २३७७) । खुणक्खुडिआ- - नाक (दे २|७६) ।
खुण - मढ़ा हुआ, परिवेष्टित ( दे २|७५ ) ।
खुण्णय - नमित (भ । १६८ ) ।
खुत - भिन्न, खंडित - भावसबलो खुतायारो' (दश्रुचू प 8 ) ।
खुत्त - निमग्न, डूबा हुआ ( प्र ३ | १७; दे २०७४) ।
खुत्तग-निमग्न, फंसा हुआ ( औप १० )
खुत्थ - जीर्ण, खाया हुआ - 'कालेण वा खुत्थं परिजुण्णं' (निचू २ पृ ३१७) ।
खुदुग - छोटा (व्यभा ४।४ टीप ६० ) ।
खुम्मिय -- नमित (ज्ञा १ । १ । १०५ ) ।
खुरुखुरक - चमड़े का पात्र ( बूटी पृ ७७९ ) । खुरुडुक्खुडी -- प्रणय- कोप (दे २२७६ ) ।
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खुल- टखने के नीचे का भाग (अंवि पृ ११९) ।
खुलखेत्त - ऐसा क्षेत्र जहां कम भिक्षा मिलती हो या केवल रूखा आहार ही
मिलता हो ( बुभा १५५६) ।
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देशी शब्दकोश
खुलग-१ फोड़ा, फफोला (निभा १०५६) । २ गुल्फ (बृभा ४०८७) । खलत्त-वैसा गांव जहां पर्याप्त भिक्षा न मिलती हो अथवा घृत आदि पौष्टिक
द्रव्य न मिलते हों-'खुलत्तणं णाम मंदभिक्खं जत्थ वा घयादि
उवग्गहदव्वं न लब्भति' (निचू ४ पृ ३००) । खुला-- फोड़ा, फफोला (निचू २ पृ ११४)। खलुक-१ कीट-विशेष (अंवि पृ ६३) । २ कर्माजीवी-विशेष
(अंवि पृ १६०)। खुलुह-गुल्फ, टखना (दे २१७५) । खुल्ल-१ छोटा (निचू २ पृ ११५) । २ दो इन्द्रिय वाला जंतु-विशेष
'खुल्ला: लघवः शंखाः सामुद्रशंखाकारः' (जीवटी प ३१)। ३ कुटी
(दे २।७४)। खल्लक-द्वीन्द्रिय जंतु-विशेष (अंवि पृ २३७) । खुल्लय-कौड़ी-विशेष-'अप्पेगइयाणं खुल्लए अवहरइ' (ज्ञा १।१८।८) । खल्लिका-बिल में रहने वाला प्राणी-विशेष (अंवि पृ २२६) । खुल्लिरी-संकत (दे २।७०)। खुवअ--गंडुत् तृण के सदृश कंटकी-तृण (दे २।७५) । खुवग-दोना, पत्तों का पुडवा (व्यभा ४।२ टी प ८४) । खुव्वग-पत्तों का दोना, पुडवा (व्य २।२६)। खुव्वय-दोना, पत्तों का पुडवा (व्यभा ४।२ टी प ८४) । खुसिय-कुरेदा हुआ (निचू ३ पृ ५८७) । खण--१ न्यून, कमी-'किमेत्थ खूणं' (उसुटी प ६०)। २ अपराध-'तहाविहे - खूणे जाए' (उसुटी प १८६) । खेआलू--१ निःसह, अधीर, आलसी (दे २७७) । २ असहनशील-खेआलू
निःसहः । असहन इत्यन्ये' (वृ)। खेआल्य-असहनशील (पा ७०५)। खेड---मिट्टी के प्राकार वाला छोटा गांव (विपा ११११४६) । खेडिय-क्रम, वारी (विभाकोटी पृ ३३१) । खेड़खंड ... आसन-विशेष-'कट्ठच्छगणपीढं वा खेडुखंडं समंथणी' (अंवि पृ १७)। खेड्डु-१ खेल (प्रा २।१७४) । २ शस्त्र-विशेष (कु पृ १५०) । खेडा-क्रीडा (जीभा १७२१)। खेत्ताद—क्षिप्तचित्त (बृभा २७३१)।
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खेरि
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१ परिशाटन, बिखराव - रासी ऊणे दठ्ठे, सव्वं णीतं व धण्णखेरि वा ' ( बृभा ३३५७ ) । २ खेद, उद्वेग । ३ उत्कण्ठा । खेलूड - अनंतकाय-वनस्पति- विशेष (भ ७।६६) । खेल्लर - पाल (आवमटी प २ ) ।
खेल्लिय - हंसी-ठट्ठा (आवचू १ पृ ४५१; दे २|७६ ) | खेल्लड - कंद - विशेष ( प्रसा २३८ ) ।
खेवि - खिन्न ( उसुटी प २६४ ) ।
खोइय — विच्छेदित - 'संधी खोइया' (उसुटी प २६ ) ।
खोखर - चाबुक, त्राजन - 'खोखरेण पिट्टित्ता' (आवहाटी १ पृ १७४) । खोटन - खटखटाना, ठोकना (व्यभा८ टीप ४६ ) । खोट्टरिका - खंड, अंश ( आवटि प ६७ ) | खोट्टताखोरक, कटोरा - ' ते गता सुवण्णस्स खोट्टिताओ गहाय' ( नंदीटि पृ १३६) ।
खोट्टिया – खोरक, कटोरा - ' ते गहाय' (आवचू १ पृ ५५० ) ।
खोट्टी - दासी - किं वा कम्मं खोट्टिपुत्ताणं ? ' ( दअचू. पृ २७; दे २।७७)। खोड - १ प्रमार्जन, प्रतिलेखन का एक प्रकार (ओनि २६५) । २ लकड़ी का प्राकार (बृभा ११२३ ) । ३ प्रदेश, स्थान ( ओभा ७६ ) । ४ लकड़ी का बड़ा फलक (प्रटी प ५७) । ५ खूंटा ( आवचू २ पृ २२६ ) । ६ राजकुल में दातव्य द्रव्य, देखें - खोडभंग (व्यभा १ टीप १०) | ७ सीमा निर्धारक काष्ठ । खोडक- - खाद्य पदार्थ - विशेष, खाजा (अंवि पृ १८२) । खोडपज्जाली - स्थूल काष्ठ की अग्नि (दे २|७० ) ।
धार्मिक ८ खंज, लंगड़ा (दे 2150 ) ।
खोडभंग - राजकुल में दातव्य द्रव्य, बेगार तथा सैनिक आदि की भोजनव्यवस्था में राजा के द्वारा दी जाने वाली छूट - 'खोडं नाम जं रायकुलस्स हिरण्णादि दव्वं दायव्वं वेट्टिकरणं परं परिणयणं चारभडादियाण य चोल्लगादिप्पदाणं तस्स भंगो खोडभंगो। तं रायणग्गणं मज्जायाए भंजंतो एक्कं दो तिण्णि वा सेवति जावतिय अग्गो से कज्जति तत्तियं कालं सो दव्वादिसु परिहरिज्जति तावत् कालं न दाप्यतेत्यर्थः ' ( निचू ४ पृ २८० ) ।
रत्तपडगवेसेणं गता सुवण्णस्स खोट्टियाओ
खोडा -- खोटक, वस्त्र प्रतिलेखन की एक विधि ( उ २६ २५ ) खोडित -१ स्वीकृत - 'पडओ खोडितो वहणं कारितं'
(आवचू १ पृ ३९७, ३६८ ) । २ खंडित (अंवि पृ २१५) ।
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खोडिय - खण्डित, दूषित ( निचू ३ पृ ४४० ) । खोडी - १ बड़ा काष्ठ ( प्र ३।१२ ) । हरिचंदणक्खोडी वा' (आचू पृ १६८ ) । ३ काष्ठ - पेटी
२ टुकड़ा - 'गोसीसचं दणक्खोडी
(सूचू २ पृ ४३०) । ४ कटोरा, पात्र विशेष (आवहाटी १ पृ २८१) । लकड़ी का बना हुआ बंधन- विशेष - विहाडेयव्वा खोडी'
देशी शब्दकोश
( उसुटी प २५३ ) । ६ पोला काष्ठ ( उसुटी प २६२ ) । ७ काष्ठविशेष (आवहाटी १ पृ १६६) ८ काठ का गट्ठर
(व्यभा ४ | ३ टीप २० ) ।
खोमडक्खाय - भिक्षु के लिए प्रयुक्त अपशब्द ( सूचू १ पृ २३१ ) । खोर - १ खोरक, कटोरा ( आवचू १ पृ ५५२) । २ नट ( कु पृ १७१) । खोरक—- वृत्ताकार भाजन - विशेष (व्यभा ३ टीप ४१) ।
खोरय - पात्र विशेष ( दअचू पृ २७ ) ।
खोरिय—- कटोरा (व्यभा ३ टी प ४० ) ।
खोल-- १ मद्य के नीचे जमा हुआ कर्दम ( आचूला १।११२) । २ गुप्तचर, जासूस (पिनि १२७) । ३ दूध से भावित वस्त्र ( बूटी पृ ८१७ ) । ४ सिर पर बांधने का वस्त्र - ' -'विशेषचूणौं 'खोल' त्ति सीसखोला तीए सिरं वेढियव्वं (बूटी पृ ८१९ ) । ५ वस्त्र का एक भाग (बृटी पृ २३७; दे २८० ) । ६ छोटा गधा (दे २८० ) |
खोलकमालिका - पुष्प - विशेष (अंवि पृ ७० ) ।
खोला- १ कोशी, गोलाकार एक वस्तु - ' काञ्चनकोशी - सुवर्णमयी खोला' (भटी पृ८८२) । २ शिरोवेष्टन - 'खोला नाम शीर्षवेष्टनम्' ( बृटी पृ ८१९ ) ।
खोल्ल - १ एक देश का नाम ( आचू पृ ३४० ) । २ कोटर, गह्वर - 'देशीशब्दस्वात् कोटरम्' (बूटी पृ २८९ ) ।
खोसलअ -- दंतुर, बाहर निकले हुए दांत वाला (दे २७७ ) | खोसिय— जीर्णप्रायः - मइलिय फालिय खोसिय हियनट्ठे वावि अन्न मग्गते' ( पिनि ३२१ ) ।
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देशी शब्दकोश
ग
गंगावडिय - - श्वेत रेशम से बना चीन देश का वस्त्र जो भारत में गंगाजुल नाम से प्रसिद्ध था - ' अहं चीण- महाचीणेसु गओ महिसगवले तूण, तत्थ गंगावडिओ णेत्तपट्टाइयं घेत्तूण लद्धलाभो णियत्तो त्ति' (कु पृ ६६) ।
गंछ- वरुड नाम की म्लेच्छजाति (दे २।८४ वृ) ।
गंछअ - वरुड नाम की म्लेच्छ जाति (दे २२८४) ।
गंछिभ -- तैली (जंबूटी प १६४ ) ।
गंज -१ खाद्य - विशेष ( प्र १०/६ ) । २ गुच्छ वनस्पति- विशेष (प्रज्ञा १|३७|५) । ३ गाल (दे २१८१ ) ।
गंजिल्ल -विधुर, निरंकुश, पागल (दे २/८३ ) - कामगं जिल्लो, भमिअ किमिमाइ गोसे करसि' (वृ ) ।
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गंजोल्लिय - १ रोमांचित । २ हंसाने के लिए किया जाने वाला अंग- स्पर्श, गुदगुदी (दे २।१००) 1
गंठिल्ल - गांठों वाला (भटी पृ १२६७) ।
गंड - १ वस्त्र - विशेष ( जीभा १७६९ ) । २ वन । ३ कोतवाल । मृग । ५ नापित ( दे २६९) । ६ गुच्छा |
गंडग -- १ भिक्षुक, याचक - पिंडेसु दिज्जमाणेसु उल्लंतीति पिंडोलगा, जं भणितं - दमगा गंडगा वा' (आचू पृ ३२३) । २ गांव के आदेश की उद्घोषणा करने वाला - गामतित्तिवाहगा' (अचू पृ ३३१) । गंडमाणिया - बांस का बना हुआ पात्र विशेष (भ ७। १५६ )।
गंडाग -- नापित ( आचूला १।२३) ।
गंडि - १ यानविशेष (अनुद्वाचू पृ ५३) । २ दुष्ट बैल या घोड़ा
( उशाटी प ४६ ) ।
गंडय - उद्घोषणा करने वाला पुरुष, नाई - 'तत्य अमावसा होहिति त्ति गंडओ उग्घोसे' (आवहाटी १ पृ २४८ ) ।
गंडरिया - श्वेत मिट्टी - 'सेडिया - गंडरिया' ( दजिचू पृ १७९ ) ।
गंडवाणिया-बांस का पात्र - विशेष (भटी प ३१३) ।
गंडक नापित, नाई, उद्घोषणा करने वाला पुरुष - गण्डकः - नापित: यो हि ग्राम उद्घोषयति' (आटी प ३२७) ।
४ लघु
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देशी शब्दकोश गंडी-पुस्तक का एक प्रकार जिसके चारों कोण समान तथा लम्बाई-चौड़ाई
समान हो-'बाहल्लपुहुत्तेहिं गंडीपोत्थो उ तुल्लगो दीहो' (प्रसा ६६५)। गंडीरी-ईख का टुकड़ा, गंडेरी (दे २।८२)। गंडीव-धनुष (दे २।८४)। गंडपक --पैर का आभूषण, नूपुर-'गंडूपकं ति वा बूया.....तधा णीपूरगं
व त्ति' (अंवि पृ६५) । गंडपयक-जंघा का आभूषण-'गंडूपयकं णीपुराणि परिहेरकाणि'
(अंवि पृ १६३) । गंद-जाति-विशेष-'चंडाल-पुलिंद-गंद-गोपालादि च' (सूचू १ पृ २३१)। गंदित- गंदा कर दिया (अंवि पृ १४८) । गंदीणी-आंख-मिचौनी का खेल (दे २१८३) । गंधपिसाअ-गंधिक, पंसारी (दे २।८७) । गंधलया-नासिका (दे २।८५)। गंधिअ --दुर्गन्ध (दे २।८३) । गंधेल्ली-१ छाया । २ मधुमक्खी (दे २।१००)। गंधोल्ली-१ इच्छा । २ रात्री (दे २०६६)। गंभीर-चतुरिन्द्रिय जीव-विशेष (प्रज्ञा ११५१) । गग्गर-१ स्त्रियों के पहनने का वस्त्र, घाघरा (निच ३ पृ६०) २ गद्गद,
__ अस्पष्ट आवाज-'सरोवि से..."खूभियगग्गरो (निचू ४ पृ ३०५) । गग्गरग-घाघरा (निभा ७८२)। गज्ज-यव (दे २१८१)। गज्जणसह--पशुओं को निवारण करने की ध्वनि (दे २१८८)। गज्जफल-देश-विशेष में उत्पन्न वस्त्र-विशेष (आटी प ३९३) । गज्जर-गाजर, कंद-विशेष (प्रसा २३७) । गज्जल--पहनते समय बिजली के समान कड़कड़ शब्द करने वाला वस्त्र
'गज्जलाणि कडकडेंताणि कायकंठलपावारादीणि'
(आचू पृ ३६४)। गज्जह-पश्चिमोत्तर दिशा का पवन (आवचू १ पृ ५१२) । गट्टि-गुठली (जीभा १७०१)। गट्टिया-गुठली (अनु ३।४५) ।
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देशी शब्दकोश
१४५ गडगड-चिंघाड, हाथी की आवाज (जीवटी प २४७) । गडयडी-वज्रनिर्घोष, मेघ की गड़गड़ाहट (दे २१८५)। गडु-~-स्तन, कुच (उसुटी प १३२)। गडुअय-काष्ठपात्र-'मत्तो दगवारगो गडुअओ (निचू ३ पृ ३४३) । गडुक-लघु कलश (उपाटी पृ १८७) । गडुल-चावल आदि का धावनजल (प्रसाटी प ४६)। गडल-अलसिया, शिशुनाग-'अलसो त्ति वा गडूलो त्ति वा सुसुणागो त्ति वा
एगळं' (निचू १ पृ ६६) । गड्डु–१ गढा, गर्त (भटी पृ १२५५) । २ शकट, गाड़ी। गडक-गाड़ी (अनुद्वामटी प १४६)। गडुरक-भेड़ (पिटी प २१)। गडरा-भेड़-'उण्ण त्ति लाडाणं गड्डरा भण्णंति' (निचू २ पृ २२३)। गड्डुरिका–१ भेड़ (आटी प २२४) । २ कीट-विशेष (जीवटी प १८७) । गड्डरी- १ बकरी (दे २।८४) । २ भेड़। गडिक-गाड़ी वाला (अंवि पृ ६२) । गड्डिया-गाड़ी (जीचू पृ १७) । गड्डी-गाड़ी, शकट (आचू पृ ३५०; दे २।८१)। गड्ड्य -घड़ा (दजिचू पृ १८१)। गड्ड–१ गढा (भ ३।६५) । २ शय्या (दे २१८१)। गढ–दुर्ग, किला (दे २।८१) । गणणाइआ-चण्डी, पार्वती (दे २।८६)। गणसम-गोष्ठी में लीन (दे २।८६ ) । गणायमह-विवाह-गणक, विवाह का मुहूर्त आदि बताने वाला ज्योतिषी
गणिकाखंसक-कर्माजीवी-विशेष (अंवि पृ १६०)। गणियार-समान शरीर वाले-गणियार त्ति गणिकाकाराः समकाया:
(ज्ञाटी प ७४) । गणेत्तिया-कलई में पहनी जाने वाली रुद्राक्ष की माला-'जन्नोवइय
गणेत्तिय-मुंजमेहलावागलधरे-गणेत्रिका रुद्राक्षकृतं कलाचि
काभरणं' (ज्ञा १११६।१८५ टी प २२७) । गणेत्ती-अक्षमाला (दे २।८१)।
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देशी शब्दकोश
गतिल्लिय-गया (उचू पृ ६९)। गतेल्लत—गया (आवमटी प २६६) । गत्त-१ ईषा, चारपाई की लकड़ी-विशेष-'जंबूणयमयाई गत्ताई'
(राज ३७) । २ अवयव (भटी पृ १३८६) । ३ हलदंड । ४ कीचड़
(दे २१६६) । ५ गया हुआ। गत्ताडी-१ गवादनी-गायों के खाने के लिए घास, भूसा आदि रखने का
बड़ा बर्तन या गोचर-भूमी (दे २।८२) । २ गायिका (वृ)। गद्द-पक्षी-विशेष-गद्दो कुरलो""भासा वीरल्लससघाती' (अंवि पृ २३६) । गद्दत्तण-लज्जा (बृभा २३३८)। गद्दब्भ-कटु-ध्वनि (दे २।८२) । गहमा-गोत्र-विशेष (अंवि पृ १५०) गभग-कुमुद, चन्द्रविकासी कमल-'कुमुदं गद्दभगं' (दअचू पृ १२८)। गद्दभिया-धान्य-विशेष (आवहाटी १ पृ २६०) । गहह-कुमुद, चन्द्रविकासी कमल (दे २१८३) । गद्दिअ-गर्वयुक्त (दे २।८३) । गद्दिका-गादी, बिछौना (बृटी पृ १०५५) । गहियाणग—एक प्रकार का सिक्का-'लग्गो वाडकम्मे, निप्फत्तीए विढत्ता दस
गद्दियाणगा' (उसुटी प २५१) । गप्पडिय-बकवास करने वाला, गप्पें करने वाला (कु पृ ४४) । गभिज्ज-नौका में काम करनेवाला, खलासी-'कण्णधार-कुच्छिधार
गब्भिज्ज-संजत्ता-नावावाणियगा' (ज्ञा ११८६६) । गब्भेल्लग-जहाज में काम करने वाला-'कुच्छिधारा य कण्णधारा य गब्भे
ल्लगा य' (ज्ञा १।१७।६)। गम्मी-विकल्प, भंग (अंवि पृ ६) । गय--१ नींद से पूणित । २ भ्रमण किया हुआ । ३ मृत (दे २१६६) । गयणरइ-मेघ, बादल (दे २।८८)। गयमारिणी-गुच्छ वनस्पति-विशेष (प्रज्ञा ११३७१५)। गयसाउल-विरक्त (दे २।८७) । गयसाउल्ल-विरक्त (दे २१८७ वृ)। गय्याल-जिद्दी (दअचू पृ २१७) । गय्याल- मूर्ख (कन्नड़)। गरलक-मुकुट का एक प्रकार (अंवि पृ ६४) ।
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देशी शब्दकोश
१४७
गल-कांटा-'मच्छोव्व गलं गिलिता' (दचू ११६) । गलगाल-कांटा, मछली
फंसाने की बंसी (कन्नड़)। गलतिया-गर्गरी-'पाणिगलंतिया य दिज्जइ' (आवहाटी २ पृ १३५) । गलच्छल्ल-गला पकड़ना (प्रटी प ५६)। गलत्थण--१ क्षेपण । २ प्रेरण (से ५।५३)। गलत्थलिअ-बाहर निकाला हुआ (दे २१८७) । गलत्थल्ल-गलहत्थ, हाथ से गला पकड़ना (ज्ञा १९४२) । गलत्थल्लिअ-प्रेरित-'सरवेअगलत्थल्लिअ' (से ५।४३) । गलत्थिअ-१ प्रेरित (से १२।११) । २ बाहर निकाला हुआ, क्षिप्त
(दे २१८७) । गलि-अविनीत-गिलत्येव केवलं न तु वहति गच्छति वेति गलिः'
(उशाटी प ४६)। गलिअ-स्मृत, याद किया हुआ (दे २१८१)। गलोलइय-गले का आभूषण (निचू २ पृ ३६८) । गल्ल-१ गाल, कपोल (उपा २।२१) । २ हाथी का कुम्भस्थल । ३ गढा ।'
४ मलिन (दअचू पृ ५२)-'गल्लोदगेण गोंदकेन यद्वा मलिनोदकेन'
(टी)। गल्लत्थलिय -क्षिप्त, फेंका हुआ (से ८।६१)। गल्लप्फोड- डमरुक (दे २१८६)। गल्लर---चपटा-'मुहं च से पेल्लियं गल्लरं भविस्सति' (निचू ३ पृ ४०६)। गल्लिका-यान-विशेष (अंवि पृ २६.)। गल्लिवग-गले में पहनने योग्य-गल्लिवगा व से णक्खत्तमालादी पाए कया'
(निचू ३ पृ ४०७)। गल्लोल-गडुक, पात्र-विशेष-'गल्लोलपाणिएणं ण्हवेति' (निचू १ पृ१०) ।। गवच्छ-आच्छादन (जंबूटी प ५८)। गवच्छिय-आच्छादन-'ते णं वायकरगा किण्हसुत्तसिक्कग-गवच्छिया
णीलसुत्तसिक्कग-गवच्छिया' (जीव ३।३२६) । गवत्त-घास, तृण (पिनि २२४; दे २।८५) । गवर-वनस्पति-विशेष (प्रज्ञा १ टी)। गहकंडुक-क्षुद्र जंतु-विशेष (अंवि पृ २३८)। गहकल्लोल-राहु (दे २१८६) ।
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देशी शब्दकोश
गहण-१ निर्जल प्रदेश (आचूला ३।४८; दे २।८२) । २ धरोहर । गहणी--बलात् अपहृत स्त्री (दे २१८४)। गहर--गृध्र, गीध पक्षी (प्रज्ञा १७६; दे २।८४)। गहवइ-१ ग्रामीण । २ चन्द्र (दे २११००)। गहिअ-मोड़ा हुआ, टेढा (दे २१८५)। गहिआ-१ कामभोग के लिए इष्ट स्त्री (दे २।८५) । २ ग्रहण करने योग्य
स्त्री। गहिक-गोत्र-विशेष (अंवि पृ १५०) । गहिल्ल-पागल, भूताविष्ट (आचू पृ ३३७) । गाअ-गाय-'तहेव गाओ दुज्झाओ' (द ७।२४)। गागर--१ स्त्री का परिधान विशेष, घाघरा (प्र ४।१४) । २ मत्स्य-विशेष
(प्रज्ञा ११५६) ।। गागरक-मत्स्य की एक जाति (अंवि पृ ६३) । गागरी-गगरी, कलशी-'दोससयगागरीण' (तंदु १६१)। गागज्ज-मथित (दे २।८८)। गागेज्जा -नवोढ़ा, नवपरिणीता (दे २१८८)। गाडिअ-विधुर (दे २.८३)। गाणी-गवादनी-गायों के खाने के लिए घास, भूसा आदि रखने का बड़ा
__ बर्तन या गोचर भूमी (दे २।८२) ।। गाधा-घर-गाधा गृहमित्येकोऽर्थः इति चूणौँ' (बृटी पृ ७८८) । गामउड----ग्राम-प्रमुख (निचू २ पृ ५७; दे २।८६)। गामगोह- गांव का मुखिया, ग्राम-प्रधान (दे २।८६) । गामचडय--गांव का अधिकारी (कु पृ १३) । गामणिसुअ-ग्राम-प्रधान, गांव का मुखिया-'गामणिसुअशब्दोऽपि
ग्रामप्रधानवाचीत्यन्ये' (दे २१८६ वृ)। गामणी-- गांव का मुखिया, ग्राम-प्रधान (दे २।८६) । गामपिंडोलग-ग्रामभिक्षु, भिखारी (आ ६।४।११)।। गामरोड-छल से गांव का मुखिया बन बैठने वाला, गांव के लोगों में फट
डालकर गांव का उपभोग करने वाला (दे २।६०)। गामवोद्रह-गांव का युवक-अधिकारी (कु पृ ५२) । गामेणी-~-बकरी (दे २१८४)।
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देशी शब्दकोश
गायरी – कलशी, छोटा घड़ा (दे २१८६) ।
गार--- १ गीली मिट्टी, कर्दम ( निभा ४२३६) । २ कंकड़ (व्यभा ४/४ टी प ह ) ।
गारि - गीली मिट्टी, कर्दम ( निचू ३ पृ ३७० ) ।
—1
गावाण - पर्वत (प्रा ३ । ५६ ) ।
गाविआलोग - जहां गायों को बांटा आदि खिलाया जाता है - 'गाविमालोगे जत्थ गाविओ लिति' ( आचू पृ ३७० ) 1
गावी - गाय (द ५।१२) ।
गाह - घर - 'गाह त्ति वा गिहत्ति वा एगट्ठ' (आचू पृ ३३८) । गाहा - घर - ' गाहा घरं गिमिति एगट्ठा' ( व्यभा८ टीप १) । गाहावइ - १ गृहपति, गृहस्थ ( बृ १।३२ ) । २ धनी कौटुम्बिक ( स्थाटी प २५८ ) । ३ आश्रयदाता (स्थाटी प ३२२) । गाहुलि - क्रूर जलचर प्राणी - विशेष (दे २२८६ ) । गाहुल्लिया - गाथा - अण्णा गाहुल्लियं पढइ' ( कु पृ २६) । गिधुअ - स्तन पर गांठ देकर बांधा हुआ वस्त्र - 'कयगंठि थणोवरि विरइअंसुअं गिधुआं जाणं' ( पा ६५९ )
गिधुल्ल -- कञ्चुक, चोली ( पा ११६) ।
गिड्डिया - गेंद को फेंकने वाली वक्र यष्टिका (प्रसा ४३५) । गिणि- स्वजन ( व्यभा ५ टीप २६ ) ।
गिर - बीज - कोश (निचू २ पृ १८५ ) |
गिरि - बीजकोश (दे ६।१४८) । गिरिकण्णइ – वल्ली - विशेष (प्रज्ञा १/४०१५)।
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गिरिजन्न – १ कोंकण देश में होने वाला सायंकालीन भोज - गिरियज्ञो नाम कोंकणादिदेशेषु सायाह्नकालभावी प्रकरणविशेषः । आह च चूर्णिकृत् --- 'गिरियज्ञ: कोंकणादिषु भवति उस्सुरे त्ति' । २ ला देश में वर्षा ऋतु में होने वाला भोज - गिरिजन्नो मत्तवालसंखडी भन्नइ सा, लाडविसए वरिसारते भवइ त्ति । ३ भूमिदाह'गिरिकं (ज) न्नत्ति भूमिदाहो त्ति भणितं होइ' (बूटी पृ ८०७) । गिरोलिया - छिपकली, गृहगोधा ( कु पृ १८४) ।
गिल्ल - गीला, आर्द्र - गिल्ल - सन्निही - गुल - कक्कय घयतेल्लादिया मुणेतव्वा'
(जीचू पृ १४) ।
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१५०
देशी शब्दकोश 'गिल्लि–१ दो पुरुषों द्वारा उठाई जाने वाली पालकी, शिविका
(दश्रु ६।३) । २ अंबाडी, हौदा-'हस्तिनः उपरि कोल्लररूपा या मानुषं गिलतीवेति । लोकभाषायां अंबाडी इति प्रसिद्धा'
(राजटी पृ १७)। गिल्लिरी-जाल-विशेष (विपा ११८।१६) । गिहेलुग-दहलीज, देहली (आचू पृ ३६४) । गिहेलुय-दहलीज (नि १३।६)-'गिहेलुओ उंबरो उ णायव्वो'
(निभा ४२६८)। गुंगुयंत-भय से आकुल-व्याकुल-'ते गुंगुयंता अच्छंति' (उशाटी प १७६) । गंछा-१ बिंदु। २ अधम । ३ मूंछ (दे २।१०१)। गुंजेल्लिअ-पिंडीकृत, एकत्रित किया हुआ (दे २१६२) । गुंठ-१ घोड़ा-'गुंठो घोडगो' (निचू ४ पृ १११) । २ महिष-'गुण्ठो नाम
घोटको महिषो वा' (बृटी पृ ८६४) । ३ मायावी
(व्यभा ४३३ टी प ६६) । ४ दुष्ट घोड़ा (दे २१६१)। गुंठा-माया (व्यभा ४।३ टी प ७०) । गुंठी-नीरंगी, धुंघट (दे २०६०)। गुंड-मुस्ता से उत्पन्न होने वाला 'लचक' नाम का तृण-विशेष (दे २१६१)। गुंदा-१ बिन्दु । २ अधम (दे २।१०१)। गुंपा-१ बिन्दु । २ अधम (दे २।१०१)। गुंफ-गुप्ति, कारावास (दे २।६०)। गुंफी-शतपदी, कनखजूरा (दे २।६१)। गुज्झक्खिणी-स्वामिनी (बृभा ५७०४) । गुट्ठ-स्तम्ब, तृण-काण्ड (उपा २।२१)। गुट्ठी-मित्र-'दो गुट्ठिओ गोट्ठिया वा पवाविता' (निचू ३ पृ २८४)। गट्रीय-मित्र (निच ३ पृ २८४) । गडदालिअ-पिंडीकृत, एकत्रित (दे २।९२) । गडधाना--गुडपपडी-'गुडपर्पटिका लोकप्रसिद्धा गुडधाना' (भटी प ३२६) । गुडोलद्धिआ-चुंबन (दे २०६१) । गणनिया--.व्यायाम-विशेष (ज्ञाटी प २४)। गण्हपय-कृमि-विशेष (अंवि पृ २२६)। गुत्तण्हाण-पितृतर्पण, पितरों को जलांजलि देना (दे २१६३) ।
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देशी शब्दकोश
१५१ गुत्ति-१ बंधन, जेल । २ इच्छा। ३ वचन । ४ लता। ५ मुकुट की माला,
शिरोमाल्य (दे २।१०१)। गुत्थंड-भासपक्षी (दे २१६२)। गुप्पंत-१ शय्या, बिछौना। २ रक्षित (दे २।१०२) । ३ व्याकुल
(से ११२; दे २।१०२) गुफगुमिअ-सुगन्धयुक्त (दे २१६३)। गब्बर-गांव-विशेष, गोबर गांव (आवमटी प ३३७) । गुमिल-१ मूढ । २ गहन । ३ प्रस्खलित । ४ आपूर्ण (दे २।१०२) । गुम्म-१ समूह-'गुम्मो समूहो' (दश्रुचू प ६१) । २ स्थान (ओटी प ८१) । गम्मइअ-१ मूढ (ओनि १३६; दे २११०३) । २ संचलित । ३ स्खलित।
४ विघटित । ५ पूरित (दे २११०३)। . . गुम्मिअ-उन्मूलित, मूल से उखाड़ा हुआ (दे २०६२)। गम्मिय-१ स्थान-विशेष का रक्षक, कोतवाल (ओनि १९३) । २ जेल
_रक्षक, गुप्तिपाल (ओनि ७६६) । ३ घूर्णित । गुम्मी-१ कनखजूरी ( उ ३६।१३८) । २ राशि, ढेर (दश्रुचू प ६१)।
- इच्छा (दे २।६०)। गुम्हि-कनखजूरा-'गुम्हि-विच्छुग-सप्पादिया पविसंति' (निचू २ पृ १९७)। गुरुल--भोजन से संबंधित रोग-विशेष (अंवि पृ २०३)। गुल–चुम्बन (दे २।६१)। गुलइय--गुल्मित, गुल्मवाला (औप ५)। गुलखित-चुंबित (अंवि पृ १४८)। गुलगुलाइय-हाथी का हर्ष से चिंघाड़ना (जीव ३।४४७) । गुलमग-गोल पात्र (अंवि पृ६५)। गुललावणिया--गुड से निष्पन्न खाद्य-विशेष (पंक ७२८) । गुलिअ-१ मथित (दे २।१०३) । २ गेंद (पा ८४६) । गुलिका-१ पिटक । २ बुसपुञ्ज (बृटी पृ ८०५) । गलिया-१ पिटक (बृटी पृ ८०५) । २ बुसपुंज, भूसा (बृटी पृ ८०५;
दे २११०३) । ३ वल्कल-विशेष-चूणी-गुलियत्ति वक्कलाणि घेप्पंति' (बृटी पृ ८१६)। ४ मथित, विलोडित । ५ गेंद। ६ गुच्छा (दे २।१०३) ।
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१५२
देशी शब्दकोश
गुलुइय-गुल्मित, लताओं से युक्त (भ ११५०) । गलगंछिअ--१ बाड से व्यवहित (दे २।६३)। २ उन्नमित (व)। गुलुगुलिय-हाथी की चिंघाड़ (उसुटी प ६४) । गुलुच्छ--१ घुमाया हुआ (दे २१६२) । २ गुच्छा (पा ३४७)। गुवित-क्षुब्ध, उद्वेलित (स्था ३।४६५) । गुविल–१ गहन, सघन (बृभा ६४८६) । २ जंगल-'जर-मरण-चउग्गई
गुविलं' (महा ४४) । ३ चीनी से निष्पन्न वस्तु । गुहा-१ समवाय, साधुओं का समूह । २ उपाश्रय-'गुहास्तु समवायाः
प्ररूपणगुहा वा गृह्यन्त इति' (नंदीटी पृ९)। गुहिर-गम्भीर (पा ३२३) । गेंठ अ-स्तन के ऊपर के वस्त्र की गांठ (दे २।६३)। गेंठुल्ल -कञ्चुक, चोली (दे २।६४) । गेंड--स्तन के ऊपर की वस्त्र-ग्रन्थि (दे २१६३)। गेंडुई-क्रीडा (दे २।९४) । गेज्ज--मथित (दे २।८८)। गेज्जल-कंठ का आभूषण (दे २।६४) । गेड्ड-१ पंक, कर्दम । २ यव (दे २११०४) । गेण्हिअ-मुक्ता-माला जो छाती पर लटकती है (दे २१६४)। गेल्लि -हौदा (भटी प १८७)। गेहि-आसक्ति, गृद्धि (आ ६।३७) । गोअंट-१ गाय के चरण (दे २१६८)। २ जमीन पर उगने वाले सिंघाड़े
गोअंटो स्थलशृंगाट इत्यन्ये' (वृ)। गोअग्गा-गली (दे २।९६) । गोअला-दूध बेचने वाली (दे २१९८) । गोआ-छोटा घड़ा, गगरी (दे २।८६)। गोआलिआ--वर्षा ऋतु में होने वाला कीट-विशेष (दे २।६८) । गोंजी-मंजरी (दे २१६५) । गोंठी-मंजरी (दे २।९५)। गोंड-कानन, वन (दे २।९४)। गोंडी-मंजरी, मांजर (दे २।६५) । गोंदी-मंजरी (कु पृ ३२) ।
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देशी शब्दकोश
गोंदीण - मोर का पित्त (दे २६७ ) |
गोकिलंज - पात्र विशेष (भटी प ३१३ ) ।
गोकिलिंज - गाय को चारा आदि खिलाने के लिए बांस का बना हुआ भाजन - विशेष (भ ७।१५९) ।
गोखलक - गवाक्ष (व्यभा ३ टी प ६३) ।
गोच्चअ - कोड़ा (दे २ ६७ ) ।
गोच्चिय-- राज्य का अधिकारी, कोतवाल ( पिटीप ६९ ) ।
गोच्छणव - १ कृषि का उपकरण विशेष । २ खाद ( इ २६।११) ।
गोच्छय - मुनि का एक उपकरण जो पात्र तथा वस्त्र का प्रमार्जन करने के : काम आता है - 'होइ पमज्जणहेउं तु गोच्छओ भाणवस्थाणं' ( पंव ८०० ) ।
गोच्छा - मंजरी (दे २१६५) ।
गोज्ज - १ गायक ( जीभा ६१४) । २ शारीरिक दोष वाला बैल । गोज्झ नाटक, नृत्य- विशेष - 'गोज्झपेक्खियानुख्यविशेषप्रेक्षकाः' ( आवहाटी १ पृ ६२) ।
गोज्झ विखणी - स्वामिनी (बृ टी पृ १५०६ ) ।
गोटू - आभीरपल्ली ( कु पृ ७७) ।
गोग मित्र - गोहि लड्डुगा सामण्णं कता' (निचू ३ पृ ४३७) । गोट्ठिय – मित्र ( निचू ३ पृ २८४) ।
गोट्टी - मित्र ( निचू ३ पृ २८४) ।
गोडी - मिट्टी की गुटिका- 'गोडीए घडो भिण्णो' (दअचू पृ ४४ ) |
गोड्ड - १ गुड़ से बनी मिठाई (भ १८ १०७) । २ घुटना ( आवचू १ ) गोड्डिका - गेंद खेलने की लकड़ी जो अन्त में मुड़ी हुई होती है (प्रसा ४३५) ।
२।१०४) ।
गोण - १ गाय ( प्रज्ञा ११६४) २ बैल ( इ २६।१२; ३ साक्षी (दे २।१०४) ।
गोणक – पात्र - विशेष ( उपाटी पृ १०१ ) । गोणपोतल - बछड़ा ( आवहाटी १ पृ १३२) । गोणिक्क - गायों का समूह (दे २।६७ ) ।
गोणिय – गौओं का व्यापारी ( व्यभा & टीप ५) ।
गोणी - १ गाय (पिनि २२४) । २ पात्र - विशेष ( उपाटी पृ १०१ )
१५.३
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: १५४
देशी शब्दकोश
गोतिहाणी - गोवत्सा, बछिया - "तिवासजायाए गोतिहाणी ए' (तंदु ८८ ) । गोत्तफुसिया - वल्ली - विशेष (प्रज्ञा १२४०१५) । गोत्थू भग - बकरा (निचू १ पृ ६ ) |
....
( निचू १ पृ १०३ ) 1
।
गोद्दह – नट, नर्तक - गाममज्झयारे गोद्दहे रममाणे " गोध- १ ग्रामीण । २ म्लेच्छ व्यक्ति (उचू पृ १४८ ) ३ राजपुरुष ( आवचू १ पृ ५१७ ) । गोधसालक-सुरा - विशेष (अंवि पृ ६४ ) । गोप - चतुरिद्रिय प्राणी - विशेष (निचू १ पृ ६७ ) ।
गोपच्छेलक-प्राणी - विशेष (अंवि पृ ε२ ) ।
गोफण्ण- चमड़े की डोरी से बना पत्थर फेंकने का साधन - गोफणेण धणुण वा वग्घादीण अभिभवंति' (निचू २ पृ ६) ।
गोफणा – पत्थर फेंकने का साधन - 'गोफणा चम्मदवरगमया पसिद्धा, ताए लेट्ठओ उवलओ वा घत्तिज्जंति' (निचू २ पृ ६) ।
गोबर - गोबर (बूटी पृ ५११ ) ।
गोब्बर -१ गोबर ( बृभा १७३१) । २ एक गांव का नाम - मगहा गोब्बरगामी' (आवनि ४६३ ) ।
गोमद्दा - गली (दे २शε६) ।
गोमाणसिया ( गोमासणिया ? ) - शय्यारूप स्थान - विशेष
( जीव ३।३६८ टीप २३० ) ।
गोमिणी - स्त्री का संबोधन, चाटुवचन - गोमिणी गोल्लविसए, सामिणीगोमिणीओ चाटुवयणं' (दअचू पृ १६८ ) ।
गोमिया - १ आदरसूचक संबोधन (द ७११६) - " भट्टि सामिय गोमिया पूयावयणाणि निसातिसु सव्वविभत्तिसु' (अचू पृ १६९ ) । २ कोतवाल ( निभा ३३७१) । ३ कारावास का आरक्षक, जेलर ( प्र २।१२) । गोमी - १ शृगाली, सियारिन (व्यभा ६ टीप ५७) । २ कनखजूरा (व्यभा ८ टी प ७) ।
गोमुहिय- - वक्षस्थल का आच्छादक वस्त्र ( ज्ञाटी प २४६ ) । गोम्मि — कनखजूरा, त्रीन्द्रिय जन्तु - विशेष (अंवि पृ २६७) । गोम्मी - कनखजूरा (व्यभाव टी प ७) ।
गोहि — कनखजूरा ( निभा १२४५) । गोहि — कनखजूरा (अनुद्वा ५२५) ।
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देशी शब्दकोश
१५५ गोम्ही-कनखजूरा, कर्णशृगालिका (प्रज्ञा १५०) । गोर-गेहूं-'गोर त्ति गोधूमा' (निचू ४ पृ १११)। गोरंफिडी-गोधा, गोह (दे २०१८)। गोरह-वाहनयोग्य तथा रथयोग्य बैल (आचूला ४।२७) । गोरहग-१ तीन वर्ष का बैल (द ७२४) । २ रथ की भांति तीव्र गति से
___ दौड़ने वाला बैल । ३ प्रसव-समर्थ (दजिचू पृ २५३)। गोरा-१ हल का दंड । २ चक्षु । ३ ग्रीवा (दे २।१०४) । गोल-१ युवा के लिए प्रयुक्त प्रिय संबोधन-गोल जुवाणप्रियवयणं'
(दअचू पृ १६६) । २ गोलदेश में व्यवहृत अवमानना सूचक शब्द-'होल इति वा गोल इति वा एतौ च देशान्तरेऽवज्ञासंसूचकौ' (आटी प ३८८) । ३ साक्षी (दे २।६५) । ४ गोत्र-विशेष
(अंवि पृ १४६)। गोला-१ गाय । २ गोदावरी नदी । ३ नदी। ४ सखी (दे २।१०४) । गोलिका-रथ के आकार का यान-विशेष (अंवि पृ १६६)। गोलिय-छाछ आदि बेचने वाला-एमेव तेल्लि-गोलिय-पूविय-मोरंड-दुस्सिए
___चेव' (बृभा ३२८१)। गोलिया-१ गुटिका-तीए दासीए घडो गोलियाए भिन्नो' (दनि २)।
२ बड़ी थाली-भंडिका-स्थाल्यः ता एव महत्यो गोलिकाः' ।
(स्थाटी प ३६८)। गोलियालिंग-विशेष प्रयोजनों के लिए बनाए जाने वाले चुल्ली-स्थान
-'अग्ने राश्रयविशेषाः । अन्ये तु देशभेदनीत्या पिष्टपाचनकाग्न्यादिभेदेनैतेषां स्वरूपं कथयन्ति तदप्यविरुद्धम्'
(जीवटी प १२३)। गोलियालिछ-विशेष प्रयोजनों के लिए बनाए जाने वाले चुल्लीस्थान
(जीव ३३११८)। गोली--मंथनी (दे २०६५) । गोलुकि-वितत वाद्य का एक प्रकार (नि १७३१३६) । गोलोम-द्वीन्द्रिय जन्तु-विशेष (प्रज्ञा ११४६)। गोल्ला-बिम्बी फल, कुंदरुन का फल (आवमटी प १९३) । गोल्हा-१ बिम्बी, कुन्दरुन की वल्ली (प्रटी प ८१; दे २१६५) । २
बिंबीफल (जंबूटी प ११२) । गोवर–गोबर (दे २१६६) ।
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१५६
गोवहिया - भुजपरिसर्पिणी ( जीवटी प ५२) ।
गोवालिया - वर्षा ऋतु में उत्पन्न होने वाला अहिलोडिका नामक कीट ( बुभा ५८७० ) - गोवालिया णाम अहिलोडिकाख्यो जीवविशेषः " (चू प २१३) ।
गोविअ - अजल्पाक, नहीं बोलने वाला (दे २।६७) । गोविल्ल --- कञ्चुक, कांचली (दे २१६४) ।
गोवी -- बाला ( दे २१६६ ) |
गोव्वर - गोबर (दे २शε६) ।
गोस – प्रभात, प्रातः काल - 'गोसे य पभायम्मी' (पंक ५७३; दे २१९६ ) । गोसंखडी -- जंगल की ओर जाने वाली गायों का समूह - 'गोसंखडी उज्जू हिगा भन्नति' (निचू ३ पृ ३४८) ।
गोसग्ग — प्रभातकाल - 'बिती गोसग्गम्मी पभाते पव्वावइस्सामो' (पंक ६०१; दे २।६६ ) ।
गोसण - मूर्ख (दे २।१७ ) ।
गोह-१ गांव का मुखिया (दजिचू पृ ५५; दे २१८९) । २ राजपुरुष (निचू १ पृ १०४) । ३ ग्रामीण ( निचू ३ पृ १३९ ) । ४ जार, उपपति ( आवहाटी १ पृ २७७ ) । ५ अधम ( आवहाटी २ पृ १३४ ) । ६ क्रूर मनुष्य ( उसुटी प ७५) । ७ योद्धा ८ पुरुष (दे २८६ वृ) ।
देशी शब्दकोश
गोहद्वाण - प्रदेश - विशेष - जह ते गोहट्ठाणे वोसट्ठनिसट्टचत्तदेहगा' (व्यभा १० टी प ८० ) ।
गोहातक— कोतवाल, राजपुरुष (अंवि पृ १६१ ) । गोहिया - वाद्य - विशेष ( नि १७।१३८ ) । गोही - भुजपरिसर्पिणी ( जीव २९ ) । गोहुर-गोबर (दे २६६) ।
घ
घंघ - १ बृहत्, बड़ा ( आवहाटी २ पृ १०९) । २ गृह (दे २ । १०५) धंघल - १ झगड़ा (प्रा ४४२२) । २ घबराहट ।
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देशी शब्दकोश
घसाला - १ अनाथालय ( निचू २ पृ १८ ) । २ कार्यटिक भिक्षुओं का आवास-स्थल (आवचू २ पृ २३० ) ।
- घंघोर -- भ्रमणशील (दे २।१०६) । घंसा - भूमि की रेखा ( जीवटी प १५२ ) । घंसिय-- गाड़ी, यान ( निचू ४ पृ १११) ।
घंसिया - गाड़ी (बूटी पृ ८६४ ) |
घग्गर -- घाघरा, स्त्रियों का वस्त्र - विशेष (निचू ४ पृ १४३ दे २ । १०७) । धच्चण---उपमर्दन (ओनि १६८ ) ।
बांस
घट्ट - १ कुसुंभ रंग से रंगा हुआ वस्त्र । २ नदी का घाट । ३ वेणु, (दे २।१११) ।
घड - मित्र, समवयस्क ( निचू ३ पृ ४९८ ) ।
घडभोज्ज— गोष्ठी, मंडली - 'घडभोज्जं नाम महत्तरग- अणुमहत्त रग- ललितासणिता कडुगदंड-धारपरिग्गहिता गोट्टी' (दश्रुचू प ५० ) । घडा-गोष्ठी ( निभा १९७५) ।
१५७
घडाभोज - गांव - प्रधान और अनुप्रधान द्वारा गांव के बाहर दिया जाने वाला भोज (व्यभा १० टीप १) ।
घडिअघडा-गोष्ठी (दे २।१०५) ।
घडिगा - घंटी, बच्चों का खिलौना - 'घडिगा णाम कुंडिल्लगा चेडरूवरमणिका' ( सूचू १ पृ ११८ ) । घडिया-गोष्ठी (नंदीट पृ १४२ ) | घडी-गोष्ठी (दे ११२०५) ।
घडुल्लय- - घडा (दअचू पृ ११२) ।
घडोपल - चतुष्पद परिसर्प - विशेष (अंवि पृ २२६ ) ।
घढ - टीला, स्तूप ( पा ९५६ ) ।
घण - छाती, वक्षस्थल ( बुभा ६१६८ ) ।
घणघणाइय- अनुकरणवाची शब्द, रथ की आवाज (भटी पृ ८८७) पिच्छिलका - आभूषण - विशेष (अंवि पृ ७१) ।
घणवाहि -- इन्द्र (दे २1१०७ ) ।
घणसंताण - जाल का कीड़ा, मकड़ा ( पंक २७४) ।
घण्ण
--
-१ वक्षस्थल । २ रंगा हुआ (दे २/१०५ ) । ३ घात्य, मार डालने योग्य |
तण - भांड, विदूषक ( बुभा ६३२५) ।
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१५८
देशी शब्दकोश घम्मकरक-पानी छानने का कपड़ा-धम्मकरकादि परिपूयं घेप्पति'
(निचू १ पृ ७४) । घम्मोई-तृण-विशेष (दे २।१०६)। घम्मोडी-१ मध्याह्न। २ मच्छर । ३ ग्रामणी नामक तृण (दे २।११२) । घयगोलिय-घी बेचने वाला (निचू २ पृ ३६२)। घयघट-घी का मैल (पंव ३७९)। घयण-भाण्ड, बहुरूपिया (नंदी ३८१३) । घयमदु-घृतसार, ऊपर का घी (व्यभा ३ टी प १०६) । घर-गृह (अनु ३३२४) । घरकडी-१ घर के बाहर का कमरा। २ घर के चौक में स्थित कमरा
(ओनि १०५)। घरकुडोरी-स्त्री का शरीर-'किह ताव घरकुडीरी कई सहस्सेहिं अपरितंतेहिं'
(तंदु १२०) घरघंट-चिड़िया, गोरैया पक्षी (दे २।१०७) । घरघुला--छिपकली (अंवि पृ २२६) । घर-१ अरहट, पानी निकालने का यंत्र-'घरट्टे वाहेऊण तुसे खवावेइ'
(उसुटी प ६६) । २ कच्चा चावल-'लोट्टः-घरट्टादिचूर्णः
(पिटी प १०)। घरणी-गृहिणी (उ २११४)। घरतोलिया-छिपकली (दश्रुचू प ६८) । घरत्थ-गृहस्थ (दअचू पृ ४) । घरपूपल-बिलशायी जंतु-विशेष (अंवि पृ २२६) । घरपोपलिका-छिपकली (अंवि पृ २३७) । घरयंद-दर्पण (दे २।१०७) । घरास-गृहवास (निभा १६८५) । घरिणी-घरवाली, पत्नी, गृहिणी (उसुटी प १३७) । घरिल्ली-पत्नी (दे २०१०६) घरोइला-छिपकली (प्रज्ञा ११७६)। घरोल-घर में बना हुआ भोजन-विशेष (दे २६१०६) । घरोलिका-छिपकली (ओटी प १२६) । घरोलिया-छिपकली (प्र ११८) ।
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देशी शब्दकोश
१५६
घरोली--छिपकली-'भमइ जं उमत्ता घरोलिव्य' (दे २।१०५)। घल्ल-अनुरक्त (दे २।१०५) । घल्लिअ-१ क्षिप्त, डाला हुआ (दे ६।११६ वृ)। २ निर्मित किया हुआ। घल्लित-आक्रांत होना, दबना-'सो रायगिहच्छणपिंडोलगो वेभारगिरिसिलाए
घल्लितो' (सूचू १ पृ २३२)। घसा-१ पोली भूमि (द ६।६१)-'घसा नाम जत्थ एगदेसे अक्कममाणे सो
पदेसो सव्वो चलइ सा घसा भण्णइ' (जिचू पृ २३१)।
२ भूमिरेखा। घसी-१ पोली भूमि । २ पुराने भूसे का ढेर-'गसति सुहुमसरीरजीव
विसेसा इति घसी अंतोसाणो भूमिपदेसो पुराणभूसातिरासी वा' (दअचू पृ १५६) ३ ढालू भूमि-'घसी नाम स्थलादधस्तादवतरणं" (आटी प ३३७) । ४ भूमि-रेखा (जीव ३१६२३) । ५ अवतरण,
नीचे उतरना। घाड-मस्तक के नीचे का भाग (ति ६५३) । घाडा-मस्तक के नीचे का भाग (जंबूटी प १७०) । धाडिय-मित्र-'घाडिउ त्ति वयंसो' (निचू २ पृ ५२)। घाडियय-मित्र (ज्ञा ११२१६५)। घाण-१ पावा, कडाही आदि में एक बार डालने का परिमाण
(प्रसाटी प ५३) । २ कोल्हू-'तिलपीडनयन्त्रे' (पिटी प ६)। घाणक-कोल्हु, घानी (प्रसाटी प १४३) । घाणी-दुर्गन्ध (निचू २ पृ ४१)। घायण-गायक (दे २।१०८) । घार–प्राकार, परकोटा (दे २।१०८)। घारंत-घृतपूर, घेवर (दे २।१०८) । घारिया-मिष्टान्न-विशेष (दअचू पृ २१७) । घारी (गुजराती)। घारी-१ चील पक्षी (दे २।१०७)। २ छन्द-विशेष । घालइ-एक प्रकार के तापस (निरटी पृ २५) । घासिआ-घास लाने वाली (ओटी प ६७) । घि-१ ग्रीष्म ऋतु-घि-सिसिरवासे' (ओभा ३१०) । २ गरमी। । घिघिणोपित-घूणित (?) (अंवि पृ १४८)। घिसु-१ गरमी-पिंसु मे विहुयणं विजाणाहि' (सू ११४४१)। २ ग्रीष्म
ऋतु।
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१६०
घिसुरि - गरमी ( सूचू १ पृ १४७) । घिट्ट - कुब्ज (दे २१०८ ) ।
घिय - निन्दित ( दे २।१०८ ) |
घरोलिया - छिपकली ( आवहाटी १ पृ २१३) ।
घिसरा - जाल - विशेष ( विपा ११८१६ ) । घुंघुरुड - उत्कर, ढेर (दे २।१०६) । घुंट-घूंट (बृभा २३६०) । घुंटिय- घूंट ( तंदु ११७) ।
घुंटिआ - घूंट - जाव अइसाउरस त्ति अंजलीहि घुंटिया तेज' ( उसुटी प ३७) ।
घुंटित - घुटा हुआ (जंबूटी प २० ) ।
घुक्कभरध - अंतरिक्ष में समुद्भूत क्षुद्रजंतु - विशेष (अंवि पृ २२९ ) । घुक्किय - चपल, कपि चेष्टा - 'दे मंदभग्ग ! घुक्किय, तूससि तं णाम मे तेणं' (जीभा ८३८ ) ।
घुग्घुच्छण- - खेद (दे २ । ११० वृ ) । घुग्घुच्छणय- - खेद (दे २।११० ) ।
घुग्घुरक- टखना, गुल्फ (आवहाटी १ पृ १३७ ) । घुग्घुरि - मेंढक ( दे २।१०९) ।
घुग्घस्सुसय - आशंका युक्त वचन ( दे २१०९ ) ।
घुघुयंत - 'घु-घु' आवाज करना, उल्लू का बोलना ( ज्ञा १८७२ ) । घुघुणिअ - पर्वत की बड़ी शिला (दे २।११० ) ।
घुणघुणिआ - कर्णोपकर्णिका, अफवाह (दे २ । ११० ) ।
घुणाहुणी - कर्णोपकणिका, एक कान से दूसरे कान, कानाकानी ( उसुटी प १९२ ) ।
घुत्तिय - गवेषित ( दे २।१०९) । घुरुघुरि - मेंढक (दे २।१०९) ।
घुल्ला - द्वीन्द्रियजन्तु - विशेष ( प्रज्ञा १।४९ ) ।
घुल्लिका - द्वीन्द्रिय कीट - विशेष ( जीवटी प ३१) ।
घुसिणिअ - गवेषित (दे २।१०६) ।
देशी शब्दकोश
घुसिरसार - अवस्थान, विवाह आदि के अवसर पर किया जानेवाला मसूर
आदि का उबटन ( दे २।११० ) ।
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१६१
देशी शब्दकोश
__१६१ घुसुली-बिलौना करने वाली स्त्री (पिनि ५७३) । घरा-१ जंघा । २ खलक-शरीर का अवयव-विशेष (सू २।२।२२) । घरीया-१ जंघा । २ खलक-शरीर का अवयव-विशेष
(सूटी २ प ६६)। घेइण-बहुरूपिया-'घेइणो इव अणेगसरीरकिरियाओ करेंतो कंदप्पा भवंति
(निचू ४ पृ २५)। घेवर-मिष्टान्न-विशेष, घृतपूर (दे २।१०८) । घोट-बूंट-'आउक्काए जति सो घोट्ट करेइ ततिया चउलहुगा'
(निचू ४ पृ ४८)। 'घोड-१ धूर्त (निभा १७१३) । २ कामासक्त (निच २ पृ ४४०)।
३ नीच जाति के लोग, डंगर आदि (व्यभा ७ टी प ४१)। ४ राज्य
कर्मचारी (बृभा २०६६) । ५ सफाई करने वाले (बृभा २६३४) । घोडग–घोड़ा (आचू पृ ३७३) । घोडा-घोड़ा (जीवटी प ३८)। घोडिय-मित्र (बृ ५) । घोर-१ विनष्ट । २ गीध पक्षी (दे २।११२) । घोरण-खर्राटे भरना (ओटी प ५८) । घोरि—शलभ-विशेष (दे २।१११) । घोरइणिया-देश-विशेष की दासी (ज्ञाटी प ४७) । चोल-१ वेष्टित (आवहाटी १ पृ २८३) । २ वस्त्र से छाना हुआ दही
(प्रसा २२६)। चोलचम्म-एक प्रकार का थैला (नंदीटि पृ १३८) । घोलवड-खाद्य पदार्थ, दहीबड़ा (प्रसा २२६)। घोलिय-१ अत्यंत लीन-'अज्जरक्खिओ जविएसु अईव घोलिओ पुच्छइ'
(उसुटी प २४) । २ शिलातल । ३ बलात्कार (दे २।११२)। चोलिर–घूमने वाला (उसुटी प ६०)। घोसालई-लता-विशेष (प्रज्ञाटी प ३३) । घोसाली-शरद् काल में होने वाली लता-विशेष (दे २।१११)। चोसेडिय–पटोल का शाक (राजटी पृ ८६)। घोहणुमच्छ—मत्स्य-विशेष (अंवि पृ २२८)।
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१६२
देशी शब्दकोश
चउक्क-१ चौराहा (औप १) । २ आंगन, चौक (दे ३१२)-हिलयचउक्के'
(व)। चउक्कर-कार्तिकेय (दे ३१५)। चउरचिध-राजा सातवाहन (दे ३१७) । चउर-पर्वत-पत्ता य इमे चउरसिहरम्मि' (कु पृ १९२) । चंग-सुन्दर, मनोहर (दे ३।१)। चंगबेर-१ काष्ठ पात्र-'कट्ठमय समितातितिम्मणमलणं चंगेरिगासंठित
चंगबेरं' (दअचू पृ १७२)। २ बाँस से बना पात्र
(दजिचू पृ २५४)। चंगिमा-सौन्दर्य (विभा १००)। चंगेरि-तृण से निर्मित पात्र, टोकरी (जीभा २३६७) । चंगेरिया-टोकरी (राज १२)। चंगेरी--१ बांस का पात्र (दजिचू पृ २५४) । २ काष्ठ का बड़ा पात्र ।
३ बड़ी पट्टलिका (प्रटी प १३)। चंगोड-सिक्के, रुपये आदि रखने का कोष्ठागार (बृभा ५११६) । चंचइय-१ उपचित, खचित । २ शोभित (कु पृ २०८) । चंचट-क्षुद्रकीट-विशेष (जीवटी प २८२) । चंचपुड-आघात, प्रहार (जंबू ३३१०६ पा)। चंचप्पर-असत्य (दे ३१४) । चंचुच्चिय-कुटिल गमन, टेढी चाल (औप ६४) । चंचुमालइय-रोमांचित, पुलकित-'धाराहयनीवसुरभिकुसुम. चंचुमालइयतणुए' (भ ११११३४) । चंचुय-- जाति-विशेष (कु पृ ४०)। चंडातक-अोरुक, स्त्रियों का वस्त्र-विशेष (दे ३।१३) । चंडिअ-छिन्न (दे ३।३) । चंडिकित-क्रोधी (निचू २ पृ ३८४) । चंडिक्क-क्रोध, रौद्रता-कलहे चंडिक्के भंडणे विवादे' (भ १२११०३
दे ३।२)।
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देशी शब्दकोश चंडिक्कय-अत्यधिक कुपित, भयंकर-'रुट्ठा कुविया चंडिक्किया'
(भ ३।४५)। चंडिज्ज–१ पिशुन, चुगलखोर । २ क्रोध (दे ३।२०) । चंडिल-पीन, पुष्ट (दे ३३)। चंदइल्ल-मयूर (दे ३।५)। चंदट्ठिआ-१ कंधा । २ गुच्छा (दे ३।६) । चंदण-द्वीन्द्रिय जंतु, बेहडा या रुद्राक्ष के पेड़ में होनेवाला जीव
(जीवटी प ३१)। चंदणि-व|गृह, शौचालय (आवहाटी २ पृ १२८)। चंदणिउयय-आचमन का पानी बहने का स्थान (आचूला ११६२) । चंदणिका-१ व|गृह, शौचस्थान (उशाटी प १०६) । २ पुष्प-विशेष
(अंवि पृ २३२)। चंदणिया-१ गंदे पानी की नाली-ताए चंदणियाए छूढो-गृहस्रोतसि
इत्यर्थः' (उसुटी प ३१) । २ वर्चीगृह, शौचालय
(आवहाटी १ पृ २३६) । चंदणी-रोहिणी, चांद की पत्नी-'बंभदत्तो वि गुरुगुणवरधणुकलिओ ति
माणिउं मणइ । रयणवइं रयणिवई चंदो इव चंदणीजोगो'
(उसुटी प १६२)। चंदवडाया-वह स्त्री जिसका आधा शरीर ढंका हुआ हो (दे ३७) । चंदाणिउदय-१ जूठे बर्तन धोने का स्थान-'चंदाणिउदकं जहिं उच्छि?
भायणादि धुव्वति' (आचू पृ ३३८) । २ कुल्ला करने का स्थान-'चंदाणिउदयत्ति आचमनोदकप्रवाहभूमिः'
(आटी प ३४०)। चंवालग-पूजा के लिए ताम्र-पात्र (सू १।४।४४ पा) । चंदिल-नापित, नाई (दे ३।२) । चंदोज्ज-चन्द्र विकासी कमल, कुमुद (दे ३।४) । चंदोज्जय-कुमुद (दे ३।४ वृ)। चंपय -ढक्कन-गोयमा ! नो पदीवे झियाइ,""नो तेल्ले झियाइ, नो दीव
चंपए झियाइ, जोती झियाइ' (भ ८।२५६) । चंपिय-आक्रमण, दबाव (तंदु १४६) । चंभ-१ हल से जोतने योग्य खेत-करिसए एक्केक्कं हलचंभं देह'
(उसुटी प ४५) । २ हल द्वारा विदारित भूमिरेखा (दे ३३१)।
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देशी शब्दकोश चकप्पा-त्वक, छाल (दे ॥३) । चकोरित-विद्योतित (नंदीचू पृ ६) । चक्कणभय-नारंगी का फल (दे ३१७) । चक्कणाहय-अमि, तरंग-'णीसासचक्कणाहयताविय' (दे ३।६)। चक्कल-१ सिंहासन के चार पादों के नीचे का वर्तुलाकार भाग
(जंबूटी प ५५) । २ गोलाकार तकिया (बृटी पृ १०५५) । ३ कुंडल । ४ वर्तुल । ५ झूले का फलक । ६ विशाल
(दे ३२०)। चक्कलंडा-दुमुही सर्पिणी (आवदी प १६३) । चक्कलित-गोलाकार टुकड़ा (आचू पृ ३४४) । चक्कलिय-गोल (निचू ३ पृ ४८१) । चक्कबुंडा-दुमुही सर्पिणी (आवमटी प ४६७) । चक्किम- अति उत्तम-'चक्किमातिउत्तमा ते णियमा तप्पमाणजुत्ता भवंति'
(अनुद्वाचू पृ ५२)। चक्किय- समर्थ-'चक्किया णं गोयमा ! के ई तासु पदीवलेस्सासु आसइत्तए'
(भ १३॥८७)। चक्कुलंडा-सर्प-विशेष (दे ३१५)। चक्कुलेंडा-दुमुही सर्पिणी (आवहाटी १ पृ २३८) । चक्कोडा-अग्नि-विशेष (दे ॥२)। चक्खडिअ--जीवितव्य, जीवन (दे ३।६)। चक्खणिक-आस्वादनिक, चखने योग्य (अंवि पृ २५८) । चक्खिअ-चखा हुआ, आस्वादित (प्रा ४१२५८) । चक्खुड्डण-प्रेक्षणीय नाटक आदि (दे ३।४) । चक्खमेंट-एक आंख को खोलना और दूसरी आंख को बंद करना
_ 'चक्खुमेंटा णाम एक्कं अच्छि उम्मिल्लेति, बितियं णिमिल्लेति'
(निचू ४ पृ ३५४)। चक्खुरक्खणी-लज्जा (दे ३७) । चच्च-विलेपन (दे ६७६) । चच्चपुट-घोड़ों का विशेष पादघात जिससे उनकी उन्मत्तता द्योतित होती
हो (जंबू ३।१०६ पा)।
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देशी शब्दकोश
१६५चच्चपुड-आघात, घोड़ों का पाद-प्रहार-खुरचलणचच्चपुडेहिं धरणियलं
अभिहणमाणं अभिहणमाणं' (जंबू ३।१०६)। चच्चय–विलेपन-'गोसीसचंदणेणं चच्चए दलयइ (राज ३५१)। चच्चरिक्का-फोड़ा-फुन्सी (आवचू २ पृ १६८) । चच्चसा-वाद्य-विशेष (राजटी प १२६) । चच्चा-१ विलेपन, शरीर पर सुगंधित द्रव्य लगाना (ज्ञा १२१११२७) ।
२ हस्तबिंब, कुंकुम आदि से लिप्त हथेली का छापा। ३ हस्ततल
का आघात, हथेली से धक्का मारना (दे ३।१६) । चच्चाग-सुगन्धित द्रव्य से उपलिप्त (राज १३१) । चच्चाय---सुगंधित द्रव्य से उपलिप्त (जीव ३।४४६)। चच्चिक-स्थासक, सुगंधित वस्तु का विलेपन (प्रा २।१७४) । चच्चिक्क-विभूषित-'साहू गुणरयणचच्चिक्को' (चउ ३९; दे ३।४)। चच्चिर-विलेपित (कु पृ १२८)। चटुलग-खंड-खंड किया हुआ (आवटि प १०४) । चट्ट-१ हर किसी का द्वार खोलने वाला व्यक्ति, धूर्त-'चट्टा वारउग्घट्टगादि'
(आचू पृ ३२६) । २ विद्यार्थी (आवचू २ पृ ६०) । ३ आवारा (निचू ३ पृ २४५) । ४ सफाई करने वाले कर्मचारी (बटी पृ ७४०)। ५ तंत्र-मंत्र का ज्ञाता-'राइणा वाहराविया गारुडिया भोइयभट्टचट्टाइणो' (उसुटी प १७४) । ६ ब्राह्मण
(आवहाटी १ पृ २६६) । ७ बुभुक्षा। चट्टक-काष्ठनिर्मित चम्मच (नंदीटि पृ १३६) । चट्टसाला-पाठशाला (बृटी पृ १७१) । चट्टिय- चाट गया-'घयं""सुणएहिं चट्टियं' (बृटी पृ १०८) । चट्ठ-दारुहस्त, काठ का चम्मच (दे ३३१) । चटुअ-दारुहस्त, काष्ठ-चम्मच (दे ३।१ )। चट्टक-काठ की बड़ी कड़छी (पिटी प ४६)। चड-१ चोटी (दे ३।१) । २ शीघ्र (बृटी पृ १३१६) । चडकर-१ समूह (जंबू २।६५)। २ बार-बार कहना (बृटी पृ १६१३)।
३ विस्तार (विपाटी प ३६) । चडक्क-१ चटत्कार (प्रा ४१४०६) । २ शस्त्र-विशेष । चडगर-१ समूह-'भडचडगरपहकरवंदपरिक्खित्ते' (अंत ३१९४)।
२ बहाना, आरोप (जीभा ९७०)। ३ अधिक कहना, बार-बार
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देशी शब्दकोश
कहना ( बृभा ६१०५) । ४ बढ़ा-चढ़ा कर कहना - 'महता चडगरत्तणेण अत्थकधा हणति' ( सूचू १ पृ २३५) । ५ विस्तृत (भटी पृ८५२) ।
चडफडत - छटपटाना - ' चडफडते यत्ति अभीक्ष्णमितस्ततो भ्राम्यतः ' ( बृटी पृ १६६९ ) ।
चडफड - हलचल (आचू पृ ३५७ ) 1
चडवेला - चपेटा (प्रटी प ५७ ) ।
चडाविय - प्रेषित - तिणिवि छिन्नकडए चडावियाणि' (दहाटी प ६६) । चडिय - चढा हुआ, आरूढ (प्रा ४१४४५)। चडिआर - आटोप, आडंबर (दे ३।५) ।
चडुग - पात्र - विशेष (व्यमा ८ टीप २२) । चडुत्तर --- चढ़ना-उतरना ( बूटी पृ ११४५ ) ।
चडुलग - खण्ड-खण्ड किया हुआ - विदुलगचडुलग छिन्ने' ( सूनि ६९) ।
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चडुला - रत्न - तिलक, तिलक के स्थान पर पहना जाने वाला मस्तक का आभूषण - विशेष (दे ३८ वृ) |
चडुलातिलय – स्वर्ण - श्रृंखला में लटकता हुआ
आभूषण - विशेष - 'चडुलातिलयं तिलयम्मि' (दे ३८ ) |
रत्न - तिलक, मस्तक का कंचण संकलियालं बिरयण
चड्डु - १ पिठर के आकार का पात्र ( बुभा १९५१) । २ उद्दंड ॥ ३ बहुभक्षी ( ति ११९३ ) ।
चड्डुग- - काष्ठपात्र - विशेष - 'कट्ठमयवारच डुग' ( निभा ३०६० ) । चड्डय - काष्ठपात्र - ' वारओ चडुयं कव्वयं तं पि कट्टमयं' ( निचू ३ पृ ३४३) ।
चट्ठिया - गुञ्जा (अनुद्वाहाटी पृ ७६ ) |
चणविका - चना, धान्य- विशेष (अंवि पृ २२० ) ।
चणा-बुद्धि, निपुणता, चतुराई- 'दव्वं चणाए सव्वं आकड्ढितं ' ( आवचू १ पृ ५२४) ।
चणोठिया - गुंजा (अनुद्वामटी प १४३ ) ।
चण्णाडीतय - ऊर्ध्व ग्रीवा - 'दव्वण्णतो जो चण्णाडीतएण विणिहालितो जाति' ( अचू पृ १०२ ) ।
चत्त - तकली, सूत कातने का उपकरण (दे ३ । १) |
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देशी शब्दकोश चत्ताल-चालीस (निचू ४ पृ ११३) । चत्थरि-हास्य (दे ३।२)। चदुलग-तिर्यक्-'चदुलगछिन्नं तिर्यक्छिन्नं' (आवहाटी २ पृ १०७) । चप्पडग-काष्ठ-यंत्र-विशेष (प्र ३।१२) । चप्पडय-१ चार पल के भार वाला (?) (बृभा ५९७५) । २ चपटा
(निभा ८४४) । चप्पडिज्जंत-आक्रान्त होता हुआ (सूचू १ पृ १६१)। चप्पाचप्प-टूंस-ठूस कर भरना-'ताहे सुक्कस्स चप्पाचप्पं भरेइ'
(निचू ४ पृ १४६)। चप्पाचप्पि-ठूस-ठूस कर भरना-'चप्पाचप्पि भरेमाणं दर्छ भणति'
(निचू ४ पृ १५६) । चप्पुट्टिका-जादू-टोना-'विंटलानि खिटिका चप्पुटिकादीनि प्रयुञ्जते'
(व्यभा ७ टी प ४१)। चप्पुडिया-चुटकी (ज्ञा १।३।२६) । चप्पुडी-चुटकी (दे ८१४३) । चप्फल-१ शेखर-विशेष, शिरोभूषण । २ असत्य, झूठ (दे ३।२०) ।
३ झूठा, मिथ्याभाषी (कु पृ २२७) । चप्फलया-मिथ्याभाषिणी (प्रा ३।३८)। चप्फलिग-शेखर, मुकुट (नंदीटि पृ १४२) । चप्फलिगाइय-असत्य, कुतूहलपूर्ण-'सो भणइ-चप्फलिगाइयं कहेइ'
(आवहाटी १ पृ २८८)। चब्बच्चब-भोजन करते समय चब-चब शब्द करना-पूवलियं खायंतो
__ चब्बच्चबसई सो परं कुणइ' (बृभा २६२४) । चमढण-१ खिन्नता, उद्विग्नता (बृभा ५२६६) । २ गर्हणा, खिसना
(ओनि ७६) । ३ कदर्थना (ओनि १६३)। ४ जिसकी कदर्थना की जाय वह (ओनि २३७) । ५ मर्दन, अवमर्दन (ओटी प १२६) । ६ आंखें बंद करना (निभा १७३०) ।
७ आक्रमण । ८ भोजन । चमढणा-१ उद्विग्नता (बृभा १५८४) । २ पादप्रहार आदि
(ओनि १६३) । ३ मर्दन (ओभा १८७) । चमढिय-विनष्ट, विनाशित (व्यभा ४।२ टी प २०)।
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देशी शब्दकोश
चमढेत्ता-तिरस्कार कर-'चमढेत्ता गओ-तिरस्कृत्य गतः'
(आवहाटी १ पृ१३६)। चम्मडिल-पक्षी-विशेष (अंवि पृ २२६) । चम्मरुक्ख-पुरुष-'दवावेसु इमस्स चम्मरुक्खस्स दीणाराणं अद्धलक्खं'
(कु पृ ३२)। चम्मिरा-मत्स्य-विशेष (अंवि पृ २२८) । चम्मिराज--मत्स्य-विशेष (अंवि पृ २२८) । चम्मेद-व्यायाम में काम आने वाला उपकरण मुद्गर आदि
(भटी पृ १४१३)। चरक्खा-पशु-विशेष (दश्रु ७५२४) । चरु-१ नाम, आख्या (निचू ३ पृ २२५) । २ मंत्रित खाद्य-विशेष-'मा
मम पुत्तोवि एवं नासउत्ति तीए खत्तियचरू जिमिओ' (आवहाटी १ पृ २६१)। ३ चरु-पात्र में तैयार किया गया चावल
आदि द्रव्य जो बलि के काम आता है (निरटी पृ ३२)। चरुग-१ नाम, आख्या (निभा ३४६०)-दाणरुई सड्ढो वा णिवेयण
चरुववदेसं कातुं साधूण देति' (चू ३ पृ २२५) । २ मंत्रित खाद्यविशेष-'अहं ते चरुगं साहेमि जेणं ते पुत्तो बंभणस्स पहाणो होहिति'
(आवहाटी १ पृ २६१) । चरल्लेव-नाम, आख्या (दे ३।६)। चरेडिया-छेना (नंदीटि पृ १८२)। चलणि-पैर तक लगने वाले कीचड़ का स्थान-पंकबहुला पणगबहुला .
चलणिबहुला' (भ ७।११८) । चलणिया-उपकरण-विशेष (पंव ७८२)। चलणी-पैरों का स्पर्श करने वाला कीचड़-'चलनी चरणमात्रस्पर्शी कर्दमः'
(जीवटी प २६२)। चलिका-फल-विशेष (अंवि पृ ७०)। चल्ल-चरण (अंवि पृ ६०)। चवग-भट्टी-'महल्ले चवगे चुल्लीसु य दहंति' (सूचू १ पृ १२५) । चवचव-चबाते समय होने वाली 'चव-चव' की आवाज (भ ७।२५) । चवलग-धान्य-विशेष (दअचू पृ १४०)। चवलय-धान्य-विशेष (दश्रुचू प ३८)।
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देशी शब्दकोश
चवला-अन्न-विशेष (बृटी पृ १०)। चवला (राज) ।। चवलिका-धान्य-विशेष, चवला (भटी प २७४) । चवलिय--भाजन-विशेष-'थाल-मल्लग-चवलिय-दगवारक' (जीव ३१५८७)। चवेडी-१ श्लिष्ट करसंपुट, बद्धांजलि (दे ३॥३) । २ संपुट (वृ) । चवेण-निन्दा (दे ॥३)। चसणिका -बहुपाद-प्राणी-विशेष (अंवि पृ २२७) । चहित-१ दृष्ट, वांछित । २ चन्दन आदि से चचित-'चहिता मनोरथ
दृष्टिदृष्टा अथवा गोशीर्षचन्दनादिचिता' (नंदीचू पृ ४६)। चहिय-अभिलषित, वांछित, चाहा हुआ-सव्वण्णू सव्वदरिसी तेलोक्क
चहिय-महिय-पूइए' (उपा ७.१०)। चहुट्ट-१ निमग्न, लीन-'चहुट्टणक्खो वि कुणइ चंडिक्क' (दे ३।२) ।
२ चिपका हुआ। चाउरंतय-लग्न-मंडप, चंवरी-'तत्य कयं धवलहरस्स बहुमज्झदेसभाए
सव्वधण्णविरूढंकुरा चाउरंतयं' (कु पृ १८१) । चाउल-१ चावल (स्था ३१३७६; दे ३।८) । २ चावल का, चावल से
संबंधित-'तहेव चाउलं पिट्ठ" (द ५।२।२२)। चाउलय-चावल (दे ३८ वृ)। चाउल्ल-चपल (अंवि पृ ३)। चाड-१ चुगलखोर, धूर्त (दअचू पृ २५५; दे ३।८) । २ पलायन
___ पलायनं चाडो णासणं इति चूणी' (बृटी पृ ४०८) । चाडय-चुगलखोर (निचू ३ पृ ४२) । चाय-कंद-विशेष (अंवि पृ १८१) । चार--१ चिरौंजी का पेड़ (अनुद्वामटी प ४२; दे ३।२१) । २ बंधन
स्थान, कारावास । ३ इच्छा (दे ३२१)। ४ फल-विशेष
(प्रज्ञा १६।५५)। चारक्खापाल-कैदखाने का अध्यक्ष, जेलर (आव २ पृ १८२) । चारण-ग्रन्थिच्छेदक (दे ३।६ )। चारणअ----ग्रन्थिच्छेदक, पॉकेटमार (दे ३।६)। चारवाय---ग्रीष्म ऋतु का पवन (दे ३६) । चारायण --गोत्र-विशेष (अंवि पृ १५०) । चारि-चारा (ओनि २३८) ।
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देशी शब्दकोश
चारुपीणय-पात्र-विशेष (जंबूटी प १००)। चालणा-पूछताछ-'ता किं करेमि किंचि से चालणं, अहवा ण करेमि, कज्जं
पुणो विहडइ' (कु पृ १५१) । चालवास-मस्तक का आभूषण-विशेष (दे ३।८)। चालीस-चालीस (उसुटी प १६१)। चावल्ल-धान्य-विशेष (निचू २ पृ १०६) । चाववंस-पर्व-वनस्पति-विशेष (प्रज्ञा ११४१२१)। चास-हल द्वारा विदारित भूमि-रेखा (दे ३।१) । चाहित-प्रेक्षित-'चहितं ति चाहितं प्रेक्षितं निरीक्षितं दृष्टमित्यनन्तरं'
(नंदीचू पृ ४६)। चिच-इमली (दश्रुचू प ३८)। चिचइअ--१ खचित-चिंचइ ति देशीवचनतः खचितमित्युच्यते'
(आवहाटी १ पृ १२३)। २ मण्डित, शोभित-'समणो समण
गुणनिउणचिचइओ' (ति ७०२)। ३ चलित (दे ३॥१३)। चिचणिया-इमली (व्यमा ६ टी प ८)। चिचणी–१ घरट्टिका, धान पीसने की चक्की (दे ३।१०) । २ इमली का
पेड़। चिचा--इमली, इमली का पेड़ (विपा २६।१६; दे ३३१०) । चिचिणि -१ इमली (ओनि २६) । २ इमली का पेड़
(निभा २६१३; दे ३३१०)। चिचिणिचिचा-इमली-'कैश्चित् चिचिणिचिंचाशब्दः समस्त एव
अम्लिकावाचकत्वेन प्रोक्तः' (दे ३।१० वृ)। चिचिणी---इमली का पेड़ (निचू ६ पृ ७४; दे ३।१०) । चिचिय-१ मेंढक की चि-चिं की आवाज (उसुटी प ३०५) । २ मंडित,
भूषित। चिचिल्लिअ-भूषित (पा १४६)। चिधाल-१ रम्य । २ उत्तम (दे ३।२२) । ३ नये रंगे वस्त्र की पगड़ी
(कु पृ ४७)। चिफलक-बैठने का आसन-विशेष-'फलकी भिसी चिंफलको मंचकोऽथ
___मसूरको' (अंवि पृ १५)। चिफल्लणी-अोरुक, स्त्रियों का ऐसा अधोवस्त्र जो साथल तक आता हो
(दे ३।१३)।
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देशी शब्दकोश
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चिकिचिकि-चिक्-चिक् करना, फुसफुसाना (सूचू २ पृ ३६८)।। चिक्कण-१ चिकना, दारुण, सघन-विभूसावत्तियं भिक्खू कम्मं बंधइ
चिक्कणं' (द ६।६५) । २ श्लक्ष्ण (भ १६३५२) । चिक्कदोरिया-द्वार पर पर्दे के रूप में लगाई जाने वाली चटाई आदि
(दजिच पृ २५६)। चिक्का-१ अल्प वस्तु । २ पानी आदि की पतली धारा (दे ३।२१) । चिक्खय-परिष्कृत (?) (निचू ३ पृ ४४३)। चिक्खल्ल-कर्दम, कीचड़-चिच्चं करोति खल्लं च भवति चिक्खल्लं'
(अनुद्वा ३६८; दे ३।११) । चिक्खित-खुला हुआ-'चिक्खितदारं पिहए' (पंक ५६६) । चिक्खिलिच्चिय-कीचडयुक्त (आवचू १ पृ १३१) । चिक्खिल्ल-कर्दम-'चिक्खिल्लशब्दः कर्दमे देशी' (से १०।४३) । चिगचिगंत-चमकता हुआ, चकचकाहट करता हुआ-'मुग्गसेलो चिगचिगंतो
___ अच्छइ' (बृटी पृ १०१)। चिच्च-१ चिक्-चिक् होना (अनुद्वा ३६६) । २ त्याज्य (पंक ३७१) ।
३ चिपटी नासिका वाला (दे ३।६) । ४ रमण, कटिभाग'चिच्चठिअचिल्ला उअ धावइ जणणी' (दे ३।१०) । (रमण :
The hip and the loins, Apte) । चिच्चर-चपटी नासिका वाला (दे ३१९ व)। चिच्चरय-चपटी नाक वाला (दे ३।६)। चिच्चि -अग्नि (दे ३।१०)। चिच्ची-चीत्कार-'महया महया चिच्चीसद्देणं विघुठे विस्सरे आरसिए'
(विपा ११२॥३४)। चिठें-१ निश्चेष्ट (आ ८८।२०) । २ गाढ-चिट्ठति वा गाढंति वा'
(आचू पृ १४१)। चिट्ठणा-अवस्था-'अवत्थाणं अवत्था या एगट्ठा चिट्ठणा ति व'
(जीभा १९६६)। चिडग-पक्षि-विशेष (प्रज्ञा ११७६) । चिडिग--चटक पक्षी (प्र श६) । चिणोडी-गुंजा (दे ३।१२) । चित्त-काष्ठ-विशेष-चित्तशब्देन किलिजादिकं वस्तु किञ्चिदुच्यते'
(अनुटी प ५)।
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१७२
देशी शब्दकोश चित्तठिअ-परितोषित, सन्तुष्ट (दे ३।१२) । चित्तदाउ-मधुपटल, मधुमक्खियों का छाता (दे ३।१२)। चित्तपक्ख-चार इन्द्रिय वाला जंतु-विशेष (प्रज्ञा ११५१) । चित्तपत्तय-चार इन्द्रिय वाला जंतु-विशेष (उ ३६।१४८) । चित्तपरिच्छेय-लघु, छोटा (औप ५७)। चित्तपरिच्छोक-लघु, छोटा-'चित्तपरिच्छोको-लघुः' (भटी प ३१८)। चित्तपरिच्छोय-लघु (भटी प ३१८) । चित्तल-१ गोलाकार टुकड़े (दजिचू पृ १९८) । २ हरिण की आकृति वाला
जंगली पशु-विशेष (प्रटी प १०) । ३ विभूषित (दे ३।४)।
४ रमणीय (व) । ५ चित्रविचित्र, चितकबरा (पा १६७) । चित्तविय-प्रोत्साहित किया-'चित्तविया आडत्तिया' (कु पृ ६५) । चित्ताचिल्लडय-जंगली पशु-विशेष (आचूला ११५२)। चित्ताचेल्लरय-जंगली पशु-विशेष (आचूला ११५२ पा)। चित्ति-चिता-'गहियाई कट्ठाई, रइया महाचित्ती, लाइओ जलणो'
(कु पृ १०८)। चिद्दविअ-विनष्ट (दे ३।१३)। चिप्पग-कूटी हुई छाल (बूटी पृ १०२१) । चिप्पिडय-धान्य-विशेष (दश्रुचू प ३८) । चिप्पित-१ नपुंसक-विशेष-'चिप्पितो णाम जस्स जायमेत्तस्सेव अंगुटुपदे
सिणीमज्झियाहि चड्ढिज्जति' (निचू ३ पृ २४६) । २ चिपका
हुआ, आक्रांत-गृद्धा नरा कामेसु चिप्पिता' (सुचू १ पृ९३) । चिप्पियनपुंसक-विशेष, जन्म के समय अंगूठे से मर्दन कर जिसका
अण्डकोष दबा दिया गया हो (बृभा ५१६७) । चिप्पिस---नपुंसक-विशेष-'जातमेत्ताण चेद जेसिं मिलितेहिं चोतिआ ते
चिप्पिसा' (निचू २ पृ ४५२)। चिमिटा-चपटी-पेल्लिया णासिका चिमिटा भविस्सति' (निचू ३ पृ ४०६). चिमिण-रोमश, दाढ़ी आदि न बनाने के कारण जिसके केश लंबे हो गए
हों वह-'चिल्लिरि-डसिया तुह अरिणो चिमिणा' (दे ३।११)। चियत्त-१ सम्मत-चियत्तोवहि-साइज्जणया' (स्था ३।३८२) । २
प्रीतिकर-'चियत्तं पविसे कुलं' (द ५।१।१७)। चियाय-त्याग (स्था १०।१६) । चिरंडिहिल्ल-दही (दे ३।१४ पा) ।
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देशी शब्दकोश
चिरढिहिल - दही ( पा २८१) । चिरया - झोंपड़ी, कुटीर (दे ३।११) । चिरिचिरा --- जलधारा (दे ३३१३) । चिरिडिल्लि - दही (दे ३।१४ पा) । चिरिका - फोड़ा-फुन्सी - 'कोढियरूवेणं निविट्ठो तं चिरिका फोडित्ता सिंचइ' ( आवहाटी २ पृ १२७ ) ।
चिरिकका -१ छींटे - 'लोहियचिरिक्काहि भरिज्जंतो- रुधिरच्छटाभिः ( उशाटी प ११६ ) । २ मशक, पानी भरने का चर्म - भाजन । ३ प्रातःकाल । ४ लघु प्रवाह (दे ३।२१ ) |
चिरिचिरा - जलधारा, पानी का लघु प्रवाह (दे ३।१३ ) | चिरिडिल्लि - दही (दे ३ । १४) । चिरिट्टिी - गुंजा (दे ३।१२) ।
चिलमणि - पर्दा (पंक ८५०) ।
चिलाई - देश - विशेष की दासी ( ज्ञा ११११-२ ) ।
चिलातिया - किरात देश की दासी (भ ६११४४) ।
चिलिचिलि - शब्द - विशेष - ' चिलिचिलिसद्दो पुन्नो सामए सूलिसूलि धन्नो उ' ।
( प्रसाटी प ४१० ) ।
चिलिचिलिय- भीगा हुआ ( तंदु ११६ ) ।
चिलिचिल्ल - कर्दमयुक्त (प्रटी प ४६ ) ।
चिलिच्चिल - कीचड़ से लथपथ ( मार्ग ) - कद्दमचिलिच्चिलपहे' ( प्र ३३५; दे ३१२) ।
चिलिच्चील - आर्द्र, गीला ( दे ३ । १२) ।
चिलिण - मलिन, आर्द्र - 'सेयागय रोमकूपगलंत चिलिणगत्ता' (भ | १६८ ) ।
चिलिमिणि - पर्दा ( आवनि १४०१ ) ।
चिलिमिणी - पर्दा (पंक ७२३) ।
चिलिमिलि - पर्दा ( नि ११४) ।
चिलिमिलिका पात्र को प्रमार्जित करने का वस्त्र - विशेष
( प्रसादी प ११८ ) ।
चिलिमिलिगा - परदा (सू २।२।२५ ) चिलिमिलियाग - - परदा ( बृ १।१४ ) ।
१७३
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१७४
चिलिमिली - यवनिका, पर्दा (आचूला २१४६ ) | चिलीन - गीला, कर्दममय (प्रटी प ६६ ) ।
चिलीय - पर्दा ( बुभा ३५०१ ) ।
चिल्ल - १ लड़का ( दे ३ । १० ) । २ शिष्य, चेला । ३ सूर्प, छाज । चिल्लक - १ देदीप्यमान ( आवचू १ पृ २५७) । २ वृक्ष - विशेष, चीड का वृक्ष (अंवि पृ ६३ ) ।
चिल्लग- -१ चमकीला, देदीप्यमान- 'चिल्लगं दप्पणं गहेऊण
( ज्ञा १।१६।१६३) । २ बच्चा ( आवहाटी २ पृ १२० ) । ३ लीन (प्रटी प ७९ ) । ४ नर्तकों की विशेष वेषभूषा ( कु पृ ४७ ) । चिल्लग्ग - बच्चा, शिशु ( उसुटी प ५३ ) ।
देशी शब्दकोश
चिल्लय - १ अपचक्षु ( प्र १३७) । २ देदीप्यमान ( औप ४९ ) । चिल्लल - १ कर्दमयुक्त जलाशय (भ ५। १८६ ) । २ चीता ( जीव ३।६२० ) ।
चिल्ललग - १ देदीप्यमान- चिल्ललगानि देशीवचनत्वात् देदीप्यमानानि ' (प्रज्ञाटी प ६ ) । २ चीता (भ २५१) ।
चिल्ललय - चीता, श्वापद पशु- विशेष (प्रज्ञा ११ । २१ ) ।
चिल्ला - चील (दे ३।९) ।
चिल्लिक - नपुंसक का एक प्रकार (अंवि पृ ७३ ) ।
चिल्लिका – १ लीन, आसक्त । २ देदीप्यमान- चिल्लिकाहि' ति लीनैः दीप्यमानं' (प्रटी प ७७) ।
चिल्लिय-१ देदीप्यमान - विचित्तउल्लोगचिल्लियतले' (भ ११ । १३३) । २ लीन (ज्ञाटी प ६१) ।
चिल्लिया - देदीप्यमान- 'देशीपदमेतत् दीप्यमानं' (जंबूटी प १०२ ) ।
चिल्लिरि-मच्छर (दे ३।११) ।
चिल्ली - पत्ते वाली वनस्पति- विशेष (आटी प ५७ ) ।
चिल्लर - मुसल, चावल आदि कूटने की मोटी लकड़ी (दे ३ । ११) । चीड- १ मांस के टुकड़े - मंसं चीडं वा आमिसं पुंजेसु ठविज्जइ' (अनुद्वाच् पृ १५ ) । २ काले कांच की मणि वाला । चीण- १ छोटा - 'चीणचिमिढ-वंक भग्गनासं ' ( ज्ञा ११८७२ ) । विशेष, व्रीहि का एक प्रकार - 'चीणाकूरं छेलियात क्केण दिन्न' ( उसुटी प २४१) ।
२ धान्य
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देशी शब्दकोश
१७५
चीप-भौंह-'चीपादीण पमज्जणं' (निभा १५१६) । चीर-चिथडों को जोड़कर बना वस्त्र, फीता (कु पृ १४५) । चीवट्ठी--भाला, शस्त्र-विशेष (दे ३॥१४) । चीही-मुस्ता का तृणविशेष (दे ३।१४) । चुचुअ-शेखर, मस्तक की माला, किलंगी (दे ३।१६) । चंचण-इभ्यजाति-विशेष (प्रज्ञा ११६४) । चुंचुणि.....चलित, कम्पित (दे ३।२३ वृ)। चंचुणिआ-१ च्युत, भ्रष्ट । २ गोष्ठी की प्रतिध्वनि । २ रमण, संभोग।
४ इमली का वृक्ष । ५ मुष्टिद्यूत । ६ यूका, जूं
(दे ३०२३)। चुंचुमालइय-रोमाञ्चित-चुंचुमाल इयतणू ऊपवियरोमकूवे तं सुमिणे
ओगिण्हइ (ज्ञाशश२०)। चुंचुमालि-आलसी (दे ३।१८) । चुंचुलि-१ चोंच । २ चुलुक (दे ३।२३) । चंचलिअ-१ अवधारित, निश्चित । २ सस्पृहता, लालच (दे ३।२३)। चुंचुलिपूर-चुलुक, चुल्लू (दे ३,१८) । चुंचुली--१ चोंच । २ चुल्लु (दे ३ २३ वृ)। चुच्चु-गुच्छ-वनस्पति-विशेष (प्रज्ञा १।३७।२) । चुंछ -परिशोषित, सूखा हुआ, (दे ३।१५) । चुटिर-चुनने वाला (दे ६।११६ वृ)। चुंढी-थोड़े पानी वाला अखात जलाशय-'चुंढीसु य जूहेसु य कच्छेसु य
नदीसु य' (ज्ञा १११६६७) । चंदप्पडिय--काठ से बना हुआ आच्छादन-विशेष (निचू २ पृ ३६६) । चुंपाल --- झरोखा, गवाक्ष (कु पृ २४६) । चुंभल--१ पुष्पनिष्पन्न आभरण-विशेष (अंवि पृ६४) । २ शेखर, कलंगी
(दे ३।१६)। चुक्क-१ विस्मृत (बृभा ५१८१) । २ स्खलना (पंक ३६८) । ३ मुष्टि
(दे ३।१४) । ४ चूर्ण (कु पृ २२३) । ५ अनवहित (से ११६) । चक्कय-गलती-'समायरीए किंचि चुक्कयं कयं खलितं वा'
(निचू ३ पृ २५२)। चक्कार-आवाज, सिंहनाद-'चुक्कारशब्दो देश्यां शब्दवाची' (से १३।२५) ।
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१७६
देशी शब्दकोश
चुक्कितक-खाचे-विशेष, चूरमा (अंवि पृ २४६) । चुक्कुड-बकरा, छाग (दे ३।१६) । चुचय-अनार्य देश की एक जाति (भ ३।६५) चुज्ज-आश्यर्य (दे ३।१४) । चुडण-जीर्णता (पिनि २५) । चुडलग-खण्ड खण्ड किया हुआ (सूनि ७१) । चुडलय-अलात (निचू १ पृ १६३)। चडलि-उल्मुक, जलती हुई लकड़ी (बृभा ३१०२) । २ जलता हुआ घास
का पूला-'चुडलि तणपिंडी अग्गे पज्जलिता' (नंदीचू पृ १६)। चुडलिया-जलता हुआ घास का 'पूला' (नंदी १२ ) । चुडली-अलात, जलती हुई लकड़ी (उशाटी प ३३०) । चुडल्लि-जलता हुआ घास का पूला (भटी पृ ८६३) । चुडिलीय-उल्का, अलात (अंवि पृ ६२)। चुडुप्प-छाल उतारना (दे ३।३ वृ) । चुडुप्पा-त्वक, छाल (दे ३।३)। चडल - उल्का, जलती हुई लकड़ी (जीभा ४२) । चुडुलि--गुरु-वन्दन का एक दोष (आवनि १२११) । चुडुलिय-गुरु-वन्दन का एक दोष, रजोहरण को अलात की तरह घुमाते हुए
वन्दन करना (प्रसाटी प ३८)। चुडुली--अलात, जलती हुई लकड़ी (जीमा ४०; दे ३।१५) । चुड्डुल्ली-उल्का (प्रज्ञाटी प २६) । चुणअ-१ चंडाल । २ अल्प । ३ बालक। ४ मुक्त। ५ छंद, अभिप्राय ।
६ अरोचक, अरुचिकर। ७ व्यतिकर, प्रसंग (दे ३२२) । ८ विअरअ' (?)। ६ आघ्रात, संघा हुआ-'चुणओ विअरओ इति
धनपालः । आघ्रातार्थे पीति केचित्' (वृ)। चुणय-पुत्र (व्यभा ७ टी प ८५)। चुणिअ-निधारित, विशेष रूप से धारण किया हुआ (दे ३।१५)-'सा अच्छइ
___ आसतंतुचुणिअप्पा' (वृ)। चुण्णइअ-चूर्ण से आहत, जिस पर चूर्ण फेंका गया हो वह (दे ३।१७) । चुण्णय-भयभीत, संत्रस्त (विपा ११२।१४) । चुण्णाआ–कला, विज्ञान (दे ३।१६) ।
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१७७
देशी शब्दकोश चुण्णासी-- दासी (दे ३।१६) । चुप्प-स्नेहिल, स्नेहयुक्त (दे ३।१५) । चुप्पल-शेखर, मस्तक की माला, कलंगी (दे ३१६)। चुप्पलिअ-रंगा हुआ नया वस्त्र (दे ३।१७) ।। चुप्पालअ-वातायन, गवाक्ष (दे ३।१७) । चुप्पुडिआ-चुटकी (उशाटी प १०८) । चुप्फुल-शेखर-विशेष, शिरोभूषण । २ असत्य (दे ३।२० पा)। चुन्भल-कलंगी, शेखर (पा ३४६)। चुरु- कृमि-विशेष (अंवि पृ २२६)। चुलचुल-उत्कंठा, गुद्गुदी-तहमोहकम्मपामावियणाए चुलचुलेंत सव्वंगे'
(कु पृ २२१)। चलुक-हाथ के सम्पुट की आकृति वाला जलाशय-विकटाशयो जलाशय',
अमुं च प्रस्तावात् चुलुकमाहुर्वृद्धाः' (भटी पृ १२२७) । चुलुग-चुल्लू-'पसयमिति पसती चुलुगो भण्णति' (निचू २ पृ २२०) । चुलुचुलिअ-स्पन्दित (पा ५५१) । चुलुप्प-बकरा (दे ३३१६) । चुल्ल-१ भोजन (पिनि ३८३) । २ चूल्हा (जीभा १२०५)।
३ छोटा-'चुल्ल शब्दो देश्यः क्षुल्लपर्यायः' (जंबूटी प ६६) । ४ शिशु ।
५ दास (दे ३३२२)। चुल्लक-१ चूल्हा (अंवि पृ २५४) । २ भोजन-'चुल्लको देशयुक्त्या
भोजनम्' (आवदी प १६०)। चल्लग-१ भोजन (भावनि १०७२) । २ बारी-बारी से भोजन-परिपाटी
भोजनम्' (उशाटी प १४५)। चुल्लमाउया-सौतेली मां, विमाता (विपा ११६।१४) चुल्लमातुय-छोटी मां, चाची (अंवि पृ २१६) । चुल्लि -१ चूल्हा (बृभा १९५६; दे ११८७) । २ चूल्हे की अग्नि
(अंवि पृ २५४)। चुल्ली-१ चूल्हा (सूचू १ पृ १२५) । २ शिला, पाषाणखंड (दे ३।१५)। चुल्लोडअ-जेठ, पति का बड़ा भाई (दे ३।१७) । चअ-चूचुक, स्तन का अग्रभाग (दे ३।१८) । चूचु-दूधी (उपाटी पृ २२) ।
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देशी शब्दकोश चूड-चूडा, बाहु-भूषण (दे ३॥१८) । चूडलिक-१ उल्का, जलती हुई लकड़ी । २ वंदना का एक दोष ।
(प्रसाटी प ३५) । चूरिम-मिष्टान्न-विशेष (प्रसाटी प ५६) । चूरमा (राजस्थानी) । चलय-चूडा, बाहु-भूषण (उचू पृ १५८) । चूलियंग-संख्या-विशेष (भ ५।१८) । चुलिया-संख्या-विशेष-'चतुरशीति चूलिकाङ्गशतसहस्राणि एका चूलिका'
(जीव ३१८४१ टी प ३४५) । चेच्च-विशेषरूप से जड़ित (जंबूटी प ५५)। चे-बच्चा, बालक (निचू ३ पृ ४०८)। चेड-१ बालक (पिनि ४१; दे ३।१०)। २ लघु, छोटा (व्यभा ३ टी प ७)। चेडरूव-शिशु, कुमार (दश्रुनि ६७)। चेडी–बालिका (आवनि १३६) । चेढ-राज्यकर्मचारी (आवचू १ पृ ४८०)। चेला-१ अनार्य देश में उत्पन्न स्त्री । २ दासी-'चेलाहि ति चेटिकाभिः
अनार्यदेशोत्पन्नाभिर्वा' (औपटी पृ १४५)। चेलिक-वस्त्र (अवि पृ १८) । चेल्प-मुसल (दे ३।११)। चेल्ल-शिष्य (आचू पृ १३३) । चेल्लग-शिष्य (दअचू पृ २१)। चेल्लय--१ शिष्य (आवचू २ पृ ६५) । २ बच्चा-'एगो हत्थी जाए जाए
हत्थिचेल्लए मारेइ' (आवहाटी २ पृ १२८) ।' चेल्ललक-देदीप्यमान–'देशीवचनाद् देदीप्यमानानि' (जीवटी प १७३) । चेल्लिक्क-बालपुत्र-नलदामकोलियस्स य चेल्लिक्कं मक्कोडएण खतितं'
(दअचू पृ २६)। चेवइय-अलंकृत, शोभित (आचूला १५।२८।८) । चोअक-सुगंधित द्रव्य (जंबूटी प ८२)। चोंकण-नोचना-'करेति चोंकण-णत्थण-वाहण-मारणातिगं'
(दअचू पृ १७८)। चोंबग-माया-'चाड-चोंबग-कूडसक्खिसमुन्भावितदुव्वरारंभ'
(दअचू पृ २५५)।
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१७६.
देशी शब्दकोश चोक्ख - पवित्र, शुद्ध - 'चोक्खा परमसूईभूया' (दश्रु ८।६६)। चोक्खतरय-अच्छा--- 'अणागए चेव तस्स कालस्स छड्डेति अण्णं चोक्ख
तरयं कसाइमं लभृणं ति' (निचू ३ पृ ५६६) । चोक्खलिणी-शुद्धता रखने वाली स्त्री (पिनि ६०२) । चोज्ज-आश्चर्य (ज्ञा १।१८।१७; दे ३।१४) । चोट्टी-चोटी (दे ३।१)। चोढ-बिल्व-फल या बिल्व का वृक्ष (दे ३।१६)। चोत्त-चाबुक (दे ३।१६)। चोत्तय-प्रतोद, बांस का बना हुआ प्राजन-दण्ड (पा ६२४) । चोदग--छाल-- चोदगं उच्छितोदय छल्ली' (आचू पृ ३४४)। चोद्द-पुत्र-'चारभडचोद्देण पण्णे मग्गितो' (निचू ४ पृ ३१२) । चोपग-- राज्याधिकारी-'चोर-पारदारिय-सूय-चोपगादिबहुजणं'
(सूचू १ पृ १६७)। चोपलय-गवाक्ष, वरण्डा (दजिचू पृ १७४) । चोप्प-मूर्ख-'हिंडति चोप्पायरितो, निरंकुसो मत्तहत्थिव्व'
(बृभा ३७३)। चोप्पग-राज्याधिकारी-'राया रायअमच्चो वा चोप्पगसमीवातो सोउं'
(निचू ३ पृ १०३)। चोप्पड-१ चिकनाहट (पंव २६५) । २ घी, तैल (प्रसाटी प ७५)।
३ मलिन (पंक ४६६)। चोप्पाल-१ देवता की आयुधशाला--'जेणेव चोप्पाले पहरणकोसे'
(भ ३।११२) । २ वरण्डा (जीव ३१६०४)। चोप्पालक–देवता की आयुधशाला (जीवटी प २३२)। चोप्पालग-वरंडा (जंबू २।१६)। चोप्पालय--१ खिड़की। २ खुला आकाश-'छिड्डाते पुणो लोए चोप्पालया
भण्णति' (निचू १ पृ ८४) । चोप्फाल-वरण्डा (जंबूटी प १२१)। चोप्फुच्च-स्नेहिल, प्रेमयुक्त (दे ३।१५) । चोय-१ छाल (प्र १०।१६) । २ आम आदि का रुंछा---'हारुणिभागा जे
केसरा तं चोयं भण्णति' (निचू ३ पृ ४८१) । ३ सुगन्धित द्रव्य-विशेष (राज ३०)।
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१८०
देशी शब्दकोश
चोयग - १ सुगंधित द्रव्य - विशेष (भ ११ । १५६) २ छाल (आटी प ४०५ ) । चोट्टि - चौंसठ (भ १३ । १२१ ) ।
चोयय - १ छाल (भ १५।१३७ ) । २ फल-विशेष (अनुद्वा ३७६ ) - घोयओ फलविशेष:' । ३ आम आदि का संछा ( निचू ३ पृ ४८१ ) ।
चोयाल - चवालीस ( निभा ५६०५ ) । चोरग-वनस्पति- विशेष ( प्रज्ञा ११४४ ) । चोरली -- श्रावण कृष्णा चतुर्दशी (दे ३।१९ ) । चोरा-वनस्पति- विशेष (भ २१।२१) ।
चोरालि - खाद्य विशेष (अंवि पृ ७१ ) ।
चोल - १ पुरुषचिन्ह, लिंग चोलस्य - पुरुषचिन्हस्य' (प्रसाटी प १२२ ) । २ ठिगना, वामन (दे ३।१८) |
चोलपट्ट - जैन मुनि का कटिवस्त्र ( जीभा १७२७) ।
चोलाडिगा - क्षुद्र जंतु - विशेष (अंवि पृ २३८ ) ।
चोल्लक - भोजन - 'देशी - भाषया भक्तमुच्यते' (प्रसाटी प १४३) ।
चोल्लग — भोजन ( जीभा १२७७ ) ।
चोल्लय - १ भोजन ( बृभा ३१२७) । २ थैला, बोराचोल्लए' (उसुटी प ६५ ) ।
चोवालय - ऊपर की मंजिल का कमरा ( दहाटी प ६८ ) ।
छ
-
- " मम समक्खं तोलेह
छइल्ल - विदग्ध, पटुप्रज्ञ ( दे ३।२४) ।
छउअ - पतला, दुबला (दे ३।२५ ) |
छंकुई -- कपिकच्छू, कवाछ का वृक्ष (दे ३।२४) ।
छंछइ -- कुलटा - अण्णा छंछइओ इय परपुरिसदंसणे.... ( कु पृ ७ ) छट -१ जल का छींटा । २ शीघ्रता करने वाला (दे ३।३३ ) | छंटा -जल का छींटा, जल का छिड़काव ( पा ६५० ) । छंटित - ऊखल में कूटे हुए - 'उदूखले च्छंटितेषु तन्दुलेषु' ( व्यभा १० टीप ५) ।
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देशी शब्दकोश
१८१
छंटेडं - छींटा देकर, छिड़काव कर - 'चालणीए पाणियं छोढणं गंतूणं तिष्णि वारे छंटेउं उग्घाडाणि भविस्संति' (आवहाटी २ पृ २०७) ।
छंदंत - पैबंद - 'पडियाणिया थिग्गलयं छंदतो य एगट्ठ' (निचू २ पृ ५६) । छंदड़िया - चर्ममय आसन - विशेष (निचू १ पृ ६४) ।
छक्कट्ठे – १ घर के बाह्य द्वार का प्रकोष्ठ । २ द्वार - 'षट्काष्ठकं गृहस्य बाह्यालन्दकं षड्दारुकमिति यदागमप्रसिद्धं, द्वारमित्यन्ये' ( ज्ञाटी प १६ ) ।
छक्किय--- छींक (निचू १ पृ ८४) । छग - पुरीष, विष्ठा ( बृभा ३७७० ) । छगण-गोमय, गोबर ( पिनि २४६ ) । छगणि-- कंडा (अंवि पृ २५४) । छगणिय - गोबर (ओनि ३६६ ) । छगणिया - गोबर का ढेर ( अनु ३।४२ ) ।
छगली -- शरीर का एक अवयव (अंवि पृ ६६ ) । छज्जिय -१ टोकरी, पुष्प- पात्र ( राज १२ ) । २ राजित, शोभित । छज्जिया - पुष्पपात्र, चंगेरी - 'पुप्फछज्जियाए अच्चणं काऊण वच्चइ' ( आवहाटी २ पृ १६ ) ।
छट्टि - छिद्र, दोष - 'जो जग्गइ परछट्टि, सो नियछट्टीए कि सुयइ ' ( उसुटी प८८ ) । २ हृदय का रोग विशेष । ३ अतिसार (अंवि पृ २०३ ) ।
छडक्खर - स्कन्द, कार्त्तिकेय ( दे ३ । २६ ) ।
छडछड -वमन करते समय होने वाली ध्वनि (विपा १।६।२३ ) |
छडछडा - सूर्प से अन्न को झाड़ते समय होने वाली अव्यक्त ध्वनि- 'अखंडा अफुडियाणं छडछडायाणं सालीणं मागहए पत्थए जाए' ( ज्ञा १।७१५) ।
छडा -- विद्युत् (दे ३/२४) ।
छड्डुग - बांस से बनी हुई टोकरी (आचू पृ ३४४) ।
छड्डुछड्डु - सूर्प से अन्न को झाड़ते समय होने वाली अव्यक्त ध्वनि ( ज्ञा १/७/१५ पा ) ।
छड्डियल्लय - बचा हुआ या छोड़ा हुआ (बूटी पृ १०८ ) । छण्णालय – त्रिदंड, संन्यासी का एक उपकरण (भ २।३१) ।
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२८२
देशी शब्दकोश
छण्णी - १ वाहन-विशेष, रथ-'छण्णी सगडं वा' (आचू पृ ३४७)।
२ कंडा, छाणी (आचू पृ ३४६) । छत्त-१ आचार्य- छत्तो आयरिओ' (निच २ पृ १३३) । २ इन्द्रजाल
छत्तो कउग्गो भण्णति' (निचू ३ पृ १६) । छत्तधन्न-घास-विशेष (पा २०४) । छद्दी-शय्या (दे ३।२४) । छन्नालय-तिपाई, संन्यासियों का एक उपकरण (ज्ञा ११५॥५२) । छप्पंती-नियम-विशेष जिसमें पद्म लिखा जाता है; छह रेखाओं में कमल
का आलेखन करने का नियम (दे ३१२५)। छप्पग-पात्र-विशेष (आव २ पृ७०)। छप्पणय-१ चतुर, चालाक । २ विदग्ध, गणितियों और चित्र-वचनों के
प्रयोग में दक्ष कवि (कु पृ ३)। छप्पण्ण --विदग्ध, चतुर, पटुप्रज्ञ (दे ३१२४) । छप्पण्णय-दक्ष (पा १६३)। छब्ब --१ पानक आदि छानने के लिए बांस का बना हुआ उपकरण-विशेष
(आचू ला १।१०४) । २ पात्र-विशेष (पिनि ५६१) । छब्बग-पात्र-विशेष (पिनि २७८) । छब्बय-वंशपिट क-पानक आदि छानने का उपकरण विशेष-'मूइंगाई-मक्कोड
एहि संसत्तगं च नाऊणं । गालिज्ज छब्बएणं-वंशपिटकेन
(ओनि ५६०)। छमलअ-सप्तपर्ण, सतौना का वृक्ष (दे ३।२५)। छम्माणि-गांव-विशेष का नाम-'ततो भयवं छम्माणि नाम गामं गतो'
(आवमटी प २६७)। छलंत-सेंटिका करता हुआ (अंवि पृ १३५) । छलिअ-विदग्ध , पटुप्रज्ञ (दे ३।२४) । छलिक-प्रिय (अंवि पृ १२०)। छल्लिया-छाल-'मूलाछल्लिया इ वा वालुंकछल्लिया इ वा' (अनु ३।५०) । छल्ली -छाल, त्वक् (अनु ३।३१; दे ३।२४) । छवडी-चर्म (ओटी प २१७; दे ३।२५) । छवण-गोबर-'छवणमट्टियाए लिंपणं उवलेवणं' (निचू २ पृ ३३४) । छवाविय-प्रावृत, (घर को) छवाया, आच्छादित किया-'घरं....छवावियं'
(आवहाटी १ पृ १७५) ।
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देशी शब्दकोश छवि-फली (द ७।३४) । छव्विय-१ चटाई आदि बनाने वाला (प्रज्ञा ११९७) । २ पिहित,
आच्छादित । छठवी-वेत्रासन (आवहाटी २ पृ ७३) । छाअ-१ भूखा । २ कृश (दे ३३३३) । छाइ-माता, देवी, (दे ३।२६ वृ)। छाइल्ल-१ प्रदीप । २ सदृश । ३ न्यून । ४ सुरूप, सुन्दर (दे ३।३५) । छाइल्लय-दीप-'जोइक्खं तह छाइल्लयं च दीवं मुणेज्जाहि'
(व्यभा ७ टी प ६२) । छाई-जगदंबा आदि देवी माताएं (दे ३।२६) । छाउठवाय-भूख से व्याकुल (कु पृ ७६) । छाएल्लय-छाया का इच्छुक (उशाटी प ११६) । छाण-१ छांद, दर्भपटल (भ ८।२५७) । २ गोबर (बृभा ३३१२;
दे ३।३४) । ३ धान्य आदि का मलना (दे ३१३४) । ४ वस्त्र
(जीव ३; दे ३।३४) । छाणन-छानना (प्रटी प २५)। छाणिय-गालित, छानना (बृभा ५१७) । छाणी-१ छाणा, कंडा (प्रसा ४३४) । २ धान्य आदि का मलना ।
३ गोमय, गोबर । ४ वस्त्र, कपड़ा (दे ३।३४ वृ)। छात-बुभुक्षित (निभा १११७)। छातक-भूखा, गरीब (अंवि पृ २५१) । छातता-भूख (अवि पृ १३५) । छातेल्लय-भूखा, बुभुक्षित (उचू पृ ७६) । छाद ---भूखा-'छादो वेयावच्चं ण तरति काउं' (जीभा १६५६) । छाय -१ बालक (भ १८।१५९) । २ बुभुक्षित, भूखा (द ६२७;
दे३१३३) । ३ कृश (दे ३१३३)। छाया--१ कीत्ति । २ भ्रमरी (दे ३।३४) । छायाल-छयालीस (निचू ४ पृ ३६७) । छार--भालू (दे ३।२६)। छारय-१ ईख का टुकड़ा या ईख की छाल । २ मुकुल, कली (दे ३।३४) । छासी-छाछ, मट्ठा- उदसी छासि त्ति एगट्ठ' (निचू १ पृ ६२;दे ३।२६) ।
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१८४
छाही
- गगन, आकाश (दे ३।२६) |
छिछ - शलाटु फल (दे ३।३६ वृ) ।
छिछअ - १ शरीर । २ जार- पुरुष (दे ३।३६ ) । ३ शलाटु-फल ( वृ ) |
छिछई - कुलटा, व्यभिचारिणी ( उसुटी प २५० ) । छिछटरमण - आंखमिचौनी ( दे ३ | ३० ) । छिछोली - लघु जल-प्रवाह, छोटी नाली (दे ३।२७) | छिड–१ चूड़ा, चोटी । २ छत्र । ३ धूपयंत्र (दे ३।३५) । छिंडिका-१ बाड का छिद्र (ज्ञाटी प ८७) । २ अपवाद, आगार ( प्रसाटी प२७८ ) ।
छिंडिया - अपवाद, छूट-छ छिंडियाओ जिणसासणम्मि' (प्रसा १४८ ) । छिंडी - वृत्ति-छिद्र, बाड का छेद ( ज्ञा ११२ ११) । छिंडीया - छोटा द्वार (बृभा २५७) ।
देशी शब्दकोश
छिपक—-वस्त्र छापने वाला (व्यभा ३ टीप १०) |
छिपा -- कपड़े रंगने व छापने का काम करने वाला (प्रसाटी प २३० ) । छिवक- १ स्वीकृत ( निचू ३ पृ १४० ) । २ स्पृष्ट, छुआ हुआ । ३ छींक ( दे ३।३६) । ४ गुल्म का एक प्रकार (अंवि पृ ६३ ) |
छक्क परोइया - वनस्पति- विशेष जो स्पर्शमात्र से संकुचित हो जाती है - 'छिक्क परोइया छिक्कमेत्तसंकोयओ कुलिंगोब्व' ( विभा १७५४ ) ।
छक्का–१ छीं छीं आवाज से पुकारना ( ओोभा १२४) २ छींक । छिक्कार— छीं-छों की आवाज से बुलाना ( निचू २पृ २४६) । छक्कारिय—छी-छीं की आवाज से आहूत - 'वीर सुणिआ... छिक्कारिआ तित्तिराईणि गिण्हेइ' (ओटी प ९६ ) ।
छक्कोअण - असहन, असहिष्णु (दे ३।२९) ।
छक्कोट्टली - १ पैर की आवाज । २ पांव से धान्य का मलना । ३ गोमयखण्ड (दे ३।३७) ।
छिक्कोलिअ - पतला (दे ३।२५ ) |
छक्कोवण असहिष्णु, असहनशील ( बृभा ६१५७ ) ।
छिग्गल - मैल - ' छिग्गलं जल्लो भण्णति' (निचू २ पृ २२१) ॥ छिच्चोलय - - १ अरुचि प्रकाशक मुखविकार - विशेष । २ विकूणित मुख
( पा ६६७) ।
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१८५
देशी शब्दकोश छिच्छिक्कार-१ निवारणसूचक या घृणासूचक शब्द, छि:-छिः
(पिनि ४५१) । २ घोड़े की आवाज-छिच्छिक्कार हयाणं"
(जीभा १३७७)। छिडु-१ खुला आकाश । २ वरंडा, खिड़की (निचू १ पृ ८४) । छिण्ण-१ निःस्नेह (ज्ञाटी प १७५) । २ जार-पुरुष (दे ३।२७) । छिण्णंगाल-पक्षी-विशेष (अंवि पृ २३९) । छिण्णच्छोडण-शीघ्र (दे ३।२६) । छिण्णयड-टंक से छेदा हुआ (पा ३६१) । छिण्णा—कुलटा (दे ३१२७ वृ)। छिण्णाल–जार-पुरुष (दे ३।२७) । छिण्णालिंगा-सुवर्ग वाला पक्षी-विशेष (अंवि पृ २२६) । छिण्णाली-कुलटा (दे ३।२७ वृ)। छिण्णोब्भवा-दर्भ, दूर्वा (दे ३२६)। . छित्त-१ छींक (निचू १ पृ ८५) । २ स्पृष्ट (नंदीटि पृ १३४;
दे ३२७)। . छित्तर–१ बांस की खपचियां जिन पर घास आदि छाया जाता है
(भ ८२५७)-'छिवराणि-वंशादिमयानि छादनाधारभूतानि किलिजानि' (टी पृ ६६१) । २ पुराना छाज आदि गृह
उपकरण। छिद्द-१ अवसर-'हत्थिजूहेण समं चरंती छिद्देण आगंतूण थणं देइ'
(आवहाटी २ पृ १२३) । २ लघु मत्स्य (दे ३.२६) । छिधा--पत्र (नंदीटि पृ १३४) । छिन्न-व्यभिचारी, छिनरा (बृभा २३१५)। छिन्नगाली-पक्षी-विशेष की ध्वनि-विगतदारुणेसु छिन्नगालीय रतं । इति.
पक्खिगतरतं ति' (जंवि पृ १८३)। छिन्नाल-तुच्छ जाति का बैल, दुष्ट बैल (उ २७।७) । छिप्प-१ भिक्षा । २ पूंछ (दे ३।३६) । छिप्पंती-१ व्रत-विशेष। २ उत्सव-विशेष (दे ३।३७) । छिप्पंदूर-१ गोमय-खंड, कंडे का टुकड़ा। २ विषम (दे ३।३८)। छिप्पाल-धान्य खाने में आसक्त बैल (दे ३।२८) । छिप्पालुअ--पूंछ (दे ३।२६) ।
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१८६
छिप्पिय - झरित, झरा हुआ ( पा १३६) ।
I
छिप्पिडी – १ व्रत- विशेष । २ उत्सव - विशेष । ३ पीसा हुआ आटा (दे ३।३७) ।
देशी शब्दकोश
छिप्पीर - पलाल (दे ३।२८ ) |
छिप्पोली - बकरी की विष्ठा - ततो जंमि पदेसे छगणछिप्पोली वरिसोवट्ठाविया ततो घेप्पति' ( निचू १ पृ ६६ ) |
छिया-- लोहे की पतली छड़ी ( सू २।२।१२ ) ।
छिर- प्राणी - विशेष (अंवि पृ २३७) । छिरिया - अनंतकाय वनस्पति- विशेष (भ ७ ६६ ) |
छिल्ल - १ छिद्र । २ कुटी (दे ३।३५) । ३ बाड़ का छिद्र (बु) । ४ पलाश का पेड़ ।
छिल्लर - १ अखात जलाशय, छोटा तालाब - छिल्लराणि-अखाताः स्तोकजलाश्रयभूताः भू प्रदेशाः गिरिप्रदेशा वा '
( प्रज्ञा २/४ टी; दे ३ । २८ ) । २ असार ।
छिल्ली - शिखा (दे ३।२७) |
छिवअ -१ समूह । २ नीवी, अधोवस्त्र का नाड़ा (दे ३।३६) ।
छिवा - चिकना चाबुक ( ३।१३) ।
छिवाडिआ - फली (जंबूटी प ३५) ।
छिवाडी - १ फली - 'छेवाडी शब्दो देश्य:' ( राज २६ टी पृ ६० ) । २ पतले पन्नों वाली ऊंची पुस्तक- 'तणुपत्ते हि उस्सीमो छेवाडी'
(निचू ३ पृ ३२१) । ३ जिसके पन्ने विशेष लंबे और कम चौड़े हों तथा जो मोटी हो ऐसी संपुट फलक वाली पुस्तक - 'दुमाइफलग संपुढं दीहो हस्सो वा पिहुलो अप्पवाइल्लो छेवाडी' ( निचू ३ पृ ३२१) ।
छिविअ - १ ईख का टुकड़ा (दे ३ । २७) । २ स्पृष्ट ( से 215 ) ।
छिव्व - कृत्रिम, बनावटी (दे ३।२७) ।
छिव्वोल्ल -- १ निन्दासूचक मुख की आकृति - विशेष (दे ३ । २८ ) । २ विकूणित
मुख (वृ) |
छिहंडअ - दही का बना हुआ मिष्टान्न, श्रीखंड - छिहंडेहि धवल ! पुट्टोसि (दे ३।२९) । छिडि - दही (दे ३1३० पा ) | छिडिभिल्ल - दही (दे ३।३० पा ) |
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देशी शब्दकोश
१८७
छिहली-शिखा (बृभा ५१७७) । छिहिंडिभिल्ल-दही (दे ३।३०) । छु-.पशुओं को निषेध करने का अनुकरणवाची शब्द-'छुत्ति हडि त्ति वा __ भन्नई' (निचू ४ पृ ६२) । छुई-- बलाका (दे ३।३०)। छुछिका-छुछुदरी (अंवि पृ ६९)। छुछुई -- कपिकच्छू, कवाछ का वृक्ष (दे ३।२४) । छंछमुसय-कामासक्ति से होने वाली उत्सुकता (दे ३।३१) । छंद--अधिक (दे ३।३०)। छुक्कारण-निषेधकारक अनुकरणवाची शब्द (निभा ५४०५) । छुट्ट-१ मुक्त (व्यभा ४।३ टी प ५७) । २ छोटा, लघु (पा ४७) ।
३ बन्धनमुक्त। छुट्टगुल-गीला गुड़, फाणित-'छुट्टगुलो फाणियं' (बृभा ३४७६) । छुड-१ सुष्ठु- तेण भण्णति-छुड़ अब्भासत्थो होउ तो सक्के मि' ।
(उशाटी प २४५) । २ यदि, जो (प्रा ४।३८५) । ३ शीघ्र
(प्रा ४१४०१)। छुड्डिया-आभरण-विशेष, अंगूठी (प्र १०।१४) । छुद्दहीर-१ शिशु । २ शशी, चन्द्रमा (दे ३।३८)। छुद्दिया-आभरण-विशेष (प्र१०।१४)। छुडमत्य-अप्रिय (दे ३१३३ वृ)। छुरमड्डि–नाई, नापित (दे ३।३१) । छुरहत्य-नाई, नापित (दे ३।३१) । छुरिया-मृत्तिका (दे ३।३१) । छुस-भूसा (निचू २ पृ ४३२) । छुहिअ-लिप्त (दे ३।३०) । छेअ-१ विशुद्ध (आवनि ११३८) । २ अन्त, सीमा (क ११३६) ।
३ देवर (दे ३।३८) । ४ एक देश, एक भाग (से ११७) । ५ निविभाग __ अंश (क ४।८२) । ६ कालोपयुक्त हित । छेड--१ चूड़ा, चोटी । २ छत्र । ३ धूपयंत्र (दे ३।३५ वृ)। छेडा-१ चोटी । २ नवमालिका, लता-विशेष (दे ३।३६) । छेडी-छोटी गली (दे ३।३१) ।
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१८८
देशी शब्दकोश
छणक-१ झाग, फेन । २ कल्लोल (अंवि पृ २५५) । छेत्तर-पुराना छाज आदि गृह-उपकरण (दे ३।३२) । छत्तसोवणय--खेत में जागना (दे ३।३२) । छेध-स्थासक-कंकुम, चंदन आदि सुगंधित द्रव्यों से दिए गए हाथ के
पांचों अंगुलियों के छापे, हस्तबिंब । २ स्थासक-चंदन आदि सुगंधित
द्रव्य से शरीर का विलेपन करना । ३ चोर (दे ३।३६) । छप्प-पूंछ (विपा १।२।२४) । छेभअ-हथेली का थापा, हस्तबिम्ब (दे ३।३२) । छरित्ता--लीद करके-'गद्दभी..."छरिता गया' (उसुटी प ७३) । छल-बकरा (उसुटी प ५४; दे ३।३२ वृ)।। छेलअ---बकरा (दे ३।३२)। छेलण-हर्ष ध्वनि, आनन्द की आवाज-'छेलणं णाम उक्कट्ठी हसितादि'
_ (आवचू १ पृ १५७) । छेलापनक-- बालक्रीडा, उत्कृष्ट हर्षध्वनि, सीत्कार करना आदि-'छेलापनक
मिति देशीवचनमुत्कृष्टबाल-क्रीडापनं सेण्टिताद्यर्थवाचकमिति'
(आवहाटी १ पृ८६) । छलावण-१ उत्कृष्ट हर्षध्वनि । २ बाल-क्रीडापन । ३ सीत्कार करना
__ 'छेलावणमुक्किट्ठाइ बालकीलावणं च सेंटाइ' (आवमटी प २०१)। छेलावणय-हर्ष-ध्वनि, हसना आदि-'छेलणं णाम उक्कट्ठीहसितादि'.
(आवचू १ पृ १५७) । छलित-सेंटिका करता हुआ (अंवि पृ ४६) । छेलिका-बकरी (प्रटी प १५) । छलिय–सेंटित, सीत्कार करना, अव्यक्त ध्वनि-विशेष (प्र ३।५) । छलिया-बकरी (उसुटी प २४१)। छल्लिय-नाक से छींकने का शब्द (दजिचू पृ २३६) । छली-थोड़े फूल वाली माला (दे ३।३१) । छेवग-महामारी (व्यभा ५ टी प १८) । छेवट्ट-संहनन का एक प्रकार, अस्थि-रचना-विशेष (जीव १।१७) । छेवट्ठ-संहनन का एक प्रकार, अस्थि-रचना-विशेष (स्था ६।३०) ।
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देशी शब्दकोश
१८९ छेवडित-महामारी से पीड़ित (निचू २ पृ १७२) । छेवाडिया-फली (जीवटी प १६१)। छेवाडी--१ फली-'छेवाडी शब्दो देश्यः' (राजटी पृ १०)।
२ पुस्तक का एक प्रकार (निचू ३ पृ ३२१)। देखें-'छिवाडी' । छेह-क्षेपण, प्रेरण (से ४।१७) । छोअ-छिलका-'अयमाउसो ! खोयरसे, अयं छोए' (सू २।१।१७) । छोइअ-दास, नौकर (दे ३।३३) । छोइया-छिलका, ईख आदि की छाल-उच्छुखंडे पत्थिए छोइयं पणामेइ'
(उसुटी प ६१)। छोटि–१ उच्छिष्टता, जूठन–'छोटिरिति कृत्वा लोके गर्दा स्यात्'
(पिटी प १०६) । २ नखच्छोटिका (व्यभा १० टी प ३०) । छोट्टि-उच्छिष्टता, जूठाई-'भुजंती आयमणे उदगं छोट्टी य लोगगरिहा य'
(पिनि ५८७) । छोढण-१ घुसेडकर-'अवाणे सूलं छोढण मुहेण णिक्कलिज्जति'
(सूचू २ पृ ३६५) । २ रखकर, भरकर-चालणीए पाणियं छोढूणं'
(आवहाटी २ पृ २०७) । छोति-१ छिलका (आचू पृ ३६७) । २ जुगुप्सा (व्यभा ८ टी प ४७) । छोन्भ-पिशुन, दुर्जन (दे ३।३३) । छोभत्थ-- अप्रिय (दे ३।३३) । छोभाइत्ती-१ अस्पृश्य स्त्री, छूने के अयोग्य स्त्री। २ अप्रीतिकर स्त्री,
द्वेष्या (दे ३।३६) । छोभ-१ निस्सहाय, दीन (प्र ३।२४) । २ झूठा आरोप (बृभा ३३५४) । ___३ वंदन का एक प्रकार-नर्तन करते हुए वंदन करना
(आवनि ११२७) । ४ आघात । ५ पिशुन, दुर्जन । छोभग-१ झूठा आरोप-'छोभगो अब्भक्खाणं' (निभा ४३८५) । २ अपयश
(निचू ४ पृ ५५)। छोय-छिलका (सू २११५१७) । छोह-१ आघात-'ताव य सो मायंगो, छोहं जा देइ उत्तरिज्जम्मि'
(उसुटी प ६१) । २ समूह । ३ विक्षेप (दे ३।३६)।
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१६०
देशी शब्दकोश
जंकयसुकअ-अल्प उपकार से अधीन होने वाला (दे ३।४५)। जंगय-शि विका-विशेष-'अवरे जपाणेसु, अवरे जंगएसु' (कु पृ २४) । जंगल---जंगल, वन (उसुटी प २३७) । जंगलिक-जंगली (अंवि पृ २२६) । जंगा-गोचर भूमी, पशुओं के चरने की भूमि (दे ३।४०)। जंगोल-विषापहार विद्या, विषविघातक तन्त्र (विपा ११७१५)। जंघाछेअ—चौराहा (दे ३१४३) । जंघामअ-तीव्र गति से चलने वाला (दे ३।४२) । जंघालुअ-तीव्र गति से चलने वाला (दे ३।४२) । जंपण-१ अकीर्ति । २ मुंह (दे ३३५१) । जंपिच्छअ-जिसको देखे उसी को चाहनेवाला (दे ३।४४ वृ)। जंपुलिग--कुल्माष-विशेष-'जंपुलिगादि कुम्मासा' (दअचू पृ १२४) । जंपेच्छिरमग्गिर-जो-जो देखता है, उसी की मांग करनेवाला (दे ३।४४) । जंबाल-१ जरायु, गर्भवेष्टन चर्म (स्था २।३६६) । २ सेवाल
(दे ३।४२ वृ)। जंबालय—सेवाल (दे ३।४२) । जंबुअ-१ वेतसवृक्ष, बेंत । २ पश्चिम दिक्पाल (दे ३।५२) । जंबुल-१ वानीर वृक्ष, बेंत (दे ३।४१) । २ मदिरा-पात्र-'जंबुलं मद्य
भाजनमिति सातवाहनः' (वृ)। जंबुल्ल-वाचाल (पा १११)। जंबूका-करधनी (अंवि पृ ७१)। जंबलय-पात्र-विशेष (उपा ७७)। जंभ-तुष, भूसा (ति ६६१; दे ३।४०) । जभणअ-इच्छानुसार बोलने वाला, स्वच्छंदभाषी (दे ३।४४) । जंभणभण-स्वच्छंदभाषी (दे ३।४४ वृ)। जंभल-जड, मन्द (दे ३१४१) । जक्खरत्ती-यक्षरात्री, दीवाली (दे ३।४३) । जग-जीव-विरते गामधम्मेहिं, जे केई जगई जगा' (सू १।११।३३)।
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देशी शब्दकोश
१९१
जगडिअ-१ कथित (दे ३।४४) । २ लड़ाया हुआ। जगडिज्जंत-उत्तेजित होते हुए-'धन्नाणं तु कसाया जगडिज्जंता वि
परकसाएहिं' (चं १४१) । जगडित-प्रेरित (निभा ३५१) । जगल-१ पंकवाली मदिरा, मदिरा का नीचे का भाग (दे ३.४१) ।
२ पंकिल सरका-पंकिलसरको जगलं इत्यन्ये' (व)। जगार-राब, यवागू (प्रसाटी प ५१)। जगारी–राब, यवागू-'जगारीशब्देन समयभाषया रब्बा भण्यते'
(प्रसाटी प ५१)। जग्गह-जो मिले वह लूटन की राजाज्ञा-'रन्ना जग्गहो घोसितो'
(आवचू १ पृ ३१८) । जग्गिक-जंगम जीवों के रोम का बना वस्त्र (अंवि पृ २३२) । जच्च-पुरुष (दे ३।४०) । जच्चंदण-१ गंध द्रव्य-विशेष, अगर । २ कुंकुम (दे ३।५२)। जच्छंद-स्वच्छंद, स्वतंत्र (दे ३।४३ वृ)। जच्छंद-स्वच्छंद, स्वतंत्र (दे ३।४३)। जडिअ--जड़ित, खचित (दे ३।४१)। जडियाइल-एक महाग्रह (स्था २।३२५ पा)। जडियाइलग-एक महाग्रह (स्था २।३२५) । जडियाइलय-एक महाग्रह (चन्द्र २०) । जडिलय-राहु, ग्रह-विशेष (सूर्य २०)। जड-१ हाथी (पिनि ३८६) । २ मोटा (निचू ३ पृ ३)। ३ अशक्त,
असमर्थ (ति ११६३) । जड्डतरी-जाडी, मोटी (निचू ३ पृ ५१५) । जड़-रहित, त्यक्त (प्रसाटी प ३८) । जढ-परित्यक्त-वाहिओ वा अरोगी, वा सिणाणं जो उ पत्थए । वोक्कतो
होइ आयारो, जढो हवइ संजमो ।' (द ६।६०)। जणउत्त-१ ग्राम-प्रधान, गांव का मुखिया। २ विट, भांड (दे ३१५२) । जणक-कान का कुंडल जैसा आभूषण-विशेष (अंवि पृ १६२) जणत्ता-बराती (आवहाटी २ पृ ४६) जण्णता-बरातो (आवहाटी २ पृ ४६) ।
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१६२
जणोहण - राक्षस (दे ३।४३) ।
जह - १ छोटी थाली । २ कृष्ण, काला (दे ३।५१) । जण्हली - नीवी, नारा (दे ३।४० ) |
जण्हुआ - जानु, घुटना ( पा ८५) ।
जप्पसरीर - अनेक रोगों से ग्रस्त शरीर ( निभा ६३३७) ।
जमइत्ता - अति परिचित कर, स्थिर कर - पुनः पुनरावर्तनेन अतिपरिचितं कृत्वा' (औप २६ वृ) ।
जमग – पक्षि - विशेष, शकुनी ( जीवटी प २८६)।
जमगसमगं - एक साथ (भ | १८२ ) ।
जमण - विषम को सम करना - ' जमणं विसमाण समकरणं' ( निभा ६९४) । - एक साथ - 'महागईददंतजुवल-जमलाहएण' (कु पृ ५७) ।
जमल
--
जम्मपक्क - मत्स्य- विशेष ( विपाटी प८० ) ।
जयण – घोड़े का बख्तर ( दे ३ | ४० ) ।
जयार- - एक प्रकार का अपशब्द - ' जत्थ जयार-मयारं समणी जंपइ
गिहत्थपच्चक्खं' (ग ११० ) ।
जरंड -- वृद्ध (दे ३ | ४० ) ।
जरड - वृद्ध (दे ३ । ४० वृ) ।
देशी शब्दकोश
जरढ - - १ जीर्ण, पुराना ( औप ५) । २ मजबूत ( से १।४३ ) । ३ कठिन ( ज्ञाटी प ५) ।
जरल - चतुरिन्द्रिय जंतु विशेष ( जीवटी प ३२ ) ।
जरलद्धिअ - ग्रामीण (दे ३ | ४४ ) |
जरलविअ - ग्रामीण (दे ३ | ४४ ) |
जरुला -- चतुरिन्द्रिय जीव - विशेष (प्रज्ञा १ । ५१ ) । जलणीली - सेवाल (दे ३।४२) ।
जलूसक— जलोदर रोग (आवचू २ पृ १८१) ।
जल्ल
१ शरीर का मैल (भ १।४६ ) । २ रस्सी पर खेलने वाला नट ( जीव ३।६१६ ) स्तुति पाठक ( नि । २२) – जल्लाः राज्ञः स्तोत्रपाठकाः' (चू २ पृ ४६८ ) । ४ एक म्लेच्छ देश । ५ जल्ल देश में रहने वाली जाति विशेष (प्रटी प १५ ) !
जल्लिय - १ शरीर के मेल से खरंटित - 'वत्थस्स जल्लियस्स वा पंकियस्स वा ' (भ ६।२३) । २ मल, शरीर का मैल - जल्लियं नाम मलो, णो कप्पइ उवट्टेउ' (दजिचू पृ २७९ ) ।
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देशी शब्दकोश
१९३ जल्लिया-शरीर का मैल–'जल्लिया मलो' (दअचू पृ १८६)। जल्लसत—जलोदर (आवहाटी २ पृ १३४) । जल्लूसय–जलोदर रोग (आवहाटी २ पृ १३४)। जल्लोसहि-एक तरह की आध्यात्मिक शक्ति जिसके प्रभाव से शरीर के
मैल से रोग नष्ट होता है-'खेलोसहिपत्तेहिं जल्लोसहिपत्तेहिं
विप्पोसहिपत्तेहिं सव्वोसहिपत्तेहि' (प्र ६।६) । जवअ-यव-अंकुर (दे ३।४२) । जवण-हल का ऊपरी भाग (दे ३।४१) । जवरअ- यव-अंकुर (दे ३।४२) । जहणरोह--जंघा (दे ३।४४) । जहणसव-अोस्क, आधी साथल तक पहनने का वस्त्र, स्त्रियों का वस्त्र
विशेष (दे ३।४५)। जहाजाअ-जड, मूर्ख-'जहाजायपसुभूया' (प्र ३।२४; दे ३।४१)। जहिमा--विद्वान् द्वारा रचित गाथा (दे ३।४२)-'तुह जहिमं तत्थ
गायन्ति' (वृ)। जाइ–१ गुल्म वनस्पति-विशेष (प्रज्ञा ११३८।२) । २ मदिरा (दे ३।४५) ।
३ मदिरा-विशेष--सुरं च महुं च मेरगं च जाई च' (विपा २।२४) । जाइंभर--मादक-'जाइंभराई मण्णे इमाइं णयणाइं होंति लोयस्स'
(कु पृ २२४) । जाउ-कपित्थ का फल (बृटी पृ ५४) । जाउर-कपित्थ वृक्ष (दे ३।४५) । जाउलग-गुच्छ वनस्पति-विशेष (प्रज्ञा ११३७।५) । जाउलया-क्षीरपेया (ओटी प १९६) । जाग-खाद्य-विशेष, लपसी आदि (अंवि पृ ७१)। जाडी-गुल्म, लता-प्रतान (दे ३।४५) । जामइल्लय-पहरेदार (कु पृ १२३)। जामिलिका-वस्त्र-विशेष (अंवि पृ ७) । जार-मणि का लक्षण-विशेष (राज २४)। जार-अनंतकाय वनस्पति-विशेष (भ २३।१)। जारुकण्ह-गोत्र-विशेष (स्था ७।३७) ।
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देशी शब्दकोश
जालगद्दह-रोग-विशेष-'ए यस्स हत्यो पादो वा जालगद्दहमादिणा सडितो'
(निचू ३ पृ ४४८)। जालघडिआ-अट्टालिका, अटारी (दे ३।४६ ) । जाली--सघन झाड़ी (पा ८७६) । जावइ-१ कन्द-विशेष (उ ३६।६७) । २ गुच्छ वनस्पति-विशेष
(प्रज्ञा ११३७।५)। जावति-वृक्ष-विशेष (भ २२।१)। जाहे-यदा, जब (उशाटी प १४८) । जिघिअ-सूंघा हुआ (पा ४६७) । जिडह-गेंद-'जिंडहगेड्डिआइरमण' (प्रसा ४३५)। जिंडुह-कन्दुक (प्रसा ४३५) । जिग्घिअ-सूंघा हुआ (दे ३।४६) । जिण्णोब्भवा-दूब, दूर्वा (दे ३३४६)। जिमिअ-भुक्त (बृभा ३६६५)। जिम्ह—मंद-'जिम्हीभवंति उदया कम्माणं' (बृभा १२३)। जीण--१ जीन, अश्व की पोठ पर बिछाया जाने वाला ऊनमय या चर्ममय
आसन (प्रसाटी प १६१) । जीणपोस (फारसी) । २ ऊन का बना
वस्त्र-विशेष (भटी पृ ११५२)। जीवयमई—अन्य मृगों को आकर्षित करने के लिए शिकारी द्वारा बनाई गई
कृत्रिम मृगी, व्याधमृगी (दे ३३४६) । जुअल--तरुण (दे ३।४७)। जुअलिअ-द्विगुणित, दुगुना (दे ३।४७) ।। जंगलिका-त्रीन्द्रिय प्राणी-विशेष (अंवि पृ २६७) । जंगित—जाति, कर्म या शरीर से हीन (पंक २०१) । जुगिय-१ खंडित (पिनि ४४९) । २ जाति, कर्म या शरीर से हीन ।
३ दूषित । जंजिय-बुभुक्षित, भूखा (ज्ञाटी प ७३)। जुजुरुड-अपरिग्रही, परिग्रहरहित (दे ३।४७) । जुक्कार-प्रणाम (बृटी पृ५३) । जुगय-पृथक् (दहाटी प ४७) । जण्ण-विदग्ध, दक्ष (दे ३।४७)।
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देशी शब्दकोश
जुयक – पृथक्, अलग (दअचू पृ २५) ।
जुयग – पृथक् - 'तओ जुयगं घरं कथं ' ( आवहाटी २ पृ २०६ ) । जुरुमिल्ल - गहन, निविड ( दे ३३४७ ) ।
जुरुमिल्लय – गहन, गहरा (दे ३।४७ पा) ।
जुवय - चन्द्र-प्रभा और संध्या - प्रभा का मिश्रण - सन्ध्याप्रभा चन्द्रप्रभा च यद् युगपद् भवतस्तत् जुयगोत्ति भणितम् ' ( स्थाटी प ४५१ ) ।
जुहार -- जयकार, जुहार, नमस्कार ( आवहाटी १ पृ ६७ ) । जुहार (राज) ।
जूअअ - चातक (दे ३।४७) ।
जूयत - संध्या और चन्द्रमा की प्रभा का मिश्रण (स्था १०/२० पा ) ।
जूरण - खेदन ( सू २२।३१) | जूरणया - खेदन (भ १२।५४) । जूरावणया --- खेदापन (भ ३ । १४५ ) । जूरिय - - खिन्न (पा ५७५)। जूरुम्मिलय – गहन (दे ३।४७ वृ) ।
१६५.
जूवय - १ ऐसा स्थान जिसके चारों ओर पानी हो - 'जूवय णाम विट्ठ (वीउं) पाणियपरिक्खित्तं' (निचू ४ पृ ५४) । २ द्यूतकार ( कु पृ १७२ ) ।
जूह - कांजी, मांड या मूंग का पानी - 'जूहं च कांजिकं, तंदुलोदगं मुद्गरसो वा जूहं भणति' (निचू ३ पृ १०३ ) ।
जे - १ पाद-पूर्ति में प्रयुक्त अव्यय ( उ २२।२१) २ अवधारण सूचक अव्यय । जेमण - मीठा भोजन (ओटी प ४९ ) ।
जेमणय- दक्षिण अंग, दाहिना हाथ आदि (दे ३।४८ ) ।
जोअ - १ युगल (ज्ञाटी प ४७ ) । २ चन्द्र, चांद (दे ३।४८ ) | जोअण- आंख, लोचन ( दे ३ । ५० ) ।
जोइंगण - कीट - विशेष, इन्द्रगोप (दे ३५० ) ।
जोइक्ख - - १ दीप - जोइक्खं तह छाइल्लयं च दीवं मुणेज्जाहि' ( व्यभा ७ टी प ६२ ) - ' जो इक्खशब्दः देश्यो दीपे वर्तते' ( प्रसाटी प ४६ ; दे ३।४९ ) । २ प्रदीप आदि का प्रकाश (ओनि ६५४ ) ।
जोइज्जमाण - दृष्ट ( अनु ३१५२ ) ।
जोइय - १ दृष्ट, देखा हुआ (आवचू १ पृ ५२८ ) । २ खद्योत ( दे ३।५० ) ।
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देशी शब्दकोश
जोइर-स्खलित (दे ३।४६) । जोइल्लय-कीट-विशेष, इन्द्रगोप (आवचू २ पृ ८३)। जोइस- नक्षत्र (दे ३४६) । जोई-विद्युत् (दे ३।४६) । जोक्ख---.मलिन (दे ३।४८) । जोग्गा-चाटु, खुशामद (दे ३।४८) । जोड-१ नक्षत्र (दे ३४६) । २ रोग-विशेष । ३ जोड़ी, युगल । जोडिअ-१ व्याध, शिकारी (दे ३।४६) । २ जोड़ा हुआ, संयुक्त किया
हुआ। जोडिऊण-जोड़कर, संयुक्त कर-जोडिऊण करजुयलं कहिओ सुविणगवइयरो'
(उसुटी प ६३)। जोण्णलिआ-धान्य-विशेष, जुआरि (दे ३३५०) । जोय-युग्म, जोड़ा (भ ११११५६) । जोयण-देखना-'उवओग चंदजोयण, साहुत्ति विगिचणे णाणं'
(जीभा १४१७)। जो रं-वाक्य के आदि में प्रयुक्त 'जो' का अर्थ है-यह तथा 'र' का अर्थ है
निश्चय-'जो रं च जो किरस्थम्मि' (दे ३।४८) । जोव-१ बिन्दु । २ अल्प (दे ३३५२) । जोवण-१ यन्त्र । २ धान्य का मर्दन । ३ धान की बुवाई-'जोवणं-धान्य
प्रकरः । प्रकरो मर्दनं धान्यस्य, लाटविषये जोवणं धण्णपइरणं
भण्णइ' (ओटी पृ १६६)। जोवारि-धान्य-विशेष, जुआरि (दे ३०५०)-'जोवारी शब्दोऽपि देश्य एव (व) । जोव्वण-मध्य भाग (से २॥१)। जोव्वणणीर-वृद्धत्व, बुढ़ापा (दे ३१५१)-'जोवणणीरं तरुणत्तणे
विजिएन्दिआण पुरिसाण' (वृ)। जोव्वणवेअ -बुढ़ापा, वृद्धत्व (दे ३१५१) । जोव्वणोवय---बुढ़ापा, वृद्धत्ब (दे ३३५१) । जोहार-जयकार, नमस्कार-'जयोत्कारकरणं पित्रादीनाम्'
(प्रसाटी प १०५)।
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झंकक-हाथ का आभूषण-विशेष-तधेव झंकको व ति कडगं खडुगं ति वा'
(अंवि पृ ६४)। झंकारिअ-अबवयन, फूल आदि चुनना (दे ३।५६) । झंख – १ तुष्ट, तृप्त (दे ३।५३) । झंखणय-~-क्रोधी (अनुद्वाहाटी पृ २६) । झंखर-सूखा पेड़ (दे ३।५४) । झंखरिअ-फूलों को चुनना (दे ३।५६) । झंझ-कलह-'अज्झीणझंझे पुरिसे, महामोहं पकुब्वाइ' (सम ३०।१।६)। झंझडिय --डांट-फटकार-'रिणे अदिज्जते वणिएहि अणेगप्पगारेहिं दुव्वयणेहि
__ झडिया-झंझडिया' (निचू ३ पृ २७०) । झंझा-१ व्याकुलता (आ ३।६६) । २ कलह (स्था ८।१११) । ३ क्रोध ।
__४ माया (सूटी १ पृ २४०)। झंझिय-बुभुक्षित (ज्ञा ११२१६०) । झंटलिआ-चंक्रमण, भ्रमण (दे ३१५५) । झंटिय-प्रहत, जिस पर प्रहार किया गया हो वह (निच ३ पृ २६४;.
दे ३१५५)। झंटी-छोटे किन्तु खड़े केश (दे ३३५३) । झंडली-कुलटा, असती (दे ३३५४) । झंडुअ-पीलु का वृक्ष (दे ३।५३)। झंडली-१ असती, कुलटा । २ क्रीडा (दे ३।६१)। झंपक--बुझाने वाला-'झंपको णिवावको' (निचू १ पृ.७९) । झंपणा-स्थगन, आच्छादन (निमा २७०३) । झंपणी-~-पक्ष्म, आंख की बरौनी, आंख के बाल (दे ३।५४) । झंपि.---१ त्रुटित, टूटा हुआ । २ घट्टित, आहत (दे ३।६१) । झंपित-आहत (व्यभा ७ टी प ३०)। झंपुल्लिया-- ऊंची छलांग-'झंपुल्लिया खेल्लणई' (कु पृ ११२) । झक्किअ-लोकापवाद, लोक-निन्दा (दे ३.५५) ।
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देशी शब्दकोश
झज्झरी-स्वयं को कोई न छुए-यह बताने के लिए चांडाल आदि जाति
के लोग अपने हाथ में एक यष्टि रखते हैं, वह । इखका दूसरा नाम
'खिक्खिरी' है (दे ३।५४)। सड-१ झडा हुआ--पत्र-पुष्पों से रहित-वणसंडे..."जुण्णे झडे परिसडिय.
पंडपत्ते' (राज ७८२) । २ शीघ्र (बृटी पृ १३१६) । सडप्पड-शीघ्र (प्रा ४१३८८) । झडप्पिअ-छीना हुआ (दे ५।३४ वृ)। शडिज्जंत-आहत होता हुआ, खिन्न होता हुआ-'वासेण झडिज्जंतं दळूणं
वानरं थरथरेंतं' (आवमटी प ३४५) । झडित-झड़ा हुआ (निचू ३ पृ २७०)। सडिय-१ डांटना, फटकारना (निचू ३ पृ २७०) । २ शिथिल, ढीला।
३ थान्त, खिन्न (म ४४७) । ४ झड़ा हुआ, गिरा हुआ। सडी-निरन्तर वर्षा (दे ३।५३) । झडरविडर--जादू-टोना (व्यमा ४।३ टी प ४६)। सत्य-१ गत, गया हुआ। २ नष्ट (दे ३।६१)। सपित-कम्पित (अंवि पृ १४३) । समाल-इन्द्रजाल (दे ३१५३) । सरस-सुवर्णकार (दे ३।५४) । सरंक-तृण का बनाया हुआ पुरुष, चञ्चा (दे ३१५५) । सरंत-तृण-पुरुष, चञ्चा (दे ३१५५ वृ) । सरक-१ स्मरण करने वाला-'सुत्तत्थे मणसा झायंतो झरको'
(नंदीचू पृ८) । २ ध्यान करने वाला (नंदी टी पृ १२) । झरणा-१ स्मरण-'एवं सो झरणाए दुब्बलो जातो' (आवचू १ पृ ४१०)।
२ झरना, टपकना (बभा ६००७) । झरय-ध्यान करने वाला- जो दुब्बलिओ सो झरओ' (आवचू १ पृ ४०६) । झरुअ-१ मच्छर, मशक (दे ३।५४) । २ झींगुर-'मशकवाचकशब्दाश्चीर्या
___ मपि वर्तन्ते । यदाह- मशकाख्याश्चीर्यामप्युच्यन्ते काव्यतत्त्वज्ञैः' (व)। झलक्किय--दग्ध, संतप्त (प्रा ४।३६५) । झलज्झल-पानी का शब्द (ओटी प ३७६) । झलझलिआ-थैली (दे ३१५६) । झला-मृगतृष्णा, मृगमरीचिका (दे ३१५३) ।
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देशी शब्दकोश
१६३
झलुंकिअ-जला हुआ, दग्ध (दे ३३५६) । झलुसिअजला हुआ (दे ३।५६) । झल्लमल्ल-परिपूर्ण, भरा हुआ (विभाकोटी पृ २६४) । झस--१ अयश, अकीर्ति । २ तट, किनारा । ३ छैनी से कटा हुआ ।
४ तटस्थ, मध्यस्थ ।। ५ दीर्घ-गंभीर, लंबा और गंभीर, बहुत गहन
(दे ३।६०)। ६ शस्त्र-विशेष (कु पृ १९८)। झसिअ-१ पर्यस्त, उत्क्षिप्त । २ आक्रुष्ट, जिस पर आक्रोश किया गया हो
वह (दे ३।६२) । झसुर-१ ताम्बूल, पान । २ अर्थ, प्रयोजन (दे ३।६१) । झाउल-कसि-फल, डोडा (दे ३१५७) । साड-झाड़ी, निकुंज (निचू ३ पृ २६७; दे ३३५७) । झाम---दग्ध (जीव ३।६६)। झामण-जलाना (जीभा २३२३)। झामणिक-जलानेवाला (मंवि पृ २५४) । झामर-वृद्ध, बूढा (दे ३३५७) । मामल-आंखों का रोग-विशेष-पुत्तसोगेण य, से किल झामलं चखं जायं
रुयंतीए' (आवहाटी १ पृ.६६) । झांवला (राज)। झामरो (गुज)। शामित-दग्ध (जीभा २३२१)। झामिय–१ जलाया हुमा, दग्ध (भ ५५१; दे ३३५६) । २ श्यामल ।
३ कलंकित । झारा-झींगुर, क्षुद्र कीट-विशेष (दे ३।५७) । झिखिअ-लोकापवाद, लोक-निन्दा (दे ३१५५) । झिगिर–त्रीन्द्रिय जन्तु-विशेष, झींगुर (प्रज्ञा ११५०)। झिगिरिड-त्रीन्द्रिय जन्तु-विशेष (प्रज्ञा ११५०) । झिझिय-बुभुक्षित, भूखा-'आउरे झिंझिए पिवासिए तवस्सी' (बु ४।२८) । झिज्झिरि-वल्ली-विशेष (आचूला १।१०८)। झिज्झिरी-वल्ली-विशेष (आचू पृ ३४१) । झिमिय--जड़ता, शरीर के अवयवों का अकड़ जाना (आ ६।८) । झिरिंड -जीर्ण कूप (दअचू पृ १००, दे ३१५७) । झिल्लिय-त्रीन्द्रिय जन्तु-विशेष, झिल्ली (प्रज्ञा ११५०) । झिल्लिरिआ-१'चीही' नामक तृण । २ मशक, मच्छर (दे ३१६२)।
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देशी शब्दकोश
झिल्लिरी—मछली पकड़ने का जाल-विशेष (विपा १८।१६) । झिल्ली--१ अनंतकाय वनस्पति-विशेष (प्रज्ञा १४८४२) । २ तरंग । झीण-१ अंग, शरीर । २ कीट (दे ३।६२) । झीम-- मन्द-'झीमीभवंति ति मंदीभवंति इति चूणीं' (बृटी पृ ३८) । झीरा-- लज्जा (दे ३।५७)। झंख-तुणय नामक वाद्य (आवचू १ पृ ३०६; दे ३।५८) । झुझिडित-सेवा करने वाला-'झुझिडिओ णाम उवचरतो' (दश्रुचू प ५०) । झुझिय-१ भूखा (प्र ३।६) । २ मुरझा हुआ (भ १६।४) । झुंझुमुसयमन का दुःख (दे ३१५८) । झुंटण-१ प्रवाह (दे ३।५८) । २ पशु-विशेष । झुपडा-झोंपडी, कुटिया-महु कतहो गुट्ठिअहो कउ झुपडा बलंति'
(प्रा ४।४१६ टी)। झुंबनक--लटकने वाला आभूषण, झूमका (भटी पृ ८७६) । झुझुरायित-जीर्ण-शीर्ण (अंवि पृ १४८) । झुट्ठ-असत्य (दे ३।५८) । झुत्ती-विच्छेद (दे ३।५८) । झुपित--दग्ध, झुलसा हुआ (अंवि पृ १४८) । झुमुझुमुसय—मन का दुःख (दे ३३५८ वृ)। झुरित क्षीण, मुरझाया हुआ (भटी' पृ १२९७) । झुल्लुरी-गुल्म (दे ३।५८) । झुसिय-बुभुक्षित-'आउरे झुसिए पिवासिए' (भ १६॥५२) । झूर-टेढा, कुटिल (दे ३३५६)। झसरिअ-१ अत्यन्त । २ स्वच्छ, निर्मल (दे ३।६२) । झसिय-१ बुभुक्षित-'आउरं झूसियं पिवासियं' (अंत ३१६५) । २ परित्यक्त,
क्षपित (स्थाटी प २२५) । झेंडअ-गेंद, कन्दुक (दे ३।५६) । झेर -पुराना घण्टा (दे ३।५६)। झोंडलिआ-रास के सदृश एक प्रकार की क्रीडा (दे ३॥६०) । झोटी-अप्रसूत अवस्था वाली भैंस (दे ३२५६)। झोड--पत्रविहीन वृक्ष, ठूठ (ज्ञा १।११।२) । झोडण-शाटन, पातन (प्र १।३५) ।
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देशी शब्दकोश
२०१ झोडप्प-१ चना (दे ३।५६)। २ सूखे चने का शाक-झोडप्पो चणक
धान्यम् । शुष्कचणकशाक मित्यन्ये' (वृ)। झोडय--वीणा-विशेष (नि १७।१३७) । झोडिअ-बहेलिया, व्याध, शिकारी (दे ३१६०)। झोलिआ-१ शिविका-विशेष (कु पृ २४) । २ थैली, झोली (दे ३।५६) । झोलिका-झोली, थैली-झोलिकाशब्दो यदि संस्कृते न रूढस्तदायमपि देश्यः'
(दे ३।५६ वृ)। झोस-१ समीकरण-'झोस त्ति वा समकरणं ति वा एगलैं'
(निचू ४ पृ ३२३) । २ झाड़ना, दूर करना। शोसण-१क्षपणा, छोड़ना-'झोसण खवणा मुंचण एगट्ठा'
(जीभा २२७६) । २ आसेवन, मार्गण-'आभोगणं ति वा मग्गणं ति वा झोसणं ति वा एगट्ठ' (व्यभा ४१ टी प २४) ।
टंक-१ तलवार (प्र ११२८; दे ४१४) । २ एक दिशा में छिन्न पर्वत
'छिन्नं तडं टंक' (नंदीच पृ ६४) । ३ किनारा (निचू १ पृ ४४; दे ४।४)। ४ भित्ति (उसुटी प १९५; दे ४१४) । ५. कुदाल । ६ छिन्न, काटा हुआ। ७ खात. खुदा हुआ जलाशय । ८ जंघा
(दे ४१४)। टंकण-टंकण देश में रहने वाली म्लेच्छजाति, पर्वतीय लोग-'अक्कोसे सरणं
जंति टंकणा इव पव्वयं' (सू १।३।५७)। टंका-जंघा (पा ८५१)। टंकिअ-फैला हुआ (दे ४११)। टंबरअ-भारी (दे ४।२)। टक्क-म्लेच्छ जाति (कु पृ १५३) । टक्कर--१ मुद्गरविशेष (प्रटी प ४८) । २ ठोकर, आघात
(उसुटी प १३)। टक्करा--टकोरा, मुंड-सिर पर अंगुली का आघात (निचू ४ पृ ३१२) । टक्कारा-टकोरा, आघात (व्यभा २ टी प ५२)। टक्कारिआ–अरणि का फूल (दे ४।२)।
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टक्कारी -- १ वृक्ष-विशेष (अंवि पृ ७० ) । टट्टइआ - पर्दा (दे ४११ ) ।
टप्पर-१ विकराल कान वाला (प्रटी प ८१) । २ छाज के आकार के कान ( उपाटी पृ ६) ।
देशी शब्दकोश
अरणि का फूल (दे ४।२ वृ) |
-टप्परअ - विकराल कान वाला (दे ४। २ )
टमर – केशों का समूह ( कु पृ ७३; दे ४। १ ) ।
टसर – १ सूती वस्त्र ( निचू २ पृ ६८ ) । २ मोड़ना (दे ४|१) । सरोट्ट - अवतंस (दे ४। १)
।
टार- -१ दुष्ट अश्व (दे ४ ( २ ) । २ टट्टू, छोटा घोड़ा ।
टाल- - फल की वह अवस्था जिसमें गुठली न पड़ी हो (द ७१३२) - 'टालाणि नाम अबद्धट्टिगाणि भन्नंति' (जिचू पृ २५६ ) ।
टिंबर - तेंदू का वृक्ष (दे ४ | ३ ) |
टिबरु - तेंदु का वृक्ष ( दजिचू पृ १८४) ।
टिक्क - १ तिलक (दे ४ (३) । २ सिर पर फूलों का गुच्छा (वृ) । 'टिक्किद-तिलक वा 'टीकी' से विभूषित - मंडिय टिक्किदविभूसिया एगा साहुणी' ( उसुटी प ५४) ।
टिग्घर -- स्थविर, वृद्ध (दे ४ | ३ ) ।
टिट्टि - टिट् - टिट् की आवाज, बछड़े आदि को प्रतिषेध करने का शब्द ( बृभा ७७ ) ।
टिट्टिभोय - टिट्टिभ, टि- टि करने वाला प्राणी (अंवि पृ १८३ ) ।
टिप्पी - तिलक (दे ४।३) ।
feaster - अलंकृत, विभूषित - 'संजई पासति मंडिय-टिविडिक्किया' ( उशाटी प १३८ ) ।
टुंट - छिन्न- हस्त, कटे हुए हाथ वाला (प्रसा ७९५; दे ४।३) । टुंटय - छिन्न- हस्त (दे ४।३ वृ) ।
कण--- चतुरिन्द्रिय जंतु - विशेष ( जीवटी प ३२ ) ।
टेंट - १ जुआ खेलने का स्थान ( दे ४ | ३ ) । २ अक्षि- गोलक । शुष्क व्रण ।
टेंटिअ - द्यूतक्रीडा के स्थान पर रहने वाला (दे ४१३ वृ) । टेंबरूय-तेंदु का फल ( आटी प ३४९ ) ।
टेक्कर - स्थल, प्रदेश (दे ४१३ ) ।
छाती का
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देशी शब्दकोश
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टेक्करय-स्थल (दे ४१३ वृ)। टेट्टिकालक-पक्षी-विशेष (अंवि पृ २३८) । टेट्टिवालक-चित्र-विचित्र रंगों वाला पक्षी-विशेष, तितली (?)
__ (अंवि पृ २२५)। टेणग-झाग (अनुद्वाचू पृ १३) । टोक्कण---दारू मापने का बर्तन (दे ४१४)। टोक्कणखंड-दारु मापने का पात्र (दे ४१४ वृ)। टोक्कर-जाली या डोरी (बटी पृ १६४१)। टोप्परिया--पात्र-विशेष (आवहाटी १ पृ २७५) । टोल-१ अप्रशस्त (जंबू २११३३) । २ ऊंट (भटी प ३०८) । ३ टिड्डी
'टोलोव्व' उप्फिडंतो' (प्रसा १५७) । ४ शलभ-'टोलोव्व मा पड । तुम उज्जाणे' (दे ४।४)। ५ पिशाच-'टोलं पिशाचमाहुः सर्वे शलभं
तु राहुलकः' (वृ)। ६ टोली, यूथ । टोलंब-महुआ का पेड़ (दे ४।४) । 'टोल' गति-१ टेढ़ी-मेढ़ी गति (भ ७।११९) । २ गुरुवंदन का एक दोष,
टिड्डी की तरह फुदक-फुदक कर वंदना करना
(प्रसाटी प ३६)। टोला-टिड्डी-'टोला तिड्डया इति चूणो विशेषचूणौँ' (बृटी पृ ६७५) । टोल्ल-मुंड सिर पर अंगुली का आघात, ठुनकाना (व्यभा १ टी प १३) ।
ठोला मारना (राज)।
ठ
ठइअ—१ उत्क्षिप्त (दे ४१५) । २ अवकाश (वृ)। ठक्कुर-ठाकुर (बृटी पृ ५४) । ठरिअ-१ सम्मानित । २ ऊर्वस्थित (दे ४।६) । ठल्ल –निर्धन (दे ४१५ वृ)। ठल्लय-निर्धन (दे ४१५)। ठविआ-प्रतिमा (दे ४१५) । ठाग–अवकाश, स्थान (बृभा ४८५०) ।
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देशी शब्दकोश
ठाण-अभिमान (दे ४१५) । ठाणइल्ल-कोतवाल-'ठाणइल्ला रायपुरिसा गहण-कड्ढणं करेज्ज'
(निचू ३ पृ १९९) । ठाणिज्ज-१ सम्मानित (दे ४।५) । २ गौरव । ठिअअ-ऊर्ध्व, ऊंचा (दे ४१६ व) । ठिक्क-शिश्न, पुरुष-चिह्न (दे ४१५)। ठिक्करिया-ठीकरी, कपाल-ठिक्करियं अच्चेहि' (मावहाटी १ पृ २६४)। ठिक्किरिया-ठीकरी, घड़े का टूटा हुआ अंश-'सरक्खाणं ढुक्काहि
ठिक्किरियं च अच्चेहि' (आवचू १ पृ ५२२) । ठियल्ल-अवस्थित (उसुटी प ७२) । ठिविअ-१ ऊध्वं । २ निकट । ३ हिचकी (दे ४१६) । ठंठ-स्थाणु-छिन्नावशिष्टवनस्पतीनां शुष्कावयवाः ठुठा इति लोकप्रसिद्धाः'
(जंबूटी प ६६)। ठोठिका–एक प्रकार की मिठाई (प्रसाटी प ५१) ।
डआलुय-नौका-विशेष (अंवि पृ १४६) । डउर–जलोदर रोग (निभा २६५) । डंक-१ (बिच्छू आदि का) दंश (प्र श२३) । २ क्षत-विक्षत
(निचू २ पृ८८)। डंगर--नीच जाति के लोग-'डंगरा पादमूलिया' (निचू ३ पृ ५२१)।
२ लाठी रखने वाले चोर-'लाकुटिकाः डङ्गराः' (बृटी पृ ११५७) । डंड-वस्त्र के जोड़े हुए टुकड़े (दे ४१७) । डंडअ-रथ्या (दे ४८) । डंडपरिहार-जीर्ण-शीर्ण बड़ी कंबल-'महंता जुण्ण कंबली सरडिता डंड
परिहारो भण्णति' (निचू २ पृ ३२२)। डंडि-सांधा हुआ जीर्ण वस्त्र (निचू ३ पृ ६०) । डंडी-सिले हुए वस्त्र-खण्ड (दे ४१७ व) । डंबर-धर्म, गर्मी (दे ४१८)।
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देशी शब्दकोश डंभण-सूची की भांति तीक्ष्ण शस्त्र-विशेष (विपा १।६।२१)। डंभिअ—द्यूतकार (दे ४१८) । डक्क-१ सांप द्वारा डसा हुआ (निचू १ पृ८२) । २ दन्तगृहीत (दे ४।६)।
३ वाद्य-विशेष । डक्कूरिज्जंत-पीड़ित होता हुआ-'महाणगरडाहे वा डक्कुरिज्जतेसु वा
___णगरगामेसु वा समंता हाहाकाररवा' (सूचू १ पृ १३१) । डगण-यान-विशेष (बृभा ३१७१) । डगल-१ फल का छोटा और विषम गोल टुकड़ा (नि १५७) ।
२ खण्ड-'डगलं तु होइ खंडं' (निभा ४६९८)। ३ आधाभाग'डगलं अद्धं भण्णति' (निचू ३ पृ ४८२) । ४ ईंट का टुकड़ा
(ओनि ३६०) । ५ पाषाण-खंड (ओभा ७८)। डगलग-इंट, पाषाण आदि के टुकड़े (पिनि ३७) । उग्गल-घर के ऊपर का भूमितल (दे ४८) । डागला (राजस्थानी)। डड्ढाडी-दवमार्ग, अग्निमार्ग (दे ४१८)। डड्ढाली–दवमार्ग, दावानल से निर्मित मार्ग (दे ४१८ पा)। डप्फ-सेल्ल नामक आयुध (दे ४१७) । डब्ब-बायां-'चउरंगुल मुहपत्ती उज्जुए डब्बहत्थ रयहरणं'
(आवनि १५४५)। उमर-अशोभनीय-पच्चंता करिति डमराई' (आवहाटी २ पृ ४५) । डल-लोष्ट, मिट्टी का ढेला (दे ४१७)। उल्ल--१ बांस की बड़ी छाबड़ी-'गवां चरणार्थं यद्वंशदलमयं महद्भाजनं
तद्गोकिलज डल्ले त्ति यदुच्यते' (उपाटी पृ ६६; दे ४१७)। डल्ला-बांस का बना हुआ भाजन-विशेष (भटी प ३१३)। डव्व-बायां हाथ (दे ४१६) । डहर-१ बालक (सू १।२।२; दे ४८) । २ छोटा-'जे यावि नागं डहरं ति
नच्चा आसायए से अहियाय होइ' (द ६।११४) । ३ अकुलीन-'डहरो
अकुलीणोत्ति' (जीविप पृ ४१)। डहरप्फर-हड़बड़ाहट (दअचू पृ८)। डहरय-छोटा (उसुटी प २४) । डहराक-छोटा (अंवि पृ ११९) । डहरिया-छोटी, अठारह वर्ष तक की लड़की (आव २ पृ १५४) । डहरी--१ छोटी (दश्रुनि ५) । २ अलिजर, मिट्टी का घड़ा (दे ४७) ।
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डाअ -- पत्ती वाला हरित शाक - विशेष (दश्रु ३ | ३ ) ।
डाअल-नेत्र, लोचन ( दे ४५६ ) ।
डाउ - १ फलिहंसक वृक्ष । २ गणपति की प्रतिमा विशेष (दे ४। १२) ।
डाग - १ पत्ती वाला शाक ( जीभा १२१३) । २ हरा शाक - मूलफलं हरियगं' stit' (पंक ७२८ ) । ३ डाली (आटी प ४११ ) ।
डागल ---- फल का गोल टुकड़ा ( नि १५/७ ) ।
डागवच्च – पत्र प्रधान शाक सुखाने का स्थान ( आचूला १०/२६) । डामित - झामित, जलाया हुआ (व्यभा ७ टीप ५५ ) ।
-
डाय – १ बैंगन, ककड़ी, चना, पत्ती आदि का शाक । २ मसालों से पकाई हुई बथुआ, राई आदि की भाजी ( प्रसा १३९ ) ।
डायलअ-चक्षुष्मान्, आंख वाला - "ता तरलिअडायलओ गुत्तिग्रहे डिड्डरोव्व डिफेसु' (दे ४६ वृ) |
डायल -- हर्म्यतल, प्रासाद-भूमि ( निचू २ पृ ३६) । डाल - वृक्षशाखा ( निचू ३ पृ २४) ।
डालग
देशी शब्दकोश
--
-१ शाखा का एक भाग - ' डालग त्ति शाखैकदेश:' (आटी प ३५४ ) । २ सूक्ष्म खण्ड (आटी प ४०५ ) ।
डालय- - शाखा ( ज्ञा १।३।१८ ) ।
डाला - वृक्ष की शाखा (पा ३३३ ) । डाली
-- शाखा ( निचू ३ पृ ४७२; दे ४१९ ) ।
डाव - वाम हस्त, बांया हाथ (निर १३८ ; दे ४६ ) । डावो ( राज, गुज) ।
डिअली - स्थूणा, खम्भा ( दे ४1९ ) ।
डिडि – सिले हुए वस्त्र- खंड (दे ४१७ ) |
डिडिबंध - गर्भ-संभव ( पंक २४४) ।
डिंडिम - १ कांस्य पात्र ( आचूला १ । १४५ ) । २ गर्भ - संभव
( निचू २ पृ २६० ) ।
डिडिल्लिअ - १ तैल-किट्ट से व्याप्त वस्त्र, खलि - खचित वस्त्र ( दे ४। १० ) । २ स्खलित हस्त (वृ) 1
डिडिल्लिअय - स्खलित हस्त ( दे ४ | १० वृ ) । डिंडुर - मेंढक (दे ४६ वृ) ।
डिंफ - जल - " डिड्डुरो व्व डिफेसु' (दे ४/६ वृ ) | डिफिअ - पानी में गिरा हुआ (दे ४६ ) ।
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देशी शब्दकोश
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डिक्क-बालक (आवचू १ पृ ४६९) । डिक्कर-पुत्र (आवहाटी १ पृ ६२) । डीकरो (गुज) । डिक्करिका-छोटी कन्या (आटी प ४१३) । डीकरी (गुज) । डिक्करका-लड़की (आवचू २ पृ २६०) । डिक्करूव-बालक-'एए पव्व इया डिक्करूवाणि घेत्तुं मारेंति'
(उसुटी प २०५)। डिडुर-मेंढक (दे ४।६) । डिड्डुर-मेंढक (दे ४।६ ) । डिप्फर-आसन-विशेष-डिप्फरो पीढफलक सत्थियं तलियं ति वा ।
(संवि पृ ६५) । डिलय-शाखा-'डिलयम्मि ओलइया' (जीभा ५३८)। डोण-अवतीर्ण (आचू पृ ८५; दे ४११०)। डीणोवय-ऊपर (दे ४११०) । डोर-नया अंकुर, कन्दल (दे ४।१०)। डुंग-१ शिलाओं का उपचय । २ चोरों का समुदाय-'डुंगानि शिलावृन्दानि
चोरवृन्दानि वा' (जंबूटी प १६८) । डुंगर–१ छोटी पहाड़ी । २ चोरों की बस्ती (जंबूटी प १६८) । ३ पर्वत
(दे ४।११)। डंघ-नारियल का बना पात्र जो पानी निकालने के काम आता है
(दे ४१११)। डुंडुअ-१ पुराना घण्टा (दे ४१११) । २ बडा घंटा। उंब-१ महावत (पिनि ३८७) । २ चाण्डाल (सूचू २ पृ ३५७; दे ४।११)। कुंबिय-चांडाल (निचू २ पृ २६६) । डुपक-नाव (अंवि पृ ७६)। उप–१ गहरा-'डेपकूपे प्रतिबिम्बं मरुकूपसदृशमतीवोण्डं कूपं दृष्वेत्यर्थः'। ।
२ प्रतिक्षेपण, गिराना (व्यभा ४।३ टी प ६)। डेपन-लंघन, अतिक्रमण (व्यभा ४।३ टी ६) । डेरग–छोटा, लघु (आवहाटी १ पृ २७०)। डेवण-कूदना-फांदना-'डेवणं गत्तवरंडाई फडणं' (जीविप पृ ३४)। डेवेमाण-प्लवमान (भ १३।१५५)। डोअ-दाल-शाक आदि परोसने की काष्ठ-निर्मित बड़ी कडछी
(नंदी ३८१६; दे ४।११) । डोयो (गुज)।
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देशी शब्दकोश
डोअण-लोचन (दे ४६)। डोंगर--१ छोटी पहाड़ी (जंबू २।१३१) । २ ढेर, टीला-'छारेण डोंगरा
__कता' (आवचू १ पृ २२३) । ३ पर्वत (ओटी प २०)। डोंगिली-१ ताम्बूल का भाजन-विशेष (दे ४११२) । २ पान बेचने वाली
स्त्री (व)। डोंगी-१ स्थासक-कुंकुम आदि से लिप्त हथेली का छापा। २ पान रखने
___का पात्र-विशेष, पानदानी (दे ४।१३)। डोंडिणी-ब्राह्मणी (आवहाटी १ पृ ३७)। डोंब-१ चाण्डाल, डोम (प्र ११२१) । २ महावत (बृभा ४१२४) ।
देश-विशेष (प्रज्ञा ११८६)। ४ पटह बजाने वाला-'कि कोइ डोंब
डिभो पडहयसहस्स उत्तसइ' (कु पृ ३८) । डोंबिल-डोम, चाण्डाल (जीभा ४२५) । डोंबिलग-१ एक अनार्य-जाति । २ म्लेच्छ देश-विशेष (प्रज्ञा ११८६)। डोंबिल्लिय-अनार्य जाति का नृत्य, वादन आदि (कु पृ १५०) । डोंबी-कर्ण पिशाचिनी, चांडाली (पंवटी प २३२)। डोड -ब्राह्मण (उसुटी प ५८) । डोडकित-वनस्पति की वह अवस्था जिसमें अनाज के 'डोडे' उत्पन्न हो
गये हों (ज्ञाटी प १२५) । डोडिणी-ब्राह्मणी (अनुद्वा ९८)। डोडग-आक का डोडा-'अक्कडोडगाइ तूलभरिया वा तूली'
(निचू ३ पृ ३२१)। डोडिनी-ब्राह्मणी (स्थाटी प १४४)। डोतीय-बड़ा चम्मच (जीभा १२११)। डोभ--गोत्र-विशेष (अंवि पृ १५०) । डोल-१ चतुरिन्द्रिय जीव-विशेष, टिड्डी (उ ३६।१४७)। २ फल-विशेष,
मधूक (प्रसा २१६) । ३ अक्षिगोलक-'बेवि अक्खिडोलए पाडेति'
(आचू पृ २२६) । ४ आंख (दे ४१६) । डोला-१ शिविका (दे ४१११) । २ हिंडोला, झूला (१r ७४१)।
__ ३ टिड्डी-'डोलाः तिडका उच्यन्ते' (बटी पृ ६७५) । डोलिअ-काला हिरण (दे ४।१२) । डोलिका-बैठने की डोली (जंबूटी प १२३)। डोव-१ म्लेच्छ जाति (निचू १ पृ १०३) । २ कड़छी (आवटि प ६१) ।
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देशी शब्दकोश
२०६ डोवलिय- शाक आदि परोसने का काष्ठ-पात्र (आवहाटी २ पृ २४४) । डोविलिय-शाक आदि परोसने का काष्ठ-पात्र (आव २ पृ ३१०) । डोहल-गोत्र-विशेष (अंवि पृ १५०) । डोहिय-फल की अस्थिविहीन अवस्था (आचू पृ ३४१)।
ढ
ढंक-१ जंगली कौआ, मांसभक्षी पक्षी-सियाल-णंतिक्क-ढंकादी'
(जीभा २४६७)। २ जलचर पक्षि-विशेष-......... जलचरपक्षिजातिरेव......."एते हि न तृणाहाराः केवलोदकाहारा वा' (सूचू १ पृ २०१)। ३ मांसभक्षी क्षुद्र जीव (सूटी १५ २४६)।
४ कौआ (दे ४११३)। ढंकण-ढक्कन, पिधानक (अनुद्वा)। ढंकणी-पिधानिका, ढकनी (दे ४.१४)। ढंकराली-बडे पक्षी-विशेष-'महासकुणा दिग्घग्गीवा... पारिप्पव-ढंकरालीओ'
(अंवि पृ २३६)। हुंकुण-१ वाद्य-विशेष (आचूला १११२) । २ खटमल (जंबूटी प १२४;
दे ४।१४)। ढंखरिअ-विशेष प्रकार की वीणा रखने वाला (दे ४११४ वृ)। ढंखरी-वीणा का एक प्रकार (दे ४।१४)। ढंढ-१ पङ्क। २ निरर्थक (दे ४।१६) । ३ कपटी, दाम्भिक । ढंढणी-१ तृण-विशेष (बृटी पृ २०६) । २ कपिकच्छु का वृक्ष (दे ४११३)। हुंढर-१ पिशाच । २ ईर्ष्या (दे ४।१६) । ढंढरिअ-कर्दम (दे ४११५) । ढंढसिअ-१ ग्रामयक्ष (दे ४।१५) । २ ग्रामवृक्ष (वृ)। ढंढा-भेरी-'णेहो त्ति णाम डड्ढं (ढंढं ? ) भणियं मज्झण्हढंढाए'
(कु पृ १६६)। ढंसय--अपयश (दे ४।१४) । ढक्क- म्लेच्छ जाति-विशेष (कु पृ १५३) ।
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२१०
देशी शब्दकोश
ढक्कण-ढक्कन-'संवरं ढक्कणं पिहाणं ति एगट्ठा' (जीचू पृ ५) । ढक्कय-तिलक (दे ४११४) । ढक्करि-अद्भुत (प्रा ४१४२२) । ढक्कवत्थुल-एक प्रकार की भाजी (प्रसा २३६)। ढक्किय-१ आच्छादित (पिनि १६८) । २ वृषभ की आवाज
(उसुटी प १३५)। ढड-भेरी (दे ४११३)। ढडर-१ तेज आवाज (बृभा २५६१)। २ गुरुवन्दन का एक दोष-ऊंचे
स्वर से वन्दन करना (प्रसा १७३) । ढमर-१ पिठर, स्थाली । २ उष्णजल (दे ४११७) । ढयर-१ पिशाच । २ ईर्ष्या (दे ४११६)। ढावरा-बालक (अंवि पृ ६६) । डावरा (राजस्थानी)। ढिउल्लिका-पुतली (पिटी प ६) । लिंक-बड़ा काक (प्रटी प १०)। ढिकिय-वृषभ की गर्जना-'वसभं ढिकिएणं' (अनुद्वा ५२२) । ढिकुण--१ खटमल (जंबू २।४०)। २ गौ आदि को लगने वाला क्षुद्र जंतु
विशेष 'चीचड' (उ ३६।१४६)। ढिंढ-जल में गिरा हुआ-'दिट्ठो कह वि मह पई ढिंढो' (दे ४११५ वृ)। दिढय-जल में गिरा हुआ (दे ४११५) । ढिक्कय-नित्य (दे ४११५)। ढिक्किय-वृषभ का शब्द-'वसभढिक्कियाइ' (अनुद्वाचू पृ १३)। ढुंदुल्लिम-खोजा हुआ (पा ५२६) । ढुक्कड-उपस्थित, मिलित-'इमं समोसरणं ढुक्कडं' (सूचू २ पृ ४१४) । ढेंका-१ ठेकुवा पक्षी (निचू १ पृ १०३) । २ हर्ष । ३ कूपतुला
(दे ४११७)। ढेकी-बलाका (दे ४।१५) । ढेकुण-खटमल (दे ४।१४) । ढेंढिअ-धूपित (दे ४११६) । ढकुय-कूप-तुला-'दो जणा ढेकुयादवरकेण""बद्धा' (आवमटी प २७९) ।
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देशी शब्दकोश
२११
ढेक्किय - सांड की गर्जना - "गोट्ठगणस्स मज्झे ढेक्कियसद्देण जस्स भज्जंति' ( आवहाटी २ पृ १५३ ) ।
ढेणिआल - टिड्डी (अंतटी पृ ४) | ढेणिकाल - कीट - विशेष (अनुटी पृ ४) । ढेणियालग–पक्षि- विशेष ( प्र १६ ) | ढेणियालिया - पक्षि- विशेष ( अनु ३।३३ ) | ढेल्ल - निर्धन ( दे ४।१६) । ढेल्लिका - नितम्ब (अंवि पृ ११४) । ढेल्लिय – ढेला, मृत्खंड ( अंवि पृ २१५ ) । ढेल्लिया - मिट्टी का ढेला (अंवि पृ २१५) । ढोइत - प्रविष्ट ( निचू २ पृ २८५) । ढोंघर - भ्रमणशील (दे ४।१६ वृ) । ढोंघरय -- भ्रमणशील (दे ४११६) ।
ढोंढसिव - भगवान् महावीर के समय से प्रचलित ग्राम देवता - ' ततो तप्पभिई ढढसिवो पवत्तो' (आवमटी प २६१) ।
ढोक्कणिय आच्छादन - - कुतित्याणि य जाणासि, अच्छिढोक्कणियाणि य' ( आवहाटी २ पृ ४८ ) ।
ढोय -- गमन, प्रवेश - 'चेल्लणाइ कयाइ ढोयं न देइ'
( आवहाटी २ पृ १२९ ) ।
ढोल्ल - १ प्रिय (प्रा ४३३० ) । २ पटह, ढोल । ३ देशविशेष |
ण
इकुक्कुडिका-- जलचर पक्षि - विशेष (अंवि पृ २३८) । इमासय-पानी में होने वाला फल- विशेष (दे ४।२३) ।
णउत - संख्या - विशेष - 'चतुरशीतिर्न युताङ्गशतसहस्राणि एकं नयुतम्' ( स्थाटी प ३४५) ।
णउलगनोली, रुपयों की थैली ( उसुटी प ११८ ) ।
णं - पादपूरक अव्यय - 'णगारो देसिवयणेण पायपूरणे, जहा – समणे णं रुक्खा णं गच्छा णं ति' (निचू १ पृ २९ ) ।
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२१२
देशी शब्दकोश
णंकार---पादपूर्ति के लिए प्रयुक्त होने वाला शब्द-णंकार पूरणे देसी
___ भाषातो वा' (सूचू १ पृ १४२) । णंगणिगा-नग्नभाव-'नग्न भावो हि णंगणिगा स्यात्' (सूचू १ पृ १५६)। जंगर-लंगर, जहाज को जल-स्थान में थामने के लिए पानी में डाला जाने
वाला लोहे या पत्थर का साधन (ज्ञाटी प १६५) । णंगल--लांगूल, पूंछ-'गद्दभनंगलेण गाहाविया' (आवहाटी २ पृ १३१)। णंत-वस्त्र-'णंतमिति देशीवचनं वस्त्रवाचकम्' (आवमटी प ८८)। णंतक-कपड़ा (आवचू २ पृ २११)। गंतग–वस्त्र-'उग्गह णंतग पट्टो अड्ढोरुग' (पंक १४८१) । गंतिक्क-१ बुनकर, जुलाहा-'णंतिक्क-रयग-देवड-डोंबिल-पाडहिय रायपहे'
(जीभा ४२५) । २ पशु-विशेष-'अण्णे वि अत्थि संघा, सियालगंतिक्क-ढंकादी' (जीभा २४६७) । ३ वस्त्र छापने वाला, छींपा
(व्यभा १० टी प ६६) । गंतुका-पक्षिणी-विशेष (अंवि पृ ६६) । गंद-१ ईख पेरने का काण्ड । २ कुंडा, पात्र-विशेष (दे ४।४५) । ३ लोहे,
का वृत्त आसन-विशेष (ज्ञाटी प ४७) । गंदण–१ भृत्य, नौकर (दे ४११६) । २ एक प्रकार का सुगन्धित वृक्ष
(कु पृ १४६)। गंदा-गाय (दे ४११८)। णंदिअ-सिंहनाद, सिंह का दहाड़ना (दे ४।१६) । गंदिक्ख-सिंह (दे ४११६) । गंदिणी-गाय (दे ४११८) । गंदिविणद्धण-सिर का आभूषण-विशेष (अंवि पृ १६२) । गंदी-गाय (दे ४।१८)। णंदीविणद्धक-सिर का आभूषण-विशेष (संवि पृ १८३) । णक्क-१ नाक (विपा १२११६२; दे ४१४६) । २ मूक (दे ४१४६) । णक्खच्चण-नखचूंटी, नहरनी (पंक २०२४) । णक्खच्चणि-नहरनी (बृभा २८५३)। णक्खत्तणेमि-विष्णु (दे ४।२२) । णगर-घर-णगरं घरं आश्रयेत्यर्थः' (निचू १ पृ ६६) । गगरग-घर (निभा २८३)।
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देशी शब्दकोश
२१३
णच्चिर - रमणशील, उन्मत्त - ण सुणेसि णच्चिराणं जइ गीयं' (दे ४।१८) । णच्छक - रोग - विशेष (अंवि पृ २०३ ) ।
च्छोटि - नाखून काटने का शस्त्र, नहरनी (व्यभा १० टी प ३० ) ।
णज्जर - मलिन (दे ४।१९ ) ।
णज्झर -निर्मल (दे ४|११ ) 1 ण टुल्लग - नाटक ( ज्ञाटी प १०२ ) । ट्टोसक - नाटकाचार्य (अंवि पृ ६८ ) । णड -- तृण - विशेष ( जीवटी प १२३) । णडइल्ल - नाटकीय ( कु पृ ४२ ) ।
णडवेलंब - कोलाहल, छीनाझपटी - 'तारिसं णडवेलंबं घरे दठ्ठे' ( निचू ३ पृ ४३३) ।
डिअ - १ वञ्चित, प्रतारित ( ज्ञा १६५४; दे ४|१८ ) । २ व्याकुलता, खिन्नता ( पा ५७५) ।
डुली - कछुआ (दे ४२० ) ।
णडुरी - पेंढक (दे ४।२० ) ।
णड्डुल - १ रतिक्रीडा । २ दुर्दिन, मेघाच्छन्न दिवस (दे ४०४७) |
णड्डुली - कछुआ (दे ४।२० वृ) |
णणण - १ कूप २ दुर्जन । ३ बडा भाई ( दे ४१४६ ) |
णत्तमाल - वृक्ष की एक जाति (अंवि पृ ६३) ।
णत्थक – नासारज्जु (अंवि पृ २०२ ) ।
-
णत्थण - १ नाथना, नाक में छिद्र करना (दअचू पृ १७८ ) । २ पशु के नाक में बांधी जाने वाली रस्सी (अंवि पृ २१४)।
णरमच्छा
णत्था - नासारज्जु (भ ९ | १४१ ; दे ४।१७ ) | नाथ (राज) । 5- जलचर प्राणी - विशेष - 'अस्समच्छा दीपुत्तकसव्वचरा चेति' (अंवि पृ २२८ ) । नदीसुत्तक - जलचर प्राणी - विशेष (अंवि पृ २२५) ।
णदुल्लग – नाट्य - 'न दुल्लगं च सिक्खावेंति' (ज्ञा १।३।२७) ।
द्दि – दुःखित (दे ४।२०) ।
णद्ध- - आरूढ (दे ४। १८ ) ।
द्धंबवय -- १ अघृणा । २ निन्दा (दे ४१४७) । णमसिय- मनौती (दे ४१२२) ।
दीपुत्तका
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२१४
देशी शब्दकोश नरिव-पारे को बांधने वाला-'जो उण बंधइ णिउणो रसं पि सो भण्णइ
रिंदो' (कु पृ १९७) । णल-मत्स्य की एक जाति-'रोहित-पिचक-णल-मीण-चम्मिराजो'
(अंवि पृ २२८)। णलक-खस का तृण (आवचू १ पृ ३७२)। णलथंभ-वृक्ष-विशेष-'सुचिरंपि अच्छमाणो नलथंभो उच्छुवाडमज्झमि ।
कीस न जायइ महुरो जइ संसग्गी पमाणं ते ॥'
(आवनि १११७)। णलय-खस का तृण (दे ४११६) । पलिअ-गृह (दे ४।२०)। पल्लग-पात्र-विशेष (जंबूटी प १००)। णल्लय-१ कर्दमित, कीचडवाला । २ बाड का विवर । ३ प्रयोजन ।
४ निमित्त (दे ४१४६) । णवणीइया--गुल्म वनस्पति-विशेष (प्रज्ञा ११३८॥३)। णवतय--बिना पिंजी हुई ऊन से बना आस्तरण-विशेष (ज्ञा १११।१८) । णवय-बिना पिंजी हुई ऊन से बना आस्तरण-विशेष-'अत्थुरणं पाउरणं वा
____ अकत्तिय उन्नाए नवयं कज्जति' (निचू ३ पृ ३२१) । णवर--१ केवल, सिर्फ (आचूला १।३४) । २ अनन्तर । णवरं-१ केवल, इसके अतिरिक्त-'एवं जहा महब्बले, नवरं-गोयमो
नामेणं' (अंत १।१७) । २ अनन्तर (आवचू १ पृ २४६) । णवरि-१ केवल (प्र६१) । २ अनन्तर (से ११।६८)। णवरिअ-सहसा, शीघ्र (दे ४।२२) । णवलय-व्रत-विशेष-दोलाविलाससमए पुच्छंतीहिं सहीहिं पइणामं ।
लट्ठीहिं हणिज्जती वहुया णवलयवयं भरइ ॥' (दे ४।२१ वृ)।
देखें-'णवलया। णवलया-नियम-विशेष, जिसके अनुसार सभी लोग पलाश की लताएं लेकर
घूमते हैं तथा विभिन्न स्त्रियों को अपने-अपने पति का नाम पूछते हैं । जो स्त्री अपने पति का नाम नहीं बताती, उसे पलाश की लता से आहत करते हैं-'जत्थ पलासलयाए जणेहि पइणाम पुच्छिा जुवई। अकहन्ती णिहणिज्जइ णिअमविसेसो णवलया
सा।' (दे ४।२१)। णवसिअ-उपयाचितक, मनौती (दे ४।२२ वृ) ।
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देशी शब्दकोश
णवूहक - चित्र-विचित्र रंगों वाला पक्षी ( बंवि पृ २२५) । णवोद्धरण – जूठा, उच्छिष्ट (दे ४।२३) ।
णव्व-- आयुक्त, गांव का मुखिया (दे ४११७ ) ।
णव्वाउत्त- १ ईश्वर, धनाढ्य (दे ४।२२ ) । २ नियोगीपुत्र, सूबेदार का लड़का (वृ) ।
णव्वाउत्तय- धनाढ्य (दे ४।२२ वृ ) ।
हट्टिका - आसन - विशेष - भद्दासणं पीढगं वा कट्टखोडो नहट्टिका' ( अंवि पृ १५ ) ।
हमुह - उल्लू (दे ४।२० ) ।
णहरणि- नहरणी, नाखून काटने का औजार ( बुभा ४०६६) । हरणिया - नाखून काटने का साधन - विशेष ( आवटि प ८० ) । गहरी --- छुरिका (दे ४।२०) ।
हवल्ली - विद्युत् ( दे ४१२२) ।
पहिया - कुहन - वनस्पति का एक प्रकार ( प्रज्ञा ११४७ ) ।
णाअ -अभिमानी (दे ४।२३) ।
ers - निषेधार्थक अव्यय, नहीं (भ ३।५० ) ।
णाई - निषेधार्थक अव्यय, नहीं ( उपा २/४० ) ।
णाउड्डु – १ सद्भाव । २ अभिप्राय (दे ४१४७ ) | ३ मनोरथ ( वृ ) 1 णाउल्ल - गोमान्, जिसके पास अनेक गायें हों (दे ४।२३) । गाणग— रुपया, सिक्का - 'ताम्रमयं वा जं णाणगं ववहरति तं दिज्जति' ( निचू ३ पृ १११) |
णानिका-नानी, माता की माता (अंवि पृ ६८ ) ।
णामत - पर्वत - णामतो गिरिको वत्ति तहा पव्वतको त्ति वा ' (अंवि पृ७८ ) ।
णामिण - मत्स्य जाति - विशेष (अंवि पृ ६३ ) । मुक्कसि - कार्य, काम (प्रा २।१७४) । णमोक्कसिअ - कार्य, काम (दे ४।२५) ।
णारुट्ट - कूसार, गर्ताकार स्थान ( पा ३१६) ।
णारोह - - १ बिल, विवर (दे ४।२३) । २ कूसार, गतकार स्थान ( वृ) ।
णालंपिअ - आक्रन्दित ( दे ४।२४ ) |
णालंबि - कुंतल, केश (दे ४।२४)
।
२१५
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२१६
देशी शब्दकोश
णालक-भोजन करने का पात्र (अंवि पृ ६५) । णालिअ-मूढ, मूर्ख (प्रा ४१४२२) । णालिएर-नारियल (आचूला २१०४) । णालिएरी–नारियल (आचूला १।११५)। णावण-वितरण, दान-'नावण त्ति तस्य दानं' (प्र ३।१२ टी प ५७) । णावा-प्रसृति, अंजलि-'नावा पसई' (प्रसाटी प २२९) । णावापूर-चुलुक, चुल्लू-'दोहिं तिहिं वा णावापूरेहिं अच्छि धोवति'
(निचू २ पृ २२०) ।। णावापूरय-चुल्लू-'नावापूरओ नाम पसती' (बृटी पृ १३३)। जाहिदाम-चंदोवे के बीच में लटकती हुई माला (दे ४।२४) । णाहिविच्छेअ-जघन (दे ४।२४) । णाहीए-विच्छेअ—जघन, कटि के नीचे का भाग (दे ४।२४ वृ)। णिअंधण-वस्त्र (दे ४।३८)। णिअंसण-वस्त्र (दे ४१३८)। णिअक्कल-वर्तुल, गोलाकार (दे ४।३९)। णिअडि-दम्भ (सू २।२।५८; दे ४.२६)। णिअत्थ-परिहित, पहना हुआ (दे ४।३३) । देखें-णियत्थ । णिअय-१ शाश्वत (भ २॥१२५; दे ४१४८) । २ मैथुन । ३ शय्या
४ कलश (दे ४।४८)। णिअरिअ-राशि रूप से स्थित (दे ४१३८) । णिअल-नूपुर (दे ४।२८)। णिआणिआ-खराब तृणों का उन्मूलन (दे ४।३५) । णिआर-शत्रु का घर (दे ४।२६)। णिइग-प्रतिदिन-'नैतिकं प्रतिदिनमिति यावत्' (प्रटी प १४१) । णिउक्क—मौनी, तूष्णीक (दे ४।२७) । णिउक्कण---१ कौवा । २ मूक (दे ४।५१)। णिउर-१ वृक्ष-विशेष (ज्ञा १।६।२०) । २ कटा हुआ। ३ जीर्ण । णिओद-१ अनंत जीवों का एक शरीर-'कतिविहा णं भंते ! निमोदा
पण्णत्ता ?' (भ २०२७३) । २ कुटुम्ब, समूह-'बावत्तरि निओदा
बीयं बीयमेत्ता बिलवासिणो भविस्संति (भ ७।११६) । णिदिणी-खराब तृणों का उत्पाटन (दं ४।३५) ।
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देशt शब्दकोश
पिबोलिया-नींबोली, नीम का फल (ज्ञाटी प २०६ ) । णिक्क – १ स्वच्छ (ज्ञा १ । १ । १२५ ) ।
२ : परिमाण - 'कायगमासज्ज तहा,
कुत्तियमुल्लस्स णिक्कं ति' (बृभा ४२१६) । णिक्कइला -- जीता हुआ (दे १।४ घृ ) । णिक्कइल्ला - जीता हुआ ( दे ११४ वृ ) । णिक्कज्ज - अनवस्थित, चंचल ( दे ४१३३ ) । णिक्कड - १ कठिन ( प्रटी प ६७ ; दे ४।२६) । २ निश्चय । णिक्कल - सघन, पोलेपन से रहित - ' निम्मलं नित्तलं निक्कलं ... मणिरयणं”
(भ १५६१) ।
पिक्का –१ जलमार्ग - णिक्का सारणी वा पाणियाहारिपंथों'
( आचू पृ ३६९ ) । २ नाली - 'कद्दम बहुलं पाणीयं सेओ भण्णति, तस्स आययणं णिक्का' ( निचू २ पृ २२६ ) । ३ वाम नासिका । णिक्काणित – नाक की आवाज ( अंवि पृ १८१ ) |
णिक्कार - अधम जाति - विशेष (पंक ५०१ ) 1
णिक्काल - बाहर निकालने वाला - रिउजीवियनिक्कालं हत्थि' ( ति ३०१ ) णिक्कूइला - जीता हुआ (दे १।४ व ) ।
२१७
णिक्के सिज्जती- -- प्रसव करती हुई - 'तं ओव्वरए पवेसेऊणं णिक्केतिज्जंतीए. अप्पसागारियनिमित्तं सयं चेट्ठति' (दअचू पृ ५०,५१) ।
णिक्कोरण - पात्र आदि के मुख का अपनयन - मुहस्स अवणवणं णिक्कोरणं” ( निचू ३ पृ ४७२) ।
णिक्ख - १ चोर । २ कांचन, स्वर्ण (दे ४१४७) ।
णिक्खय - निहत, मारा हुआ ( दे ४ | ३२ ) ।
बिसरिअ - मुषित, अपहृतसार, जो लूट लिया गया हो वह (दे ४१४१ ) णिक्खड–१ अकम्प (दे ४१२८ ) । २ बिल - पसंति णिक्खुडेसुं संकड-कुडिलेसु दुक्खेण' ( कु पृ ३६ ) । ३ गोत्र - विशेष
(अंवि पृ १५० ) । ४ भूमि- खंड ( आवचू १ पृ १६९) ।
णिक्खुरिअ - अस्थिर ( दे ४५४० ) ।
णिगढ - गरमी, घाम (दे ४।२७) |
णिगोद - १ अनन्त जीवों का एक शरीर ( भ २५।२७४) । २ समूह, पिण्ड कुटुंब - 'निगोदा कुटुंबानि' (भटी प ३०९ ) ।
णिग्गा - हल्दी, हरिद्रा (दे ४।२५ ) |
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देशी शब्दकोश णिग्गिण्ण-१ बाहर निकला हुआ (दे ४१३६) । २ वान्त, वमन किया
हुआ (से ५।२९) ।" णिग्घट्ट-कुशल (दे ४१३४) । णिग्घत्तिय-क्षिप्त, फेंका हुआ (पा ५४५) । 'णिग्घोर-निर्दय (दे ४१३७) । णिग्घोलिय-खाली किया हुआ-णिग्घोलियं च पल्लं' निघोलितं
रिक्तीकृतम्' (बृभा ३३६६ टी पृ ९५०)। णिचुड-१ निर्दय (पा १२५) । २ बाहर निकला हुआ। णिच्छ—योग्य (?) (आचू पृ ३७०) । णिच्छक्क-१ निर्लज्ज (बभा २२५६) । २ अवसर को नहीं जानने वाला,
___ असमयज्ञ । णिच्छुड-निर्दय (दे ४१३७) । णिच्छुढ-निष्कासित (उशाटी प १६९) । णिच्छोलित--छीला हुआ, छाल उतारा हुआ (अंवि पृ १७१) । 'णिज्ज-सुप्त, सोया हुआ (दे ४।२५)। 'णिज्जाअ--उपकार (दे ४३३४) । णिज्जह-१ द्वार के ऊपर बाहर निकला हुआ काष्ठ-विशेष (प्र १११८)।
२ गवाक्ष (व्यभा ३ टी प ६३) । ३ नीव, गृहाच्छादन
(दे ४।२८)। ४ द्वार। 'णिज्जहअ-द्वार का किनारा (कु पृ ६७)। 'णिज्जोअ-१ राशि, ढेर (दे ४१३३) । २ पुष्पों का ढेर (व) । णिज्जोमि-रज्जू, रस्सी' (दे ४।३१) । णिज्जोय-सामग्री, परिकर-एगाभरणवसणगहियनिज्जोया' (भ ६।२०२) । णिज्झर-जीर्ण (दे ४।२६) । णिज्झाअ-निर्दय (दे ४।३७) । 'णिज्झर-जीर्ण (दे ४।२६ वृ)। णिटक-१ पर्वत से छिन्न भाग । २ विषम (दे ४१५०) । ‘णिट्टइय-क्षरित, टपका हुआ (पा १३९)। 'णिठ्ठहण-थूक-निठ्ठहणेण घसिऊण कणयवन्ना कया अंगुली दंसिया'
(उसुटी प २४२)। णिठुहिअ-निष्ठीवन, थूक (दे ४।४१) ।
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देशी शब्दकोश णिढ-निष्ठ्यूत (दअचू पृ २२) । णिठ्ठह-स्तब्ध (दे ४१३३)। मिड-राक्षस (दे ४।२५) । गिड्डील-निलीन (?) (अंवि पृ १६६)। णिण्णार-नगर से निष्कासित-'सो पच्छा रण्णा पडिहओ, णिण्णारो य
कओ, अण्णहिं नगरे एवं चेव करेइ' । (अनुद्वाहाटी पृ १८) । णिण्णाला-चञ्चु (दे ४१३६) । णितणिक-पुष्प-जाति-विशेष (जंवि पृ ७०) । णिरिंगी-आभूषण-विशेष (अंवि पृ ७१) । णित्त-- स्त्री-योनि (बभा २०७५)। णित्तिरडि-निरन्तर (दे ४१४०) । णित्तिरडिअ-त्रुटित, टूटा हुआ (दे ४१४१)। णित्तुप्प-बिना चुपड़ा या बिना बघारा हुआ (बृभा १७०६) । णित्थक्क-१ निर्लज्ज-णित्थक्को णिल्लज्जो भवति' (निचू ४ पृ ४४)।
२ अचानक (ज्ञाटी प १७५)। पित्थरभल्ल-अस्त्र-विशेष, साधन-विशेष-णित्थरभल्लेण णहादिणा वा खयं
करेज्ज' (निचू ४ पृ १७८) । णिदा--१ जानकर, प्राप्तकर-'खणं णिदाए पविसिस्सामि' (सू २१४१४) ।
२ ज्ञानयुक्त वेदना (समप्र १७२।१)। णिदाय-ज्ञानयुक्त (भटी पृ १४१७) । णिदोच्च–१ भय का अभाव । २ संघर्ष का उपशमन । ३ स्वास्थ्य
(व्यभा ६ टी प ५१)। णिहार-कणिका, टुकड़ा (आवहाटी २ पृ २४३)। णिद्धअ-अविभिन्नग्रह, एक ही घर में रहने वाला (दे ४:३८)। णिद्धंधस-१ अकृत्यसेवी-णिद्धंधसो देशीवचनमेतत् अकृत्यं प्रतिसेवमानः'
(व्यभा १ टी प १२) । २ निर्दय (दे ४।३७) । ३ निर्लज्ज । णिद्धंस-निर्लज्ज, दुष्ट (आचू पृ ६५)। णिद्धम--एक ही घर में रहने वाला (दे ४१३८)। णिद्धमण-नाली (स्था ५।२१; दे ४१३६) । णिद्धमाअ-एक ही घर में रहने वाला (दे ४१३८) । णिद्धम्म--एक तरफ जाने वाला (दे ४१३५) ।
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२२०
णिपट्ट - अधिक (दे ४।३१) ।
णिपिच्छ - १ ऋजु । २ दृढ (दे ४।४६ ) ।
णिफरिस - निर्दय (दे ४।३७ ) ।
णिप्फेस - शब्द - निर्गम, आवाज निकलना (दे ४१२९ ) । णिबुक्क - निर्मूल (प्रटी प ४९ ) ।
विभग्ग - उद्यान (दे ४।३४) ।
णिब्भुग्ग - खण्डित, भग्न (दे ४ | ३२ ) ।
--
णिभेरिय – प्रसारित, विस्फारित - निब्भेरियच्छे रुहिरं वमंते ( उ १२।२६) ।
णिभेलण - घर, गृह (श्रु ८२६ ) |
णिमिय- १ निवेशित ( से ६ | ७६ ) । २ आघात, सूंघा हुआ । णिमेण- - स्थान (दे ४ | ३७ ) । णिमेल - दांत का मांस (दे ४ | ३० ) | णिमेला - दांत का मांस (दे ४|३० वृ) । णिम्मअ-गत, गया हुआ ( दे ४१३४ ) | निम्मंसा - चामुण्डा देवी (दे ४१३५) । निम्मंसु - तरुण (दे ४।३२) ।
नियंसण - १ परिधान, वस्त्र ( राज ६६ ; दे ४।३८ ) । २ उपभोग्य (बृभा ६४४) ।
पियंसनिय - १ पहनने का वस्त्र ( निचू ३ पृ ५७८ ) । २ उपभोग्य (बृभा ६४५) ।
णियंसणी - वस्त्र - 'अंतो णियंसणी पुण लीणा कडि जाव अद्धजंघातो' ( निभा १४०३ ) ।
णियत्थ - १ परिहित, पहना हुआ - 'खोमयवत्थणियत्थो' (आचूला १५२८६ दे ४१३३) । २ उत्तरीय वस्त्र - - दुहओ संवेल्लियग्गणियत्थाणं' ( राज ६९ ) । ३ परिधापित, जिसे वस्त्र पहनाया गया हो वह - 'संपत्थिया नियत्था तो गणियाए पुणो मुयई' ( विभा २६०७ ) । णियल - नूपुर ( आवचू १ पृ २५५) । णियल्ल - महाग्रह - विशेष (स्था २/३२५)। णियल्लय - निकट का ( उसुटी प १३३) । णिरंगी - घूंघट (दे ४।३१) ।
देशी शब्दकोश
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देशी शब्दकोश
२२१ णिरक्क-१ चोर । २ स्थित । ३ पीठ (दे ४१४६) । णिरग्घ-१ पीठ । २ उद्वेष्टित (दे ४।४६) । णिरहन्न-आश्वस्त-'अच्छह निरहन्नाओ' (आवचू १ पृ८८) । जिरप्प-१ पीठ । २ उद्वेष्टित (दे ४१४६) । णिरागति-गोत्र-विशेष (अंवि पृ १५०)। णिराद-विनष्ट (दे ४।३०) । णिराय-१ अत्यंत, प्रचुर (आवचू १ पृ ३१२) । २ सरल । ३ प्रकट ।
४ शत्रु (दे ४।५०)। ५ लम्बा किया हुआ (से २।४०)। ६ निरंतर-'पिया य से रणो निरायं अच्छिओ'
(आवहाटी २ पृ १४७)। णिराह-निर्दय (दे ४१३७) । णिरिअ-अविशेषित, साधारण (दे ४।२८)। णिरिक-नत, झुका हुआ (दे ४।३०) । णिरिक्क-१ चोर । २ स्थित । ३ पीठ (दे ४१४६) । णिरित्ता-बुझाकर-'सए गेहे पलित्तम्मि किं धावसि परातकं । सयं गेहं
णिरित्ताणं ततो गच्छे परातकं ।' (इ ३५११४) । णिरत्त-१ निश्चित (दे ४।३०) । २ निश्चिन्त । णिरुलि-कुम्भीर, मगर की आकृतिवाला ग्राह-विशेष (दे ४१२७) । णिरुवक्कय-नहीं किया हुआ (दे ४।४१)। णिरे-पृष्ठतः, पीछे-'निरे इति पृष्ठतः' (सूचू १ पृ १९८) । णिलंक--पतद्ग्रह, पात्र (दे ४।३१) । णिलंजन-करण, करना-निलंजनं नाम करणं' (सूचू १ पृ १२०) । णिलक्क-१ प्रच्छन्न, छिपा हुआ (भ १५५१०२) । २ विरत, अनासक्त
'खिप्पामेव निलुक्को जाहे पडिवज्जइ चरित्तं'। 'निलुक्को ति
देशीवचनमेतत् विरत इत्यर्थः' (आवमटी प २६६)। ३ लीन, • आसक्त। णिलुक्कण--छुपना (निचू १ पृ १०४) । पिल्लंक-पतद्ग्रह, पात्र (दे ४१३१)। जिल्लसिअ--निर्गत, निःसृत (दे ४।३६) । पिल्लू हित-मांजा हुआ (अंवि पृ १७६) । णिवच्छण-अवतारण, उतारना (दे ४।४०) ।
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२२२
णिवह-समृद्धि (दे ४।२६) । णिवाअ - स्वेद, पसीना (दे ४ | ३४ ) ।
णिवारेज्ज - विवाह (अनुद्वाहाटी पृ ७० ) ।
णिविद्ध-- १ सोकर उठा हुआ । २ निराश । ३ उद्भट । ४ नृशंस, निर्दय
(दे ४।४८ ) ।
णिवुक्क — निर्मूल - निवुक्कच्छिन्नधयभग्ग रहवर' ( प्र ३३५ ) | णिवर - वृक्ष - विशेष (अंवि पृ ६३ ) ।
णिव्व - १ ककुद, थूभ । २ बहाना (दे ४१४८ ) ।
विडिय - १ पृथक्भूत ( से ६८८ ) । २ स्पष्टीभूत |
देशी शब्दकोश
णिव्वढ - नग्न ( दे ४।२८ ) ।
णिव्वमिअ- परिभुक्त (दे ४१३९ ) ।
णिव्वर -- १ निष्प्रकंप, अचल (अंवि पृ ७९ ) । २ भग्न ( अंवि पृ १५५ ) णिव्वलण - १ प्रमोद - निर्बलनार्थं प्रमोदार्थम् । २ स्फेटन, दूर करना'निर्वलनं स्फेटनम् (व्यभा ४।२ टी प ८१) ।
णिव्वलिअ - १ पानी से धोया हुआ । २ प्रविगणित । ३ विघटित
(दे ४।५१) ।
णिव्वलित- १ पानी से धोया हुआ । २ वियुक्त (विभा १३२० ) । णिव्वलीय - विघटित, वियुक्त (बृभा १०६ ) । णिव्वहण - विवाह (दे ४१३६) ।
णिव्वाण – दुख-कथन ( दे ४ | ३३ ) 1
णिविट्ठ - उचित (दे ४।३४) । णिव्वित्त-सो कर उठा हुआ (दे ४।३२) ।
निव्वूढ - १ घर का पिछला भाग (दे ४ २९ ) । २ स्तब्ध ( दे ४१३३ ) णिग्वेद - नग्न ( दे ४।२८ ) |
व्वेिरिस - १ निर्दय (दे ४१३७) । २ अत्यर्थ, प्रचुर ( वृ) । णिव्वोल्लिय - क्रोधयुक्त - 'णिव्वोल्लिएण वयणेणं' ( कु पृ १८७) । णिस - १ प्रचुर, अत्यन्त - णिस भोच्चा पादोसियं ण करेंति' ( निचू ३ पृ ८३ ) । २ अन्धकार ( सूटी १ प १२८ ) । जिसका - भाजन - विशेष (अंवि पृ ७२) ।
णिसट्ट - प्रचुर (बूटी पृ १०८ ) |
णिसट्ट - १ बहुत (ओनि ८७) । २ निर्लज्ज ( बुभा ३४९३) ।
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देशी शब्दकोश
२२३ णिसङ्क-निश्चित, निःशंक-'तुमं जति सगणं ण सारेसि तो अम्ह णिसड्ढं चेक
अण्णं आयरिसं पडिवज्जामो' (निचू ३ पृ ३१) । णिसत्त-संतुष्ट (दे ४१३०)। णिसामिअ-श्रुत, सुना हुआ (दे ४।२७) । णिसाय-सुप्त, प्रसुप्त, भली भांति सोया हुआ (दे ४।३५) । णिसुअ-श्रुत, सुना हुआ (दे ४१२७) । णिसुट्ट-निपातित (प्रा ४१२५८) । णिसुट्टिय-निपातित, गिराया हुआ (से १०.३६) । णिसुढिअ-नत, भार से नमा हुआ (पा ५६६) । णिसुद्ध-गिराया हुआ (दे ४१३६) । हिस्संक-निर्भर (दे ४१३२) । णिस्सरण—फिसलन-'निस्सरणं नाम फेल्हसणं' (व्यमा ४।४ टी प ६). णिस्सरिम-खिसका हुमा (दे ४१४०) । णिस्साण-१ अपवाद (बृभा ७७१) । २ वाद्य-विशेष । णिहण-कूल, किनारा (दे ४।२३) । णिहत्तण-निधत्त, कर्म की एक अवस्था (भ १।२४।१)। णिहर–किनारा, कूल (दे ४१२७)। णिहस-वल्मीक (दे ४।२५)। णिहाम-१ स्वेद, पसीना। २ समूह (दे ४१४६)। णिहिल्लय-गाडा हुआ (उसुटी प ५२)। णिहम-१ अप्रवत्त, निश्चेष्ट (व्यमा ४।३ टी प ६५; दे ४१५०)।
२ तूष्णीक, मौन । ३ रति-क्रीड़ा (दे ४१५०)। णिहुआ-कामिता स्त्री, मैथुन के लिए प्रार्थित स्त्री (दे ४१२६)। णिहुण-व्यापार (दे ४।२६) । णिहत-१ निष्क्रिय-णिहुता य जुद्धकाले, ण वग्गहो व सज्झाओ'
(निभा २३८३)। २ उन्मत्त, पागल-णिहुतो ति णग्गायते पलवति
णच्चइ वा' (निचू ४ पृ २२१) । ३ निमग्न । णिहुत्थिभगा-वनस्पति-विशेष (प्रज्ञाटी प ३५) । णिहुय- निष्क्रिय-णिक्कारणे वा सकप्पकंबलीए पाउया णिहुया सव्वन्भंतरे
चिट्ठति' (निचू ४ पृ २३१) । २ थूहर का फूल (प्रज्ञाटी प ३७) ।
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२२४
णिहूय - १ अकिंचित्कर - निहूयं ति देशीवचनं अकिञ्चित्करार्थे'
( आवहाटी १ पृ २१७ ) । २ अपलाप - ' -नियत्ति आर्षत्वात् नितम्' (आमटी प ४२७) । ३ मैथुन (दे ४।२६ ) | णिहेलण - १ गृह, घर । २ जघन, स्त्री की कटि के नीचे का भाग (दे ४।५१) ।
णिहेल्लय - निहित, गडा हुआ - 'भूमीए दव्वं निहेल्लयं' ( उशाटी प १३० ) । णीआरण -- बलि रखने का छोटा कलश (दे ४ । ४३) ।
णीणिय - १ चतुरिन्द्रिय जंतु - विशेष ( जीवटी प ३२ ) । २ गत, गया हुआ ( पा ५०६ ) ।
णीपुर - द्वीन्द्रिय प्राणी - विशेष (अंवि पृ २६९ ) ।
णीरंगी - घूंघट (दे ४।३१) ।
णीराणिका - वनस्पति- विशेष (अंवि पृ २४३) ।
देशी शब्दकोश
गीलकंठी - बाण - वृक्ष (दे ४।४२ ) ।
णीसंपाय - वह समय जब पूरा जनपद परिश्रान्त हो गया हो, हलचल बंद हो गई हो (दे ४१४२) ।
णीसट्ट - अत्यर्थ, अत्यन्त ( बुभा ६११५) । णीसणिआ— निःश्रेणी, सीढी (दे ४।४३) । णीसणी -सीढी, निःश्रेणी (दे ४/४३ वृ ) ।
णीसरण -- फिसलन ( व्यभा ४१४ टी प ९ ) ।
णीसा - पीसने का पत्थर - 'णीसा वा पीसणी' (द ५।१।४५) ।
णीसार- मण्डप (दे ४।४१) ।
णोसीमिअ- निर्वासित, देश- बाहर किया हुआ (दे ४।४२ ) ।
णीहरिअ - शब्द (दे ४।४२) ।
णीहुज्ज - अप्रवृत्त, निश्चेष्ट ( व्यभा ४ | ३ टी प ६५ ) ।
णीहू - वृक्ष - विशेष (अंवि पृ ७० ) ।
णीहूत - अकिञ्चित्कर ( विभा ३१०० ) ।
णीहू - अकिचित्कर- 'नीहूयाणं इति देशयुक्त्या प्रवचन क्रियास्वकिञ्चित्कराणां' (आवदी प १४९ ) । तमालक-वनस्पति- विशेष (अंवि पृ १४१ ) । वण्ण-सुप्त (दे ४१२५) ।
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देशी शब्दकोश
२२५
म- १ प्रच्छन्न स्थान, गुफा आदि (भ १।३६४) २ प्रच्छादन, असत्य का एक पर्याय (२२) । ३ माया । ४ कर्म - नूमं ति कर्म माया वा' (आटी प २६५) । ५ दूसरे को ठगने के लिए प्रच्छन्न स्थान में छुपना (भटी प १०५२) । ६ अन्धकार |
मगह - भूमिगृह, भौंहरा ( आचूला ३।४७ ) ।
मण-गोपन, छिपाना - गूहण गोवण णूमण पलियंचणमेव एगट्ठ' ( जीभा १७७४) ।
णूमि - गोपित ( से १1३२ ) ।
मिय- १ छिपाया हुआ - सो वत्थं णूमियं' ( निचू १ पृ १११) । २ आच्छादित (उशाटी प ११५ ) ।
णूला- -शाखा (दे ४/४३) । उड्डु– सद्भाव (दे ४(४४)।
उर-१ द्वीन्द्रिय जंतु - विशेष ( प्रज्ञा १।४६ ) । २ चतुरिन्द्रिय जंतु - विशेष ( प्रज्ञा १।५१) ।
णेक्कार - चांडाल विशेष - ' जुगुच्छितो कोलिगजातिभेदो णेक्कारी' (निचू ३ पृ २७० )
। डाली - सिर का भूषण - विशेष (दे ४।३३ ) ।
ड-घर (आवहाटी १ पृ २६४) ।
ड्ड - नीड, घोसला (आवमटी प ३४५) ।
डुरिआ - भाद्रव शुक्ला दसमी का उत्सव - विशेष ( दे ४१४५ ) ।
त्तपट्ट - रंगीन रेशम का वस्त्र जो चीन से भारत में आता था - 'अहं चीणमहाचीणेसु गओ ---तत्थ गंगावडिओ णेत्तपट्टाइयं घेत्तूण लद्धलाभो यित्तोत्ति' (कु पृ ६६ ) ।
-म - कार्य - 'जह कारणं तु तंतू पडस्स तेसि च होंति पम्हाई । नाणाइतिगस्सेवं आहारो मोक्खनेमस्स |||
'नेमशब्दो देश्यः कार्यवाची' (पिनि ७० टी प १६ ) ।
णेम्म- १ सदृश, तुल्य ( प्र ।१) । २ चिह्न, उपलक्षण (बृभा १७५५) । - णेरित - गोत्र - विशेष (अंवि पृ १५० ) ।
लक — सिक्का, रुपया - काञ्चीनगर्याः सम्बन्धी नेलको रूपक इत्यर्थः ' ( प्रसाटी प २३३ ) ।
लकता - रंगीन मिट्टी, पुताई करने की मिट्टी- 'सुधा- सेडिका पलेपको लकता' (अंवि पृ २३३) ।
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२२६
देशी शब्दकोश णेलच्छ—नपुंसक (दे ४१४४) । णेलय-रुपया (निभा ६५९) । लिच्छी—कूपतुला (दे ४१४४) । ल्लक-सुरा-विशेष (जीवटी प २६५) । वच्छ—अवतारण (नंदीचू पृ २७) । वच्छण-अवतारण, नीचे उतारना (दे ४।४०) । सत्थि-वणिक्-प्रधान (दे ४।४४) । णेसत्थिय-वणिक्-प्रधान, व्यापारी (निचू ३ पृ १०६) । सत्थिया–निक्षेपण से होने वाला कर्मबंध (स्था २।२६)। सर-रवि (दे ४१४४) । णोमि-रस्मी, डोर (दे ४१३१) । णोलइसा-चञ्चु (दे ४।३६) । णोलच्छा --चञ्च (दे ४।३६) । णोल्लण-संस्पर्श (निचू २ पृ २५६) । णोव्य-आयुक्त, गांव-प्रधान (दे ४।१७) । ण्हं--पादपूर्ति में प्रयुक्त होने वाला अव्यय-हमिति निपात: पूरणार्थो वर्तते
(आवमटी प २४४)। व्होरय-कृतज्ञता (प्रसा १६२) ।
तउसमिजग-त्रीन्द्रिय जंतु-विशेष (उ ३६।१३८) । तउसमिजिया--त्रीन्द्रिय जंतु-विशेष (प्रज्ञा १५०) । तंजतण-वृक्ष-विशेष (आचू पृ ३७०) ।। तंट-पीठ (दे ५११)। तंड--१ लगाम में लगी हुई लार । २ मस्तक-विहीन । ३ तेज स्वर
(दे ५॥१६)। तंडो-दुष्ट घोड़ा-'तंडीति वा गलीति वा मरालीति वा एगट्ठा'
(उचू पृ ३०)।
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देशी शब्दकोश
तंत - आसन - विशेष (अंवि पृ १५ ) ।
तंतडी -- करम्ब, दही और चावल का बना भोजन- विशेष (दे ५५४ ) | तंतव - चतुरिन्द्रिय जीव- विशेष (प्रज्ञा ११५० ) ।
तंतुक्खोडी -- तन्तुवाय का एक उपकरण (दे ५/७ ) ।
तंतुय - जलजंतु - विशेष, मगरमच्छ ( ? ) - 'सेतणम गंधहत्थी नदीए तंतुएन ! गहितो' (आवहाटी १ पृ २३७ ) ।
तंदूसय - क्रीडा - विशेष | देखें तेंदूसय ( आवचू १ पृ २४६) । तंबकरोडय - ताम्रवर्ण का द्रव्य विशेष ( प्रज्ञा १७।१२५ ) । तंब किमि - कीट - विशेष, इन्द्रगोप (दे ५/६ ) ।
तंब कुसुम - कटसरैया का वृक्ष, ताम्ररक्त पुष्पों वाला वृक्ष (दे ५TE ) । तंबधिवाडिया - ताम्रवर्ण का द्रव्य विशेष ( प्रज्ञा १७|१२५ ) । तंबceकारी-शेफालिका, पुष्प-प्रधान लता - विशेष ( दे ५३४) । तंबरत्ती - गेहूं का ताम्ररक्त वर्ण (दे ५। ५) ।
तंबा - गाय (दे ५१ ) ।
तंबिरा — गेहूं का ताम्ररक्त वर्ण (दे ५३५)।
तंबेही - शेफालिका, पुष्पप्रधान वृक्ष - विशेष (दे ५७४) ।
--
तंबोल - मुखवास की वस्तुएं, जैसे- इलायची, लवंग, सुपारी, कपूर आदि ( उपा १।२६) ।
२२७
तक्कणा - इच्छा, अभिलाषा ( बुभा २०७४; दे ५१४)
तक्कलि - १ वलयाकार वृक्ष - विशेष (भ ८।२१७) । २ कदली वृक्ष, केले का गाछ ( आचूला १।११५) ।
तक्कुलि - १ पुष्प - विशेष (अंवि पृ ७० ) । २ खाद्य - विशेष
(अंवि पृ १७९) ।
तग्ग- सूत का कंकण (दे ५।१ ) - ' तग्गं च सूत्रकङ्कणम्' (वृ) ।
तच्चणित - बौद्ध भिक्षु (पंक ३३१) ।
तच्चणिय – बौद्ध भिक्षु ( जीभा १३६७ ) ।
तच्चन्निय - बौद्ध भिक्षु (आवचू १ पृ ८५) ।
तच्छड - भयंकर (दे ५।३) ।
तट्टक - थाल - 'तट्टकं सरकं थालं' (संवि पृ ६५) । तट्टे (कन्नड़) | तट्टिका -१ बाड़ (भटी पृ ६९१) । २ दिगंबर जैन साधु का उपकरण
विशेष |
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२२८
देशी शब्दकोश
तट्टी-वृति, बाड़ (दे ५३१)। तडउडा-वृक्ष-विशेष, आउली का वृक्ष (जंबूटी प ३४) । तडफड-व्याकुलता, छटपटाहट (निचू २ पृ ७५) । तडफडिअ-चारों ओर से प्रकम्पित, तडफड़ाया हुआ, आकुल-व्याकुल
(दे ५।६)-'तुह विरहे तीइ इत्थ तडफडिअं' (वृ)। तडमड-क्षोभ-प्राप्त, क्षुब्ध (दे ५१७)। तडवडा-वृक्ष-विशेष, आउली का पेड़ (राज २८; दे ५२५) । तडिअ-बद्ध-'गणेऊण गंठी तडिओ, तो न तीरइ सिव्वेउ'
(आवहाटी १ पृ २८१) । तडिग-जूता (ओटी प ३४) । तडिण-विरल, तुच्छ (से १३।५०) । तडिम-१ भींत । २ कुट्टिम, पाषाण से बंधा हुआ भूमितल (से २१२)।
३ द्वार के ऊपर का भाग (से १२१६०)। तडिय-बागवान्, मालाकार-तत्थ कुंभो पुप्फाण उठेइ, तत्थ भगवतो
पितिमित्तो तडिओ' (आवहाटी १ पृ १६७) । तड्डविअ-विस्तृत (पा ५२१) । तड्डविय–विस्तीर्ण-'आमुच सुपट्टिकेसम्मि तड्डविय-सिहंडि-कलाव-सच्छहं
केसभारं' (कु पृ २५) । तण-कमल (दे ५१)। तणतण-गर्जन (आवमटी प १६९) । तणय-संबंधी (प्रा ४।३६१) । तणयमुद्दिआ-अंगूठी (दे ५६)। तणरासि-फैलाया हुआ (दे ५।६) । तणरासिअ-प्रसृत, फैलाया हुआ (दे ५।६ व)। तणवरंडी-छोटी नौका (दे ॥७) । तणसोल्लि-पुष्प-प्रधान वृक्ष, मल्लिका (दे ५।६)। तणसोल्लिया-मल्लिका, पुष्प-प्रधान वृक्ष-विशेष (ज्ञा १११६।२५६) । तणेसी-तृण-राशि (दे ५॥३) । तण्ण-आर्द्र (से १।३१)। तण्णाय-गीला, आर्द्र (दे २२)। तत्तडिय-रंगा हुआ वस्त्र-तत्तडियाणं च तह य परिभोगो' (ग ८६)।
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देशी शब्दकोश
२२६
तत्ति - १९ चिन्ता - 'कुतत्तीहि विहम्मद' ( दचूला १।७) । २ प्रवृत्ति - भिक्खासज्झायमुक्तत्तीया, तप्तिः - व्यापार:' ( बृभा २४५९) । ३ आदेश । ४ तत्परता (दे ५।२० ) । ५ दोष - परतत्तितग्गओ जणो' ( कु पृ १२७) ।
तत्तिल्ल - १ तत्पर - ' तत्तिल्लशब्दः तत्परवाची देश्यः तत्तिल्लो तल्लिन्छो य तत्परे' (राजटी पृ १०५ ; दे ५।३) । २ दक्ष - तत्तिल्लो विहिराया जाणति दूरेवि जो जहि वसई । जं जस्स होइ सरिसं तं तस्स बिइज्जयं देइ ||' (आवहाटी १ पृ १४१ )
तत्तु डिल्ल - संभोग, मैथुन (दे ५/६ ) । तद्द्अिचय नृत्य ( देश८ ) । तद्दिस - प्रतिदिन (दे ५३८ ) | तद्दिअसिअ -- प्रतिदिन (दे ५३८ वृ) | तद्दिह -- प्रतिदिन (दे ५३८ वृ) । तद्दिवस - प्रतिदिन (बृभा १९०५) । तपुस - क्षुद्रकीट, त्रीन्द्रिय जन्तु - विशेष (अंवि पृ २६७) । तपुसेल्लालुक - एक प्रकार का फल (अंवि पृ ६४)। तप्पक - डोंगी ( अंवि पृ १६६ ) ।
तप्पण
-
। २ भाजन या उपकरण- विशेष (अंवि पृ १०६) ।
(दमच पृ २८) ।
- १ सक्तु, सत्तु ( प्र १०१६ ) ( अवि पृ १६१) । ३ तुष तप्पणा डुगालिया -- सक्तुप्रधान भोजन तप्पणादुयालिता – १ सक्तुमिश्रित भोजन | २ भोजन - विशेष - ' तप्पा - दुयालिता भोजन- विशेषः, सक्तुप्रधानं वा भोजनम्' ( अचू पृ२८ ) ।
-
तप्पोसणिया-आच्छादन विशेष (आचू पृ ३४७) । तम - शोक (दे ५। १) ।
तमण - चूल्हा (दे ५।२ ) ।
तमणि - १ भुजा, बाहु । २ भूर्ज, भोजपत्र, वृक्ष - विशेष की छाल (दे ५।२० )। तर - मलाई - 'सतरं दधि अन्वेषमाणस्तररहितं चागृह्णन्' (ओटी प ४८ ) । तरपअट्ट - शिल्पी - विशेष ( अंवि पृ १६० ) |
तरमल्लिहायण - युवा - ' तरो- वेगो बलं तथा मल्ल - धारणे ततश्च तरोमल्ली तरोधारको वेगधारको हायन:- संवत्सरो वर्तते येषां ते तरोमल्लिहायनाः - यौवनवन्त इत्यर्थः (भटी पृ८८१)
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२३०
देशी शब्दकोश
तरवच्च-शस्त्र-विशेष (अवि पृ ११५) । तरवट्ट-वृक्ष-विशेष, चकवाड, पगार (दे ५५)। तरस-मांस (दे ॥४)। तरिअव्व-उडुप, नौका (दे ५१७)। तरुणरहस-राग-रागिनियां-'जुण्णमएहिं विहूणं जं जूहं होइ सुठुवि महल्लं।
तं तरुणरहसपोइयमयगुम्मइयं सुहं हंतुं ॥' (ओनि १४०) । तल--१ गांव का मुखिया, ग्रामेश । २ शय्या (दे ५।१६) । तलऊडा-गुच्छ वनस्पति-विशेष (प्रज्ञा १।३।७३) । तलंगणी-खाद्यपदार्थ-विशेष (ओटी पृ ३६८)। तलकोड-गुल्म-विशेष (अंवि पृ ६३) । तलपत्तक-कान का आभूषण-विशेष (अंवि पृ ११६) । तलप्फल-शालि, व्रीहि (दे ५।७) । तलभ-हाथ का आभूषण-विशेष (अंवि पृ ६५)। तलयागत्ति—कूप, कुआं-'तलयागत्ति वच्चइ णिसि....' (दे ५८)। . तलवत्त-१ कान का आभूषण-विशेष । २ वरांग, उत्तमांग, शिर
(दे ५।२१)। तलवर-१ नगर-रक्षक, कोतवाल-'राइणा तुट्टेण चामीकरपट्टो रयणख इतो
सिरसि बद्धो यस्स सो तलवरो भण्णति' (अनुद्वाचू पृ ११) । २ राजा के सदृश सम्मान प्राप्त व्यक्ति-रायप्रतिमो चामरविरहितो
तलवरो भण्णति' (निचू २ पृ ४५०)। तलवरी-कोतवाल की पत्नी (अंवि पृ ६८) । तलसारिअ--१ छना हुआ, शुद्ध (दे ५।६) । २ भोला, मूर्ख-'अन्ये तु
तलसारिओ नालिक इति पठन्तस्तलसारि मुग्धमाचक्षते' (व)। तला- कृमि-विशेष (अंवि पृ ७०)। तलार-नगर-आरक्षक (दे ५॥३)। तलाहण-खाद्य-विशेष (निचू ४ पृ २५६] । तलाहतिया-खाद्य-विशेष-'तलाहतियातो आवणातो आणिति'
(दश्रुचू प ६६)। तलिका--१ पात्र-विशेष (दअचू पृ १५३) । तलिगे-थाली (कन्नड़)।
२ प्राणी-विशेष (अंवि पृ २२७)। तलिगा-एक तले वाला जूता (प्रसा ६७६) ।
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देशी शब्दकोश
२३१ तलिम-१ शय्यागृह, वासभवन-'परिणीया, तलिमे भत्तारस्स सब्भावो
कहितो' (दअचू पृ २३; दे ५।२०) । २ शय्या (ज्ञा १११६।५५; दे २२०)। ३ फरस-बन्द जमीन । ४ भूनने का भाजन । ५ घर
के ऊपर की भूमी (दे ५।२०)। तलिमा-वाद्य-विशेष (भटी पृ ८८३)। तलिय-आसन-विशेष (अंवि पृ ६५) । तलिया-१ पात्र-विशेष-'अट्ट सोवण्णियाओ तलियामओ' (भ ११।१५६) ।
२ जूता (बृभा २८८३)। तल्ल-१ छोटा तालाब । २ 'बरु' नाम का तृण । ३ शय्या (दे ॥१६)। तल्लकट्ट-(तलवत ?) -मस्तक, सिर (जीविप पृ ५४) । तल्लग-सुरा-विशेष (जंबूटी प ६६) । तल्लड-शय्या, बिछौना (दे ५।२) । तल्लिच्छ-तत्पर, तल्लीन (ज्ञा १२।११; दे ५॥३)। सवअ-व्यापृत, प्रवृत्त (दे ५२२) । तवणी-१ पकाने का पात्र, तवा (ओटी प ६६) । २ भक्षणयोग्य कण
(दे ॥१) । ३ धान्य को क्षेत्र से काटकर भक्षणयोग्य बनाने की
क्रिया। तवप्प-संन्यासी का एक उपकरण (आवचू १ पृ ४७१) । तव्वणिय-बौद्ध, बुद्धदर्शन का अनुयायी-'तव्वणियाण बिय विसयसुहकुसत्थ
भावणाधणियं (विसे १०४१) । तसिअ-शुष्क (दे ५।२)। तहरी-पंकवाली सुरा (दे ॥२)। तहल्लिआ-गोवाट, गायों का बाडा (दे ५।८)। ताइय-पारस या अरब देश के व्यापारी (कु पृ १५३) । ताज्जिक-पारस या अरब देश के व्यापारी (कु पृ १५३)। ताडक-भूमीगत बिल में रहने वाला प्राणी-विशेष (अंवि पृ २२७) । ताडिअय--रोदन (दे ५।१०)। तामर-सुन्दर, रम्य (दे ५।१०)। तामरस-जल में पैदा होने वाला फूल (प्रज्ञा ११४६ ; दे ५।१०)। तारत्तर-मुहूर्त (दे ५॥१०)। तालप्फली-दासी, चेटिका (दे ५११) ।
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२३२
देशी शब्दकोश तालफली-दासी (दे ॥११ )। तालहल-शालि, व्रीहि (दे ५७) । ताला-लाजा, खोई, धान का लावा (दे ५॥१०)। तालुक-तालाब का जल (वि पृ २६६) । तालूर-१ फेन । २ कपित्थ-वृक्ष (दे ५।२१) । ३ पानी का आवर्त (वृ) ।
४ पुष्प का सत्त्व । ताहे-तदा, तब (उशाटी प १४८) । तिउड-कलाप, मोर-पिच्छ (पा ६४६) । तिउडग-१ धान्य-विशेष, मोठ (दनि १५६) । २ लौंग, लवंग। तिउल-मन, वचन और काया को पीड़ा पहुंचाने वाला-उदयपत्ते उज्जल
बल-विउल-ति उल-कक्खड-पगाढ-दुक्खे' (प्र १०१६)। तिउल्लिका-वाद्य-विशेष (नंदीटि पृ ६६)। तिगिआ--कमलरज (दे ॥१२)। तिगिच्छिक-गले का आभूषण-विशेष (संवि पृ ६५)। तिगिछि-१ पराग-'प्राकृते पुष्परजःशब्दस्य तिगिछि' इति निपातः देशी
शब्दो वा' (जंबूटी प ३०७; दे ५॥१२) । २ पीला पुष्प
(अंवि पृ ७०)। तितिणि-बड़बड़ाने वाला (पंक १९७५)। तितिणिय-१ चिड़चिड़े स्वभाव वाला-तितिणिए एसणागोयरस्स
पलिमंथू' (स्था ६।१०२)। २ चंचल चित्त वाला
(बृटी पृ २३६)। तितिणिया--बड़बड़ाहट (बृभा ६३४०) । तिदुग-त्रीन्द्रिय जन्तु-विशेष (उ ३६।१३८)। तिदूसय-कन्दुक, गेंद-'कणगतिदूसरण कीलमाणी' (अंत ३१५८) । तिबुरुको--वृक्ष-विशेष (अंवि पृ ७०) । तिक्खालिअ-तीक्ष्ण किया हुआ (दे ५.१३)। तिडु-अन्ननाशक कीट-विशेष, टिड्डी (अनुटी पृ ४)। तिड्डय-टिड्डी (बृटी पृ ६७५) । तिणिस-मधुमक्खियों का छत्ता, मधु-पटल (दे ५।११) । तित्ति-१ आदेश । २ चिन्ता । ३ वार्ता (आचू पृ ३३१) । ४ सार,
तात्पर्य (दे ५।११) । ५ गवेषणा, खोज । ६ पालन (प्रटी प ६७) ।
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देशी शब्दकोश
तित्तिरिअ - स्नान से आर्द्र (दे ५।१२ ) ।
तित्तिल - १ परिसर्प जाति विशेष (अंवि पृ ६३ ) । २ उतना ।
तित्तुअ - गुरु, भारी (दे ५।१२) ।
तिधिणी – देवी विशेष (अंवि पृ ६९ ) ।
तिन्न - आर्द्र (ज्ञाटी प १२१) ।
तिपिसाचक गले का आभरण - विशेष (अंवि पृ १६२) । तिपुड - धान्य- विशेष ( निभा १०३० ) ।
तिमिगिल - १ मत्स्य की एक जाति ( प्रज्ञा १।५६ ) । २ मीन, मछली
(दे ५। १३) ।
तिमिगर - जलचर - विशेष ( निभा ३९६१ ) ।
तिमिच्छअ -- पथिक (दे ५११३) । तिमिच्छाह - पथिक (दे ५॥१३) । तिमिण - गीला काठ (दे ५।११) । तिमिरक - गुल्म- विशेष (अंवि पृ ६३ ) ।
तिमिरिच्छ - करंज का पेड़ (दे ५। १३) ।
तिरिड - तिमिर वृक्ष (दे ५।११ ) |
तिरिडिअ - १ तिमिर-युक्त । २ विचित, संगृहीत ( दे ५।२१) ।
तिरिड्डि- उष्ण वात, गरम पवन ( दे ५१२ ) ।
तिरियाणी – एक तट से दूसरे तट पर ऋजुगामिनी नावा (निच १ पृ ६९ )
तिरोवइ - बाड़ से व्यवहित ( दे ५।१३ ) ।
तिलंडा - तिलों के डंठल ( अनु ३३५२ ) ।
तिलितिलिय - जलजन्तु- विशेष (दश्रु ८३१) |
——
तिल्लहडका - गिलहरी (नंदीटि पृ १३३) ।
तिविडा - सूचिका, सूई ( दे ५।१२ वृ ) ।
२३३
तिविडी - छोटा पुडवा (दे ५ । १२ ) ।
तिव्व - १ दीवार का छिद्र - " तिव्वेण व मालेण व वाउपवेसेण अहव सढयाए " ( ओभा ५८ ) । २ दुःसह ( सू १|१|४५; दे ५ । ११) । ३ अत्यंत, प्रचुर ( सू १|१|४५; दे ५।११ वृ ) 1
तिसरा - जाल- विशेष ( विपा १।८।१९ ) ।
तिसरिय - एक प्रकार का वाद्य - अण्णा उण तिसरियं छिवइ' ( कु पृ २६)
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२३४
'तिसिग - आसन - विशेष (आचू पृ ३५२ ) । तीति णि- फल- विशेष ( अंवि पृ २३८ ) । तीसालिका - पुष्प - विशेष (अंवि पृ ७० ) ।
· तुंगी - रात्री (दे ५।१४) ।
तुंडिय - थिग्गल, पैबंद - 'तुंडियं थिग्गलं देसी भासाए सामयिगी वा एस पडिभासा' (निचू २ पृ ४१) ।
तुंडीर - मधुर बिम्बी-प.ल (दे ५।१४ ) । तुंडूअ - जीर्णघट (दे ५।१५) । तुंडेर-खाद्य-विशेष, बड़ा (आवचू २ पृ १६८ ) । तंतुक्खुडिअ - त्वरायुक्त, उतावला (दे ५११६) ।
तुंबिल्ली - १ मधुमक्खियों का छाता । २ उदूखल, ऊखल (दे ५।२३) ।
तुंबुरु - टिंबरू का वृक्ष ( औपटी पृ ६८ ; दे ४।३)।
देशी शब्दकोश
तुच्छ —अवशुष्क, अत्यंत सूखा हुआ (दे ५।१४) । तुच्छइय—अनुरक्त, उत्कंठित (दे ५।१५) । : तुच्छय-अनुरक्त, उत्कंठित (दे ५।१५) ।
:
तुडिंग - हाथ का आभरण ( ज्ञा १।१।१२८ ) ।
तुडित - वाद्य - विशेष (दश्रुचू प ε१ ) 1
तुडिय - १ संख्या - विशेष, चौरासी लाख त्रुटितांग (भ ५१८ ) | २ अन्त:पुर (भ १०1६७ ) । ३ वाद्य - विशेष (भ १०/६९ ) । ४ थिग्गल, पैबंद - पायस्स एक्कं तुडियं तड्डे ' ( नि १।४१ ) ।
५ हाथ का आभरण - 'तुडियं बाहुरक्खिया' (निचू २ पृ ३६८ ) 1
· तुडियंग - १ संख्या - विशेष, ८४ लाख पूर्व - पूर्वाणि चतुरशीतिलक्षगुणितानि त्रुटिताङ्गानि भवन्ति' (स्था २३८६ टी प ८२ ) । २ कल्पवृक्ष का एक प्रकार ( प्रसाठी प ३१४) ।
तुणतुण नाम का वाद्य ( नि १७|१३७ ) ।
-तुणय- १ तूण नाम का वाद्य ( आचूला ११।२) । २ झुंख नाम का वाद्य (दे ५।१६) ।
तुहि - सुकर, सूअर (दे ५। १४) ।
तुहिक्क - १ निश्चल (नंदीटि पृ १३४) । २ मृदु- निश्चल (दे ५।१५) । ३ मृदु - ' तुहिक्को मृदुनिश्चलयोः' ।
तुन्न - त्रुटित, फटा हुआ ( नंदीटि पृ १३९ ) ।
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देशी शब्दकोश
२३५
तुन्नक-वाद्य-विशेष (आवचू १ पृ ३०६)। तुप्प-१ घृत, घी (प्रसा २३३; दे ५॥२२) । तुप्पा (कन्नड़)। २ कलेवर
की चर्बी-'तुप्पो पुण मययकलेवरवसा भण्णति' (निचू १ पृ ७४) । ३ कलेवर की चरबी या घी आदि से चुपड़ा हुआ (बृभा २६२२; दे श२२) । ४ सरसों का धान्य (प्रसाटी प २३३; दे ५३२२)। ५ विवाह । ६ कौतुक, उत्सुकता । ७ घी आदि भरने का चर्मपात्र
(दे ॥२२) । ८ वेष्टित (अनुद्वा २६)। तुप्पग्ग-चिकना, घृष्ट-'तुप्पगतिक्खसिंग' (दश्रु ८।२२) । तुप्पित- म्रक्षित, चुपड़ा हुआ (अनुद्वाचू पृ १३) । तुप्पिय-स्निग्ध, चुपड़ा हुआ-'नेहतुप्पियगत्तं' (विपा ११२।१४) । तुमंतुम-तू-तू मैं-मैं, वाचिक-कलह (भ २५१५६८) । तुरंत-शीघ्र (आवचू १ पृ ३०१)। तुरक्क-१ देश-विशेष, तुर्किस्तान । २ अनार्य जाति-विशेष, तुरक । तुरयमुह-त्वरावाला, जल्दबाज (से ४।३०)। तुरी-१ पुष्ट, मोटा। २ चित्रकार का उपकरण, तूलिका (दे ५।२२)। तुरुक्की-तुर्किस्तान की लिपि-विशेष (विभा ४६४ टी)। तुलग्ग-काकतालीय न्याय, अकस्मात् (दे ५।१५) । तलसी-१ भूतों का चैत्य वृक्ष-'कलंबो उ पिसायाणं, वडो जक्खाण चेइयं ।
तुलसी भूयाण भवे, रक्खाणं च कंडओ।" (स्था ८।११७) ।
२ सुरसलता, तुलसी (भ २११२१; दे ५।१४) । तवर-रस-विशेष, करेला रस (दे ५॥१७ व)। तुसेमजंभ-लकड़ी (दे ५।१६) । तुअ-ईख का काम करने वाला (दे ५।१६) । तूका-मकड़ी (अंवि पृ ७०) । तूण-रोग-विशेष (अंवि पृ २०३) । तुणइल्ल-तूण वाद्य को बजाने वाला (जीव ३।६१६) । तूपरड-१ क्लीब । २ कूबडा (दअचू पृ १६८) । तमणय (णूमणय ?)-छिपाना, स्थगन-'देशीपदमेतद् स्थगनमित्यर्थी'
(व्यभा ३ टी प ४१)। तूलिणिआ--शाल्मली-वृक्ष (दे ॥१७) । तूलिणी-शाल्मली-वृक्ष (दे ५॥१७ वृ) ।
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देशी शब्दकोश
तूविर-कषैला रस (सूचू १ पृ १६) । तूह-पशुओं के जलपान करने का स्थान, घाट (बृभा ४८६०) । तूहण-पुरुष (दे ५।१७) । तेआली-तृण-विशेष (प्रज्ञा ११४३३१) । तेंडुअ-तुंबुरु-वृक्ष (दे ५।१७) । तेंदूसय-१ क्रीडा-विशेष । इस खेल में विजेता बालक पराजित बालकों की
पीठ पर बैठ कर निर्दिष्ट स्थान तक चंक्रमण करता है-'सामी तंदूसएण अभिरमति....तत्थ सामिणा स जितो, तस्स य उरि विलग्गो सामी (आवहाटी १ पृ १२१)। २ कन्दुक, गंद
(ज्ञाटी प २४४)। तेंबरुय-तेंदु का फल (भ १५॥१२५) । तेंबुरु-क्षुद्र कीट, त्रीन्द्रिय जन्तु की एक जाति (जीवटी प ३२) । तेजणचाबुक (दजिचू पृ ३१५)। तेड्ड-१ शलभ । २ पिशाच (दे ५।२३)। तेदुरणमज्जिया-त्रीन्द्रिय जन्तु-विशेष (प्रज्ञा १३५०)। तेयलि-वलयाकार वृक्ष (प्रज्ञा २४३)। तेयाली—वलयाकार वृक्ष (प्रज्ञा ११४३ पा)। तेयालीस-तेतालीस (सम ४३।१)। तेरणि-वृक्ष-विशेष (अंवि पृ ७०)। तेरिम-तेली (निचू २ पृ २४३) । तेलाल-धान्य-विशेष (अंवि पृ २५७) । तेल्लकेला-मिट्टी से बना बिना पेंदे वाला तेल-पात्र-'तेल्लकेला इव
सुसंगोविया' (ज्ञा १।१।१७)-'सौराष्ट्रप्रसिद्धो मृन्मयस्तैलस्य
भाजनविशेषः' (ज्ञाटी प १५)। तेल्लग-शराब-विशेष (जीव ३।५८६) । तेवण्ण-तिरेपन (सम ५३।१)। तेवरुक-त्रीन्द्रिय जंतु-विशेष (अंवि पृ २६७) । तेह-परत (दजिचू पृ १५५) । तोअय-चातक पक्षी (दे ॥१८) । तोतडी-करम्ब, दही-चावल का बन। खाद्य पदार्थ (दे ५।४) । तोक्कअ-बिना ही कारण कार्य में तत्पर होने वाला (दे ५॥१८) ।
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देशी शब्दकोश
तो- चतुरिन्द्रिय जंतु - विशेष ( प्रज्ञा १।५१) ।
तोडण - १ असहिष्णु (दे ५।१८ ) । २ फल- विशेष (अंवि पृ २३८ ) । तोडहिया - वाद्य - विशेष ( कु पृ ८२ ) ।
तोडुका - चतुष्पद परिसर्प की एक जाति (अंवि पृ २२६) । तोड-क्षुद्र कीट, चतुरिन्द्रिय जीव - विशेष (अंवि पृ २३७ ) ।
तोडक - १ वृक्ष पर रहने वाला प्राणी - विशेष (अंवि पृ २२६) । २ टिड्डी | ३ भ्रमर (वि पृ २२७ ) ।
तोणी- शरीर - आहारे ताव च्छिंदाहि गेहिं तोणि चस्ससि' (व्यभा १० टी प ६९ ) ।
तोडि - करंब, दही चावल से बना हुआ खाद्य ( पा ४४० ) । तोप्पड्डय - अनिष्पन्न (निचू २ पृ ४८ ) ।
तोप्पारुमणा - उत्सव - विशेष (?) ( अंवि पृ ६८ ) ।
तोमरिअ - शस्त्र - प्रमार्जक, शस्त्रास्त्रों पर धार चढाने वाला (दे ५।१८) |
तोमरगुंडि - लता - विशेष ( पा ३४५) ।
तोमरी - वल्ली, लता (दे ५।१७) ।
तोरण -- फल की एक जाति (अंवि पृ ६४ ) । तोरविय - उत्तेजित (पा ५३५) ।
तोलण - पुरुष ( दे ५।१७) ।
तोला - वाद्य- विशेष (आवचू १ पृ ३०९ ) ।
तोवट्ट - १ 'त्रपुपट्टिक' नाम का आभूषण । २ कमल - कणिका (दे ५१२३) । तोस- - धन, ऐश्वर्य (दे ५।१७ ) ।
२३७
थइया - १ नोली, कमर में बांधने की रुपयों की थैली - 'संबलथइयासणाहो' ( उसुटी प ६२ ) । २ थैला (अंवि पृ २२१) ।
थउड्डु -- भल्लातक वृक्ष, भिलावा (दे ५।२६) ।
चंडिक्क - कांस्य पात्र ( आचू पृ ३४५)।
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देशी शब्दकोश
थंडिल्ल-१ क्रोध (सू १।९।११)। २ वह स्थान जहां शव को जलाया गया
हो और जहां राख आदि न हो-'छारचिता-विरहितं तु थंडिल्लं (निभा १५३५) । ३ मंडल, वृत्त प्रदेश (दे ५।२५) । ४ शुद्ध
भूमि (बृचू प २०७)। थंब-१ विषम (दे ५॥२४) । २ पतवार (पा ८८२)। थंभ-बिंदु (पा २१४)। थंभायण-गोत्र-विशेष (अंवि पृ १५०)। थकित-थका हुआ, श्रांत (वि पृ २४५) । थक्क-१ श्रान्त, थका हुआ-पच्चूसे पुणो पत्थिया, मज्झण्हे तहेव थक्का'
(उसुटी प ६३) । २ अवसर (आवचू १ पृ ५३१; दे ॥२४) ।
३ ध्वनि-विशेष (जीवटी प २४८) । थगथगित-थर-थर कांपता हुआ (उसुटी प ६५) । थग्गया-चोंच (दे ५।२६) । थग्घ-थाह, अगाध, ऊंडा (दअचू पृ १७४; दे ५।२४) । थग्घा-अगाध, अंडा (पा ८४४) । थट्टि-पशु (दे २४)। थडिक्कग-कांस्य-पात्र (आचू पृ ३४५) । थत्तिअ-विश्राम (दे ५।२६) । थमिअ-विस्मृत (दे ॥२५) । थर-दही के ऊपर की मलाई, थिरकी (दे श२४) । थररित-कांपता हुआ-'सत्तू इव उवढिओ थरथरितो' (निभा ५६१)। थरहरिअ-प्रकंपित-'थरहरिउमारद्धा गिरिणो' (उसुटी प २७८;
दे ५।२७)। थरु-तलवार की मुंठ (दे ५२४) । थलअ-मण्डप (दे ५।२५) । थली–१ देवद्रोणी, गांव का ऐसा स्थान जहां देवी-देवता का मंदिर बना हो
और जहां भेंट-पूजा चढ़ाई जाती हो (निचू ३ पृ ५२१) । २ वैसा स्थान जहां विभिन्न प्रकार के भिक्षुक भोजन लेने आते हों
(व्यभा ७ टी प ४२) । ३ सत्रशाला (बभा १७७५) । थव-पशु (दे ५।२४) । थवहल्ल-जांघ फैलाकर बैठा हुआ (दे श२६) ।
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देशी शब्दकोश
थविआ —- प्रसेविका -१ वीणा के अंतिम भाग में लगाया जाने वाला छोटा काष्ठ । २ थैला (दे ५१२५ ) |
थवी - प्रसेविका - १ वीणा के अंतिम भाग में लगाया जाने वाला छोटा काष्ठ (दे ५।२५ वृ) । २ थेला ।
थस - विस्तीर्ण (दे ५।२५ ) |
थसल - विस्तीर्ण (दे ५।२५) ।
यह — आश्रय, स्थान (दे ५।२५ ) ।
थाइणी
- प्रतिवर्ष प्रसव करने वाली घोड़ी ( बृभा ३९५६ ) ।
थाणइल्लग - पहरेदार, प्रातिहारिक-थाइललगा वि न वारिति पत्रइओ ति ( आवहाटी २ पृ १३४) ।
थाणय - १ पुलिस चौकी, थाना । २ पहरेदार, चौकीदार ( कु पृ १३५ ) । थाणिज्ज - गौरवान्वित, सम्मानित (दे ४/५ वृ) |
थाम – १ स्थान ( उसुटी प ६२ ) । २ विस्तीर्ण (दे ५।२५ ) |
थार -- मेघ (दे ५।२७) - 'थारत्यणिअं सोउं' (वृ) 1
थारु गिणिया- देश - विशेष की दासी (ज्ञा १।११८२ ) । थालग – १ पिंड, समूह ( आचूला १।१३३ ) | २ ( फली का ) पाक (आटी प ३५४) ।
थाली - १ पिंड, समूह - 'थाली सव्वातो चेव, पिंडो समूहो य'
(आचू पृ ३४४) । २ ( फली का ) पाक (आटी प ३५४ ) । थासग - १ दर्पण के आकार का पात्र ( विपा १।२।१४ ) । २ कुदाल ( आवटि प ५६ ) 1
थाह – १ स्थान । २ ऊंडा गम्भीर जल वाला । ३ विस्तीर्ण । ४ दीर्घ (दे ५।३० ) ।
थिक्क-स्पृष्ट- 'वड्डइ हायइ छाया तत्थिक्कं पूइयंपि व न कप्पे' ( पिनि १७४) ।
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२३६
थिक्किल्ल - सुन्दर ( आवचू १ पृ २५७ ) ।
थिग्गल - १ घर का वह द्वार जो किसी कारण वश फिर से चिना हुआ हो (द ५।१।१५) । २ मैल - थिग्गलं जल्लो भणति'
( निचू २ पृ २२१) । ३ छिद्र - थिग्गल त्ति गिम्हे वातागमणट्ठा गवक्खादि छिड्डे करेंति' (निचू २ पृ३३८ ) । ४ खंडित वस्तु को ठीक करने के लिए लगाई जाने वाली जोड़ - 'अन्नेण चंदणेण य भेरीए यिग्गलं दिन्नं' (नंदीटि पृ १०९ ) ।
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२४०
थिग्गलय - - पैबंद - 'पडियाणिया थिग्गलय छंदतो च एगट्ठा' ( निचू ३ पृ ५६ ) ।
थिग्गलिआ - पैबंद ( आवहाटी १ पृ ६५ ) ।
थिचचण - उपमर्दन, उत्पीड़न - 'हरियच्छेअण छप्पईअ थिच्चणं' (बृभा १५३७) ।
थिण्ण - १ निःस्नेह दयालु । २ अभिमानी (दे ५।३० ) । थिन्न -- गर्वित ( पा १२९ ) ।
थिभग - कंद - विशेष (भ २३ । २ ) ।
थिमिअ- स्थिर, निश्चल - 'जहा मंधादए णाम थिमियं पियति दगं ' ( सू १|३|७१; दे ५।२७) । २ मंथर, मंद (पा १५ ) ।
देशी शब्दकोश
थिरणाम - चलचित्त, चंचल, अधीर (दे ५।२७) । थिरसीस-१ निर्भीक । २ निर्भर । ३ जिसने सिर पर कवच बांधा हो वह (दे ५।३१) ।
थिल्लि -दो खच्चरों की बग्घी (दश्रु ६।३ ) |
थिल्ली - १ वाहन विशेष (अनुद्वाचू पृ ५३ ) । २ दो घोड़ों या खच्चरों से वाह्य यान | ३ लाट देश में प्रसिद्ध यान - विशेष - 'अड्डपल्लाण' ( औपटी पृ ११२) ।
विवित - थिव-थिव आवाज करता हुआ (विपा १७७ ) |
थीद्धि - घोर निद्रालु जिसकी चेतना जड़ीभूत हो जाती है - ' इद्धं चित्तं तं थीणं जस्स अच्चंत दरिसणावरण-कम्मोदया सो थीणद्धी भण्णति' ( निचू १ पृ ५५ ) ।
थी — कन्द - विशेष - लोहिणीहू य थीहू य' ( उ ३६।६८) । थीहू -- कंद - विशेष (भ ७/६६) ।
युक्किअ - १ जुगुप्सित, तिरस्कृत - धिक्कारथुकियाणं तित्थुच्छेदो दुलभवित्ती' ( बुभा ५ε३७) । २ उन्नत (दे ५२८ ) ।
थुड – स्कंध, तना ( स्थाटी प १७६) ।
थुडं कियय - रोष युक्त वचन ( पा ६५१) ।
थुडुंकिअ - १ मौन । २ अल्पकुपित मुंह का संकोच (दे ५।३१) | थुड्डु लिय - स्वल्प (आवचू २ पृ २८८ ) । थुडहीर-चामर (दे ५।२८) ।
थुण्ण - दृप्त, अभिमानी (दे ५१२७) ।
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देशी शब्दकोश
२४१
थुरग-तृण-विशेष (भ २०१६)। थुरय-तृण-विशेष (प्रज्ञा १४२।२) । थुरुणुल्लणय-शय्या (दे ५।२८)। थुलम-पटकुटी, तंबू (दे ५।२८)। थुल्ल-परिवर्तित (दे ५।२७) । थण-घोड़ा (दे ५।२६)। थणा-शरीर का एक अवयव (अंवि पृ ६६)। थणिका-धान्य-विशेष (अंवि पृ २२०)। थर-१ बिना किनारी वाला । २ अगहित (निचू २ पृ ९७) । ३ थोड़ा - (निभा १६१४)। थरक-शरीर का अवयव-विशेष (अंवि पृ६६)। थूरी तन्तुवाय का एक उपकरण (दे ५।२८) । थलघोण-सूकर, वराह (दे ५।२६)। यह-१ प्रासाद का शिखर । २ चातक पक्षी । ३ वल्मीक (दे ५।३२)। थेक्कार----ध्वनि-विशेष (आवमटी प १८८) । थेग-कंद-विशेष (प्रसा २३८)। थेच्चण-उपमर्दन (बृटी पृ ४५३)। थेणिल्लिअ-१ छीना हुआ। २ डरा हुआ (दे ५।३२)। थेर-विधाता, ब्रह्मा (दे ५।२६) । थेरासण-कमल (दे ५।२६)। थेव—बिन्दु (दे ५।२६) । थेवरिअ-जन्म के समय बजने वाला वाद्य (दे ५।२९) । थेग्विद्ध-स्तब्ध (अंवि पृ १४८) थोअ-१ धोबी । २ मूला, कंद-विशेष (दे ॥३२)। थोर--१ स्थूल (ज्ञा १।१।१५६) । २ क्रमशः लम्बा और गोल-गोवच्छगं
थोरगत्तं सेयं पिच्छइ' (उसुटी प १३५; दे ॥३०) । ३ गांव में घूमघूम कर किया जाने वाला व्यापार-'लग्गा थोरेसु कह वि दुक्खत्ता' (कु पृ १६१)। ४ गोणी-'मणथोरं भरिऊणं आगमभंडस्स गुरुसया
साओ' (कु पृ १९३) ।। थोरहणिया-देश-विशेष की दासी (ज्ञाटी प ४६) । थोल-वस्त्र का एक देश (दे ५।३०)।
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२४२
थोह - बल (दे ५।३०) । थोहर - थूहर का पेड़ ( विपाटी प ८० ) । थोहरी - थूहर का वृक्ष ( प्रसा २३७ ) |
इअ -- रक्षित ( दे ५।३५) ।
दंडसंपुच्छणी - बुहारने का साधन - विशेष ( राज १२ ) । दंडि - सांधा हुआ जीर्ण वस्त्र ( निभा ७८२) ।
दंडिणी - राज - पत्नी (पिनि ५०० ) ।
दंडिया- - पत्र पर लगाई जाने वाली राजमुद्रा ( बृभा १६५ ) ।
देशी शब्दकोश
दंडी - १ सांधा हुआ जीर्ण वस्त्र - 'दंडीखंड निवसणा', कृतसंधानं जीर्णवस्त्रम्' ( ज्ञा १।१६।२६ टीप २०७ ) । २ स्वर्ण - सूत्र ( दे ५।३३ ) । ३ सांधा हुआ वस्त्रयुगल (वृ ) ।
दंत - पर्वत का एक भाग (दे ५।३३) ।
दंतवण - दन्तकाष्ठ, दतौन - 'दन्तमलापकर्षणकाष्ठम्' (उपाटी पृ १६ ) । दंताल - दांती, घास काटने का उपकरण विशेष ( निघू १ पृ ३१) । दंताली ( राजस्थानी ) ।
खरगोश (दे ५।३४) ।
दंतिअ -- शशक, दंतिअय - खरगोश (दे ५।३४ वृ) ।
दंतिक्क – १ तन्दुल, चावल । २ चावल का आटा ( बुभा ३०६४) । ३ दांतों से चबाकर खाये जाने वाले पदार्थ ( निचू ४ पृ १११) । दंतिक्कय - मांस से मिश्रित खाद्य पदार्थ ( पंव ME ) । दंभन- - सूची की भांति तीक्ष्ण शस्त्र - विशेष ( विपा १।६।२६ पा) । दंसणीय - उपहार भेंट - "गहियं दंसणीयं । दिट्ठो राया' (कु पृ ६७) । दक्खज्ज - गीध पक्षी ( दे ५१३४ ) ।
दगंगुलिगा - छाल - 'द गंगुलिगा पुण वक्को भण्णति' ( निचू १ पृ ७१ ) । दगमा लग – स्फटिकमय प्रासाद (जंबूटी प ४४) ।
दगर - रोग - विशेष ( जीवटी प १५३) ।
वगवीणिया - जलप्रवाह, पानी की नाली ( नि १ । १२ ) ।
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देशी शब्दकोश
२४३ वच्छ-तीक्ष्ण, तीखा (दे ५।३३)। बडबड--१ धाटी, कपट से आक्रमण करना, छापा मारना (दे ५।३५) ।
२ शीघ्र । दढक-गोत्र-विशेष (अंवि पृ १५०) । वढगालि–१ धोया हुआ वस्त्र-'दढगालिधौतपोतिः' (जीविप पृ ५१) ।
२ ब्राह्मणों का धोया हुआ किनारी वाला वस्त्र-विशेष
(प्रसा ६७६)। दढमढ-१ मूर्ख । २ एकग्राही, एक ही वात को पकड़कर चलने वाला
(दे ११४ वृ)। वत्थर-कर-शाटक, रूमाल (दे ५१३४) । वहर-१ दद्दर नामक पर्वत-'दद्द रमलयगिरिसिहर' (ज्ञा ११६२५८)।
२ सघन, प्रचुर-गोसीससरसरत्तचंदणददरदिण्णपंचंगुलितला' (समप्र १४४) । ३ चपेटा का आघात-'दर्दरेण-चपेटाभिघातेन। ४ सोपानवीथी-'दर्दरेषु-सोपानवीथीषु' (टी प १२८)। ५ प्रहार'पाददद्दरं करेंति' (आवचू १ पृ १४८)। ६ वचन का आटोप (प्रटी प ४६) । ७ वाद्य-विशेष (जंबू २) । ८ पात्र के मुंह पर बांधा जाने वाला कपड़ा, ढक्कन (आवचू २ पृ १०१)। ६ वस्त्र से
अवनद्ध मुंह वाला पात्र (भटी पृ ८७७)। वहरग--१ प्रहार-'पायदद्दरगं करेइ' (भ ३।११२) । २ गोह के चर्म से
मढा हुआ वाध-'यस्य चतुभिश्चरणैरवस्थानं भुवि स गोधाचर्माव
नद्धो वाद्यविशेषः' (जंबूटी प १०१) । वहरय-१ आच्छादन-भायणे छुहित्ता पोत्तेण दह रओ कीरइ'
(आवहाटी २ पृ ६०)। २ आघात, प्रहार-'अप्पेगतिया पाददद्दरयं
करेंति' (राज २८१)। बद्दरिका-वाद्य-विशेष (अनुद्वाचू पृ ४५) । बद्दरिगा-वाद्य-विशेष-'ताडिज्जंताणं दद्दरगाणं दद्दरिगाणं' (राज ७७)। वहरिया-१ वाद्य-विशेष-'गोधा चम्मावणद्धा गोहिता सा य दद्दरिया'
(अनुद्वाहाटी पृ ६६) । २ प्रहार, आघात (ज्ञा १।१६।२६१) । वधिफोल्लइ-वनस्पति-विशेष (भ २२१६) । दप्पसायण-एक प्रकार का बंधन-'दिण्णं से दप्पसायणं णाम बंध'
(कु पृ १३६)। घन्भमील-म्लेच्छ-विशेष-'ते य मिलक्खू दब्भमीलादि' (निचू ३ पृ ३५०)।
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२४४
मग – दरिद्र - तए णं से सागरदत्ते एवं महं दमग-पुरिसं पासई'
दमय
( ज्ञा १।१६।७२ ) । २ मंदबुद्धि - 'दमग मंदबुद्धि त्ति' (जीभा ८६५ ) ।
-
१ कर्मकर ( बृभा १८२२ ) । २ दरिद्र, निर्धन (द ७ १४; दे ५।३४) ।
दय -- १ जल (दे ५।३३) । २ शोक - 'दयं शोक इत्यन्ये' (वृ) । दयच्छर - ग्रामस्वामी, गांव का प्रधान ( दे ५।३६) ।
दयरी - सुरा, मद्य (दे ५। ३४) ।
याइअ - रक्षित (दे ५।३५) । दयावण - निर्धन ( दे ५१३५) ।
देशी शब्दकोश
यावणय-निर्धन (दे ५॥३५ वृ ) ।
दर - १ ईषत्, अल्प ( बृभा ६६ ) । २ आधा ( ओभा २५४; दे ५।३३) । दरंदर - उल्लास (दे ५। ३७) ।
दरमत्ता - बलात्कार (दे ५।३७) |
दरवल्ल - गांव का मुखिया (दे ५।३६) ।
दरवल्लणिहेलण —— शून्यगृह (दे ५। ३७ ) |
दरवल्लह-- १ प्रिय व्यक्ति (दे ५/३७) १२ कातर, भीत । रविंदर - १ दीर्घ । २ विरल (दे ५।५२ ) ।
दराल - पुष्प - विशेष (भ २१।२१ ) ।
दरि गर्न, विवर- दर ति श्रृगालादिकृतभू विवर विशेषम्' (भटी पृ १२५५) ।
दरिय— निम्न भूप्रदेश (भटी पृ ८०० ) ।
रिसाव - दर्शन, साक्षात्कार ( निचू १ पृ ९ ) ।
दरी -- बिलों वाला प्रदेश - मूषिकादिकृता लध्वी खड्डा दरी' ( जीवटी प २८२ ) ।
रुम्मिल्ल - सघन, निबिड़ (दे ५३७ ) ।
दलिअ - १ अंगुली । २ टेढी नजर वाला । ३ काष्ठ. लकड़ी (दे ५।५२) ।
दलुक - गीध पक्षी (अंवि पृ २३९ ) । वल्लभी दंडनायक की पत्नी (अंवि पृ ६८ ) । दव - गद्गद्, अस्पष्ट ध्वनि (दे ५॥३३ ) | दवर - १ तन्तु, धागा (दे ५। ३५ ) । २ रज्जु । दरक - रस्सी (आवहाटी २ पृ ८७ ) ।
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देशी शब्दकोश
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दवरय--रस्सी (सू २।२।१२) । दवरिका-पलाश आदि की छाल के तंतुओं को बंटकर बनाई जाने वाली
__डोरी (नंदीटि पृ १२७) । दवहुत्त-ग्रीष्मकाल का प्रारम्भ (दे ५॥३६) । दविउलंक-भाजन-विशेष (अंवि पृ १९३) । दव्वहलिया-कुहन वनस्पति का एक प्रकार (प्रज्ञा १२४७) । दव्वी-हरित वनस्पति-विशेष (प्रज्ञा ११४४) । दसतीण-धान्य-विशेष (प्रज्ञाटी प ३४) । दसियाल-पतला धागा-'उण्णामय दसियालं एयं पुण पिंछयं कत्तो'
(कु पृ१४१)। दसीरिका-खाद्य-विशेष (अंवि पृ १८२) । दसु-शोक (दे ५।३४)। दसेर-स्वर्ण-सूत्र (दे ५॥३३) । दहफुल्लह-वल्ली-विशेष (प्रज्ञा ११४०।५) । दहबोल्ली-स्थाली, पकाने का पात्र (दे ॥३६) । दहर- छोटा (संवि पृ ११६)। दहिउप्फ-मक्खन-'दहिउप्फकोमलंगी' (दे ५२३५) । दहिद-कपित्थ का वृक्ष (दे ॥३५) । दहित्थर-दधिसर, दही की मलाई (दे ५॥३६ ५) । दहित्थार--दधिसर, दही की मलाई-सदहित्थारयदहिणा णवदहवोल्ली
विरइयकरंब' (दे ॥३६) । दहिमुह-बन्दर-'दहिमुहशब्दोऽपि देश्यः कपिवाची कैश्चिदुक्तः'
(दे ५१४४ वृ)। दहिवासइ--वनस्पति-विशेष (जीवटी प ३५१) । दाअ-प्रतिभू, ऋण लेने वाले और ऋण देने वाले के बीच जमानत देने
वाला (दे ॥३८)। दाइत-दर्शित (आव २ पृ ३५) । दाइय-दर्शित (आचूला १।१३१) । दाढिया-दाढी-'दाढियाए लोमाई हुँचमाणे' (भ १५॥१२०) । दाढीय-दाढी (आवचू २ पृ ३०४)। दाण-शुल्क, चुंगी-'करेह से हिस्स अद्धदाणं' (उसुटी प ६५) ।
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२४६ -
देशी शब्दकोश
दाणामा-प्रव्रज्या का एक प्रकार। इसमें भिक्षु चार पुट वाला लकड़ी का
पात्र लेकर भिक्षा के लिए जाता है। पहले पुट की भिक्षा पथिकों के लिए, दूसरे की कोए-कुत्तों के लिए, तीसरे की मच्छ-कच्छों के लिए और चौथे पुट की भिक्षा स्वयं के लिए होती है
(भ ३३१०२)। दादलि-अंगुली (दे ५।३८) । दामक-रुपया, मूल्य (व्यभा ४१३ टी प १०)। दामणि-स्त्री-पुरुष के शरीरगत बत्तीस शुभ लक्षणों में से एक-'दामणि त्ति
___ रूढिगम्यम्' (प्रटी प ८४) । दामणी-१ प्रसव । २ आंख, नयन (दे ५।५२) । दायणा-दिखाना (बृभा ६२६४) । दार--कटिसूत्र, कांची (दे ॥३८)। दारद्धंता-पेटी (दे ॥३८)। दारिआ–वेश्या (दे ५।३८)। दाल-दाल (प्रटी प १४१) । वालि-१ रेखा (ओनि ३२४) । २ दाल, दला हुआ चना आदि अन्न । दालिअ-नेत्र, नयन (दे ५।३८) । दालिमपूसिक-पात्र-विशेष (अंवि पृ ६५) । दावर-द्वितीय, दूसरा-'द्वापरः इति समयपरिभाषया द्वितीयः'
(बृटी पृ ३३६)। दासय-फल-विशेष (अंवि पृ २३८) । दासिनीले फूल वाली गुच्छ वनस्पति (प्रज्ञा ११३६।५) । दाहा-प्रहरण-विशेष (ज्ञा १११८।३५) । दाव (बंगला)। दिअ---दिवस (दे ५।३६)। दिअंड-प्रावरण-विशेष (अंवि पृ १६१) । दिअज्झ-स्वर्णकार, सुनार (दे ५।३९) । दिअधुत्त-कौआ (दे ५।४१ वृ)। दिअधुत्तअ- काक, कौआ (दे ५।४१)। दिअलिअ-मूर्ख (दे ५।३६)। दिअली--स्थूणा, खंभा (पा ३६०)। दिअसिअ-१ नित्य-भोजन (दे ५॥४०) । २ प्रतिदिन (वृ)।
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२४७
देशी शब्दकोश दिअहुत्त-पूर्वाह्न का भोजन (दे ५४०)। दिआहम-भासपक्षी (दे ५।३६)। दिक्करअ-बच्चा (आवमटी प १३६) । दिक्करिका-दुहिता, पुत्री (आवहाटी १ पृ २६७) । दीकरी (गुजराती)। दिक्करुय-पतली डोरी (व्यभा २ टी प ४४)। दिगिछा---क्षुधा, बुभुक्षा-'दिगिछत्ति देशीवचनेन बुभुक्षोच्यते' (उशाटी प८२)। दिट्टिल्लिय-देखा हुआ (उसुटी प ६५)। दिण्णेल्लिय-दिया (आवहाटी १ पृ २८६)। दिप्पंत-अनर्थ (दे ॥३६)। दिय-दिवस (बृभा २७६७; दे ५।३९)। दियल-शाखा-'दियलम्मि ओलइया' (व्यभा १० टी प ८०)। दिल्ल-तिर्यञ्च जाति-विशेष (अंवि पृ २३८) । दिलिवेढय-ग्राह-विशेष. जलजन्तु की एक जाति (प्र ११५) । दिल्लिदिलिअ-शिशु, बालक (दे ५।४०)। दिल्लिदिलिआ-बालिका (पा ६६) । दिव्वासा–चामुण्डा देवी (दे ५॥३६)। वीणार-- सोने का सिक्का (आवचू १ पृ ४४६) । दोणारमालिआ–गले का आभूषण-विशेष-'दीनाराद्याकृतिमणिकमाला'
(जंबूटी प १०५)। दोणारमासक-स्वर्ण-सिक्का (अंवि पृ ६६) । दोणारी-सोने का सिक्का (वि पृ ७२) । दीपकाण-काणा, एक आंख वाला-'काणा दीपकाणा फरला इत्यर्थः
(प्रटी प २५)। दीवअ-कृकलास, गिरगिट (दे ॥४१) । दीवालिका-दीपावली के अवसर पर बनाया जाने वाला खाद्य-विशेष
(अंवि पृ १८२)। दीविआ--१ उपदेहिका, उदई (जीभा ५३८; दे ५॥५३)। २ शाकुनिक
पक्षीघातक व्यक्ति द्वारा अन्य पक्षियों को आकृष्ट करने के लिए पिंजरे में रखा गया तीतर पक्षी (ज्ञाटी प २४०)। ३ व्याध की हरिणी जो दूसरे हरिणों को आकृष्ट करने के लिए रखी जाती है (दे ॥५३)।
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२४८
देशी शब्दकोश
दीविका-दर्वी-'दव्वी तध कवल्ली य दीविक त्ति कडच्छकी' (अंवि पृ ७२) दीविच्चग-एक प्रकार का सिक्का । देखें-'दीविच्चिक' (निभा ६५८) । दीविच्चिक-द्वीप-विशेष में होने वाला सिक्का जो एक रुपये के समान
होता था-'साहरको णाम रूपकः, सो य दीविच्चिको। तं च दीवं सुरढाए दक्खिणेण जोयणमेत्तं समुद्दमवगाहित्ता भवति'
(निचू २ पृ ६५)। दोहजीह-शंख (दे ५४१) । दुअक्खर–नपुंसक (दे ५५४७) । दुअग्ग-दंपती (उनि ३६७) । दुएक्का-शौचक्रिया, देहचिन्ता (आवटि प २५) । दंदुमिअ--गल-गर्जित, गले से चिल्लाना (दे ५।४५)। दुंदुमिणी-रूपवती स्त्री (दे ५।४५) । दुंबवती-नदी, सरिता (दे ५१४८)। दुक्कर--माघ मास में रात्रि के चारों प्रहर में किया जाता स्नान
(दे ५।४२)। दुक्कुक्कणिआ-पात्र, पीकदान (दे ५॥४८) । दुक्कुह-१ असहन, असहिष्णु (दे ५।४४) । २ रुचि-रहित (वृ)। दुक्ख-जघन (दे ॥४२) । दुक्खरय-दास (बृभा ६२८५)। दुगंछणा-संयम-'पहू एजस्स दुगंछणाए' (आ १११४५)। दुगूछा-जुगुप्सा (सम २११२)। दुगल्ल-१ वृक्ष-विशेष । २ दुकूल वृक्ष की छाल से बना वस्त्र-'दुकूलो वृक्ष
विशेषस्तस्य वल्कं गृहीत्वा उदूखले जलेन सह कुट्टयित्वा बुसीकृत्य सूत्रीकृत्य च वूयन्ते यानि तानि दुकूलानि' (प्रटी प ७०,७१)।
३ गौड देश में विशिष्ट रूई से निष्पन्न वस्त्र (आटी प ३६३)। दूगल-१ वृक्ष-विशेष । २ दुकूल वृक्ष की छाल से बना वस्त्र । ३ दुकूल वृक्ष
की छाल के सूक्ष्म रोओं से निर्मित वस्त्र ।
(ज्ञा १११।३३ टी प३०) । देखें-'दुगुल्ल' । दग्ग-१ कष्टप्रद-वेयणं उदीरेंति-उज्जलं विउलं..."दुग्गं' (भ ५११३८)।
२ दुःख-'दुग्गजलोघदूरणिवोलिज्जमाण' (प्र ३३३) । ३ कमर
(दे ५।५३)। ४ युद्ध । दुग्गव-दुष्ट बैल (द ६।२।१६) ।
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देशी शब्दकोश
२४६
दुग्घुट्ट-हाथी (दे ५।४४)। दुघाण-दुभिक्ष-'दुघाणं ति वा दुभिक्खं ति वा एगलैं' (बृचू प १४८)। दुच्चंडिअ-१ दुर्ललित । २ दुःशिक्षित, दुर्विदग्ध (दे २५५) । दुच्चंबाल-१ झगड़ालू । २ दुश्चरित । ३ परुषभाषी (दे ॥५४) । दुज्जाय-कष्ट, दुःख, उपद्रव (दे ५।४४) । दुट्ठ-द्वेषयुक्त (ओनि ७५८) । दुट्ठस्स-गर्दभ (बृटी पृ ४५०) । दुणा-दुर्गन्धयुक्त-'जाणि एयाणि खारकडुयाणि दुणापाणियाणि उवभुंजेह'
(आवहाटी २ पृ ४४) । दुणियत्थ-जांघ तक पहना हुआ वस्त्र (बृभा ४११२) । दुण्णिअत्थ-१ जघन पर पहना हुआ वस्त्र । २ जघन (दे ५।५३) । दुण्णिक्क-दुश्चरित (दे ५५४५) । दुण्णिखित्त-१ दुश्चरित (दे ५।४५) । २ दुर्दर्श, जो कष्ट से देखा जा सके
(वृ)। दुत्ति-शीघ्र (दे ५१४१) । दुत्थ-जघन (दे ५४२) । दुत्थुरहंड-कलहकारी पुरुष (दे ५।४७ वृ) । दुत्थरहंडा-कलह करने वाली स्त्री (दे ५१४७) । दुत्थोह-अभागा (दे ५।४३) । दुद्दम-देवर, पति का छोटा भाई (दे ५।४४) । दुद्दोली-वृक्ष-पंक्ति (दे ॥४३) । दुद्धअ-समूह (दे ५५४२) । दुद्धगंधिअमुह-बालक, शिशु (दे ५०४०)। दुद्धगंधिअमुही-छोटी लड़की (पा ६६) । दुद्धट्टी-१ खट्टी छाछ आदि से मिश्रित दूध, किलाटिका-'अंबिलजुयंमि दुद्धे
दुद्धट्टी' (प्रसाटी प ५४) । २ प्रसूति के बाद तीन दिन तक का
गो-दुग्ध । दृद्धद्री-१ खट्टी छाछ आदि से मिश्रित दूध, किलाटिका, बलाई
(प्रसाटी प ५४) । २ प्रसूति के बाद तीन दिन तक का गो-दुग्ध । दुद्धवलेही-चावल का आटा डालकर पकाया गया दूध-'तंडुलचुण्णयसिद्धमि
अवलेही' (प्रसाटी प ५४) ।
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२५०
देशी शब्दकोश
बुद्धसाडी - द्राक्षा डालकर पकाया गया दूध - ' दक्खमीसरद्धमि पयसाडी' ( प्रसाठी प ५४ ) ।
बुद्धिअ - लौकी, कद्दू ( आवनि १३१८ ) । दूधी ( गुज) । दुद्धिग - लौकी, कद्दू (सूचू १ पृ १२५) ।
दुद्धिणिआ - १ तुम्बी । २ तेल रखने का पात्र (दे ५।५४) । बुद्धिणी - १ तेल - भाजन । २ तुम्बी (दे ५। ५४ वृ) । दुद्धोलणी - वह गाय जिसका दुबारा दोहन किया जा सके - 'दुद्धोलणी दुहिअदुझाए' (दे ५/४६)।
दुद्धोली - वृक्षों की कतार (दे ५।४३ पा ) |
दुप्परिअल्ल - १ अशक्य । २ दुगुना । ३ अनभ्यस्त (दे ५।५५) । दुब्बोडित – दुर्मुण्ड, अपमानजनक संबोधन (बृभा ३३५० ) । दुब्बोल्ल - - उपालम्भ (दे ५/४२) ।
दुब्भपुप्फ—सांप का एक प्रकार ( जीवटी प ३६ ) |
दुमंतअ - केश-बंध, जूड़ा (दे ५/४७) ।
दुमण - १ परिताप... वणण दुमण वाहणादियाई साहेति' ( प्र २११२ ) । २ धवलन-.........छायण- दुमण- लिंपण........ (प्रा) ।
दुमणी - सुधा, चूना (दे ५।४४) ।
दुम्मणी - कलह करने वाली स्त्री (दे ५/४७) ।
दुम्मुह - बन्दर (दे ५।४४) ।
दुयग्ग-१ दोनों - एहि दुयग्गा वि य वयामों' (निचू ३ पृ १४३ ) | २ दम्पती - 'दुयग्गावित्ति देशीपदं प्रक्रमाच्च द्वावपि दम्पती' ( उशाटी प ३६४) ।
दुरंदर - दुःख से उत्तीर्ण (दे ५/४६) ।
दुरालोअ --अन्धकार (दे ५।४६ ) ।
दुरियखारी - वेश्या - ' दुरियखारि सो उरि धरइ' (उसुटी प ३० ) ।
दुरुक्क — थोड़ा पीसा हुआ, अच्छी तरह से नहीं पीसा हुआ
( आचूला १११११) ।
दुरुय - दुर्गन्ध युक्त (ज्ञा १ । १ । १०६ ) ।
दुरूढ- —ATES (FAT EIER) I
दुरूय - मलमूत्रयुक्त कीचड़ - 'दुरुयं णाम उच्चार पासवण -कद्दमों' (सूचू १ पृ १३१) ।
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देशी शब्दकोश
दुरूव - विष्ठा, रक्त, मांस आदि का कर्दम - ते तत्थ चिट्ठति दुरूवभक्खी' ( सू १।५।२० ) |
दुलि - कछुआ (उशाटी प ४००; दे ५।४२) । दुल्ल -- वस्त्र (दे ५/४१) ।
दुल्लग्ग — अघटमान, अयुक्त (दे ५३४३) । दुल्लसिआ - दासी (दे ५२४६) ।
दुवक्खरय- - दास (पंक ४४७ ) ।
दुवग्ग -- दोनों - देशीवचनत्वात् द्वावपि' (बृटी पृ ४६१) । दुव्वाली - वृक्ष - पंक्ति (पा ४०० ) ।
दुव्वोज्झ - दुर्घात्य, कष्ट से मारने योग्य ( से ३३५) ।
दुसुंठ - उद्दण्ड - ' दुसुण्ठा उल्लण्ठा खिङ्गाः' ( जीविप पृ ५२ ) । दुहअ -- चूर-चूर किया हुआ (दे ५३४५ ) |
दुहदुहग - दुह- दुह आवाज करना ( जीव ३।४४७) । दुहुहुहुग -- दुहु-दुहु की आवाज ( राज २८१) । ण - हाथी (दे ५१४४) ।
दुणावेढ - १ अशक्य । २ तालाब ( दे ५।५६ ) ।
दूमक – पीडाकारक – 'अमणोरमाइं हिययमण - दुमकाई' (२११७) दूमण - उत्पीडन - पहार दूमण छविच्छेयण' ( प्र १।३० ) ।
दुमित - झुलसा हुआ - 'दवदुमितंजणदुम' (विभा १३०४ ) |
दूमिय--१ ईषत् भक्षित ( आचूला १।११६ ) । २ धवलित ( ज्ञा १1१1१८ ) । ३ पीडित |
दूरुल्ल — दूरवर्ती ( उसुटी प ७९ ) ।
हूलि - मत्स्य - विशेष (विपाटी १७९ ) ॥
दूसल - मन्दभाग्य, अभागा (दे ५।४३ ) | दूसि - छाछ, तत्र -
( प्रज्ञाटी प ३५९ ) ।
हट्ठ
– लज्जा से उद्विग्न ( दे ५२४८ ) |
- दूसिमिति देशीवचनत्वाद् दृष्यमेतत् मथितं तक्रम्'
२५१
दूहल -- मन्द- भाग्य ( दे ५।४३) |
दे - १ अपशब्द - सूचक अव्यय - 'दे ! मंदभग्ग ! घुक्किय तुससि तं णाममेत्तेणं' ( जीभा ८३८ ) । २ पादपूरक अव्यय ।
देअड - दृतिकार, मशक वहन करने वाला ( अनुद्वा ३६० ) ।
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२५२
देयड - चर्मकार ( प्रज्ञा ११६७ ) ।
देवउप्फ5- पका हुआ पुष्प, पूर्ण विकसित फूल (दे ५८४६) । देवड - १ चर्मकार ( जीभा ४२५) । २ पुजारी (अंवि पृ १६० ) ।
देवडिंगर - वह सार्वजनिक स्थान जहां देवताओं की स्थापना की जाती है; एक प्रकार का मंदिर (व्यभा ७ टी प ४१) ।
देस-एक, दो या तीन प्रसृति का नाप - एक्का पसति दो वा तिष्णि वा पसतीतो देसो भण्णति' ( निचू ३ पृ ४६५) ।
देसराग - जिस देश में जो रंगने की विधि हो उससे रंगा जाने वाला वस्त्र' जत्थ विसए जा रंगविधी ताए, देसे रत्ता देसरागा' ( निचू २ पृ ३६९ )
।
देसियमेली - व्यापारी - मंडल - स तत्थ देसियमेलीए गओ' ( कु पृ ६५) । देसी - अंगूठा - देशीत्यङ्गुष्ठोऽभिधीयते,' 'देसी पोरपमाणा'
(व्यभाटीप ४) ।
देहबलिया - भिक्षावृत्ति-गेहूं गेहे देहंबलियाए विति कमाणी विहरई' (ज्ञा १।१६।२९) ।
देशी शब्दकोश
देहणी - पंक, कर्दम (दे ५।४८) । देहमाण - देखता हुआ (भ | १४७ ) । देहवच्च - गोत्र - विशेष (अंवि पृ १५० ) । देहिय - देखकर ( सू ११२।३) । दोआल-वृषभ ( दे ५।४६) । दोग्ग --- युगल (दे ५४६) । दोघट्ट - हाथी ( पा ) ।
दोच्च - चोर आदि का भय - दोच्चं ति चौरादिभयम्' (बृभा ३८६५ टी ) । दोच्चंग - १ पकाया हुआ शाक ( बृभा ८०१ ) । २ तीमन ( ओभा २६७) । दोग - छिलका उतारा हुआ फल का गुदा-भाग - 'दोट्टगं छल्ली मोयगं' (आचू पृ ३६७) ।
दोड्डिय - तुम्बा (व्यभा १० टीप ६३) ।
दोणअ - १ गांव का मुखिया, गांव का अधिकारी, आयुक्त (दे ५।५१) । २ हल चलाने वाला (वृ) ।
दोणक्का - सरघा, मधुमक्खी (दे ५। ५१) ।
दोष्णक-दोना, पत्तों का पुडवा (व्यभा ४।२ टीप ८४) ।
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२५३
देशी शब् कोश
___२५३ दोद्धिअ-चर्मकूप, मशक (जीभा ४०३; दे ५।४६) । दोद्धिग-तुम्बा (बृभा ६५८) । दोद्धियक-तुंबे से बना पात्र-'दोद्धियकं तुंबघटितं' (निचू २ पृ ४६) । दोयडी-दुसरसूत्री पटी (जीविप पृ ५१) । दोर-१ धागा (आवनि १०३१) । २ छोटी रस्सी (ओभा ६४) । ३ कटि
सूत्र (दे ५।३८)। दोरक-रज्जु-'रज्जुओ दोरको त्ति वृत्तं भवति' (निचू २ पृ ४०) । दोरग-डोरा (निचू ४ पृ १३३) । दोरिया---वस्त्र-विशेष, डोरिया (प्रसाटी प १६१) । दोला--चतुरिन्द्रिय जीव-विशेष (प्रज्ञा ११५१)। दोवेली- सायंकालीन भोजन (दे ५५५०)। दोस-१ द्वेष (उ ३२।७) । २ आधा । ३ कोप (दे ५१५६)। दोसणिज्जंत-चन्द्रमा (दे ५॥५१) । दोसरिय-चांदनी-दोसरियाणं मज्झे देवउले जोइया सिला तेणं'
(उसुटी प ६१)। दोसाकरण-कोप (दे ॥५१) । दोसाणिअ-निर्मल किया हुआ (दे ५॥५१) । दोसिणा-ज्योत्स्ना (स्था २।३६१)। दोसिणाभा-चन्द्र की अग्रमहिषी (स्था ४११७५) । दोसिणी-ज्योत्स्ना (दे ५५०)। दोसिल्ल-द्वेषयुक्त (विभा १११०)। दोसीण—बासी अन्न (प्र १०।१७) । दोहणहारी--.१ दोग्ध्री, दोहने वाली स्त्री (दे १११०८) । २ पनीहारी, जल
लाने वाली । ३ पारिहारिणी-१ माला गूंथने वाली। . २ पारी (दुहने का पात्र) लाने वाली (दे ५१५६) । दोहणी-पंक, कर्दम (दे ५।४८) । दोहासल-कमर (दे ५॥५०) । दोहूअ---शव (दे ५।४६)। द्रवक्क-भय (प्रा ४१४२२) । द्रहि-दृष्टि (प्रा ४।४२२)।
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२५४
देशी शब्दकोश
धअ-पुरुष (दे ५३५७)। धंग-भ्रमर (दे ५१५७) । धंत-अत्यधिक-धंतं पि दुद्धकंखी न लभइ दुद्धं अधेणूतो' (बृभा १९४४)
देशीवचनत्वाद् अतिशयेन' (टी पृ ५६६) । धंधा-लज्जा (दे ॥५७)। धंसाडिअ-नष्ट, व्यपगत (दे श५६) । धकंटि-वृक्ष की एक जाति (अवि पृ ७०)। धडहड-वेग से-'धडहड जीविउ जाइ चित्त परलोयह दिज्जउ'
(उसुटी' प ११३)। धणिअ-१ अत्यधिक, अतिशय (भ ६।२०८ ; दे ५॥५८) । २ स्वामी, पति । धणिआ-१ भार्या, पत्नी (दे ५१५८) । २ स्तुति-पात्र स्त्री, धन्या । धणित--अत्यन्त (आवचू २ पृ २८४) । धणिता-तरुण स्त्री, प्रिया, गृहस्वामिनी (अंवि पृ६८)। धणिया-गाढ-'अणुप्पेहाए णं आउयवज्जाओ सत्तकम्मपगडीओ धणियबंधण
बद्धाओ सि ढिलबंधणबद्धाओ पकरेइ' (उ २६।२३) । धणी-१ पत्नी। २ पर्याप्ति, पर्याप्त । ३ जो बंधा हुआ होने पर भी अभय
हो (दे श६२)। धणहल्लक-छोटे धनुष का खिलौना (सूचू १ पृ ११८) । धण्णक-पशु-विशेष (अंवि पृ ६२)। धण्णपइरण-धान्य का मर्दन-'जोवणं ति धान्यप्रकरः......."लाटविषये
जोवणं धण्णपइरणं भण्णइ' (ओटी प ७५) । धण्णाउस-१ धन्य आयुष्मन् ! इस प्रकार कहा जाने वाला आशीर्वाद
(दे ५।५८) । २ आशीर्वाद (वृ)। धण्णारिया-भ्रमरी (निचू २ पृ १९७) । धत्त-१ निहित, स्थापित (आवहाटी १ पृ ३१८) । २ वनस्पति -विशेष । धनक-घर के बाहर का कमरा (ओटी प ५७) । धममित-जाज्वल्यमान-'रोसेण धमधर्मितो' (प्रसा १६५) । धम्मअ-१ चार अंगुल का हस्त-व्रण । २ चण्डी देवी की नरबलि (दे ५।६३)।
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२५५
देशी शब्दकोश धम्मकरक-पानी छानने का कपड़ा (निचू १ पृ ७४) । धम्मणग-फल-विशेष (संवि पृ २३८) । धम्मण्ण-वृक्ष-विशेष (अवि पृ ६३) । धयण-गृह (दे ॥५७)। धर-तूल, रूई (दे ५२५७)। धरग्ग-कपास (दे ५।५८) । धरच्छ-आभूषण-विशेष-'मगधकं धराक्षं च रूढिगम्यम्' (औपटी पृ १०३) । धव-वेग, तीव्रता-'धवसगसहेण जलमुट्ठाहियं' (आवचू १ पृ ५५३)। धवल-स्वजाति में उत्तम, जैसे-अश्वधवल-उत्तम घोड़ा (दे ५॥५७) । धवलसउण-हंस (दे ॥५६)। धवासि-वृक्ष-विशेष (अंवि पृ ७०)। धव्य--वेग (दे ५॥५७)। धस-गिरने की आवाज-'कोट्टिमतलंसि धस त्ति सव्वंगेहिं संनिवडिया'
(भ १६८)। धसल-विस्तीर्ण (दे ॥५८) । धाडण-आक्रांत-'वारेह सरडुवेक्षण, धाडण गयणास चूरणता'
(निभा २७८६)। धाडि-१ हमला, आक्रमण, डाका-'चोरधाडिभएण बहू गामा एगट्ठिता'
(निचू ३ पृ १६३) । २ निरस्त, निराकृत (दे ५।५६)। धाडित-तिरस्कृत, निष्कासित-ततिओ रुट्ठो घेत्तुं पिट्टिता धाडिता य'
(आवचू १ पृ ८१)। धाडिय-१ तिरस्कृत, निष्कासित-'तेण दढं पिट्टिया धाडिया य'
(अनुद्वाहाटी पृ २६) । २ बगीचा (दे ५।५९)। धाडी- आक्रमण-गामे निवडिया चोरघाडी' (उसुटी प १९३)। धाणग-धनिया, धाना (निचू २ पृ १०६)। धाणरिअ-विशेष प्रकार का फल (दे ५६०)। धात—१ पीछा करने वाला-'इतरेवि धाता नियत्ता' (आवचू १ पृ ४६७)।
२ सुभिक्ष । ३ विभव-'धातं सुभिक्खं अथवा धातं विभवो
(उचू पृ ६४)। धाय-सुभिक्ष-'धायं ति वा सुभिक्खं ति वा एगट्ठ' (निचू ३ पृ ७०)। धार-लघु, छोटा (दे ५५६)।
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२५६
देशी शब्दकोश धारधारी-तापसों का काष्ठमय उपकरण जो कांख में धारण किया जाता
है (नंदीटि पृ १०१)। धारा- रणभूमि का अग्रभाग, मोर्चा (दे ५५५६) । धारावास–१ बादल । २ मेंढक (दे ५।६३) । धारिट–साहस-पगभं ति धारिद्वं' (नंदीचू पृ ११)।। धाह-गहराई का अंत, थाह-जाहे कोति महासमुई तरिऊण जाहे अणेण
धाहो, (थाह) लद्धो भवति ताहे मुहत्तं अच्छिऊण सेसं तरति'
(आवचू १ पृ १०६)। धाहा- शोरगुल-'सो धाहाओ करेइ' (उसुटी प २७) । धाहाधाह-चिल्लाहट, क्रंदन-'एसो अवकंदतो बंधुयणो पिट्ठओ य रुयमाणो ।
तणकट्ठ अग्गिहत्थो, धाहाधाहं करेमाणे ॥ (कु पृ १८६) । धाहाविय-पुकार, चिल्लाहट-'तो धाहावियं णेण' (कु पृ ६७) । धिइल्लिया--पुतली, शालभंजिका (आवहाटी १ पृ २२६) । धिकुण-क्षुद्र जन्तु, चींचड (अंवि पृ २३७) । धिज्जा-बालिका (अंवि पृ ६८)। धितिगा-पुतली (आवहाटी २ पृ १४३)।" धियइल्ल-मगदंतिया, मल्लिका (दजिचू पृ १९६)। धिवल-दीन, मलिन-निस्सोयमइलं दीणं अट्ठमं धिवलागतं' (अवि पृ ४१)। धोउल्लिका-पुतली (अनुद्वामटी प १२) । धीउल्लिगा--पुतली (अनुद्वाहाटी पृ ७)।। धीउल्लिया-पुतली-'अट्ठचक्काणमुवरि ठविया धीउल्लिया सा अच्छिम्मि
विधेयव्वा' (उसुटी प ६६)। धीतर-पुत्र-'महपितुकधीतरं वा पित्तियधीतरं वा जोणिभगिणिं वा'
(अंवि पृ २१६)। धीतरी-पुत्री-'पितुस्सियाधीतरि बूया, मातुस्सियाधीतरि वा'
(वि पृ २१९)। धीतिगा-कठपुतली (आवचू १ पृ ४४६) । धीतीगा-पुतली-'सा धीतीगा अच्छिमि विद्धा' (आवहाटी २ पृ १४३) । धीम्मरग-धीवर (आवहाटी २ पृ २२६) । धीया-कठपुतली (आवचू १ पृ ४५०) । धीयार-ब्राह्मण (आवमटी प २७६) ।
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देशी शब्दकोश
२५७
धुअगाअ-भ्रमर (दे ५।५७)। धुंधुमारा-इन्द्राणी (दे ५।६०)। धुक्कुटुअ-उल्लसित (दे ५६०)। धुक्कुटुगिअ-उल्लसित (दे ५।६०)। धुत्त-१ विस्तीर्ण (व्यमा ८ टी प २६; दे ५।५८) । २ आक्रान्त । धुरुड-कृमिविशेष (अंवि पृ २२६) । धूण-हाथी (दे ॥६०)। धतुल्लिका-भाजन-विशेष (अंवि पृ ७२) । धूमंग-भ्रमर (दे ५।५७) । धूमणत्त-भांड-विशेष (अंवि पृ २३०) । धूमदार-गवाक्ष, वातायन (दे ५।६१)। धमद्धय-१ तालाब । २ महिष, भैंसा (दे श६३) । धूमद्धयमहिसी—कृत्तिका नक्षत्र (दे ५।६२) ।। धममहिसी-कुहरा, कुहासा (दे ५६१)। धूमरी-१ नीहार, कुहासा (दे ॥६१) । २ हिम । धमसिहा--नीहार, कुहासा (दे ॥६१) ।। धूमा-नीहार, कुहासा (स्थाटी प ४५१) । धूमिआ-नीहार, कुहासा (स्था १०।२०; दे ॥६१)। ध्यरा-लड़की-'पिहुण्डे ववहरन्तस्स वाणिओ देइ धूयर' (उ २१।३) । धरिअ-दीर्घ, लम्बा (दे ५।६२) । धूरिअवट्ट-अश्व (दे ५।६१ वृ)। धूलडिया-धूल, रजकण (प्रा ४।४३२) । धलीवट्ट- अश्व (दे ५।६१) । धोक--छात्र (उचू पृ २०)। धोयगि-मद्य के नीचे एकत्रित होने वाला कर्दम-'मज्जस्स हेट्ठा धोयगिमादि
किट्ठिसंखेलो' (निचू ४ पृ २२३) । धोरण-गति-चातुर्य (जंबू ३३१७८) । धोरिगिणी-नर्तकी (आवहाटी २ पृ १४१) ।
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२५८
पइ - मूत्र - इत्ति पासवणं' ( प्रसा ९६ ) ।
पइअ - १ भत्सित, तिरस्कृत । २ रथ का चक्र (दे ६/६४) ।
पइट्ट - १ रस को जानने वाला, ज्ञातरस । २ विरल । ३ मार्ग (दे ६/६६ ) P ४ प्रेषित, भेजा हुआ ।
पइट्ठाण - नगर (दे ६।२९ ) ।
पइण्ण - विपुल ( दे ६।७ ) ।
पइरिक्क - १ एकान्त - पइरिक्कुवस्सयं लधुं...तत्थऽहियासए'
देशी शब्दकोश
( उ २।२३; दे ६७१) । २ यथेच्छ ( आवहाटी १ पृ ४३) । ३ तुच्छ ( से १५८ ) । ४ विशाल । ५ शून्य (दे ६ | ७१) । ६ प्रचुर ( जीव ३।५६४ )
परिक्कय - प्रचुर (ओनि २४९ ) ।
पइलाइय - सर्प की एक जाति (अंवि पृ ६ ) ।
पइल्ल - १ ग्रह - विशेष (स्था २ । ३२५ ) । २ रोग - विशेष, श्लीपद रोग !
( प्र १०।१५) ।
पहंत जयन्त इन्द्र का एक पुत्र ( दे ६।१६) ।
पउअ - दिन (दे ६०५ ) ।
पट्ट - परिवर्त - मरकर फिर उसी शरीर में उत्पन्न होना । देखें - पउट्टपरिहार (भ १५७५) ।
पट्टपरिहार -- मर कर पुनः उसी शरीर में बार-बार उत्पन्न होनाउपरिहारो नाम परावर्त्य परावर्त्य तस्मिन्नेव सरीरके उववज्जंति' (आवचू १ पृ २६९ ) ।
पउढ - १ घर (दे ६।४) । २ घर का पिछला भाग - पउढो गृहस्य पश्चिमदेश इति केचित् ' ( वृ) ।
पण - १ घाव का भरना, व्रण- प्ररोह । २ एक प्रकार का नियम (दे ६।६५) । पण - वस्त्र - विशेष (अंवि पृ ७१) ।
पउत्थ – १ प्रोषित, प्रवास में गया हुआ (आवचू १ पृ ५३० दे ६।६६) । २ गृह (व्यभा ७ टीप ८८; दे ६।६६) ।
पउत्थपतिया -- जिसका पति प्रवास में गया हो वह स्त्री
( आवचू १ पृ ५३० ) ।
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देशी शब्दकोश
२५६.
पउत्थवइआ-जिसका पति देशान्तर गया हो वह स्त्री
(आवहाटी १ पृ २६६)। पउप्पय-शिष्यसंतति-पउप्पएत्ति शिष्यसन्तानः' (भटी पृ १२७१) । पउमलअ-बसन्त (दे ६१३३)। पउल-वनस्पति-विशेष (भ २३॥८)। पउलण-पचन, पाक (प्र २२५)। पउसिया-'पउस' देश में उत्पन्न स्त्री (औप ७०) । पउसी-पउस' देश में उत्पन्न स्त्री (नि ६।२६)। पऊढ-घर (दे ६।४)। पएणी-वस्त्र-विशेष (अंवि पृ ७१) । पएर--१ बाड का छिद्र । २ मार्ग । ३ दुःशील, दुश्चरित्र । ४ कंठदीनार
नाम का आभूषण । ५ गले का छिद्र । ६ दीन-नाद, आर्तस्वर
(दे ६।६७)। पएस--१ प्रातिवेश्मिक, पडोसी (दे ६।३) । २ एक प्रकार का वाद्य
(नि १७।१३६)। पएसिणी—पड़ोसिन (दे ६।३ वृ) । पओत्थ-प्रोषित, प्रवास में गया हुआ (दश्रुचू पृ ४८) । पओप्पय-१ शिष्य-परम्परा, प्रशिष्य-विमलस्स अरहओ पओप्पए धम्मघोसे
नाम अणगारे' (भ ११११६५) । २ प्रशिष्य की शिष्य-परंपरा
(भटी पृ १००८)। पंखुडिआ-पत्र-पंखुडिअव विकिण्णो' (दे ६।८ )। पंखुडी-पत्र, पत्ता (दे ६।८)। पंगुलिगा-आसन-विशेष (दअचू पृ १७२) । पंचंगलि-एरण्ड का गाछ (दे ६।१७)। पंचंगुलिया-वल्ली-विशेष (प्रज्ञा ११४०।१) । पंचपुल-मछली पकड़ने का जाल-विशेष (विपा ११८।१६)। पंचमधारा-अश्व की गति-विशेष (उसुटी प २३७) । पंचमेजण-उत्सव-विशेष (अंवि पृ९८)। पंचवडय-शौचालय-वच्चं नाम पंचवडओ' (आचू पृ ३३८) । पंचवन-शौचभूमी-'अण्णया राया विरेयणं पीतो पंचवनगमतीति'
(दअचू पृ ५२)।
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२६०
देशी शब्दकोश पंचावण्ण-पचपन की संख्या (दे ६।२७) । पंजर-१ आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर और गणावच्छेदक-इन पांचों
का समुदाय। २ आचार्य आदि की परस्पर सारणा। ३ प्रायश्चित्त आदि के द्वारा अकुशल प्रवृत्ति से निवारण करना (व्यभा २ टी प २८)। ४ जलवायु-विशेषज्ञ-पंजरपुरिसेण उत्तर
दिसाए दिळं एक्कं सुप्पमाणं कज्जलकसिणं मेहपडलं' (कु पृ १०६) । पंडरंग-१ शिवभक्त संन्यासी (बृटी पृ १३८६) । २ रुद्र, शिव
(दे ६।२३)। पंडरकुड़ग--- ग्वालों की जाति-विशेष-'अम्हे पंडर कुडूगा रायगिहे गोवाला
पसिद्धा' (नंदीटि पृ १३४) । पंडविअ- जलार्द्र, पानी से भीगा हुआ (दे ६।२०) । पंड़-सफेद-मिट्टी, धूसर-मिट्टी-'पाण्डुमृत्तिका नाम देशविशेषे या धूलिरूपा
सती पाण्डू इति प्रसिद्धा' (जीवटी प २३)। पंडुइय-तिरस्कृत, प्रताड़ित (निभा १६८५)-'तम्मि घरासे पंडुइया भ्रंसिया'
(चू)। पंडल्लुइय-पांडुर वर्ण वाला (आवचू १ पृ २०६) । पंतावणा--लकड़ी, मुष्टि आदि से मारना- यष्टिमुष्ट्यादिभिस्ताडना'
(बृभा ८६६ टी पृ २८५) । पंति-वेणी, केश-रचना (दे ६।२) । पंथुच्छुहणी-ससुराल से पहली बार आनीत वधू (दे ६।३५) । पंथोलग-क्षुद्र जंतु-विशेष (संवि पृ २३८) । पंपुअ-दीर्घ (दे ६।१२) । पंपोट-बहुबीज वाली वनस्पति (प्रसाटी प ५८) । पंफुल्लिअ-गवेषित, खोजा हुआ (दे ६।१७) । पंसुल-१ कोयल, कोकिल । २ जार, उपपति (दे ६।६६) । ३ रुद्ध, रोका
हुआ। पंसुलिगा---पार्व की हड्डी (प्र ३।१२) । पंसुलिया-पार्श्व की हड्डी (प्रसाटी ५४०२) । पंसुली-पार्श्व की हड्डी, पसली (तंदु १४२) । पांसली (राज) । पक्क- १ दृप्त, उन्मत्त । २ समर्थ (दे ६।६४) । यक्कग्गाह-१ मगरमच्छ (दं ६:२३) । २ पानी में रहने वाला सिंहाकार
जलजन्तु-पक्कग्गाहो जलसिंहे देशी' (से ५।५७) ।
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देशी शब्दकोश
२६१ पक्कण-१ म्लेच्छ जाति, चाण्डाल (जंबू ३।११) । २ असहिष्णु । ३ समर्थ
(दे ६।६६) । ४ एक नीच जाति का घर, शबर-गृह । ५ अधम
(कु पृ८१)। ६ एक अनार्य देश। पक्कणकुल-गर्हित कुल-'पक्कणकुले वसंतो सउणीपारोऽवि गरहिओ होइ'
(आवहाटी २ पृ २०)। पक्कणय-एक अनार्य देश (प्रसा १५८३) । पक्कणि-१ अत्यन्त शोभित । २ भग्न, टूटा हुआ। ३ प्रियभाषी,
(दे ६०६५)। पक्कणिक-अनार्य देश में रहने वाली जाति-विशेष (प्रटी प १५) । पक्कणिय- म्लेच्छजाति-विशेष (प्रटी प १४) । पक्कणी-अनार्य देश-विशेष की दासी (ज्ञा १।११८२)। पक्कल-१ प्रौढ । २ समर्थ (कु पृ १९८) । ३ दर्पयुक्त, गर्वित । पक्कस--सुरा आदि का पुराना मैल (निचू ४ पृ २२३) । पक्कसावअ--१ शरभ, अष्टापद । २ व्याघ्र (दे ६।७५) । पक्काणिय-म्लेच्छ जाति-विशेष (प्र ११२१) । पक्खडिअ-प्रस्फुरित (दे ६।२०)। पक्खड–त्रिकोण वस्तु-विशेष (अंवि पृ ११७) । पक्खर–१ पाखर, घोड़े का कवच (आवचू १ पृ ५६७) । २ जहाज की
रक्षा का एक उपकरण । पक्खरा–घोड़े का कवच, अश्व-संनाह (विपा १२।१४; दे ६।१०)। पक्खरिअ-कवचित, कवच से सज्जित (अश्व)-'पवखरिअपत्थिअहओ'
(दे ६।१० वृ)। पक्खापक्खि नपुंसक का एक प्रकार-'वामदक्खिणेसु पक्खापक्खिणो
विण्णेया' (अंवि पृ २२४) । पक्खोडिअ—झाडा हुआ, निर्झटित (व्यभा १० टी प ५२; दे ६।२७) । पखरगत-वाद्य-विशेष-'वीणा मसूर का पखरगतं दद्दरका आलिंगा मुरव'
(संवि पृ २३०)। पगढग-पथ-दर्शक, नायक (सूचू १ पृ २१३) । पग्गेज्ज---निकर, समूह (दे ६।१५) । पचलाक-वृक्ष पर रहने वाला प्राणी-विशेष (अंवि पृ २२६) । पच्चंगिर-चोरी का दोष (बृभा २०३८) । पच्चग-मुंह से बजाया जाने वाला बाजा (आवच १ पृ ३०९) ।
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२६२
पच्चड्डिय-क्षरित (प्रा २१ १७४) ।
पच्चड्डिया - मल्लों का एक प्रकार का करण (विभा ३३५७ ) । पच्चत्तर -- खुशामद ( दे ६।२१ ) |
पच्चबलोक्क - आसक्त चित्तवाला पुरुष ( दे ६३४ ) |
पच्चर - फलक - 'असति एगंगियस्स दो पच्चरा संघातिगा गहेयव्वा' ( निचू २ पृ १६२ ) ।
पच्चल- -१ समर्थ ( उशाटी प १०४; दे ६।६९ ) । २ असहनशील (दे ६/६६ ) 1]
पच्चवर - १ श्रेष्ठ (अंवि पृ १७ ) । २ क्षुद्र (अंवि पृ २२६ ) । ३ मुसल (दे ६।१५) ।
पच्चा - तृण - विशेष, बल्वज (स्था ५। १९१ ) ।
पच्चापिच्चिय-- बल्वज नाम की मोटी घास को कूटकर बनाया हुआ रजोहरण (स्था ५। १६१) ।
पच्चारण - उपालंभ ( पा ε६० ) ।
पच्चुअ – प्रस्तुत, प्रक्षरित - पच्चुअं प्रस्तुतं इत्यन्ये' (दे ६।२५ वृ) । पच्चच्छुहणी- - नया मद्य, ताजी मदिरा (दे ६।३५) । पच्चुत्थ – प्रत्युप्त, पुन: बोया हुआ (दे ६ । १३) ।
पच्चुद्धरिय – सम्मुखागत, सामने आया हुआ (दे ६॥२४ वृ) । पच्चुद्धार – सम्मुख आगमन (दे ६।२४) ।
पच्चुरस -- निकट (व्यभा ५ टीप १६ ) ।
पच्चुल्ल — प्रत्युत् – 'किं कारणं न तुमं रुट्टो, पच्चुल्लं ममं पूएसि ' ( व्यभा १ टी प ५२ ) ।
पच्चुहिअ - प्रस्तुत, प्रक्षरित (दे ६।२५ ) | पच्चूढ – थाल, भोजन-पात्र (दे ६।१२) । पच्चूह - सूर्य, रवि (दे ६५ ) |
पच्चेड - मुसल (दे ६।१५) ।
देशी शब्दकोश
पच्चोणी – सम्मुख आगमन (पिभा ३३ ) ।
पच्चोयड -- १ मणि आदि के किनारे का उठा हुआ प्रदेश ( जीव ३ । ३२७ ) | २ अवच्छादित - ' वेरुलिय-मणिफालियपडलपच्चोयडाओ'
( राज १७४) ।
पच्चोवणिअ - सम्मुख आया हुआ (दे ६।२४ वृ) | पच्चोवणी – सम्मुख आगमन ( दे ६ | २४ ) ।
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देशी शब्दकोश
पच्छयण -- पाथेय - 'गहियपच्छयणा निग्गया' ( कु पृ ५७ ) । पच्छि— पिटिका, पिटारी (भटी प ३१३; दे ६।१) । पच्छिया - पात्र विशेष ( जीभा १५५ १) । पच्छियापिड - पच्छी' रूप पिटारी (राज ७७२ ) । पच्छिलय - पश्चात् ( पंवटी प ५६ ) ।
पच्छेणय- पाथेय, रास्ते में निर्वाह करने की भोजन-सामग्री (दे ६/२४) । पच्छोकड - जिसका पिछला भाग ऊंचा हो ( दे ६।१५ वृ) ।
पच्छोलित - छीला हुआ (अंवि पृ १६८ ) ।
पज्जण – १ पिलाना ( बृभा १७६७) । २ पीना, पान करना (दे ६।११) । पज्जणय - पिलाना, जल में डुवोना - 'पज्जणयं ... पायनं - जलनि बोलनं' (भ १४१८५ टी पृ ११६५) ।
पज्जणी - लाल मिट्टी (वि पृ २३३ ) ।
पज्जय- १ प्रपितामह, परदादा । २ परनाना ( भ । १७५ )
पज्जा - सोढी, निःश्रेणी ( है ६।१) ।
पज्जिया - १ परदादी । २ परनानी (द ७।१५) ।
पज्जुणसर - इक्षु के सदृश तृण- विशेष (दे ६।३२) ।
पज्झरिय-क्षरित, प्रवाहित - 'दंतीपज्झरियमयजलपवाहो' (उसुटी प ८५) । पज्झत्त – जड़ित, खचित ( पा १४० ) ।
पट्ट - १ कीट - विशेष (पतंग) की लार से निष्पन्न वस्त्र - ....पदंगकीडा आगच्छति, तं तं मंसचीडाइयं आमिसं चरंता इतो ततो कीलंतरेसु संचरता लाल मुयंति एस पट्टो (अनुद्वाचू पृ १५) । २ ललाट का आभूषण - विशेष ( विपाटी प ७० )।
पट्टइल - पटेल, गांव का मुखिया (जंबूटी प १९३) । पट्टइल्ल – १ वस्त्रधारी ( उसुटी प २५) । २ पटेल, गांव का मुखिया । पट्टगभत्त -- पूज्य व्यक्तियों के लिए बनाया गया भोजन - 'पूया उक्खित्तं ति य, पट्टगभत्तं च एगट्ठा' (बृभा ३६५५) ।
पट्टाढा - घोड़े के बांधा जाने वाला चमड़े का पट्टा - "छोडिया पट्टाढा, ऊसारियं पल्लाणं' ( उसुटी प २३७) ।
२६३
पट्टाधा - घोड़े के बांधा जाने वाला चमड़े का पट्टा ( उसुटी प २३७) । पट्टिस - शस्त्र - विशेष ( प्र ११२८ ) । पट्टुआ-पाद- प्रहार (दे ६८ पा ) ।
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२६४
देशी शब्दकोश पटुहिम-कलुषित पानी, हिलाया-डुलाया हुआ पानी (पा १५८) । पट्ठिसंग-ककुद, बैल के कंधे का कूबड़ (दे ६।२३) । पडंचा-प्रत्यंचा, धनुष की डोरी (दे ६।१४) । पडंसुआ-प्रत्यंचा, धनुष की डोरी (दे ६।१४)। पडक-उद्भिज्ज जन्तु की एक जाति (अंवि पृ २२६) । पडच्चर-साले की भांति हंसी-मजाक करने वाला विदूषक आदि (दे ६।२५) पडप्पयार-बहाना, मिष-'इमेण दिव्व-चित्तयम्म-पडप्पयारेण कारणंतरं किं
पि चिंतयंतो दिव्वो देवलोयाओ समागओ त्ति' (कु पृ १६०)। पडमट्ठ-खाद्य-विशेष (अंवि पृ ७१) । पडल-नीव, मिट्टी का बना हुआ एक प्रकार का खपड़ा जिससे मकान छाये
जाते हैं (दे ६।५)। पडलग-टोकरी-पुप्फपडलगं वा पुप्फछज्जियं वा' (राज १२)। पडवा-पट-कुटी, तम्ब (दे ६।६) । पडहत्थिग-भाजन-विशेष (आव २ पृ ७०) । पडाग--मत्स्य का एक प्रकार (प्रज्ञा ११५६) । पडाल-फलक,मुष्टि (दश्रुचू प ७४) । पडालिका-गृह-उपकरण, चटाई आदि (अंवि पृ ७२) । पडाली-१ कच्ची छत, चटाई आदि से छाया हुआ स्थान
(निचू २ पृ ४२०) । २ छोटी कुटिया (आवटि प ३६) ।
३ पंक्ति, श्रेणी (बृभा ११०७; दे ६।९) । पडिअ--विघटित, वियुक्त (६।१२) । पडिअंतअ-कर्मकर, नौकर (दे ६।३२) । पडिअग्गिअ-१ परिभुक्त। २ वर्धापित । ३ पालित (दे ६७४) ।
४ अनुवजित, अनुसृत (वृ)। पडिअज्झअ--उपाध्याय (दे ६।३१) । पडिअट्टलिय-घृष्ट, घिसा हुआ (से ६।३१) । पडिअर-चूल्हे का मूल भाग (दे ६।१७) । पडिअलि-त्वरित, वेगयुक्त (दे ६।२८) । पडिएल्लिअ--कृतार्थ (दे ६।३२) । पडिएल्लिआ—कृतार्थता-'पडिरंजिअपडिमाए कि रे पडिएल्लिआइ होइ
फलं' (दे ६।३२ वृ)।
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देशी शब्दकोश
२६५
पडिकक्कय-प्रतिकृति (अंवि पृ २५६) । पडिक्कय-प्रतिक्रिया (आवचू १ पृ ४०६; दे ६।१६) । पडिक्खर-१ क्रूर, निर्दय (दे ६।२५) । २ प्रतिकूल । पडिखंध -१ जल वहन करने का दृति आदि साधन (दे ६।२८) । २ जलवाह,
पानी लाने वाला (वृ)। पडिखंधी-१ जल वहन करने का दृति आदि साधन (दे ६।२८) ।
२ जलवाह, पानी लाने वाला (व)। पडिखद्ध -मृत-किमेइणा सुणहपाएण पडिखद्धेणं' (उसुटी प ६४) । पडिच्छ-मध्य-'मणिरयणं छत्तरयणस्स पडिच्छभाए ठवेति' . (आवहाटी १ पृ १००)। पडिच्छा -१ अवान्तर गण का अधिपति (व्यभा ६ टी प ५४) । २ समय
(दे ६।१६)। पडिच्छंद-१ मुख (दे ६।२४) । २ समान, तुल्य (से १४.२४) । पडिच्छिआ-१ प्रतीहारी (दे ६।२१) । २ चिरकाल से ब्याई हुई भंस
___पडिच्छिआ चिरप्रसूता महिषीत्यन्ये' (वृ) । पडिच्छिर-सदृश, समान (प्रा २।१७४) । पडिणायित--विनष्ट (अंवि पृ १६९)। पडिणिअंसण-रात्री में पहनने का वस्त्र (दे ६।३६)। पडितलिय--पदत्राण, जूता-विशेष (पंक ८४७) । पडिताणिय--पैबंद, फटे वस्त्र में लगने वाली जोड़ (निचू २ पृ ५६) । पडिस्थिर--समान, सदृश (दे ६।२०) । पडिपिडिअ-प्रवृद्ध, बढ़ा हुआ (दे ६।३४) । पडिमेय-उपालंभ (पा ६६०)। पडिया-वाचना-'पेसेह मेहावी सत्त पडियाओ देमि' (आवहाटी २ पृ १३८). पडियाणय-पर्याण के नीचे रखा जाने वाला एक उपकरण
(ज्ञाटी प २३६)। पडियाणिय-पैबंद-'वत्थस्स एगं पडियाणियं देइ' (नि ११४७) । पडियाणिया-पैबंद-'पडियाणिया थिग्गलयं छंदतो य एगळं
(निचू २ पृ५६)। पडिरंजिअ-भग्न, टूटा हुआ (दे ६।३२) । पडिलग्गल--वल्मीक, कीट-विशेष द्वारा निर्मित मृत्तिका-स्तूप (दे ६॥३३)।
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२६६
पडिल्ली - १ वृति, बाड़ । २ यवनिका, परदा (दे ६।६५) ।
पडिवेस - विक्षेप, फेंकना (दे ६।२१) ।
पडिसंत - १ प्रतिकूल (दे ६।१८ ) । २ अस्तमित, अस्तप्राप्त - पडिसं तं अस्तमितमिति तु सातवाहनः' (वृ) ।
पडसराखारमणि - कंठ का वह आभूषण जिसकी प्रत्येक लड में मणि पिरोया हुआ हो ( अवि पृ १६३) ।
पडसाअ - घर्घर कण्ठ, बैठा हुआ गला (दे ६।१७ ) । पडिसाइल्ल --- घर्घर कण्ठ वाला (दे ६ । १७ वृ )
देशी शब्दकोश
पडिसार - १ स्मृति - पव्वसारस्स दिट्ठिवायस्स नत्थि पडिसा रो' ( ति ७२३) । २ पटुता (दे ६ १६) । ३ पटु, निपुण ( वृ ) । पंडिसारिअ - स्मृत, याद किया हुआ (दे ६।३३) । पडसारी - यवनिका, परदा (दे ६।२२) । पडसिद्ध - १ भीत । २ भग्न (दे ६।७१ ) । पडसुत्ति - प्रतिकूल (दे ६।१८ ) ।
पडसूर -- प्रतिकूल (दे ६।१८ ) ।
पहिच्छ - पूर्ण, भरा हुआ (दे ६।२८ पा ) ।
पsिहत्य - १ अत्यधिक - " देशीशब्दोऽयं पsिहत्यमुद्धुमायं अइरेइयं च जाण आउष्ण इति वचनात् ' ( जंबूटी प ४२ ) । २ परिपूर्ण परिहत्थाओ त्ति परिपूर्णाः देशी शब्दोऽयम्' (जंबूटी प ५७; दे ६।२८) |
३ प्रतिक्रिया (दे ६।१९ ) । ४ वचन ( वृ ) । ५ अपूर्व ।
६ प्रत्युपकार ( से १२।६६ ) ।
पsिहत्थी - वृद्धि (दे ६१९ ) ।
पडीर - चोरों का समूह ( दे ६।८ ) |
मडुआलिय - १ निपुण बनाया हुआ । २ ताडित। ३ धारित (दे ६ | ७३) ।
पडुजुवइ - तरुणी (दे ६।३१) ।
पडुल्ल - १ छोटा पिठर, छोटी थाली । २ चिरप्रसूत (दे ६।६८ ) ।
पडुवइअ - तीक्ष्ण, तेज (दे ६।१४ ) |
पडुवत्ती - यवनिका, परदा (दे ६।२२) |
पडोअ - बालक (दे ६।९ ) । पडोगार – उपकरण (दश्रुचू प ५२) । पडोयार - उपकरण, सामग्री ( पिनि २८ ) ।
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देशी शब्दकोश
पडोहर -- घर का पिछला भाग (दे ६।२२) | पड्डु - १ पाडा, भैंसा ( दजिचू पृ १७६) । २ धवल, (उच् पृ १७८; दे ६।१) ।
पड्डंस - गिरि-गुहा, पहाड़ की गुफा (दे ६ २ ) ।
पड्डुच्छी-भैंस - 'पड्डुच्छिखीर' (ओनि ८७ ) 1
पडुत्थी - १ बहुदुग्धा, बहुत दूध देने वाली । २ दूध दुहने वाली स्त्री (दे ६१७० ) ।
पड्डय -- भैंसा, पाडा ( उसुटी प १३५) ।
पड्डुला -- चरणघात, पाद - प्रहार (दे ६८ ) ।
पड्डुस - सुसंयमित (दे ६।६ ) |
पडिका- १ छोटी भैंस, पाडी । २ छोटी गौ, बछिया ( विपाटी प ४८ ) । पडिच्छिर – सदृश, समान ( प्रा २ । १७४) ।
पड्डिया - १ पाडी, छोटी भैंस । २ बछिया ( विपा १।२।२० ) | ३ प्रथम प्रसूता गाय | ४ नवप्रसूता महिषी (व्यभा ४ | ३ टीप १०) |
पड्डी- प्रथम प्रसूता, पहली बार ब्यानेवाली (दे ६।१) ।
पड्डुआ - चरण- घात, पाद- प्रहार (दे ६८ ) 1 पढमालिया - नाश्ता, प्रातराश (आवचू १ पृ ८२) । पढमिल्लुय- - प्रथम ( राज ७६८ ) ।
पढमेल्ल - प्रथम - 'देशीवचनमेतत्, यथा -- पढमेल्ला एत्थ घरे' ( आवमटी प ११६ ) ।
पढमेल्लुग - पहला- 'प्रथम एव प्रथमेल्लुका देशीवचनमेतत्' ( आमटी प ११६ ) |
सफेद
पणपण्ण-पचपन ( सम ५५ | १ ) ।
पण - पांच (बृभा २४०८ ) ।
पणअत्तिअ -- प्रकटित ( दे ६ ३० वृ ) |
पण – १ सूक्ष्म पंक - पंक- पणग पास जालभ्यं ( प्र ४ (१) । २ काई
--
(द ८।१५) । ३ पञ्चक ( जीभा १७६७) । ४ वनस्पति- विशेष (आ | १|१२) ।
पणपन्न- - पचपन ( जीव २।२० ) । - १ पंचक (भ ६ । १५०। १ ) विशेष, शैवाल ( पिनि २५ )
पणय
२६७
२ सूक्ष्म पंक ( प्र ४११ पा ) । ३ तृण। ४ काई ( ओनि ३५० ) । ५ कर्म
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२६८
देशी शब्दकोश
-'पावे वज्जे वेरे पंके पणए य' (उशाटी प ६७) । ६ कर्दम
(दे ६।७)। पणयत्तिभ-प्रकटित, व्यक्त किया हुआ (दे ६।३०) । पणयाल-पैंतालीस (सम ४५७) । पणल-प्रावरण-विशेष (निचू २ पृ ३९८) । गावण्ण-पचपन की संख्या (भ २।१२१; दे ६।२७)। जसक-१ थाली के आकार का पात्र (अंवि पृ ६५) । २ नकुलिका का
एक प्रकार (अंवि पृ २२१)। पणहय-पीना (निर ४ टी पृ ३४) । पणामणिआ-स्त्री-विषयक प्रणय (दे ६।३०) । पणाली-देह-प्रमाण यष्टि (प्रटी प ५८) । पणिअ--प्रकट, स्पष्ट (दे ६।७) । पणिआ-करोटिका, सिर की हड्डी (दे ६३)। पणुल्लिअ-प्रेरित (पा १४७) । पणोल्लि-प्राजनक, चाबुक (प्र ३।१५) । पण्ण-पचास (स्था ७११२८।१)। पण्णगार-शर्त (निचू ३ पृ १४०)। पण्णत्त-१ बीज-वपन के योग्य भूमि (औप १)। २ परिकमित
(सूर्यटी प २६३)। ३ स्वस्थ-'सो य (अस्सो) पण्णत्तो'
(निचू ४ पृ ३०४)। पण्णा -पचास (सम ४६।१)। पण्णास-पचास (सम ५०।२)। पण्णासय-पचास वर्ष की उम्र वाला (तं ५७) । पण्णी-एक प्रकार की नावा (निचू १ पृ ७२) । पण्णेलिका-आभूषण-विशेष (अंवि पृ ११६) । पण्हअ-स्तन-धारा (दे ६।३)। पतिरिक्क-१ एकांत- देशीभाषया एकान्ते' (उशाटी प ६६५) । २ प्रचुर
(बृभा ५२९७) । ३ यथेच्छ, अकेला (आवहाटी १ पृ ४३) । पतज्ज-प्राणी-विशेष के रोओं से बना वस्त्र-'पाणजोणिगतं वत्थं तिविध
माधारये कोसेज्जं पतुजं आविकं चेति' (अंवि पृ १६३) । पतोप्पय-शिष्य (भ ११११६२ पा)।
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देशी शब्दकोश
२६६
पत्तउर-गुच्छ वनस्पति-विशेष (प्रज्ञा १३६।३) । पत्तंबेल्लि-खाद्य-विशेष (वि पृ ७१) । पत्त-१ कुशल, बहु-शिक्षित (भ १४१३; दे ६।६८) । २ सुन्दर
(दे ६६६८)। पत्तण-१ बाण का अग्रभाग । २ पुंख, बाण का मूल भाग (दे ६।६४)। पत्तणा-१ पुंख में की जाने वाली रचना-विशेष (से ७.५२) । २ इषु
फलक । ३ बाण का मूल भाग, पुंख (से १५।७३) । पत्तपसाइआ–पत्तियों की एक तरह की पगड़ी जिसे भील लोग पहनते हैं
(दे ६२)। पत्तपिसालस-पत्तियों की एक तरह की पगड़ी जिसे भील लोग पहनते हैं
पत्तरक-आभूषण-विशेष (प्रटी प १४६)। पत्तल-१ तीक्ष्ण, तेज (औप ४७; दे ६.१४) । २ कृश (वृ) । पत्तला-राजपत्र, अधिकार-पत्र-'समप्पिज्जंति सेवयाणं महापडिहारेहि
___ गाम-णयर-खेडकब्बड-पट्टणाणं पत्तलाओ त्ति' (कु पृ १८) । पत्तवासित-बंधा हुआ (निच ४ पृ २२१)। पत्तादार-त्रीन्द्रिय जन्तु-विशेष (प्रज्ञा १।५०)। पत्तिसमिद्ध-तीक्ष्ण (दे ६।१४) । पत्ती-पत्तों की बनी हुई एक तरह की पगड़ी जिसे भील लोग पहनते हैं
पत्तुण्ण-वल्कल से बना हुआ वस्त्र (आचूला ५।१४)। पत्तुल्लक-भाजन-विशेष-'सा तीए रुट्टाए पत्तुल्लकाणि धोवेंतीए मसिलित्तण
हत्थेण' (दअचू पृ ४७) । पत्थर–पाद-प्रहार-एस परक्कपडीरो पत्थरकुसलेण पड्डुअं दिन्तो'
(दे ६।८ वृ)। पत्थरभल्लिअ--कोलाहल करना (दे ६।३६) । पत्थरा-चरण-घात, पाद-प्रहार (दे ६।८)। पत्थरिअ-पल्लव, कोंपल (दे ६।२०)। पत्थार-विनाश-पत्थारो णाम कुल-गण-संघविणासो भण्णति'
(निचू १ पृ ११६)। पत्थारी-१ समूह । २ प्रस्तर, शैय्या (दे ६।६९) । पथारी (गुज),
पथरणा (राज)।
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२७०
देशी शब्दकोश
पत्थिआ–१ काष्ठ की बड़ी पट्टिका (ओनि ४७८) । २ बांस का बना बड़ा
भाजन (टी पृ ३७४) । पत्थिय-१ पुष्प-करंडक-पुप्फचयं करेइ, पत्थियं भरेइ' (अंत ६।२१) ।
२ शीघ्र (दे ६।१०)। पत्थियपिडग-बांस का बना हुआ भाजन-विशेष (विपा ११३।२०) । पत्थीण-१ मोटा कपड़ा (दे ६।११) । २ स्थूल (व)। पथरा--शस्त्र-विशेष (कु पृ २७४) । पदकणु-आभरण-विशेष-'पदकणु इत्ययं शब्दो देशभाषायाः प्रतीयते'
(राजटी पृ ४८)। पद्म-जल में रहने वाला प्राणी-विशेष (अंवि पृ २२७) । पदोलि-यान-विशेष-संदण-रध-वलभी-पदोलि-पवहण ....' (अंवि पृ २००) । पह-१ ग्राम-स्थान (दे ६३१) । २ छोटा गांव (पा ३६६) । पहिया-अभिनव प्रसूता महिषी (व्यभा ४१३ टी प १०)। पद्धर-१ ऋजु, सरल (दे ६।१०) । २ शीघ्र । पद्धार-जिसकी पूंछ कटी हुई हो वह (दे ६।१३) । पधकली-वनस्पति-विशेष (अंवि पृ २३२) । पनक-सूक्ष्म पंक (प्रटी प ६५)। पन्नग-दुर्गन्धित-'कटुयं तेल्लं तु पन्नगतिलाणं' (व्यभा ३ टी प १०६) । पन्नाडिअय--मसला हुआ (पा ५०२) । पप्पड–पर्पट, पापड़ (प्रसा ४३४)। पप्पडग-गीली मिट्टी के सूख जाने पर उसके ऊपर की तह (निचू १ पृ ६१)। पप्पडिग-खाद्य वस्तु-विशेष (जीभा १५३७) । पप्पडी-गीली मिट्टी के सुख जाने पर उसके ऊपर की तह (निचू १ पृ ६१)। पप्पीअ-चातक-पक्षी (दे ६।१२)। पप्फाड-अग्नि का एक प्रकार (दे ६।६) । पप्फिडिअ-प्रतिफलित (दे ६।२२)। पप्फुअ-१ दीर्घ, लंबा । २ उड्डीयमान, उड़ता हुआ (दे ६।६४)। पप्फोडिअ-१ झाड़ा हुआ, निओटित (दे ६।२७) । २ तोड़ा हुआ। पन्भार-१ ईषत् कुब्ज (प्रज्ञाटी प ७३) । २ संघात, समूह (दे ६।६६) ।
३ गिरि-गुहा, पर्वत-कन्दरा-'पब्भारकंदरगया साहिती अप्पणो अट्ठ' (महा ८१; दे ६।६६) । ४ आधा (से ॥१८) । ५ अंश (से ४।६) । ६ उपरि भाग (से ४।२०)।
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देशी शब्दकोश
२७१ पब्भारगय-अवनत, झुका हुआ-'ईसिं पब्भारगएणं कारणं'
(अंत ३८५)। पभोग-भोग, विलास (दे ६।१०)। पभवाल-तरु-विशेष (जंबूटी प ६८) । पम्हट्ठ-१ प्रस्मृत, विस्मृत-'अडवीए तण्हाए अभिभूए समाणे पम्हट्ठ
दिसाभाए' (ज्ञा १।१८।४७) । २ प्रभ्रष्ट, विलुप्त (से ४१४२) । ३ परिष्ठापित, प्रक्षिप्त-'पम्हट्ट ति परिठवियं ति एगलैं'
(व्यभा ८ टी प २६)। पम्हर-अपमत्यु, अकाल-मरण (दे ६।३) । पम्हल-कमल-केसर, किजल्क (दे ६।१३) । पम्हार-अपमृत्यु (दे ६॥३) । पम्हट्ट-१ विस्मृत-किंय तयं पम्हुळं, जंथ तया भो ! जयंतपवरम्मि ।
वुत्या समयणिबद्धा देवा तं संभ रह जाई ।' (ज्ञा १।८।१८०)। २ गिरा हुआ-पम्हुढें णाम पडियं वीसरियं वा'
(निचू २ पृ ४६१)। पम्हुसाविय-विस्मारित (उसुटी प १६)। पयंचुल-मछली पकड़ने का जाल-विशेष (विपा १।८।१६) । पयट्रिअ-प्रवर्तित (दे ६।२६) । पयडी-नारियल की छाल-पयडी-णालिएरिचोदय' (निचू २ पृ ३८) । पयडणी-१ प्रतिहारी, द्वाररक्षिका । २ आकृष्टि, आकर्षण । ३ चिरप्रसूता
महिषी (दे ६१७२)। पयय-प्रतिदिन, निरंतर (दे ६।६) । पयरग-पैरों का आभूषण-विशेष (जीवटी प १४७) । पयरण-प्रथम दी जाने वाली भिक्षा (बृभा ३५४८) । पयरीक्क–१ सुन्दर । २ अव्याबाध, एकान्त (उचू पृ ६६) । पयरेक्क-१ सुन्दर । २ अव्याबाध, एकान्त (उचू पृ ६९)। पयल-नीड, घोसला (दे ६७)। पयला–१ खड़े या बैठे हुए जो निद्रा आए वह (स्था १३१४) । २ निद्रा
(दे ६६) । ३ भुजपरिसर्प का एक प्रकार (अंवि पृ २२६) । पयलाअ-१ हर, महादेव । २ सांप (दे ६७२)। ३ भुजपरिसर्प की एक
जाति (जीवटी प ४०)। पयलाइय-हाथ से चलने वाले जन्तु की एक जाति (सू २।३।८०) ।
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२७२
पयलाक परिसर्प की एक जाति (अंवि पृ २२६ ) । पयलापयला - चलते-फिरते जो नींद आए (स्था | १४ ) ।
पयलायभत्त - मयूर (दे ६।३६ ) |
पयल्ल - प्रसृत, फैला हुआ ( पा ५३३ ) ।
पवई - सेना (दे ६।१६) ।
पयसाडी- -- द्राक्षा डालकर पकाया गया दूध ( प्रसाटी प ५४ ) ।
पया - चूल्हा (व्य 88 ) 19
पयाम - अनुक्रम (दे ६।९ ) ।
पयुका - आभूषण - विशेष (अंवि पृ ७१ ) ।
पयुमक - उद्भिज्ज जंतु विशेष (अंवि पृ २२९ ) ।
यो परिहार - - मरकर पुनः उसी शरीर में बार-बार उत्पन्न होना ( आवचू १ पृ २९ ) ।
परक्क - लघु स्रोत (दे ६८ ) |
देशी शब्दकोश
परग - १ बांस की बनी हुई टोकरी, छाब आदि (आचूला १ । १४२ ) । २ तृण - विशेष ( सू २/२४) । ३ धान्य- विशेष ( सू २२६ ) | परज्झ - - १ परतन्त्र - 'जे संखया तुच्छ - परप्पवाई, ते पिज्जदोसाणुगया परज्झा' ( उ ४|१३) । २ अपराध ( ज्ञा ११२१४५ ) । ३ पात्र - विशेष - 'अलंदिगा वा कुंडगं वा परज्झं मणिमयमादी विरूवरूवभायणाणि' (आचू पृ ३४५) ।
परज्झा - परतन्त्रता, पराधीनता (स्था १०११०८ ) । परडा -- विशेष प्रकार का सर्प (दे ६ ५) ।
परत्तिका - वस्त्र - विशेष (अंवि पृ ७९ ) ।
परद्ध - १ पीड़ित - अणुबद्धखुहा परद्धा' ( प्र ३।१७ ) । २ पतित, गिरा हुआ । ३ भीरु (दे ६ ७० ) । ४ व्याप्त ।
परब्भंत - निषिद्ध, निवारित ( निचू २ पृ १७७) ।
परब्भस - घिरा हुआ - 'चोरो य णगरारक्खेण परब्भसमाणो तत्थेव अतिगतो' ņ(निचू १ पृ १६) ।
परभाअ - रतिक्रीडा, मैथुन (दे ६।२७) ।
परमासक - पैरों का आभूषण- विशेष (अंवि पृ ६५) ।
परसुहत्त - वृक्ष (दे ६।२९ ) ।
परस्सर - १ दीर्घं नाखून वाला पशु- विशेष । २ गेंडा ( प्रज्ञा १०६६ ) ।
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देशी शब्दकोश
परहुत्त- त - पराजित ( कु पृ १७३) । -परा- तृण विशेष ( प्र ८१० ) |
परासर -- शरभ, महाकाय पशु- विशेष जो हाथी को भी अपनी पीठ पर उठा लेता है (टीप ६ ) ।
पराहुत्त — पराङ्मुख- 'वविखत्तपराहुत्ते अ पत्ते मा कया हु बंदिज्जा' ( आवनि १९६८ ) ।
परिअट्ट - धोबी, रजक (दे ६।१५) । परिअट्टलिअ - परिच्छिन्न (दे ६।३६ ) |
परिअडी - १ वृति, बाड | २ मूर्ख (दे ६ ७३) ।
परिअत्त- प्रसृत, फैला हुआ - 'सव्वा सण - रिउसंभवहो करपरिभत्ता ताव' (प्रा ४।३६५) ।
परिअर - लीन, आसक्त (दे ६।२४ वृ ) । परिअली - थाली, भोजन-पात्र (दे ६ । १२) । परिउत्थ -- प्रवास पर गया हुआ (दे ६।१३) ।
परिकलिय - एक स्थान पर एकत्रित किया हुआ (पिनि २३९ ) । परिकल्ल -- धान का ऐसा ढेर जो राख या गोबर- जल से संस्कारित नहीं है (बृभा ३३१२) ।
परिक्खार - १ उत्तम । २ प्रचुर - कोऽत्थ परिक्खारं देज्ज वस्त्राणि ?' ( सूचू १ पृ २०१) ।
परिबंध -काहार, जल आदि लाने वाला नौकर (दे २।२७) । परिगोह - १ आसक्ति । २ कीचड़ - परिगोहो णाम परिष्वङ्गः, दव्वे परिगोहो पंक' ( सूचू १ पृ ६३ ) |
परिघासिय - गुण्डित, लिप्त - 'रयसा वा परिघासियपुव्वे' (आचूला १।३५) । परिघोलण - विचार - ' उव ओगट्टिसारा, कम्मपसंगपरिघोलणविसाला । साहुक्का रफलवती कम्मसमुत्था हवति बुद्धी ॥' (नंदी ३८१८) 'परिघोलनं - विचारः' (टी पृ ४८ ) ।
परिच्छड - विधि, वृत्तान्त ( निचू १ पृ ६) ।
परिच्छूढ -- १ उत्क्षिप्त (दे ६ । २५ ) । २ परित्यक्त ( से १३।१७ ) |
परिच्छेक - लघु (ज्ञाटी प२२८ ) ।
२७३
परिज्जु सित - बुभुक्षित (निचू २ पृ १२७) ।
परिज्जु सित - बुभुक्षित ( निचू २ पृ १२७ ) ।
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२७४
देशी शब्दकोश
परिण---पण्य, बेचने योग्य वस्तु (अंवि पृ २५३) । परित्थड---विधि, वृत्तान्त-'दिट्ठो य रण्णो अंबगहणपरित्थडो'(निचू १ पृ.)। परिपदणय-अभिनय-'सा अप्पणो परिपदणयं करेति' (आवचू १ पृ ५२५) । परिपरि-वाद्य-विशेष (नि १७।१३६) । परिपरिया--वाद्य-विशेष (राज ७१ पा) । परिपिरिया-वाद्य-विशेष (भ ५।६४ पा) । परिपूणक-१ सुघरी नामक पक्षी का घोसला। २ घी छानने का साधन
सुघरी पक्षी के घोसले से घी छाना जाता है। घी का कचरा भीतर रह जाता है और घी छनकर बाहर आ जाता है'परिपूणको नाम सुघरीचिटिकाविरचितो नीडविशेषः, तेन च घृतं गाल्यते ततस्तत्र कचवरमवतिष्ठते घतं तु गलित्वा अधः
पतति' (नंदीटि पृ १०५)। परिपूणग- छानने का एक साधन जिससे घेवर का घोल' छाना जाता है।
सार-सार नीचे झर जाता है और कल्मष अन्दर रह जाता है'परिपूणको नाम येन घृतपूर्णयोग्यं पानं गाल्यते, तत्र सारो
गलति कल्मषं तिष्ठति' (बृटी पृ १०४) । परिभंत-१ निषिद्ध । २ भीरु (दे ६।७२)। परिब्भुसित-बुभुक्षित -'अहवा वि परिब्भुसितस्स मणुण्णं होति पंतं पि'
(निचू २ पृ १२७) । परिमास-नौका का काष्ठ-विशेष (ज्ञाटी प १६६)। परियच्छ-दलाल (स्थाटी प ३६) । परियल्ल-परत (निभा ५८०१)। परियाण-परिपूर्ण-'देंति फलं विज्जाओ, परिसाणं भागधेज्जपरियाणं ।
न हु भागधेज्जपरिवज्जियस्स विज्जा फलं देति ॥' (चं १८) । परिरय-१ पर्याय, समानार्थक शब्द-एगपरिरयं ति वा एगपडिरयं ति वा
एगपज्जायं ति वा एगणाम भेदं ति वा एगट्ठा' (आवचू १ पृ २६) । परिलिअ-लीन, आसक्त (दे ६.२४) । परिली-१ मुंह की हवा से बजाया जाने वाला एक प्रकार का बाजा
'फूमिजताणं वंसाणं तेलूणं वालाणं परिलीणं बद्धगाणं'
(राज ७७) । २ गुच्छ वनस्पति की एक जाति (प्रज्ञा ११३७१५) । परिल्ल-अपर (से ६।१७) । परिल्लवास–अज्ञात गति वाला (दे ६।३३) :
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देशी शब्दकोश
२७५ परिवच्छ-अवधारण, निश्चय-परिवच्छि त्ति देशीशब्दोऽयं निर्णयार्थे वर्तते
(बृटी पृ ६१५) । परिवारिअ-घटित (दे ६।३०) । परिवास-खेत में सोने वाला पुरुष (दे ६।२६) । परिवाह-दुविनय, अविनय (दे ६।२३) । परिसित्तिय-पानक-विशेष (निभा १६६३)। परिसिल्ल-परिषद् वाला-'परिसिल्लस्स तु परिसा' (निचू ४ पृ ७७)। परिह-रोष, क्रोध (दे ६१७) । परिहच्छ-१ पटु, निपुण । २ क्रोध (दे ६.७१) । परिहट्रि-आकृष्टि, आकर्षण (दे ६।२१)। परिहण--परिधान, वेश (दे ६।२१)। परिहत्थ-१ जलजन्तु-विशेष (प्र ३१२३) । २ दृप्त (ज्ञा १।१३।१७) ।
३ परिपूर्ण- परिहत्थशब्दो देश्यः परिपूर्णतार्थे'
(राजटी पृ १२४)। परिहत्थग–जलजंतु-विशेष-'जलचर-पहगर-परिहत्थग-मच्छ....'
(दश्रु ८।३०)। परिहत्थत्तण-दक्षता, निपुणता-'अहो, पेच्छ पेच्छ वणिय-धूयाए
परिहत्थत्तणं' (कु पृ २३२)। परिहरण-परिधान (स्था ५॥१३१) । परिहलाविम-जल-निर्गम, मोरी, नाला (दे ६।२६) । परिहाअ-क्षीण, दुर्बल (दे ६।२५) । परिहार-परिभोग (भटी पृ १२२७) ।। परिहारइत्तिआ-ऋतुमती स्त्री, रजस्वला नारी (दे ६।३७) । परिहारिणी-चिरकाल से व्याई हुई भैंस (दे ६।३१) । परिहाल-जल-निर्गम, मोरी, नाला (दे ६।२६)। परिहेरक--१ जंघा का आभरण-विशेष-'जंघासु गंडूपयकं णीपुराणि
परिहेरकाणि' (अंवि पृ १६३) । २ पांव का आभरण-विशेष
(औपटी पृ १०३)। परीयल्ल–वेष्टन (ओनि ७०६) । परीसह–नापित (व्यमा ४।३ टी प २१)। परेअ-पिशाच (दे ६।१२) ।
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२७६
परेवय- - प्रणिपात करना, चरण-स्पर्श करना (दे ६ | १८ ) ।
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परोहड --- घर का पिछला आंगन ( ओनि ४१७; पा ९३४) | पल - स्वेद, पसीना (दे ६।१) ।
पलंजी -- भूसा, छिलका - 'जहा धन्नेसु पलंजी' (उसुटी प १०९) । पलग - पात्र - विशेष (आचू पृ ३४४ ) |
पलस - १ कार्पास- फल । २ स्वेद, पसीना (दे. ६ | ७० ) ।
4:
पलसु - सेवा, भक्ति (दे ६१३) ।
--
पलहिअ - १ विषम, असम (दे ६।१५) । २ चारदीवारी से घिरा हुआ ; मकान । (वृ) ।
पलही - कपास (दे ६।४) ।
पलाअ - चोर (दे ६८ ) ।.
पलाडीका - पक्षिणी - विशेष (अंवि पृ ६९ ) । पलाल - लेह्यभोज्य (अंवि पृ १८२ ) ।
पलासि - भल्ली, छोटा भाला (दे ६।१४ ) |
देशी शब्दकोश
पलासिया- -छाल की बनी हुई बांसुरी ( सू १|४ | ३८ ) ।
पलिगोव - कीचड़ - महया पलिगोवं जाणिया जा वि य वंदण - पूयणा इहं' ( सू १/२/३३) ।
पलिट्ठ- -१ फलक, तख्ता ( दजिचू पृ १७५) । २ उत्तम, अच्छा - 'पलिट्ठ पज्जत्तं दव्त्रं पलोएति' ( निचू २ पृ २०६ ) ।
पलिय - - १ कर्म - अणुवीइ पास णिक्खित्त दंडा, जे केइ सत्ता पलियं चयंति' ( आ ४।२७) । २ निंदित आचरण - 'पलियं ति कर्म जुगुप्सित मनुष्ठानम्' (टीप २४१ ) ।
पलियट्ठाण - कर्मस्थान, कारखाना ( आ ध२२ ) । पलिहअ -- मूर्ख (दे ६।२० ) |
पलिहस्स - ऊर्ध्व दारु, काष्ठ- विशेष (दे ६।१६ ) |
प्रलिहाअ ऊर्ध्व दारु, काष्ठ- विशेष (दे ६।१६ ) ॥
* सलोट्टजीह - रहस्य-भेदी, रहस्य को प्रकट करने वाला (दे ६।३५) । पलोत्थित - उभरा हुआ, भरा हुआ (अंवि पृ २४३ ) |
पल्ल - धान्य भरने का कोठा (बूटी पृ ६२६ ) ॥
मल्लग - धान्य रखने का बडा कोठा- 'पल्लगत्ति पल्लको नाम लाटदेशे
-
धान्याधारं भवति' (आवमटी प ६८ ) |
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देशी शब्दकोश
२७७
पल्लट-१ चलित, पर्यस्त (प्र ६।२) । २ काल-विशेष । पल्लत्थ—पर्यस्त (से २।५) । पल्लत्थिया-पालथी का आसन (उशाटी प ८)। पल्लवग्ग-पर्यव-परिमाण-'पल्लवग्गोत्ति पर्यवपरिमाणं' (समटी प १०५) । पल्लवाय-क्षेत्र, खेत (दे ६।२६)। पल्लविअ-लाख से रंगा हुआ (दे ६।१६)। पल्लालिय-बेसवार का एक घटक (निचू २ पृ ६५)। पल्लालु-फल-विशेष (अंवि पृ २३८) । पल्लालुक-वृक्ष-विशेष (अंवि पृ ७०) । पल्लुल-कठोर शब्द, उत्त्रास पैदा करने वाले शब्द-'पल्लुलं भणंति-हण
छिन्द भिन्दधत्ति मारेत्ति पचे-पचे त्ति' (सूचू १ पृ १३६)। पल्लोट्ट-प्रवृत्त, उत्पन्न-'तुरियपहाविअ-पल्लोट्टफेणाउल-पल्लोट्ट त्ति प्रवृत्तः
उत्पन्न:' (ज्ञा ११११३३ टी प २६)। पल्लोय-द्वीन्द्रिय कीट-विशेष (उ ३६।१२६) । पल्ह—अनार्य देश की एक जाति (भ ३।६५) । पल्हथिअ-विरेचित, रिक्त (पा ५९२) । पल्हत्थी-साधु का एक उपकरण (जीविप पृ ५०) । पल्हवि---एक प्रकार का वस्त्र जो हाथी की पीठ पर बिछाया जाता है
(जीभा १७७०)। पल्हविया-देश-विशेष की दासी (ज्ञा ११११८२)। पवड्डय--पर्दा, चटाई-'कुटिका-पवडकेन कटकेन पश्यति' (ओटी प ५२) । पवद्ध-घन, हथौड़ा, लोहे को कूटने का साधन (दे ६।११)। पवरंग-शिर, मस्तक (दे ६।२८)। पवलाइया-भुजपरिसपिणी (जीव २।६)। पवहाइअ-प्रवृत्त (दे ६।३४) । पविआ-पक्षियों के पानी पीने का भाजन (दे ६।४)। पवित्तय-१ अंगूठी (भ २।३१)। २ तांबे की अंगूठी-'पवित्रकं ताम्रमय
मंगुलीयकम्' (ज्ञाटी प ११७)। पविरइअ-त्वरित, वेगयुक्त (दे ६।२८)। पविरंजिअ–१ स्निग्ध, स्नेहिल । २ कृत-निषेध, निवारित (दे ६।७४) ।
३ भांगा हुआ (वृ)।
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-२७८
पविरल्लिय - विस्तृत ( प्र ५। १ ) । पविराय - प्रस्फुटित ( जीव ३।११८ ) ।
पविरेल्लिय - विस्तारवाला (प्रटी प ६३) ।
पवीसण वाद्य विशेष- 'तंतीवीणा पवीसगादि ततंति भांति (दश्रुचू प १) ।
पवत्थ - १ प्रवासी (बृटी पृ ५३ ) । २ घर |
पव्वइसेल्ल - बालमय कंडक ( कंदुक ? ), शृंगार के लिए बालों में लगाया जाने वाला एक उपकरण ( दे ६ | ३१ ) - पडुजुवईण णिमित्तं पव्वइसेल्लाइ गुम्फेइ' (वृ) ।
पव्वज्ज--- १ नाखून, नख । २ बाण । ३ मृग- शावक (दे ६) ६९ ) ।
पव्वडिया - भिडने की क्रिया - विशेष ( निचू ३ पृ ३४८ ) |
पव्वाय - म्लान, अर्द्धशुष्क- ववहारस्स य सेसो मीसो पव्वायरोट्टाई' ( पिनि ४४ ) ।
पव्वालिय- प्लावित, जल- व्याप्त ( पा १३६ ) । पविद्ध- प्रेरित (दे ६।११) ।
पव्वीसग - वाद्य विशेष ( प्र ४ । ४ ) ।
देशी शब्दकोश
पव्वणि सम्मुख - 'तण्हाइयस्स पाणं जोग्गाहारं च नेइ पब्वोणि' ( व्यभा ६ टीप ५३)।
पसंडि - स्वर्ण, कनक ( दे ६।१० ) ।
पसढ - जो विक्रेय वस्तु बहुत दिनों तक न बिकी हो (द ५।१।७२ ) । पसत- -१ मृग - विशेष । २ अटवी का प्राणी-विशेष (अंवि पृ २३९ ) । ३ गवय (अंवि पृ २३८ ) ।
पसति -- गवयी, नीलगाय (अंवि पृ ६९ ) ।
पसय - १ मृग - विशेष (भ ८ । १०३ ; ६४ ) । २ जंगली पशु- विशेष'आटविको द्विखुरः चतुष्पदविशेष:' (अनुद्रामटी प ३५) । ३ मृग - शिशु ( विपा १।४।१६ ) ।
पसर
-१ प्रातः काल - 'अहो समतिरेगं रंधिज्जासु जेण एयाणं पसरवेलाए आगयाणं होइत्ति' (ओटी प १४८) । २ वस्त्र - विशेष (अंवि पृ ७१ ) ।
पसरेह - किञ्जल्क, कमल - केसर ( दे ६।१३) । पसल चित्त - क्षुद्र जंतु - विशेष (अंवि पृ २२६) । पसल्लिय - पार्ववर्ती ( अंवि पृ १८४) ।
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पसवडक्क--विलोकन, देखना (दे ६।३०)। पसाइया-पत्तों की बनी हुई एक प्रकार की पगडी जिसे भील सिर पर पहनते
हैं (दे ६०२)। पसाणग-उपकरण-विशेष (अंवि पृ १९३)। पसिडि - सोना, स्वर्ण (पा ८०) । पसिय-सुपारी (भ २२।२ पा; दे ६।६) । पसिव्विका-थैली का एक प्रकार (अंवि पृ १७८) । पसुत्ति-एक प्रकार का कुष्ठरोग (निचू ३ पृ ३६२) । पसुहत्त--वृक्ष (दे ६।२९)। पसूअ-कुसुम, पुष्प (दे ६।६)। पसूइ-धान्य-विशेष-'सालि पसूई व गद्दभिया य छिन्ना'
(आवहाटी १ पृ २६०)। पसेवअ-ब्रह्मा (दे ६।२२)। पसेव्वक-थैला (अंवि पृ २२१) । पस्सिण्ण--पसीने से गीला-तिलगो से खमगललाई पस्तिण्णं संकंतो'
(दअचू पृ २५)। पहएल्ल-अपूप, पूआ (दे ६।१८) । पहकर-समूह-'पहकरो ति देशीशब्दोऽयं समूहवाची' (जंबूटी प १४५) । पहगर-जलजंतु-विशेष-'जलचर-पहगर-परिहत्थग-मच्छपरिभुज्जमाणजल
संचय' (दश्रु ८।३०)। पहट्ट-१ दृप्त, उन्मत्त (तंदु पृ ४५; दे ६६) । २ अचिरतर दृष्ट । पहण-कुल (दे ६।५)। पहणि-सामने आए हुए का निरोध, रुकावट (दे ६१५)। पहद-सदा दृष्ट, सदा देखा हुआ (दे ६।१०)। पहम्म-१ देवताओं द्वारा खोदा हुआ (दे ६।११) । २ खात जल-कुण्ड ।
३ विवर, छिद्र-'मणिपहम्म'-'मणिमयं विवरं यद्वा मणीनां प्रथमः ___ खात इति देशी' (से ६।४३)। पहयर-समूह, निकर (दे ६।१५)। पहिअ-मथित, विलोडित (दे ६।६)। पहेण ---१ विवाह के समय वधू के पीहर (पितृगृह) में किया जाने वाला
भोज । २ अन्य घरों में ले जाई जाने वाली भोजन-सामग्री। ३ जो
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देशी शब्दकोश
भोज्य पदार्थ वर के घर से वधू के घर में ले जाया जाता है वह । ४ अन्य घरों से वर-वधू के घर में ले जाई जाने वाली भोजन-सामग्री (निचू ३ पृ २२३)। ५ खाद्य वस्तु का उपहार-'पहेणंति वा उक्खित्तभत्तंति वा एगट्ठा' (आचू पृ ७७)। ६ उपानत्, जूता
(व्यभा १० टी प ७३) । ७ उपहार । ८ उत्सव (अंवि पृ २६८) । पहेणग-वस्तु की भेंट, विवाह अथवा उत्सव के उपलक्ष में किसी दूसरे घर
से भेंट स्वरूप प्राप्त भोजन-विशेष (पिनि ३३५)। पहेणय-१ खाद्य वस्तु का उपहार (ओनि १०३; दे ६७३) । २ उत्सव
(दे ६१७३)। पहेरक-आभूषण-विशेष (प्र १०।१४) । पहोइअ-१ पर्याप्त (दे ६।२६) । २ प्रभुत्व (वृ)। पहोलिर-इधर-उधर फेंकने वाला (से ११।१२) । पाअ-रथ का पहिआ, रथचक्र (दे ६।३७)। पाइअ--मुंह फाड़ना, मुंह बाना (दे ६।३६) । पाइणग-चाबुक-'तुत्तयघातैश्च विषमवाहोऽथ पीड्यते, तुत्तगो-पाइणगों
(आवहाटी २ पृ २०५) । पाइल्लग-१ चटाई बनाने का लोहमय ओजार (उशाटी प १६५) ।
२ छेदन करने का साधन, चाकू आदि (निचू २ पृ ५)। पाउ-१ भोजन । २ ईक्षु (दे ६७५) । पाउअ—१ हिम (दे ६।३८) । २ भोजन । ३ ईक्षु (दे ६७५ )। पाउक्क-मार्गीकृत, प्रकटित (दे ६।४१) । पाउक्खालय-१ पाखाना, मलोत्सर्ग-स्थान-पाउक्खालयगेहे दुग्गंधेऽणेगसो
वसिओ' (भत्त ११२) । २ मलोत्सर्ग-क्रिया। पाउग्ग-सभ्य, सभासद (दे ६।४१)। पाउग्गिअ-१ जुआ खेलाने वाला (दे६।४२) । २ सहन करने वाला
पाउग्गिओऽपि सोढः' (वृ)। पाउरणी-- कवच, बख्तर (दे ६।४३) । पाउल्ल-१ काष्ठ-पादुका (सूचू १ पृ ११८) । २ मूंज से निर्मित पादुका
(सूटी १ प ११८)। पाउल्लग-१ काष्ठपादुका-'पाउल्लगाई ति कट्ठपाउगाओ'
(सूचू १ पृ ११८) । २ मूंज की बनी पादुका (सूटी १ प ११८) ।
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देशी शब्दकोश
२८१ पाए-प्रभृति, वहां से प्रारम्भ कर-'जत्तो पाए खेत्तं, गया उ पडिले हगा ततो
पाए' (बृभा १५३८) । पांडविअ-पानी से आर्द्र (दे ६।२०)। पागडा-पैर का आभूषण-'चरणमालिका—संस्थानविशेषकृतं पादाभरणं
___ लोके पागडा इति प्रसिद्धं' (जंबूटी प १०६) । पाघट्टिका-पैर का आभूषण-विशेष, पायजेब (संवि पृ ७१) । पाट्टालिका-पाढल का फूल (अंवि पृ ७०) । पाडच्चर-आसक्त चित्तवाला (दे ६।३४) । पाडल -१ हंस । २ वृषभ । ३ कमल (दे ६१७६) । पाडलसउण-हंस (दे ६।४६) । पाडलसउणय-हंस (दे ६।४६ वृ) । पाडवण--पाद-पतन, प्रणिपात (दे ६।१८) । पाडिअग्ग ---विश्राम (दे ६।४४)-'रे हलिय ! पाडिअग्गं कुण इण्हि' (व)। पाडिअज्झ--पिता के घर से वधू को पति के धर ले जाने वाला
(दे ६।४३) । पाडिया--उत्तरीय वस्त्र (भ १५॥५१) ।। पाडिसार-पटुता, निपुणता (दे ६।१६) । पाडिसिद्धि -१ स्पर्धा । २ सदृश । ३ समुदाचार (दे ६१७७) । पाडिसिरा-खलीनयुक्त (दे ६।४२) । पाडिहच्छी-मस्तक की माला (दे ६।४२ व)। पाडिहत्थी-मस्तक पर स्थित माला (दे ६१४२ व)। पाडुकी-व्रणी-शिविका, घायल के लिए बैठने की शिविका (दे ६।३६) । पाड्गोरि--१ विगुण, गुणहीन । २ मद्य में आसक्त। ३ मजबूत वेष्टन वाली
बाड (दे ६।७८)-'यदाह-पाडुंगोरी च वृतिर्दीर्घ यस्या विवेष्टनं
परितः' (वृ)। पाडक्क-१ समालंभन, शरीर पर चन्दन आदि का उपलेप। २ पटु, निपुण
(दे ६१७६)। पाडुच्चिय --सजा हुआ अश्व (दे ६।३६ )। पाडुच्ची-अश्व-मंडन, अश्व को सजाना (दे ६।३९) । पाडहअ-१ साक्षी (आवहाटी १ पृ ४२) । २ प्रतिभू, जमानत करने वाला
(दे ६।४२)। पाढा-वनस्पति-विशेष (भ २३।६)।
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देशी शब्दकोश
-
-१ भाजन - विशेष - पाणशब्देन भाजनविशेष उच्यते' ( अनु ३।३८ टी ) । २ चाण्डाल- 'पाणा नाम ये ग्रामस्य नगरस्य च बहिराकाशे वसन्ति तेषां गृहाणामभावात्' (व्यभा ४ | ३ टीप २१; दे ६।३८ ) । ३ वृक्षविशेष (अंवि पृ ६३ ) |
२८२
पाण
पाधि - आने-जाने का मार्ग - पाणंधीति देशी पदमेतत् वर्तिनीवाचकं' ( व्यभा ४/२ टी प ८ ) ।
पाणद्धि - रथ्या, गली (दे ६ ३९ ) ।
पाणाअअ - श्वपच, चांडाल ( दे ६।३८ ) ।
पाणामा – १ सबको प्रणाम करने की पद्धति से अनुप्राणित प्रव्रज्या का एक प्रकार । (भ ३।३४) । २ वैनयिकवादियों का एक भेद ( सूचू १ पृ २०७ ) ।
पाणाली - दोनों हाथों का प्रहार (दे ६।४०) । पाणी - वल्ली - विशेष ( प्रज्ञा १|४०|४) । पाण्यक - द्वीन्द्रिय जंतु - विशेष (अंवि पृ २३७ ) । पातंक - मुद्रा - विशेष, सिक्का (नंदीटि पृ १४२) । पातिक - त्रीन्द्रिय जंतु - विशेष (अंवि पृ २६७) । 'पातिज्ज - उत्सव विशेष ( ? ) ( अंवि पृ ८ ) । पादहडि - पैरों को हिलाना, आगे-पीछे करना, पैरों से कुचेष्टा करना'हत्थ णट्ट - पादकुहडि- सरीरमोडणाति परिहरतो' (दअचू पृ १९६ ) । पादखडुयग - पैर का आभूषण - विशेष, बिछुआ (अंवि पृ ६५ ) । पापढकपैरों का आभूषण - विशेष (अंवि पृ ६५) । 'पापहिक - सर्प की एक जाति (अंवि पृ ६३) ।
पामद्दा – पैरों से धान्य को मसलना (दे ६ |४० ) ।
पामाड -- माड का पेड़ (पा ३७० ) ।
पामिच्च – उधार लिया हुआ - "कीयं पामिच्चं अच्छेज्जं अणिसट्ठ
( आ ८।२१) ।
पामिच्चय- - उधार लिया हुआ ( आचूला १०।११) । पामेच्छा - वनस्पति- विशेष (अंवि पृ ६२ ) ।
पाय - १ रथ-चक्र, रथ का पहिया (दे ६।३७ ) । २ फणी, सांप | पायंक --- विशेष प्रकार का सिक्का - पायंकाणं नाणगविसेसरुवाणं' ( आमटी प ५३० ) 1
पायड - आंगन (दे ६।४० ) ।
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देशी शब्दकोश
२८३
पायप्पहण-कुक्कुट, मुर्गा (दे ६।४५) । पायय-घोषणा-पायओ लंबिओ-जो हत्थि महइमहालयं तोलेइ तस्स य
सयसहस्सं देमि' (आवहाटी १ पृ २८०)। पायल-चक्षु, आंख (दे ६॥३८)। पारंक--मदिरा को मापने का पात्र-विशेष (दे ६।४१) । पारंपर-राक्षस (दे ६।४४) । पारदोच्च-चोरों का भय (बृभा ३६०५)-'पारदोच्चं चौरभयम्'
(टी पृ १०७२) । पारद्ध-१ पूर्वकृत कर्मों का परिणाम, प्रारब्ध । २ आखेटक, शिकारी
(दे ६।७७) । ३ पीड़ित (ज्ञा १।१८।६२; दे ६१७७) । ४ विनाशित
'दिणकर-करपरंपरोयारपारद्धंमि अंधयारे' (ज्ञा १११।२४) । पारद्धि-शिकार-'मंसक्खाया पारद्धिणिग्गया' (निभा २५५३) । पारमाणि-अत्यन्त कोप, परम क्रोध समुद्घात-'अप्पे वि पारमाणि, अवराधे
वयति खामियं तं च' (बृभा ५२०७) । पारय-मदिरा-पात्र (दे ६।३८) । पाराई-लोहकुसी-विशेष (प्र ३।१३) । पारावण--गोत्र-विशेष (अंवि पृ १५०) । पारावत-फल-विशेष (अंवि पृ ६४) । पारावर-गवाक्ष, झरोखा (दे ६।४३)। पारिग-प्रावरण-विशेष (निचू २ पृ ४००)। पारियल्ल-पहिए के पृष्ठ भाग की बाह्य परिधि-'संजम-तवतुंबारयस्स णमो
सम्मत्तपारियल्लस्स' (नंदी ५)। पारियासिय--रात्रि का बासी भोजन-'पारियासियं णाम रातो पज्जुसियं'
(निचू ३ पृ २८७)। पारिहच्छी–माला (दे ६१४२)। पारिहट्ट-चिरप्रसूता भैंस का दूध (ओटी प ४१)। पारिहद्री-१ द्वारपाल । २ आकर्षण । ३ चिरप्रसूता महिषी (दे ६७२) । पारिहिट्टि-चिरप्रसूता भंस (ओटी प ४८) । पारिहत्थी-१ माला (दे ६.४२) । २ शिरोमाल्य (व) । ३ पुष्प-विशेष
(अंवि पृ ७०) । पारिहेरग-आभूषण-विशेष (जीव ३३५९३)। पारी--१ पात्र-विशेष (जीव ३।५८७) । २ दूध दुहने का पात्र (दे ६।३७) ।
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२८४
देशी शब्दकोश
पारुअग्ग-विश्राम (दे ६।४४) । पारुअल्ल-पृथुक, चिउडा (दे ६।४४)-'तित्ति ण मण्णासे पारुमल्लअसणम्मि' .
(वृ) । पारुहल्ल-मालीकृत, श्रेणीरूप में स्थापित (दे ६।४५) । पाल-१ कलवार, शराब बेचने वाला । २ जीर्ण, फटा-टूटा (दे ६।७५) । पालंक-पालक का शाक (बृभा २०६४) । पालक्क-पालक का शाक-पालक्कं महरटुविसए गोल्लविसए य सागो जायइ
____ इति विशेष-चूणौँ' (बृटी पृ ६०३)। पालप्प-१ विप्लुत, उपद्रुत । २ प्रतिसार—अपसरण, मरहमपट्टी, विनाश
पालिआ-१ खड्ग-मुष्टि, तलवार की मूठ । २ तलवार की धार
(पा २७५)। पालिका-भाजन-विशेष (अंवि पृ ७२) । पाली-१ दिशा, दिक् (दे ६।३७) । २ पल्योपम, समय का परिमाण-विशेष
(उ १८।२८)। ३ धान्य मापने का नाप । पालीक-भोज्य पदार्थ-विशेष (अंवि पृ १०६)। पालीबंध-तालाब (दे ६।४५) । पालीहम्म-बाड, वृति (दे ६।४५) । पालु---आन (नि ३।४०) । पालुकिमिय-अपान में उत्पन्न होने वाले कृमि (नि ३।४०)। पाव-सर्प (दे ६।३८) । पावक्खालय-मलोत्सर्ग का स्थान, पाखाना-'वयंस! पावक्खालयं पविसामो'
(कु पृ ६७) । पाववल्ली-वल्ली-विशेष (प्रज्ञा १४०।२)। पाविएक्क-आच्छादित (से ११।४८) । पावीर-स्थान-विशेष (अंवि पृ १३६) । पास-१ एक प्रकार का भाला- 'तयाणंतरं च णं बहवे लट्ठिग्गाहा कुंतग्गाहा
चामरग्गाहा पासग्गाहा चावग्गाहा..."पुरओ अहाणुपुवीए संपट्ठिया' (दश्रु १०।१४) । २ आंख । ३ शोभाहीन (दे ६१७५) । ४ दांत
(वृ) । ५ अन्य वस्तु का मिश्रण । पासणिअ--साक्षी (सू १।२।५०; दे ६।४१) ।
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देशी शब्दकोश
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पासल्ल-१ द्वार । २ तिर्यक्, वक्र (दे ६।७६) । ३ पार्श्व, समीप
(से ६।३८)। पासल्लइय-टेढा किया हुआ (से ६७७)। पासाणिअ--साक्षी (दे ६।४१)। पासाला--भल्ली, छोटा भाला (दे ६।१४) । पासावअ-गवाक्ष, झरोखा (दे ६।४३) । पासिय-सुपारी (भ २२।२) । पासी-जूड़ा, चोटी (दे ६।३७)। पासुलिया-पार्श्व की हड्डी (अनु ३।५२) । पासुलीय--पार्श्व की हड्डियों वाला (तंदु १४७) । पासोअल्ल-टेढा, तिर्यक् (से ६।४७) । पाडितिया-गर्भवती स्त्री-पुणो पाहडितियासंजतीवेसेण पुरतो ठितो'
(दअचू पृ ५०) । पाहुड-कलह-'पाहुडं कलहमित्यर्थः' (निचू ३ पृ ३८) । पाडिया-१ सार्वजनिक स्थान जहां बलि आदि के पदार्थ बिखेरे जाते हैं।
(बृभा ५५४) । २ पापकारी प्रवृत्ति (बृभा १५३१) । ३ मकान
की मरम्मत (बृभा १६७४)। ४ भिक्षा। ४ अर्बनिका
_ 'प्राभृतिका भिक्षाऽपि भण्यते अर्चनिकाऽपि' (बृभा ५५८ टी )। पाहण-बेचने योग्य, विक्रेय (दे ६१४०) । पाहुणय-संघ-स्थविर, कुल-स्थविर, गण-स्थविर–तीनों की संयुक्त संज्ञा
(बृभा ३७२६)। पाहुणिय--ग्रहाधिष्ठाता देव-विशेष (निचू ३ पृ २२४ पा) । पाहुणी--स्त्री-अतिथि (कु पृ ६६) । पाहुय--त्रीन्द्रिय जन्तु-विशेष (प्रज्ञा ११५०) । पाहेज्ज-पाथेय (दे ६।२४)। पाहेण-उत्सव पर किया जाने वाला भोज-विशेष (जीभा १२३४) । पाहेणग-जीमनवार में बनाई जाने वाली मिठाई, मोदक आदि - (पिनि २८८)। पिअण-दुग्ध, दूध (दे ६।४८) । पिअमा-प्रियंगु-वृक्ष (दे ६।४६) । पिअमाहवी-कोयल, कोकिला (दे ६।५१) ।
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देशी शब्दकोश पिउड-१ मांस का बचा हुआ भाग हड्डी आदि-'पोग्गले पिउडं'
(बृभा १७११)। २ कचरे का ढेर-'पिउडं पुण उज्झं भण्णति'
(निचू १ पृ १००)। पिउली-१ कपास । २ रूई की पूनी (दे ६।७८) । पिंगंग-बन्दर, मर्कट (दे ६।४८) । पिंच-पक्व करीर, पका करील (दे ६।४६) । पिच्छोला-गृह-उपकरण-विशेष (अंवि पृ ७२) । पिछोली-मुंह से हवा भरकर बजाया जाता एक प्रकार का तृण-वाद्य
(दे ६।४७)। पिंजरण-सजावट, शृंगार-पाडुच्ची तुरयदेह पिंजरणं' (पा ६३१) । पिंजरुड-दो मुंह वाला पक्षी, भारुड पक्षी (दे ६।५०) । पिजिअ—विधुत, कंपित (दे ६।४६)। पिंजिअय-विधुत, कंपित (दे ६।४६ )। पिंडरय-दाडिम (दे ६।४८ वृ)। पिंडलइय-पिंडीकृत, एकत्रित (दे ६।५४ वृ)। पिंडलग—पटलक, पुष्प का भाजन (स्था ७।२२) । पिडिका-वर्तुलाकार नौका (अंवि पृ १६६)। पिंडी-मञ्जरी (दे ६।४७) । पिंडीर-दाडिम (दे ६।४८) । पिसली-मुंह से पवन भरकर बजाया जाता एक प्रकार का तुण-वाद्य
(दे ६।४७)। पिक्खुर- म्लेच्छ जाति-विशेष (आवचू १ पृ १६१) । पिगाण-वस्त्र-विशेष (अंवि पृ ७१) । पिचक-मत्स्य की एक जाति (अंवि पृ २२८) । पिचुगाल-भीगे हुए गेहूं आदि का खाद्य (आवहाटो २ पृ. २४३) । पिच्च-पानी-'कोंकणादिषु पयः पिच्चं नीरमुदकमित्यादि'
(प्रसाटी प २६२)। पिच्चिय-कूटी हुई छाल-'पिच्चिउ त्ति वा, विच्चिउ त्ति वा कुट्टितो त्ति वा
एगळं' (निचू २ पृ ६८) । पिच्छि—पिटारी (राज ७७२ पा)। पिच्छिली-लज्जा (दे ६।४७)।
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देशी शब्दकोश
पिच्छी - जूड़ा, चोटी (दे ६१३७) ।
पिच्छोला- बांस की कोमल छाल से बनी हुई बांसुरी जिसे दांतों में बाएं हाथ से पकड़कर दाएं हाथ से वीणा की भांति बजाया जाता है. (सूचू १ पृ ११६) ।
पिट्ट – पेट, उदर ( बृभा ५१८५) ।
पिट्टापिट्टी - मारपीट, झगड़ा (निचू ३ पृ ४१) । पिट्ठ - मिट्टी का पात्र - पिट्ठत - गुदा ( नि ६।१४; दे ६।४९) । पिटुखउरा - कलुषित सुरा, पंकसुरा ( दे ६५० ) । पिट्ठखउरिआ - मदिरा, दारु (पा ६३६) । पिडच्छा - सखी, सहेली ( दे ६।४६ ) | पिडालुकि - लता - विशेष (अंवि पृ७० ) । पिणाअ -- बलात्कार ( दे ६४९ ) ।
- पिट्ठे पुढविकायभायणं' (निच् ३ पृ ४८४) ।
पिणाई - आज्ञा, आदेश (दे ६।४८ ) |
पिण्णिया - ध्यामक नाम का गंध - द्रव्य ( उशाटी प १४२ ) । पिण्ही - क्षामा, कृश स्त्री (दे ६।४६) । पितुच्छा - सखी ( आवचू १ पृ १७६) ।
पिपिल्ली - यान- विशेष ( जीवटी प १५२ ) ।
पिप्पअ -- १ मशक, मच्छर । २ उन्मत्त (दे ६।७८) । पिशाच ( पा ३९ ) ।
पिप्पडा - ऊन में होने व ली कीड़ी (दे ६।४८ ) ।
पिप्पडिअ - जो बडबडाया हो, निरर्थक उल्लपित (दे ६५० ) | पिप्पर – १ वृषभ, बैल । २ हंस (दे ६ ७९ ) ।
पिप्पल - छोटा चाकू ( विपा १६।२२ ) ।
पिप्पलमालिका - गले का एक आभूषण (अंवि पृ ७१ ) ।
पिब्बं - पानी, जल (दे ६।४६) ।
पियंगाल - चतुरिन्द्रिय जीव - विशेष (प्रज्ञा ११५१ ) ।
पिरली - तृणमय वाद्य विशेष ( जीव ३।५८८ ) ।
पिरिडी - शकुनिका, चील (दे ६/४७) |
पिरिपिरिया - वाद्य - विशेष - 'कोलिकपुटकावनद्धमुखो वाद्य - विशेष: '
(भटी प २१६) |
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देशी शब्दकोश
पिरिली-पक्षिणी-विशेष (अंवि पृ ६६)। पिलग-पक्षी-विशेष (जंबू २।१३६) । पिलज-जलचर पक्षि-विशेष-'जधा ढंका य कंका य पिलजा मग्गुका सिही'
(सू श११।२७)। पिलण -फिसलने वाला स्थान, चिकना स्थान (दे ६।४६)। पिलय --पक्षी-विशेष (अंवि पृ ६२) । पिला--गोत्र-विशेष (अंवि पृ १५०) । पिल्ल-शिशु, बच्चा (दे ६।४६ पा)। पिल्लक-१ बालक-बालको दारको व त्ति सिंगको पिल्लको त्ति वा'
(अंवि पृ ६७) । २ हीन अंगवाला (अंवि पृ १५३) । पिल्लग-शिशु, बच्चा (पंक ५३०) । पिल्लणा-उभरा हुआ-'अइसिरिभरपिल्लणा विसप्पंत-कंत-सोहंत-चारुककुहं'
(दश्रु ८।२२)। पिल्लिका--बालिका (अंवि पृ६८)। पिल्लितेल्लय-अत्यन्त भयभीत-'ताए सो पिल्लितेल्लओ'
(आवचू १ पृ ३१६) । पिल्लिय--१ ग्रस्त, पीड़ित (निचू १ पृ८१) । २ बालक, शिशु
(उशाटी प १२१) । ३ भीत (आवहाटी १ पृ १५०)। पिल्लिरी-१ गंडुत नाम का तृण । २ चीरी, झींगुर । ३ धर्म, पसीना
(दे ६७६)। पिल्ह-पक्षियों के बच्चे, लघुपक्षी (दे ६।४६) । पिल्हय-पक्षी का शिशु--'पाडलसउणयपिल्हय ! तुमयं मरुमण्डलम्मि मा
वच्च' (दे ६।४६ )। पिविपिण-मत्स्य-जाति-विशेष (अंवि पृ ६३) । पिवियाइय–पिलाया-'भगवतो इक्खुरसं पिवियाइया' ।
(आवमटी प १६२)। पिसल्ल-पिशाच (प्रटी प २५) । पिसल्लय-पिशाच (प्रटी प १६२) । पिसायक-धूम्रपान का साधन-विशेष (अंवि पृ २५४) । पिसुग-क्षुद्र कीट-विशेष, चींचड़ (जीव ३१६२४) । पिसुणिय–कधित (पा १४५) । पिहंड-१ वाद्य-विशेष । २ विवर्ण (दे ६१७६) ।
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देशी शब्दकोश
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पिहय-नौका खेने का काष्ठ-विशेष (आचूला ३।१६)। पिहुण-मोरपंख (द ४।२१)। पिहुणमिजिया-पिहुणभज्जा, मध्यवर्ती अवयव-'पिहुणमिंजियाइ वा भिसेइ
वा मुणालियाइ वा' (राज २६)। पिहुणहत्थ-मोरपिच्छी (नि १७१३२) । पिहल-मुंह से पवन भरकर बजाया जाता एक प्रकार का तृण-वाद्य
(दे ६।४७)। पिहोअर-कृश (दे ६।५०)। पोइ-तुरंगम, अश्व (दे ६१५१) । पीडरइ-चोरपत्नी (दे ६।५१)। पीडोलक-लता-विशेष (अंवि पृ ३०) । पीढ-१ राज्य-कर्मचारी (आवचू १ पृ ४८०) । २ ईख पेरने का यंत्र
(दे ६३५१) । ३ समूह, यूथ । ४ पीठ, शरीर के पीछे का भाग। पीढमह-१ मुंह पर मीठा बेलने वाला-पीठमर्दा नाम मुखप्रिय-जल्पाः'
(व्यभा ६ टी प ८) । २ सभामंडप में राजा के समीप बैठने वाले अधीनस्थ राजा या मित्र राजा-'पीठमर्दाः-आस्थाने आसीनासीनसेवकाः, वयस्या इत्यर्थः' (ज्ञाटी प २६) । ३ समवयस्क तथा प्रीतिवहुल महाराजपुत्र जो सदा राजा के निकट बैठते हैं (आवचू १ पृ २४५) । ४ महान् राजा-'दासीदासपरिवुडो
परिकिण्णो पीढमद्देहिं' (आवमा ६९; टी पृ १२१)। पीढमुद्द-मुंह पर प्रिय बोलने वाला-'पीढमुद्दा मुहपियजंपगा'
(व्यमा ६ टी प ८)। पीण-चतुष्कोण (दे ६।५१) । पीणक---प्याले के आकार का पात्र (अंवि पृ ६५) । पीणाइय-गर्व से किया हुआ--'पीणाइय-विरस-रडिय-सद्देणं फोडयंतेव
___अंबरतलं' (ज्ञा १११११५६)। पीनाया-गर्व, हठ (ज्ञाटी प ७३) । पीरव्वायणी–वाद्य-विशेष (आवचू १ पृ १८७)। .. पीरिपीरिया-वाद्य-विशेष (आचूला ११४) । पील-दूध--'दुद्धं पओ पीलु खीरं च' (पिनि १३१) । पोलुट्ठ-जला हुआ, दग्ध (दे ६।५१) । पोहग-दूध आदि (आवचू १ पृ ३६१) ।
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२६०
पीहय - नवजात शिशु को पिलाई जाने वाली वस्तु (बृटी पृ ५६ ) । पुअंड - तरुण - पुखंडमंडलई ति' ( कु पृ १६९; दे ६।५३) । पुआइ - १ तरुण । २ उन्मत्त । ३ पिशाच ( दे ६ ८० ) ।
देशी शब्दकोश
पुआइणी - १ भूताविष्ट महिला, पिशाचगृहीता (दे ६।५४) । २ उन्मत्त स्त्री । ३ दुःशीला, कुलटा (वृ ) ।
पुंजाय - ढेर किया हुआ, - 'पुंजायं पिंडलइयं' (पा ६२२) । पुंडइअ - पिंडीकृत, एकत्रित (दे ६।५४) ।
पुंडे - जाओ (दे ६।५२ ) ।
पुंढ - गर्त, गढा (दे ६।५२) ।
पुंपुअ - संगम (दे ६।५२) । पुंफली - वल्ली - विशेष (भटी पृ १४८३) ।
पुंसुलिया -- पार्श्व की हड्डी – 'तह छ पुंसुलिए होइ कडाहे' (प्रसाटी प ४०३ ) P
पुक्कली - देश - विशेष की दासी (भ ६ । १४४ पा ) ।
पुक्का - जोर से आवाज करना, पुकारना ( पा ६२१) ।
पुक्कार - आवाज (जीभा १७२२) ।
पुक्खरविग - वनस्पति - विशेष (आचू पृ ३४१ ) ।
पुक्खलग – जल में होने वाली वनस्पति- विशेष ( आचू पृ ३४१) । पुक्खल च्छिभग - जलीय वनस्पति- विशेष ( सू २ । ३।४३) पुगारिया - वस्त्र को काटने वाले जंतु- विशेष - (सूचू १ पृ ११६) ।
।
-मा से पुगारियाई खज्जेज्ज'
पुच्चड - अत्यन्त सघन ( प्र १।२३) ।
पुच्छलक - कंठ का आभूषण - विशेष (अंवि पृ १६२) । पुच्छिय - धान्य-भाजन - विशेष (आवहाटी १ पृ २६०) । पुट्ट - उदर, पेट (प्रसा८८० ) ।
पुट्टलिका - पोटली, छोटी गठरी (आवचू २ पृ० १८४) । पुट्ठ - पोंछा हुआ (बृभा १७३४) ।
पुडइअ - पिंडीकृत, एकत्रित (दे ६।५४) ।
पुडइणी - नलिनी, कमलिनी (दे ६।५५) ।
पुडग – तन्तु —' लूतापुडगंपि - लूतातन्तुमपि' ( मानहाटी १ पृ १६२ ) P
पुडपुडि -- मुंह से सीटी बजाना ( प्रसा ४३६ ) । पुडाली-फटी हुई जमीन ( आचू पृ ३३७ ) |
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देशी शब्दकोश
२६४
पुडिंग-१ मुख । २ बिन्दु (दे ६८०)। पूडिया-गुच्छा-'पुप्फपुडियाइ जं पइ, गोरसघडओ करेइ कज्जाइं।
___मणिबंधम्मि पयलिते, साणुग्गह होंति सव्वगहा ॥' (बृटी पृ १०) । पुणइ-श्वपच, चांडाल (दे ६॥३८)। पुण्णवत्त-खुशी से हृत वस्त्र (दे ६१५३) । पुण्णाली-असती, कुलटा (दे ६१५३) । पुताई-पागल स्त्री (बृभा६०५३) । प्रताकी-उन्मत्त स्त्री-पुताकी देशीवचनत्वाद् उद्भ्रामिका'
(बृटी पृ १५६७)। पुत्त-१ कटि-वस्त्र, धोती (बृटी पृ ५३) । २ वस्त्र (बृटी पृ ११२३)। प्रत्तंजीवय-जियापोता का वृक्ष जिसके बीजों की या फूलों की माला बच्चों
को स्वस्थ रखने के लिए गले में पहनाते हैं
(प्रज्ञाटी प ३१) । पुत्तल-पुतला---'दभमया पुत्तला उ कायव्वा' (आवहाटी २ पृ ६६) । पुत्तलग-पुतला (निचू १ पृ ६३) । पुत्तलिया-पुतलिका—विधेहि पुत्तलियं' (उशाटी प १४६)। पुत्तल्ल-पुतला (निचू १ पृ ६८) । पुत्तल्लग-पुतला-'मंतेऊण व विधइ पुत्तल्लगमादि पडिणीए'
(निभा १६७)। पुत्तिगा-पुतली (सूचू १ पृ ११८; दे ६।६२)। पुत्तिया-चतुरिन्द्रिय जंतु-विशेष (जीवटी प ३२)। पुत्ती-वस्त्र (उशाटी प ८)। पुत्तुय-वाद्य-विशेष (आवचू १ पृ ३०९) । पुत्थ-मृदु (दे ६।५२)। पुप्पुअ-पीन, पुष्ट (दे ६।५२) । प्रप्फय-पीछे (आवहाटी २ पृ१०२)। पुप्फल-गंध द्रव्य-विशेष (भत्त ४२) । पुप्फसि—फेफड़ा (आवचू १ पृ. ३०)। पुप्फा-फूफी, पिता की बहिन (दे ६।५२)। पुल्फिा -बुआ, फूफी (पा ८७१)। पुप्फितिका-आभूषण-विशेष (अंवि पृ ७१) ।
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२६२
पुयलइ - कंद - विशेष (भ २३।१) । पुयली - पुत- प्रदेश (भ १५ । १२० ) ।
पुरओट्ठी- रुई का वस्त्र - विशेष - 'रुतपूरितः पटः पुरओट्ठी यदुच्यते ' ( जीविप पृ ५१ ) ।
पुराण - सिक्का, कार्षापण (अंवि पृ ६६ ) ।
पुरिम -- प्रस्फोटन - प्रतिलेखन की क्रिया - विशेष (ओनि २६५ ) | पुरिल्ल - १ प्रवर, श्रेष्ठ (दे ६१५३ ) | २ पूर्ववर्त्ती ( विभा १३२९ ) । ३ अग्रगामी ( से १३३२ ) ।
देशी शब्दकोश
पुरिल्लदेव - असुर दानव ( दे ६।५५ ) | पुरिल्लपहाणा-सांप की दाढ (दे ६।५६ ) | पुरुपुरिआ - उत्कंठा (दे ६।५५) ।
पुरुस - कुम्भकार - पुरुष: कुम्भकार:' ( व्यभा १० टीप ६६) । पुरुहूअ -- घूक, उल्लू (दे ६।५५) ।
पुरोहड - १ घर का पिछला भाग ( बृभा २०५९ ) । २ अग्रद्वार
(ओनि ६२२ ) । ३ विषम । ४ चारदीवारी से घिरा हुआ मकान (दे ६।१५) । ५ पच्छोकड - पिछले भाग में उभरा हुआ ( ? )
(वृ ) ६ गृह का कूडा करकट डालने का स्थान ( आचू पृ ३७० ) । ७ बाड़ा, वाटक (बूटी २ ) ।
पुल - फोडा-फुंसी (स्था १०/१५६ ) ।
पुलइय-- दृष्ट, देखा हुआ ( पा १३५) ।
पुलं पुल - १ प्रभूत - वर फेणपउरधवल पूलंपुल - समुट्टियट्टहासं ' ( प्र ३।७३ ) । २ अनवरत - 'पुलंपुलप्पभूय रोगवेयण' ( प्र ३।२३) ।
पुलग -१ टुकड़ा, अंश । २ सार, वर्णातिशय ( ज्ञाटी प १० ) । पुलय - गति - विशेष (भटी प८८१) ।
पुला - अपान (प्रज्ञा १२४६ ) | पुलाकिमिय-द्वीन्द्रिय जंतु, अपान प्रदेश में उत्पन्न होने वाले कृमि
- पुलाकिमिया नाम पायुप्रदेशोत्पन्नाः कृमयः' ( जीवटी प ३१) | पुलासिअ - अग्नि का कण, स्फुलिंग (दे ६।५५) । पुलोअण- विलोकन, देखना (दे ६।३० ) ।
पुल्ल - पोल, शुषिर ( आचू पृ ३६२) ।
पुल्लि - १ व्याघ्र । २ सिंह (दे ६।७९ ) । हुली (कन्नड) ।
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देशी शब्दकोश
२६३
पुव्वड-दुर्बल (निरटी पृ ३४) । पुवाड- पीन, पुष्ट (दे ६।५२) । प्रविय-हलवाई, कंदोई- एगं पुब्वियावणे मोयगं गहाय इंदखीले ठवेहि'
(आवहाटी १ पृ २७८)। पुग्विल्लय-पूर्वज (उशाटी प १३०)। पूअ-दही (दे ६।५६) । पूआ - भूताविष्ट महिला (दे ६ ५४) । पूइआलुग-जलीय वनस्पति-विशेष (आटी प ३४८) । पूइकरंज-एक अस्थिवाला वृक्ष (प्रज्ञा ११३५) । पूइय-१ वनस्पति-विशेष (भ २२।२) । २ हलवाई-‘एवं सलाहिज्जतो बलो
गओ पूइयावणं' (उसुटी प ४०) । पूडरिअ-कार्य (दे ६।५७) । पूडलग-पूआ, खाद्य-विशेष (निचू १ पृ १५) । पूण-हाथी, गज (दे ६:५६) । पूणअ-छींके का ढक्कन-सिक्कयंतयं णाम तस्सेव पिहणं, मा तत्थ संपातिमा
पडिस्संति, सो तु 'पूणउ' त्ति देसीभासाते वुच्चति'
(निचू २ पृ ३६) । प्रणिआ-पूणी, रूई का पहल (दे ६७८)। पूणी-पूनी, रूई की पहल (दजिचू पृ १४६ ; दे ६।५६) । प्रतणा-मादा पक्षि-विशेष (अंवि प्र६६) । पूतरग-त्रस प्राणी-विशेष (निचू ४ पृ ५४) । पूतिआलुग-जलीय वनस्पति-विशेष (आचूला १।११३) । पूतिकरंज-पुष्प और फल वाला वृक्ष-विशेष (अंवि पृ २३२) । पूतिल-फल-विशेष (अंवि पृ २३२) । पूयणा-भेड़-पूयणा णाम औरणीया' (सूचू १ पृ६८)। पूलिया-पूपिका, खाद्य-विशेष (आचूला १।११६) । पूयली-रोटी (उचू पृ १७५) । पूरण-१ खाद्य-पदार्थ, पूरणपोली (उपाटी पृ २२) । २ छाज, शूर्प
(दे ६।५६)। पूरिमंस--गोत्र-विशेष (अंवि पृ १५०) ।
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१९४
देशी शब्दकोश
यूरी-१ हाथी की पीठ पर बिछाया जाने वाला आस्तरण - पूरी पल्हवी हस्त्यास्तरणम्' ( जीविप पृ ५१ ) । २ तन्तुवाय का एक उपकरण (दे ६।५६) ।
यूरोट्टी - अवकर, कूड़ा-करकट (दे ६।५७) ।
मूलिय - घास का पूला - जइ अग्गिम्मि वि पबले खडपूलिय खिप्पमेव झामेइ' ( म २९२ ) ।
पूलिया - खाद्य पदार्थ - विशेष ( निचू १ पृ २९ ) ।
पूस - १ फली - विशेष (भ २२।६) । २ सातवाहन राजा । ३ शुक, तोता (दे ६८० ) । पूसअ - तोता ( पा २६१) ।
समाणय - मंगल पाठक (भ ६।२०८ ) ।
पेंड -१ टुकड़ा, खंड । २ वलय (दे ६।८ १) ।
पेंडअ - १ तरुण (दे ६।५३ ) । २ नपुंसक - पेंडओ षण्ढ इत्यन्ये' (वृ) 1 पेंडधव – खड्ग, तलवार (दे ६।५९) ।
पेंडपाली- - स्थान विशेष (अंवि पृ २३३ ) । पेंडबाल - पिंडीकृत, एकत्रित ( दे ६(५४)।
पेंडल - रस (दे ६।५८ ) ।
पेंडलिअ - पिंडीकृत, एकत्रित (दे ६ | ५४ ) ।
२ महिषी - पाल,
महिषियों को पालने वाला - पेंडारो गोपः । पेंडारो महिषीपाल इति देवराजः' (वृ) ॥
पेंडार - १ गो-पाल, गायों को पालने वाला (दे ६५८ ) ।
पेंडिका - खाद्य विशेष (अंवि पृ १८२ ) ।
पेंडी - मंजरी (अंवि पृ २३९ ) ।
पेंडोली -क्रीड़ा (दे ६।५६ ) ।
पेंढा --- कलुष-मदिरा, पंकसुरा (दे ६५० ) ।
पेचुका - कण्ठ का आभूषण - विशेष (अंवि पृ १६३) ।
पेच्छअ - दृष्टमात्र का अभिलाषी, जो देखे उसी को चाहने वाला
(दे ६ ५८) ।
पेच्छग —— प्रत्युत् - ' किं कज्जं तुमं न रुट्टो, पेच्छगं मम पूएसि, पाएसु य पडसि' ( निचू ४ पृ ३१२) ।
पेज्जल - प्रमाण (दे ६॥५७) ।
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देशी शब्दकोश
पेज्जाल - विपुल, विशाल - 'सोहइ मइंदरुंदं णियंबबिब इमस्स पेज्जालं' ( कु पृ १८२; दे ६।७ ) ।
ग- सेवक आदि को राजकुल से दिया जाने वाला भोजन - रायकुलातो पेट्टगादि भत्तं णिग्गच्छति' (निचू २ पृ ४५५) ।
पेsst - धान्य आदि बेचने वाला वणिक् ( दे ६।५९ ) ।
पैड - समूह - तम्मि य गामे एक्कं णडपेडयं' (कु पृ ४६) । पेडु - महिष, भैंसा (दे ६।८० वृ) |
पेड्डा - १ भींत । २ द्वार | ३ महिषी, भैंस (दे ६।८०) ।
पेढाल - १ विपुल (दे ६।७ ) | २ वर्तुल - ' पेढालं वर्तुलमिति द्रोण:' (वु) । पेढी - बैठने का आसन या स्थान- विशेष ( बृटी पृ ५२६ ) ।
पेया - बृहत् वाद्य - विशेष - पेया नाम महती काहल '
(राज ७१ टी पृ १२६ ) ।
पेयाल -- १ प्रधान, मुख्य - 'सम्मत्तस्स पंच अइयारा पेयाला जाणियव्वा.......... ( उपा १।३१ ) । २ विचार - 'सुहं मोच्छिइ व सुदिट्ठपेयालो'
( विभा १३६१ ) । ३ प्रमाण (विभा १६६ टी; दे ६।५७ ) । ४ सार
( स्थाटी प २०३ ) । ५ भरण-पोषण की चिन्ता - 'एयस्स पेयालं गहि एल्लयं' ( सूचू १ पृ ११६ ) । ६ प्रसिद्ध (अंवि पृ ६४ ) | ७ परिमाण (व्यभा ४ | ३ टीप ३२) ।
पेयाणा - परिमाण की विवक्षा - पज्जवपेयाला पिंडो' (पिनि ६५ ) । पेयालन - परिज्ञान, अभिगमन, ज्ञात - पेयालनं परिज्ञानं अभिगमन मित्यर्थः ' ( आवचू १ पृ ५५२ ) ।
पेयालिय- १ विचारित - पेयालियगुणदोसो जोग्गो जोग्गस्स भासेज्जा' ( विभा १४८२ ) । २परिपूर्ण (अंवि पृ २४१) ।
पेरण - १ ऊर्ध्व - स्थान, ऊंचा स्थान (दे ६।५९ ) । २ खेल तमाशा । पेरिज्ज -- सहायता, मदद (दे ६।५८ ) ।
पेरुंड पर्वकाण्ड, नाल - तए गं ते साली सल्लइयपत्तइया हरियपेरुंडा जाया ' ( ज्ञा १।७।१४ ) ।
पेरुल्लि - पिंडीकृत, एकत्रित ( दे ६।५४) ।
पेलग – शिर का आभूषण - विशेष (अंवि पृ २४२) ।
पेलु - पूणी, रूई की पहल - रूयपडलं विजियं तमेव वलितं पेलू भण्णति' ( निचू २ पृ ३२६ ) ।
२६५
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२६६
देशी शब्दकोश पेलुकरण-पूनी कातने का उपकरण-विशेष जिसे महाराष्ट्र में पेलु कहते हैं
'पेलुकरणादि लाटविषये रूतप्राणिका, महाराष्ट्र विषये सैव
पेलुरित्युच्यते (सूचू १ पृ ५ टि)। पेल्लग-बालक, बच्चा (उचू पृ ८८)। पेल्लण-१ क्षेपण । २ पीडन (उसुटी प ३४) । ३ आक्रमण-पेल्लणं ।
अक्कमणं' (निचू ४ पृ १४०) । पेल्लय-बच्चा, शिशु (विपा श२।६८) । पेल्लिका-गृह-उपकरण-विशेष (अंवि पृ ७२) । पेल्लित-१ लूट लिया-जणे गते गोद्रील्लएहिं घरं पेल्लितं'
(आवहाटी २ पृ २२१) । २ आक्रान्त-'अवि अंबखुज्ज पादेण
पेल्लितो अंतरंगुलगा वा' (निभा ६२८) । पेल्लिय-१ शिशु (जीभा ५३६) । २ पीड़ित (जीभा १३७; दे ६।५७) ।
३ क्षिप्त, पातित (व्यभा ४.२ टी प २०)। पेस-१ कार्य, प्रयोजन (दश्रु ६ गा २८)। २ सिन्धु देश के सूक्ष्म चर्म वाले
पशुओं की चमड़ी से निष्पन्न वस्त्र (आचूला ५॥१५)-'पेसाणि त्ति
सिन्धुविषय एव सूक्ष्मचर्माणः पशवः तच्चर्मनिष्पन्नानि' (टी प ३६३)। पेसण-कार्य (ज्ञा ११७।२६; दे ६१५७)। पेसणआरी-दूती, दूतकर्म करने वाली (दे ६।५९) । पेसणकारिया-बाहरी कार्यो को निपटाने के लिए नियुक्त स्त्री-'बाह्यानि
प्रेषणानि कर्माणि करोति या सा' (ज्ञाटी प १२६)। पेसलेस-सिन्धु देश के पेश नामक पशु-चर्म के सूक्ष्म पक्ष्म से निष्पन्न वस्त्र .
(आचूला ५।१५)। पेसी–फल का चतुर्थांश (आचू पृ ३६७) । पेहण-१ मोर-पंख-'पेहुणं मोरपिच्छगं वा' । २ अन्य किसी भी पक्षी का मोर
जैसा पंख-'अण्णं किंचि वा तारिसं पिच्छं' (दजिच पृ १५६) । ३ मयूर-पिच्छ से निष्पन्न-'पेहुणं मोरगं' (दअचू पृ ८९)। ४ पिच्छ, पंख-'पिच्छम्मि पेहुणं' (दे ६।५८) । ५ एक प्रकार की वनस्पति ।
(बृभा ४६३८)। पेहमिजा-मध्यवर्ती अवयव-पेहुणमिजाति वा भिसेति वा मिणालियाति
वा' (जीव ३३२८२) । पोअ-१ धव का वृक्ष । २ छोटा सांप (दे ६।८१) । पोअइआ-निद्राकरी लता (दे ६।६३) ।
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देशी शब्दकोश
२९७ पोअंड-१ तरुण-'जुवाणो जोव्वणत्यो वा पोअंडो पुरिसो त्ति वा'
(अंवि पृ ६२) । २ भयमुक्त, अभय (दे ६।६१) । ३ नपुंसक (वृ)। पोअंत-शपथ (दे ६।६२) । पोअड-उदग्र, कर्मठ (अंवि पृ९८)। पोअलअ-१ आश्विन मास का एक विशेष उत्सव जिसमें पति अपनी पत्नी के
हाथ से लेकर अपूप खाता है। २ अपूप, पूआ, खाद्य-विशेष (दे ६८१) । ३ बालवसन्त-यदाह-भर्ता भुङ्क्तेऽपूपं यत्र गृहिण्या: करात् समादाय । आश्वयुजे पोअलओ स उत्सवोऽपूपभेदश्च ।
पोअलओ बालवसन्त इत्यन्ये' (व)। पोआअ-गांव का मुखिया, ग्राम-प्रधान (दे ६।६०)। पोआल-१ शिशु (ओनि ४४७) । २ वृषभ, बैल (दे ६।६२)। पोइअ-१ निमग्न (ओनि १३७) । २ स्पंदित-'देशीवचनत्वादितस्ततः
स्पन्दितं ।' ३ त्रासित (बृभा १४५६ टी पृ ४३४) । ४ हलवाई
(दे ६।६३) ५ जुगनू (वृ)। पोइआ-निद्राकरी लता (दे ६।६३)। पोइत-त्रासित-'पोइता त्रासिता: इति चूणौँ विशेषचूणों च'
(बृटी पृ ४३४)। पोइयल्लय-पिरोया हुआ (ओटी प १८०) । पोई-निद्राकरी लता (प्रज्ञाटी प ३४) पोउआ-करीषाग्नि, कंडे की आग (दे६। ६१)। पोंगिल्ल--१ परिपूर्ण, खचित-'दीसंति जीय एए पासाया रयणपोंगिल्ला'
(कु पृ १६०)। २ परिपक्व ।। पोंट—चूंट-'खिप्पं पाणियं पाउं लग्गो... कहवि पोटे (घोट्टे) करित्ता
पलातो' (व्यभा ४१ टी प १८) । पोंड-१ फल-सामलीपोंडघणनिचिय........' (प्र ४७ टी प ५२)।
२ फूल-'एगं सालियपोंडं बद्धो आमेलगो होइ' (उनि ३)। ३ अविकसित कमल (विभा १४२५) । ४ कपास
(अनुद्वाहाटी पृ २१) । ५ यूथ का अधिपति (दे ६।६०) । पोंडइ-फल-विशेष (भ २२।४) । पोंडग–अविकसित कमल (आवचू १ पृ २२३)। पोंडय-कपास-'पोंडयं कप्पासो' (निचू २ पृ ३८)। पोंडरीय-लोमपक्षी (जीवटी प ४१) ।
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२६८
पोक्क – पुकारने वाला, बुलाने वाला (निचू २ पृ १८ ) ।
पोक्कड - - पुकार ( जीभा १३३२ ) ।
पोक्कण - 'पोक्कण' देश में रहने वाली म्लेच्छ जाति (प्रटी प १५ ) |
पोक्कसालिय - जुलाहा ( आचूला १।२३) ।
'पोक्खलत्थिभय - जलीय वनस्पति- विशेष (प्रज्ञा १।४६ ) |
पोच्च - सुकुमार (दे ६।६०) ।
पोच्चड - १ जुगुप्सित (ज्ञा १८/७२ ) । २ असार - 'मयूरी अंडए...पोच्चडे ३ मलिन - 'पोच्चर्ड —–मइलं'
देशी शब्दकोश
जाए' (ज्ञा १।३।२२ )
( निचू ३ पृ २७० ) । ४ अत्यंत सघन - पोच्चडं ति अतिनिबिडम्' (प्रटी प १६ ) ।
पोच्चडग – निस्सार, मलिन – 'असार: मलिनं वा देशीभाषायाम्' ( निचू ३ पृ २८ ) ।
पोट्ट – पेट – पोट्टत्तिदेश्यत्वाद् उदरम्' (जंबूटी प १२५; दे ६।६० ) पोट्टल - १ पोटली - 'अतिपरिणामो पोट्टल बंधूणं आगतो तत्थ '
( जीभा ५७७) । २ राशि, समूह – 'पुप्फरासी णिगरो वा पुप्फाणं पोट्टल तिवा' (अंवि पृ ६४ ) ।
पोट्टल - पोटली (व्यभा ६ टीप २) ।
पोट्टलिका - पोटली (अंवि पृ २१६) ।
पोट्टलिय - पोटली उठाने वाला, भारवाहक – भारवहा पोट्टलिया वाहगा' ( निचू ४ पृ ११० ) ।
पोट्टलिया - गठरी (आवहाटी २ पृ १३६) ।
पोट्टसरणी - अतिसार रोग - 'खाइत्ता रति पडिमं ठिमी, ... पोट्टसरणी जाया' (आवहाटी २ पृ १३६) ।
पोट्टह- गठरी-वाहक (अंवि पृ ६२) । पोडइला- तृण - विशेष (प्रज्ञा १।४२ ) । पोणअ - छींके का आच्छादन ( निभा ६४५) ।
पोणिअय-पूर्ण (दे ६।२८) |
पोणिआ - सूते से भरा हुआ तकुवा (दे ६।६१) ।
पोतलय – बछडा, बच्चा - - तिर्वारसा गोणपोतलया हट्टसरीरा उवट्टिया ( आवहाटी १ पृ १३२) ।
पोति - निवसन, अधोवस्त्र (अनुद्वाचू पृ ४८ ) ।
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देशी शब्दकोश
२६६ पोतित-१ स्पन्दित-पोतितं ति देशीवचनत्वादितस्ततः स्पन्दितम्'
२ त्रासित (बृटी पृ ४३४) । पोतिय-हलवाई (निचू ३ पृ १०६) । पोत्तम-वृषण, अण्डकोश (दे ६।६२) । पोत्तग-सूती वस्त्र (आचूला ५३१)। पोत्तणय-वस्त्र-विशेष (जीभा १७६६) । पोत्तय-रूई से निष्पन्न वस्त्र-'साणयं पोत्तयं खोमिय' (आचला ॥१७)। पोत्तिय-१ रूई से पिष्पन्न वस्त्र (स्था ॥१६०) । २ तापसों का एक
प्रकार (औप ६४)। पोत्तिया-चतुरिन्द्रिय जंतु-विशेष (भ १५॥१८६)। पोत्ती-१ वस्त्र (भ ।१८८) । २ काच (दे ६।६३) । पोत्तुल्लया-वस्त्रमय पुतली (ज्ञा १११८१८) । पोदइल-तृण-विशेष (भ २११९)। पोप्पण-हाथ का स्पर्श (आवच १ पृ९०)। पोप्पय-हाथ का स्पर्श-'तेण उदरपोप्पयं करेंतेणं कहवि सा जोणिहारे
हत्थेण आहता' (आवहाटी १ पृ४४)। पोप्फस-फेफड़ा, शरीर का अवयव-विशेष (प्र ११११)। पोम-कुसुम्भ-रक्तवस्त्र-'पोमं ति कुसुंभयं' (निचू १ पृ १००)। पोमर-कुसुम्भ से रंगा हुआ वस्त्र (दे ६।६३)। पोयलि–पूआ (दअचू पृ ११४)। पोया-वाद्य-विशेष (भ श६४) । पोयाल-१ बच्चा, शिशु (ओनि ४४७) । २ वृषभ, बलिवर्द
(व्यभा ४१ टी प २०)। पोर-पर्व (व्यमा ८ टी प ४)। पोरग-हरित वनस्पति-विशेष (प्रज्ञा ११४४३१) । पोरच्छ--दुर्जन (दे ६।६२) । पोरय-खेत, क्षेत्र (दे ६।२६) । पोरायाम-अंगूठे के पर्व पर तर्जनी अंगुली के रखने पर जितनी पोलाल
रहती है वह (ओनि ७०७)। पोरु-गांठ (सूचू २ पृ ३७६)। पोरुस---शरीर का अवयव-विशेष (अंवि पृ १३४) ।
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३००
तेरापंथ दिग्दर्शन पोलंडण-प्रोल्लंघन (ज्ञा १११११८६) । पोलंडिअ-प्रोल्लंधित (ज्ञा १।१।१५५) । पोलच्चा -हल से कृष्ट भूमि, खेटित भूमी (दे ६।६३) । पोलिअ-सौनिक, कसाई (दे ६।६२)। पोलिदि-पुलिन्द देश की लिपि (प्रज्ञा ११९८)। पोलिया-पूरी, पोलिका-~-'संपुण्णचंदमण्डलसरिसं पोलियं लहेसि'
(उशाटी प १४७) । पोल्ल-पोला, शुषिर-पोल्लरुक्खेसु अंतो-अंतो झियायमाणेसु'
(ज्ञा १११११५६)। पोल्लक-कटनिवर्तक लोहमय उपकरण-विशेष (आवहाटी १ पृ ३०४) । पोल्लड-शुषिर, पोला-'वंका कीडक्ख इया चित्तलया पोल्लडा य दड्डा य'
(ओनि ७३५) । पोल्लडय-पोल (निचू २ पृ ३६६) । पोवलक-खाद्य-विशेष (अंवि पृ १८२)। पोवलिया-पूपलिका-'पोवलियं-पोलिका' (आवहाटी १ पृ २२६)। पोसंत-योनि (नि ६।१४) । पोसय-उपस्थ (स्था ६।२४)। पोसिय-१ पूगफल, सुपारी (भ २२।२ पा) । २ दरिद्र, निर्धन
पोह-भैस, बैल आदि का गोबर (पिनि २४५)-'महिषी समागत्य
छगणपोहं मुक्तवती' (टी प ८३) । 'पोठा' (राजस्थानी)। पोहट्टी-स्त्री, युवती-'अंगणा महिला नारी पोहट्टी जुवति त्ति वा'
(अंवि पृ ६८)। पोडण--लघु मत्स्य (दे ६।६२) । प्रेयंड-धूर्त (दे ११४ वृ)।
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देशी शब्दकोश
३०१
फंडण-प्रवेश-'अगणिफंडणट्ठाणेसु' (आचूला १०।१६)। फंफसअ—एक प्रकार की लता (दे ६१८३) । फंसण-१ युक्त । २ मलिन (दे ६।८७)। फंसुल-मुक्त, त्यक्त (दे ६।८२)। फंसुली-नवमालिका, पुष्प-प्रधान वृक्ष-विशेष (दे ६।८२)। फग्ग-बसन्त का उत्सव, फगुआ (दे ६।८२) । ‘फागुपुग्ग-बिखरे हुए केश वाला (उपा २।२१ पा) । फट्ट--फटा हुआ-'म इला फट्टा कुसंघाडी' (निचू २ पृ २६६) । फड-१ सांप का पूरा शरीर । २ सांप का फण (दे ६।८६) । फडही-कपास (दे ६।८२ पा)। फडु-१ गणावच्छेदक के अधीन एक छोटा गण-गच्छागच्छि गुम्मागुम्मि
फड्डाफड्रिं' (औप ४५ टी)। २ अवधिज्ञान का निर्गमस्थान-'फड्डा य असंखेज्जा' (विभा ७३८) । ३ पृथक्-पृथक्-'फड्डगफड्ड पवेसो'
(बृभा १५६४)। फडक-१ अवधिज्ञान का निर्गम स्थान। २ द्वार आदि का छोटा छिद्र-'इह फड्ड
कानि अवधिज्ञान निर्गमद्वाराणि अथवा गवाक्षजालादिव्यवहितप्रदीपप्रभाफड्डकानीव फड्डकानि' (आवहाटी १ पृ २६)। ३ गणावच्छेदक के अधीन एक छोटा गण (औपटी पृ८६) । ४ विभाग, अंश
(ओटी पृ २०६)। फडग-१ अंश, भाग (पिनि २५३) । २ गण का अवान्तर विभाग
(निभा ६३१३) । ३ वर्गणा-समुदाय । फडुगपतिय--- गण के अवान्तर विभाग का नायक (निभा ६३१३) ।। फडुगवतिय-गण के अवान्तर विभाग का नायक-फडगवतिया वि आगंतुं
पक्खियादिसु मूलायरियस्स आलोएंति (निचू ४ पृ २८४) । फड्डय-१ साधुओं का छोटा समुदाय (निभा २८४२) । २ विभाग, अंश
(ओभा १११)। फड्डावती- गण के अवान्तर विभाग का नायक (जीभा ७८१)। फणक-कंघी (उसुटी प २८३) ।
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३०२
देशी शब्दकोश
फणग - कंघी - अह सा भमरसन्निभे कुच्चफणगपसाहिए । सयमेव लुंचई केसे धिइमन्ता ववस्सिया ।। ' ( उ २२।३० ) ।
फणज्य - वनस्पति- विशेष ( प्रज्ञाटी प ३४) ।
फणिका- १ गृहउपकरण - विशेष (अंवि पृ ७२ ) । २ कंघी
(अंवि पृ २३० ) ।
फणिगा - केश संवारने का उपकरण ( कंघा ) - फणिगाए बाला जमिज्जंति ओलिहिज्जति जूगाओ वा उद्धरिज्जंति' ( सूचू १ पृ ११७ ) ।
फणिज्जय-वनस्पति- विशेष, मरुआ का वृक्ष (प्रज्ञा ११४४)।
फणित
-
- १ पका हुआ । २ रांधा हुआ - फणितं णाम पक्कं रद्धं वा ' (सूचू १ पृ ११७) ।
फणिह - कंघा ( सू १।४।४२) ।
फज्जा - वनस्पति- विशेष (भ २१।२१ ) ।
फर – १ अस्त्र- विशेष - ' दोणि वि फरम्मि णिउणा' ( कु पृ २५२ ) । २ ढाल, फलक (दे १।७६ ) ।
फरअ—फलक, ढाल - किं रे फरेसि फरयं' (दे ६।८२) ।
फरखेड -- शस्त्र - विशेष की विद्या - " धणुवेओ फरखेड्डं असिधेणु......... ( कु पृ १५० ) ।
फरल - काना (टीप २५) ।
फरावेडु -- शस्त्र - विशेष की विद्या 'अण्णे फरावेड्ड उवज्झाया' ( कु पृ १६ ) । फरुगद्दभ – १ कीटिका-नगर । २ गर्दभाकार कीट विशेष (निचू ३ पृ ३७६) फरुस- -१ कुम्भकार, कुम्हार (बृभा ४२५३) । २ वृक्ष - विशेष
(अंवि पृ २३१) ।
फरुसग – कुम्हार, कुंभार - पोग्गल मोयग फरुसग, दंते वडसालभंजणे सुत्ते ' ( बृभा ५०१७ ) ।
फल - चपेटा का प्रहार - 'फलं चवेडाप्रहार:' ( सूचू पृ ८२ ) । फलय - शाक आदि उगाने की बाडी ( व्यभा ५ टीप ७) । फलह- -शाक आदि उगाने की बाडी (व्यभा ५ टीप ७) ।
फलही - १ कपास - 'फलहीओ उप्पाडेइ' (उसुटी प ७९; दे ६८२ ) । २ कपास की लता ।
फलि - १ लिंग, चिह्न | २ वृषभ, बैल (दे ६।८६) । फलिआरी - दूर्वा, दूब (दे ६८३) ।
फलिका - फली (अंवि पृ ७१ ) ।
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देशी शब्दकोश
३०३७
फलिय-नाना प्रकार के व्यंजन और भक्ष्यपदार्थों द्वारा बनाया हुआ खाद्य
विशेष-'फलियं पहेणगाई वंजणभक्खेहिं वा विर इयं तु'
(व्यभा ६ टी प १६)। फलिह-१ आकाश-'अगमे इ वा फलिहे इ वा अणंते इ वा'
(भ २०१६) । २ कपास का टेंटा (अनुद्वामटी प ३१)।
३ पाणि, एडी (उशाटी प १६३) । फलिही-कपास का टेंटा (अनुद्वामटी प ३१) । फसल-१ सारभूत । २ स्थासक, हस्तबिंब (दे ६।८७) । ३ चितकबरा
(पा १६७)। फसलाणि-विभूषित (दे ६।८३) । फसलिअ-विभूषित, जिसने विभूषा की हो वह (दे ६८३)। फसुल-मुक्त (दे ६।८२) । फालहिय-शाक आदि की बाडी का स्वामी (व्यभा ५ टी प ७) । फालि-१ फली, छीमी (आचू पृ २००) । २ शाखा-'सिंबलिफालिव्व
अग्गिणा दड्ढो' (सं ८४) । ३ फांक, टुकड़ा।। फालिय-देशविशेष में होने वाला वस्त्र (आचूला ५।१४) । फिक्कि -हर्ष (दे ६।८३)। फिज-टखना-'कुल्लेसु सुउप्पत्ती ऊरूहिं बंधुणो अणिठें तु । पासेसु वल्लहत्तं
__ वाहणलाभो फिजे भणिओ ॥' (उसुटी प १३०)। फिडित-१ इधर-उधर बिखरे हुए-'भत्तट्ठा अण्णण्णतो फिडिताणं'
(नंदीच पृ९) । २ अतिक्रांत-पडिलेहणिया काले फिडिए
कल्लाणगं तु पच्छित्तं' (ओभा १७४) । फिडिय-अपगत, च्युत (ओनि ११२) । फिड्ड-वामन (दे ६१८४) । फिप्प-कृत्रिम (दे ६।८३)। फिप्फिस-फेफड़ा (प्र ११११)। फिरडि-फुर्-फुर् कर उड़ जाना (बटी पृ ६१०) । फिरिडि-फुर्-फुर् कर उड़ जाना-फिरिडित्ति णिग्गया सुघरा'
(आवचू १ पृ ३४५)। फिलिय-भ्रष्ट (से ८।६८)। फिल्लसिय–फिसला हुआ-सा तत्थ वच्चंती फिल्लसिया' (बृटी पृ ९२६) । फिल्लुसण-फिसलन (बुचू प १४१)।
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३०४
देशी शब्दकोश
फिहय-नाव चलाने का साधन-विशेष (नि १८।१४)। फुटा–केश-बंध का एक प्रकार, केश-रचना (दे ६८४) । फुफमा-करीषाग्नि (सूचू १ पृ ११०) । फुफुअ-करीषाग्नि-'दटुं विओअफुफुअतत्ता तरुणी सुहाइ व णिबुड्डा'
(दे ६।८४ वृ)। फंफूआ-करीषाग्नि (भटी पृ १२७६; दे ६८४) । फंफूक-करीषाग्नि, कण्डे की आग-फुम्फुकशब्दो देशीत्वात् कारीषः'
(जीवटी प ६५)। फंफुग-करीषाग्नि (बृभा २२८५) । फुफुगा-करीषाग्नि (दनि १११)। फुफुम-करीषाग्नि (बृभा २०६८)। फुफुमा-१ कचवर-वह्नि (उसुटी प ३) । २ करीषाग्नि । फुफुया-१ करीषाग्नि । २ कचवर-वह्नि (तंदु १५५) । फूक --उभरा हुआ मोटा नाक (उशाटी प ३५८) । फुक्का -१ मिथ्या (दे ६१८४) । २ फूंक । फुक्किय-१ व्यर्थ-'हे मंदभग्ग ! फुक्किय तूससि तं नाममेत्तेणं'
(आवहाटी २ पृ८५) । २ फूमित, फुफकारा हुआ-'फुक्किय...
फूमितस्त्वमिति देशीभाषया आक्रोशः' (आवटि प ६४)। फुक्की -धोबिन (दे ६।८४)। फुग्ग-शरीर का अवयव-विशेष, पुत (सूनि ७९) फुग्गफुग्ग-विकीर्ण रोम वाला-'तस्स भुमगाओं फुग्गफुग्गाओ' (उपा २।२१)। फुट-१ टूटा हुआ, फूटा हुआ-'फुट्टपत्थर' (बृभा ५८५७) ।
२ कठोर--णिण्णेहक अणेहं वा फुटं ति फरुसं ति वा' (अंवि पृ १०६)। फण्ण-स्पृष्ट (प्रसाटी ३०४) । फुप्फुयायंत-फुफकार करता हुआ-'अवहोलंत-फुप्फुयायंत-सप्प-बिच्छुय'
(ज्ञा शमा७२)। फुप्फुस-फेफड़ा (सूनि ७३)। फुमंत-फूंक देता हुआ (द ४१२१)। फुमण-फूंक (निभा १४६५) । फरिअ-निन्दित (दे ६८४)। फुल्ल-१ निर्मल-णिम्मला-फुल्ला' (निचू ३ पृ४२८)। २ आंख का रोग
(निचू १ पृ. ६) । ३ फूल, पुष्प (ओटी प ६७) । ४ पूर्णरूप से नष्ट (दअचू पृ १४३)।
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३०५
देशी शब्दकोश फुल्लंधुअ-भ्रमर (दे ६८५)। फुल्लग-पुष्प की आकृतिवाला आभूषण-विशेष (जीव ३३५९३)। फुल्लय-आंखों का रोग-विशेष- एक्कं अच्छिए फुल्लयं भवउ'
(निचू १ पृ६)। फूला (राज)। फुल्लवड-पुष्प-विशेष, मदिरावामक पुष्प (से निष्पन्न वस्त्र ?)
(निचू ३ पृ ३२१)। फुल्लि -काई (आवहाटी २ पृ ५६) । फुल्ली -काई (ओटी प १३१) । फुसार-फुहार, महिन बूंदों की झडी-सुहुमफुसारेहिं पडमाणेहिं फुसियं
___ वरिसं' (निचू ४ पृ २३०) । फुसिया--वल्ली-विशेष (प्रटी प ३३) फूअ--लोहकार (दे ६०८५)। फमित-फुक्कित, फूंक दिया हुआ (अंवि पृ १६८) । फमिय-फूंक मारा हुआ, फुक्कित-'भक्खणनिमित्तं फूमिया तिला नडेण'
(उसुटी प २५१) फसल्लि-अल्प-बिन्दु वाली वृष्टि, तुषाकार वृष्टि-'फूसल्लि यस्थ वासति
ण य होंतित्थ सारधण्णाणि' (अंवि पृ २५७) । फेक्कार-सियार की आवाज (उसुटी प १३८)। फेट्टा-वन्दन का एक प्रकार-‘फेट्टावंदणयं देइ' (अनुद्वाहाटी पृ ३)। फेणक--भोज्य-विशेष, फीनी (अंवि पृ १८२) । फेणबंध-वरुण, जलदेवता (दे ६।८५) । फेणवड-वरुण (दे ६८५) । फेफस-फुप्फुस (आवहाटी २ पृ १०७) फेरंड--पर्वकाण्ड, नाल-'तए ते साली हरियफेरंडा जाया' (ज्ञा १७।१४)। ‘फेलाया-मातुलानी, मामी (दे ६।८५)। फेल्ल-निर्धन, दरिद्र-'फेल्लमाहणेणं रत्थाए वइरहीरतो लद्धो'
(पंक १६७८; दे ६।८५)। फेल्लुसण -१ पिच्छिल भूमि, वैसी भूमी जहां पांव फिसलते हैं।
२ फिसलन, स्खलन (दे ६।८६)। 'फेल्हसण—फिसलन (व्यभा ४।४ टी प ६)। फेस-१ त्रास । २ सद्भाव (दे ६।८७) । फेसय-फुप्फुस (कु पृ २२५) ।
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देशी शब्दकोश
फोअ-भयोत्पादक ध्वनि, डराने की आवाज (दे ६।८६ वृ) । फोइअय-१ मुक्त । २ विस्तारित (दे ६१८७)। फोंफा-भयोल्पादक ध्वनि, डराने की आवाज (दे ६।८६)-'तरुणि दळूण
करइ तह फोंफ' (वृ)। फोक्क-उभरा हुआ मोटा नाक-'फोक्क' देशीपदं, अग्र स्थूलोन्नता च
नासाऽस्येति फोक्कनासः' (उसुटी प १७६) । फोड-भक्षक-'बहुफोडे त्ति बहुभक्षका:' (ओभा १६१ टी)। फोडिअय-१ राई से बघारा हुआ शाक आदि । २ रात्रि के समय जंगल में
सिंह आदि हिंसक प्राणियों से बचने का एक उपाय (दे ६८८)। फोडित-राई आदि से बधारा हुआ-'उवरि धूमणेण धोवितं फोडितं
__'भण्णति' (निचू २ पृ ६५)। फोप्फल-गंध द्रव्य-विशेष, एक प्रकार की औषधि जो मृदु रेचन के लिए
काम आती है-'महुरविरेअणमेसो कायव्वो फोप्फलाइदव्वेहि'
(भत्त ४२)। फोफल-एक प्रकार की औषधि (प्रसाटी प ७५) । फोफस--शरीर का अवयव-विशेष (तंदु ११६) । फोस-१ अपानदेश, गुदा-'सउणिप्फोस-पिट्ठतरोरुपरिणया' (तंदु ६७) ।
२ उद्गम (दे ६१८६)।
बट्ट-बैठा हुआ (आव २ पृ ३५) । बइल्ल-बैल (दश्रुनि ६१; दे ६१६१) । बउसी–देश-विशेष की दासी (ज्ञा १।१८२) । बउहारी-बुहारी, झाडू (दे ६९७ वृ)। बंदण-कैदी, बंदी-'जावज्जीवबंदणो कीरिस्सामि' (नंदीटि पृ १३६) । बंध-भृत्य, नौकर (दे ६।८८) ।। बंधोल्ल-मेल, संगति (दे ६।८६) । बंभच्च-गोत्र-विशेष (अंवि पृ १५०)। बंभणिआ-कीट-विशेष (दअचू पृ १८६; दे ६६०)।
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देशी शब्दकोश
बंभणी -- कीट - विशेष (दे ६।१० ) ।
बंभहर- - कमल (दे ६।९१ ) ।
बक-बक की आकृति का कर्णाभरण - कुंडलं वा बको व त्ति मत्थगो तलपत्तगं' (अंवि पृ ६४) ।
बक्कर - परिहास (दे ६।८९) ।
बक्करय - बकरा (दअचू पृ १०५) ।
बज्झरस - गोत्र - विशेष (अंवि पृ १५० ) ।
बतिल्ल - बैल - ' तस्स य एगो बतिल्लो सो मूलधुरे जुप्पति' (आवचू १ पृ २७२ ) ।
बद्धअ - 'पुपट्ट' नामक कान का आभूषण (दे ६८९ ) । बद्धणिया-काष्ठ का गडुलक - दगवा रबद्धणिया उल्लंका यमणिवल्ललाऊ य' ( निभा ४११३) ।
बल्लिय - बद्ध, गृहीत (अनुद्वाहाटी पृ८८ ) ।
बद्धीसग -- वीणा - विशेष ( नि १७ १३७ ) ।
बल्लय - बंधा हुआ - ' ताहे धोवंतीए बाला बद्धेल्लया छुट्टा'
( आवहाटी १ पृ १४९ ) ।
बप्प - १ पिता (द ७|१८; दे ६।८८ ) । २ योद्धा ( दे ६८८ ) - बप्पो सुभटः ।
पितेत्यन्ये' (वृ) ।
बप्पीकी पैतृकी- जा बप्पीकी भुंहडी चम्पिज्जइ अवरेण' (प्रा ४१३६५ टी ) ।
बप्पीह - चातक (दे ६।१०)
बप्फाउल —— अत्यधिक उष्ण, गरम (दे ६।१२) | बब्बक – एक प्रकार का तृण (बूटी पृ ५६१ ) ।
-
बब्बग- - एक प्रकार का तृण (बृभा २०४३) ।
बम्बरी - - १ देश - विशेष की दासी ( ज्ञा ११११८२ ) । २ केशरचना
(दे ६६० ) ।
बब्बीसय – बाद्ययंत्र - विशेष ( कु पृ २६ ) |
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बब्बूल - बबूल (स्थाटी प २३६ ) |
बम्भ - चर्ममयी रज्जू, पदयात्रा में उपकरणों को शरीर के साथ बांधने वाला चर्ममय पट्टा (जीविप पृ ५१ ; दे ६।८८ ) ।
बमाल - कोलाहल (दे ६१६० ) ।
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देशी शब्दकोश
बयल्ल-बैल, बलीवर्द (उशाटी प १९२)। बरग-बरट्टी, धान्य-विशेष (जंबूटी प १२४)। बरट्ट--धान्य-विशेष (प्रसा ६६E) । बरठ-धान्य-विशेष (प्रसाटी प २६७)। बरड-खरदरा-'थुल्ल वा बरडं वा थेरस्स पोत्तं होहिइ'
(आवहाटी १ पृ६०) । बरुअ-इक्षु-सदृश तृण (दे ६।६१) । बरुड-चटाई बनाने वाला शिल्पी (प्रसाटी प २३०)। बलजंत-व्यवसाय के लिए जाते हुए-'बालंजुयवणियाणं बलजंताणं वत्था
पडंति' (निचू ३ पृ १६४) । बलद्द-बैल (बृटी पृ ५३) । बलद (राज)। बलमड्डा--बलात्कार (दे ६१६२)। बलवद्रि-१ सखी (दे ६।६१)। २ श्रम को सहन करने वाली स्त्री (व) । बलहरण-छांद का आधारभूत ऊंचा तथा लंबा काष्ठ (भ ८।२५७) । बलामोडि-बलात्कार (बृचू प २०४; दे ६।६२)। बलामोडिय-बलात्, जबरदस्ती से-'तेण दंडिएण बलामोडिए पडिग्गही
__ गहिओ' (उसुटी प ५५) । बलामोलि-बलात्कार (से १०।६४) । बलिअ--१ पीन, पुष्ट (भ ६।२३०; दे ६।८८) । २ गाढ, दृढ
(ज्ञाटी प ६४) । ३ अत्यर्थ-'बलियतरं भीया तत्था तसिया'
(ज्ञा १।६।२७)। बलिमोडय--चक्राकार पर्व-परिवेष्टन (प्रज्ञाटी प ३७)। बले-१ निश्चय । २ निर्धारण-इन अर्थों का सूचक अव्यय (प्रा २११८५) । बलेद्द-बैल (दअचू पृ २१७) । बव्वाड-दाहिना हाथ (दे ६८६)। बव्वीस-वाद्य-विशेष (राज ७७) । बहल-पंक (दे ६।८६)। बहली-देश-विशेष की दासी (ज्ञा ११११८२)। बहिणी-बहिन (निचू ३ पृ ४३०)। बहिद्ध-१ बाह्य वस्तु का ग्रहण (सू ११९१०) । २ मैथुन । ३ परिग्रह
'बहिद्धं मिथुनपरिग्रही गृह्येते' (सूचू १ पृ १७७)।
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देशी शब्दकोश
३०६
बहिद्धा - १ बाहर का । २ मैथुन । ३ परिग्रह, विशेष परिग्रह - स्त्री आदि ( स्थाटी प १९० ) ।
बहिफोड - बहुभक्षक ( आवहाटी १ पृ १३८ ) ।
बहिलग - १ बैल ( निभा १४८६) । २ वह सार्थ जिसमें बैल, ऊंट आदि हों ( बृभा ३०६६) ।
बहुआरिआ -- बुहारी, झाड़ ू (दे ८ १७ वृ) । बहुआरी - - संमार्जनी, झाड़ू (दे ८।१७ वृ) । बहुकरिका — बुहारी, झाडू (बृटी पृ ४६५) । बहुण - १ चोर । २ धूतं (दे ६।६७ ) | बहुमुह - दुर्जन (दे ६|ε२) ।
बहुराणा - तलवार की धार (दे ६।९१ ) । बहुरावा - शृगाली (दे ६ ε१) । बाउल्लिआ - पुतली (दे ६६२ वृ० ) । बाउल्ली - पंचालिका, पुतली (दे ६।९२) । बाण - १ सुभग । २ पनस का वृक्ष (दे ६।६७ ) |
बायालीस - बयालीस ( ग ५७ ) 1
बाल --- कम्बल - बालत्ति कम्बलः' ( जीविप पृ ५०) ।
बालअ -- वणिक् पुत्र (दे ६।१२) ।
बालंजय - वस्त्र के व्यापारी - बालंजुयवणियाणं बलजंताणं वत्था पडंति' ( निचू ३ पृ १६४) ।
बालग्गपोइया --- १ चन्द्रशाला । २ जलाशय में निर्मित लघु प्रासाद ( उचू पृ १८३ ) ।
बालपज्जेय - साधु का उपकरण विशेष (व्यभा ४/४ टी प ५७) । बालवीरा - प्रावारक- विशेष, प्राणिज - वस्त्र - 'अजिणप्पवेणी चम्मसाडीओ बालवीरा चेति' (अंवि पृ २२१) ।
बालसाडी - जन - चामरं अजीणकंबलो बालसाडि बालमुंडिका बालव्वयणी' (अंवि पृ २३० ) ।
बालेय- आर्द्र (अंवि पृ २६१) ।
बास
-- बाज पक्षी (अंवि पृ ६२) । बाहाड - प्रचुर (बृभा ४९६७) ।
बाहाडित-सित, तिरस्कृत ( बृभा ४१३२ ) । बाहाया - वृक्षविशेष ( अंतटी पृ ५) ।
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देशी शब्दकोश बिआया-संलग्न भ्रमण करने वाला कीट-युग्म (दे ६।६३)। बिंबवय-भिलावां, फलविशेष (पा ३८०)। बिबोवणय-१ क्षोभ । २ विकार । ३ उच्छीर्षक, तकिया (दे ६।६८) । बिग्गाइया-संलग्न भ्रमण करने वाला कीट-युग्म-'यो कीटो संलग्नौ भ्रमतो
बिग्गाइया ख्यातौ' (दे ६१६३ वृ)। बिग्गाई-संलग्न भ्रमण करने वाला कीट-युग्म (दे ६।६३)। बिट्टी-पुत्री, बेटी (प्रा ४१३३०) । बिट्ठ-बैठा हुआ (ओनि ४७१)। बिब्बोय --उपधान, तकिया-'सयणीयं तूलियं सबिब्बोयं' (ग ११४) । बिब्बोयण-उपधानक, तकिया (भ ११।१३३)। बिरचिरालिया-भुजपरिसर्पिणी (जीवटी प ५२) । बिल-कूप (राजटी पृ १६१)। बिलकोलीकारक-वे चोर जो दूसरों को व्यामूढ करने के लिए विस्वर,
वचन बोलते हैं (प्र ३।३) । बीअअअसन-वृक्ष, विजयसार वृक्ष (दे ६।६३) । बीअजमण-खलिहान (दे ६।६३)। बीअण-असन वृक्ष, विजयसार वृक्ष (दे ६।६३ वृ)। . बोडग-पान का बीड़ा (निचू २ पृ १६०)। बीयय-गुल्म वनस्पति-विशेष (प्रज्ञा ११३८) । बोलअ-कान का एक आभरण, कुंडल-विणा पिअं बीलएहि किं इत्थ'
(दे ६६३)। बोहणक-भीषण (प्र ३६)। बोहणकर-भयंकर (प्र २३६) । बोहणग-भयानक (प्र १।२४) । बोहणय-भीषण (प्र ११२)। बुदि-१ शरीर (सूर्य २०) । २ चुम्बन । ३ सूअर (दे ६६८) । बुदिणी-कुमारी-समूह (दे ६।६४) । बुंदी-शरीर (आवनि १४४६) । बुंदीर-१ भंसा । २ महान् (दे ६।६८)। बुबुअ-समूह (दे ६।६४) बंभल-चोटी, शेखरक (ज्ञा १९७२ पा)।
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देशी शब्दकोश बुक्क-१ विस्मृत (व्यभा २ टी प २२) । २ छिलका । ३ वाद्य-विशेष । बुक्कण-काक, कौआ (दे ६।६४) । बुक्कण्णय-पासा-'बुक्कण्णएण रमंति' (निचू. १ पृ १७) । बुक्कस-अन्न-विशेष, मूंग-उड़द आदि की नखिका से निष्पन्न भोजन
_ 'मुद्गमाषादिनखिकानिष्पन्नमन्नम्' (उसुटी प १२९) । बुक्का -१ मुष्टि (६।६४) । २ व्रीहिमुष्टि (वृ)। ३ वाद्य-विशेष । बुक्कारिय-पुकारा हुआ (कु पृ७४) । बुक्कास-जुलाहा, तन्तुवाय (आटी प ३२७) । बुक्कासार--भीरु, डरपोक (दे ६।६५) । बुक्किल्ल- गृह-शूर, झूठा शूर (दे ७।८० वृ)। बुण्ण-१ भीत, डरा हुआ। २ उद्विग्न (दे ७१६४ वृ)। बुत्ती-ऋतुमती स्त्री, रजस्वला नारी (दे ६।६४) । बुदिर-भैंस (दे ६।९८ पा)। बुदीर-भैस (दे ६।६८ पा)। बुब्बुय-बकरे की 'बें-बें' आवाज (उसुटी प ५४) । बुलंबुला-बुबुद, बुलबुला (दे ६।६५) । बर-वनस्पति-विशेष (भ ११।१३३)। बेक्किका-शौचक्रिया, शरीरचिन्ता (आवटि प २६)। बेट्टिया-बेटी, राजकन्या (बृभा ४६१५) । बेट्ट–बैठा हुआ-'कहिं उ बेट्ठो कहेति' (आवचू १पृ ३३३)। बेट्ठिय --स्थापित (अंवि पृ २४५) । बेड-नौका (दे ६।६५) । बेडा-नौका (आवदी प ३६)।। बेडिअ-नाविक-'रे बेडिअसुअ ! बोक्कडबोड्डर किं तुज्झ उग्गया बेड्डा'
. (दे ६।६५ वृ)। बेडिका-जहाज, नौका (प्रसाटी प १२५) । बेड्डा-३मश्रु, दाढ़ी-मूंछ (दे ६।९५) । बेबे-बें-बें-ऐसी आवाज, बकरे की आवाज (उशाटी प १३८) । बेभेल-सन्निवेश-विशेष-'बेभेले नाम सण्णिवेसे होत्था' (भ ३।१००)। बेभेलक-फल-विशेष (अंवि पृ ६४) । बेलि-खूटा (बृभा ५८२; दे ६।६५)।
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देशी शब्दकोश बेसक्खिज्ज-शत्रुता (दे ७७६ वृ) । बेसण-वचनीय, लोकापवाद (दे ७।७५ वृ)। बेहिम-दो टुकड़े करने योग्य (दहाटी प २१६) । बोंगिल्ल-१ विभूषित । २ आटोप, आडंबर (दे ६।६६) । बोटण-चूचुक, स्तन-वृन्त (दे ६।६६ वृ)। बोंड-१ पद्म (आवनि १३२) । २ कपास (सूचू १ पृ ४)। ३ चूचुक,
स्तनवृन्त (दे ६।६६)। बोंडज—सूती वस्त्र (सूचू १ पृ ५४) । बोंडीवमण-कपास (निचू २ पृ ३६६) । बोंद-मुख (दे ६।६६ वृ)। बोंदि-१ शरीर (भ १८८; दे ६।६६) । २ आकार, रूप
'सुहुमबोंदिकलेवरे' (भ १५॥१०१; दे ६।६६)। ३ मुंह (दे ६६६)।
४ अव्यक्त अवयवों वाला शरीर (भटी पृ १२६०) । बोंदिया-शाखा (आचूला ११५४) । बोक्कड़-बकरा (निचू ३ पृ ४१० ;दे ६।६६) । 'बोकडु' (गुज)। बोक्कडी-बकरी (दे ६।६६ वृ)। बोक्कस-वर्णसंकर जाति-१ निषाद के द्वारा अम्बष्ठ जाति की स्त्री से
उत्पन्न संतान । २ निषाद के द्वारा शूद्र स्त्री से उत्पन्न संताननिसाएणं अंबट्ठीए जाओ बोक्कसोत्ति वुच्चइ, निसाएण सुद्दीए
जातो सोवि बोक्कसो' (आचू पृ ६)। बोक्कसालिय-तन्तुवाय, जुलाहा (आचूला ११२३ चू)। बोक्कार--ध्वनि-विशेष (आवमटी प १८८)। बोक्किल-गृह-शूर, झूठा शूर (दे ७।८० वृ)। बोगिल्ल-चितकबरा (पा १६७) । बोट्टी-अपवित्र, उच्छिष्ट (बृभा ३५६५) । बोड-१ मुण्ड, मुण्डितमस्तक-एमेव अडइ बोडो लुक्कविलुक्को जह कवोडो'
(पिनि २१७) ।२ बिना किनारों वाला घट-बोडो जस्स उट्ठा णत्थि' (आवचू १ पृ १२२)। ३ धार्मिक (दे ६९६)। ४ तरुण
(ब)। बोडघेर-'छुइमुई' का पौधा (पा ६००) । बोडमच्छक-मत्स्य की एक जाति (अंवि पृ ६३) ।
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देशी शब्दकोश
३१३ बोडावित-मुण्डित-हावियं वाहिरावित्ता सा चंदणा बोडाविता....
(आवमटी प २६५) । बोडाविय-मुण्डित (आवहाटी १ पृ १४६) । बोडिगिणी-ब्राह्मणी (आवहाटी २ पृ १००) । बोडिगी-ब्राह्मणी (आवहाटी २ पृ १००)। बोडिय-१ जैन संप्रदाय-विशेष-'बोडियसिवभूइओ, बोडियलिंगस्स होई
उप्पत्ती । कोडिन्नकोट्टवीरा, परंपरा फासमुप्पन्ना ॥'
(निभा ५६२०) । २ मुंडितमस्तक (ओभा ८३) । बोडियसाला-मठ (व्य ६।२७) । बोडर--श्मश्रु, दाढ़ी-मूंछ (दे ६।६५) । बोडिआ–कादिका, कौडी-'गुणहिं न संपइ कित्ति, पर फललिहिमा
भुञ्जन्ति । केसरि न लहइ बोड्डिम, वि गय लखेहि घेप्पन्ति ।'
(प्रा ४१३३५)। बोदर—विशाल (दे ६।६६) । बोह-१ मूर्ख (पंक ४८३) । २ मुण्डित-मस्तक (आवचू १ पृ २८६) ।
३ तरुण (आव २ पृ ३०; दे ७८)। बोद्दह-१ मूर्ख-'जइ तुमं बोदहो ता कि अम्हेवि बोद्दहा'
(आवमटी प १३६) । २ तरुण (बृटी पृ ४६६)। बोद्रह-तरुण (दे ७८० वृ)। बोब्बड-मूक, भाषा-जड़ (व्यभा १० टी प १०६)। बोरक-बोरी, गोणी (बृटी पृ १०२२)।। बोल-१ कलह-'डमरा इ. वा कलहा इ वा बोला इ वा'
(भ ३।२५८; दे ६६०) । २ कोलाहल (औप ४६) । ३ समूह (बभा २२७३) । ४ मुख पर हाथ रखकर उच्च स्वर से किसी को पुकारना-'बोलो नाम मुखे हस्तं दत्त्वा महता शब्देन पूत्करणम्
(सूर्यटी पृ २८१)। बोलग-१ खिंचाव 1 २ निमज्जन-'अप्पेगइए अगडंसि ओचूलं बोलगं
- पज्जेइ' (विपा १।६।२३)। बोलेअव्व-लंघनीय (से २।१)। बोल्ल-बातचीत-'बोल्लालाव-संकहाए अच्छिस्सामि' (निचू ४ पृ ४६) । बोल्लित—कथित (आवहाटी २ पृ २२१) । बोव्व-क्षेत्र, खेत-'बोडाण पुण्णबोव्वे' (दे ६।६६ )।
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३१४
देशी शब्दकोश
बोहहर-स्तुति-पाठक, मागध (दे ६।६७) । बोहारी-बुहारी, झाडू (दे ६।६७) । बोहिग-म्लेच्छ-विशेष (बृभा १९६८) । बोहित्थ-नौका (प्रटी ३९; दे ६।६६)। बोहिय-म्लेच्छ-विशेष (बृभा १९७०) ।
भंगिय-तृण-विशेष-भंगिय त्ति तृणभेदविशेषः' (भटी पृ १४७६) । भंजुलिका-वनस्पति-विशेष (अंवि पृ ७०)। भंड-१ मण्डन, आभूषण (भ ६।१५०; दे ६।१०६) १२ क्षुर, उस्तरा ।
३ मुण्डन (बृभा ५१७७)। ४ मिट्टी। ५ रूई-'राइणा भंडहत्थी काराविओ' (दहाटी प ६६)। ६ बैंगन (दे ६११००)। ७ स्तुति पाठक । ८ मित्र । ६ दोहित्र, पुत्री का पुत्र । १० छिन्नमूर्धा, सिरकटा
(दे ६।१०६)। भंडक्किय--भांड की कुचेष्टा-'भाण्डानां विटानां कक्षावादनादिका क्रिया'
(प्रसाटी प १०५)। भंडखाइय-एक प्रकार का रसायन जो लोहे को भी गला देता है
(आवचू २ २४) । भंडग—आभूषण, मंडन (औप ५६) । भंडण-१ वाक्कलह, गाली-गलौज (भ १२॥१०३; दे ६१०१)।
२ क्रोध (सम ५२।१)। भंडमल्ल-मूल पूंजी-'खीणम्मि भंडमुल्ले किं करिही अन्नजम्मम्मि'
(सा ११३)। भंडमोल्ल-मूल पूंजी-'तत्थ वि य णस्थि किंचि वि जेण भवे भंडमोल्लं ति'
(कु पृ १६१) । भंडिय-१ गुप्तचर । २ चोर-'णूणं एते चारिया भंडिया, चोरा वा वेस
___ परिच्छण्णा' (निचू १ पृ ५३)। भंडियालिछ-विशेष प्रकार का चूल्हा (जीव ३३११८)। भंडिवडेंसय-मथुरा नगरी का एक उद्यान जिसमें विशिष्ट वृक्षों की बहुलता
थी (ज्ञा २।८।५)।
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देशी शब्दकोश भंडी-१ शिरीष वृक्ष (ज्ञा २१८।५; दे ६।१०६) । २ गुच्छवनस्पति-विशेष
(प्रज्ञा ११३७) । ३ कुलटा (आचू पृ ३३५; दे ६।१०६)। ४ गाड़ी-'आभीरो भंडीए उवरिं ठितो घयगकुंडं पणामेति' (आवचू १ पृ १२४; दे ६।१०६) । ५ अटवी (आवचू २ पृ २७६;
दे ६।१०६)। भंडु-१ मुंडन-'भंडुत्ति मुण्डनम्' (आवहाटी २ पृ ६१; दे ६।१००) ।
२ क्षुर, उस्तरा- भंडुत्ति खुरो, तेण सो मुंडिज्जति' (निचू ३ पृ २५१)। भंतिय- तृण-विशेष (भ २१।१६) । भंभन्भय- दुःख में निकलने वाली भाँ भाँ की आवाज (भ ७११७) । भंभल-१ अप्रिय । २ मूर्ख (दे ६।११०)। भंभा-वाद्य-विशेष (भ ५।६४; दे ६।१००)। भंभाभूय-दुःख में निकलने काली मां-भां की ध्वनि (भ ७।११७ पा)। भंभी-१ रसायन शास्त्र (व्यभा ३ टी प १३२) । २ असती, कुलटा
(दे ६।६६) । ३ नीति-विशेष । भंसला-कलह-'विसयप्पसिद्धासु भंसलासु' (आवहाटी २ पृ १६६) । भंसरुला--म्लेच्छ जाति का उत्सव-विशेष जहां अनेक संन्यासी एकत्रित होते
हों (निचू ३ पृ ३५०) । भंसुल-क्रीडा के समय उछलने वाले रजकण-'भंसुला क्रीडोक्षिप्तरेण्वादि
निकरा इति' (आवटि प १०६) । भगव-गोत्र-विशेष (अंवि पृ १५०)। भग्ग-लिप्त (दे ६।६६)। मच्चय-भानजा (बृभा ५११५) । मज्जि-विशेष भोजन-सामग्री (बृभा ३६१८) । भट्ट-१ आदरसूचक संबोधन (द ७१६) । २ गारुडिक, मंत्र-तंत्र से विष
उतारने वाला (उसुटी प १७४) । भट्टि-आदरसूचक संबोधन (दअचू पृ १६६) । भट्टिम-विष्णु (दे ६।१००) । भट्टे-१ पुत्र-रहित स्त्री के लिए प्रयुक्त संबोधन-'भट्टेति अब्भरहितवयणं . पायो लाडेसु' (दअचू पृ १६८)। २ ननद-भट्टेति लाडाणं पति
भगिणी भण्णइ' (दजिचू पृ २५०)। भट्ठि-धूलरहित मार्ग (भ ७।११७) । भत्तिजग-भतीजा (निचू ४ पृ ६७) ।
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३१६
भत्तिज्जय- भतीजा (भ १२।३० ) । भत्तिय - तृण विशेष ( प्रज्ञा १।४२ ) ।
भत्तोस - भूने हुए चने, गेहूं आदि- 'भक्तं च तद् भोजनमोषं च दाह्यं भक्तीषं रूढितः परिभ्रष्टचनकगोधूमादि:' ( प्रसाठी प ५१ ) ।
भद्द —– आमलक, आंवला ( प्रज्ञा १६।५५; दे ६।१००) । भद्दसिरी-— श्रीखंड, चन्दन (दे ६।१०२) । भद्दाकरि - प्रलंब, अति लंबा ( दे ६ । १०२) । भममुह - आवर्त्त (दे ६।१०१) ।
भमस - इक्षु सदृश तृण ( दे ६ १०१ वृ ) ।
भमाड -- भ्रमण, घूम कर जाना - 'सो परिरएणं भमाडेण वच्चइ' (ओटी प २० ) । भमाडण - घुमाना (जीविप पृ ३४ ) ।
भमाडय - घुमाने वाला (ओटी प ५९ ) ।
भमास - इक्षु-सदृश तृण (प्रज्ञा १/४१ | १; दे ६।१०१) । भयवग्गाम – मोढेरक, गुजरात का एक गांव (दे ६।१०२) ।
भरयाल - भारवाही पशु - ' आरोविय - गोणिभर याला ' ( कु पृ १९१) । भरिउल्लट्ट - १ विकसित ( प ५५९ ) । २ भरकर खाली किया हुआ । भरिय--१ हाथ से फेंका जाने वाला पाश, फंदा - भरिएहि ति हस्तपाशितैः" ( विपा १।३।२४ टीप ५६ ) । २ स्मृत - भरिअं लढियं सुमरिअं ' ( पा ५६४) ।
देशी शब्दको
भरिली - चतुरिन्द्रिय जंतु - विशेष ( जीवटी प ३२ ) । भरोच्छ्य- -ताल का फल ( दे ६।१०२) ।
भरोलग – एक प्रकार का धान्य ( आवचू २ पृ ३१७) ।
भलंत - स्खलित होता हुआ (दे ६ | १०१ ) ।
भलि - लक्ष्य, आग्रह - कमलई मेल्लवि अलि उलई करि गंडाई महन्ति । असुलह मेच्छण जाहं, भलि ते ण वि दूर गणन्ति' ।। (प्रा ४ | ३५३)
भल्लु - भालू, रीछ (दे ६।६६) ।
भल्लुंकी - शृगाली, शिवा (अंवि पृ ६९; दे ६।१०१) । भव्व - भागिनेय, भानजा ( दे ६।१००) ।
भव्वग - भानजा - ' भव्वगत्ति भागिनेयः' ( जीविप पृ ५५ ) । भसल - भ्रमर (दे ६ । १०१ वृ) ।
भसुंडिया - मादा सूअर ( ति ε४९) ।
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देशी शब्दकोश
मसुया - शृगाली, सियारिन - फेक्कारंति भैरवं भसुयाओ' ( उसुटी प १३८ दे ६।१०१) ।
भसेल्ल-धान्य आदि का तीक्ष्ण अग्रभाग - 'सालि-भसेल्ल - सरिसा से केसा कवितेएणं दिप्पमाणा' ( उपा २।२१) ।
भसेल्लग - धान्य आदि का तीक्ष्ण अग्रभाग ( आवचू १ पृ २४६ ) । भसोल- एक नाट्य-विधि - चउव्विहे णट्टे पण्णत्ते, तं जहा - अंचिए, रिभिए, आरभडे, भसोले' (स्था ४।६३३) ।
भाअ - बड़ी बहिन का पति (दे ६ । १०२ ) ।
भाइर - भीरु, डरपोक (दे ६।१०४ वृ)
भाइल - १ जातिवान् अश्व । २ हल में जुतने योग्य अश्व - 'कोसलरण्णा मह दिण्णाई महंताई भाइलतुरंगेहि समं गयपोययाइ" ( कु पृ ६५) ।
भाइल्ल -- किसान, हालिक (दश्रु ६ ३
६११०४)।
भाइल्लग - किसान (दश्रुचू प ३८ ) ।
भाउअ - १ ज्येष्ठ भगिनी का पति ( दे ६।१०२ वृ) । २ आषाढ मास में मनाया जाता पार्वती का उत्सव ( दे ६ । १०३ ) ।
भाउज्जा - भाभी, भोजाई (आचू पृ १८८; दे ६५१०३) । भाओज्जातिया - भाभी ( आवचू १ पृ ५२६ ) ।
भाणिज्ज - भानजा, बहिन का लड़का (आचू पृ ३४८ ) । भाणी - जलज वनस्पति- विशेष ( प्रज्ञा ११४६ ) ।
भायल - जातिवान् अश्व (दे ६।१०४) ।
भारंदुदुह - भारवाही - 'खद्धो वहिणा भारंदुदुहुत्ति उड्डाहं करोति' ( निचू २ पृ १२२) ।
भालुंकी - शृगाली - भालुंकीए करुणं खज्जंतो घोरवेयणत्तो वि' (भत्त १६० ) ।
भावइआ -- धार्मिक गृहिणी (दे ६ । १०४ ) ।
भाविम- गृहीत (दे ६। १०३) ।
भास - कौआ - ' अत्र भासशब्देन काक इत्यर्थः सम्भाव्यते'
( सूचू १ पृ १६४ टि) |
भासल - दीप्त (दे ६।१०३) ।
भासिअ - दत्त,
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दिया हुआ (दे ६ । १०४) ।
भासुंडणा - विनाश, सना - 'सपडिदुवारे उवस्सए, निग्गंथीण न कप्पई वासां । दट्ठूण एक्क मेक्कं, चरितभासुंडणा सज्जो' ( बृभा २२४१ ) ।
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देशी शब्दकोश
भासुंडि-निःसरण, निर्गमन (दे ६।१०३)। भिउडी-मकड़ी की जाति-विशेष (अंवि पृ ७०)। भिग-१ कृष्ण, काला (दे ६।१०४) 1 २ नीला। ३ स्वीकृत । भिगारी-१ चतुरिन्द्रिय कीट-विशेष, चीरी (उ ३६।१४७; दे ६।१०५) ।
२ मशक, मच्छर (अंवि पृ २३७) । ३ सर्प की एक जाति
(अंवि पृ २३८)। भिजा-अभ्यंग, मालिश (सू ११४१३६ पा) । भिंड-१ मिट्टी । २ रूई (दहाटी प ६६) । भिडिया-ललकार, आह्वान-'मुंचति अभिडियाओ, एक्केक्कं भेऽतिवाएमि'
(निभा ५६१)। भिडियालिंग-विशेष प्रकार का चूल्हा-'अग्नेराश्रयविशेषः'
(जीवटी प १२३)। भिभिया-वाद्य-विशेष (दश्रुचू प ६०) । भिच्छंड-१ भिक्षा से निर्वाह करने वाला। २ बौद्ध साधु
(ज्ञा १११५।६ टी प २०२) । भिच्छुडग-भिक्षा से निर्वाह करने वाला (आचूला १५।१३) । भिडिय-जिसने मुठभेड़ की हो वह-भिडिया महई वेलं, जाव न एगो वि
तीरए छलिउं' (उसुटी प ६३) । भिणासि-पक्षि-विशेष (प्रटी प ८) । भिणिभिणेत-भनभनाती हुई-भिणिभिणेत-मच्छियं सडसडेंत-चम्मयं'
(कु पृ २२५)। भित्त-१ आधा भाग-'अद्धं भित्तं' (निचू ३ पृ ४८१)। २ चौथा भाग
भित्तं चउभागादी' (निचू ३ पृ ४८२) । ३ द्वार । ४ गृह
(दे ६।११०)। भित्तग-१ खंड, टुकड़ा (आचूला ७।२६) । २ आधा भाग
(आटी प ४०५) । ३ चौथा भाग-'भित्तगं चतुब्भागो'
(निभा ४७००)। भित्तय-१ खंड, टुकड़ा। २ आधा भाग-'अंबभित्तयं आम्रार्द्धम्'
(आटी प ४०५) । ३ चौथा भाग (निचू ३ पृ ४८२) । भित्तर-१ द्वार (दे ६।१०५) । २ भीतर, अन्दर । भित्ति-नदी का तट-'नईणं वा तडी भित्ती' (निचू ३ पृ ३७८) । भित्तिरूव-टंक से छिन्न (दे ६।१०५) ।
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देशी शब्दकोश
भिमियमच्छ— मत्स्य की जाति - विशेष ( जीवटी प ३६ ) । भिभिसमाण – अत्यंत दीप्यमान ( ज्ञा १।११८६) भिमोर - हिम का मध्य भाग (?) (प्रा २ । १७४ ) |
भिरिंड - कुए की मेंढ - ' जुण्णकूवभिरिंडे तणपूलितं गहाय उस्चिति' (आवचू १ पृ २१० ) ।
भिरुइय - ठगा जाना, वंचित- कयाइ कहं पिन भिरुइओ होमि, ता णिहुयं होऊण पेच्छामि' ( कु पृ २५१) । भिलंग - १ धान्य- विशेष, मसूर (दश्रु ६।१८ ) । २म्रक्षण ( सूचू १ पृ ११६ ) * भिलंगाय - प्रक्षणक, चुपडना, अभ्यंगन - तेल्लं मुहे भिलंगाय - मुहमक्खणयं तेल्लं अणेहि' (सूचू १ पृ ११६) ।
भिलिंग - १ म्रक्षण - तेल्लं मुहे भिलिंगाय' ( सू ११४ | ३६ ) | २ धान्य- विशेष, मसूर (आवचू २ पृ १२० ) ।
भिलिंगाय -- म्रक्षणक, चुपड़ना - भिलिंगाय त्ति देसी भासाए मक्खणमेव ' (सूच १ पृ ११६) ।
भिलजाय - प्रक्षण, अभ्यंग ( सू १ | ४ | ३६ पा ) |
भिलुंग - हिंसक पक्षी - वणसंडंसि बहवे मिलूंगा नाम पावसउणा परिवसंति' ( राज ७०३) ।
भिलुगा - फटी हुई जमीन - भिलुगत्ति स्फुटितकृष्णभूराजि: ' ( आचूला १।५३ टी प ३३७ ) ।
भिलुया - फटी हुई जमीन, जमीन की दरार ( आचूला १०।१७ ) । भिलुहा - भूमी की दरार- - कण्हभूमिदली भिलुहा' ( दअचू पृ १५६ ) । भिल्लिरी - मछली पकड़ने का एक प्रकार का नाल ( विपा ११८१६ ) । भिल्लुगा -- भूमी की रेखा ( आचूला १।५३ पा ) ।
भिसंत अर्थ (दे ६।१०५) ।
भिसमाण – दीप्यमान ( ज्ञा १|१|58 ) ।
भिसरा - जाल - विशेष ( विपा ११८ | १९ ) ।
भिसिगा – आसन - विशेष ( सू २।२।२५ ) ।
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भिसिया - बृसी, ऋषि का आसन (भ २।३१; दे ६।१०५) ।
भिसोल - नृत्य - विशेष ( स्थाटी प २७२ ) ।
भीराहि - सर्प की जाति - विशेष - 'भी राहि गोणसो वत्ति अजो अजगरोत्त
वा' (अंवि पृ ६३) ।
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देशी शब्दकोश
भील्य-वक्ष-विशेष-'दधिवष्णो सत्तिवण्णो त्ति कोसंबो भीरुओ त्ति वा'
(वि पृ ६३)। भुअ-भूर्जपत्र, वृक्ष-विशेष की छाल (दे ६।१०६)। भुंड-सूकर (दे ६।१०६) । भुंडीर-सूकर (दे ६।१०६) । भुंदण-एक प्रकार का काष्ठ (निचू २ पृ ३६४) । भुंभर-शेखरक (ज्ञा श६७२) । भंभल-१ शेखरक, चोटी (ज्ञा १८७२ पा)। २ मद्यस्थान . (प्राक १ टी प ६२) । भुंभलक-मद्यपात्र (प्राक १ टी प ६२) । मुंभलय-चोटी, शेखरक (उपाटी पृ १०३)। भुंहडी-भूमि (प्रा ४१३६५ टी)। भुक्कण-१ कुत्ता, श्वा । २ मद्य आदि का मान (दे ६।११०) । भुक्ख-१ भूखा, बुभुक्षित (निर ११३५) । २ रूक्ष-'सुक्केणं भुक्खेणं
पायजंघोरुणा' (अनु ३३५२)। भुक्खा -भूख (ज्ञा १११३४; दे ६।१०६)। भुक्खालु-जिसे भूख अधिक लगती हो वह (निचू २ पृ ४२८)। भुक्खित-१ भूखा (दअचू पृ १५५) । २ चूर-चूर किया हुआ-'भिन्ने
भुविखते भेदिते' (अंवि पृ १४८) । भक्खुत्त---भूख से पीडित (व्यभा ६ टी प १६) । भुज्जित-भुना हुआ (आवचू २ पृ ३१७)। भुज्जिय-भुना हुआ (आचूला ११६)। भुज्झग--भुने हुए गेहूं (आचू पृ ३२६) । भण्ण-भग्न-'भुण्णकोट्ठा (णावं)' (सूचू १ पृ ३९)। भुत्तूण-भृत्य, नौकर (दे ६।१०६)। भुरुंडिया-शृगाली, शिवा (दे ६।१०१)। भरुकुंडिय-उद्धूलित, धूल से लिप्त (दे ६।१०६ वृ)। भुरुहंडिय-उधूलित, धूल से लिप्त (दे ६।१०६)। भल्लुंकी-शृगाली (पा २६७)। भुस-भूसा, बुस (भ २१।१६) । भुसुट्ट-भूसे का ढेर (निचू १ पृ ६८) ।
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देशी शब्दकोश
३२१ भा-यंत्रवाहक पुरुष या यंत्र की देखरेख करने वाला पुरुष (दे ६।१०७) । भअण्ण-जोती हुई खल-भूमि में किया जाने वाला यज्ञ (दे ६।१०७) । भणग-बालक-'देशीपदमेतत् बालके' (व्यभा ४।२ टी प ६६) । भूणिया-लड़की-'सो सेज्जातरभूणियाते सह खेड्ड करेति'
(निचू ३ पृ २४३)। भूमिपिसाअ-ताड का वृक्ष (दे ६।१०७) । भूयणा- वनस्पति-विशेष (भ २११२१)। भेंड-१ रूई । २ मिट्टी-'रण्णा भेंडमतो हत्थि कतो' भेंडमतो-रूतमयः
मृण्मयो वा' (दअचू पृ ४७)। ३ वनस्पति-विशेष-'थुल्लसारं भेंडं
एरंडकळं वा' (आचू पृ १५५): भेंडिता-ललकार, आह्वान–'मुंचति य मेंडितातो एक्केक्कं भे निवादेमि'
(बृभा ४६२७)। भेज्ज-भीरु (दे ६।१०७) । भेज्जक-मस्तिष्क (प्रटी प ११) । भेजा (राजस्थानी) । भेज्जलअ--भीरु (दे ६।१०७) । भेड-भीरु (दे ६।१०७)। भेडिगा-जालिकारहित केंचुली-'भेडिगत्ति जालिकारहिता कञ्चुलिकोच्यते'
(आवटि प ६२)। भेडिय-भिडाना, लडाना-'तेणावि कड्ढिऊणालक्खं पिव सूइओ भेडिओ
नियकुक्कुडो' (उसुटी प १६१)। मेणासि-पक्षि-विशेष-'वीरल्ल-सेण-वायस-विहंगभेणासि-चास-वगुलि'
(प्र१६)। भेणी-बहिन-'इमीए सिरिसोमाए भेणीए समप्पिऊण वच्चामि णडं दटुं'
(कु पृ ४६)। भेरुड-१ चीता, चित्रक (दे ६।१०८) । २ निर्विष सर्प । भेलअ-बेडा, नौका (दे ६।११० वृ)। भेली-१ आज्ञा । २ नौका, बेडा। ३ चेटी, दासी (दे ६।११०)। मेल्लिय-मिलाया-'कोस्लेण रपणा ओक्खंदं दाऊण भेल्लियं तं सन्निवेसं'
(कु पृ ६६)। भेल्लिया-नौका (सूचू १ पृ ११८)। भेसुंडिया-सूअर की मादा (ति ९४६) ।
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३२२
भोअ-भाड़ा, किराया (दे ६।१०८ ) ।
भोइ -१ सम्मान-सूचक- सम्बोधन - भोइ त्ति भवति ! आमंत्रणमेतत्' ( उसुटी प २१० ) । २ पत्नी - 'भोइति भारिया' ( निचू ४ पृ ६७ ) । भोइक - गृहस्वामी, पति ( निचू २ पृ १८२) ।
भोइत – गृहस्वामी, पति ( निभा १३६४) ।
भोइय - १ ग्रामप्रधान, गांव का मुखिया ( उ १५६; दे ६ | १०८ ) | २ गारुडक, मंत्र-तंत्र से विष उतारने वाला ( उसुटी प १७४) । ३ पति ( उसुटीप २) ।
भोइया - १ भार्या, पत्नी ( निचू ३ पृ ४८८ ) । २ वेश्या (व्यभा ७ टी प ४३ ) ।
देशी शब्दकोश
भोई - - भार्या ( पिनि ३६८ ) ।
भोज्ज - गुरुस्थानीय व्यक्ति विशेष - 'भोज्जा गुरुत्थाणीया' (आचू पृ ३३१) । भोतिग- पति ( निचू २ पृ ३८३) । भोतिगा - पत्नी ( आचू पृ ३४८ ) । भोतिया - पत्नी (निचू ३ पृ ε२) । भोती - भार्या (व्यभा ४। २ टी प ६७) ।
भोत्तूण - भृत्य, नौकर (दे ६ । १०६ वृ ) ।
भोयग - १ ग्राम का मुखिया (आवचू २ पृ १८० ) । २पति
( निभा ५०८१) ।
भोयडा-लाट देश में जिसे 'कच्छा' कहा जाता है,
भोयगुग्गुलि - कापालिक के पात्र का ढक्कन विशेष ( निचू २ पृ ३८ ) । उसीको महाराष्ट्र में 'भोडा' कहते हैं । कन्याएं इसे बचपन से लेकर विवाहित होने तथा गर्भवती होने तक पहनती हैं। जब वे गर्भधारण कर लेती हैं, तब सामूहिक भोज किया जाता है । उस भोज में सगे-संबंधी एकत्रित होते हैं और वे तब उस गर्भवती कन्या को अन्य शाटक पहनने के लिए देते हैं । उसके पश्चात् वह कन्या 'भोयडा' पहनना छोड़ देती है - "भोयडा णाम जा लाडाणं कच्छा सा मरहट्ठयाणं भोयडा भण्णति । तं च बालप्पभिति इत्थिया ताव बंधंति जाव परिणीया, जाव य आवण्णसत्ता जाया ततो भोयणं कज्जति सयणं मेलेऊण पडओ दिज्जति, तप्पभिडं फिट्टइ भोयडा ' ( निचू १ पृ ५२ ) भोरुड - भारुण्ड- पक्षी (दे ६ १०८ ) |
1
भोलिय - वंचित, ठगा हुआ - विसएहिं भोलि हं' (उसुटी प ४७)। भोल्लय – पाथेय - विशेष, प्रबन्ध - प्रवृ र पाथेय, य त्रा-पाथेय (दे ६।१०८) ।
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देशी शब्दकोश
मआई - शिरोमाला ( दे ६।११५) । मइअ - भत्सित, तिरस्कृत (दे ६।११४) । मइमोहणी - सुरा, मदिरा (दे ६।११३) |
म
11
मइय- - बोए हुए खेत को सम करने के लिए उपयोग में आने वाला कृषि का एक उपकरण -वाहितच्छेत्तोवरि समीकरणबीयसारणत्यं समं कट्ठ मइयं' (द ७।२८ अच् पृ १७२) ।
मइल - १ मलिन (भ ७।११७) । २ कलकल, कोलाहल । ३ निस्तेज (दे ६।१४२) ।
मइलवृत्ती --- रजस्वला स्त्री (दे ६।१२५ पा ) |
मइलिय - दूषित - कम्म - मल - मइलियस्स' (जीचू पृ २ ) ।
मइल्लय - मृत ( बुभा ६३२० ) ।
मइल्लिय - मलिन (भ ६।२३ ) |
मइहर - ग्राम प्रधान, गांव का मुखिया (दे ६।१२१) ।
मई - मदिरा ( दे ६।११३) ।
मउ - पर्वत (दे ६ ११३) ।
मउअ - दीन (दे ६ | ११४) ।
मउड - धम्मिल्ल, केशकलाप, जूड़ा ( पा ६३ ) | मउडि- जूट, जूड़ा (दे ६।११७) |
मउर - अपामार्ग का पौधा (दे ६ । ११८ ) ।
मउरंद - अपामार्ग का पौधा (दे ६।११८ ) ।
मउलि-हृदय-रस का उच्छलन, वमन के संवेदन से होने वाली उथलपुथल (दे ६।११५) ।
मल्लय - मृत ( बृटी पृ १६६९ ) ।
मंख - अण्ड, वृषण (दे ६।११२) । मंगरिया - वाद्य विशेष ( राज ४६ ) । मंगल
-१ अग्नि - ( अग्गिस्स मंगल ेति णामं केसुवि देसेसु भवति' । २ डोरा बुनने का साधन । ३ बन्दनमाला सदृश, समान (दे ६।११८) |
( आवचू १ पृ ५) ( विभा २७ ) ।
४
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देशी शब्दकोश मंगलय-सदृश-'एगेण मज्झे हत्यो छूढो, दड्डो रोवइ, ताए भण्णइ
चाणक्कमंगलयं' (आवहाटी १ पृ २६०)। मंगलसज्म-वह खेत जिसमें बीज बोना बाकी हो (दे ६।१२६) । मंगुल-१ असुन्दर (स्था ४६५४३३१) । २ अशुभ, मनिष्ट-'सो हु तवो ____ कायव्वो जेण मणो मंगुलं न चितेइ' (पंव २१४; दे ६।१४५)।
३ पाप (दे ६।१४५) । ४ चोर (व)। मंगुली-अनिष्ट, असुन्दर (उपा ६।२०)। मंगुस-नकुल, नेवला (सू २।३८०; दे ६।११८) । मुंगि, मुंगिसि-नेवला
(कन्नड़)। मंच-बंधन (दे ६।१११)। मंचुलक-प्राणी-विशेष (अंवि पृ २३८) । मंचुल्लिया-छोटी खाट, मंचिका (आवचू १ पृ ११२) । मंचिगे
(कन्नड़)। मंजरिया-मत्स्य की जाति-विशेष (जीवटी प ३६) । मंजिआ-तुलसी (दे ६।११६ वृ)। मंजीर-सांकल, जंजीर (दे ६।११६) । मंजुआ-तुलसी (दे ६।११६) । मंट--विकलांग (आवनि ११०६)। मंठ--१ शठ (दे ६।१११) । २ बन्धन-मंठो बंध इति केचित् पठन्ति'
(वृ)। मंड-- १ स्थूल, मोटा-'मंडं ति बहलं व त्ति पुत्थव्वा मेदितं ति'
(अंवि पृ ११४) । २ मिष्टान्न-विशेष-'मंडकोंडगादीणि खतिताणि ।
(निचू १ पृ १५)। मंडक-मांडा, एक प्रकार की रोटी (प्रसा २०७) । मंडगे-मैदा से निर्मित
एक खाद्य पदार्थ (कन्नड़)। मंडल-१ कुता (दे ६।११४) । २ एक प्रकार का कुष्ठ रोग
(निचू ३ पृ ३६२) । मंडिल्ल-अपूप, पूआ (दे ६।११७) । मंडिल्लका-चक्राकार खाद्य-विशेष (अंवि पृ १८२) । मंडी-१ पात्र-विशेष-'बिरालो पुवमंडीए दुद्धं तत्थेव ण पिबति'
(आवचू १ पृ १२३) । २ अन्न का अग्रभाग-'मंडीएत्ति सिद्धान्तशैल्या किलाग्रकरसंस्कृतभक्तशिखागतोदनलक्षणं मण्डीशब्देनोच्यते'
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देशी शब्दकोश
( आवटि प ९१ ) । ३ पिधानिका, ढक्कन (दे ६।१११) । ४ शिरीष वृक्ष ( प्रज्ञा ११३७५) ।
मंडुक्कि --- शाक - विशेष ( उपा १२ ) । मंडुक्की - हरित वनस्पति, ब्राह्मी (प्रज्ञा १६४४) । मंतक्ख – १ लज्जा । २ दुःख (दे ६ | १४१) । ३ अपराध | मंति-विवाह का मुहूर्त्त बताने वाला ज्योतिर्विद् (दे ६।१११) । मंतिक – कर्माजीवी ( अंवि पृ १६० ) ।
-
मंतुआ - लज्जा (दे ६।११६) ।
मंतुलित - दीन, पतित (अंवि पृ १२१ ) । मंतेल्लि - सारिका, मैना (दे ६।११६ ) ।
मंथर - १ बहुत, प्रचुर । २ कुसुम्भ, कुसूम का वृक्ष । ३ कुटिल (दे ६।१४५) ।
मंथरा -- कुसूम का वृक्ष ( पा ७०७) ।
मंथु - १ बेर का चूर्ण (द ५११५ ) - बदरामहित चुण्णं मंथू'
(अचू पृ १२४) । २ बेर, जौ आदि का चूर्ण - मंथू नाम बोरचुन्न जवचुन्नादि' (जिचू पृ १९० ) । ३ फलों का चूर्ण - 'मंथु नाम फल - चूर्ण एव' (आचू पृ ३४१ ) । ४ मट्ठा और माखन के बीच की - ' क्षीरादिकं यावन्नवनीतमस्तु' (पिटीप १) ।
अवस्था - '
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मंदीर - १ श्रृंखला । २ मन्थान ( दे ६ | १४१) । मंदुक्क - जलजन्तु - विशेष (अंवि पृ २२८ ) ।
मंदुक्कडिबिया - जलजंतु - विशेष, मेंढकी - अंडके जीवंते चेव सप्पा गस्संति, मसावि केइ छुहाता जीवंतिया चेव मंदुक्क डिबिया' ( सू २ पृ ३७६) ।
मंदुय - जलजंतु - विशेष ( प्र १५) ।
मंदुलय - विकलाङ्ग, रोगग्रस्त - 'पंगुलय- मंदुलय-मडहय-बामणय' (कु पृ ५५) मंधातइ – मेष, मेंढा - 'मंधातइ णाम मेसो ' ( सूचू १ पृ ६८) ।
मंधादय -- मेंढा - ( जहा मंधादए णाम थिमियं पियति दगं ' ( सू १३ । ७१) । मंधाय - आढ्य, समृद्ध ( दे ६ ११९ ) ।
मंस - भुजपरिसर्प ( जीवटी प ४० ) ।
मंसखल—वह स्थान जहां मांस सुखाया जाता है ( आचूला १।४२ ) मंसुडग -- मांस-खंड- 'बालाई मंसुडग मज्जाराई विराहेज्जा' (पिनि ५८६ ) |
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३२६
मकण्णी - कान का आभूषण - विशेष (अंवि पृ ७१ ) । मकरिय-वाद्य विशेष ( नि १७|१३८ ) । मकसक - सूखा क्षेत्र (अंदि पृ १६२ ) । मक्कड - जाल बुनने वाला कीड़ा (दे ६।११६वृ ) ।
मक्कडबंध -- स्वर्णसूत्र से निर्मित गले का आभरण- विशेष जो जनेऊ की भांति बाएं कंधे के ऊपर तथा दाएं कंधे के नीचे पहना जाता है (दे ६।१२७) ।
मक्कोड - यंत्र से गुंफित करने के लिए किया जाने वाला ढेर - मक्कोडो यन्त्र गुम्फनाथं राशिश्च' ( दे ६ । १४२ वृ ) ।
मक्कोडग - चींटा, मकोड़ा ( आचू पृ २६० ) । मक्कोडय --मकोड़ा, चींटा (ओनि ५५८ ) । मक्कोडा - ऊर्णापिपीलिका, मकडी (दे ६ । १४२) ।
मगइय-- हाथ से फेंका जाने वाला पाश ( विपा ११३ | ४३ ) |
देशी शब्दकोश
मगदंतिगा - मालती ( दअचू पृ १२८ ) ।
मगदंतिया - १ मालती (द ५|२| १४) । २ मोगरा । २ मल्लिका (बेला) ( अचू पृ १२८; हाटी प १८५) ४ मेंहदी का गाछ ।
अगरिग - आभूषण - विशेष ( जीव ३।५१३) । मगसक - चतुरिन्द्रिय जीव - विशेष । (अंवि पृ २३७ ) । मगसिर - चतुरिन्द्रिय जंतु- विशेष (जीवटी प ३२ ) । मगहगधरच्छ- - आभरण - विशेष ( औप ५१ टि) ।
मगा— पश्चात् (दे १।४ वृ) |
अग्ग - पश्चात्, पीछे (आवचू १ पृ ५६ ; दे ६।१११ ) | मग पीछे ( मराठी ) ।
मग्गय - पश्चात्, पीछे ( पा ε६४) ।
मेग्गइय- हस्तपाशित, हाथ से फेंका जाने वाला फंदा (विपाटी प ६२ ) ।
मग्गओ --पीछे (नंदी १३ ) |
मग्गण्णिर — अनुगमनशील (दे ६।१२४) 1
मग्गतो -- पृष्ठतः, पीछे से- 'अण्णयरे पुरिसे मग्गतो आगम्म' (भ १।३७० ) । मग्गमग्गी-पीछे-पीछे ( आवहाटी १ पृ २५६) । मग्गरिमच्छ - एक प्रकार का मत्स्य ( प्रज्ञा १०५६ ) ।
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देशी शब्दकोश
मग्गवच्छक – वनस्पति- विशेष (अंवि पृ २३८ ) ।
-मग्गिल्ल - १ पीछे का, पश्चाद्वर्ती (पंक ४८८ ) । २ पहले का, पूर्ववर्ती (व्यमा ४/४ टी पε६ ) ।
मग्गिल्लिय - पीछे ( आवचू १ पृ २१७ ) ।
मघोण - इन्द्र ( प्रा २।१७४) । मच्च - कचरा, मैल ( दे ६ । १११ ) ।
मच्चि -- मलयुक्त, मैला (दे ६।१११ वु) ।
मच्छंधुल --- मत्स्यबन्ध-उपकरण ( विपा १८१९ ) ।
मज्जा - १ माता, देवी- विशेष (अनुद्वाचू पृ १३) । २ सीमा, मर्यादा (दे ६।११३) ।
मज्जाया-सीमा, व्यवस्था - 'मज्जाया सीमा ववत्था' (निचू १ पृ १३७) । मज्जार - वायु- विशेष - 'मार्जारो वायुविशेष:' ( भटी पृ १२७० ) |
-
मज्जिअ - १ अवलोकित । २ पीत (दे ६ | १४४) ।
मज्जोक्क – प्रत्यग्र, नवीन (दे ६।११८ ) ।
-
माअ - नापित, नाई (दे ६ । ११५) । मज्झआर -- मध्य (दे ६।१२१) । मज्झतिअ - मध्याह्न (दे ६ । १२४) । मज्झंतिक - मध्य (अंवि पृ ७७ ) 1
मज्झमिल्ल - मध्यम (जीचू पृ २३) ।
मज्झयार – मध्य- सिवियाए मज्झयारे, दिव्वं वररयणरूवचेवइयं ।
-
सीहासणं महरिहं, सपादपीढं जिणवरस्स || ( आचूला १५|२८|८ ) । 'जो न विवट्टइ रागे नवि दोसे दोण्ह मज्झयारम्मि ।
सो होइ उ मज्झत्थो सेसा सव्वे अमज्झत्था || ' ( विभा २६६१ ) । मज्झरस -- गोत्र - विशेष (अंवि पृ १५० ) ।
मज्झिमगंड - उदर, पेट (दे ६।१२५) ।
मट्ट - शृगविहीन (दे ६।११२) ।
मट्टग - घडा ( निचू २ पृ २५३) ।
मट्ठहिअ - १ विवाहित स्त्री का कोप । २ कलुष । ३ अशुचि (दे ६ १४६ ) ।
मट्ठ
- अलस, आलसी (दे ६ । १२२) । माठा ( राजस्थानी ) । मट्ठोरु – आलसी ( कु पृ १५१) ।
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देशी शब्दकोश
मड-१ मृत, मरा हुआ (दश्रु पा५४; दे ६।१४१) । २ कण्ठ
(दे ६।१४१)। मडंब-वह प्राम-विशेष जिसके चारों ओर एक योजन तक दूसरा गांव न
हो (सू २।२।७)। मडगगिह-म्लेच्छ जाति के व्यक्तियों के घर का वह अभ्यंतर भाग जहां
शव गाडा जाता है-'मडगगिहं णाम मेच्छाणं घरभंतरे मतयं
छोढुं विज्जति ण डझति' (निचू २ पृ २२५) ।। मडप्फर-१ उत्साह-को दूरमग्गेण मडप्फरो ते' (व्यभा ४/४ टी प १६)।
२ गर्व, अभिमान-'भग्गमयणमडप्फरो कुमारो' .
(उसुटी प २६३; दे ६१२०) । मडभ-१ ठिगना (बृटी पृ १६१०) । २ कुब्ज-मडभाः कुब्जाः '
(व्यभा ४।३ टी प २१) । मडय-१ आराम, बगीचा (दे ६।११५) । २ मृतक (निचू २ पृ २२५)। मडवोज्झा-शिविका (दे ६।१२२) । मडह-१ लघु एवं स्थूल-'लडहमडहजाणुए' (उपा २।२२) । २ ठिगना
(बृभा ६०६०) । ३ लघु (दे ६।११७)। ४ स्वल्प । मडहक-छोटा (अंवि पृ ११५)। मडहर-गर्व (दे ६।१२०) । मडहिया-बौनी स्त्री (अंवि पृ ६८)। मडाइ-प्रासुकभोजी (भ २।१३) । मडासय—श्मशान-'मसाणासणे आणेत्तुं मडयं जत्थ मुच्चति तं मडासयं'
(निचू २ पृ २२५)। मडिआ-आहत स्त्री (दे ६।११४)। मडुवइअ—१ हत, विध्वस्त । २ तीक्ष्ण (दे ६।१४६) । मड्डय-वाद्य-विशेष (राज ७७) । मड्डु-ढोल (कन्नड़)। मड्डा-१ जबरदस्ती-'अम्हे मड्डाए पव्वाविया' (उसुटी प २६;
दे ६।१४०) । २ हठ, गर्व (ज्ञाटी प ७३) । ३ आज्ञा(दे ६।१४०)। मढणा-कटु और कठोर वचन-'मढणाहिं निवारणं सउणिदिळंतो'
(व्यभा २ टी प२८)। मढिअ-१ परिवेष्टित (दे २१७५) । २ खचित । मण-१ लोकवाद्य-विशेष (कु पृ २६) । २ निषेधार्थक अव्यय । मणगुलिया-पीठिका (जीव ३६४१२) ।
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देशी शब्दकोश
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मणाम-मन के लिये प्रिय, सुन्दर (स्था २०२३३)। मणामत्त-मन के लिए प्रियता आपादित करने वाला (भ ६।२२)। मणावण-मनाना (निभा ३४५)। मणिणायहर-समुद्र (दे ६।१२८)। मणिरइमा-स्त्रियों की करधनी, कटिसूत्र (दे ६।१२६) । मणिसोमाणक-गले का आभूषण-विशेष (अंवि पृ १६३) । मणोगुलिया-पीठिका (जीव ३।३२६) । मणोज्जा-गुल्म वनस्पति-विशेष (भ २२१५) । मण्ह-मसृण, चिकना (औपटी पृ १७) । मतिय-कृषि का उपकरण-विशेष (प्रटी प १३) । मतिलित-मैला (निभा ४४६१)। मतेल्लित-मृत (आवचू १ पृ २७८) । मत्तग-प्रस्रवण, मूत्र-'मत्तग सुवणं च जयणाए' (बृभा २३३१) । मत्तबाल-मदोन्मत्त, मत्त (दे ६।१२२)। मत्तल्ली-बलात्कार (दे ६।११३) । मत्तवाल-मदोन्मत्त (दे ६।१२२ पा) । मत्तालंब-मतवारण, वरंडा (दे ६।१२३) । मत्थकत-खाद्य-विशेष (अंवि पृ १८२) । मत्थग-कान का आभूषण-विशेष-'कुंडलं वा बको व ति मत्थगो तलपत्तगं"
(अंवि पृ६४)। मत्थयधोय-दासत्व से मुक्त किया हुआ-'धौतमस्तकाः... अपनीतदासत्वा'
(ज्ञा ११११७५ टी प ४३)। मत्थयपच्छालण-दासत्व से मुक्ति (व्यभा ६ टी प ३८) । मदगंतिया-१ मालती, मोगरा । २ मल्लिका-'मदगंतिमा-मेत्तिया, - अन्ने भणंति-धियइल्लो मदगंतिया भण्णइ'
(दजिचू पृ १६६)। मद्दग-गुच्छ-वनस्पति-विशेष (प्रज्ञा ११३७।४) । मद्दल-मृदंग (दश्रु १०।२४) । मधुरक-मुख का आभूषण-विशेष (अंवि पृ १८३) । मधुला–पादगण्ड, (निचू २ पृ ६०) ।
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मधूला -- पाद- गण्ड ( बृभा ३८६५ ) | मन्नक्ख - महान् दौर्मनस्य ( बुभा ४१५६ ) ।
मन्ने-वितर्क अर्थवाला अव्यय - मन्ने इति वितर्कार्थी निपातः'
देशी शब्दकोश
(अंतटी प८ ) ।
मध्पक – नापतोल - 'जं वागियगा परस्स चक्खुं वंचेऊण मप्पकं करेंति' ( निचू १ पृ ११५ ) ।
मब्भोसडी- --- अभय - वचन ( प्रा ४।४२२) । ममच्चय - मेरा ( निचू २ पृ १६२ ) । मम्मक्का – १ उत्कण्ठा । २ गर्व (दे ६ । १४३) । मम्मण – १ मदन, कामदेव । २ रोष (दे ६।१४१) । मम्मणिआ-नीलमक्षिका ( दे ६ | १२३) ।
मम्मी - मामी, मामा की पत्नी (दे ६।११२) । मयंसल - कृमि - विशेष ( अंवि पृ ७० ) । मयगल - हाथी (दे ६।१२५ वृ) | मयड - बगीचा (दे ६।११५) । मयणसलाया - सारिका, मैना (दे ६।११६) । मयणसाल - सारिका, मैना ( आवचू १ पृ ४७६) । मयणसाला - सारिका, मैना ( प्र १९ ) । मयणिवास — कन्दर्प, कामदेव (दे ६ । १२६) । मधुत्त - गीदड़ ( दे ६।१२५ वृ) ।
मयरंद - कुसुम-रज, पराग (दे ६।१२३) । मयल - मलिन ( उशाटी प २१५) । मयलबुत्ती- - रजस्वला स्त्री (दे ६।१२५) । मयलवुत्ती - रजस्वला स्त्री (दे ६।१२५ पा ) ।
-
मयल्लय - मलिन (बूटी पृ १०६) ।
मयहर - १ गांव का मुखिया ( उसुटी प १४३) । २ मुखिया, नायक | महरिया - मुख्या साध्वी- 'सच्छंदा समणीमो मयहरियाए न ठायंति' ( ग ११८ ) ।
मयाई - शिरो-माला (दे ६।११५ पा) ।
मयार - एक प्रकार का अपशब्द - ' जत्थ जयार-मयारं समणी जंपइ गिहत्थपच्चक्खं' (ग ११० ) ।
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देशी शब्दकोश मयाली-निद्राकरी लता (दे ६।११६) । मर--१ मशक, मच्छर । २ उल्लू (दे ६।१४०) । मरकल-पक्षी-विशेष (अंवि पृ २३८) । मरट्ट-गर्व (दे ६।१२०)। मराल-१ अविनीत- खलुका गली मरालो शठो प्रतिलोमो अविनीतः
इत्येकार्थः' (उचू पृ २७०) । २ आलसी (दे ६।११२) । ३ हंस
-'मरालो हंस इति सातवाहनः' (वृ) । मरालि - आलसी बैल या घोड़ा-'गंडी गली मराली अस्से गोणे य हुंति
एगट्ठा' (उनि ६४) । मराली-१ सारसी, मादा सारस । २ दूती । ३ सखी (दे ६।१४२) । मरिचग-कुंथु आदि सूक्ष्म प्राणी (दश्रुचू प ५१) । मरुल-भूत, पिशाच आदि-'काममरुलमडिआ सा मउआ' (दे ६६११४) । मल-स्वेद, पसीना (दे ६।१११) । मलंपिअ-अहंकारी (दे ६।१२१)। मलक-मणि-विशेष-'गोमेदका अंका मलका सासका सिलप्पवाला'
(अवि पृ २३३) । मलय-१ आस्तरण-विशेष (ज्ञा १२१७।२२) । २ पर्वत का एक भाग।
- ३ उपवन (दे ६।१४४) । मलवट्टी-तरुणी (दे ६।१२४) । मलहर-तुमुल ध्वनि, कोलाहल (दे ६।१२०) । मलिअ-१ लघु क्षेत्र । २ कुण्ड (दे ६।१४४) । मल्ल-१ मैल-'जल्लमल्लकलंकसेय-रहियसरीरे' (ज्ञा २११।१६) ।
२ बलि-मल्लति बलीए णाम' (आवचू १ पृ ३३२) । ३ सिकोरा (आवहाटी १ पृ ४२) । ४ भीत का आधारभूत काष्ठ
(भटी प ३७७)। मल्लग-पात्र-विशेष, शराब (नंदी ५१)। मल्लय-१ शराव, सिकोरा (ज्ञा १११६।२६; दे ६।१४५) । २ पूआ,
अपूप का एक भेद । ३ कुसुम्भ-रक्त । ४ चषक, प्याला
(दे ६।१४५)। मल्ला -दीवार का आधारभूत काष्ठ (भ ८१२५७) । मल्लाणी-मामी, मातुलानी (दे ६।११२) । मल्लुंडी-जलचर प्राणि-विशेष (अंवि पृ ६९) ।
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३३२
देशी शब्दकोश
मल्हण-लीला, मनोरंजन (दे ६।११६) । मसार-कसौटी का पत्थर-'मसारो मसृणीकारकः स चात्र कषपट्टः संभाव्यते'
(औपटी पृ १६)। मसिण-१ रम्य (दे ६३११८) । २ मन्द, धीमा (से ११४५) । मसरक-वाद्य-विशेष जो चर्म से मढा हुआ हो-'वीणा मसूरका पखरगतं
दद्दरका' (संवि पृ २३०) । महंग-ऊंट (दे ६।११७) । महंत-आकांक्षा करते हुए-'परधणं महंता' (प्र ३१५) । महच्चय-मेरा (उशाटी प ५१) । महण-पितृ-गृह, पीहर (दे ६।११४) । महत्थार-१ भाण्ड, भाजन (दे ६।१२५) । २ भोजन- महत्थारं भोजन मिति
सातवाहनः' (वृ)। महम हिय-१ प्रसृत (प्रा १११४६) । २ सुरभित । महयर-गह्वरपति, निकुंज या गुफा का मालिक (दे ६।१२३) । महर-असमर्थ (दे ६।११३) । महल्ल-१ बड़ा (ज्ञा ११२।११) । २ वृद्ध-'डहरा य महल्ला य जुवाणा य'
(अंत ६।५५; दे ६।१४३) । ३ दीर्घ-'महान्तो दीर्घतया' (प्रटी प ६१) । ४ समूह । ५ पृथुल, विस्तीर्ण । ६ मुखर ।
७ समुद्र (दे ६।१४३)। महल्लय-बड़ा (आचूला ४।२८) । महल्लिय-बड़ा, विस्तीर्ण (आचूला १।२६) । महाणड-रुद्र, महादेव (दे ६।१२१) । महापाली-गणनातीत (उपमेय) काल, सागरोपम-प्रमाण कालमान
(उ १८१२८)। महाबिल-आकाश (दे ६।१२१) । महायत्त-आढ्य, समृद्ध (दे ६।११६) । महाल-जार, उपपति (दे ६।११६) । महालक्ख-तरुण (दे ६।१२१)। महालवक्ख-श्राद्ध-पक्ष, भाद्रव मास में होने वाला श्राद्ध-पक्ष (दे ६।१२७)। महावल्ली-नलिनी, कमलिनी (दे ६।१२२) । महाविडिम-वृक्ष (प्र ६।१)। महासउण-उल्लू (दे ६।१२७) ।
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देशी शब्दकोश महासद्दा-शिवा, शृगाली (दे ६।१२०) । महि-छाछ (आवचू २ पृ १०१) । महिआ-मेघ-समूह (पा ४१६)। महिट-मछे से संसृष्ट, तक्र-संस्कारित (विपा १।६।१२) । महिय--तक्र, छाछ (बृटी पृ ५३) । महियाडुक-घी का मल (बृटी पृ ५०५) । महियाडव-घी का किट्ट, घृत-मैल-'घृतघट्टः महियाडवं' (पंवटी प ६३) । महिलाथूभ-कूपतट-'महिलास्तूपं च कूपतटमित्यर्थः' (आवमटी प ३६०) । महिलिया-महिला, स्त्री (जीभा १६२२) । महिसंद-शिग्र का वृक्ष (दे ६।१२०) । महिसक्क-महिषी-समूह (उसुटी प ७; दे ६।१२४ पा)। महिसिंदु-१ खज्जू री वृक्ष-महिसिंदु-रुक्खस्स त्ति खज्जूरीवृक्षस्येत्यर्थः'
(आवटि प २३) । २ शिग्रु का वृक्ष, सहिजना का पेड । महिसिक्क-महिषीसमूह (दे ६।१२४) । महिसेंद-शिग्रु का वृक्ष (आवचू १ पृ २७६) । महस-१ स्तुति कर याचना करने वाला, मागध । २ वह पक्षी जो 'श्री',
'श्री' ऐसी आवाज करता है, श्रीवद पक्षी (दे ६।१४४) । महंडिम-ग्रहाधिष्ठाता देव-विशेष (निचू ३ पृ २२४) । महुमुह-पिशुन, चुगलखोर (दे ६।१२२) । महुरालिअ-परिचित (दे ६।१२५) । महला-चिलोड़ी, फोड़ा-विशेष-पादे गण्डं महुला भष्णति' (निचू २ पृ.) । महसिस्थ—कर्दम-विशेष, स्त्री के पैरों में लगे अलक्तक तक लगने वाला
कर्दम (ओनि ३३ टी)। महेड्ड-पंक, कीचड (दे ६।११६)। माअलिआ-मातृष्वसा, मौसी (दे ६।१३१)।। माइ-पक्ष्मल, बालों से युक्त (ज्ञाटी प २४६; दे ६।१२८) । २ मयूरित,
पुष्पित । माइं–मा, मत, नहीं (दे ६।१२८ वृ)।' माइंदा--आमलकी, आंवला का गाछ (दे ६।१२६)। माइघर-योगिनी का मंदिर-'वच्च माइघरे सुसाणे कण्हचउद्दसीए बलि
देहि' (उसुटी प ७५)।
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देशी शब्दकोश
माइय-पक्ष्मल, रूक्ष बालों से युक्त (ज्ञा १।१८।३५) । २ जिसके हाथ में
पाश-फंदा हो वह-'माइय त्ति हस्तपासिकाः' (प्रटी प ४७) ।
३ मयूरित, पुष्पित (औप ५) । माइलि-मृदु (दे ६।१२६) । माइवाह-द्वीन्द्रिय जंतु-विशेष (जीवटी प ३१) । माइवाहय-द्वीन्द्रिय जंतु-विशेष (उ ३६।१२८) । माईण-जटाधारी देवी-उन्भडजडाकडप्पा खरफरुसा-दोहकेसणहरिल्ला ।
चक्कलपीणपओहर माईण व आगया एक्का ॥' (कु पृ १२२)। माईवाह-द्वीन्द्रिय जंतु-विशेष (प्रज्ञा १५४६)। माउआ-१ मूंछ (ज्ञा ११९१६) । २ सखी । ३ माता-'माउयाउ
उत्तरोष्ठरोमाणि सम्भाव्यन्ते अथवा माउया-सख्यो मातरो वा' (ज्ञाटी प १६६; दे ६।१४७) । ४ दुर्गा (अवि पृ २२३;
दे६।१४७)। माउक्क-मृदु (दे ६।१२६ व)। माउग-वस्त्र का आदि भाग (बृभा ३६५२) । माउग्गाम–१ स्त्री-'मरहट्ठविसयभासाए वा इत्थी माउग्गामो भण्ण ति'
(निचू २ पृ ३७१) । २ स्त्रीवर्ग-'समयपरिभाषया स्त्रीवर्गः'
(बृटी पृ६०४)। माउच्छ-मृदु (दे ६।१२६)। माडंबिय-मडंब का नायक-'सन्निवेशविशेष-नायकः' (भटी पृ ६५०)। माडिअ-गृह (दे ६।१२८)। माढ–शिखर (जंबूटी प ४६) । माणं-१ निषेधसूचक अव्यय (ज्ञाटो प १६)। २ वाक्यालंकार में प्रयुक्त
अव्यय-'माणमिति वाक्यालंकारे' (व्यभा ४/४ टी प ४८)। माणंसि-१ मायावी । २ चन्द्रवधू, वीरबहूटी, कीटविशेष (दे ६।१४७) ।
३ मनस्वी ()। माणक-एक प्रकार का घट-'अरंजरो अलिंदो त्ति कुंडगो माणको त्ति वा'
(अंवि पृ ६५)। माणिअ-अनुभूत (दे ६।१३०) । मात-दुर्बल, कृश-'ओझीणं परिहीणं ति मातं ति' (अंवि पृ ११४) । मातलाहणग-खाद्य-विशेष (निच २ पृ २५१)। माथु–खाद्य-विशेष, दही के ऊपर का द्रवपदार्थ (आवटि प २४) । मादलिआ-माता (दे ६।१३१) ।
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दशी शब्दकोश
३३५.
माभाइ-अभय-दान (दे ६।१२६) । माभीसिम-अभय-दान (दे ६३१२६ वृ)। मामणा-ममता, ममकार-'मामण त्ति ममीकारार्थे देशीवचनम्'
(आवहाटी १ पृ८६)। मामा-मातुलानी, मामी (दे ६।११२) । मामि-सखी का आमंत्रण-शब्द (दे ६।१२८ वृ)। मामिया-मामी, मातुलानी (विपा श३।१४) । मामी-मामा की पत्नी, मामी-'मामी शब्दोऽपि देश्यः' (दे ६।११२ वृ)। मायंद-आम्र (दे ६।१२८)। मायंदी-श्वेतपटा साध्वी, श्वेत वस्त्र धारण करने वाली संन्यासिनी
(दे ६।१२६)-'मायंदी उवदिसइ' (व)। मायार-मदारी, बन्दर पकड़ने वाला (बृटी पृ ८६) । मार-मणि का लक्षण-विशेष (जंबूटी प ३२) । मारामारी-मारपीट (पिटी प १५०) । मारिलग्गा--कुत्सिता (दे ६।१३१) । माल-१ खाद्य पदार्थ आदि रखने के लिए ऊपर बनाया गया मंच
(द ५११६६)। २ घर का ऊपरि भाग, दूसरी मंजिल-'मालो य घरोवरि होति' (भटी प २७४) । ३ समूह (आवहाटी २ पृ ८६) । ४ मञ्च, आसन-विशेष (ज्ञाटी प ७२; दे ६।१४६)। ५ आराम, बगीचा । ६ सुन्दर (दे ६।१४६) । ७ गुच्छ वनस्पति-विशेष (प्रज्ञा ११३७१५)। ८ चिनकर बनाई हुई पाल-'सहकठेहि य मालं करेंति, चिक्खिल्लेणं लिंपइ कंटयछायाए व उच्छाएई'
(आवहाटी २ पृ ८६)। ६ देश-विशेष । मालग-घर का ऊपरी भाग, मंजिल (जीभा १२७०) । मालय-म्लेच्छ-विशेष जो मनुष्यों का अपहरण करते हैं
. (व्यभा ४१४ टी प १३) । माला--ज्योत्स्ना, चांदनी (दे ६।१२८)। मालाकुंकुम–प्रधान कुंकुम, श्रेष्ठ कुंकुम (दे ६।१३२) । मालि-वृक्ष-विशेष (समप्र २३१) । मालुका-पक्षिणी-विशेष-'उलुकी मालुका व त्ति सेणा' (अंवि पृ ६६)। मालुग-त्रीन्द्रिय जन्तु-विशेष (उ ३६।१३७) । मालुय-तीन इन्द्रिय वाले जन्तु-विशेष (प्रज्ञा ११५०) ।
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३३६
मालूर - १ कपित्थ, कैथ ( दे ६ | १३० ) । २ बिल्व का गाछ ( वृ) । ३ बिल्व-फल ।
मासाल
- उच्च आसन- विशेष - मास्लो मचको वत्ति पत्लंको पडिसेज्जको ' (अंवि पृ ६५) ।
मासिअ - पिशुन, चुगलखोर (दे ६।१२२) ।
देशी शब्दकोश
मासी - छाछ - ' एगस्स पिया छासी मासी अण्णस्स वेसरी' (आचू पृ १६६ ) | मासुरी - श्मश्रु, दाढी के बाल (दे ६।१३० ) - "ता माहिल ! तुज्झ मुहे किमुग्गया मासुरी एसा' (वृ) |
माह -कुन्द - पुष्प (दे ६।१२८) ।
३६ । १४८) ।
माहकी - गोत्र - विशेष (अंवि पृ १५० ) । माहय - चतुरिन्द्रिय कीट - विशेष ( उ माहारयण – १ वस्त्र ( दे ६ | १३२ ) । २ वस्त्रविशेष (वृ ) । माहिल - महिषीपाल, भैंसों को चराने वाला (दे ६ | १३०) | माहिवाअ- शिशिर - पवन (दे ६।१३१) । २ माघ का पवन । माहुर--शाक (दे ६ | १३० ) ।
माहुरग - खाद्य विशेष ( निचू २ पृ २५१ ) ।
मिचक्कीला - चक्षुः स्थगनक्रीडा, आंखमिचौनी (दे ३ | ३०) |
मिजिक – त्रीन्द्रियजन्तु - विशेष (वि पृ २६७) ।
मिठ - महावत ( दजिचू पृ ६१ ) ।
मिढिय - ग्राम विशेष (आवमटी प २६७) ।
मिढिया - मेषी (पा ६६९ ) ।
मिथ - महावत ( दजिचू पृ ६१ ) ।
मिगंड - कस्तूरी - " मिगंड - कप्पूरागरु - कुंकुम चंदण' ( निघू २ पृ ४६७ ) ।
मिणाय - बलात्कार (दे ६।११३) ।
मित्तल - कंदर्प, कामदेव (दे ६।१२६ वृ) ।
मित्तलय - कन्दर्प, कामदेव (दे ६।१२६) ।
मित्तिवअ - ज्येष्ठ, पति का बड़ा भाई ( दे ६।१३२) ।
मिय - हरिण के आकार का पशु- विशेष जो हरिण से छोटा होता है और जिसका पुच्छ लंबा होता है - 'मिएहिंतो लहुतरा मृगाकृतयो
बृहत्पिच्छा' (अनुद्वाचू पृ १५) ।
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देशी शब्दकोश
मिरा-मर्यादा ( पिनि २३७ ) । मिरिआ - कुटी, झोंपडी (दे ६ । १३२) । मिलाण - पर्याण ( औप ६४ टी ) । मिलिंदक - सर्प की एक जाति (अंवि पृ ६३) । मिलिमिलि मिलंत - चमकता हुआ ( प्र ३१५) ।
- मिसिमिसंत - अत्यन्त चमकता हुआ ( औप ६३) ।
मिसिमिसित - अत्यन्त चमकता हुआ - ' वेरुलियव रिट्ठरिट्ठअंजणनि उणो वियमिसिमिसितमणिरयणमंडियाओ' (दश्रु ८।१० ) ।
मिसिमिसेमाण- उत्तेजित - ' कुविया चंडिक्किया मिसिमिसेमाणा'
(भ ३।४५) ।
मिस्सिग -- पूज्य - ' अह उवज्झाओ से पिट्टेइ अपढते ताहे साहेति 'माइमिस्सि गाणं' ( आवहाटी २ पृ १४२ ) ।
मिहिआ - मेघसमूह (दे ६।१३२) ।
मिहुज्जुहिय — विवाह का मंडप, वर-वधू का परिणयन स्थल - वधुवर परिक्षणं ति मिहुज्जू हिया' (निचू ३ पृ ३४८ ) ।
३३७
मीअ – समकाल, उसी समय ( दे ६ | १३३ ) ।
मीढ — भास पक्षी -- 'भासो मीढसउणओ' (बुटी पृ २४८ ) ।
मोरा - दीर्घ चुल्ली, बड़ा चूल्हा ( सूनि ७६) । २ सीमा ( निचू २ पृ १६६ ) मीराकरण-द्वार को चटाई आदि से ढकना - 'मीराकरणं नाम - कटैर्द्वारादेराच्छादनम् (बृटी पृ ५६१ ) ।
मीसालिअ - मिश्र, संयुक्त (दे ६।१३३ वृ) ।
मुअंगी - चींटी (दे ६।१३४) ।
मुआइणी – डुम्बी, चंडालिन ( दे ६ । १३५) ।
मुइअ - योनिशुद्ध, निर्दोषमातृक- 'मुइओ जो होइ जोणिसुद्धो त्ति' ( औप १४ टी पृ २१) ।
मुद्दअंगा - चींटी (पिनि ३५१ ) ।
मुइंगा - चींटी (ओनि ५५८ ) ।
मुईग-मकोडा - मुईगति देशीपदमेतत् मत्कोटवाचकम्'
(व्यभा ३ टी प ७७ ) ।
मंगली - नेवली ( अंवि पृ ६९ ) ।
मुंजा पिच्चिय - मूंज को कूटकर बनाया हुआ (रजोहरण) (स्था ५।१६१) ॥]
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३३८
देशो शब्दकोश
मुंड-१ स्थाणु-विशेष जो भैसों के बाडे में अर्गला के रूप में काम आता है
(अनु ३३३८ टी) । २ तीक्ष्ण-'मुंडपरसूहि' (प्रटी प ६०)। मुंडग--पात्र-विशेष, प्याला (अंवि पृ ६५) । मुंडा-मृगी, हरिणी (दे ६३१३३)। मुंडी-नीरंगी, चूंघट (दे ६।१३३)। मुंदिका-फल-विशेष (अंवि पृ ७०)। मुक्क-पर्याप्त, उचित, योग्य (व्यभा ७ टी प १६) । मुक्कय-किसी कन्या के विवाह में निमंत्रित अन्य कन्याओं का विवाह
(दे ६४१३५)। मुक्कल-१ मुक्त, स्वतंत्र (बृटी पृ ६००) । २ उचित । ३ स्वैर,स्वच्छंद
(दे ६।१४७)। मुक्कलिअ-बन्धन-मुक्त, स्वतंत्र (दे १११५६ वृ)। मुक्किल्लय-मुक्त, त्यक्त (अनुद्वाहाटी पृ ८८) । मुक्कंडी-जूट, जूड़ा (दे ६।११७) । मुक्कुरुड-राशि, ढेर (दे ६।१३६)। मुक्केल्लय-मुक्त, त्यक्त (अनुद्वाहाटी पृ ८८) । मगंस-नकुल, न्यौला-'मुगुसपुच्छं व तस्स भुमकाओ फुग्गफुग्गाओ'
(उपा २।२१) । मुगुंसिया-भुजपरिसर्पिणी (जीव २।६)। मुगुसिआ--भुजपरिसर्पिणी (जीवटी प ५२)। मग्गड-मोगल,म्लेच्छ-जाति-विशेष (प्रा ४१४०९) । मुग्गस-नकुल, न्यौला (दे ६।११८)। मुग्गिल्ल-पर्वत-विशेष (भत्त १६१) । मुग्गुसु-नकुल, न्यौला (दे ६।११८) । मुग्घड -मोगल, म्लेज्छ जाति-विशेष (प्रा ४१४०६)। मुग्घुरुड-राशि, ढेर (दे ६।१३६) । मट्रि-पुस्तक का एक प्रकार-'चउरंगुल दीहो वा वट्टागिइ मुट्टिपुत्थगो अहवा
चउरंगुलदीहो च्चिय चउरंसो होइ विन्नेओ' (प्रसा ६६६) । मुढिक्का-हिक्का, हिचकी (दे ६।१३४) । मुण-मुक्त (आवदी प १०१) । मुणमुणंती-बड़बडाहट करती हुई (व्यभा ५ टी प ५) ।
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देशी शब्दकोश
मुणि- अगस्ति - वृक्ष (दे ६॥१३३) ।
मुणिय -- १ पागल, भूताविष्ट - मुणिओत्ति काउं मुक्को, मुणिओ पिसाओ ( आवहाटी १ पृ १३७ ) । २ ज्ञात ( उसुटी प २ ) । मुत्तोली - १ धान्य का वह कोठा जो ऊपर-नीचे संकरा तथा मध्य में विशाल हो- 'मोट्टा हेट्टुवरि संकडा इसि मज्झे विसाला ' प्राणि - विशेष (अनुद्वाच् पृ ५० ) २ मूत्राशय ( तंदु १३६) । (अंवि पृ २५३) ।
मुदग्ग — जीव पुद्गल - निर्मित ही है - ऐसा मिथ्या ज्ञान (स्था ७२ ) । देखें- 'मुयग्ग' |
मुदिंग - चींटी (निभा ४२६० ) ।
मुदिय - योनि-शुद्ध-मुदिओ जो होति जोणिसुद्धो तु' (जीभा १९६७) । मुदुग - ग्राह - विशेष, जलजन्तु की एक जाति ( प्रज्ञा १।५८ ) ।
मुद्दी - चुम्बन (दे ६ । १३३) ।
मुद्धड -- मूर्ख, भोला ( कु पृ २१० ) ।
मुद्धय - जलचर - विशेष, ग्राह (प्रज्ञा ११५८ ) ।
मुद्धुय -- ग्राह - विशेष (प्रज्ञा १३५८ पा ) !
मुधुलूक - पक्षि- विशेष, उलूक की एक जाति (वि पृ ६२) । मुब्भ- -घर के मध्य का तिर्यक् काष्ठ (दे ६ । १३३) । 'मोभ' (गुजराती) । मुम्मुई---१ अस्पष्टभाषी । २ मूक हो जाना - ' से मुम्मुई होइ अणाणुवाइ ' ( सू २।१२१५) ।
मुम्मुर - तुषाग्नि ( सू १।५।१०) । २ भस्मच्छन्न अग्नि ( प्र १२३ ) । ३ करीषाग्नि ( ६ ४ | २०; दे ६ । १४७) । ४ करीष, गोईंठा (दे ६।१४७) ।
मुम्मुलक -- जन्तु - विशेष (अंवि पृ ७० ) ।
मुयग्ग- जीव पुद्गल - निर्मित ही है - ऐसा मिथ्या ज्ञान
३३६
- "भुयग्गे त्ति बाह्याभ्यन्तरपुद्गल रचितशरीरो जीव इत्यवष्टम्भवत्, भवनपत्यादिदेवानां बाह्याभ्यन्तरपुद्गल - पर्यादानतो वैक्रियकरणदर्शनात्
( स्थाटी
३६४) मुरई - असती, कुलटा (दे ६ । १३५) ।
मुरग - त्रीन्द्रिय जंतु - विशेष ( जीवटी प ३२ ) ।
मुरल-धान्य का माप - विशेष (ज्ञाटी प १२६) ।
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३४०
देशी शब्दकोश मरली-नालिका, मुरली-'णालियत्ति अपव्वा भवति, सा पुण लोए मुरली
भण्णति' (निचू १ पृ८४) । भरव-१ धान्य रखने का कोठार । २ धान्य मापने का पात्र-विशेष
(अनुद्वा ३७५) । ३ धान्य से भरी गाड़ी के ऊपर दिया जाने वाला
ढक्कन-'मुरवं गन्त्र्या उपरि यद्दीयते' (अमुद्वामटी प १४०)। . भरवि- आभूषण विशेष (भ ६१६०)। मुरवी-मुरज के आकार का आभरण (भटी पृ ८७६)। मुरिअ-१ त्रुटित (दे ६।१३५) । २ मुडा हुआ। मुरुडी- अनार्य देश-विशेष की दासी (ज्ञा १।११८२)। मुरुंब-मिट्टी-विशेष-'कण्हमत्तिका पंडुमत्तिका तंबभुमी मुरुंबो कडसक्करा'
(अंवि पृ २३३)। मुरुमुंड-धम्मिल्ल, बंधे हुए बालों का जूडा (दे ६।११७) । मुरुमुरिअ-कामासक्ति से होने वाली उत्सुकता, रणरणक (दे ६।१३६) । मुरुव-चिकनी मिट्टी-मिदूसु कण्हमत्तिका मुरुवो तंबो वेति विण्णेया'
(अंवि पृ २३३)। मुलासिम-स्फुलिंग, चिनगारी (दे ६।१३५) । मसंढी-१ अनंतकाय वनस्पति-विशेष (भ ७६६)। २ लोहमय गोल
कांटों से जटित दारुमय प्रह रण-विशेष (उ १६६१)। मुसली-दुष्प्रतिलेखना का एक प्रकार (पंव २४०)। मुसह-मन की आकुलता (दे ६।१३४) । मसहि-१ अनन्तकाय वनस्पति-विशेष (भ ८।२२१) । २ प्रहरण-विशेष
(ोप. १)। मुसुमरणा-चबाया जाना-'करवत्त-करालदाढावली-मुसुमूरणाचुक्कस्स'
(कु पृ २२३)। मुसुमरिअय-चूणित, टूटा हुआ (पा ५१६) । मुसुमरिय-त्रुटित, तोड़ा हुआ-'दिण-पक्ख-णक्खत्त-करवत्त-दंतावली
- मुसुमूरिओ महाकालमच्चुवेयालेणं ति' (कु पृ २१३) । मुहत्थडी-मुख के बल पर गिरना (दे ६।१३६) । मुहमक्कडिय-मुंह को मोड़ना, मुंह मचकाना (आवचू २ पृ १६४) । मुहरोमराइ-भौंह, भ्रू (दे ६११३६)। मुहल-मुख (दे ६।१३४)। मुहिम-वैसे ही करना (दे ६।१३४) ।
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देशी शब्दकोश
३४
मुहिआ--वैसे ही करना, व्यर्थ ही करना (दे ६।१३४ वृ)-जिणसासणं पि
कहमवि लद्ध हारेसि मुहियाए'। मुहुमुह-दुर्जन, खल (पा १२३) । मूअल-मूक (दे ६।१३७) । मअल्ल-मूक (दे ६।१३७) । मूअल्लइअ-मूक (से ॥४१) । मइंग-चींटी-'मूइंगमाति खइते' (निभा २१८६)। मइंगलिया-पिपीलिका, चींटी (पंव २३८) । मइंगा-चींटी (ओनि ५६०) । मइंगलिया-चींटी (सं ८५)। मइयंग-चींटी-'जीवा मूइयंगमूसादी' (जीभा १२६३)। मएल्लि -मूक (कु पृ ८२) । मड-अन्न का एक दीर्घ परिमाण-'चउत्थीए भाउयखेत्तेसु आरोविऊण
वुड्ढि नीया, जाया वरिसपणगेण मूडसहस्सा' (व्यभा ४१४ टी प ३५)। मढक-शरासन, आसनविशेष (ज्ञाटी प ४७)। मढत्थ-धान्य-बिशेष- मासा मूढत्थ चणका कुलत्थ त्ति सण त्ति वा'
(अंवि पृ६६)। मढिगाह-धान्य आदि भरने के लिए जमीन को खोदकर, ऊपर से संकरा
और नीचे से विस्तीर्ण बनाया गया भूगृह जो अग्नि से संस्कारित किया जाता है। इसमें एकत्रित धान चिरकाल तक सुरक्षित रहता है-'मूढिगाहा भूमी एगा खणितु भूमीघरगं उरि संकडं हेट्ठा विच्छिन्नं अग्गिणा दहित्ता कज्जति, ताहिं तु चिरंपि गोधूमादि
वत्धुं अच्छति' (आचू पृ ३३६) । मतिगलिया-चींटी, पिपीलिका (जीभा २१)। मयंगा-चींटी (आचू पृ ३२८) । मयग-मेवाड़ देश में होने वाला तृण-विशेष-'मेदपाटप्रसिद्धस्तृणविशेषः'
(प्रटी प १२८)। मरग-भञ्जक, तोड़ने वाला (प्र ४१५) । मरण-तोडने वाला-'जय महामोहमूरण' (कु पृ २४२)। मरय-भञ्जक, तोड़ने वाला-पंचविहो ववहारो, दुग्गइभवमूरएहिं पण्णत्तो
(जीभा ८)। मलवेलि-घर के छप्पर का आधारभूत स्तम्भ-'पट्टीवंसो दो धारण
चत्तारि मूलवेलीओ' (प्रसा ८७१)।
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३४२
देशी शब्दकोश मलिल्ल-मूल पूंजीवाला-'अस्थि य देवदत्ताए गाढाणुरत्तो मूलिल्लो
मित्तसेणो' (उसुटी प ६१)। मूसरि-भग्न (दे ६।१३७) । मसल-पुष्ट, मांसल (दे ६४१३७) । मसा-छोटा द्वार (दे ६।१३७) मसाअ-लघु द्वार (दे ६।१३७) । मेअज्ज-धान्य (दे ६११३८)। मेअर-असहन, असहिष्णु (दे ६११३८) । मेंट-विकलांग (आवचू २ पृ २१) । मेंठ-महावत (निभा २४६१; दे ६।१३८) । मेंठी-मेषी, भेड़ (दे ६।१३८)। मेंढिय-ग्राम-विशेष (आवचू १ पृ ३१६) । मेंढी-भेड़, मेषी-'मेण्ढीशब्दोऽपि यदि देश्यः तदा पर्यायभङ्ग्या निबद्धः'
(दे ६।१३८ )। मेज्जक-पक्षी-विशेष (अंवि पृ १४५) । मेज्जुल्लअ-मज्जा-'मिज्जं मेज्जुल्लउत्ति वुत्तं भवति' (निचू २ पृ २१)। मेडंभ-मृगतंतु, मृगजाल (दे ६।१३६) । मेढ-वणिक्-सहाय, व्यापारी का सहयोगी (दे ६११३८) । मेढक–काठ का छोटा डंडा (प्र १।१८) । मेती-चाण्डालिन-'पुरोहितसुतो तीए दुगुंछाए रायगिहे मेतीपोट्टे आगतो'
(आवचू १ पृ ४६४) । मेत्तिया-मगदंतिका, मालती (दअचू पृ १२८)। मेरा-१ मर्यादा, सीमा (भ ७।२४; दे ६।११३) । २ तृण-विशेष
(प्र८।१०)। मेलिमिद -फण वाले सर्प की जाति-विशेष (प्रज्ञा १७०) । मेली-संहति, समूह (दे ॥१३८) । मेसर-लोमपक्षी-विशेष (जीवटी प ४१)। मेहच्छीर-जल, पानी-'पेडंभखलिज्झन्ता मेहच्छीरं पि कह वि अपिअन्ता'
(दे ६।१३६)। मेहर-गांव-प्रमुख-'आगओ निजमेहरपेसितो नडो' (उसुटी १ २५०;
दे ६।१२१ वृ)।
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देशी श० कोश मेहुण-म मा का पुत्र (बृभा २८२२) । मेहुणय-फूफा का लड़का (दे ६।१४८)। मेहुणि-१ मामे की लड़की । २ बूआ की लड़की-'मेहुणि त्ति
___माउलपिउस्सय धाता' (निचू ४ पृ १३५) । मेहुणिआ-१ मामा की लड़की-'मेहुणिया माउलदुहिया'
(निचू २ पृ २४; दे ६।१४८)। २ भार्या (व्यभा ७ टी प ४३) ।
३ साली, पत्नी की बहिन (दे ६।१४८) । मेहुल-मामा का बेटा-'मेहुलो (णो) माउलपुत्तो' (निचू ३ पृ ५८६) । मो-पादपूरक अव्यय (उ ६।१४) । मोअ-१ अधिगत, प्राप्त । २ ककड़ी आदि का बीजकोश (दे ६।१४८) । मोंढ-म्लेच्छ-जाति-विशेष (प्रज्ञा १८६)। मोकलि-वनस्पति-विशेष (भ २२१६)। मोक्कणिआ-कमल का काला मध्य भाग, कृष्ण-कणिका (दे ६।१४०)। मोक्कणी---कृष्ण-कर्णिका (दे ६।१४० व)। मोक्कल-स्वतंत्र (निचू २ पृ २२२)। मोक्कलय-खुला छोड़ना (ओटी प ६७)। मोगरावड-मत्स्य की एक जाति (जीवटी प ३६) । मोगली-वल्ली-विशेष (प्रज्ञा ११४०।५) । मोग्गड-१ नीच जाति-विशेष (पंवटी प ३७) । २ व्यन्तर-विशेष । मोग्गर–१ गुल्म-विशेष (जीव ३।५८०) । २ मुकुल, कलिका
(दे ६।१३६)। ३ मोगरा, मगदंतिका का पुष्प
(निचू ३ पृ ५१७)। मोग्गरग-मोगरा (निभा ४८३८)। मोग्गरिस-संकुचित, मुकुलित-'भयमोग्गरिअमुहा तुह रिउणो गयमोचया
वणे जंति' (दे ६।१३६ वृ)। मोच-१ अर्धजंघी, एक प्रकार का जूता (दे ६।१३६) । २ मूत्र, प्रस्रवण
(सूचू १ पृ ११८)। मोचय-एक प्रकार का जूता (दे ६११३६७)। मोट्टा-छोटा कोठा (अनुद्वामटी प १४०)। मोट्रा-धान का वह कोठा जो ऊपर-नीचे से संकरा और मध्य में विशाल हो
(अनुद्वाहाटी पृ ७५) । मोड-जूट, शिर पर बंधे हुए केशों का जूडा, धम्मिल्ल (दे ६।११७) ।
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देशी शब्दकोश
मोडाउड-अहमहमिका -'जेणुम्मत्तपमत्तउ हिंडइ पुरिपहिहिं ।
मोडाउडि करंतउ वेढिउ बहुनरहिं । (उसुटी प १३५) । मोढरी-वनस्पति-विशेष (भ २३।६) । मोहालक-वृक्ष-विशेष (जीव ३१५८०)। मोब्भ-घर के ऊपर का तिर्यक् काष्ठ (दे ८।४) । मोभ-घर के ऊपर का तिर्यक् काष्ठ-'धरणयोरुपरिवर्ति तिर्यगायतकाष्ठं
____ 'मोभं' इति यत्प्रसिद्धम्' (भटी पृ ६६१)। मोय-१ मूत्र (स्था २०२४७) । २ बीजकोश, गिरी-'मोयं पुण छल्लिपरिहीणं'
(निभा ५४११), 'मोय अब्भंतरो गीरो'. (निचू ४ पृ ६६)। मोयइ-देश-विशेष में प्रसिद्ध एक अस्थिवाला वृक्ष (प्रज्ञा ११३५१) । मोयमेहा-प्रस्रवण-'कोसं च मोयमेहाए' (सू १।४।४३)। मोयारग-मदारी (अनुद्वाहाटी पृ १२)। मोयारय-बंदर पकड़ने वाला-'मोयारएहिं गहिओ' (अनुद्वाहाटी पृ १२)। मोर-श्वपच, कुत्तों को पकाकर खान वाले चांडालों की एक जाति
(दे ६।१४०)। मोरउल्ला-मुधा, व्यर्थ (प्रा २।२१४) । मोरंग-कान का आभूषण-विशेष-'घडेहि मे एत्थ मोरंगाई'
(निचू ३ पृ २६६)। मोरंड-१ तिल आदि के मोदक बेचने वाला (बृभा ३२८१) । २ तिल
आदि के मोदक । ३ खाद्य-विशेष-'मोरंडा नाम रोट्टमया गोलया
जारिसया कीरंति इति विशेष चूणौँ' (टी पृ ६१६)। मोरंडक-तिल आदि के मोदक बेचने वाला (बृभा ३२८१)। मोरकूल्ला-अवज्ञा, व्यर्थ-'मोरकुल्ला, मुहा य मुहियत्ति नायव्वा' इति
बचनात् अवज्ञयेति भावः । उक्तञ्च मूलटीकायां 'मुधिकया
अवज्ञया' (जीवटी प १०६)। मोरग-१ कुण्डल-'लोभेण मोरगाणं, भच्चग ! छेज्जेज्ज माह ते कन्ना'
(बृभा ५२२७) । २ तृण-विशेष (आवचू २ पृ १२८) । ३ मयूर
की पांख से निष्पन्न (पंक ४८३) । मोरड-क्षाररसवाला एक पौधा (व्यभा २ टी प ४०)। मोरत्तअ-१ श्वपच, श्वपाक (दे ६।१४०)। २ चण्डाल-'मोरत्तो चण्डाल
__ इत्यन्ये' (व) । मोरत्तिय-चांडाल-जाति (निचू २ पृ २४३) ।
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देशी शब्दकोश
मोरेंडक – तिलमोदक (अंवि पृ १८२ ) । मोसली - दुष्प्रतिलेखना का एक प्रकार (स्था ६।४५ । १ ) ।
र - निश्चयार्थक अव्यय - तेण र विसमं नायं वासतणा तस्स पडिसेहे',निपातः किलशब्दार्थ : ' ( दनि १४७ हाटी प ७६) ।
, - " र इति
रइगेल्ल अभिलषित ( दे ७३ ) ।
रहगेल्ली - रतितृष्णा, मैथुन - लालसा - 'रइगेल्ली रतितृष्णेति केचित्' (दे ७/३ वृ) ।
रद्दलक्ख - १ रति-संयोग, मैथुन । २ नितम्ब (दे ७|१३ ) ।
रइल्लय – प्रियंगु - 'आहाकम्माणि भक्खाणि रइल्लयाणि' (ओटी पृ ३५६ ) । खोलिर -- झूलने वाला ( पा ५३२) ।
रंग-पु, रांगा धातु - विशेष (दे ७११ ) 1
रंघड – दरिद्र- किं एतेहि रंघडकुलेहिं ? इस्सर कुले हि .... ?”
(दअच् पृ १३१) ।
रंजण- घट (दे ७।३) । २ कुण्ड - रंजणं कुण्डमिति केचित् ' ( वृ)
रंदुअ-रज्जु (दे ७१३) ।
रंभ - आन्दोलनफलक, झूले का पाटिया (दे ७। १) ।
रकि- भाण्ड, उपकरण - विशेष - कुंडगतं वा उक्खलिगतं वा रकिगतं वा (अंवि पृ २१४) ।
-
रक्ख – राख, भस्म ( आवहाटी १ पृ २१४ ) । रगडा - एक सन्निवेश का नाम ( कु पृ ४५) । रसिया - वाद्य विशेष ( जीव ३१५८८ ) ।
रग्गय - कौसुंभ वस्त्र ( दे ७१३) ।
रच्छाभित्ति - भोज्य पदार्थ - विशेष (अंवि पृ ७१ ) |
रच्छाम - कुत्ता (दे ७२४) ।
३४५
रज्जवइ -- स्वतंत्र - 'रज्जवई राया भविस्सइ - रज्जवइत्ति स्वतंत्र इत्यर्थ: " (भ ११ १३४ टी पृ εε४) ।
रज्जुग - लिखने का काम करने वाला (दश्रुचू प ६५) । रज्जुगसभा– १ लेखक- गृह (दश्रु ८८३) । २ शुल्क- गृह ।
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३४६
रज्जुगोज्ज -- संघर्ष - रज्जुगोज्जं करेति संघसं करोतीत्यर्थः ' ( आवचू २ पृ ४३ ) ।
रडिय - कलहयुक्त - ' कलहाइअं रडिअं' (पा ७४६ ) ।
रणरणय - १ अधृति - " अदिही अरई य रणरणओ' ( पा ४४७ ) । २ उत्सुकता (दे १।१३६) । ३ निःश्वास ।
रहक - दीर्घ, लंबा ( अंवि पृ ११५ ) । रत्तक्खर – सीधु, मद्य-विशेष ( दे ७१४) । रत्तच्छ -१ हंस । २ व्याघ्र ( दे ७।१३) । रत्तय — बंधूक वृक्ष का फूल (दे ७।३) । रति - आज्ञा (दे ७।१) । रत्तीअ - नापित, नाई ( दे ७२) ।
रद्धि---प्रधान, मुख्य (दे ७:२) |
रफग
रूफ – १ वल्मीक, बांबी (निच १ पृ ६६ दे ७/१ ) । २ रोग-विशेष । - खराब फोडा - 'दुट्ठवणो रप्फगादि, किरियाए विणा ण विसुज्झति ण णप्पति' (निचू २ पृ २४) ।
-
रफडिआ - गोह, गोधा (दे ७ ४) ।
रफा- बांबी, वल्मीक ( पा ४७६ ) । रब्बा - १ राब, यवागू - "एहि किल शीतलीभवति रब्बा'
( आवहाटी १ पृ ६१ ) । २ रूक्ष पदार्थ (बृटी पृ ४१४) । रणिय - कुमुद (दे ७|४) ।
रयवली -- बाल्य, शिशुत्व (दे ७।३) ।
रल्लक - १ त्रीन्द्रिय जीव - विशेष (आवंटि प २५) २ एक प्रकार के मृग या भेड़ के रोओं से बना कंबल ( कु पृ १८ ) ।
देशी शब्दकोश
रल्लग — प्रावरण-1 ग- विशेष ( जीव ३।५६५) ।
रल्ला -- १ दही में उत्पन्न होनेवाला त्रीन्द्रिय प्राणी (आवचू २ पृ १०१ ) । २ प्रियंगु, मालकंगनी (दे ७|१) ।
रल्लिका - एक प्रकार का कंबल ( कु पृ १८ ) |
रवअ -- मंथान- दंड, बिलौने की लकड़ी (दे ७ ३) ।
रवि -- टुकड़े-टुकड़े किया हुआ - रविउ' त्ति द्रावितः खण्डशो नीतो मास' (नंदीटि पृ १०३ ) ।
रसद्द - चूल्हे का मूल भाग (दे ७।२) । रसय – वसा, मेद आदि (बृभा १७११) ।
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देशी शब्दकोश
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रसाअ - भ्रमर, भौंरा - 'रसाऊ तथा रोलंबो भ्रमरः । रसाअशब्दोऽयमित्यन्ये । यद् गोपालः - अलिरपि रसाओ स्यात्' (दे ७ : २ वृ) ।
रसाउ - भ्रमर, भौंरा (दे ७/२) ।
रसाल - खाद्य - विशेष - 'खंड तुला दसभागो दस खंडपला हवंति णायव्वा । तेतमि पक्खिवित्ता मज्जिय णामं रसालोत्ति ॥' (पंक ७३५) । रसाला - पेय-विशेष, मार्जिता (दे ७/२) ।
रसालु - राजा के लिए निर्मित खाद्य पदार्थ - विशेष - दो पल घी, एक पल मधु, आधा आढक दही, बीस मिर्च तथा दस पल चीनी से बना हुआ पाक - विशेष - 'दो घतपला महुपलं दहिस्स अद्धाढयं मरिय वीसा | खंडतुलाद भागो, एस रसालू निवइजोगो || ' ( पंक ७३४) ।
रसिगा - पीव (व्यभा ६ टीप ६१ ) ।
रसियरी, पीव - ' किडिभं जंघासु कालाभं रसियं वहति' ( निचू ३ पृ ६२ ) ।
रसिया - १ पीव ( त्र १ २३) । २ छंद - विशेष ।
रसोतीगह - रसोईघर (अंवि पृ १३६ ) ।
रहिअ - १ एकाकी, अकेला - रहिए विहारइत्ता, जहारिहं देति पच्छित्तं' ( जीभा ६६१) । २ रहा हुआ, स्थित । राअ - चटक, गौरैया पक्षी (दे ७।४) ।
राअला - प्रियंगु, मालकंगनी (दे ७११) ।
राइल - १ रंगा हुआ (निचू २ पृ २१२ ) । २ शोभित ( कु पृ १२८ ) । राइल्लेऊण - चीरकर - 'ओट्टियं सयलगं राइल्लेऊण रयणाणि छूढाणि' ( आवहाटी १ पृ२८३) ।
राडि–१ चिल्लाहट - ' ते हम्मता राडि करेंति' ( उसुटी प २६ ) । २ कलह ( उशाटीप १०० ) । 'राड़' ( राजस्थानी ) । ३ संग्राम (दे ७७४) ।
राणयभोत्ति - राज्य - राणयभोक्त्ती रज्जं भण्णति' (निचू १ पृ १३३ ) ।
राणिया-रानी ( निचू १ पृ १७ ) ।
रातण - राजादन फल ( अंवि पृ२३८ ) ।
राती - संध्या - " संभा राती भणिया' (दश्रुचू प १५ ) ।
रायंछुअ - वेतस का पेड़ (पा ८६९ ) ।
रायंबु - १ वेतस, बेंत का पेड़ । २ शरभ, अष्टपाद पशु ( दे ७।१४ ) |
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देशी शब्दकोश
रायगइ-जलौका, जौंक (दे ७।५) । राला-प्रियंगु, मालकांगनी (आवहाटी १ पृ २८३; दे ७१)। रावग-राजपुरुष (निचू ३ पृ ४३६) । राविअ-आस्वादित (दे ७.५) । रावित-रसी, पीव (आवमटी प २६७) । राह-१ दयित, प्रिय । २ निरंतर । ३ शोभित । ४ सनाथ । ५ पलित,
सफेद केशों से युक्त (दे ७।१३) । ६ रुचिर, सुन्दर (पा १४) । रिंगणी-वल्ली-विशेष, कण्टकारिका (दे २।४) । रिंगिअ-भ्रमण (दे ७६)। रिगिणिका-वल्ली-विशेष, कण्टकारिका-रिंगिणिकाकंटको अश्वशरीरेऽनु
प्रविष्टः' (व्यभा २ टी प ४४)। रिगिसिगि-घर्षण-वाद्य, घर्षण से स्वर उभारने वाला वाद्य
(जंबूटी प १०१)। रिछोली-श्रेणि, पंक्ति-कंदुज्जलपवरदसणारछोलि'
(नंदीटि पृ १०६; दे ७१७)। रिडी–कन्था की भांति फटा वस्त्र (दे ७१५)। रिकिसिक-पक्षी-विशेष (अंवि पृ ६२)। रिकिसिका-आपस के संघट्टन से बजने वाला वाद्य-विशेष-'घट्टिज्जंतीणं
रिकिसिकाणं' (आवचू १ पृ ३०६) । रिक्क-अल्प-'जाओ रिक्को मे वित्तवयो' (निचू २ पृ ३२६; दे ७।६)। रिक्कविरिक्क-अत्यन्त भारहीन-'तुमं पुण समणगस्स रिक्कविरिक्कस्स ..
मग्गं देसि' (आवचू १ पृ ५३६) । रिक्किअ-शटित, सडा हुआ (दे ७१७) । रिक्ख-१ वृद्ध (दे ७६) । २ बुढापा-'रिक्खो वयःपरिणाम इति केचित्'
(वृ)। रिक्खण–१ उपलंभ, अधिगम । २ कथन (दे ७११४) । रिक्खा-थकान-'अण्णा रिक्खाओ अवणेइ' (कु पृ १०१)। रिगिसिगि-वाद्य-विशेष (आवचू १ पृ १८७) । रिगिसिगिआ-वाद्य-विशेष-'धय॑माणवादित्र-विशेषः' (जंबूटी प १०१)। रिग्ग-प्रवेश (दे ७।५)। रिच्छ-वृद्ध (दे ७६)। रिच्छभल्ल-भालू (दे ७१७) ।
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देशी शब्दकोश रिट्ठ-१ कौआ (दे ७६) । २ दैत्य-विशेष (से १।३) । रिणकंठ-एक जनपद, जहां की भूमि वर्षाकाल में पानी से भर जाती है
और शेष समय में उसमें दरारें पड़ जाती हैं (निचू २ पृ १५०) । रित्तूडिअ-शाटित, झडवाया हुआ (दे ७१८) । रिद्ध—पका हुआ (दे ७।६)। रिद्धि--राशि, समूह (दे ७१६) । रिप्प-पृष्ठ, पीठ (दे ७।५) । रिमिण-रोदनशील (दे ७१७) । रिरिअ-लीन, आसक्त (दे ७१७) । रीढ–अवगणना, अनादर (दे ७।८) । रीढा--यदृच्छा, इच्छा के अनुसार (बृभा २१६२) । रुअरुइआ-उत्कण्ठा (दे ७।८)। रचण-रूई से कपास को अलग करने की क्रिया (पिनि ५८८)। रुचणी-घरट्टी, दलने का प्रस्तर-यंत्र (दे ७८) । रुचिय-पिष्ट, पीसा हुआ (बृटी पृ ३६२)।
जग-वृक्ष-'कुहा महीरुहा वच्छा रोवगा रुंजगाई य' (दनि १) । रुटणया--अवज्ञा (पिनि २१०) । रुटणा--अवज्ञा-'बहूहिं खिज्जणियाहि य रुंटणाहि य उवलंभणाहि य'
(ज्ञा १।१८।१०)। हंटणिया-१ अवज्ञा, अनादर । २ रोदन क्रिया (ज्ञा १।१६।६७) । हंढ-आक्षिक, जूआरी (दे ७८) ।
ढिअ-सफल (दे ७८)। रुद-१ दीर्घ-रुंदाई पलोएमाणे' (भ १५॥१२०) । २ विस्तीर्ण
(औप ४६) । ३ महान्, विशाल-'संघसमुदस्स रुदस्स' (नंदी गा ११) । रुंद्र-विशाल (कन्नड़)। ४ विपुल । ५ वाचाल
(दे ७।१४)। रुक्क-बैल की भांति शब्द करना-रुक्क ति सद्दकरणं' (अनुद्वाचू पृ १३) । रुगण-- कृष्ण वस्तु-विशेष-अंजणं कज्जलं व त्ति रुगणं' (अंवि पृ ६२) । एण्णमाला--कंठ या वक्षस्थल का आभूषण (कु पृ १९४) । रुप्फय-सर्प आदि के काटने पर किया जाने वाला उपचार-विशेष
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देशी शब्दकोश
'तहविय अठायमाणो गोणसखइयाइ रुप्फए वावि।
कीरइ तयंगछेओ सअट्ठिओ सेस रक्खट्ठा' । (भावनि १४२४) । रुल्ल-विकलांग-रुल्ला अजंगम च्चिय पंगुलया चलण-परिहीणा'
(कु पृ ४०)। रूय-रूई, तूल (भ ११३१३३; दे ७९)। रूरुइअकाम का आवेग, उत्कंठा-'मुरुमुरिअं रूरुइझं" (पा ५१८)। रूवमिणी-रूपवती स्त्री (दे ७६) । रूवि-गुच्छ-विशेष, अर्क-वृक्ष (प्रज्ञा १।३७।१ दे ७।६) । रेअविअ-१ शून्य किया हुआ, क्षणीकृत (दे ७।११) । २ मुक्त, त्यक्त (वृ)। रेकिअ--१ आक्षिप्त । २ लीन । ३ लज्जित (दे ७।१४) रेक्खण-१ उपलंभ, अधिगम । २ कथन (दे ७।१४ )। रेग-विविक्त अवसर-'रेगो नत्थि दिवसतो रतिपि न जग्गते समुव्वातो'
(व्यभा ६ टी प २५) । रेणि-पंक, कर्दम (दे ७६) । रेल्लग-प्रवाह-'जह वप्प-व-सारणि-नइरेल्लगसालिरोप्पाई'
(आवहाटी २ पृ६१)। रेल्लण-प्लावन (पिटी प १६४) । रेल्लिया-जल-प्रवाह से युक्त (निचू १ पृ ६१) । रेवई–मातृका, देवी (दे ७१०)। रेवज्जिअ-उपालब्ध, जिसको उलाहना दिया हो वह (दे ७१०)। रेवट्ट-धान्य-विशेष (आचू पृ ३३८) । रेवय--प्रणाम, नमस्कार (दे ७६)। रेवलिआ-धूल का आवर्त (दे ७।१०)। रेसणिया-कांस्य-भाजन-विशेष (पा ८१५) । रेसणी-१ अक्षि-निकोच । २ करोटिका, एक प्रकार का कांस्य भाजन
(दे ७।१५)। रेसि-लिए, निमित्त, वास्ते-पंचह दिवसह रेसि राय ! म पाविहिं वट्टह'
(उसुटी प १२५)। रेसिम-छिन्न, काटा हुआ (दे ७।६) । रेहंत-शोभित होता हुआ (ज्ञा १।१।२४) । रेहिअ-जिसकी पूंछ काट दी गई हो वह, छिन्नपुच्छ (दे ७।१०)।
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देशी शब्दकोश रेहिर-शोभित (कु पृ ११७) । रोअणिमा-डाकिनी (दे ७/१२)। रोंकण-रंक, निर्धन (दे ७११) । रोक्कणि-१ शृंगी, सींग वाला प्राणी । २ नृशंस, क्रूर (दे ७।१६)। रोक्कणिअ--१ शृंगी, सींग वाला प्राणी । २ नृशंस (दे ७१६ वू)। रोघस-रंक, निर्धन (दे ७११)। रोम-रोझ, नील गाय (प्रज्ञा १६४; दे ७।१२)। रोट्ट-चावल का आटा (निभा १४८; दे ७।११)। रोट्टग-रोटी-'लभिहिसि तुमं अज्ज घयगुलसम्पन्नं महंतं रोट्टगं'
(उसुटी प ६३)। रोड-१ अनादर । २ हैरानी (निचू १ पृ १६४) । ३ गृहप्रमाण, घर का
मान (दे ७।११)। रोडी-१ इच्छा । २ व्रणी की शिविका (दे ७।१५) । रोढ-भूमिगत स्रोत से रुका हुआ पानी (अंवि पृ २६६) । रोद्ध-१ कूणिताक्ष । २ मल (दे ७।१५) । रोमराइ-जघन, नितम्ब (दे ७/१२) रोमलयासय-उदर, पेट (दे ७।१२) । रोमसल-जघन, नितम्ब (दे ७।१२)। रोर–१ कोलाहल । २ रंक, निर्धन (उसुटी प ८६; दे ७।११) । रोल-१ कोलाहल-वंदणवोलं रोल करेंता विसंति' (निचू २ पृ १३)।
२ कलह (ओटी प १०३; दे ७।१५) । रोलंब-भ्रमर (दे ७१२)। रोसाणिय-मृष्ट, परिमार्जित (पा ६६४) । रोह-१ प्रमाण । २ नमन (दे ७१६) । ३ मार्गण-'रोहो मार्गण
. इत्यन्ये' (वृ)। रोहणिक-त्रीन्द्रिय जंतु-विशेष-'कुंथु-पिपीलिका-उपचिक-रोहणिक-तेवरुक'
(संवि पृ २६७)। • रोहिणिक-१ द्वीन्द्रिय जंतु-विशेष (अंवि पृ २२६) । २ अरुण रंग का
पक्षी (अंवि पृ २२५)। रोहिणीय-त्रीन्द्रिय जन्तु-विशेष-'ओवइया रोहिणीया कुंथू पिपीलिया'
_ (प्रज्ञा १३५०)।
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देशी शब्दकोश
रोहिय-रोझ, नील गाय (प्र ११६; दे ७/१२) रोहियंस-तृण-विशेष (प्रज्ञा ११४२) ।
लइअ--१ परिहित, पहना हुआ-'एकावलि-कंठलइय-वच्छा'
(समप्र २४१; दे ७।१८) । २ अंग में पिनद्ध (वृ)। लइअल्ल-वृषभ (दे ७।१६)। लइणी- लता (दे ७।१८)। लउस--वृक्ष-विशेष (अंवि पृ २३८) । लउसिया-देश-विशेष की दासी (ज्ञा १।१।६२)। लंका-१ शरीर का एक अवयव-'कंडरा पण्हिका लंका' (अंवि पृ ६६) ।
२ शाखा। लंखक-गायक, चंडाल-विशेष जो गाना गाते हैं (व्यभा १० टी प ६६) । लंगंती-धीरे-धीरे चलती हुई, लंगडाती हुई–'करिणी......"लंगंती ओसरइ'
(उशाटी प ५३)। लंगवलग-धान्य-विशेष (निचू २ पृ १०६)। लंच--कुक्कुट, मुर्गा (दे ७१७) । लंचापलि--वृक्ष को एक जाति (अंवि पृ ७०) । लंचिक्क-हीरा, माणक आदि- हयगयलंचिक्कारं तेणेंतो तेणओ उ उक्कोसो'
(निभा ३६५४) । लंछ-चोर-विशेष (विपा ११११४६) । लंद-काल, समय-'लंदं तु होइ कालो। समयपरिभाषया लन्दशब्देन कालो
भण्यते' (प्रसा ६११ टी प १७३) । लंदय-गाय आदि पशुओं का भोजन-पात्र (प्रसा ११६) । लंपिक्क-१ चोर । २ लुब्ध, आसक्त (कु पृ १७२)। लंपिक्ख --चोर (दे ७।१६)। लंब-गोवाट, गायों का बाड़ा (दे ७।२६)। लंबण-१ एक प्रकार का भोज्य-पदार्थ (पंक ७७८) । २ कवल
(पंव ३५८) । ३ हाथ (ओटी पृ २१)।
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लंबा-१ केश, बाल (दे ७।२६) । २ वल्लरी। लंबाली-पुष्प-विशेष (दे ७।१६)। लंबूस-कन्दुक के आकार का एक आभरण (आवचू १ पृ २२४) । लंबसग-कन्दुक के आकार का एक आभरण-'ते णं दामा तवणिज्जलंबूसगा'
" (राज ४०)। लंभण-मत्स्य की एक जाति (विपाटी प ७६) । लंभूसास-वाद्य-विशेष (अंवि पृ १४७) । लकड--आभरण-विशेष (अंवि पृ ७१)। लक्कुड- लकड़ी, यष्टि (दे ७१६)। लक्ख–१ छद्म (निचू १ पृ १२७) । २ शरीर (दे ७।१७) । लगंड--वक्रकाष्ठ (उसुटी प ३४६) । लगड्ड-लकड़ी का भारा, लक्कड-गोणातिपिट्ठीए लगड्डादिएसु आणिज्जति'
(निचू २ पृ २०६)। लग्ग-१ असंबद्ध, ऊंची-नीची-सडिय-पडिय-भग्गलग्गाओ' (आचू पृ ३१८;
दे ७।१७ व)। २ चिह्न (दे ७.१७)। लचय-गण्डुत् नामक तृण (दे ७।१७)। लज्जालुइणी-१ लज्जावती (प्रा २।१७४) । २ कलहकारिणी स्त्री। लट्ट-कुसुंभ धान्य (बृभा २०६४)। लट्टणी-यष्टि (आवहाटी १ पृ २७८) । लट्टय-१ कुसुम्भ-'लट्टयवसणा कहं होही' (दे ७।१७) । २ खसखस आदि
का तेल। लट्टा-कुसुंभ धान्य (बृटी पृ ६०३) । लट्र-१ सुन्दर, मनोज्ञ (दश्रु ८।२२; दे ७।२६) । २ अन्यासक्त, दूसरे में
आसक्त । ३ प्रियभाषी (दे ७।२६) । ४ प्रधान, मुख्य । लट्टिय-खाद्य-विशेष- जेट्ठाहिं लट्ठिएणं भोच्चा कज्जं साहिति'
(सूर्य १०।१७)। लडभ- मनोज्ञ, सुन्दर (बृटी पृ ६५३) । लडह-१ सुन्दर, लावण्य-युक्त-'लडहसुकुमाल-मउयरमणिज्जरोमराई'
(दश्रु ८।२४; दे ७।१७) । २ लटकते हुए शिथिल बन्धन-युक्त (जानुवाला)। ३ गाड़ी के पिछले भाग में लटकता हुआ काष्ठ जो गाड़ी के अग्र भाग की रक्षा करता है-'इह लडहशब्देन गन्त्र्याः पश्चाद्भागवति तदुत्तराङ्गरक्षणार्थ यत्काष्ठं तदुच्यते'
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देशी शब्दकोश
( उपाटी पृ १०२ ) । ४ विदग्ध, विद्वान् ( दे ७।१७ वृ) । ५ कोमल ।
६ प्रधान ।
लडहक्खमिय-विघटित, वियुक्त (दे ७/२० ) । लड्डुग-लड्डू, मोदक (आवचू १ पृ ४०९ ) । लड्डुय - लड्डू, मोदक ( बृभा ६१४६ ) ।
लढिय - स्मृत, याद किया हुआ - भरिअं लढियं सुमरिअं ' ( पा ५६४) । लत्तग- आतोद्य- विशेष - 'घणं लत्तगादी' ( सूचू २ पृ ३६० ) |
लता --पाद- प्रहार, लात - ' लत्ताहि य हंतुं गता' (निचू २ पृ ६० ) । लत्तिका - आतोद्य-विशेष (आवचू १ पृ ३०९ ) ।
लत्तिगा -- यष्टि (दश्रुचू प ६१) ।
लत्तिया- -१ वाद्य - विशेष ( नि १७|१३८ ) । २ पाष्णिप्रहार - 'लत्तिय ति कंसिकाः, ताहि आतोद्यत्वेन न विवक्षिता इति, अथवा लत्तियासद्देत्ति पाणिप्रहारशब्द:' ( स्थाटी प ५६ ) ।
लद्दितय- -लदा हुआ, भारयुक्त - 'उट्टो वा लद्दितओ' ( सूचू १ पृ ११९ ) । लद्धीय - स्वस्थ - ' वेज्जेण संसोहण वमण विरेयणकिरियाहिं णिक्कसाएत्ता लद्धीओ कओ' (निचू ४ पृ ३०६ ) ।
लप्पसिया - लापसी, एक प्रकार का मिष्टान्न ( प्रसा २३४ ) ।
लय
--नव दंपती का आपस में नाम लेने का उत्सव - 'णवदंपईण अण्णुष्णमगहणोसवम्मिलयं' (दे ७।१६) ।
लयण- - १ तनु । २ मृदु । ३ वल्ली, लता (दे ७।२७ ) 1
लयणी - लता (पा ३३४ ) |
लयापुरिस -- वह स्थान जहां पद्महस्त वधू का चित्रण किया जाए- पउमकरा जत्थ बहू लिहिज्जए सो लयापुरिसो' (दे ७/२० ) ।
लल्ल - १ उत्सुक, तत्पर, सस्पृह । २ न्यून (दे ७ २६) । लल्लक्क -१ भयंकर - 'लल्लक्कं वा सीतं पडतं ण सहति'
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(निचू ३ पृ १६७; दे ७|१८ ) । २ ललकार, आह्वान | लल्लाय -- अस्पष्ट - वाक्, 'लल्लर' वाणी से बोलने वाला - 'आरियकुले वि या अंधा बहिरा य होंति लल्लाया' ( कु पृ ४० ) ।
लल्लि - खुशामद (प्रटी प १०९ ) ।
लल्लिरी - मछली पकड़ने का जाल - विशेष ( विपाटी प ८५ ) ।
लवय - गोंद (पा८८६) ।
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लवइत-अंकुरित (आवचू १ पृ ४७७)। लवइय-पल्लवित (भ १३५०) । लवली-लता-विशेष (कु पृ १६७) । लसइ-कंदर्प, काम (दे ७।१८) । लसक-तरु-क्षीर, पेड़ का दूध (दे ७११८)। लसिया-पीब, रसी (अंवि पृ १७७)। लसुअ-तेल (दे ७११८) । लहअवड-न्यग्रोध, बरगद का वृक्ष (दे ७।२०) । लहुइय-तोला हुआ (पा ५३६) । लाइम-१ लाजा के योग्य, खोई के योग्य । २ रोपणयोग्य, बोने लायक
(आचूला ४।३३)। लाइय-१ भूमी को गोबर आदि से लीपना (प्रज्ञा २१४१) । २ गृहीत
(बृटी पृ १०७; दे ७।२७) । ३ आभूषण। ४ चौधं, आधी चमड़ी
(दे ७।२७) । घृष्ट (से २।२६) । लाइल्ल-वृषभ (दे ८।१६)। लाउल्लोइय-गोमय आदि से भूमि का लेपन और खड़ी आदि से भींत
आदि का पोतना (दश्रु ८।६२) । लाउल्लोपिक-लिपाई-पुताई (अंवि पृ १८३)। लाउल्लोयिक-लिपाई-पुताई (अंवि पृ २१०) । लागतरण-भूने हुए चावलों से बनाया गया पेय-विशेष (जीभा ६०५) । लाजिका–वेश्या (अंवि १६८) । लाढ-१ आत्मनिग्रही मुनि-'लाढे त्ति साधुणो अक्खा' (निचू ४ पृ १२५) ।
२ निर्दोष आहार से संयम-यात्रा का निर्वाह करने वाला मुनि । ३ प्रशस्य-'लाढयति प्रासुकैषणीयाहारेण साधुगुणैर्वा आत्मानं यापया तीति लाढः, प्रंशसाभिधायि वा देशीपदमेतत्' (उशाटी प १०७)।
४ प्रधान (उशाटी प ४१४) । ५ एक जैन आचार्य । लाढय-साधु-गुणों से जीवन-यापन करने वाला (उचू पृ ६६) । लाणी-पुष्प-विशेष (संवि पृ १०४) । लातुल्लोइय-गोबर से भूमी का लेपन करना तथा खड़ी आदि से भींत कों
पोतना (आवचू १ पृ २२६) । लाम-सुन्दर (जंबू ३३१७८)।
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देशी शब्दकोश
लामंजय-पानी को शीतल एवं सुगंधित करने वाला घास-विशेष
(पा ३८५) । लामा-डाकिनी (दे ७।२१)। लाय-१ आग-'दिण्णाओ लायंजलीओ। समप्पिया य तस्स करंजली कुवलय
मालाए' (कु पृ १७१)। २ भूना हुआ धान-'लाया नाम वीहिया
भुज्जिया' (जीविप पृ ३४)। लायतर-भूने हुए आर्द्र व्रीहि का तंडुल के साथ बनाया जाने वाला पेय
(निभा ४८७)। लायतरण-चावल से बना पेय-पदार्थ-'कते वा विकिट्टतवे पारणए
लायतरणादी पिएज्ज' (निचू १ पृ १६२) । लालंपिअ-१ प्रवाल । २ घोड़े की लगाम । ३ आक्रन्दित (दे ७।२७) । लालस-१ मृदु (दे ७।२१) । २ इच्छा (वृ)। लाला-१ दीपक की बाती (बृभा ३४६५) । २ लार-'अहिस्स मूस गस्स
वा उस्सिघमाणस्स लाला पडेज्ज' (निचू ४ पृ १३३) । लाली-दीपक की बाती (निभा ५३७७) । लावंज-सुगंधित तृण-विशेष, उशीर (दे ७।२१)। लावणी-गुड़-निष्पन्न खाद्य पदार्थ-विशेष-'गुलकत तह लावणी य बोद्धव्वा
(पंक ७३२)। लासयविहअ-मयूर (दे ७।२१)। लासिया-देश-विशेष की दासी (ज्ञा १११।८२) । लाहण-भोज्य का एक प्रकार (दे ७।२१)। लाहणय-प्रहेणक, उत्सव के उपलक्ष में किसी दूसरे घर से भेंटस्वरूप
प्राप्त भोजन-विशेष (पिटी प ६३; दे ७।२१ वृ)। लिक-बालक (दे ७।२२)। लिकि.---१ आक्षिप्त । २ लीन (दे ७।२८) । लिंगिच्छी- वृक्ष-विशेष (अंवि पृ ७०) । लिछ-१ चूल्हा (स्था ८।१०) । २ अग्नि-विशेष (स्थाटी प ४१६)। लिड--१ हाथी की विष्ठा (ज्ञा १११।१५६) । २ शैवालरहित पुराना
पानी-'अशैवालपुराणजलम्' (प्रटी प १६३) । लिडा-ऊंट, बकरी आदि की विष्ठा, मेंगनी-'उब्भामिगा य महिला
जावगहेउंमि उंटलिंडाई' (दनि ८८) । लिडिया-विष्ठा, लिंडी, मेंगनी (नंदीटि पृ १३४) ।
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देशी शब्दकोश लिंब--१ कोमल, मृदु-'णवतयकुसंतलिंब-केसरपच्चत्थुयाभिरामे'
(राज ३७) । २ बाल उरभ्र का रोओं सहित चर्म-'बालोरभ्रस्योर्णा
युक्ता कृत्तिः' (ज्ञाटी प १७) । ३ आस्तरण-विशेष (ज्ञा १।१।१८) । लिक्ख-१ कोमल (राज ३७) । २ लघु स्रोत (दे ७२१ वृ)। लिक्खा -१ परिमाण-विशेष (अनुद्वा ३६५) । २ छोटा स्रोत (दे ७।२१)। लिच्च-कोमल (जीव ३।३११)।। लिच्छारिय-लिप्त (आवभा २२१)। लिट्रिअ-१ खुशामद,चाटुकारिता (दे ७२२) । २ लम्पट । लित्त-कोमल (जीवटी प २१०)। लित्ति---खड्ग आदि शस्त्रों का दोष (दे ७।२२)। लित्यारिय- खरंटित, लिप्त (बृभा ५१५) । लिव्व-कोमल (ज्ञा १०१।१८ पा)। लिसय-तनूकृत, क्षीण (दे ७।२२) । लिहिअ- १ तनु । २ सुप्त (दे ७।२८) । लीच्छभ- तुषशाला, कुंभकार जहां जौ, गेहूं आदि का पलाल एकत्रित
करता है-'लीच्छुभ त्ति तुससाला कुंभकारा जत्थ तुसा ठबेति'
(माचू पृ ३६६)। लीय-बच्चा (कु पृ ४५) । लील-यज्ञ (दे ७२३)। लीव-बालक (दे ७।२२) । लीसना--सन्धान, जोड़-'लीसना नाम सन्धनैव' (सूचू १ पृ १५६) । लुअ-छिन्न, काटा हुआ (दे ७.२३) । लुंक-सुप्त (दे ७.२३) । लुंकडी-लोमड़ी (प्रज्ञाटी प २५४) । लुंकणिया-तिरोभाव (दे ७।२४ वृ)। लुंकणी-लुकना, छिपना (दे ७।२४) । लुंख-नियम (दे ७।२३)। लखाअ-निर्णय-रे अलस! इत्थ लीलो होहि त्ति सलुंखयाण लुंखाओ'
(दे ७२३)। लुखिय-१ मलिन (से १५५४२) । २ स्पृष्ट (से १।२१) ।
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देशी शब्दकोश
लुठण--१ कोलाहल । २ कलह-'ते विसेसलुंठणाणि विग्वाणि करेंति'
(उशाटी प १४६)। लुंबिया-गुच्छा-'न दुक्कर तोडिय अंबलुंबिया, न दुक्कर नच्चिउ सिक्खियाए।
तं दुक्करं तं य महाणुभाव, जं सो मुणी पमणवणंमि वुच्छो ।
(आवहाटी २ पृ १३८) । लुंबी-१ स्तबक, फूलों का गुच्छा (भटी प ३७; दे ७२८) । २ लता
(ज्ञाटी प ६; दे ७।२८)। लुक्क-१ लुञ्चित, मुण्डित (पिनि २१७) । २ छिपा हुआ-'बोहिगादिभएण
णस्संतो लुक्को' (निचू ३ पृ ३५५) । ३ रोगी (प्रा २१२) ।
४ भग्न । ५ सुप्त। लुक्कणी-लुकना, छिपना (दे ७।२४ पा)। लुक्ख-वृक्ष (उशाटी प १३८) । लुग्ग-१ शुष्क (व्यभा ५ टी प ७) । २ भग्न (दे ७।२३) ।
३ रोगी (प्रा ४।२५८)। लरणी-वाद्य-विशेष (दे ७।२४) । लया--१ वात-रोग (कु पृ ४१)। २ मृगतृष्णा-'कत्थइ लूयाए हओ'
(कु पृ २७४; दे ७।२४)। लेंड-हाथी आदि की लीद-'ताहे तत्थ नलगिरिणा मुत्तियं लेंडं च मुक्क'
(आवचू १ पृ ४००) । लेंडि-लीद (पंक १५४१)। लेंडिया-लिंडी, लीद (आवहाटी १ पृ २७८)। लेखा-वस्त्र-विशेष (अंवि पृ ७१) । लेच्छारिय-लिप्त, खरंटित-'लेच्छारियतुंडेण' (निभा ६१०८) । लेडुअ-ढेला (पा ४०३)। लेडुक्क–१ लम्पट । २ लोष्ट, रोड़ा (दे ७।२६) । लेडड-पत्थर का टुकड़ा, ढेला (आवहाटी १ पृ १४६)। लेढिअ-स्मरण, स्मृति (दे ७।२५) ।। लेढक्क-लोष्ट, मिट्टी का ढेला (दे ७२४)। लेण-मृतक की स्मृति में बनाया जाने वाला देवकुल-'मडयस्स उरि जं
· देवकुलं सं लेणं भण्णति' (निचू २ पृ २२५) । लेत्थरिय--लिप्त (निचू २ पृ ३०१) । लेत्थारण-लेप (निभा १८७४) ।
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हैशी शब्दकोश लेत्थारिय-खरंटित, लेप से युक्त-लेस्थारियाणि देशीपदमेतत् खरंटितानि'
(बृटी पृ १५०)। लेलु-मिट्टी का ढेला (द ४:१८) । लेस-१ स्त्री की योनि (व्यभा ६ टी प ६६) । २ लिखित। ३ आश्वस्त ।
४ निद्रा। ५ निःशब्द (दे ७।२८)। लेहड-लंपट (दे ७।२५) । लेहुड-लोष्ट, मिट्टी का ढेला (दे ७।२४) । लोअडी-कंबल (प्रा ४१४२३) । लोआणी-वनस्पति-विशेष (प्रज्ञाटी प ३६) । लोक-सुप्त, सोया हुआ (दे ७।२३ वृ)। लीट्ट-१ कच्चा चावल (दअचू पृ ११०) । २ हाथी का छोटा बच्चा
(आवहाटी २ पृ १६५) । लोट्रक---कुमार-अवस्था वाला हाथी (ज्ञाटी प ७२)। लोट्रय-हाथी का छोटा बच्चा (ज्ञा १११११५७) । लोट्टिय-उपविष्ट (दे ७.२५)। लोद्रिया-१ हाथी की छोटी बच्ची (ज्ञा १।२१५७) ।
२ काष्ठपात्र (निचू ३ पृ ३४३)। लो?---पत्थर, लेष्टु (व्यभा ६ टी प ५१) । लोढ–१ लोढा-'लोढेण वावि लेवेण, सिलेसेण व केणइ' (द ५११४५) ।
२ पद्मिनी कंद (प्रसा २३७) । ३ स्मृत । ४ शयित (दे ७।२६) । लोढणी—कपास निकालने अथवा ऊन आदि को साफ करने का यंत्र
(ओनि ४७४) । लोढिनी--कपास के बीज निकालने का यन्त्र (पिटी प १०३)। लोपक-बिल में रहने वाला पंचेन्द्रिय जंतु-विशेष (अंवि पृ २२७) । लोपा-सियारिन-वाणर-सस-लोयासु' (अंवि पृ २३८) । लोमिल्ल-लालची (ओभा १३३) । लोमंथिक-नट (आवटि प ६१) । लोमंथिय---नट-'णटें लोमंथियं वा' (आवचू २ पृ ३०३) । लोमंधिय-नट (आवचू १ पृ ५५६) । लोमटक-लोमड़ी (आटी प ३३७) । लोमठिका- लोमड़ी (जीवटी प ३८) ।
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देशी शब्दकोश
लोमसिका-ककड़ी (संवि पृ ७१)। लोमसिगा-ककड़ी (अंवि पृ २३८) । लोमसिया-ककड़ी (आवचू १ पृ ५४६) । लोमसी-१ ककड़ी, खीरा-'लोमसी कर्कटिकादीनां देशीवचनम्'
(निचू १ पृ३) । २ ककड़ी का गाछ (व्यभा २ टी)। . लोय-१ रससंपन्न और मनोज्ञ भोजन-पिंडं वा लोयं वा खीरं वा दधि
वा' (आचूला १४६) । २ रूक्ष भोजन-'इमे लोए इमे तित्तए इमे
कडुयए' (आचूला १११३८)। लोयक-१ शटित धान्य (अंवि पृ ३३) । २ पशु-विशेष-'लोयको वा ससो
वेत्ति' (अंवि पृ ६२)। लोयय-खाद्य-विशेष (बृ २।८)। लोलंठिअ-खुशामद, चाटुकारिता (दे ७।२२) । लोलग-गुटिका, गोली-'गुलिग त्ति लोलगे काउं रुक्खकोटरे वा ठवेति'
(निचू ३ पृ २०६)। लोलुचाविअ-सतष्ण, लालसायुक्त (दे ७२५) । लोलुग-प्रगाढ़-'लोलुगं भृशं गाढं प्रगाढं निरन्तरम्' (सूचू १ पृ १३०)। लोहि-कन्द-विशेष (उ ३६।१८) । लोहिणी--कन्द-विशेष (प्रज्ञा १।४।१)। लोहिल्ल-१ अविशुद्ध (निचू ४ पृ १४४) । २ लम्पट (दे ७।२५) । लोही--१ कन्द-विशेष (भ ७६६) । २ मंडक आदि पकाने का भाजन
(भ ८।३६१)। लिहक्क-१ नष्ट (प्रा ४।२५८) । २ गत ।
वइअ-१ पीत, जिसका पान किया गया हो वह (दे ७।३४) । २ ढका
हुआ (पा ५०५)। वहउला-फणरहित सर्प की एक जाति (प्रज्ञा ११७१)। वइंदबुद्धि-पुष्प-विशेष (अंवि पृ ७०) । वइद्ध-छोटा गांव-'खेत्तओ व इद्धदेसे महुराए वा' (आवचू १ पृ ४०६) ।
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देशी शब्दकोश
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वइरोअण-बुद्ध, बुद्धदेव (दे ७५१) । वइरोड-जार, उपपति (दे ७१४२)। वइल्ल-बैल (व्यभा १० टी प ६३) । वइवलय-दुंदुभ सर्प (दे ७५१) । वइवेला--सीमा (दे ७।३१)। वउ-लावण्य, शरीर-कान्ति (दे ७।३०)। वउणी-कपास (दे ३१५७) । वउलिअ-शूला में पिरोया हुआ मांस-खंड (दे ७।४४) । वओवउप्फ-विषुवत्, समान रात और दिन वाला काल (दे ७।५०) । वओवत्थ-विषुवत्, समान रात और दिन वाला काल (दे ७.५०)। वंक-कलंक, दाग (दे ७।३०)। वंग-वृन्ताक, भंटा (दे ७२६) । वंगच्छ-प्रमथ, शिव के अनुचर-विशेष (दे ७।३९) । वंगेवडु-सूअर (दे ७।४२) । वंजण-भोजन (दअचू पृ १६०) । देखें-संदेण । वंजर-नीवी, कटि-वस्त्र (दे ७१४१) । वंटग-विभाग-वडो वंटगो विभागो वा एगट्ठ' (निचू ४ पृ २४४)। वंठ-१ कपट-वेश, ठग (आवचू १ पृ ३१) । २ जो अविवाहित है और
मजदूरी से अपनी आजीविका चलाता है वह-'अकयविवाही भीतिजीविणो य वैठिति' (ओटी पृ १६६) । ३ अविवाहिता (ओनि २१६; दे ७८३)। ४ निःस्लेह, स्नेहहीन । ५ गण्ड, गाल
६ खंड। ७ भृत्य, दास (दे ७८३) । वंड-पीडित (ति ६७४) । वंडुअ-राज्य (दे ७।३६) । वंडुर-घुड़साल, अस्तबल-ततो वासुदेवस्स आसरयणं गहाय पधावितो, सो
_ वंडुरापालएण णाओ' (आवहाटी १ पृ ६५)। . वंढ-बन्ध (दे ७२६)। वंदालग-पूजापात्र (सू १।४।४४)। वंफ-उल्लाप-'वंफेति णाम देसीभासाए उल्लावो वुच्चति' (सूचू १ पृ १८०)। वंफिअ-१ भुक्त, खाया हुआ (दे ७।३५) । २ अभिलषित । वंस–कलंक (दे ७३०)।
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३६२
देशी शब्दकोश वंसकवेल्लुय--लंबे बांस पर रखे जाने वाले तिरछे बांस (जीव २६४) । वंसकवेल्लुया-छत के नीचे दोनों ओर तिरछे रखे जाते बांस
(राज १३०)। वंसटोक्कर-बांस की डोरी या खपाची (बृटी पृ १६४१)। वंसप्फाल-१ प्रकट, व्यक्त (दे ७/४८) । २ ऋजु, सरल (व)। . वंसी-मस्तक पर अवस्थित माला (दे ७।३०) । वक्कड-१. दुर्दिन, मेघकृत अन्धकार (दे ७।३५) । २ निरन्तर वृष्टि
'वक्कडं निरन्तरवृष्टिरित्येके' (व) वक्कडबंध-कान का आभूषण (दे ७.५१)। वक्कल्लय-आगे किया हुआ (दे ७।४६) । वक्कस-१ पुराना धान का चावल । २ पुराना सत्तुपिंड। ३ बहुत दिनों
____ का बासी गोरस । ४ गहूं का मांड (उ ८।१२ पा) । वक्काडय-तृण-विशेष (आचू पृ ३५७) । वक्किक-वनस्पति-विशेष (अंवि पृ २३२) । वक्खर-सामान, भाण्ड (बृभा ४४७७)। वक्खार-१ एकान्त कमरा (व्यभा ६ टी प ६१) । २ गोदाम । वक्खारय-१ रतिगृह (दे ७।४५) । २ अन्तःपुर (द)। वक्खीर-तृण विशेष (म २१३१६)। वक्खोइलिया-छिपकली (दजिचू पृ २७८) । वक्खोड-विघ्न-विग्घोत्ति वा वक्खोडत्ति वा एगट्ठा' (आचू पृ.)। बाग-परिक्षेप, परिधि (व्य ६१)। वग्गंसिब-युट, लड़ाई (दे ७।४६) । बग्गय-वार्ता, बात (दे ७।३८) । वग्गली-रोग-विशेष, वमन की व्याधि-'जेमणवेलाए जिमितो या तं संभरिता
उड्ढं करेति । एवं तस्स वग्गली वाही जातो, विणट्ठो य'
(निचू ३ पृ ८१)। वग्गडाव-पत्नी के अधीन रहने वाले पति की एक अवस्था-'इरिथवयणातो
दगमाणेति, सो य लोगसंकितो अप्पभाए चेव सुहसुत्ते पगे रोडेतो
आणेति त्ति वग्गुडावो' (निचू ३ पृ ४२०) । वग्गुरी-अंगुलियों और पैर के ऊपरी भाग को आच्छादित करने वाला जूता
'उरिं तु अंगुलीओ जा छाए सा तु वग्गुरी होति' (निभा ६१८)।
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देसी शब्दकोश
३६३
बग्गुलिया-व्याधि-विशेष-'तस्स संकाए वग्गुलिया वाही जातो'
(निचू १ पृ १५)। बग्गेज्ज–प्रचुर (दे ७३८) । वग्गोअ-नकुल, न्यौला (दे ७४०) । वग्गोरमय-रूक्ष, रूखा (दे ७:५२) । बग्घरणसाला--तोसलि देश में प्रसिद्ध विवाह-मंडप (बृभा ३४४६)
'व्याधरणशाला नाम तोसलिविषये ग्राममध्ये शाला क्रियते, तत्राग्निकुण्डं स्वयंवरहेतोनित्यमेव प्रज्वलति, तत्र च बहवश्चेटकाः एका च स्वयंवरा चेटिका प्रवेश्यन्ते इत्यर्थः । यस्तेषां मध्ये तस्य प्रतिभाति तमसो वृणीते, एषा व्याधरण
शाला' (टी पृ९६३)। बग्घास–१ साहाय्य, मदद । २ विकसित, खिला हुआ (दे ७८६)। बग्घाडिया-१ उपहास के लिए की जाने वाली विशेष ध्वनि
(ज्ञा ११८११४६) । २ विभिन्न देशों की भाषाओं को इस
प्रकार बोलना जिससे सब हंसने लग जायें (बृभा ६३२४) । बग्घाडी- उपहास के लिए की जाती एक प्रकार की आवाज-'अप्पेगइया
वग्घाडी करेंति' (ज्ञाटी प १५१)। बग्घारित-प्रलंबित (जीव ३।३९७) । बग्घारिय-प्रलम्बित-'बग्घारिय-पाणी एगपोग्गलनिविट्ठदिट्ठी'
(भ ३३१०५)। बचाई-क्षुद्र जंतु-विशेष-'भिंगारी अरका व त्ति वचाई इंदगोविगी
(संवि पृ ६६) । बच्च-१ घर के चारों ओर की भूमी,-'गिहस्स समंततो वच्चं भण्णति'
(निचू २ पृ २२४) । २ मृतक के दग्ध-स्थान के चारों ओर की भूमि । ३ श्मशान के चारों ओर की भूमि-'मडयपेरंतं वच्चं भण्णति । सव्वं वा सीताणं सीताणस्स वा पेरंतं वच्चं भण्णति'
(निघू २ पृ २२५) । ४ कूड़ा-करकट का स्थान (आचूला १०।२६)। बच्चक-दर्भ जैसा तृण (बृभा ३६७५) । बच्चग-१ तृणरूप वाद्य-विशेष (जीव ३।५८८) । २ तृण-विशेष-'वच्चगो
दब्भागिती तणं' (निचू २ पृ ३८) । वच्चयचिप्प-वल्वज घास को कूटकर बनाया हुआ (रजोहरण)
(बृभा ३६७४) ।
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३६४
देशी शब्दकोश वच्चाचिप्पय-तृण-विशेष को कूटकर बनाया हुआ (रजोहरण)
(बृटी पृ १०२१)। वच्चाडक-अपान-'अवाणे वच्चाडकगतं बूया' (वि पृ २२२) । वच्चापिच्चिय-वल्वज नाम की मोटी घास को कूटकर बनाया हुआ
(रजोहरण) (बृ २।२६) । वच्चिक्का--स्तबक, बिन्दु (व्यभा ७ टी प ६७)। वच्छ—पार्श्व, समीप (दे ७।३०) । वच्छाणी-गजपीपर की वल्ली (प्रज्ञा ११४०१४) । वच्छिउड-गर्भाशय-वच्छिउडो गर्भाश्रय इत्यन्ये' (दे ७।४४ वृ)। वच्छिमअ-गर्भाशय (दे ७।४४) । वच्छोउत्त-नापित, नाई (दे ७।४७) । वच्छीव-गोप, ग्वाला (दे ७।४१)। वज्जरण-कथन (प्रा ४।२) । वज्जरा-नदी (दे ७।३७) । वज्जरिय-कथित (प्रा ४।२)। वज्जलाढ-म्लेच्छ-'अरे वज्जलाढा ! एस पंथो कहिं वच्चइ ? वज्जलाढा
नाम मेच्छा' (आवहाटी १ पृ १४१) । वज्जा-१ माता, देवी-विशेष (अनुद्वाचू पृ १३) । २ अधिकार
(दे ७।३२)। वज्जिअ-१ अवलोकित, दृष्ट (दे ७३६) । २ बजाया हुआ। वज्जियाव- इक्षु-वज्जियावो नाम देशीवचनत्वादिक्षुः'
(व्यभा २ टी प २२) । वाज्जियावग--इक्षु-'वाजियावगो उच्छु इति' (व्यभा २ टी प २२)। वज्जिर-लोकवाद्य-विशेष (कु पृ ६६) । वज्झार--एक प्रकार का शिल्पी (प्रज्ञा १९७) । वज्झक्क-वाह्य क्रीडा-विशेष, एक प्रकार की क्रीड़ा जिसमें पीठ पर बैठा
__ जाता है-'अण्णया वज्झुक्केण रमंति' (आवहाटी २ पृ २१७) । वट-१ एक प्रकार का लड्डू (प्र १०१६) । २ प्याला (अनु ३।३६) ।
३ छात्र-'उवज्झायनि उत्ता वट्टा दिवसे दिवसे धणुगेहिं गहिएहिं रक्खंति' (आवहाटी २ पृ ४७) । ४ नट आदि की विद्या से आजीविका कमाने वाला-'जूइयरसोलमेंटा वट्टा' (आवहाटी २ पृ ६८) । ५ लोढा, शिला
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देशी शब्दकोश
पुत्रक (भटी पृ १४१३) । ६ गाढी कढी, खाद्य-विशेष (प्रटी प १५३) । ७ हानि । ८ मार्ग ।
वट्टखिडु - जादू का खेल, इन्द्रजाल - 'एकस्मिन् हस्ते गोलकद्वयमेकस्मिन् गोलकत्रयं दर्शयित्वा पुनरिन्द्रजाल प्रयोगेन केचिद् व्यत्ययेन गोलकान्यत्र दर्शयन्तीन्द्रजालिकाः तद् वट्टखिड्डमुच्यते' ( आवटि प ५३ ) ।
वट्टखेड – इन्द्रजाल - ' किमेयं वट्टखेडं' (आवचू १ पृ ५२८ ) । वट्टखेड - वृत्तक्रीडा, इन्द्रजाल (सम ७२।७ ) ।
वट्टण - दो धागों को एक साथ बंटना - सिक्कगदोरो वलणं वा वट्टणं' ( निचू २ पृ २२३) ।
वट्टमाण- -१ अंग, शरीर । २ गन्ध-द्रव्य की एक प्रकार की सुगंध (दे ७८७) ।
वट्टय - १ कटोरा - 'गहिया वट्टयम्मि सत्तुया' (उसुटी प ६२ ) । २ लाख आदि से बना खिलौना ( ज्ञा १११८१८ ) |
बट्टा मार्ग - 'सगडवट्टाए लोलई' (आवमटी प ४६७; दे ७७३१) । बट्टावरय-- लोढा, शिला - पुत्रक - तिक्खेणं वइराम एणं वट्टावरएणं' (भ १६।३४) ।
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वट्टिम - अतिरिक्त, अधिक (दे ७।३४) |
ट्टिय - १ पीसा हुआ, चूर्ण किया हुआ (निचू २ पृ ६५ ) । २ परिवेषित, भोजन परोसना - 'थेरीए पुत्तभंडाणं विलेवी वट्टिया' ( आवहाटी १ पृ २० ) ।
बट्टिव पर कार्य (दे ७|४०) ।
वट्ठफोड - बहुभक्षक - 'सोय वट्ठिफोडो ण चैव धाति' ( आवचू ? पृ २६१) ।
वड
-१ क्षेत्र का एक देश, एक विभाग - ' वडो वडूगो विभागो एगट्ठ' . ( आवचू २ पृ २३४; दे ७८२ ) । २ दरवाजे का एक भाग (दे ७८२ ) | ३ मत्स्य की एक जाति (प्रटी प ४७ ) ।
वडवग - बड़े परिवार वाला - 'बहुसयणो वडवगो' (निचू ३ पृ २५३) । वडक - उद्भिज्ज जंतु - विशेष - ' तत्थ उब्भिज्जा संखणा काकुंथिका वडका सिरिवेट्टका' (अंवि पृ २२६) ।
वडग - सूती वस्त्र (भ ११ । १५६ ) ।
वडगर - मत्स्य - विशेष ( जीवटी प ३६ ) ।
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देशी शब्दकोष वडप्प---१ लता-गहन । २ निरंतर-वृष्टि (दे ७।८४)। वडम-वामन, कुब्ज, जिसका पीछे के या आगे के शरीर का भाग उभरा
हुमा हो (निचू ३ पृ २७१) । वडय-सूती वस्त्र-'कोसेज्जा वडओ भण्णति । टसर इति भाषायाम्'
(निचू २ पृ ६८)। वडह-पक्षि-विशेष (दे ७।३३)। वडा-वृति, परिक्षेप-'एगवडाए इति एकवृतिपरिक्षेपायाम्'
(व्यभा ३ टी प ६६) । वडार-विभाग (व्यभा ७ टी प ६३) । वडालि–पंक्ति, श्रेणी (दे ७।३६) । वडिसर-चूल्हे का मूल (दे ७.४८) । वडी-बड़ी, शाक-विशेष (प्रसा ४३४) । वड्ड-१ उदंड (ति ११६३) । २ उच्च, महान्-'वड्डेणं सद्देणं जोक्कारोत्ति
भणितं' (आवहाटी १ पृ ४३) । ३ कलह (उशाटी प १७६)।
४ बड़ा (ज्ञा २।१।१८; दे ७।२६) । वड्डवग-बड़े परिवार वाला (निभा ३६२२)। बड्डखेड्ड-जादू का खेल, इन्द्रजाल देखें-'वट्टखिड्ड' (आवटि प ५३) । वडग-१ पात्र (बृभा ४८०६) । २ बड़ा (भ १९७८)। वड्डवास-मेघ (दे ७।४७) । वड्डहल्लि-मालाकार, माली (दे ७१४२) । वड्ढ-१ पौ फटते-फटते, शीघ्र-'ते वड्ढे पभाए उठेत्ता गया'
(आवहाटी १ पृ १३७) । २ बड़ा (निचू १ पृ ६)। वडा-वर्धकी, बढई (सम १४१७)। बढइअ-१ चर्मकार, मोची (दे ७।४४) । २ बढई (व)। वड्ढणमिर--पीन, पुष्ट (दे ७.५१) । बड्ढणसाल–पुच्छहीन, जिसकी पूंछ कट गई हो वह (दे ७।४९) । वडर-गृहस्थ के प्रयोजन के लिए जादू-टोना करना
(व्यभा ४।३ टी प ४६) । बडढवण-१ वस्त्र का आहरण । २ बधाई, अभ्युदय-निवेदन (दे ७८७) । वड्ढावि-समाप्त किया हुआ (दे ७.४५) । वडिआ-कूपतुला, कूए से पानी ऊपर खींचने का साधन-विशेष
(दे ७।३६)।
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देशी शब्दकोश
वण - १ अधिकार । २ श्वपच, चाण्डाल (दे ७८२) । वणइ - वन - राजि, वृक्ष-पंक्ति (दे ७३८ ) । वणण - बुनना (द १११ टी ) । वर्णाति - पुष्प - विशेष (अंवि पृ ७० ) ।
वर्णाद्धि - गायों का समूह (दे ७३८ ) | वण पक्कसावअ - शरभ, श्वापद-विशेष (दे ७ ५२ ) । वणव - दावानल (दे ७।३७)
वणसवाई - कोयल (दे ७५२) ।
वणाय - शिकारी से आकुल, व्याध से त्रस्त (दे ७/३५) । वणार – दमनीय बछड़ा (दे ७/३७ ) ।
वल्लय - वन - वीस मइ खणे एला - वणुल्लए' ( कु पृ ३३) ।
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वण्ण - १ चन्दन आदि का चूर्ण - 'वणेहि वा उव्वट्टेइ' ( नि ११५ ) । २ अच्छ, स्वच्छ । ३ रक्त, लाल (दे ७८३) । .
वण्णग - चंदन - 'चाउरंतचक्कवट्टिस्स वष्णगपेसिया तरुणी बनवं' (भ १६३४) ।
वण्णय - १ श्रीखण्ड, चन्दन (दे ७।३७) । २ सुगंधित चूर्ण (वु) । यतिभेदक - क्षुद्र जन्तु - विशेष ( बंवि पृ २३८ ) ।
वतु- समूह (दे ७:३२) ।
वत्तट्ठ – १ सुंदर । २ बहुशिक्षित (दे ७८५ पा ) । वत्तणासी-- जलचर प्राणी विशेष (वि पृ ६९ ) बत्तद्ध-- १ सुन्दर । २ बहु- शिक्षित (दे ७८५) । यत्ता - सूत्र - वलनक-यंत्र, सूत्र- वेष्टन-यंत्र (प्रटी प ८० ) । बत्तार - गर्वित, अभिमानी (दे ७१४१) ।
वत्ति - सीमा ( बुभा २०१; दे ७।३१) |
वत्तुस्सय- वृद्ध (अंवि पृ १०० ) ।
वत्थउड – तंबू, वस्त्र से निर्मित आश्रय स्थान (दे ७१४५) । वत्थरिका - बिछाने का आस्तरण (अंवि पृ७२ ) ।
वस्थाणो – वल्ली- विशेष ( प्रज्ञाटी प ३३ ) |
वत्थाणीय - खाद्य - विशेष - ' हत्थेण वत्थाणीए भोच्चा कज्जं साधेंति ( सूर्य १०।१७ ) ।
बत्थी - तापसों की कुटिया (दे ७।३१) ।
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देशी शब्दकोश वत्थुल्ल-वनस्पति-विशेष, बथुआ (निचू ३ पृ १५९) । वदिकलिअ-वलित, लौटा हुआ (दे ७।५०) । वहल-१ बादल-'समोहणित्ता अब्भवद्दलए विउव्वंति' (राज १२) ।
२ दुदिन, मेघकृत अन्धकार (दे ७।३५)।
३ छठी नरक का दूसरा नरकेन्द्रक, नरकस्थान । वद्दलग-बादल (आबचू १ पृ १३७) । वहलिया--१ बदली, छोटा बादल (आवचू १ पृ ३८५) । २ घटाटोप,
मेघाडंबर (स्था ६।६२)। वद्धणिया-झाडू (दे ८.१७) । वद्धणी--संमार्जनी, झाडू (दे ७।४१ वृ) । वद्धमाण-१ स्कन्धारोपित पुरुष । २ स्वस्तिक-पञ्चक । ३ प्रासाद-विशेष
! (ज्ञाटी प ६२) । वद्धय-प्रधान, मुख्य (दे ७४३६)। वद्धिय-नपुंसक-विशेष जिसका अंडकोश छेदकर गला दिया गया हो
(निचू १ पृ ४०; दे ७:३७) । वद्धी---अवश्य-कृत्य, आवश्यक कर्तव्य (दे ७।३०) । वद्धीसक-वाद्य-विशेष (प्र १०.१४ टी)। वद्धीसग--वाद्य-विशेष (अनु ३।४६)। वधूज्ज-विवाह (अंवि पृ १४१) । वधपुत्ती--सुहागरात्री में वधू के रक्त-खरंटित वस्त्रों को देखकर स्वजन
प्रसन्न होते हैं। वे उस वस्त्र को घर-घर ले जाकर गुरुजनों को .. सविनय दिखाते हैं । यह इसलिए कि सभी जान जाएं कि लड़की अक्षतयोनि वाली है अर्थात् गर्भ धारण करने में समर्थ है-'का एसा वधूपुत्ती ? भण्णति-पढमे वास हरे भत्तुणा जोणिभेए कते तच्छोणियेण पोत्ति खरंडियं सूरुदए सयणो से परितुदो पडलकं तं तं पोत्ति घरघरेण गुरुजणपुरतो परिवंदइ दंसेति य, णज्जते रुहिरदसणातो अक्खयजोणि त्ति' (अनुद्वाचू पृ ४८)।
देखें-'आणंदवड'। वपू-थूभ (भ १५८७ पा)। वप्प-१ तनु, कृश । २ बलिष्ठ, बलवान् । ३ भूतगृहीत, भूताविष्ट
(दे ७/८३)। वप्पक- बालक-'पिल्लक-वप्पक-सिंगक-खुड्डक' (अंबि पृ १६६) ।
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देशी शब्दकोश
वप्पग-खेत, क्षेत्र (निभा १२९५) । बप्पडी-खाद्य-विशेष (वि पृ २४६) । वप्पिण-१ खेतों वाला प्रदेश । २ तटों वाला प्रदेश (भटी प २३८)।
३ खेत (प्र १११४; दे ७८५) । ४ बसा हुआ (दे ७।८५)। वप्पिणी-छोटी बावडी (प्र १०।१५) । वप्पीअ-चातक पक्षी (दे ७।३३)। वप्पीह-१ स्तूप, मिट्टी आदि का ढेर (दे ७।४०) । २ चातक पक्षी
(दे ६।६० वृ)। वप्पु-ढूह, थूभ, बांबी-'इमस्स णं वम्मीयस्स चत्तारि वप्पूअ अन्भुग्गयामो'
(भ १५२८८)। वप्पूअ---थूभ (भ १५८७)। वफलिग-असन्य (आवमटी प ५३०) । वप्फाउल- अधिक उष्ण (दे ६।६२) । वब्भय-कमल का मध्यभाग (दे ७३८) । वमणि-कपास (निचू ३ पृ ५७) । वमनी-कपास (अनुद्वामटी प ३१) । वमारक--थलचर प्राणी-विशेष (अंवि पृ २२७) । वमाल-१ कलकल, कोलाहल (दे ६।६० वृ) । २ राशि । वमालिय--पुंजीभूत, उपलिप्त-'असुइमलरुहिरकद्दम-वमालिओ
गब्भवासमज्झम्मि' (कु पृ २५४) । वमालीभत-पुंजीभूत-'अह ण सक्के ति रक्खिउं वमालीभूतं, ताहे कप्पं
"पत्थरेत्ता सव्वोचकरणं बंधति' (निचू २ पृ १७६)। वम्मिका-पैरों का आभूषण- पामुद्दिक त्ति वा बूया वम्मिका पायसूचिका'
(अंवि पृ ७१)। घम्मीसर- कामदेव, कन्दर्प (दे ७।४२)। बम्ह-वल्मीक (दे ७।३१) । घम्हल--कमल-केसर, किंजल्क (दे ७।३३) । चय-गृध्रपक्षी, गोध (दे ७।२६) । वयड-वाटिका, बगीचा (दे ७।३५) । वयण-१ घर, गृह । २ शय्या, बिछौना (दे ७।८५) । बयर-चूर्णित (दे ७।३४) ।
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देशी शब्दकोश
वयल-१ विकसित होता हुआ, खिलता हुआ। २ कलकल, कोलाहल
(दे ७।८४) । वयली-निद्राकरी लता (दे ७।३४) । वर-धान्य-विशेष (भ २१३१६) । वरम-शालि-विशेष एक प्रकार का धान्य (दे ७।३६) । वरइ-जलचर प्राणी-विशेष व पृ ६६) । वरइम-धान्य-विशेष (दे ७।४६)। वरइत्त-दुलहा (दे ७।४४) । वर उप्फ-मृत (दे ७।४७) । वरंड-१ प्राकार, किला। २ कपोतपाली, कबूतरों का दरबा
(दे ७।८६) । ३ तृणपुंज । ४ समूह । वरंडग-प्राकार (निभा २३८७) । वरंडा-बरामदा, वरण्डा (जीविप पृ ३४) । वरक-गोत्र-विशेष (अंवि पृ १५०)। वरक्क-प्रावरण-विशेष-'कोयवगो वरक्को' (निचू ३ पृ ३२१) । वरक्ख-व्याघ्र (बृटी पृ २२१)। वरग-१ शालि-विशेष, एक प्रकार का धान्य (भ ६।१३१)। २ मूल्यवान
पात्र (आचूला १११४३)। वरट्ट-धान्य-विशेष (स्था ७६०)। वरट्टग-धान्य-विशेष (आव २ पृ १२८)। वरड-अति-स्यूल, बहुत मोटा (बृटी पृ ५३) । परी-वंश-भ्रमर के जहर को उतारने की विद्या-'राइणा वाहराविया
गारुडिया भोइयभट्टचट्टाइणो इति। अपि य-जो वरडि पि न याणइ सो वि तत्य वाहरिओ' (उसुटी प १७४) । २ ततैया,
गंधोली । ३ दंश-भ्रमर, काटनेवाली मधुमक्खी (दे ७८४)। वरढ-स्थूल, परिवृद्ध-'थूलं वड्डं वरढं ति परिवूढं ति वा पुणो'
(अंवि पृ ११४)। वरण-सेतुबंध, पुल-'वरणेन सेतुबन्धेन व्रजति' (ओनि ३० टी)। वरवरिका-ईप्सित वस्तु के दान देने की घोषणा, जो मांगो वह मिलेगा
इस प्रकार घोषणापूर्वक दिया जाने वाला दान-'वरवरिका घोष्यते--वरं याचध्वं वरं याचध्वमित्येवं घोषणा समयपरिभाषया वरवरिकोच्यते' (आवहाटी १ पृ ६१) ।
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देशी शब्दकोश
३७१
वरसरक
5- खाद्य - विशेष - 'सक्कुलि-वेढिम व रस रक- चुण्णको सग' ( प्र २०१६) वरिल्लिया -- जिसकी सगाई की गई हो वह - ' सा य उग्गसेणनत्तुस्स धणदेवस्स वरिल्लिया' (बुटी पृ ५६ ) ।
वरिसाल - वर्षावास ( उसुटी प १०) |
वरिसोलग — पक्वान्न - विशेष, खाद्य वस्तु ( प्रसाटी प ५६ ) ।
वरुअ - इक्षुसदृश तृण (दे ६।६१ वृ) ।
वरुड - एक प्रकार के शिल्पी (अनुद्वा ३६० पा ) ।
वरुट्ट - मयूर पंख के शिल्पी (प्रज्ञा १६७ ) ।
वरुड - एक प्रकार के शिल्पी (अनुद्वा ३६० ) ।
वरेइत्थ – फल, लाभ, प्रयोजन (दे ७ ४७ ) - ( वरउप्कमारणे तुझ कि वरेइत्थं' (वृ) ।
वरेल्ल – रोम पक्षी - विशेष (प्रज्ञा १७६ ) 1 वलअंगी - बाड़वाली (दे ७ ४३) । वलंगणिआ - बाड़वाली (दे ७१४३ ) | वलग्गंगणी -- वृति, बाड़ (दे ७/४३) ।
वलद्द - बैल (आवहाटी २ पृ १२३ ) ।
वलभी -- यान - विशेष - ' संदण - रथ- वलभी - पदोलि' (अंवि पृ २०० ) । वलमय -- शीघ्र, जल्दी - ' किमागओ वच्च वलमयं तत्थ' (दे ७४८ वृ) | वलय -१ धान्यशाला - 'कडपल्ला णं सण्णा तणपल्लाणं च देसितो वलया' ( बुभा ३२६८ ) । २ खेत, क्षेत्र ( आचूला ३१४८; दे ७८५) । ३ घर (दे ७।८५) ।
वलयणी - वृति, बाड़ (दे ७१४३) ।
वलयबाहा - जहाज में स्थापित एक दीर्घ काष्ठ जिस पर ध्वजा आदि बांधी जाती है - 'संसारियासु वलयबाहासु ऊसिएसु सिएसु झयग्गेसु' ( ज्ञाटी प १४३) ।
वलय बाहु - १ लंबा काष्ठ जिस पर ध्वजा आदि बांधी जाती है, आवेल्लक ( ज्ञाटी प १४३) । २ हाथ का आभूषण - विशेष, चूडा (दे ७।५२) ।
वलया – १ माया ( सू १ । १३।२३) । २ वेला, समुद्रतट'तिबला मुहम्मुक्को, तिक्खुत्तो वलयामुहे । तिसत्तक्खुत्तो जालेणं, सइ छिन्नोदए दहे ॥
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३७२
एयारिस ममं सत्तं सढं घट्टियघट्टणं ।
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इच्छसि गलेण घेत्तुं अहो ते अहिरीयया ॥ ( पिनि ६३२,६३३) ।
लवट्टि - १ सखी । २ परिश्रमशील स्त्री (दे ६।९१ वृ) | वलवाडी -- वृति, बाड़ (दे ७|४३ ) |
वलविअ - शीघ्र (दे ७२४८) ।
वही - कपास, (दे ७/३२) ।
वलामोडिय - बलपूर्वक - वला मोडिय घेप्पंति' ( कु पृ ८ ) । वलिअ-मुक्त, भक्षित (दे ७/३५) ।
वलिआ - धनुष की डोरी (दे ७।३४ ) |
वलिमोडअ - चक्राकार वेष्टनवाली वनस्पति- विशेष (प्रज्ञा ११४८१४७ ) । वलुक्की - वीणा - विशेष - मुच्छिज्जतीणं वीणाणं विवच्चीणं वलुक्कीणं' ( आवचू १ पृ ३०९ ) ।
वल्ल- -१ निष्पाव, काली उरद (विनि २४५) । २ शिशु ( दे ७।३१ ) | वल्लई - १ गाय (दे ७।३६) । २ गोपी । ३ वीणा (वृ) ।
वल्लर- - १ अरण्य (सूचू १ पृ १५८; दे ७/८६) । २ खेत ( प्र १२० ; दे ७।८६) । ३ लता- निकुंज ( उ १९८१) । ४ अरण्य का खेत ( पा ३५६ ) । ५ भैंसा । ६ युवा, तरुण । ७ पवन, समीर ।
निर्जल देश । वन ( दे ७८६ ) । १० आलिंगन करने की आदतवाला । ११ वेष्टनशील । १२ वालुकायुक्त क्षेत्र । १३ जनप्रिय ।
वल्लरी - केश, बाल (दे ७/३२ ) ।
वल्लवाय - खेत, क्षेत्र (दे ६।२६ वृ) ।
वल्लाअ -१ श्येनपक्षी । २ नकुल, न्यौला (दे ७१८४) ।
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वेशी शब्दकोश
वल्लादय - आच्छादन, ढकने का साधन ( दे ७।४५) । वल्लि - अशुचिमय- - वल्लिक रेसु आहारेति' ( निचू १ पृ १६ )
वल्लिका - कान का आभूषण- विशेष, बाली - 'कुंडल वल्लिका तलपत्तक' (अंवि पृ १८३ ) ।
वल्लिपरिपल्लक - दीर्घकाल - 'दुक्खं उब्वेल्लेउं वल्लिपरिपल्लकं ति गुपितंति । एयादीया सद्दा पडिरुवा दिग्घकालस्स ॥' (अंबि पृ २४० ) ।
वल्ली - १ पलाशकंद - 'विरालिया गोल्लविसए वल्ली' (आचू पृ ३४० ) ।
२ केश, बाल (दे ७३२) ।
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देशो शब्दकोश
३७
ववण-कपास, रूई-‘ववणसरिसाओ महिलियाओ त्ति' (कु पृ २४१) । ववणी-कपास (दे ७.३२) । ववत्थंभ-बल, पराक्रम (दे ७१४६)। ववसिअ-बलात्कार (दे ७४२) । ववहिअ-मत्त, उन्मत्त (दे ७।४१) । वव्वय-आतोद्य-विशेष (आवचू १ पृ १८७) । वव्वाड-अर्थ, प्रयोजन (दे ७।३६) । वव्वीसक-लोकवाद्य-विशेष (कु पृ २६) । वसभद्ध-काक, कौआ (दे ७४६) । वसल--दीर्घ (दे ७।३३)। वसिम-वसतिवाला स्थान-'अंतराले य दिळं वसिम' (उसुटी प ६३) । वसुआअ-शुष्क-'वसुआअशब्दः शुष्कवाची' (से ११२० टी)। वसुआइय-शुष्क किया गया (से ६२५)। वसुग-मधुर और स्ने हिल आमंत्रण-'गोलवसुगावि महुरं सप्पिवासं आमंतणं'
(दजिचू पृ २५०)। वसूल-१ युवा का प्रिय संबोधन-शब्द-वसुल जुकाण प्रियवयणं'
(दअचू पृ १६६)। २ अवज्ञा सूचक तुच्छ संबोधन-वसुलो सुद्दपरिभववयणं' (दअचू पृ १६८)। ३ निष्ठुर आमंत्रण-शब्द .
(दहाटी प २१५). वसुला-स्त्री के लिए प्रिय संबोधन (द ७.१६)। वस्सासण--एक प्रकार का आसन (दर्भासन ?) (ति १०५१)। वह–१ वृष-स्कन्ध (विपा १।२।२४)। २ स्कन्ध-व्रण, कन्धे पर होने वाला
व्रण (दे ७.३१) । ३ व्रण, घाव-'सामान्येन व्रण इत्यन्ये' (व)। . वहड-दम्य वत्स, दमनीय बछड़ा (दे ७.३७) । वहढोल-चक्राकार वायु, आंधी (दे ७।४२)।। वहिल्ल-शीघ्र (प्रा ४१४२२)। वह-चिविड़ा, गन्ध द्रव्य-विशेष (दे ७।३१) । वहधारिणी-नववधू (दे ७।५०)। वहण्णी-जेठानी, पति के बडे भाई की पत्नी (दे ७४१) । वहमास-वह मास जिसमें पति नवोढा के साथ रमण करता हुआ उसके घर
से बाहर नहीं निकलता-प्रथमोढायाः सदनाद्यत्र पति पयाति बहिः । स स्याद् रमणविशेषो वहुमासो ॥ (दे ७१४६ वृ)।
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१७४
'देशी शब्दकोश बहुरा-शिवा, शृगाली (दे ७।४०) । वहव्वा-छोटी सास (दे ७।४०)। बहुहाडिणी-एक स्त्री के रहते हुए ब्याही जाती दूसरी स्त्री (दे ७.५०) । वहपोत्ति-देखें 'वधूपुत्ती' (अनुद्वा ३१४१६) । वहोल-छोटा जल-प्रवाह (दे ७।३६) । वाअड-शुक, तोता (दे ७१५६ पा) । वाइंगण-बैंगन (प्रज्ञा ११३७; दे ७।२६) । वाइंगणी-वृन्ताकी, बैंगन का गाछ (भ २२१४) । वाइंगिणी-बैंगन का गाछ (प्रज्ञाटी प ५२७) । चाइग-१ मद्य-'वाइगं णाम मज्ज' (निचू १ पृ १६४) । २ बैंगन-वाइग
पलंडु-लसुणाई' (बृभा ६०४६)। चाइद्ध --वक्र-'वाइद्धं ति वक्रामिति वृद्धाः' (भटी पृ १२९७) । चाइल- इस नाम का वणिक्-'तत्थ वाइलो नाम वाणिओ जत्ताए पधावितो' . (आवमटी प २६६) । वाइव--पूर्ववर्ती (अंवि पृ १६)। वाउ-इक्षु, ईख (दे ७।५३)।। वाउक-आस्तरण-विशेष (अंवि पृ ७१)। वाउत्त-१ विट, भडुआ। २ जार, उपपति (दे ७।८८)। याउप्पइय-भुजपरिसर्प की एक जाति (प्र ११८) । वाउप्पइया-भुजपरिसर्पिणी-विशेष-वातोत्पतिका रूढ्यावसेया'
(प्रटी प १०)। चाउप्पिया-भुजपरिसर्प-विशेष (प्रटी प १०)। चाउलग्ग-१ पुरुष का पुतला (निभा १५५) । २ सेवा, भक्ति। चाउलि-वातूल (ज्ञा १३१३१५९)। चाउल्ल-प्रलाप करने वाला, वाचाल (दे ७५६) । चाउल्लग--पुरुष का पुतला-'वाउल्लगं णाम पुरिसपुत्तलगो'
(निचू १ पृ ६१)। बाउल्लय-पुतला- 'जाओ मणिमयवाउल्लमो विय दारओ त्ति'
(कु पृ २१२)। चाउल्लिा -पुतली (दे ६।६२ वृ)। चाउल्ली-पाञ्चालिका, पुतली (दे ६६२ वृ)।
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देशी शब्दकोश
चाऊलिय - नास्तिक ( दनि ७० ) ।
चागली - वल्ली - विशेष ( प्रज्ञा ११४० ) ।
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वागुरा - एक प्रकार का जूता - अंगुलि च्छादित्ता पादावुपरि च्छादयति सा वागुरा (निचू २ पृ ८७) ।
वाघारि - लंबित - 'वाघारि' लंबियभुजो' (आवहाटी २ पृ १०६ ) । वाघारिय - प्रलंबित - 'वाघारियलंबिअभुओ' ( प्रसा ५८८ ) । इ - टवकर ( निभा ४१२३) ।
चाड
घाडंतरा --- कुटीर, झोंपड़ी (दे ७५८ ) ।
चाडकम्म – खेती, कृषि ( उसुटी प २५१ ) ।
वाडहिया - गर्भवती - 'पुणो वाडहियासंजति वेसेण पुरो ठिओ' (निचू १ पृ २० ) ।
थाडा - भींत या वृति से परिवेष्टित स्थान - विशेष (नन्दीटि पृ १३६) । बाड़ा ( राज० ) ।
चाडि - बाड, वृति ( बृभा १०६६) ।
थाडिम - - गण्डकमृग, गेंडा (दे ७ ५७ ) ।
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धाडिल्ल - कृमि, कीट (दे ७५६) |
थाडी - वृति, बाड़ (दे ७४३) ।
वाडु - विनास - 'देशीवचनमेतत् नशनं' ( ब्यभा ३ टीप १०३) । बाढि – वणिक सहाय, वैश्य - मित्र (दे ७१५३) ।
पाटिल - वैश्य - मित्र (दे ७।५३ वृ) ।
वाण - पूरणार्थक अव्यय - ' बाणमिति पूरणार्थी निपातः' ( आबहाटी १पू१७३ ) ।
वाणअ-वलयकार, कंकण बनाने वाला शिल्पी (दे ७५४) । वाणमंतर - १ व्यन्तरदेव (स्था १।१६२ ) । २ देवकुल, मन्दिर ( बृभा १०९३ ) ।
चाणमंतरी — देवों की एक जाति, व्यन्तरी ( आबचू २ पृ ३५) ।
चाणवाल -- इन्द्र ( दे ७१६०) ।
चाणीर – जम्बू- वृक्ष, जामुन का वृक्ष (दे ७।५६ ) । धातंड- वायुरोग - विशेष (अंवि पृ २०३ ) | धातंदविस -- प्राणी- विशेष (?) ( अंवि पृ २२६) ।
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देशी शब्दकोष वातंसु-बिल में रहने वाला जंतु-विशेष-कसका वातकुरीला वातंसु कुतिपि
एवमादयो ."एतेसु बिलासया भवंति' (अंवि पृ २२६)। वातकुरील -बिल में रहने वाला जंतु-विशेष (अंवि पृ २२६) । वातकोणय-क्षुरप्र, अस्त्र-विशेष-'वातकोणएण णक्काणि छिण्णाणि'
(आवहाटी १ पृ २६४) । वातिगण-बैंगन (दअचू पृ २०३)। वातोली—आंधी (तंदु पृ ५८) । वाधुज्ज-१ विवाह से संबंधित (अंवि पृ ४०) । २ विवाह
(वि पृ १९३) । वाधेज्ज-विवाह (अंकि पृ १३४) । वाम–१ मृत (दे ७।४७) । २ आक्रान्त । वामणि-खोई हुई वस्तु को पुनः प्राप्त करने वाला (दे ७५९)-'तुह
__ वासवारवाला वामणि मा हुन्ति कुमारवाल णिव !' (व)। वामणिआ–दीर्घ काष्ठ की बाड (दे ७१५८)। वामपार-गोत्र-विशेष (अंवि पृ १५०)। वामरि—सिंह (दे ७।५४) । वामी-महिला (दे ७।५३) । वाय-१ वनस्पत्ति-विशेष (सू २।३।२२ पा) । २ गन्ध (दे ७५३) । ३ शुष्क
(से ५१५७) । वायउत्त-१ विट, भडुआ। २ जार, उपपति (दे ७८८ )।. . वायंगण-बैंगन (प्रसा २४६) । वायडघड-वाद्य-विशेष, दर्दुर नामक वाद्य (दे ७।६१)-वायडघडो
दर्दुरकाख्यो वाद्यविशेषो भरते प्रसिद्धः' (वृ)। वायडाग-सर्प की एक जाति (प्रज्ञाटी प ५१)।। वायण–१ बुनना—'तन्तुवायनं शिल्पमस्य इति तान्त्रिकः'
(अनुद्वाहाटी पृ ७४) । २ भोज्योपायन, खाद्य पदार्थ का उपहार
(दे ७।५७) । वायणय --भोज्य पदार्थों की भेंट (पा ६१३) । वायलिय-सपेरा (प्रटी प ३७) । वायाड-शुक, तोता (दे ७।५६) । वायार-शिशिर ऋतु का पवन (दे ७।५६) ।
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देशी शब्दकोश
३७७ वार-१ चषक, पान-पात्र (सूचू २ पृ ३५८; दे ७।५४) । २ प्रहार . .
(निरटी पृ २२) । वारंग-वृक्ष-विशेष (अंवि पृ ६३) । वारग-मंगल घट-वारकः मरुदेशप्रसिद्धनामा मांगल्यघटः' (जंबू १०१)। . वारडिय-रक्त वस्त्र, लाल कपड़ा-'जत्थ य वारडियाणं तत्तडियाणं'
(ग८६)। वारमट्टिय-फल-विशेष-'सेलुफल-कोलफल-वारमट्ठिएसु य तधेव'
(अंवि पृ २३८) । वारवत्त-द्वीन्द्रिय जंतु-विशेष (अंवि पृ २३७) । वारसिआ-मल्लिका, पुष्प-विशेष (दे ७।६०) । वारिअ-नापित (दे ७।४७) । वारिक-नापित-नापिता नखशोधका व रिका इत्यर्थः'
(व्यभा १० टी प १५) । वारिखल-परिव्राजक-विशेष-वारिखलाणं बारस मट्टीया छच्च वाणपत्थाणं,
(बृभा १७३८)। वारिज्ज-विवाह (अनुद्वाचू पृ ४८; दे ७ ५५) । वारिज्जिय-विवाह-संबंधी-'पत्तो वारिज्जियवासरो' (उसुटी प २७६)। वारिणील-गोत्र-विशेष (अंवि पृ १५०) । वारुअ-१ शीघ्र (दे ७।४८) । २ शीघ्रतायुक्त-'ण वारुआ अम्हे' (वृ)। वारुआ-१ शीघ्र । २ शीघ्रता से-'आरूढो य एक्कं वारुआसज्ज करिणि'
(कु पृ ३३)। वारेज्ज-विवाह (अनुद्वा ३१४) । वारेज्जय-विवाह (उसुटी प २७६) । वाल-१ मुंह से बजाया जाने वाला वाद्य (आवचू १ पृ ३०६) । २ शकुनि
गृह-'वालं सउणिघरए' (आचू पृ ३४०) । वालंक-गोत्र-विशेष (वि पृ १५०)। वालंजक-कपड़े का व्यापारी (औपटी पृ ६४) । वालंजुय-वणिक्-'वाणिय त्ति वालंजुओ' (निचू ३ पृ १६३)। वालंफोस-कनक, सोना (दे ७६०) । वालंभ-मुकुट का प्रालंब-'वालंभा मउडादिसु ओचला'
(निचू २ पृ ३६८)। वालकल्लि - भोज्य-विशेष (अंवि पृ७१)।
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३७८
शी शब्दकोश
वालग-१ पात्र-विशेष (आचला १११०४) । २ शकुनी-गृह
(आचू पृ ३४०)। वालगपोतिया-जलमंदिर (सूर्यटी प ७०)। वालग्गपोइया-१ वलभी, अट्टालिका । २ तालाब के मध्य में स्थित छोटा
प्रासाद—'वालग्गपोइयातो य त्ति देशीपदं वलभीवाचकं, अन्ये त्वाकाशतडागमध्यस्थितं क्षुल्लकप्रासादमेव वालग्ग
पोइया य ति देशीपदाभिधेयमाहुः' (उशाटी प ३१२) । वालग्गपोतिका-तालाब के मध्य क्रीड़ा करने का लघु प्रासाद-'वालाग्र
पोतिकाशब्दो देशीशब्दत्वादाकाशतडागमध्ये व्यवस्थितं
क्रीडास्थानं लघुप्रासादमाह' (सूर्यटी प ७०)। वालग्गपोत्तिया-१ वलभी-'वालग्गपोत्तियाओत्ति देशीयपदं वलभीवाचकम्'
(उसुटी प १४८) । २ जलमंदिर । वालप्प-पुच्छ, पूंछ (दे ७.५७) । वालवास-मस्तक का आभूषण (दे ७ ५९) । वालिआफोस-कनक, सोना (दे ७।६०) । वालिजक-१ व्यापार के लिए एक गांव से दूसरे गांव जाने वाले
(ओटी पृ १९६) । २ कपड़े का व्यापारी (बृटी पृ ११५८) । वालिका–कान की बाली, आभूषण-विशेष-वालिका कण्णवल्लीका
___ कण्णिका कुंडमालिका' (अंवि पृ ७१) । वालिखरग-जलीय वनस्पति-विशेष (आचू पृ ३४१) । वालिया-वाद्य-विशेष (नि १७११३८) । वाली-वाद्य-विशेष, मह के पवन से बजाया जाने वाला तण-वाद्य
(राज ७७; दे ७।५३) । वालीण-मत्स्य-विशेष-'वालीणा सुसुमारा कच्छपमगरा' (अंवि पृ २२८)। वाल-दूध- एगट्ठ णाणवंजण दुद्ध पयो वालु खीरं च' (जीभा ११३२) ।
हालु (कन्नड) । पाल (तमिल)। वालुंक-पक्वान्न-विशेष-'खीर - दधि-सूव-कट्टरलंभे गुड-सप्पि-वडग-वालुंके'
(पिनि ६३७)।। वालुंजुक--व्यापार के लिए एक गांव से दूसरे गांव जाने वाले
(ओटी पृ १९६) । वालुंडय-रोमकूप (तंदु ११६) । वालेपतुंद-कर्माजीवी (अंवि पृ १६१) ।
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देशी शब्दकोश
वावअ-आयुक्त, गांव का प्रमुख (दे ७।५५) । वावड-१ कुटुम्बी, गृहस्थ (दे ७।५४) । २ व्याकुल (बू)। वावडय-विपरीत मैथुन (दे ७५८) । वावडया--विपरीत मैथुन (पा ४३२) । वावणी-छिद्र, विवर (दे ७.५५) । वावदारी--गोत्र-विशेष (अंवि पृ १५०)। वावि-विस्तारित (दे ७।५७) । वावोणय-विकीर्ण, बिखरा हुआ (दे ७५६) । वासंदी-कुन्द का पुष्प (दे ७.५५)। वासपडाग- सर्प की एक जाति (प्रज्ञा १७१ पा)। वासवार-१ तुरंग, घोड़ा (दे ७.५६) ।२ कुत्ता। वासवाल-श्वान, कुत्ता (दे ७६०) । वासाणिया---वनस्पति-विशेष (सू २।३.२२) । वासाणी- रथ्या, गली (दे ७५५) । वासिय-पर्युषित, रात का बचा हुआ (खाद्य आदि)-'अच्छइ जाव पभायं
वासियभत्तं च से वसभा' (ओनि १२) । वासीमुह-द्वीन्द्रिय जंतु-विशेष, वासीमुख (उ ३६।१२८) । वासुरुल-स्थान-विशेष, उपद्रुत स्थान (अंवि पृ २२२)। वासुल-१ कुन्द का फूल (अंवि पृ ७०) । २ गोत्र-विशेष
(अंवि पृ १४६) । वासुली-कुन्द का पुष्प (दे ७।५५) ! वासेलिका--जलक्रीड़ा (अंवि पृ २५५) । वाहगण-मंत्री (दे ७.६१) । वाहगणय-मंत्री (दे ७।६१ वृ)। वाहड-भरा हुआ, परिपूर्ण-'बहुवाहडा अगाहा, बहुसलिलुप्पिलोदगा'
(द ७.३६)। वाहणा---ग्रीवा, गला (दे ७।५४) । वाहली लघु जल-प्रवाह (दे ७।३६)-'वाहलीशब्दः लघुजलप्रवाहवाचको
देश्य एव वक्ष्यते' (दे ३।२७ वृ)। वाहा-बालुका, रेत (दे ७ ५४) । वाहाडिया-गर्भवती (बृटी पृ १०३१) ।
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३८०
वाहाया - वृक्ष - विशेष - 'समिसंगलिया इ वा वाहायासंग लिया इ वा ' ( अनु ३।४१ ) ।
वाहि - चिरप्रसूता गाय - न वि वच्छएस सज्जंति वाहिओ नेव वच्छमाऊसु' (बृभा २१२०) ।
वाही - एक कला - विशेष - पत्तच्छेज्जाणि वा वाहीणि वा वेहिमाणि वा'. (निचू ३ पृ ३४९) ।
वाहुया - त्रीन्द्रिय जंतु - विशेष ( जीवटी प ३२) । विभओलिअ - मलिन, मैला (दे ७/७२ ) । विअंगिअ - निन्दित (दे ७/६९ ) । विअंसअ - व्याध, बहेलिया (दे ७।७२ ) ।
देशी शब्दकोश
विडिय - सुरा - संधानकारी, मद्य बनाने वाला (व्यभा ६ टी प ४३ ) । विअलंबल - दीर्घ (दे ७।३३) ।
विआरिआ - पूर्वाह्न का भोजन (दे ७।७१ ) ।
विआल -- १ संध्या - राओ य विआले य पविसमाणे' (विपा १।५।२६; दे ७|ε०) । २ चोर (दे ७६० ) |
विभालुअ -- असहन, असहिष्णु (दे ७।६८ ) ।
विउव्वाढ - १ विस्तीर्ण । २ दुःखमुक्त (दे १।१२६ वृ ) ।
विऊरिअ - नष्ट (दे ७।७२) ।
विएऊण - चुनकर - ( सुयसागरा विएऊण जेण सुयरयणमुत्तमं दिण्णं' (प्रज्ञाटी प४) ।
विओल - उद्विग्न (दे ७|६३) ।
विख वाद्य विशेष ( आवचू १ पृ ३०९ ) ।
विचिणिअ -- १ पाटित, विदारित । २ धारा, प्रवाह (दे ७१६३) । विंटल - वशीकरण-विद्या- 'निमित्तादिना विण्टलेन कृते - भाविते'
(बृटी पृ ६३३) ।
विटलिया - १ वशीकरण - विद्या । २ निमित्त आदि का प्रयोग - विटलियाणि परंजंति' (ग ११९ ) ।
विटिया - १ गठरी, पोटली (उशाटी प ८७) । २ मुद्रिका, बींटी । - शालनक ( बूटी पृ ३१२) ।
विकडुभ
विकालिका - आभूषण विशेष (अंवि पृ ७१ ) ।
विकिच्चिका - रोग - विशेष - ' कुठं किडिभं दद्दू विकिच्चिका पामा'
( निचू २
२१४ ) ।.
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देशी शब्दकोश
विक्कमण - चतुर चाल वाला घोड़ा (दे ७/६७) । विक्कि -- संस्कृत, सुधारा हुआ ( दहाटी प २२१ ) । विक्केणुअ - विक्रेय, बेचने योग्य (दे ७।६९) । विक्ख - नपुंसक का एक प्रकार - विक्खो य संढो वा वि णरेतरो' (अंवि पृ ७३) ।
विक्खंभ - १ बीच का भाग, अंतराल (आवचू २ पृ १२३; दे ७८८ ) । २ स्थान (७८८ ) । ३ छिद्र, विवर ( से ३ | १४) ।
farar - कार्य (दे ७।६४) ।
विक्खास - विरूप, कुत्सित ( दे ७/६३) ।
विविखण्ण - १ आयत, लम्बा । २ जघन (दे ७८८ ) । ३ अवतीर्ण ( वृ) 1 विगड - निर्जीव, प्रासुक - 'विगतजीवं विगडं' ( आचू पृ ३०८ ) | विगरणी - भंजन - 'तओ सा आयरिएहि चड त्ति विगरणी कया' ( बृटी पृ १३१६) ।
विगलि --- अरण्य - धीरा वाएण उदीरिएण विगलिम्मि ओलाइया'
(म ४८१) ।
विग्गुत - विपरीत, विप्रतिपन्न ( सूचू १ पृ २३० ) । विग्गोव - व्याकुलता (दे ७ ६४ ) ।
विचिक्की - वाद्य विशेष ( राज ७७ ) ।
विच्च - १ बीच में - 'ण हमलो णहविच्च रेणू' (निचू २ पृ २२१ ) । २ स्तूप - इट्टगादिचिया विच्चा थूभो भण्णति' (निचू २ पृ २२५) । ३ बुनने की क्रिया - ण य ताण कुच्चविच्चाणि निज्ज्ञातियन्त्राणि ' (अवचू १ पृ ३५४) । ४ मार्ग (प्रा ४ | ४२१ ) । ५ जटित | विच्चग - स्तूप - ( थूभा पुण विच्चगा होंति' ( निभा १५३५) । विच्चोअअ - उपधान, तकिया (दे ७/६८ ) ।
विच्छड्डु -- १ समूह, निकर ( से २२; दे ७:३२ ) । २ ठाटबाट, धूमधाम - - पूइओ महाविच्छड्डेण कुसुमवत्थाईहि' (उसुटी प १३६) । विच्छिअ - १ पाटित, विदारित । २ विचित, चुना हुआ । ३ विरल (2 0122) 1
1
विच्छेअ -- १ विलास । २ जघन ( दे ७६० ) । विच्छो लिअ - धीर धोया हुआ - 'धो विच्छोह विरह, वियोग (दे ७६२) । विजढ — परित्यक्त ( उ ३६।८२) ।
३८१
विच्छो लिअ ' ( पा २० ) ।
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३८२
विजाय - लक्ष्य - 'लक्खं विजायं' (पा ८४० ) ।
विज्जल --- १ पंकिल मार्ग (द ५/४) । २ चिकने कीचड़ वाला स्थान" स्निग्ध कर्दमाविलस्थानं यत्र जनोऽतर्कित एव पतति' ( जंबूटी प १२४ ) ।
विज्जुल -- पंकिल मार्ग ( आटी प ४०६ ) ।
विज्झडावेउं - डांट-फटकार कर - रायपुरिसेहि य घेत्तुं पिट्टित्ता रण्णो य ओ पास, सिट्ठे रण्णा विज्झडावेउं वज्झो आणत्तो' (आचू पृ १८७ ) ।
विज्झडित - व्याप्त - ' बहुखंडतरेसु वा कंटगेसु विज्झडितं किज्जति वा' ( निचू २ पृ ३ ) ।
विज्झडिय - व्याप्त - 'सीय उन्हखरफरूसवाय विज्झडियमलिणपंसुगुडियंगमंग' (भ ७|११९) ।
विज्झिडि - मत्स्य की एक जाति (विपाटी प ७९ ) । विज्झिडिय - मत्स्य की जाति विशेष ( प्रज्ञा ११५६ ) | विटपोल्लक - ललकार, विस्वर (प्रटी प५८ ) |
विट्टल - नीच - ' अहमो चिलीणकम्मो पावो अह विट्टलो णिहीणो य' (कु पृ २२३) ।
देशी शब्दकोश
विट्टाल - उच्छिष्टता, अपवित्रता (प्रा ४१४२२ ) । [ मराठी - विटाल ] विट्टालणा - अपवित्रता, उच्छिष्टता (बूटी पृ ६६e) । विट्टालित - भ्रष्ट, उच्छिष्ट (निचू ३ पृ १३७) ।
विट्टी - गठरी (ओनि ३२४ पा) ।
विट्ठ - १ ऐसा स्थान जिसके चारों ओर पानी हो - 'जूवयं णाम विट्ठ पाणियपरिक्खित्तं' (निचू ४ पृ ५४) । २ सुप्तोत्थित, सोकर
उठा हुआ ।
विट्ठर - भाजन - विशेष ( जंबूटी प १०० ) । विड- विष्ठा - 'विडित्ति विट्ठा' ( प्रसा ९६ ) ।
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विडअ - राहु, ग्रह- विशेष (दे ७।६५) । विडओलण-धाडा, लूट (ओटी प ४४) । विडंकिआ - वेदिका, वेदी (दे ७/६७) | विडप - राहु, ग्रह - विशेष (दे ७।६५) ।
विडसण - स्वाद लेकर खाना-' - 'विडसणं पिणेच्छाम:' ( निभा ४८४३) ।
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देशी शब्दकोश
विडसणा - स्वाद लेते हुए थोड़ा-थोड़ा खाना - विडसणा नाम आसादेंतो थोवं थोवं खायति' (निचू ३ पृ ५१८ ) ।
विडिचिअ - विकराल, भयंकर (दे ७६६ वृ ) । विडिच्चिर - विकराल, भयंकर (दे ७१६९ ) ।
विडिम - १ वृक्ष ( 1१ ) । २ वृक्ष का मध्य भाग । ३ वृक्ष का विस्तार (ज्ञाटी प ५) । ४ बाल मृग । ५ गेंडा (दे ७|८६) । ६ शाखा (दअचू पृ ७) ।
विडिमा - प्रशाखा - तत्थ जे खंधाओ ते साला भण्णंति, सालाहितो जे णिग्गया ते विडिमा भण्णंति' (दजिचू पृ २५५) ।
विडिमी - वृक्ष - 'दुमा य पायवा रुक्खा विडिमी य अगा तरू' (दनि १४), 'विडिमाणि जेसि विज्जति ते विडिमी' (दअचू पृ ७) ।
विडोमिअ-- गण्डकमृग, गेंडा (दे ७१५७) ।
विड्डु -- १ प्रपंच, विस्तार ( दे ११४ वृ ) | २ दीर्घ, लंबा ( दे ७|३३) । बिडर- आभोग । २ भयंकर (दे ७१६० पा) । ३ आडंबर | विडिर - १ । २ रौद्र, भयंकर (दे ७.९० ) । ३ आटोप, आडंबर ( पा ε१४) । विड्डुिरिल्ला - रात्री (दे ७६७) ।
विड्डेर - नक्षत्र - विशेष, पूर्वद्वार वाले नक्षत्रो में पूर्व दिशा से जाने के बदले पश्चिम दिशा से जाने पर प्राप्त होने वाला नक्षत्र'पूर्वद्वारिकेषु नक्षत्रेषु पूर्वदिशा गन्तव्ये अपरया गच्छतो घिड्डेरम्' (विभामटी २ पृ ३२७) । 'जं जत्थ गमणकम्म समारंभादिसु अणिभिहितं विड्डेरं विगतद्वारमित्यर्थ' : ( निचू ४ पृ ३०१ ) । विड्डर - गृहस्थ के लिए जादू-टोना में त होना (व्यभा ४ | ३ टी प ४६ ) विढणा - पाणि, एडी (दे ७७६२) ।
c
विढत्त - अर्जित (प्रा ४। २५८ ) ।
विडिअ - व्याकुल- राय उत्तविरहुव्विग्गा य गब्भभरविणडिया चितिउं पयत्ता' (कु पृ ७५) ।
विणण - बुनना (निचू ३ पृ ५७३) ।
विणाड - ढेंढरा, टेंटर, आंख का एक रोग जिसमें मांस उभर भाता है
(दअचू पृ १६७) ।
विणिव्वर - पश्चात्ताप (दे ७/६८ ) |
वितत - कार्य (दे ७७६४) ।
३८३
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३८४
देशी शब्दकोश
वितिहव–परिचित-'संजयभावियखेत्ते तस्स असतीए उ चक्खुवितिहवे
चक्षुर्विटिहते दृष्ट्या परिचिते' (व्यभा ८ टी प ५५) । वित्त-दीर्घ, लम्बा (दे ७१३३ वृ)। वित्तइ-१ गर्वित, अभिमानी। २ विलसित (दे ७।६१) । ३ गर्व, अहंकार
वित्तई गर्व इत्यन्ये' (वृ)। वित्तीकप्प–प्रायः पूर्ण-'अट्ठमे मासे वित्तीकप्पो हवइ' (तंदु १९)। वित्थक्कंत-१ स्थिर होता हुआ । २ विलंब करता हुआ (से १३।७०) । विदर-जलस्थान-विशेष (ज्ञाटी प ४०) । विडिय-विनाशित (दे ७१७० )। विणा-लज्जा (दे ७।६५ पा)। विदणा-लज्जा, शरम (दे ७।६५) । विधित्तिका-फल-विशेष (अंवि पृ ७०)। विपित्त-विकसित (दे ७६१) । विप्प-पुच्छ पूंछ (दे ७१५७)। विप्पय-१ खल-भिक्षा । २ वैद्य । ३ दान । ४ वापित, बोया हुआ
(दे ७।८६)। विप्परद्ध-विशेष-पीड़ित-'कर-चरण-दंत-मुसलप्पहारेहिं विप्परद्धे समाण'
(ज्ञा १११।१६१) । विप्पराद्ध-हत-प्रहत (ज्ञाटी प ७३) । विप्पवर-भल्लातक, भिलावा (दे ७।६६)। विप्पावग-हास्यकर्ता, उपहास करने वाला-'तेण वि विप्पावगो त्ति नाऊण
संजायमाणकोवेण भणियं' (उसुटी प ४)। विप्पास-मल-मूत्र-वित्ति विष्ठा पत्ति प्रश्रवणं मूत्र' (प्रटी प १०५) । विपिडिय–विनाशित (दे ७७०)। विप्पित-१ विघ्नयुक्त-विग्घतत्ति विप्पितत्ति एगट्ठा' (आचू पृ २४२) ।
२ विकलांग। वि प्पिय-कूटा हुआ, छिन्न-'पिच्चिउ त्ति वा विप्पिउ त्ति वा कुट्टितो त्ति
__वा एगट्ठ' (निचू ४ पृ २०६) । विप्फाडिअ-नाशित, नष्ट क्रिया हुआ (दे ७७०)। विप्फाल-पृच्छा-'देशीवचनमेतत्' (व्यभा २ टी प २१)। विष्फालण-पृच्छा (व्यभा २ टी २१)। विष्फालणा–प्रश्न, पृच्छा-'विप्फालणा णाम वियडणा' (निचू ३ पृ ३६) ।
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देशी शब्दकोश
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विब्बोक-शरीर का एक प्रकार का वकार-विब्बोकः देशीपदं अंगज
विकारार्थे' (अनुद्वाहाटी पृ ६६)। विब्बोय--१ स्त्री की शृंगार-चेष्टा-विशेष । २ काम-विकार (अनुद्वा ३११) । विब्बोयण-उपधानक, तकिया (सूर्य २०१७) । विन्भवण-उपधान, तकिया (दे ७६८) । विभिडिय-मत्स्य की एक जाति (प्रज्ञा ११५६ पा) । विभेइअ—सूई से विद्ध (दे ७६७) । विभंगु-तृण-विशेष (प्रज्ञा ११४२) । विभमण-उपधान, तकिया (दे ७।६८ वृ)। विमइअ-भत्सित, तिरस्कृत (दे ७७१) । विमय-पर्व-वनस्पति-विशेष (प्रज्ञा ११४१) । विमलहर-कोलाहल (दे ७७२)। विमलिअ-१ मत्सर से उक्त । २ शब्द-सहित, शब्दवाला (दे ७।६२)। विमा-बांस का एक प्रकार (भ २१।१७) । विमिसिंत-प्रकाशित (अंवि पृ ६) । विम्हराइय-१ मूछित । २ विस्मापित (से ६।४१) । वियंछिय-विकर्षण-'मा तेण अंछवियंछियं कज्जिहिति'
(आवहाटी २ पृ २२८)। वियट्ट-आकाश-'अट्टे इ वा वियट्टे इ वा आधारे इ वा' (भ २०१६) । वियड-१ प्रासुक, निर्जीव-जं किंचि पावगं भगवं, तं अकुव्वं वियर्ड
भुंजित्था' (आ ६।१।१८) । २ जल-वियडं समयभाषया जलम् (ज्ञाटी प २६८) । ३ मद्य (पिनि २३९) । ४ तुच्छ
(से ६।२६)। वियडग-प्रासुक, निर्जीव (दश्रु ८।२४०) । वियडत्ता-मदिरापान का नशा, मत्तता-'पच्छा वियडत्ता जाया'
(उसुटी प ३४) । वियडासय-चुल्लू-वियडासय चुलुकमाहुवृद्धाः' (भटी पृ १२२७) । वियडि-अटवी, जंगल-वियडिशब्देन लोके अटवी उच्यते' (ज्ञाटी प ७२) । वियड्डि-तलाई-वियड्डि त्ति देशीवचनतः तडागिका' (उशाटी प १३८) । वियर-१ नदी आदि के सूख जाने पर पानी निकालने के लिए किया जाने
वाला गर्त (स्थाटी प २६६) । २ गत (ज्ञाटी प २३६)।
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१६
देशी शब्दकोश
वियरग-.१ नदी आदि जलाशय के सूख जाने पर पानी के लिए किया जाने
वाला गढा (ज्ञा १११११५६) । २ कूपिका, छोटाकूप-वियरगोत्ति.
कूविया' (निचू ३ पृ ५८४)। वियरय-१ लघु स्रोत वाला जलाशय जो सोलह हाथ विस्तृत होता है।
नदी या महागर्त में इसका संकुचन तीन हाथ विस्तृत होता है
(व्यमा ४।३ टी प ६) । २ गर्त (ज्ञा १।१७।२२) । वियली-घर के चार कोनों में रखा जाने वाला छोटा स्तंभ-'थूणाओ होति
वियली' (निभा ४२६८)। वियाउया-पैर फटना, बिवाई-सीतेण वि पव्वीसु वियाउआसु फुटेंतीसु
खल्लगादि पुडगे बंधति' (निचू ३ पृ २३)। वियार-१ विस्तीर्ण-'सवियारो त्ति वित्थिन्नो' (बृभा २०२२ चू) ।
२ शौच-स्थान (निचू १ पृ४४) । वियाल-संध्या-वियाले त्ति सन्ध्यायाम्' (विपाटी प ६६)। वियावड-आकुल (ओटी प १३८)। वियावत्त-जीर्णशीर्ण, अपरिलक्षित-वियावत्तं नाम अव्यक्तमित्यर्थः, भिन्न
पडियं अपागडं' (आवहाटी १ पृ १५२) । विरमालिय-प्रतीक्षित (पा ५७०)। विरय-१ लघु स्रोत वाला जलाशय जो सोलह हाथ विस्तृत होता है। नदी
या महागर्त में इसका संकुचन तीन हाथ विस्तृत होता है
(व्यभा ४.३ टी प ६) । २ छोटा जल-प्रवाह (दे ७।३६) । विरलि-वस्त्रविशेष, डोरिया (प्रसाटी प १६१) । विरली-चतुरिन्द्रिय प्राणी-विशेप (उ ३६।१४७) । विरल्लिअ-जला, जल से भीगा हुआ (दे ७।७१)। विरल्लित-विकीर्ण, विस्तारित (स्था ४१५७७)। विरल्लिय–विस्तारित-'जह उल्ला साडीया आसु सुक्कइ विरल्लिया संती'
(विभा विरस --वर्ष (दे ७.६२)। विरसमुह-काक, क आ विरह-१ एकान्त (विपा ११६।३१; दे ७।६१) । २ कुसुंभ रंग से रंगा हुआ
वस्त्र ( विरहाल-कुसुंभ रंग से रंगा हुआ वस्त्र (दे ७६८)। विराय-विलीन, पिघल हुआ (पा ८०२)।
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देशी शब्दकोश
विराली-आस्तरण - विशेष ( जीविप पृ ५१) ।
विरिचिअ - १ विमल, निर्मल । २ विरक्त, उदासीन (दे ७/१३) । विरिचिर-१ अश्व, घोड़ा । २ विरल (दे ७६३) । विरिचिरा-धारा प्रवाह - 'विरिचिरा धारेति केचित्' (दे ७ ९३ वृ ) । विरिक्क १ अपना विभाग लेकर जो अलग हो गया हो वह - ' दो भाउया वाणिया ते य परोप्परं विरिक्का' (ओटी पृ ३८७ ) । २ पाटित, विदारित (दे ७७६४) ।
विरिक्का - बिंदु, लेश ( उसुटी प ३६) ।
विरिज्जअ - अनुचर (दे ७१६६) ।
विरुभ- १ खराब, कुत्सित (दे ७/६३) । २ विरुद्ध, प्रतिकूल । विरुगण -- १ उपद्रुत । २ छिन्न ( बुभा ६०४ ) । विरु गिय - १ उपद्रुत । २ छिन्न ( निचू ३ पृ २०० ) । विरुचण - विरूप, कुडौल ( बुभा २५०२ ) । विरुग - १ व्याघ्र । २ भेडिया (नंदिटि पृ १३३ ) ।
३८७
विरूव - १ भेड़िया - 'तं चरतस्स ण हायइ बलं विरूवं च पेच्छंतस्स भएण ण वड्डुइ' (आवहाटी १ पृ २७८) २ व्याघ्र - ' वग्घोत्ति विरूवो ( निचू ३ पृ ४६२) ।
विरेग - १ अवसर । २ विश्राम - दिवसतो विरेगो नत्थि, रतिपि पडिपुच्छणसिक्खगाईहि सुइयं न लहइ' ( उशाटी प १२६) ।
विरेल्लिय - विस्तृत ( ज्ञा १।१७।३६ ) ।
विरोलिअ - मति ( पा ५५५ ) ।
विलअ - सूर्य का अस्त होना, सूर्य की अस्तमन वेला (दे ७१६३ ) |
विलइय - १ अधिज्य, धनुष्य की डोरी पर चढाया हुआ । २ दीन, गरीब (दे ७९२) । ३ नियोजित, आरोपित । ४ शिरोधार्य - 'पढमं चिअ रहुवइणा उर्वार, हिअअ तुलिओ भरो व्व विलइओ' ( से ३।५) ।
विलउलग -- लुटेरा - 'लुंटागा विलउलगा' ( निचू ३ पृ २१६) ।
विललय --- लुटेरा (निचू ३ पृ २१९ ) ।
विलउली - - १ तलाशी ( प्र ३ | १३ ) । २ ठगने के लिए विस्वर वचन ( बोलना ) ( प्र ३|१४ ) ।
विलओलग - लुटेरा (बुटी पृ ८२५) ।
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-३८८
-विलओलण-धाड़ी, डाका (ओनि ८५)।
विलओलय - लुटेरा - 'देशी पदत्वाद् लुण्टाका' (बूटी पृ ८२५) |
A
विलओली - १ ललकार, विस्वर । २ तलाशी (टीप ५८) 'अविलंको न सक्केमि पातुं' (दअचू पृ २७ ) ।
विलंक — मांस
विलका - तरुण स्त्री - 'जोसिता धणिता व त्तिविलक त्ति विलासिणी' (अंवि पृ ६८ )
। विलमा - धनुष की डोरी (दे ७१३४ ) | विलय - पक्षी - विशेष ( भ १२।१६१ ) ।
देशी शब्दकोश
विलया - वनिता, स्त्री ( तंदु १६३) ।
विलालु - पर्वत के बिलों में रहने वाला प्राणी - विशेष, बिडाल (अंवि पृ २२७ ) ।
विलिंजर - पुष्प - विशेष ( अंवि पृ ७० ) ।
विलिंजरा - धाना, भुने हुए जौ (दे ७१६६) ।
विलिप्पिल - कीचड ( निचू ३ ) |
विलिय १ लज्जित - 'सो उड्डाहिओ समाणो विलिओ अग्गओ गच्छइ' ( उसुटी प ५५) । २ लज्जा ( दे ७/६५) । ३ विप्रिय (वृ ) ।
विलियंध - वृक्ष - विशेष (अंवि पृ ६३ ) । विलिव्विली — कोमल और निर्बल शरीर वाली स्त्री (दे ७।७० ) 1 विलुंगयाम - साधु, निर्ग्रन्थ- 'विलुंगयामो त्ति निर्ग्रन्थः अकिञ्चनः ' (आटी प ३२९) ।
लुंपअ - कीट, कीड़ा (दे ७७६७) ।
विलुंपिअ - १ अभिलषित, कांक्षित (दे ७१६६) । २ अशित, कवलित'असिअं विलुंपिअं वंफिअं खइअं ' ( पा १३४) ।
विलुक्क - १ छिपा हुआ ( आवमटी प ४६३ ) । २ विमुण्डित, सर्वथा लुंचित ( पिनि २१७ ) ।
विलुत्तहिअअ - - जो समय पर काम करना न जानता हो वह (दे ७/७३) । विल्ल - १ अच्छ, स्वच्छ । २ विलसित, विलासयुक्त (दे ७८८ ) । ३ सुगंधी द्रव्य - विशेष जो धूप खेने में काम आता है ।
---
विल्लरी – १ पक्षिणी, राजहंसिनी - विल्लरी रायहंसित्ति कलहंसि त्ति वा पुणो (अंवि पृ ६९ ) । २ केश, बाल (दे ७।३२ ) । विल्लहल - १ स्फीत, तीव्र - 'सललिय - विल्लहल गई' ( आवनि १२५७ ) । कोमल । ३ विलासी (दे ७/६६ पा ) |
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देशी शब्दकोश
३८६ विल्ह-धवल, सफेद (दे ७।६१) । विवच्चि-पैर में बिवाई फटना-'पुडगविवच्चि सीते' (निभा ३४३२) । विवणिज--फेरी कर माल बेचने वाला व्यापारी (बृटी पृ ६१८)। विवहार-कष्ट (आवहाटी १ पृ ३०१)। विवाहेंडल-अल्पश्रुत, मंदबुद्धि-'तं पुण ण को ति जाणति पूएति वा, मय
__ मायवच्छदो विवाहेंडलो, अणाढितो सव्वलोयस्स'
(निचू ३ पृ २५)। विवित्त-मुषित, लूटित-'अद्धाणंमि विवित्ता, अद्धाणे विवित्ता मुषिता
इत्यर्थः' (निचू १ पृ ८३) । विव्वाअ-१ अवलोकित । २ विश्रान्त (दे ७.८९)। विसंवाय --मलिन,मैला (दे ७७२) । विसकंभ-१ मकडी, लता-विसकुभो त्ति लता भण्णति'
(निचू १ पृ ७५) । २ मकडी के काटने से होने वाला विषैला
फोड़ा-विशेष (बृटी पृ १०७२)। विस–१ विघटित, विश्लिष्ट (पा ८१०) । २ विशीर्ण, विदलित
(भ ८।८८) । ३ विकसित-'हरिसवम विसट्टकंटयकरालो'
(भत्त ३०) । ४ उत्थित । विसट्टमाण-विदलित करता हुआ (स्था ४।५१४) । विसढ-१ नीराग, रागरहित (दे ७।६२) । २ नीरोग, स्वस्थ । ३ विषम
(व) । ४ विशीर्ण (से ६।६६)। ५ आकुल-व्याकुल
(से १११८६) । ६ सहन किया हुआ। विसमय-भल्लातक, भिलावा (दे ७१६६) । विसमिअ-१ विमल, निर्मल । २ उत्थित, उठा हुआ (दे ७६२) । विसर-सेना, लश्कर (दे ७४६२) । विसरा-जाल-विशेष (विपाश८।१६) । विसरिया-गिरगिट-'विसरिया सरडो भण्णति' (निचू ३ पृ ६०)। विसलाइत-विकीर्ण-विक्खिन्न णिक्खिन्नं विसलाइतं' (संवि पृ८०) । विसारण-फल-फूल आदि के टुकड़ों को सुखाने के लिए धूप में रखना
(पिनि ५६०)। विसारय- धृष्ट, ढीठ (दे ७।६६)। विसारि-कमलासन, ब्रह्मा (दे ७१६२) । विसालअ-जलधि, समुद्र (दे ७।७१) ।
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३६०
देशी शब्दकोश विसालिस-विसदृश, विभिन्न-विसालिसेहिं ति मागधदेशीयभाषया
विसदृशैः' (उशाटी प १८७) । विसि-गज-पर्याण, हाथी की झूल (दे ७.६१) । विसिण-रोमश, प्रचुर रोमवाला (दे ७१६४)। विसिरा-एक प्रकार का मत्स्य-जाल (विपाटी प ८१)। विसुयावण-सुखाना (निभा ८४५) । विसुयावेत-सुखाता हुआ (नि २।८) । विसरणा-खेद, खिन्नता-'आयासविसूरणाकलहपकंपियग्गसिहरो'
(प्र ५१)। विसूरिय--खिन्म (से १०७६) । विसोवद-कौडी का बीसवां भाग-विसोवदेण घेत्तं ठावेहि ससक्खितं
णगरद्दारेण मोदगं' (दअचू पृ २६)। विस्कल्ल–कर्दम-विस्कल्लो देश्यां संस्कृतेऽपि' (अचि १०६०)। विस्सामण-वैयावृत्त्य (दश्रुचू प १३)। विह-१ मार्ग (आ ८।४।५८) । २ अटवी (बृभा ७४२ टि) । ३ लंबा मार्ग,
अनेक दिनों में उल्लंघनीय मार्ग (आचूला ३।१२) । ४ कला-विशेष
(नि १२॥१७)। विहई-वृन्ताकी, बैंगन का गाछ (दे ७।६३)। विहडप्फड-१ व्याकुल, व्यग्र-'जइ घडियं विहडिज्जइ घडियं घडियं पूणो वि
विहडे ।। ता घडण-विहडणाहिं होहिइ विहडप्फडो देवो ।'
(कु पृ ६६) । २ त्वरित । विहण्ण-पीजना, धुनना (दे ७.६३) । विहय-पिंजित, धुना हुआ (दे ७.६४)। विहरिअ-सुरत, संभोग (दे ७७०) । विहलंघल- व्याकुल, मूच्छित-'नट्टचेयणो सिंहासणाओ मुच्छाविहलंघलो
निवडिओं' (उसुटी प २३५) । विहलंघलि-उन्मत्त-'पुरिसो विसयासत्तो विहलंघलिउच्व मज्जेण'
(प्रटी प ६५) ! विहल्लप्फलय--प्रसन्नता से व्याप्त-'सो णत्थि कोइ परिमो महिला वा
तम्मि नयरमज्झम्मि । जो ण विहल्लप्फलओ कुवलयमाला
विवाहेण ॥' (कु पृ १७०) । विहसिव्विअ-विसित (दे ७।६१) ।
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देशी शब्दकोश
३६१ विहाडण--अनर्थ (दे ७७१)। विहाण-१ विधि, विधाता। २ प्रभात, प्रातःकाल (दे ७६०)। ३ पूजा,
अर्चा । विहुंडअ-राहु, ग्रह-विशेष (दे ७१६५) । विहोढ-अनादर करना, लज्जित करना (निभा ४७८२) । वोअ--१ विधुर-चंचल, अत्यंत व्याकुल । २ तत्काल (दे ७१६३)। वीअजमण-खलिहान (दे ६६३ वृ)। वीचि- संकरी गली, संकीर्ण मार्ग (दे ७७३)। वोडक-चावल आदि खाने का साधन (निचू ३ पृ ५२१) । वीणण-१ बीनना (आवदी प ११४) । २ प्रकट करना । ३ ज्ञापन । वीणिया-नाला, जल-प्रवाह-'जे भिक्खू दगवीणियं करेति' (नि १०१२)। वोय-राशि-वीयं रासी' (अंवि पृ २४१)। वीयरग-कूपिका, छोटा कूप (निभा ५०७४) । वीलण-पिच्छिल, फिसलन युक्त (दे ७७३)। वीलणी-पिच्छिल, फिसलन युक्त (अंवि पृ २४३) । वीलय-कर्णाभूषण, ताडंक (दे ६।६३ वृ)। वीली–१ तरंग, कल्लोल (दे ७७३) । २ वीथी, पंक्ति, श्रेणी। वीवाह-वधूपक्ष-संबंधी भोज (व्यभा ६ टी प८)। पीसंदण-अधजले घी में डाले हुए संदुल से बना खाद्य-विशेष-वीसंदणं
अनिद्दड्ढघयमज्झछूढतंदुलनिप्फन्न' (बभा १७१०) । वीसु-युतक, पृथग् (दे ७७३) । वीसुंभण-विष्वग्भाव, पृथग्भाव (स्थाटी प २६५) । वंफ-बातचीत-'फं करेंतो जाति' (आचू पृ ३५८) । वक्कड-विकट, भयंकर-'विसयमच्छकच्छवुक्कडं इंदियमहामयरसमाउलं....
. जोव्वणमहासागर' (कु पृ ७४) । वक्कस-१ मूंग, उड़द आदि की नखिका से निष्पन्न भोजन । २ अत्यन्त
नीरस भोजन (उशाटी प २६५) । वुक्कार-गर्जन (राज २८१ पा)। वुक्ख--वृक्ष (अंवि पृ २२२) । वखण-विशेष प्रकार का बाज पक्षी-'वुखणसेणे व्व हरणे व सण्णिरुद्ध वा'
(अंबि पृ २५५)।
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देशी शब्दकोश
३९२
वुच्छ - १ विनष्ट, अवदग्ध - 'देशी पदत्वाद् अवदग्धं विनष्टमिति यावत्' ( बूटी पृ ३६२ ) । २ निवसित - 'बुच्छो अमेज्झमज्झे असुइप्पभवे असुइयमि' ( तंदु ४१) ।
वुज्झण - बहाकर ले जाना - 'वुज्झणं अपोहनं पानीयेन हरणं स्यात्' ( बृटी पृ १६३५) ।
वुणाविय - बुनाया - तीए दुक्खदुक्खेण छुहाए मरंतीए कत्तिऊण एक्का पोत्ती वुणाविया' ( आवहाटी १ पृ २०५ ) ।
वृण्ण - १ त्रस्त भीत- 'भय वुण्णलोयणा गच्छामो ' ( उसुटी प ३९; दे ७७EY) २ उद्विग्न (दे ७१६४ ) ।
वुन्न -भीत, त्रस्त (प्रा ४॥४२१) ।
वुप्पसुत्त - मस्तक की माला ( अंवि पृ १६३) । बुक — शेखर, शिरोभूषण (दे ७/७४) ।
वुब्भण - १ डूबना ( बृभा ५६३२) । २ बहा कर ले जाना ( बृभा ६१८९ ) ।
वय - १ बुना हुआ । २ बनवाया हुआ ( प्रसा ८४९ ) । वुल्लुवंत - बोलता हुआ - अह विसरिसं वुल्लुवंतो य आलोएति' ( निभा ६३६५) ।
वूरुट्ठी -- रूई से भरा हुआ वस्त्र - विशेष - रूतपूरितः पटः वूरुट्ठीति यदुच्यते' ( प्रसाठी प १६१ ) ।
अडिअ - १ फिर से बोया हुआ (दे ७७७ ) । २ खचित, जडित ( पा १४० ) । ३ मोती वींधने वाला शिल्पी, जोहरी ।
वेअड्डू - भल्लातक, भिलावा (दे ७|६६) ।
वेअल्ल - १ मृदु, कोमल (दे ७/७५) । २ असामर्थ्य ( वृ) ।
वेरिअ - १ प्रतारित, ठगा हुआ । २ केश, बाल (दे ७।६५ ) ।
वेल - १ अन्धा । २ अन्धकार (दे ७६५) ।
वेइआ - १ पनीहारी, पानी लाने वाली स्त्री (दे ७।७६) । २ अंगूठी (वृ) 1 वेइद्ध - १ ऊर्ध्वकृत, ऊंचा किया हुआ । २ विसंस्थुल, विषम, चंचल । ३ आविद्ध, बींधा हुआ । ४ शिथिल (दे ७/१५) ।
उट्टिया - बार-बार, पुनः पुनः (व्य ४ । २१ ) ।
वेंगी - बाड़वाली (दे ७।४३)
वेंट - साधु का एक प्रकार - संविग्ग णितियवासी, कुसील ओसण्ण तह य पासत्था संसत्ता वेंटावा, अहछंदा चेव अट्ठमगा || ' ( निभा ३०६४) ।
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३
देशी शब्दकोश वेंटक–अंगूठी-'अंगुले यकं मुद्देयकं वेंटक' (अंवि पृ १६३) । वेंटल-वशीकरण-विद्या, निमित्त-शास्त्र (ओनि ४२४) । बैंटिया-गठरी (निभा २८७) । वेढसुरा-कलुषित मदिरा (दे ७७८) । वेंढि-पशु (दे ७७४)। बढिअ-वेष्टित, लपेटा हुआ (दे ७।७६) । वेगपक्क-मांस पकाने की विधि-विशेष-'जम्मपक्काणि वेगपक्काणि य ति
रूढिगम्यम्' (विपाटी प ८०)। वेगल-दूरवर्ती-एवं तुब्भं पि पुरेकम्मको कम्मबंधदोसो ब्रह्महत्यावद्
वेगलो भवति' (बृटी पृ ५४४) । वेग्गल-दूरवर्ती (प्रा ४।३७०) । वेच्च-जटित (जीवटी प २१०)। वेज्झल-विह्वल (भटी प ३०७) । वेढावण-बैठाना-'अस्संजतस्स वेढावणादि पडिसिद्ध' (दअचू पृ १७७)। वेटि–बेगार-'ण बला कारिज्जति । वेटुिं वा मण्णति' (आचू पृ २८६)। वेड-नौका, नाव (दे ६।६५ वृ)। वेडइअ-वणिक, व्यापारी (दे ७।७८) । वेडंतिय --धातु-विशेष-'रयय-जायरूव-काय-वेडंतिय-वट्टलोह' (औप १०५)। वेडयकारि-रेश्मी वस्त्र बनाने वाला (निचू ३ पृ २७१)। वेडिअ-मणिकार, जोहरी (दे ७७७)। वेडिकिल्ल-संकीर्ण, जनसंकुल (दे ७।७८)-'किं लोअवेडिकिल्ले वेंढसुरं देसि
पाणि खिविअ' (वृ)। वेडंबक-नृपादि-कुल में उत्पन्न (आवदी २ प ७०) । वेडल्ल-गर्वित, अभिमानी (दे ७१४१)। वेड-लज्जित, अपमानित-ततेणं से राया लज्जिते विलिए वेड्ड तुसिणीए
संचिट्ठति' (आवचू १ पृ ४८४) । वेढल-एक प्रकार का ग्राह (प्रज्ञा ११५८) । वेण-मदी का विषम घाट (दे ७१७४) । वेणिअ-वचनीयता, लोकापवाद (दे ७७५) । वेणुणास-भ्रमर, भौंरा (दे ७७८)। वेतव्वग–खाद्य-विशेष (निचू २ पृ २४१)।
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३६४
देशी शब्दकोश
वेतालिया - किनारा, तट, देखो - 'वेताली' (आवहाटी १ पृ २३७) । वेताली - १ स्थान- विशेष, नदी आदि का तट - मए य सव्ववेतालीओ तुझचएण गवेसाविताओ' (आवचू १ पृ ४६८ ) । २ वेताला नदी का तट - 'वैतालीशब्दोऽत्र देशीवचनत्वात् वेतालातटवाची' ( प्रज्ञाटी प ३३० ) । ३ रथ्या, गली I
वेत्त - स्वच्छ वस्त्र (दे ७ ७५) ।
वेदूणा - लज्जा (दे ७६५) ।
वेध-वस्त्र-वेध, एक प्रकार का छूत ( सू १ । १ । १७ ) । ar - भूत आदि से आविष्ट चेतना, भूतगृहीत ( दे ७/७४) । वेप्पुअ - १ शिशुत्व, बचपन ( दे ७ ७६ ) । २ भूत- गृहीत, भूताविष्ट (वृ) । ausa - सुरापायी - 'अजसो य सपत्रख परपक्वे एस वेयडितो त्ति' (दअचू पृ १३४) ।
वेयारणिय - प्रतारण से उत्पन्न ( स्थाटी प ४० ) ।
वेयारिऊण-- ठगकर, बहकाकर - 'केण वि पासंडिएण वेयारिऊण पब्चाविओ'
(कु पृ १२५) ।
वैयावत्त- जीर्ण-शीर्ण चैत्य ( आवटि प २८ ) |
वेरिज्ज - १ असहाय, एकाकी ( दे ७/७६) । २ सहायता (वृ) |
वेल - दन्त-मांस, दान्त के मूल का मांस (दे ७/७४) ।
वेलंब - विडंबना (दे ७/७५) ।
वेलंबक - १ विदूषक ( प्र ६ |४ टीप १३७ ) । २ विडंबना करने वाला ( जीव ३ | ६१६ टी प २८१ ) ।
वेलंबग - विदूषक ( ज्ञा १|१|७६ ) |
वेलंबिय - विडम्बित ( आवहाटी १ पृ २८७ ) ।
वेलणअ - १ साहित्य प्रसिद्ध रस - विशेष, लज्जारस (अनुद्वा ३०९ ) । २ लज्जा, शर्म (दे ७।६५ वृ) ।
वेलयण - क्रीडन - 'संभलि विणोयकेयण वेलयणं चिहुरगंडेसु' ( व्यभा ५ टीप १७ ) ।
वेलवण - ठगाई, वंचना - 'णाणावेलवणेहि य वीवाहेयव्वाओ' (कु पृ७८) वेलविअ - वञ्चित, ठगा हुआ ( पा ५३७ ) ।
वेलविका - आस्तरण - विशेष (अंवि पृ ७१) । बेला- दन्त-मांस (दे ७ ७४ वृ) ।
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देशी शब्दकोश
बेलाइभ - १ मृदु, कोमल । २ दीन, गरीब (दे ७६६ ) | वेलागय - लोमपक्षी ( जीवटी प ४१) ।
वेलातिक - खाद्य पदार्थ - विशेष
(अंवि पृ १८२ ) ।
वेली - १ घर के चार कोनों में रखा जाने वाला छोटा स्तंभ ( निचू ३ पृ ३७८ ) । २ निद्राकरी लता ( दे ७।३४) ।
वेलु - १ भाला ( आवहाटी १ पृ २३४) । २ चोर । ३ मुसल (दे ७६४) । वेलंक --- विरूप, कुत्सित (दे ७६३) ।
वेलुय - बेल का गाछ ( आचूला १।११८ ) ।
वेलुलिअ - वैडूर्य मणि, रत्न की एक जाति विशेष (दे ७ ७७ ) ॥
३६५
वेलूणा -- लज्जा ( दे ७।६५) ।
वेल्ल -- १ पल्लव | २ विलास । ३ केश । ४ वल्ली (दे ७: ९४ ) । ५ मूर्ख ॥ ६ कामपीडा । ७ ऊपर से ढकी हुई गाड़ी 1
वेल्लरी - १ वेश्या, वारांगना (दे ७/७६) । २ वृक्ष - विशेष (अंवि पृ७० ) । वेल्लविय — विलिप्त, पोता हुआ ( से ११२६) ।
वेल्लहल – १ स्फीत ( आवहाटी २ पृ ५१ ) । २ कोमल । ३ विलासी (दे ७/१६) । ४ सुन्दर ( कु पृ १४९ ) ।
वेल्ला - १ वल्ली, लता । २ केश (दे ७६४) ।
वेल्लाइअ - संकुचित - 'लज्जा वेल्लाइअं इमं बालं' (दे ७७६ वृ) | वेल्लियकम्म – चित्रकर्म - 'धीउल्लिगादिवेल्लियकम्मादि निव्वत्तियं च जाणाहि' (अनुद्वाहाटी पृ ७) ।
वेवा - एक प्रकार का वाद्य - "खर मुहिसद्दाणि वा परिपरिसद्दाणि वा वेवासहाणि वा' ( नि १७ १३९ ) ।
वेवाइr – उल्लसित ( दे ७७६ ) |
वेव्व - १ भय । २ वारण। ३ विषाद । ४ आमंत्रण - इन अर्थों का सूचक अव्यय ( प्रा २१३, १९४) ।
वेसंभरा - गृहगोधा, छिपकली (दे ७।७७)।
वेसविखज्ज - द्वेष, शत्रुता (दे ७१७९ ) ।
वेसण - लोकापवाद (दे ७।७५) ।
वेसरी- - खाद्य पदार्थ- विशेष - " एगस्स पिया च्छासी मासी अण्णस्स वेसरी' (आचू पृ १६६) ।
वेसविलया - दासी - संपत्ता मम भत्तं घेतूण एक्का वेसविलया' ( कु पृ ५६ ) । वेहविअ - १ अनादर । २ क्रोधी (दे ७ ९६) । ३ वंचित, प्रतारित (वृ) ।
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३६६
देशी शब्दकोश वेहारुग-विहरणशील मुनि जिसका शरीर, वस्त्र आदि मैला हो और जो
एक पात्र रखता हो (निचू ३ पृ ४४०)। वोंड-चूचुक, स्तनवृन्त (ज्ञा १।१७।१४)। वोकिल्ल-गृह-शूर, वीरत्व का बहाना करने वाला मिथ्याबीर (दे ७८०)। वोकिल्लिअ-रोमन्थ, चबाई हुई चीज को पुनः चबाना
"उप्पाइउमसमत्था जे चविअचव्वणं कुणन्ति कई। . वोभीसणा फुडं ते वोकिल्लिअकारिणो पसुणो ॥'
(दे ७.८२ वृ)। वोविकतक्क-खाद्य पदार्थ-विशेष-पोवलिकं वा वोक्कितक्कं वा पोवलके वा
पप्पडे वा' (अवि पृ १८२)। वोच्चत्थ-विपरीत-मैथुन (दे ७:५८) । वोज्झ-बोझ, भार (आवचू १ पृ २५५; दे ७.८०) । वोज्झमल्ल-भार, बोझ (दे ७८०) । वोज्झर-१ अतीत । २ भीत, त्रस्त (दे ७१६६) । वोद्रित-अपवित्र किया हुआ (व्यभा ७ टी प ८५) । वोडाण-वनस्पति-विशेष (प्रज्ञा ११४४) । वोडिय---मुंडित-मस्तक (उशाटी प १८१) । वोडू-मूर्ख (व्यभा ६ टी प ५)। वोण्ण-कर्म-कम्म ति वा खुह ति वा वोण्णं ति वा कलु ति वावज्ज ति
वा वेरं ति वा पंको त्ति वा मलो त्ति वा एते एगट्टिता'
(निचू ४ पृ २७४)। वोण्णमंत-लकड़हारा (सू २।२।३१) । वोद्द-तरुण (निचू ३ पृ २६७) । वोद्दह-तरुण-'वोद्दहजणस्स उस्सुयकर' (ज्ञा १।१६।१६३) । वोद्रह-तरुण, युवा (दे ७८०)। वोद्रही-तरुणी (प्रा १८०) । वोभीसण-वराक, दीन, गरीब (दे ७८२) । वोमज्झ - अनुचित वेष (दे ७।८०) । वोमज्झिअ-अनुचित वेष का ग्रहण (दे ७८० वृ)। वोमीका-परिसर्प की एक जाति (अंवि पृ ६६) । वोयाण-वनस्पति-विशेष (भ २१।२०) ।
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३६७
देशी शब्दकोश घोरच्छ-तरुण, युवा (दे ७।८०)। वोरल्ली-१ श्रावण शुक्ला चतुर्दशी को होने वाला उत्सव-विशेष
(दे ७८१) । २ श्रावण शुक्ला चतुर्दशी (व) । वोरुट्टी-रूई से भरा हुआ वस्त्र-विशेष (प्रसा ६८०)। वोल-१ कोलाहल (दे ६।६० वृ) । २ एक प्रकार का पौधा । वोलिय-१ गत, गया हुआ (उसुटी प १४२) । २ अतिक्रांत, उल्लंधित
(से ४।४८)। ३ अपगत (से १।३)। बोलीण-१ अतीत, व्यतीत-'वोलीणा चक्कवट्टिणो बारसवि, विणस्सिहिसि
तुम' (दहाटी प ५१) । २ अतिक्रांत (प्रा ४।२५८) ।
३ व्यतिक्रांत (पा १४१) । वोल्लाह-उत्तम जाति का अश्व (कु पृ २३)। पोवाल-वृषभ, बैल (दे ७७६) । वोव्वड-मूक, भाषा-जड (व्यभा १० टी प १०६) । वोसट्ट-१ भरकर खाली किया हुआ (दे ७८१) २ विकसित
(प्रा ४।२५८)। वोस?-ऊपर तक भरा हुआ (बृभा ४०४८) । वोसेअ-उन्मुख-गत, उफना हुआ (दे ७८१)। वोहत्तिय--गृहीत-'एक्केण परिग्गहिता सव्वे वोहत्तिया होन्ति'
(जीभा २०५२)। बोहार-जल-वहन, पानी ले जाना (दे ७:८१)।
स-अथ (व्य ३।४)। सअअ-१ शिला । २ घूर्णित (दे ८।४६) । सअढ----लम्बा केश (दे ८।११ पा)। सइज्म-पड़ोसी (दे ८।१०)। सइज्मक-प्रातिवेश्मिक, पड़ोसी-'सइज्झका नाम सहवासिनः प्रातिवेश्मिका
__इत्यर्थः' (बूटी पृ ६४०)। सइज्यि -१ पड़ोसी (निचू १ पृ ८) । २ पड़ोसीपन, प्रातिवेश्य
(दे ८।१० वृ)।
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३६८
सइज्झिया - पड़ोसिन ( पिनि ३४२ टी ) ।
सइदंसण - मनोदृष्ट, विचारों में प्रतिभासित ( दे ८१९ ) ।
सइदिट्ठ - मनोदृष्ट (दे ८।१६) |]
--
सइरवसह-धर्म के अभिप्राय से त्यक्त बैल, स्वैरवृषभ, स्वच्छन्द बैल
(दे ८।२१) ।
सइलंभ - मनोदृष्ट, चित्त में प्रतिभासित (दे ८ १९) ।
सइलासय-- मयूर, मोर (दे ८।२० ) |
सहसिलिंब - स्कन्द, कार्तिकेय ( ८।२० ) । सइसुह - मनोदृष्ट (दे ८११६) ।
सईणा --- रहर, तुवरी (श्रु ६ । ३ ) |
सउडि -- रजाई- 'पवेसिओ सउडिमज्भे हत्थो' (बूटी पृ ५८ ) ।
देशी शब्दकोश
सउण - रूढ, प्रसिद्ध (दे ८|३) |
सउलिअ - प्रेरित (दे ८।१२) ।
सउलिया - १ शकुनिका, चील (अनुद्वा १४१ ) । २ एक महौषधि । सउली - १ चील, शकुनिका ( दे ८15 ) । २ एक महौषधि । सज्जिया -- पडोसिन (ओनि १६७ ) ।
सएज्झअ -- पड़ोसी (बृभा ३३४९) ।
सज्झि - पड़ोसिन (बृभा १५३६) । सज्झिग - पड़ोसी, साधर्मिक ( निचू ४ पृ ६० ) । सएज्झिया - पड़ोसिन, सखी ( आवहाटी १ पृ २३५) । संकडिल्ल - निश्छिद्र (दे ८।१५) ।
संकर - रथ्या, मार्ग (व्यभा ८ टीप ३३; दे ८१६ ) |
संकाइयग ---तापसों का पात्र - विशेष (भ ११।६४) ।
संख - - १ शरीर का अवयव - विशेष - 'दंता संखा य गंडा य करमज्झो तहेव य' (अंवि पृ७७ ) । २ स्तुतिपाठक (दे ८१२ ) ।
संखड - कलह, झगड़ा ( पिनि ३२४) ।
संखडि - सरस भोजन, जीमनवार (आ है| ११६ ) 1
संखद्रह - गोदावरी नदी का ह्रद (दे ८|१४) । संखबइल्ल - किसान की इच्छानुसार उठकर खड़ा होने वाला बैल
(दे ८|१९) ।
संखलय -- शम्बूक, शुक्ति के आकार का जल जंतु - विशेष (दे ८ । १६ ) ।
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देशी शब्दकोश
संखलि - कर्णभूषण - विशेष, शंखपत्र का बना हुआ ताडङ्क (दे ८|७) । संखाल - शंबर नाम का मृग (दे ८६ ) ।
संखिल्ल -- संख्येय - णरवसभा के वर्णतसं खिल्ल' ( कु पृ २०१) । संखेण - गोत्र - विशेष (अंवि पृ १५० ) ।
संगइ - मित्रता (ज्ञाटी प३८ ) |
संगइय - मित्र - 'दच्छिसि णं गोयमा ! पुव्वसंगइयं' (भ २।३२ ) । संगय-मसृण, चिकना (दे ८१७) |
संगरिगा --- फली - विशेष ( प्रसा २२६ ) | सांगरी ( राजस्थानी ) । संगलिक - - फल- विशेष (अंवि पृ ७१ ) ।
संगलिग — फली ( अंवि पृ २४४ ) ।
संगलिया - फली - "एगाए तिलसंगलियाए सत्त तिला पच्चायाइस्संति'. (भ १५।७२ ) ।
संगह - घर के ऊपर का तिरछा काष्ठ (दे ८१४)।
संगा - वल्गा, घोड़े की लगाम (दे ८।२) ।
संगार - संकेत - एगंतमंते संगारं कुठवंति' (भ १५।१३४ ) |
संगिल्ली -- समूह (ज्ञाटी प ६४ ) |
संगिल्ल -- १ गायों का समूह - 'संगिल्लो नाम गोसमुदायः ।
( व्यभा ४। २ टी प ७ ) । २ समूह ( व्यभा ४/४ टीप २९ ) । संगुलिया --- समूह ( आचू पृ ३२९) ।
संगेल्ल - समूह (दे ८४) ।
संगेल्लि - समूह - पिट्ठओ रहसंगेल्लि' (दश्रु १०।१६ ) ।
३६६
संगेल्ली - १ परस्पर अवलम्बन - 'ते'''' हत्थसं गेल्ली ए... ' ( ज्ञा १।३।१६ ) । २ समूह - 'सं गेल्ली समुदायः देश्योऽयं शब्द:' ( जंबूटी प २६५) ।
संगोढण - व्रण-युक्त (दे ८७१) ।
संगोली - समूह (दे ८।४) ।
संघट्ट--- १ अर्ध जंघा प्रमाण जल - ' जंघद्धा संघट्टो' (ओभा ३४ ) । २ वल्लीविशेष (प्रज्ञा ११४०/३) ।
संघड -- निरन्तर ( आ ४।५२) ।
संघडिय - मित्र - 'संघडिय त्ति देशीपदमव्युत्पन्नमेव मित्राभिधायि'
(उशाटी प ३६४) ।
संघयण - १ शरीर (आटी प ३६२; दे ८ । १४) । २ धृति - थिरसंघयणे
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४००
देशी शब्दकोश
-~-दृढकायो दृढधृतिश्च' (आटी प ३९२)। ३ अस्थि-रचना (स्था ६।३०)। ४ अस्थि-रचना का कारणभूत कर्म
(समटी प ६७)। संघयणि-अस्थि, शिरा एवं स्नायु से युक्त शरीर वाला (समप्र १८७)। संघरिस-स्पर्धा-'संघरिसो जमलिओ तू, को सिग्घगति त्ति वच्चति तु'
(जीभा १७२०)। संघाड-१ युग्म (निचू ३ पृ ३५७) । २ प्रकार-संघाड त्ति वा लय त्ति वा
पगारो त्ति वा एगलैं' (बुटी पृ ८११)। ३ जलयान . (संवि पृ १६६) । ४ ज्ञाताधर्मकथा आगम का दूसरा अध्ययन
(सम १६१)। संघाडय-सहयोग (नि ४१२७) । संघाडि-जैन-साध्वी का उत्तरीय वस्त्र (ज्ञा १।१६।१०७) । संघाडी-१ प्रावरण-विशेष-'प्रायेण संघातिजति त्ति संघाडी, गुणसंघाय
कारणी वा संघाडी, देसीभासातो वा पाउरणे संघाडी'
(निचू ३ पृ ३२६) । २ युगल, युग्म (दे ८७) । संघासय-स्पर्धा (दै ८१३)। संघोडी-व्यतिकर, मिश्रण (दे दाम)। संचक्कार-अवकाश-संचक्कारं व से दिण्णं' (कु पृ १६४) । संचर-१ स्नान कराने वाला । २ शरीर का शोधन-परिकर्म करने वाला
'संचरो हाणिया सोधओ' (निचू २ पृ २७६) । संचारी-दूती (पा ८०४)। संछन-परित्यक्त (ज्ञा १२१७१३)। संछोम--संक्रामण, परावर्तन (बृभा १९७६) । संछोमण-परिवर्तन, परावर्त (बृभा २३३०) । संजत्थ-१ क्रुद्ध, कुपित (दे ८।१०) । २ क्रोध-'संजत्थो कोप इत्यन्ये' (वृ)। संजमिअ-संगोपित, छिपाया हुआ (दे ८।१५) । संजविस-संगोपित (पा ६४४) । संजीहार-ललकार-तहा गुरवो वसभा वा संजीहारं करेंति'
(निचू ४ पृ ४४)। संजुकारक-कर्मोपजीवी (अंवि पृ १६०) । संजुद्ध-स्पन्दनयुक्त, प्रकम्पित (दे ८९) । संडपट्ट-धूर्त (विपाटी प ७२)।
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देशी शब्दकोश
संडिभ - बालकों का क्रीडास्थल - 'डिब्भाणि - चेडरुवाणि णाणाविहेहि खेल एहि खेलंताणं तेसि समागमो संडिब्भं' (दभवू पृ १०२) । संडो- घोड़े की लगाम (दे ८|२) |
संडेव - पानी को लांघने के लिए रखा जानेवाला पाषाण आदि - 'पडिवक्खेण उगमणं तज्जाइयरे व संडेव' (ओनि ३१ ) ।
संडेवग - पैर रखने के लिए पानी में रखा जाने वाला पत्थर ( निचू १ पृ७२ ) ।
संडोलिअ - अनुगत (दे ८।१७ ) ।
संति- बहुवचनान्त अव्यय ( आचूला १५६५) ।
संथड - १ राज्य - 'संथडं नाम राज्य' (व्यभा ७ टी प ६१ ) । २ अविभक्त, सामान्य- 'साहारण सामन्नं अविभत्तमच्छिन्नसंथडे गट्ठ' (व्यभा टीप ६) ।
४०१
संथडिल- तृप्त (बृचू प २०८ ) ।
संथोभ - संक्रामण, परावर्तन - 'सो णिज्जति गिलाणो, अंतरसम्मेलणाए संथोभो' (निभा ३०८० ) ।
संदट्ट - १ संबद्ध । २ संघट्ट, संघर्षण (दे ८ १८वृ) ।
संय- संलग्न (दे ८।१८ ) ।
संबुमिअ- प्रदीप्त (पा १६) ।
संदेण- भोजन - भिण्णदेसिभासेसु जणवदेसु एगम्मि अत्ये संदेण वंजण-कुसणजेमणाति भिण्णमत्थपच्चायणसमत्थमविप्पडिवत्तिरुवेण'
९ ( दअचू पृ १६० ) ।
संदेय - १ सीमा, मर्यादा (दे ८।७) । २ नदी संगम - 'संदेवो सीमा, नवीमेलक इत्येके' (वृ) ।
संधारिअ - योग्य (दे ८।१) ।
संधि - दुर्गन्ध (दे ८८) ।
संधुक्किअ - १ प्रदीप्त (पा १६) । २ उत्तेजित ।
संपडिअ - लब्ध प्राप्त (दे ८।१४ ) |
"
संपडिका - करधनी कंची व रसणा व त्ति, जंबूका मेखल त्ति वा । कंटिक त्ति व जो बूया तधा संपडिक त्ति वा ।। (अंवि पृ ७१) । संपणा- घेवर बनाने के लिए तैयार किया हुआ गेहूं का आटा
(à 515) I
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४०२
देशी शब्दकोश संपण्णा-घेवर (मिष्टान्न-विशेष) बनाने के लिए तैयार किया हुआ गेहूं का
आटा (दे ८१८)। संपत्तिआ-१ बालिका, बाला (दे ८।१८) । २ पीपल का पत्ता-पिप्पली
__ पत्रवाचकोऽपि संपत्तिमाशब्दो लक्ष्येषु दृश्यते' (व)। संपत्ती-भवितव्यता-'तेवि संपत्तीए सयाहि सयाहि गया'
(आवहाटी २ पृ २२२) । संपत्थिअ-शीघ्र (दे ८।११) । संपर-१ नाई । २ वस्त्रशोधक (निभा ३७०८) । संपा-काञ्ची, मेखला (दे ८२) । संपासंग-दीर्घ, लम्बा (दे ८।११) । संफ-कुमुद, चन्द्रकमल (दे ८।१) । संफाणि-प्रासुक शीत या उष्ण जल से प्रक्षालन-सीतेण व उसिणेण व
वियडेणं धोवणा तु संफाणि' (निभा १६३६) । संफाणित-धुला हुआ (निभा १९४३) । संफाणिय-धुला हुआ (नि ५।१४)। संफाली-पंक्ति (दे ८।५) । संफाह-बहुत दिनों के वस्त्र एकत्रित करके एक दिन धोना
(निभा १९३६)। संफोडिळ-संयुक्त करके, मिलाकर-'संफोडिउं मेलितुमित्यर्थः'
(निचू २ पृ ३१४) । संबर-कचरा उठाने वाला (व्यभा ७ टी प ८०)। संबलिका--बांस की टोकरी-वेणुफलाई ति वेलुमयी संबलिका संकोसको ..
पेलिया करण्डको वा' (सूचू १ पृ ११६) । संभरण-संस्मरण, स्मृति (ज्ञाटी प ७६) । संभराविअ-स्मारित, याद कराया हुआ (दे ८।२५)। संभली-१ दूती (व्यमा ५ टी प १७; दे ८।६) । २ कुट्टनी, पर-पुरुष के
साथ अन्य स्त्री का योग कराने वाली स्त्री। संभव-प्रसव-जरा, प्रसवजन्य दौर्बल्य (दे ८।४) । संभारिय--१ संस्मारित, याद कराया हुआ-'मेहे कुमारे समणेणं भगवया
. महावीरेणं संभारिय-पुव्वभवे' (ज्ञा १११११६१)।
२ संस्मृत याद किया हुआ-'संभारिअक्खणिहणो ओत्थरइ सरेहिं मारुई धुम्मक्खो' (से १४१६५) ।
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देशी शब्दकोश
संभुल्ल - दुर्जन (दे ८१७) । संभोत्ता - मिश्रण करके (आचूला १।१०२) । संल-पत्नी का भाई, साला (अंवि पृ २१६) । संवट्टि - संवृत, संकुचित, एकत्रित (उशाटी प १९२) ।
संवट्टिभ -- संवृत, संकोचित (दे ८१२ ) ।
संवर्णिय - परिचित - ताहे एगं रिसिभसमपयं दिट्ठ, सा तत्थ अल्लीणा संवणिया य अणाए रिसओ' (उशाटी प ५३) ।
संवर- १ शौचवादी ( बुभा ३८०४) । २ बारहसिंगा (प्रटी प ९ ) । संवाअअ -- १ नकुल, नेवला । २ बाज पक्षी (दे ८४८) | संविल्लिय - संकुचित - 'संविल्लियग्गसोण्ड' ( उपाटी पृ ११० ) । संवेल्ल - संकुचित ( भटी पृ १३११) ।
संवेल्लिअ - संवृत ( राज ६६; दे ८।१२) । संसप्पिअ - कूदकर जाना (दे ८।१५) । संसारण - अनुगमन (दे ८।१६) । संसाणा - अनुगमन ( दनि ३२२ ) । संसुरुला --- कलह, लड़ाई (निचू ४ पृ २३४) ।
संहिय - विरल ( प्र ४।८ ) ।
४०
सकराह - १ एक बार । २ एक साथ - सकराहं ति सकृत् अहवा सकराहंति संववहारात् युगपत् स्याद्' (अनुद्वाच् पृ ५६) ।
सकह - १ तापसों का उपकरण- विशेष - "सकहं वक्कलं ठाणं सिज्जाभंड
कमंडलुं' (भ ११॥६४) । २ दाढा (जंबूटी प १५८ ) ।
सकहा - अस्थि, हड्डी - 'वयरामएस गोलवट्टस मुग्गएसु बहुयाओ जिण सकहाओं संनिखित्ताओ चिट्ठति ( राज २४० ) ।
सकुचिक – जलचर - विशेष (अंवि पृ २२८ ) ।
सकुलिया -- शकुनिका ( अनुद्वा ३२१ ) |
समय-श्रद्धा (दे ८1३) ।
सगल - बाहरी छाल - 'सगलं पुण तस्स बाहिरा छल्ली' (निचू ४ पृ ६६) । . सगलग – टुकड़ा - ' मोदगच्छोडियतं उच्छुसगलगं' (आचू पृ ३६७) ।
सगेद्द – निकट, समीप (दे८६) ।
-
सग्गह- मुक्त (दे ८४) ।
सचक्कार - सशंकित, भयभीत - पडिणीयापि दुज्जणो सचक्काराय सासंका भवंति' ( निभा १७३६) ।
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४०४
देशी शब्दकोश
सचिल्लय-अपचक्षु, खराब आंख वाला (प्र ११३७) । सच्चविय-१ देखा, प्राप्त किया-'जहा ण अम्हेहिं कोइ कहिंचि सच्चविओं'
(उसुटी प १९३) । २ अभिप्रेत, इष्ट (दे ८।१७) । सच्चिल्लय--सत्य (दे ८.१४) । सच्चेविअ-रचित, निर्मित (दे ८।१८)। सच्छह-सदृश (उसुटी प ८७; दे ८1९)। सज्ज-प्रत्युत्तर-'साहूहिं वा ओतप्रोतं संबाधुवस्सए या सज्ज अलंभंतो
उल्लंघिउं वयंतस्स... (निचू ३ पृ १०) । सज्जअ-१ नाई । २ धोबी । ३ आगे किया हुआ, पुरस्कृत । ४ दीप्त,
चमकीला (दे ८१४७ पा)। सज्जंतिया-भगिनी (व्यभा ४।३ टी प ५२) । सज्जण-१ गच्छ-'सज्जणोत्र गच्छो' (बृचू प २०५)। २ वस्त्र में मांड
देना (निचू ३ पृ ५७३)। सज्जाय-कुहन वनस्पति का एक प्रकार (प्रज्ञा १२४७) । सज्जिा -१ नापित, नाई। २ रजक, धोबी। ३ पुरस्कृत, आगे किया हुआ।
४ दीप्त (दे ८।४७)। सज्जुक्क-नया, तरोताजा (पा ४३७)। सज्जोक्क-प्रत्यग्र, नवीन, ताजा (दे ८।३) । सज्झतिग-साधर्मिक (निचू २ पृ ३७६) । सज्झंतिय-१ सहदीक्षित (बृभा ५४२१) । २ ब्रह्मचारी। सल्झय-कल्यपाल, कलाल-'सज्झया कल्लालगिहा इति चूणी विशेषचूणौं च' - (टी पृ १५६७ टि) सज्झविय-सार्मिक, पड़ोसी (निचू २ पृ ३७६)। सन्शिअ-१ नाई। २ धोबी। ३ आगे किया हुआ, पुरस्कृत । ४ दीप्त,
चमकीला (दे ८.४७ पा)। सज्झिलक -१ सगा भाई-'एगाम्मि गामे दो सज्झिलका, भायरो इत्यर्थः'
(बृटी पृ १६५२) । २ गुरुभाई-'गुरुसज्झिलकः गुरूणां सहा
ध्यायी पितृव्यस्थानीयः' (बृटी पृ १४३८) । सज्झिलग-१ साधर्मिक (निभा २३६८) । २ भ्राता (बृभा ६२५८) । सज्झिलगा-बहिन, भगिनी (पिनि ३१६) । सनिलय-भ्राता-'गुरुसज्झिलमोव्व तस्स सीसो वा' (पंक २५६०) । सज्झिलिया-बहिन (निभा ४४६४) ।
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देशो शब्दकोश
४०५.
सट्टती-बांस की टोकरी-'कलिंजो णाम वंसमयो कडवल्लो सट्टती वि भण्णति'
(निचू ४ पृ १९२)। सट्टर-ऊटपटांग बातें-'सट्टरं आलजालं कुर्वतः' (बृभा ५२८४ टी)। सट्ठर-आलजाल, व्यर्थ (निभा ४१६३)। सडसडेंत-सडता हुआ (कु पृ २२५) । सडिका-पक्षिणी-विशेष-सडिक त्ति बलाक त्ति चक्कवायि त्ति वा पुणो'
(अंवि पृ ६६) । सढ--१ केश । २ विषम । ३ स्तम्ब, गुच्छा (दे ८।४६)। ४ पाल, जहाज
__ का बादवान। सढअ-१ स्तम्ब, गुच्छा (बृभा ४२३०) । २ फूल (दे ८.३)। सहि-सिंह (दे ८११)। सणालिय-वाद्य-विशेष (नि १७११३८)। सणिअ-१ साक्षी, गवाह । २ ग्राम्य, ग्रामीण (दे ८।४७) । सण्णत्तिअ-परितापित (दे ८।१८)। सण्णविअ-१ चिन्तित । २ सान्निध्य, निकटता (दे ८१५०) । सण्णा-भुजपरिसर्पिणी (जीवटी प ५२)। सण्णाड-उत्सर्ग की संज्ञा से युक्त-'जोयणमवि गच्छेज्जा सण्णाडो थंडिलऽसती'
(पंक १८७२)। सण्णि -गीला (दे ८।५ पा) सण्णिअ-आद्र, गीला (दे ८।५) । सण्णमिअ-१ सन्निहित । २ मापित । ३ अनुनीत, अनुनययुक्त (दे ८१४८) ।
४ प्रच्छादित, ढका हुआ (वृ) । सण्णेज्झ-यक्ष (दे ८१६)। सण्हाई-दूती (दे ८।६)। सण्होर-लज्जा-सहित-धुत्तेण सण्होरं जेमावेत्ता सगडभरो विसज्जितो'
. (दअचू पृ २८)। सतपत्त-पक्षी-विशेष-'वंजुलो सतपत्तो त्ति उवो कपिलको त्ति वा'
(अंवि पृ ६२)। सतिर तिरोहित-'अचित्त सचित्तेणं, अतिरं सतिरं च जं भवे पिहितं'
(जीभा १५५०)। सतीण-तुवरी, धान्य-विशेष (भ २१११५) ।
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-४०६
देशी शब्दकोश
सतीहत्थ - शक्ति - पुवं मए भणितं मम बहु सतीहत्थो इदाणि पच्चक्खं ' (निचू १ पृ ११५) ।
-
सतेरक- - मुद्रा विशेष, सिक्का - काहापणो खत्तपको पुराणोसतेरको त्ति' (अंवि पृ ६६ ) ।
सत्तत्थ - अभिजात, कुलीन ( दे ८1१० ) ।
सत्तल्ली - शेफालिका, सुगंधित फूल वाली लता - विशेष ( दे ८१४ ) | सत्तावीसंजोअण-चन्द्रमा (दे ८ २२ ) - 'सत्तावीसंजोअणमुही समरसहय तुह कए सा' (वृ) |
सत्ति - १ तिपाई, तीन पाया वाला गोल काष्ठ- विशेष (दे ८१ ) - 'पल्लङ्क - पायसरिसं तिदारुणं उद्धणिमित्रआयरिसं, तं जाणसु सति ।
२ घड़ा रखने का ऊंचा काष्ठ- विशेष - 'सत्ती कलसाधारो दारु भवेत्तरूपसमसमुच्छ्रयणम्' (वृ) ।
सत्तिअणा - कुलीनता ( दे ८।१६ ) |
सत्य - १ लीला - 'ताहे देवा सत्थं साहरिता' (ओटी पृ ३५९ ) । २ गत, गया हुआ (दे ८१) |
सत्थइअ - - उत्तेजित (दे ८।१३) ।
सत्थर - १ समूह (दे ८।४) । २ शय्या (वृ ) । सदुम्मणिआ - रूपवती स्त्री (दे ८ ४० वृ) |
सदय - वाद्य- विशेष ( नि १७/१३६) ।
सद्द - उद्भिज्ज जंतु- विशेष - ' तत्थ उब्भिज्जा संखणा काकुंथिका वडकापथुमका सद्दा तीलका इति' (अंवि पृ २२६ ) ।
सद्दाल - नूपुर (दे ८।१० ) ।
सन्नाड -- १ मलोत्सर्ग की इच्छा - "सन्नाडोप्पीलितेण सिग्धं वोसिरिता' ( अचू पृ २४) । २ शौचसंज्ञाकुल ( आवहाटी १ पृ २४७ ) । सन्निर-पत्र - शाक - कंद मूलं पलंबं वा, आमं छिन्नं व सन्निरं ' (द०५।१।७० ) ।
सप्फ
सप्पक - बालक- 'सप्पक- वच्छक-बालक- साडक' (अंवि पृ १७० ) । -१ कुमुद, कैरव - चंदुज्जयं च कुमुयं गद्दयं के रवं सप्फ' (पा ५८ ) । २ बाल तृण ( कु पृ १६१)
सप्फाय - कुहन वनस्पति का एक प्रकार ( प्रज्ञा ११४७ ) |
सफा -वनस्पति- विशेष ( भ २३ | ४ ) |
सब्बल- १ गदा ( प्र ३ । ५)
। २ भाला (प्रटी प ४८ ) ।
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देशी शब्दकोश
समर - गीध पक्षी (दे ८१३) । समइंछिय - अतिक्रांत ( से १२१७२ ) ।
समइच्छमाण - अतिक्रांत करते हुए (भ २०६ ) ।
समइच्छिम - अतिक्रांत (दे ८२० ) |
समगुहिक - भोज्य पदार्थ - 'समगुहिक त्ति वा बूया जागु त्ति कसरि त्ति वा ' (अंवि पृ ७१) ।
समर – १ लोहार की शाला । २ स्त्रियों के साथ सम्पर्क संबंध स्थापित करने का गुप्त स्थान - 'समरं नाम जत्थ हेट्ठा लोहयारा कम्मं करेंति । अहवा समरं नाम दिट्ठादिट्ठी संबंधो तासि (उच् पृ ३७) । ३ खरकुटी, नाई की दुकान ( उसुटी प १० ) ।
समरसद्दय --- समवयस्क (दे ८२२) ।
समसीस – १ सदृश । २ निर्भर (दे ८५० ) । ३ स्पर्धा ( से ३८ ) ।
समसीसी - स्पर्धा (दे ८११३) |
समहुत्त - अभिमुख - 'केई पुरिसे परसुं गहाय अडवीसमहुत्तो गच्छेज्जा' (अनुद्वाहाटी पृ ४१) ।
४०७
समाय - उत्सव - ' उस्सयं वा समायं वा' (अंवि पृ १३४ ) |
समायोग - सैनिकवर्दी - परिहिज्जेति समायोगे' ( कु पृ १६८ ) । समास - उत्सव - 'उस्सयो त्ति समासोत्ति विहि जण्णो छणोति वा'
-
(अंवि पृ १२१) ।
समिला - युग कीलक, गाड़ी की धोंसरी में दोनों ओर डाला जाता लकड़ी का कीलक ( उ २७१४) ।
5
समीखल्लय — छोंकर की पत्ती, शमी वृक्ष का पत्र पुट (दश्रुचू पृ ८ ) । समीजसुक्खर - शमी वृक्ष की शाखा (आवहाटी २ पृ १६ ) ।
समुह - १ अभ्यास - समुई ति देशीवचनत्वाद् अभ्यासम्' (बूटी पृ ४१४) । २ स्वभाव (व्यभा ७ टीप २१) ।
समुग्गिअ - १ प्रतीक्षित (दे ८।१३) । २ प्रतिपालित ( वृ ) ।
समुच्छणी-संमार्जनी, झाड़ ू (दे ८।१७) |
समुच्छिअ - १ तोषित, संतुष्ट किया हुआ । २ समारचित। ३ अंजलिकरण (दे ८१४९) ।
समुत्तइत - गर्वित ( निचू २ पृ १०० ) ।
समुत्तइय - गर्वित - ओच्छाहिओ परेण व लद्धिपसंसाहि वा समुत्तइओ । अवमाणिओ परेण य, जो एसइ माणपिंडो सो ॥
(पिनि ४६५) ।
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४०८
देशी शब्दकोश
समुद्दणवणीअ- १ अमृत। २ चन्द्र (दे ८।५०) । समुद्दहर-जलगृह (दे ८।२१)। समुद्देस-१ भोज । २ सूर्यमंडल (जीचू पृ ६) । समुप्पिजल-१ अयश । २ रज (दे ८५०)। समोसिब-१ पड़ोसी । २ प्रदोष, सायंकाल । ३ वध्य (दे ८१४६) । समोसितग-पड़ोसी (निचू २ पृ १५४) । समोसितिया-पड़ोसिन (दअचू पृ ५२)। समोसियग-सार्मिक, पड़ोसी-सेज्जगो समोसियगो' (निचू २ पृ २७२) । सम्म -भुजपरिसर्प की एक जाति-'देशविशेषतो वेदितव्याः'
(जीवटी प ४० )। सम्मिका-कान का आभूषण-विशेष-'सासा-सम्मिका-वतंसक-ओवास
कण्णपीलक' (अंवि पृ १८३) ! सयक्खगत्त-यूतकार, जुआरी (दे ८।२१)। सयग्घी-घरट्टी, चक्की (दे ८।५)-'रदसंफालिसयग्घी ण हु थक्कइ
सण्णिअम्मि सुक्के अ' (वृ)। सयझिया-पड़ोसिन (पिनि ३४२)। सयढा-लंबे बालों वाली (दे ८।११)! सयत्त-मुदित, प्रसन्न (दे ८।५) । सयराह-एक साथ, युगपत्-'सयराहेण पणट्ठाई जाण चत्तारि पुवाई'
(ति ८०२) । सयराहं-१ युगपत्-'सयराहमिति देशीवचनं युगपदर्थाभिधायकम्'
(आवहाटी १ पृ १००) । २ एकबार (अनुद्वामटी प १६३)। ३ शीघ्र (दे ८।११)। ४ अकस्मात्-'अक्खसोयप्पमाणमेत्तंपि जलं
सयराहं उत्तरित्तए' (औप १२२)। सयराहा–युगपत् (विभा ६५६) । सयराहु-१ एकसाथ । २ शीघ्र-'सथराहु-युगपत्तूर्णं वा' (आवदी प ७४) । सरंड-भुजपरिसर्प की एक जाति (जीवटी प ४०)। सरग-बांस के छींके के आकार का भाजन (जीव ३।५८७)। सरड-सरड-भोजन करते समय होने वाला शब्द (ओटी प १८७)। सरडीभत-वह फल जो पकता नहीं (निचू ३ पृ ४८५) । सरडु-कोमल-पुप्फाणं पत्ताणं सरडुफलाणं तहेव हरियाणं' (पिनि ४५) । सरड्य-वह फल जिसमें अभी गुठली न बनी हो (आचूला ११११०)।
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देशी शब्दकोश
सरत्ति-सहसा, अभी (दे दा२)। सरभेम-स्मृत, याद किया हुआ (दे ८.१३) । सरल-वृक्ष-विशेष, चीड (प्रज्ञा ११४३)। सरली-चीरिका, झींगुर (दे ८।२)। सरलीमा-१ श्वावित् नाम का प्राणी, साही (दे ८।१५) । २ कीटविशेष
()। सरह- १ वेतसवृक्ष । २ सिंह (दे ८।४७) । सरा-माला (दे ८।२)। सराह-गर्व से उद्धत (दे ८।५)। सराहअ-सर्प (दे ८।१२) । सरिका-भाजन-विशेष-'करोडी कंसपत्ति ति पालिका सरिक त्ति का'
(अंवि पृ ७२)। सरिभरी--समानता-'तओ जाया दोण्ह वि सरिभरी' (उसुटी प १६१) । सरिया-मोतियों की माला-'वरमउड-सरिय-कुंडल' (प्र ४१४)। सरिवाअ-आसार, तेज वर्षा (दे ८.१२) । सरिसाहुल-सदृश (दे ८९) सरेवअ--१ हंस । २ घर का जले बहने का नाला, मोरी (दे ८।४८)। सरोडअ.--वह फल जिसमें अभी गुठली न पड़ी हो (आचू पृ ३४१)। सरोडग-काष्ठपात्र, दर्वी (आचू पृ ३४१) । सलली--सेवा (दे ८।३)। सलहत्य-कड़छी आदि का हत्था (हस्तक) (दे ८।११) । सलेटठग-समूल, मूल-सहित-'ततो गोपालेण असद्दहतेण ओसरिऊण
सलेठ्ठगो उप्पाडिओ एगते पडिओ' (आवहाटी १ पृ १४२) । सल्ल-सर्प की एक जाति (सू २।३।८०)। सल्लग--सर्प की जाति-विशेष (प्र ११८)। सल्लिका-साली-'रमा त सुण्ह सावत्ती सल्लिका मेधुण त्ति वा'
(अंवि पृ६८)। सल्ली-१ भुजपरिसर्पिणी (जीव २६) । २ साली (अवि पृ २१६)। सवडंमह--अभिमुख, सम्मुख-'सवइंमुहं वलंतो कालो व्व अकारणे कुद्धो'
(उसुटी प ८५; दे ८२१)। सवडहुत्त-सम्मुख-सी तस्स निवट्टमाणो दंडियस्सेव सवडहुत्तो गओ'
(उसुटी प ५५) ।
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देशी शब्दकोश
सवडी-उत्तरीय वस्त्र-'संघाडी णाम सवडी' (निचू २ पृ ३१२) । सवलाहिका-जलचर प्राणी-विशेष (अंवि पृ २२७) । सवाअ-बाज पक्षी (दे ८७) । सवार–प्रातःकाल (बृटी पृ ५७६)। सवास-ब्राह्मण (दे ८।५)। सविस-सुरा, मदिरा-'बुद्धिविहूणा संभवगयव्व सविसं विसं ति ण मुणन्ति'
(दे ८१४)। सविहोढ-चोरी के माल से युक्त (निचू ३ पृ ५०२) । सव्वल-कुंत, बर्णी (कु पृ ४०)। सव्वला--कुशी, लोहे का अस्त्र-विशेष (प्र ११२८;दे ८।६) । सव्वावंति–सर्व, सब-'एआवन्ती सव्वावन्ती ति एतौ द्वौ शब्दो पागधदेशी
भाषाप्रसिदचा एतावन्तः सर्वेऽपीत्येतत्पर्यायौं'
(आ ११७ टी प २६)। ससबिंदु-बल्ली-विशेष (प्रज्ञा ११४०१५)। ससबिंदूक-फल-विशेष (संवि पृ ६४) । ससराइअ--निष्पिष्ट, पिसा हुआ (दे ८।२०)। सह-१ सहायक, समर्थ (सू १।३।२३) । २ योग्य (दे ८।१) । सहउत्थि -दूती, संदेशवाहिनी (दे ८६)। सहगुह-उल्लू (दे ८।१६)-'संखलयदंत हिण्डसि जं बाहिं सहगुहो व्व राईसु'
(वृ)। सहज्झय-पड़ोसी (कु पृ २२४) । सहण-साथ-'सहणं ति देसीभासा सहेत्यर्थः' (सूचू १ पृ १०७) । सहत्यकारी---दक्ष, निपुण (अंवि पृ १८) । सहरला-महिषी, भैस (दे ८।१४) । सहिणग-वस्त्र-विशेष (जीव ३।५६५) । सहोढ-चोरी की वस्तु-सहित-सहोढ गहितो पलंबठाणेसु' (निभा ४७८२) । साइ-कमल-केसर, किंजल्क (दे ८।२२)-'सालतले सारिठिआ अच्चइ
चण्डि ससाइपउमेहिं' (वृ)। साइअ-१ संस्कार (दे ८।२५) । २ आलिंगन । साइज्जि-अवलम्बित (दे ८।२६) ।
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देशी शब्दकोश
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साइतंकार--स-प्रत्यय, विश्वस्त-'जं च राएण उल्लवियं साइतकारो तेण
तं पत्तए लिहियं' (आवहाटी २ पृ १४२)। साइयंकार--विश्वस्त-'पुच्छा समणे कहणं साइयंकारसुमिणाई'
(पिभा ३३)। साउल्ल-अनुराग, प्रेम (दे ८।२४) । सांड -सांड, वृषभ (व्यमा ४।२ टी प २०) । साकिज-गोत्र-विशेष (अंवि पृ १५०) । सागारिय-मैथुन-'जे छेए से सागारियं ण सेवए-सागारियं मेहुणं
ससमयवण्णो वा' (आ ५११० चू)। साडक-बालक-'सिंगक-खुद्दक-बालक-साडक' (अंवि पृ १६६) । साणइम-उत्तेजित (दे ८।१३)। साणप्पग-प्रभात-'सानुप्रगे-प्रत्यूषवेलायां लभ्यते या भिक्षा'
(बृभा १९७६ टी)। साणुप्पय-दिन का अन्तिम प्रहर-'साणुप्पओ णाम चउभागावसेसचरिमाए
(निचू २ पृ २६७) । साणुप्पाय-दिवस का अन्तिम प्रहर (नि ४।१०८ पा)। साणवेला-प्रभात-जाव जणो ण संचरति ताव साणुवेलाए दोसीणं तक्कं
वा गेण्हति' (निचू ४ पृ १२२)। साणर-देवालय, देवमंदिर (दे ८।२४) । साधी-क्रम, पंक्ति (निचू ४ पृ २३८)। साभरग-रुपया, सिक्का-साभरग त्ति देशीवचनाद् रूपकाः'
(बृटी पृ १८६)। सामंती-समभूमि (दे ८।२३) । सामग्गि-१ चलित । २ अवलम्बित । ३ पालित, रक्षित (दे ८१५३) ।
__ ४ आलिंगित (पा १५१) । सामच्छण-मंत्रणा, पर्यालोचन (बृभा १९६१) । सामच्छिय-पर्यालोचित, सुचिंतित (उसुटी प ७) । सामथ-मंत्रणा, पर्यालोचन (व्यमा ४।३ टी प ५२) । सामत्थण-पर्यालोचन-सामत्थणं देशीवचनतः पर्यालोचनं भण्यते'
(आवहाटी १ पृ ७३) । सामरि--शाल्मली, सेमर का पेड़ (दे ८।२३) ।
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देशी शब्दकोश
४५२
सामाइत - १ वह व्यक्ति जिसको रात्री में नहीं दिखता, रात्री - अन्धक । २ कृषक (दअच् पृ ५१ ) ।
सामिअ-- दग्ध (दे ८।२३) ।
सामिणी - स्त्री का संबोधन (द ७।१६ ) - सामिणित्ति सव्वदेसेसु, सामिणीगोमिणीओ चाटुवयणं' (दअचू पृ १६८ ) ।
सामुंडय - तुणविशेष, वरु (१८३७३) ।
सामुद्द - इक्षु-सदृश तृण (दे ८ २३) ।
-
साय – १ महाराष्ट्र का एक नगर । २ दूर (दे ८५१) । सायंकार - सत्यंकार, सत्य-करण (स्था १०१९६ ) । सायंदूर - महाराष्ट्र का एक नगर (दे ८१५१ वृ ) ॥ सायंदूला - केतकी, केवड़े का गाछ (दे ८ २५) । सायमंडुक्कि - वनस्पति- विशेष (भ २१।२० ) । सारमिअ- स्मारित, याद कराया हुआ (दे ८१२५) । सारवण – १ समारचन, सम्मान । २ निष्क्रिय (ओटी प ४१ ) | सारविय - साफ किया हुआ ( बृभा १५५१; दे ८।४६) ।
सारा - भुजपरिसर्पिणी ( जीव २६ ) |
साराडि - आटी पक्षी, शरारी पक्षी (दे ८।२४) |
सारि - ऋषि का आसन - विशेष ( पा ६५४) ।
सारिकह- गृहस्थ, शय्यातर - सारिकह त्ति सागारिकः- शय्यातरः ' ( बृटी पृ ३६३) ।
सारिच्छिआ - दूर्वा, दूब (दे ८।२७) ।
सारित आहूत, आकारित- आरिओ आगारितो सारितो वा एगट्ठ' ( निचू ४ पृ २४४) ।
सारी - १ वृसी, ऋषियों का आसन (दे ८१२२ ) । २ मिट्टी - सारी मृत्तिकेत्यन्ये' (वृ) । ३ मैना, पक्षि - विशेष (अंवि पृ २५८ ) । छाल - 'बाहिरा छल्ली सालं भण्णइ' (निचू ३ पृ ४८१ ) । २ अच्छिन्न छल्ली - 'नखादिभिः अक्खुण्णं सालं भण्णति' ( निचू ३ पृ ४८२) ।
साल-
सालंकी - सारिका, मैना (दे ८१२४) । सालंगणी -- अधिरोहिणी, सीढी (दे ८।२६) । सालग
१ रस, गिरी ( आचूला ७।२९ ) । २ बाहरी छाल ( निचू ४ पृ ६५) । ३ लम्बी शाखा ।
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देशी शब्दकोश
४१३ सालहिया–सारिका, मैना (प्रसाटी प ६३; वे ८।२४) । सालही-सारिका, मैना (दे ८।२४) । साला-शाखा (सू २।२।२३; दे ८२२) । सालाका-पक्षिणी-विशेष-कीरी मदणसलाग त्ति सालाका कोकिल त्ति वा'
(वि पृ ६६)। सालाकालिक-गोल खाद्यपदार्थ-'पेंडिका वा पप्पडे वा मोरेंडकाणि वा
सालाकालिकं वा अंबट्टिकं वा' (अवि पृ १८२)। सालाणअ-१ स्तुत, जिसकी स्तुति की गई हो वह (दे ८।२७) ।
२ स्तुत्य, स्तुति-योग्य (वृ) । सालिगणवद्रिय-शरीर-प्रमाण वाले उपधान वाला-सहालिंगनवा
शरीरप्रमाणोपधानेन यत् तत् सालिंगन-वत्तिकम्'
(ज्ञाटी प १७)। सालिका-एक प्रकार की नौका-'णावा पोतो कोट्टिबो सालिका तप्पको'
(अंवि पृ १६६)। सालिभ–पर्वत की गुफा में रहने वाला प्राणी-विशेष-'अच्छभल्ला तरच्छा
सालिभा सेधका' (अंवि पृ २२७)। सालअ-१ शम्बूक, शंख । २ शुष्क यव आदि धान्य का अग्रभाग
(दे ८.५२)। सालग-शालि, यव आदि का अग्रभाग-'सालि-जव-अच्छि-सालुग, णिस्सरणं
___ मासमुग्गमादीसु' (बृभा ३३०७) । सावअ—१ शरभ, श्वापद पशु-विशेष (दे ८।२३) । २ बालों की जड़ में
होने वाला क्षुद्र कीट विशेष । सासवुल----कपिकच्छू, कवाछ का पौधा (दे ८।२५) । सासा-कान का आभूषण-'सासा-सम्मिका-वतंसक-ओवास-कण्णपीलक'
(अंवि पृ १८३)। सासेरा-यान्त्रिक नर्तकी-'देशीपदत्वाद् यन्त्रमयी नर्तकी' (बृटी पृ १६४५) । साह--१ बालू । २ उल्लू । ३ दधिसर, दही की मलाई (दे ८।५१)।
४ प्रिय, पति । साहंजण- -गोक्षुर, गोखरू (दे ८।२७) । साहंजय---गोक्ष, गोखरू (दे ८।२७)। साहणा-कथन (व्यभा ६ टी प १६)। साहरम--मोहरहित (दे ८।२६) । साहरक-रुपया-'साहरको णाम रूपकः' (निचू २ पृ ६५) ।
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४१४
देशी शब्दकोश
साहस-परदारगमन-'साहसमिति परदारगमनम्' (सूचू १ पृ १०५) । साहि-१ ईरान देश का सामन्त-तत्थ एगो साहित्ति राया भण्णति'
(निचू २ पृ ५९) । २ राजमार्ग-'साहिशब्दो राजमार्गे देशी'
(से १२।९२)। साहिअय-कथित, प्रतिपादित । (पा १४५) । साहिणिया-गीतिका-'तरुणा सूरजुवाणा इमं साहिणियं गायंति'
(आवहाटी २ पृ ४५)। साहिय--कथित (आ ८।८।१२) । साहिलय- मधु, शहद (दे ८।२७) । साही-१ छोटा दरवाजा, खिड़की-'साही पुरोहडे वा उवस्सर मत्तगम्मि
वा णिसिरे' (ओनि ६२२) । २ मार्ग, रास्ता-'नोघरंतरऽणेगविहं वाडग साही निवेसण गिहेसु' (पिनि ३३४) । ३ मुहल्ला, रथ्या (दअचू पृ ४७; दे ८१६) । ४ गृहपंक्ति-'घरपंती साही भण्णति'
(निचू २ पृ २०६)। साहीय-गृहपंक्ति (बृभा २२१०) । साहुली---१ शाखा (निचू १ पृ ८५; दे ८।५२) । २ वस्त्र । ३ भौंह, भ्रू ।
४ भुजा । ५ सदृश । ६ कोयल । ७ सखी (दे ८।५२) । ____कटिवस्त्र (पा ११७) । ६ मयूर-पिच्छ । साहेज्जअ-अनुगृहीत (दे ८।२६) । सिअ-चंवर-'से सिएण वा विहुयणेण वा....न फुमेज्जा' (द ४ सूत्र २१) । सिअंग–वरुण, जलदेवता (दे ८।३१) । सिआली-डमर, राष्ट्रविप्लव (दे ८।३२)। सिइ-सीढी (पिनि ४७३)। सिउंठा-साधारण वनस्पति-विशेष (प्रज्ञाटी प ३५)। सिउंढि-साधारण वनस्पति-विशेष (प्रज्ञा ११४८३१) । सिखल-नूपुर, घुघरू (दे ८।१०)। सिंग-श, दुर्बल (दे ८।२८)। सिंगक-बालक (संवि पृ १६६)। सिंगग-पानी छिड़कने का पात्र-विशेष-'सिंचिज्जइ सिंगगादिणा'
(निचू ४ पृ४७)। सिंगणा-१ याचना । २ पहचान-'मा तस्स पुव्वसामी सिंगणं करिस्सति'
(निचू ३ पृ ४६२)।
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देशी शब्दकोश
सिंगनाइय-संघ का कार्य (नंदीटि पृ १६२)। सिंगय–तरुण (दे ८.३१) । सिंगरेवाणिय-कर्माजीवी (अंवि पृ१६०)। सिंगा-फली (आचू पृ ३४१) । सिंगा (गुजराती, मराठी, कन्नड़)। सिंगाडय-गले का हार, आभूषण (कु पृ ८३)। सिंगालक-पक्षी-विशेष (अंवि पृ २३८)। .. सिंगिका–बालिका-'दारिया बालिया व त्ति सिंगिका पिल्लिक ति वा'
(वि पृ ६८) सिंगिणी-गाय (दे ८।३१) । सिंगिरिर-चतुरिन्द्रिय जन्तु-विशेष (प्रज्ञा ११५१) । सिगिरोडि-चतुरिन्द्रिय जंतु-विशेष (उ ३६।६७) । सिंगेरिवम्म-वल्मीक (दे ८।३३) । सिंगुग्गु-वनस्पति-विशेष (वि पृ २३२) । सिंघाडय-राहु का नाम-राहुस्स णं देवस्स नव नामधेज्जा पम्पत्ता,
तं जहा-सिंघाडए जडिलए' (भ १२।१२३)। अ-राहु (दे ८।३१)। सिटी-नाक छींकने का शब्द (आवच १ पृ ३०) । सिंड-मोटित, मोड़ा हुआ (दे ८।२६) । सिंढ-मयूर, मोर (दे दा२०)। सिंढा-नासिका-नाद, नाक की आवाज (दे ८।२६)। सिढिय-श्लैष्मिक (व्यमा १० टी प ३)। सिंद-खजूर (आवहाटी १ पृ १४८) । सिंववासि-वृक्ष-विशेष (अंवि पृ७०) । सिदि-खजूरी-सिदि-खज्जूरी' (मावचू १ पृ ३१६) । सिंदी-खजूरी-सिदिकंदयेण आहणामित्ति पहावितो, सिंदी-खजूरी'
(आवहाटी १ पृ १४८; दे ८।२६) । सिंदीर-नूपुर (दे ८।१०)। सिंदु-रस्सी (दे ८।२८)। सिंदुरय-१ राज्य । २ रज्जु (दे ८।५४)। सिंदुवण-अग्नि (दे ८॥३२)।
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४१६
देशी शब्दकोश सिंदोल --खजूर (पा ३६८)। सिंदोला-खजूरी, खजूर का पेड़ (दे ८।२६)। सिंपुअ-भूतगृहीत, भूताविष्ट (दे ८।३०) । सिंबलि-वाल्मली वृक्ष (भ ७।१३) । सिंबलिगि-शाल्मली वृक्ष-सिंबलिगि विउन्वित्ता तथारुभिऊणं कति'
(सूचू १ पृ १२६)। सिंबाडी-नाक से होने वाली आवाज (दे ८।२६)। सिबीर-पलाल (दे ८।२८)। सिम-श्लेष्म, कफ (प्र १०६) । सिंव-नाव के बीच का स्तंभ जहां पाल बांधा जाता है (निचू १७४) । सिंहलिआ-शिखा, चोटी (पा १४)। सिकुत्थी-जलचर परिसर्प-विशेष (अवि पृ ६६) । सिकवाली-जलचर परिसर्प-विशेष (अंवि पृ ६६) । सिक्क-छींक (कु पृ २२)। सिक्कगणंतअ-छींके का आच्छादन-सिक्कगणंतओ उ पोणओ उच्छाडणं
भण्णति' (निचू २ पृ ३८) सिक्कगणंतग-छींके का आच्छादन (नि १११३)। सिक्कडि-डाकिनी (जसुटी प ८०) । सिक्कणंतग-छींके का आच्छादन (निच २ पृ ३७) । सिक्कयंतय- छींके का ढक्कन,-'अह सिक्कयंतयं पुण, सिक्कतओ पोणओ
मुणेयवो' (निभा ६४५) । सिक्कर-खंड, टुकड़ा-'सयसिक्करे गओ' (उसुटी प ४२)। सिगिला-जलचर परिसर्प-विशेष (अंवि पृ ६६)। सिगिलि-प्राणी-विशेष (अंवि पृ २३७) । सिग्ग-१ परिश्रम-सिग्गत्ति देशीपदमेतत् परिश्रम इत्यर्थः'
(व्यभा ४/४ टी प ६) । २ श्रांत, थका हुआ
(ओनि २४ ; दे ८२८)। सिग्गअ --श्रम (ओटी प ६२) । सिग्गड-कला-विशेष (कु पृ १५०) । सिचकत-वस्त्र-विशेष (अंवि पृ १४१) । सिज्जूर-राज्य (दे ८।३०) ।
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४१७
देशी शब्दकोश
सिमिया-साथ में रहने वाली, पड़ोसिन (बृभा १७२५) । सिट्टर-चेष्टा-'छेदणादिसिट्टरेहिं अच्छंति' (निचू २ पृ ५) । सिहक-वृक्ष-विशेष (अंवि पृ ६३) । सिण्हा-१ ओस, कुहरा (पंव ८०; दे ८।५३) । २ हिम (दे ८५३) ।
३ शिशिर-'सिण्हा शिशिरे देशी'। सिण्हालय -फल-विशेष (अनु ३।५१) । सित--चंवर-सितं चामरं' (दअचू पृ ८६) । सिति-सीढी (जीभा ३२६) । सितीय--१ शिविका । २ निःश्रेणी (अंवि पृ ३१) । सित्थ--१ जीवा, धनुष्य की डोरी-'सित्थं जीवा गुणो पहुंचा य'
(पा २७७) । २ मत्स्य की जाति-विशेष (अंवि पृ २२८) । सित्था-१ लार, लाला । २ जीवा, धनुष की डोरी (दे ८।५३)। सित्थि- मत्स्य (दे ८।२८)। सिद्ध-परिपाटित, विदारित (दे ८।३०) । सिद्धत्थ- रुद्र, महादेव (दे ८।३१)। सिप्प–पलाल, तृण-विशेष (दे ८।२८) । सिप्पिका-सीप, घोंघा (अंवि पृ २६७)। सिप्पिय-पलाल, तृण-विशेष (भ २११९)। सिप्पिर--तृण-विशेष (प्रज्ञाटी प ३३) । सिप्पिसंपुड-हीन्द्रिय जन्तु-विशेष (प्रज्ञा ११४६)। सिप्पी-सूई (निचू १ पृ ५२) । सिन्म- श्लेष्म (भ ७।११६) । सिय-चामर (द ४।२१) । सियलिया-रोग-विशेष (निच २ पृ २१५) । सियवल्ली--- वृक्ष-विशेष (आचू पृ ३७३) । सियाण-श्मशान (व्यभा ७ टी प ७६)। सिरिंग-विट, लम्पट (दे ८।३२)। सिरिहह-पक्षियों का पान-पात्र (राजटी पृ १०५) । सिरिद्दही--पक्षियों का पानपात्र (दे ८।३२)। सिरिमुह-मदमुख, जिसके चेहरे पर नशे की झलक हो (दे ८।३२) । सिरियक-गुल्म-विशेष (अंवि पृ १४१) ।
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४१८
सिरिलो - कन्द - विशेष (भ ७/६६ ) | सिरिवअ - हंस (दे ८ ३२) । सिरिवच्छीव - गोपाल, ग्वाला (दे ८।३३ ) | सिरिवेटुक - उद्भिज्ज जंतु - विशेष (अंवि पृ २२६) । सिलअ - उञ्छ, गिरे हुए अन्नकणों का ग्रहण (दे ८१३० ) ।
सिलंब - बालक, बच्चा ( पा ε५) ।
सिलिका शलाका- 'दढवज्जसिलिकाणिम्मवियं पिव तुह हिययं' ( कु पृ २३) ।
सिलिंब - शिशु (दे ८१३० ) ।
सिलेच्छिय - मत्स्य की एक जाति ( जीवटी प ३६ ) । सिल्लि - रज्जु, रस्सी (उसुटी प ३१६ ) |
सिल्हा - शीत- 'सिल्हा शीते देशी' ( से १२।७ ) ।
सिग्वणी - १ सिलाई ( निचू ३ पृ ६० ) । २ सूची, सूई (नंदीटि पृ १३८ ) ।
सिव्विणी - सूची, सूई ( दे ८२ ) ।
सिवी - सूई (दे ८ २६) ।
सिसिर - दही (दे ८।३१) | सिस्सिरिली-कन्द - विशेष ( उ ३६/६७ ) ।
देशी शब्दकोश
सिहंड - चोटी (पा ε४ )
1
सिहंडइल्ल - १ बालक । २ दधिसर, दही की मलाई । ३ मयूर (दे ८५४) । सिहरिणी - सिखरन, दही-चीनी से बना खाद्य विशेष ( प्र १०१६
दे ८।३३) ।
सिहरिल्ला - सिखरन, दही-चीनी से बना खाद्य- विशेष (दे ८१३३) ।
सिहि — कुक्कुट, मुर्गा (८२८) |
सिहिण - स्तन (दे ८1३१) ।
सिहिरिणी - दही और चीनी से बना खाद्य विशेष (आचू पृ ३३६) । सीअ - सिक्थक, मोम (दे ८ २३३ ) ।
सीअउरय गुच्छ वनस्पति- विशेष (प्रज्ञाटी प ३२ ) ।
सीअणय--१ दुग्धपारी, दूध दोहने का पात्र । २ श्मशान ( दे ८५५) । सीअल्लि - १ हिमकाल में होनेवाला मेघाच्छन्न दिन । २ झाड़ी, लतागहन (दे ८५५) ।
सीआलोयय - १ चन्द्रमा । २ हिमऋतु ( से ३।४७ ) ।
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देशी शब्दकोश
४१६
सीइआ-झड़ी, निरन्तर वृष्टि (दे ८।३४) । सोई-सीढ़ी, निःश्रेणी (पिनि ६८)। सीउक-मस्तक का आभूषण-विशेष (अंवि पृ ६४) । सोउग्गय--सुजात, कुलीन (दे ८।३४) । सीकवल्लोकी-वृक्ष-विशेष (अंवि पृ ७०)। सीकुंडी-छोटा मत्स्य-विशेष (संवि पृ २२८) । सीकणिक-जलज प्राणी-विशेष (भंवि पृ २२६)। सीडा-फल-विशेष-रातण-तोडण-सीडा लउसु तंबुरु पिप्पलफलेसु'
(अंवि पृ २३८)। सीत-चामर-'सीतं चामरं भण्णइ' (दजिचू पृ १५६)। सीता-शरीर का अवयव-विशेष-'णासिका कण्णपालीओ थूणा सीता य
तालुका' (अंवि पृ ६६) । सीताण-श्मशान (निभा ६११२) । सीतिय-सोपान, सीढी-'सोमाणे सीतियं वा वि' (अंवि पृ ३३)। सीपिंजुला-पक्षिणी-विशेष-'उलुकी मालुका व त्ति सेणा सीपिंजुल त्ति वा'
(अंवि पृ ६६)। सीमर-१ समान, तुल्य-तत्यवि सीभरमेव उवदिसियन्वं' (आच पृ २६२) । . २ बोलते हुए थूक उछालने वाला (व्यमा ४।३ टी प २६)। सीभरग-बोलते समय थूक उछालने वाला (व्यमा ४।३ टी प २६)। . सीमंतय-सीमंत-बालों की रेखा-विशेष (मांग) में पहना जाने वाला
अलंकार-विशेष (दे ८।३५) । सोय-१ शिविका-सीय त्ति शिविका कूटाकारेणाच्छादितो जम्पानविशेषः'
(भटी पृ ७३०)। २ मोम (आवचू १ पृ ५)। सीयउरय-गुच्छ वनस्पति-विशेष (प्रज्ञा ११३७।३)। सीयाण-श्मशान (व्यभा ७ टी प ५५) । सीयालु-जिसे सर्दी अधिक लगती हो वह (निचू २ पृ ४२८) । सीरिय-भिन्न (पा ९२४) । सोरोवहासिआ-लज्जा (दे ८।३६) । सीलुट्ट-खीरा, ककड़ी (पा ४७७) । सीलुट्टय-त्रपुस, खीरा (दे ८।३५) । सीवणी-सूई-'तेण सीवणीए सीविऊण विसज्जियं' (विहाटी १ पृ २८५)।
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देशी शब्दकोश
सीसक्क - शिरस्राण, शिर की रक्षा के लिए पहना जाने वाला फौलादी टोप (दे ८३४) ।
सीसपुच्छ — पीठ की चमड़ी ( सूनि ६८ ) |
सीसय - प्रवर, श्रेष्ठ (दे ८३४) ।
सोहंड - मत्स्य (दे ८ २८ ) |
सोहसराय - विशेष प्रकार के मोदक (पिनि ४६१) ।
सोहणही - १ करमन्दिका, करौंदी का वृक्ष (दे ८ । ३५) । २ करौंदी का पुष्प - 'सीहणही करमन्दिका । तत्कुसुममित्यन्ये' (वृ) |
सोहपुच्छ - पीठ की चमड़ी - कप्पति कागणीमंसगाणि हिदंति सीहपुच्छाणि' ( सूनि ७७) ।
सीहरअ - आसार, तेजवर्षा (दे ८।१२) ।
सीहलय - वस्त्र आदि को धूपित करने का यन्त्र (८३४) । सोहलिआ - १ शिखा, चोटी । २ नवमालिका, नवारी का गाछ (दे ८५५) ।
श्रीहलिपासग - वेणी बांधने के लिए काम में आने वाला ऊन या स्वर्ण का कंकण ( सू १/४/४२) ।
सुअणा - अतिमुक्तक वृक्ष (दे ८१३८ ) |
सुई - बुद्धि (दे ८१३६) ।
सुंकय - किशारु, जो आदि का अग्रभाग (दे ८३८ वृ) । सुंकल - किशारु, धान्य आदि का अग्रभाग (दे ८ ३८) ।
संकलितृण - विशेष (भ २१।१९ ) ।
सुकलिकडय— क्रीडा - विशेष - यह खेल वृक्ष को केन्द्र मानकर खेला जाता है | खेलने वाले सभी बच्चे वृक्ष की ओर दौड़ते हैं । जो बच्चा सबसे पहले वृक्ष पर चढ़कर उतर आता है, वह विजेता माना जाता | विजेता बच्चा पराजित बच्चों के कंधों पर बैठकर दौड़ के प्रारम्भ बिन्दु तक जाता है - भगवं च पमदdr as वेहि समं सुकलिकडएण अभिरमति' ( आवचू १ पृ २४६ ) |
सुंग - वर्षााण के उपकरण का एक प्रकार - वालो सुत्तो सुंगो'
( जीविप पृ १७ ) ।
संघिअ— घ्रात, सूंघा हुआ (दे ८|३७ ) |
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देशी शब्दकोश
संठय-पकाने का भाजन-विशेष-'मीरासु सुंठएसु य कंडूसु य पयणगेसु य
पयंति' (सूचू १ पृ १२४)। संडक-पकाने का भाजन-विशेष-'मीरासु मुंडएसु य कंडूसु पयणगेसु य
पयंति' (आवहाटी २ पृ १०७) । संभल-चोटी, शेखरक (ज्ञा १८७२ पा)। सुंभलग-मदिरा-विशेष (अंवि पृ २४७) । सुसुमारित-वाद्य-विशेष (आवचू १ पृ ३०६) । सुकुमालिअ-सुघटित (दे ८।४०) । सुक्ख-कंडा-'गोब्बरो त्ति करीसा त्ति सुक्खं वा छगणं पुणो'
(वि पृ १०६)। सुग-सूची, सूई-तण सुगादी साधू अणाभोगेण अणणुण्णवितं गेण्हेज्ज'
(दअचू पृ ८४) । सुगिम्हस-फाल्गुन का उत्सव (दे ८।३६ वृ)। सुग्ग-१ आत्मकुशल । २ निर्विघ्न । ३ विजित (दे ८१५६)। सुघर-गोत्र-विशेष (अंवि पृ १५०) । सुजडिय-भली भांति बंद किया हुआ-"चाणक्कघरमणुप्पविट्ठो ओव्वरगं
सुजड्डियं दटुं चिंतेति' (दअचू पृ ४२)। सुज्झ-धातु-विशेष (राज १७४)। सुज्झय-१ रौप्य, चांदी । २ धोबी (दे ८।५६) । सुज्झरअ-रजक, धोबी (दे ८।३६)। सुढिअ-१ धान्त, थका हुआ (दे ८।३६) । २ संकुचित अंग वाला
(बृभा ३४६)। सढित-चरणों में गिरा हुआ-'छन्नालयम्मि काऊण कुंडियं अभिमुहंजली
सुढितो' (बृभा ३७४) । सुणेलग-श्रोता, सुनने वाला (सूचू १ पृ १८५)। सुण्हसिअ-स्वपनशील, सोने की आदत वाला (दे ८।३६) । सत्त-१ कांजी (बृभा ८०१) । २ मद्य के नीचे का कर्दम । ३ द्रव्य-विशेष
'सुत्तं मदिराखोलः देशविशेषप्रसिद्धो वा कश्चिद् द्रव्यविशेषः'
(बृटी पृ १५५७) । सत्तजगलिका-त्रीन्द्रिय जंतु-विशेष-'सुत्तजगलिका कुंथू उरणी सुयम्मुत्ता' ।
(अवि पृ २३७) ।
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देशी शब्दकोश
सुदारुण-चण्डाल (दे ८।३६)। सुदुम्मणिआ-रूपवती स्त्री (दे ८।४०)। सुद्ध-ग्वाला (दे ८।३३)। सुद्धवाल-शुद्ध और पवित्र (दे ७।३८) । सुफणी—जिसमें आसानी से पकाया जाये वह बर्तन, बटलोई आदि-'सुखं
फणिज्जति जत्थ सा भवति सुफणी लाडाणं जहिं कड्ढति तं सुफणि
त्ति वुच्चति' (सूचू १ पृ ११७)। सुन्म-धातु-विशेष-'सुवण्ण-सुब्भ-रयय-वालुयाओ' (जीव ३।२८६) । सुमंगल-- द्वीन्द्रिय प्राणी-विशेष-'णीपुर-सुमंगल-संबुक्कादयो एवं विधा
फासिदिय-जिभिदियोपेता' (अंवि पृ २६७) ।। सुमंगमंती-भिनभिनाने वाली-'पज्जणघडियाए मच्छियाओ पविट्ठाओ
हत्थेण ओहाडिया व सुमुगुमंतीउ होउ त्ति'
(आवहाटी २ पृ १६) । सुय-तृण-विशेष (प्रज्ञा १।४२) । सुयम्मुत्त- त्रीन्द्रिय जन्तु-विशेष (चंवि पृ २३७) । सुयल्लिय-सुप्त (आटी पृ ४६५) । सुरंगि-शिग्रु वृक्ष (दे ८।३७) । सुरजेट्ठ-वरुण देव (दे ८।३१) । सुरसुर-अनुकरणवाची शब्द, भोजन के समय होने वाला शब्द (भ ७।२५) । सुरूचि -१ आसन-विशेष । २ आभरण-विशेष- भद्रासनं सिंहासनं सुरूची
रूढिगम्या आभरण विशेष इति केचित्' (प्रटी प ७०)। सुलस-कुसुम्भरक्त वस्त्र (दे ८।३७) । सुलसमंजरी--तुलसी (दे ८।४०) । सुलसा-तुलसी (पा ३७५) । सुलसुलंत-किलबिलाना-'गलंतपूइनिवहं सुलसुलंतकिमिजालं'
(उसुटी प २३६)। सुली-उल्का (दे ८।३६) । सुलुव्व-तांबा, ताम्र (कु पृ १६६)। सुवण्ण-अर्जुन-वृक्ष (दे ८।३७) सुवण्ण बिंदु-विष्णु (दे ८।४०) । सुवरी-सूअर की मादा-'वराही सुवरी कोली खारका घरकोइला'
(संवि पृ ६६)।
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देशी शब्दकोश
सुवुण्णा -संकेत (दे ८।३७) । सुव्व-तांबा-'जेण कणयं ति चिंतियं सुव्वं जायं' (कु पृ १६५) । सुविआ-माता (दे ८।३८) । सुसंठिआ-शूलाप्रोत मांस (दे ८।३६)। सुहउत्थिा -दूती (दे ८६)। सुहरा-गोरैया पक्षी, सुघरा, वह पक्षि-विशेष जिसके घोंसले को मुंह नीचे की
__ ओर होता है (दे ८।३६) । सुहराअ-१ वेश्यागृह । २ चटक, गोरैया पक्षी (दे ८।५६) । सुहल्ली -सुख, आनन्द (दे ८।३६ वृ)। सुहिल्लि-आनन्द (कु पृ८३) । सुहिल्लिया-सुख, आनन्द-'न लहइ जहा लिहंतो सुहिल्लियं अट्ठियं रसं
सुणओ' (भत्त १४२)। सुहेल्लि -सुख (दे ८।३६) । सूअरिमा-यन्त्र-पीडन (दे ८४१ वृ)। सूअरी-यन्त्र-पीडन (दे ८।४१) । सूअल-किशारु, जौ आदि का अग्रभाग (दे ८।३८)। सूइस--चण्डाल (दे ८।३६) । सूइत-प्रोत, पिरोया हुआ-'सुत्तेण सूइत त्ति य अत्था तह सूइता य जुत्ता य'
(सूचू १ पृ १२)। सूइय-भीगा हुआ खाद्य (आ ६।४।१३)। सूई-मञ्जरी (दे ८।४१)। सकमिड-कृमि-विशेष-'तत्थ किमिगत आसातिका किमिका....... सूकमिडा
वेति एवमादयो विण्णेया भवंति' (अंवि पृ २२६) । सूकमिद्द-क्षुद्र जंतु-विशेष (अवि पृ २३०) । सडण-विनाशक (प्रसा १५१४)। सूतय-तोता, शुक-'मायादोसेण रुक्खकोट्टरे सूतओ जाओ'
(आवहाटी १ पृ २६४) । सदी–परिमाण-विशेष, एक अंगुल लंबी एक प्रदेश वाली श्रेणी-पयरघणा
सम्वेसी सेढी सूदी य आयत-विसेसो' (सूचू १ पृ८)। सूमालिया-तैल का किट्ट (बृभा १७१०) । सूय-सूजनयुक्त-'सूयमुहं सूयहत्थं सूयपायं' (विपा १२७७) ।
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देशी शब्दकोश सूरंग-प्रदीप (दे ८।४१)। सूरण-कन्द-विशेष (भ ७.६६; दे ८।४१) । सूरणय-कन्द-विशेष, सूरन (उ ३६॥९८)। सूरद्धय-दिन (दे ८।४२) । सूरमल्लि-तृण-विशेष (राजटी पृ १९८) । सूरल्लि-१ मध्याह्न । २ ग्रामणी नामक तृण । ३ मशक की आकृति वाला
कीट (दे ८।५७)। सरिल्लि-प्रामणी नामक तृण (राज १८४)। सरुल्लिया-वनस्पति-विशेष (जीवटी प ३५१) । सूलच्छ-पल्वल, छोटा तालाब (दे ८।४२) । सूलत्थारी-चण्डी, दुर्गा (दै ८।४२) । सूला–वेश्या (दे ८।४१) । सूहव--सुभग (दे ८।४२ वृ)। से-इन अर्थों का सूचक अव्यय-१ अथ (भ ११४२८) । २ प्रश्न
(भ ११४५) । ३ अनन्तरता- आनन्तर्यार्थ : से शब्दार्थः' (स्था १०।६६ टी प ४६६) । ४ तत्, वह-से शब्द: मागध देशीप्रसिद्धो निपातस्तच्छब्दार्थः' (आवहाटी २ पृ २२१) । ५ प्रस्तुत वस्तु का परामर्श, उपन्यास-से नूणं मए पुवं-सेशब्दो मागधप्रसिद्धयाऽथशब्दार्थ
उपन्यासे' (उ २१४० शाटी प १२६)। सेआल-१ ग्रामप्रधान । २ सांनिध्यकर्ता यक्ष आदि (दे ८५८) । ३ कृषक
(पा १२२)। सेआली-दूब (दे ८२७) । सेआलुअ-मनौती की सिद्धि के लिए उत्सृष्ट बैल (दे ८।४४)-'सेआलुओ
उपयाचितसिद्धयर्थं वषभः । उपयाचितं केनापि कामेन
देवताराधनम्' (वृ)। सेइआ-परिमाण-विशेष, दो प्रसृति का एक नाप (अनुद्वामटी प १३६) । सेइंगाल-चतुरिन्द्रिय जंतु-विशेष (जीवटी प ३२) । सेंगलिया-फली (आवमटी प २८७) । सेंगा–१ शंख की तरह बजाया जाने वाला वाद्य (आवच १ पृ ३०६) ।
२ फली (निचू २ पृ २३७) । सेंटा-नाक छींकने का शब्द-'छेलिय सेंटा भण्णति' (जीभा १७२३) । सेंदसप्प-फण वाले सर्प की एक जाति (प्रज्ञा ११७०)।
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देशी शब्दकोश
सेवाड - चप्पुटिकानाद, चुटकी की आवाज (दे ८।४३ ) |
सेक्क - छींक ( कु पृ २२) ।
सेज्जारिअ - आंदोलन, झूलना (दे ८।४३) ।
सेज्झतिय— सहायक - तम्हा तस्सायरिओ, मग्गति सेज्झतिआदी वा ( अंक १११४) ।
सेज्झगा - पड़ोसिन ( बुभा २३४६ ) ।
सेट्ठि - ग्रामेश, गांव का अधिपति ( ज्ञा १।१।२४; दे ८।४२) | सेट्टिणी - सेठानी ( निचू ३ पृ ४०८ ) ।
सेडंगुलि - -- खाद्य वस्तु- विशेष - (सेडंगुलिमादीहि पाएहिं एत्थ भत्तट्ठ' ( जीभा १३९७ ) ।
सेडंगुली - पत्नी के अधीन पति की एक अवस्था - 'जदा इत्थी भणिता रंधेहि, तदा भणति - अहं उट्ठेमि, ताव तुमं अधिकरणीतो छारं अवहिति । तस्स छारे अवणीते से डंगुलीतो भणति' ( निचू ३ पृ ४२० ) ।
सेडि - सफेदी, चूना ( अंति पृ १०४ ) | सेडिय - तृण - विशेष (भ २१:१९ ) । सेडिया - खड़िया मिट्टी ( आचूल १३७६) । सेडीका -- पक्षि- विशेष (अंवि पृ २३८ ) । सेडीवड - पंचेन्द्रिय लोमपक्षी ( जीवटी प ४१ ) ।
सेडुअ - कपास - 'सेडुओ कप्पासो' (निचू २ पृ ३२६) ।
सेडुकारी -- भ्रमरी - हितणट्ठजाणणट्ठा, विच्छुय तह सेडुकारी य' ( निभा १४३६) ।
सेडुग - कपास ( निभा १९६२) ।
सेडुयारिया - भ्रमरी (निचू २ पृ १६७) ।
सेढिया - सफेद मिट्टी ( दजिचू पृ १७९ ) ।
सेण- रक्षक - 'ताओ गुत्तो य सेणो य रक्खितो य परक्कमा ' ( अंवि पृ १५७ ) । सेतगुलिका – बिल में रहने वाला प्राणी- विशेष - 'तस्थ बिलासएस कण्हगुलिक सेतगुलिका खुल्लिका आहाडका' (अंवि पृ २२६ ) ।
-
सेतिया -- परिमाण - विशेष - ' द्वे प्रसृती सेतिका, सा च नेह प्रसिद्धा गृह्यते, मागधदेशप्रसिद्धस्यैवात्र मानस्य प्रतिपिपादयिषितत्वाद्'
( अनुद्वामटी प १४० ) ।
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देशी शब्दकोश
सेधक- पर्वतीय पशु- विशेष - 'तत्य सेलबिलास या ' अच्छभल्ला तरच्छा सालिभा सेका दीपिका' (अंवि पृ २२७ ) ।
सेधा - साही, जाहक ( जीव २९ ) ।
सेय--१ कीचड़ ( ज्ञा १ । १ । १६० ) । २ गणेश, गणपति (दे ८१४२) । सेयाल - १ भविष्यत् काल ( उ २६ । ७१) । २ कृषक (पा १२२ ) । सेरडी - भुजपरिसर्पिणी ( जीवटी प ५२) ।
--
सेराह - अश्व की एक उत्तम जाति ( कु पृ २३) ।
सेरिभ – १ महिष, भैंसा ( उसुटी प १३० दे ८ ।४४ वृ) । २ धुर्य वृषभ, गाड़ी का बैल (वृ ) ।
सेरिभअ-धुर्य वृषभ (दे ८ १४४ ) |
- सेरिय - १ गुल्म- विशेष ( जीवटी प १४५) । २ वाद्य - विशेष | सेरियक वनस्पति- विशेष (भ २२ ५ ) ।
सेरियय-गुल्म-वनस्पति- विशेष (प्रज्ञा १२३८२ ) ।
सेरिहो - महिषी, भैंस ( पा ६७० ) ।
सेरी- १ यंत्र निर्मित नर्तकी - 'देशीवचनमेतत् यंत्रमयी नर्तकी'
(व्यभा ४२ टीप ३४) । २ दीर्घा । ३ भद्र आकृति (दे ८१५७) ।
४ रथ्या ।
सेलु - श्लेष्मनाशक वृक्ष - विशेष (भ ८।२१९ ) ।
सेलूडक - फल- विशेष - तिदुकं बदरं वत्ति तथा सेलूडकं ति वा ' (अंवि पृ ६४ ) |
सेलूस - द्यूतकार, जुआरी (दे ८।२१) ।
सेलेसिद - सर्प की एक जाति ( जीवटी प ३६ ) |
सेल्ल - १ शलाका ( निभा ५१३) । २ मृगशिशु । ३ बाण, शर (दे ८५७) । ४ कुन्त, भाला (प्रा ४१३८७)
सेल्लय - शाकभाजी - 'सासवनालसेल्लयं' ( जीविप पृ ५६ ) | सेल्लि - रज्जु, रस्सी - ' छिन्नाले छिदइ सेल्लिं' ( उ २७।७) । सेवपूति - वृक्ष विशेष (अंवि पृ ७० ) ।
सेवाल - पंक (दे ८।४३) ।
सेह - १ जिसके शरीर में कांटे होते हैं वह प्राणी, साही ( प्र ( 15 ) 1 २ रोमपक्षी - विशेष (प्रज्ञा १७९ ) ।
सेहरअ- - चक्रवाक (दे ८१४३) ।
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देशी शब्दकोश
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सेहि-गत, गया हुआ - 'तं च निग्गंथीओ नो इच्छेज्जा, सेहिमेव नियं ठाणं' (व्य ७।३) ।
सेहिअ - गत, गया हुआ (दे ८११) |
सेही - साध्वी - 'दुट्टा सेहि ! कत्तो सि आगया' (उसुटी प ५४ ) । सेहुलक – साही, ऐसा जन्तु जिसके शरीर में कांटे होते हैं (नंदीटि पृ १०७) । सोअ - निद्रा, स्वपन ( दे ८|४४ ) ।
८।४५ वृ) ।
सोअमल्ल --- सुकुमारता सोइल्लिय - सुप्त (ओटी पृ ४६५) ।
सोंडियालिछ- विशेष प्रकार का चूल्हा ( जीव ३।११८ ) । सोगिल - सूजन रोग से ग्रस्त ( विपा १/७/७ ) ।
सोज्झय - धोबी ( पा ७७३ ) ।
सोट्ट - सूखी लकड़ी - 'सोट्टा नाम शुष्ककाष्ठानि' (बूटी पृ ६७९) । सोणंद - त्रिपादिका - 'साहत सोणंद - मुसल - दप्पण - सोगंदं त्रिकाष्ठिका' ( प्र ४।७टी प ८० ) ।
सोत्ती नदी (दे ८।४४) ।
सोमइअ - स्वपनशील (दे ८/३९) । सोमंगल -- द्वीन्द्रिय जंतु - विशेष ( उ ३६ । १२८ ) |
सोमंगलग - द्वीन्द्रिय जंतु - विशेष (प्रज्ञा १।४९) । सोमहिंद - उदर, पेट (दे ८।४५) ।
सोम हिड्डु - पंक (दे ८१४३) ।
सोमाण - १ श्मशान (दे ८ ४५) २ सोपान ( अंवि पृ ३१) । सोमाल - १ मांस (दे ८ ।४४) । २ सुकुमार (दे ८ ४५ वृ ) । सोमित्तिकी - वस्त्र - विशेष (अंवि पृ ७१ ) ।
सोल-१ अश्वपाल - सोला तुरगपरियट्टगा' (निचू २ पृ ४४० ) । २ प्रिय'सोलवादो प्रियभाष इव' ( सूचू १ पृ १८१ ) ।
सोलग — घोडों की देखरेख करने वाला (बृभा २०६६) ।
सोलहावत्त-शंख (दे ८।४६ वृ) ।
सोलहावत्तअ - शंख (दे ८ ४६) ।
सोल्ल - १ पक्व ( विपा ११२ / २४ ) | २ अश्वपाल - ' मेंठ - आरामिय- सोल्लघोड - गोवाल - चक्किय' (निचू ३ पृ २४५) । ३ मांस
( उपाटी पृ १४७ दे ८।४४) । ४ कलाल ( आवहाटी २ पृ ६८ ) ।
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सोल्लय - मांस ( उपाटी पृ १४७ ) | सोल्लित - उछालना, फेंकना - 'सो सुतियाए गावीए सोल्लितो पडिततो' ( आवचू १ पृ २३१ ) ।
सोल्लिय - १ पकाया हुआ - पंचग्गितावेहिं इंगालसोल्लियं कंदुसोल्लियं कटुसोल्लियं' (भ ११।५६ ) । २ पुष्प - विशेष ( औप १८४) । सोवण - १ वासगृह, शय्यागृह । २ स्वप्न । ३ मल्ल (दे ८1५८ ) । सोवण्णमक्खि- मधुमक्षिका (दे ८ ४६ ) - चालुक्क सोलहावत्तसे अजस भग्गरज्जमहुछत्ता । सोवण्णमक्खिआउ व दिसो दिसं जन्ति वैरिणो तुज्झ ॥' (वृ) 1
देशी शब्दकोश
सोवत्थ - १ उपकृति, उपकार (दे ८ ४५ ) । २ उपभोग्य - 'संयत्थं उपभोग्यमित्यन्ये' (वृ) ।
सोवोरिणी - कांजिका - कल्लं ठवेहि अन्नं महल्लं सोवीरिणि गेहे ' ( बृभा १७५० ) ।
सोव्वअ - दंतहीन (दे ८४५) | सोसण - वायु (दे ८१४५) । सोसणी-कटी, कमर ( दे ८४५) ।
सोहंजण - शिव, सहिजना का पेड़ (दे ८१३७) । सोहणी - संमार्जनी, झाडू (दे ८।१७) ।
सोहि - १ भूतकाल । २ भविष्य काल (दे ८५८) ।
ह
हंजअ -- शरीर-स्पर्शपूर्वक किया जाने वाला शपथ---सौगन्ध (दे ८।६१) | हंजे - १ दासी का संबोधन (प्रा ४१२८१) । २ सखी का आमन्त्रणसूचक
अव्यय ।
हंदि - इन अर्थों का सूचक अव्यय - १ उपदर्शन - हंदि धम्मत्थकामाणं निगंथाणं सुणेह में' (द ६।४) । २ आमंत्रण - 'हंदि णमो साहाए' (स्था ८|२४) । ३ खेद - 'खेआइसु अव्वो हंदि उत्ति' ( पा ६६५) । ४ विषाद । ५ विकल्प । ६ पश्चात्ताप । ७ निश्चय । ८ यह सत्य ही है (प्रा २१८० ) । ६ ग्रहण करो ( प्रा २०१८१ ) । हंभी - हंभी नामका रसायनशास्त्र ( सूचू १ पृ १६६) ।
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देशी शब्दकोश
४२६
हंस - १. आसन - विशेष - पावीढ भिसिय करोडियाओ पल्लंकए य पडिसिज्जा | हंसाई विसिट्ठा आसणभेया उ अट्ठट्ठ ||' (ज्ञाटी प ४७ ) । २ रजक, धोबी - 'वत्थधुवा हवंति हंसा वा' ( सू २१४१४८ ) । ३ पतंग, चतुरिन्द्रिय जंतु (अनुद्वामटी प ३१) ।
हंसोली - पीछे से आकर लिपट जाना ( निचू १ पृ १७) ।
हंसो वल्लोली- पीछे से आकर लिपट जाना - "तुज्यं रममाणस्स तुट्ठीए हंसो वल्लीली काही तं जाणिज्जासि' (आवहाटी २ पृ २१७) ।
हकुव - वनस्पति- विशेष ( अनु ३।४५) ।
हकुवी - वनस्पति- विशेष (अनुटी पृ ५) ।
हक्क विऊण -- बुलाकर ( आवहाटी २ पृ १२४) ।
हक्कार - दुःख से निकलने वाली 'हाय हाय' की आवाज ( निभा २७२१) हक्कारिय- आकारित, बुलाया हुआ - हक्कारिया आयाया' (ओटी प १९ ) ।
हक्कारेमाण -- बुलाता हुआ, पुकारता हुआ (ज्ञा १।१८।४५) । हक्कोद्ध-अभिलषित (दे ८६०) |
हक्खुत्त - उत्पाटित, उखाड़ा हुआ (आवहाटी १ पृ ६७; दे ८।६०) । हगे - १ मैं । २ हम (प्रा ४२६६) ।
हट्टमहट्ट - १ स्वस्थ, नीरोग । २ दक्ष (दे ८।६५) । ३ स्वस्थ युवा | हड ----१ जलकुम्भी, अबद्धमूल जलीय वनस्पति - वायाइदो व्व हो अट्टियप्पा भविस्ससि' (द २६ ) । २ हृत, हरण किया हुआ (द ७|४१ दे ८५६) ।
हडकारक - अपहरण करने वाला चोर ( प्र ३।३) ।
हक्क - पागल (कुत्ता) ( बूटी पृ ८२ ) ।
हडप्प - १ सिक्के रखने का पात्र । २ ताम्बूल-पात्र (भ । २०४) । ३ आभूषण-पेटी'-'आभरणभंडयं हडप्पो' (निचू २ पृ ४६६) । हडप - ताम्बूल रखने की छोटी थैली (कन्नड़) ।
हडप्फ-१ आभरण का करण्डक ( आचू पु ७१ ) । २ द्रम्म आदि का पात्र । ३ ताम्बूल पात्र - हडको द्रम्मादिभाजनम्, ताम्बूलार्थे पूगफलादिभाजनं वा' ( औपटी पृ १३१) ।
A
हडहड - १ अनुराग । २ ताप (दे ८१७४) ।
हडाहड
--अत्यन्त- - 'फुट्ट - हडाहड-सीसा' ( ज्ञा १।१६।२९) हाडो हाड (राज) ।
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देशी शब्दकोश
हडि - १ बंधन- विशेष, काठ की बेड़ी - इमं हडिबंधणं करेइ' (दश्रु ६ । ३ ) । २ हड-हड की आवाज - छुत्ति हडि त्ति अनुकरणशब्दावेतौ'
( बृभा २३४८ टी ) । ३ हट, दूर हो - ललकार भरा स्वर - " पासति सीहं आगच्छमाणं । तेण हडि त्ति जंपियं, ण गतो' (निचू १ पृ १०१) । ४ कारावास (व्यभा १० टीप ६३) ।
}
हड्ड – हड्डी, अस्थि ( नि ७|१; दे८५६ ) |
हड्डमालिया - हड्डियों की माला - सिंगमालियं वा संखमालियं वा हड्डमालियं वा भिडमालियं वा कट्टमालियं वा' (नि ७।१) । हडुसरक्ख - शैव मतावलंबी- 'चरग परिव्वायग - हड्डस रक्खा दिएहिं तडियकप्पडिएहिं यजा आइण्णा आकुला' (निचू २ पृ २०७ ) ।
हड्डागिद्धिसी-कटि के अधोभाग में होने वाला संधि-वायु ( निचू ४ पृ १०८ ) ।
हढ -- जल में होनेवाली वनस्पति, जलकुम्भी (भ २३८) । हण – दूर (दे ८५६ ) ।
ह - सावशेष, बाकी बचा हुआ (दे ८।५६ ) ।
हणुदाणि - उसके पश्चात्, अब - 'वाइज्जंति अपत्ता, हणुदाणि वयं वि एरिसा होमो' (बृभा ५२०९)।
हत्थ - १ शीघ्र ( औप ५७) । २ जल्दी करने वाला (दे ८५६ ) |
हत्थखड्डुग - हाथ की अंगूठी (अंवि पृ ६५ ) ।
हत्थच्छुणी - नववधू ( ८1६५) ।
हत्थल - १ चोर (प्रटी प ४३ ) । २ क्रीडा के लिए हाथ में लिया हुआ), पदार्थ । ३ चंचल हाथ वाला (दे ८१७३) ।
हत्थल्ल — क्रीडा के लिए हाथ में लिया हुआ (दे ८|६० ) ।
हत्थल्लिअ - हस्तापसारित, हाथ से हटाया हुआ (८६४) ।
हत्थल्ली - हाथ में ले जाया जाने वाला आसन - विशेष (दे ८।६१) ।
हत्थार - सहायता, मदद (दे ८|६० ) ।
हत्यिअचक्खु - -वक्र अवलोकन (दे ८।६५) ।
हत्थि मल्ल -- ऐरावण हाथी (दे ८१६३) । हथियार- -१ शस्त्र (अनुद्वाच् पृ १२) । २ युद्ध | ’
हत्थिवअ - ग्रह-भेद (दे ८१६३) ।
हत्थि हत्थ - दुस्तर - संसारहत्थि हत्थं पावति' - ' दुस्तरं संसारम (पततीति भावः " (व्यभा ३ टीप ६३) ।
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देशी शब्दकोश हत्यिहरिल्ल–वेष, पोशाक (दे ८।६४) । हत्थेव्वग-हाथ में पहनने योग्य-'हत्थेव्वगा आभरणगा कडगादी पादे करेति'
(निचू ३ पृ ४०७) । हत्थोडी-१ हाथ का आभूषण । २ हाथ से दिया जाता उपहार
(दे ८७३)। हत्थोपक-हाथ का आभूषण (अंवि पृ १६२) । हद-बालक का मलमूत्र (पिटी प ८६) । हहन्नय-बालक का मल-मूत्र साफ करने वाला (पिनि ४७१) । हद्धअ-हास, हंसो (दे ८।६२)। हप्पिच्छ-अश्व का प्रिय खाद्य-धान्य-विशेष-'आसो हपिच्छं (हरिमत्थं)
मुग्गमादि मधुरं' (निचू २ पृ २४७) । हम्मिअ-गृह, घर (आचूला २।१८; दे ८।६२) । हयमार-कणेर का गाछ (पा ३७४) । हरतणु-भूमि को भेदकर निकलने वाले जलबिंदु-'हरतणू महिया हिमे'
(उ ३६।८५)। हरतणुग-भूमि को भेदकर निकले हुए जल-बिंदु-'किंचि सणिद्ध भूमि
भत्तूण कहिंचि समस्सयति सफुसितो सिणेहविसेसो हरतणुतो'
(दअचू पृ ८८)। हरतणय-भूमि को भेदकर निकले हुए जलबिंदु-'हरतणुओ भूमि भेत्तूण
उठेइ, सो य उबुगाइसु तिताए भूमीए ठविएसु हेट्ठा दीसति'
(दजिचू पृ १५५)। हरपच्चुअ-१ स्मृत, याद किया हुआ । २ नामोल्लेखपूर्वक दिया हुआ
(दे ८७४)। हरहरा-उचित अवसर, युक्त प्रसंग-निद्भूमगं च गाम महिलाथूभं च सुन्नयं
दर्छ । नीच कागा ओलिंति जाया भिक्खस्स हरहरा ॥'
(विभा २०६४) । हरि-शुक, तोता (दे ८।५६) । हरिआली-दूर्वा (दे ८।६४) । हरिचंदण-कुंकुम (दे ८६५) । हरिडय-कोंकण देश में प्रसिद्ध वृक्ष-विशेष (प्रज्ञाटी ३१) । हरितग-कोंकण देश में प्रसिद्ध वृक्ष-विशेष (प्रज्ञा ११४४)। हरिमंथ-चना (उसुटो प ५६) ।
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देशी शब्दकोश
हरिमिग्ग-लाठी, डंडा (दे ८।६३) । हरिमेला-वनस्पति-विशेष (औप ६४) । हरियवण्णी-१ वैसा प्रदेश जहां प्रायः दुभिक्ष होता हो और वहां के लोग
हरित शाक आदि खाकर जीते हों। २ वैसे प्रदेश में राजा किन्हीं घरों में दंड देकर पुरुष की बलि देता है। उस घर पर आर्द्र वृक्ष की शाखा का चिह्न कर दिया जाता है, ताकि
वहां कोई भिक्षा के लिए न जाए (व्यभा ४।४ टी प ७०)। हरियालिया-दूर्वा-'सिद्धत्यग-हरियालियाकयमंगलमुद्धाणा'
(भ ११।१४०)। हरियाहडिया-चोरों द्वारा अपहृत (बृ ११४५) । हरिसय--आभूषण-विशेष (जीव ३।५६३) । हलप्प-बहुभाषी, वाचाल (दे ८६१)। हलफलिअ-१ शीघ्र (दे ८।५६) । २ आकुलता (वृ) । हलवंभ--- हल कर्ष, हल से विदारित भूमी-रेखा-'एक्केक्कं हलबंभं देह'
(उशाटी प ११६) । हलबोल-कोलाहल (कु पृ १९८; दे ८।६४) । हलबोलिय--कोलाहल-'हलबोलिए वट्टमाणे' (कु पृ १३५) । हलमलि-प्रसिद्ध (से १२।८६ टी)। हलहल-१ कोलाहल । २ कुतूहल (दे ८।७४) । ३ युद्ध की उत्कंठा
'हल हलशब्दो युद्धोत्कण्ठायां देशी' (से १२८६) । ४ क्षोभ
विशेष-'शब्दोऽयं देशी' (से १५॥३३) । हलहलय-१ हलचल-हियउग्गयहलहलयं वियरंतं परियणं पुरओ'
(कु पृ २००)। २ त्वरा (पा ८२७) । हलहला--हडबडी, कोलाहल (कु पृ १९८)।। हलहलि-प्रकंपित-'ताव य हलहलीहूओ परियणो, खुहिया णयरी'
(कु पृ १८०)। हला-सखी का सम्बोधन (उसुटी प ६१)। हलाहला-बाम्हणी, जन्तु-विशेष (दे ८।६३) । हलि-स्त्री का संबोधन-'लाडविसए समाणदयमण्णं वा आमंतणं जहा
हलि त्ति' (दअचू पृ १६८) । हलिया-१ छिपकली (दश्रु ८।२६८) । २ बाम्हणी, कीट-विशेष
(दअचू पृ १८८)।
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४
देशी शब्दकोश हलूर-सतृष्ण, तृष्णा-सहित (दे ८।६२)। हले-तरुणी का संबोधन (द ७।१६)-हले ति मरहठेसु तरुणिवीसा
मंतणं, हले हलित्ति अण्णेत्ति एयाणी वि देसं पप्प आमंतणाणि, तस्थ
वरदातडे हले ति आमंतणं' (दअचू पृ १६८)। हल्ल--गोपालिका नामक तुण के आकार वाला कीट-विशेष
(भटी पृ १२५८)। हल्लप्फल-चंचल, कंपित (कु पृ ८३)। हल्लप्फलिअ-१ शीघ्र । २ आकुलता (दे ८५६) । ३ व्याकुल । हल्लप्फुल्ल-हलफल, आकुल-व्याकुल (कु पृ ८३)। हल्लफल-१ शीघ्रता, हड़बड़ी (दजिचू पृ १२) । २ आकुल-व्याकुल
(कु पृ ५८)। हल्ला -एक प्रकार का कीट (भ १५५१२८)। हल्लिअ-चलित, हिला हुआ (दे ८६२) । हल्लिया-छिपकली (दश्रुचू प ६८) । हल्लिर-चंचल, चलनशील (कु पृ ४१) । हल्लिस-मंडलाकार होकर स्त्रियों का नाचना (अवि पृ २४३) । हल्लीस-रास, स्त्रियों का मंडलाकार नृत्य (दे ८।६१)। हल्लोहल-१ कोलाहल । २ आकुलता (उसुटी प १९५) । ३ चंचल ।
४ त्वरा। हल्लोहलि-गिरगिट (दअचू पृ १८८)। हल्लोहलिय-१ गिरगिट (दश्रु ८२६८) । २ शीघ्र । ३ व्याकुल ।
४ व्याकुलता। हल्लोहली-व्याकुल (उसुटी प २३८)। हविअ-चुपडा हुआ (दे ८।६२)। हव्व-१ अर्वाक्, इस ओर-णो हव्वाए णो पाराए' (आ २।३४) ।
२ शीघ्र (भ ७।१८४) । ३ सहसा (निचू १ पृ ४३) । ४ गृहवास । हसिरिआ-हास, हंसी (दे ८।६२) हसुडोलक-आभूषण-विशेष (अंवि पृ ६५)। हाडहड-तत्काल-'हाडहडं देशीपदमेतत् तत्कालमित्यर्थः'
(व्यभा २ टी प ३०)। हाडहडा-ओरापणा, प्रायश्चित्त का एक प्रकार (स्था ५११४६) ।
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देशी शब्दकोश
हादण-अतिसार-'अहवा अतिप्पमाणो, आतुरभूतो तु भुंजए जं तु ।
तं होति अतिपमाणं, हादणदोसा उ पुव्वुत्ता' (जीभा १६२६) । हारपुट-लोहे का पात्र-विशेष-'हारपुटं ते लोहिगं चेव पादं'
(आचू पृ ३६५)। हारपुड-लोहे आदि धातु के पात्र-विशेष-'हारपुडं णाम अयमाद्याः पात्र
विशेषाः मौक्तिकलताभिरुपशोभि ता' (निचू ३ पृ १७२)। हारा-लिक्षा, प्राणी-विशेष (दे ८।६६) । हारीड-पक्षी-विशेष-'पारेवयो कपोतो त्ति हारीडो कुक्कुडो त्ति वा'
(अंवि पृ ६२)। हाल-१ स्वामी के लिए प्रयुक्त होने वाला संबोधन-शब्द-'हाल इति
पहुवयणं यथा-परियंदति सुण्हा गहवतिस्स पुत्ता ! तुमं सि मे राया । चागणडियस्स पुत्तय! हालस्स व किं घरे अत्थि ?' (दमचू पृ १६६) । २ गोत्र-विशेष (अंवि पृ १४६) । ३ सातवाहन
राजा (दे ८।६६)। हालक-कीट-विशेष-'कीडो त्ति वा पतंगो त्ति संखो खुलुक-हालको'
(अंवि पृ ६३)। हालाहल-१ भरपूर । २ त्रीन्द्रिय जंतु-विशेष-'कहमहं एते हालाहले
जीवे पिविस्सं' (उचू पृ ५५)। ३ मालाकार । ४ छिपकली
(दे ८७५) । हालअ-क्षीब, मत्त (दे ८.६६) । हाव-तीव्र गति से चलने वाला (दे ८७५ वृ) । हाविर-१ तीव्र गति से चलने वाला । २ वीर्घ, लम्बा । ३ मन्थर ।
४ विरत (दे ना७५) । हासीअ-हास, हंसी (दे ८।६२) । हिंग-जार (दे ११४ वृ)। हिंगोबल-मृतभोज (आचू पृ ३३५) । हिंगोल-१ मृतक-भोज (आचूला २४२) । २ यक्ष आदि की यात्रा में
होनेवाला जीमनवार-हिंगोलं ति मृतकभक्तं यक्षादियात्राभोजनं वा
(आटी प ३३४)। हिचिम-एक पैर से चलने की बाल-क्रीडा (दे ८६८) । हिंछाघोडा-वृक्ष-विशेष (अंवि पृ ७०)। हिडिक-पुररक्षक (व्यभा ३ टी प ६७) ।
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देशी शब्दकोश हिडोल-खेत की रखवाली करने का यंत्र-हिंडोलं क्षेत्ररक्षणयन्त्र मिति
___केचित्' (दे ८।६६ वृ)। हिंडोलण-१ रत्नावली, रत्नमाला। २ खेत की रखवाली करने के समय
किया जाने वाला नाद (दे ८७६) । हिंडोलणय-१ रलावली, रत्नमाला। २ क्षेत्र-रक्षण के लिए किया जाने
वाला नाद (दे ८७६)। हिंडोलय-खेत में पशुओं को रोकने की आवाज (दे ८।६६) । हिंबिअ-एक पैर से चलने की बाल-क्रीडा (दे ८।६८) । हिक्का-धोबिन (दे ८।६६) । हिक्कास-पंक, कर्दम (दे ८६६) । हिक्किम-घोडे की आवाज, हिनहिनाहट (दे ८।६८) । हिज्जा-१ गतकल । २ आगामी कल (दे ८।६७) । हिज्जो-१ आगामी कल-'अज्ज हिज्जो त्ति कालं हरई'
(आवहाटी २ पृ १३५) । २ बीता हुआ कल (भ १२।१८) । हिट्ठ-आकुल (दे ८।६७)। हिट्ठा-नीचे (उसुटी प २२) । हिट्ठाहिड-आकुल (दे ८।६७) । हिडा-चोरी, द्यूत आदि नीच कर्म-'काहिंति बहुं चोरा संजमजोगे हिडाकम्म"
(इ ३५॥१६)। हिड-वामन, बौना (दे ८६७) । हिणिल्लसमाण-घृष्यमाण (उचू पृ ७६) । हितिहिति–त्यक्त, शून्य (?)-'हितिहिति गुरुकुलवासो मंदा य मती य
समणधम्मम्मि ।
एयं तं संपत्तं, बहुमुंडे अप्पसमणे य' ।। (ति ८६८) । हित्य--१ हिंसित, मारा हुआ-'हित्थोत्ति देशीपदमेतत् हिसितः'
(व्यभा १ टी प ३६) । २ त्रस्त, भीत (दे ८६७) । ३ लज्जित
हित्थो लज्जित इत्यन्ये' (वृ)। हित्थत-त्वरित-'तुरिते अ हित्यतं' (अवि पृ ४१)। हित्था-लज्जा (दे ८६७) । हित्थिय-जलचरप्राणी-विशेष-'कद्दमगहित्यिय-कच्छभक' (अवि पृ २२७) । हिमोर-हिम का मभ्यभाग (?) (प्रा २।१७४) ।
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देशी शब्दकोश
हियउड्डावण - १ मंत्र-तंत्र से चित्त को आकृष्ट करना (ज्ञा १।१४३४३ ) | २ चित्त को शून्य करने का प्रयोग (विपा ११२/७२ ) । हिरडिक्क - पाणजातीय लोगों का यक्ष- विशेष (व्यभा ७ टीप ५५ ) | हिरडी - शकुनिका, चील-पक्षी (दे ८६८) । हिरिंब - छोटा तालाब (दे ।६९ ) ।
४३६
हिरिबेर - खस-खस के दाने - "हिरिबेरं णाम उसीरं' ( सूचू १ पृ ११६ ) । हिरिमंथ - चना ( निभा १०३० ; दे ८।७० ) । हिरिमिथ चना ( दनि ९५६ ) |
हिरिमिक्क - मातंगों का यक्ष - विशेष - ' मातंगा तेसि आडंबरो जक्खो हिरिमित्रको वि भण्णति' (निचू ४ पृ २३८ ) ।
हिरिलि - कन्द - विशेष (भ ७।६६ ) | हिरिवंग - लाठी, डंडा (दे ८।६३) ।
हिला - १ बालू रेती (दे ८।६६ ) । २ भुजा, हाथ । हिलिमित्थ - चना ( दअचू पृ १९२ )
। हिलिहलय - ज्वालारहित अंगारे - गिज्जाया हिलिहलया इंगाला ते भवे मुणेतव्वा' (जीभा १५३१) ।
हिल्ला- - बालुका, बालू (दे ८।६६) ।
हिल्लिय - कीट - विशेष, श्रीन्द्रियजन्तु की एक जाति ( प्रज्ञा ११५० ) । हिल्लिरी - जाल - विशेष ( विपा १८१६ ) ।
हिल्लूरी ——— लहरी, तरंग (दे ८।६७) ।
हिल्लोडण - खेत में पशुओं को रोकने के लिए की जानेवाली आवाज (दे दा६९) ।
हिसोहिसा - स्पर्धा (दे ८६९) ।
होर -- १ सूई की भांति तीक्ष्ण नोक वाला काष्ठ आदि पदार्थ (बृ ६।३; दे ८७० ) । २ भस्म- -' केचित् ही रशब्दं भस्मन्यपि प्रयुञ्जते ' (वृ) । ३ अन्त - भाग ।
हीरणा - लज्जा (दे ८१६८ ) ।
हीरय-- बारीक छोटा तृण ( जीव ३१६२२) ।
होसमण -- हेषा, अश्व की आवाज, हिनहिनाहट (८६८) । हुअहुअंत-अव्यक्त ध्वनि करता हुआ, बड़बड़ाता हुआ - 'मूयव्व हुअहुअंतो तव छिज्जतमाईसु' (आवहाटी २ पृ २०५)।
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देशी शब्दकोश
हुंकअ- अंजलि (दे ८७१) । हुंकुरुव-अंजलि (दे ८७१)। हुंडी-घटा, समूह (पा ९३६) । हंब उट्ट-वानप्रस्थ तापस की एक जाति (औप ६४) । हुड-१ मेष (दे ८७०) । २ कुत्ता। हुडुअ-प्रवाह (दे ८७०) । हुडुक्क -- वाद्य-विशेष, मृदंग (भ ९।१८२) । हडुक्की --वाद्य-विशेष (आवचू १ पृ ३०६)। हुडुम-पताका, ध्वजा (दे ८७०) । हुड्डा ---- शर्त, दांव (प्रसा ४३५; दे ८.७०) । हुत्त-अभिमुख, सम्मुख (प्र ३।२३; दे ८।७०) । हुत्ति--अभिमुखा-'उत्तराहुत्ति पवहित्ता' (सम ७४१२) । हरत्था--१ बाहर-'हुरत्था णाम देसीभासातो बहिद्धा' (आचू पृ १६१),
'हुरत्था देशीपदं बहिरर्थाभिधायकम्' (बुटी पृ ६५२) । २ गांव के बाहर उद्यान आदि स्थान-'हुरत्थं बहिता गामादीणं देसीभासा उज्जाणादिसु' (आचू पृ २६१) । ३ उपाश्रय-घर के बाहर का परिक्षेप, वगडा-'देसीभासाइ कयं जा बहिया सा भवे हुरत्था उ' (बृभा ३४०४), 'या विवक्षितोपाश्रयाद् बहिर्वतिनी वगडा सा
'हुरत्था' इति शब्देनोच्यते' (बृटी पृ ६५२) । हुरब्भ-१ वाद्य-विशेष (उपाटी पृ६७) । २ मेष (प्रटी प ६)। हुरवत्था-बाहर (आटी प ३३०) । हरुडी-विपादिका, बिवाय (दे ८७१) । हलायक-बाज पक्षी (बृटी पृ १०२७) । हुलि-शीघ्र, तेज (कु पृ १३६)। हुलित-शीघ्र (प्र ११२३)। हलिय--१ शीघ्र (प्र ३१७; दे ८१५६) ।२ क्षिप्त । हलियक- शीघ्र (प्र ३१७ पा) । हुलुक-लघु, हल्का (पंवटी प १२४) । हलुव्वी-निकट भविष्य में प्रसव करने वाली स्त्री (दे ८७१) । हय-संख्याविशेष (जीव ३।८४१) । हयमाण-अत्यन्त जाज्वल्यमान (जीव ३।११८)।
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देशी शब्दकोश
हम-लोहकार, लोहार (दे ८.७१)। हहय--संख्या-विशेष (भ ५।१८) । हूहूयंग–संख्या-विशेष (भ ॥१८)। हेआल-हाथ की विशेष आकृति से निषेध, सांप के फण की भांति किए हुए
हाथ से निवारण। (दे ८७२)-यदाह भरत:'अंगुल्यः संहिताः सर्वाः सहांगुष्ठेन यस्य तु।
तथा निम्नतलश्चैव स तु सर्पशिराः करः' (वृ)। हेट्ठ-नीचे (सू १।६।१०)। हेवाहुत्त-नीचे की ओर (उसुटी प २७)। हेट्ठाहुत्ती-नीचे (आवहाटी २ पृ १२३)। हेदिल्ल-अधस्तन (सम ७६।१)। हेडित-प्रेरित (अंवि पृ १४८) । हेमप्प-वस्त्रविशेष (जीव ३१५६५) । हेरंग-मत्स्य से बना खाद्य-विशेष (विपा १।८।१२)-'हेरंगाणि य त्ति
रूढिगम्यम्' (टी) । हेरंब-- १ महिष, भैसा । २ डिडिम, वाद्य-विशेष (दे ८७६) । हेरिब--गणेश, विनायक (दे ८७२)-'हेरिबं पूअन्ती अम्बा बाले करेइ
हेआलं' (वृ)। हेरिका-कारावास, अवरोधक स्थान (सूचू १ पृ १३२) । हेरु-हेरुताल-वृक्ष (जीव ३।६३१) । हेला-१ वेग, तीव्रता-'कहिंचि वीईहेलुल्लालिओ' (कु पृ६७) । २ सरलता
(से ११५६) । ३ स्त्री की शृंगारसंबंधी चेष्टा (कु पृ८३) । ४ ताप-'तुज्झाणुरायहुयवहजालाहेलाहि सा विलुटुंगी'
(कु पृ २३६)। हेलिअ-पालित-पोषित-'एसो माणुसाणं हेलिओ' (कु पृ २४१) । हेलिय-मत्स्य की जाति-विशेष (जीवटी प ३६)। हेलुअ---छींक (दे ८।७२) । हेलुक्का-हिचकी (दे ८१७२) । हेल्ल-१ पुकार-सितालो आगतो, हेल्लं दाऊण धाडितो'
(दअचू पृ ५५) । २ लाटदेश में प्रयुक्त समवयस्क का आमंत्रणशब्द-'यथा लाटानां 'कांइ रे हेल्ल त्ति' (सूचू १ पृ १८१) ।
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देशी शब्दकोश
हेल्ला - १ पुकार - 'णवरं एगाए चेव हेल्लाए आविहितो' (आवचू १ पृ ११४) । २ वेग, तीव्रता (दे ८।७१) । हेल्लि - सखी का आमंत्रण (प्रा ४।४२२ ) । हेल्लुसित - फिसला हुआ (बुचू प १४१) ।
भूत -- गुण-दोष के ज्ञान से विकल और निर्दम्भ - ' हेहं भूतो नाम गुणदोषपरिज्ञान - विकलोऽशठभाव:' (व्यभा १ टीप ५६ ) ।
होक्कार - हुंकार ( आवहाटी १ पृ १८२ ) ।
होडिअ - लुटेरा सैनिक - सा सह धूयाए एगेण होडिएण गहिया' ( आवहाटी १ पृ १४९ ) ।
होडीय - लुटेरा - 'होडीओ नाम लूषकः पुरुषः' ( आवटि प २७) । होड – स्पर्धा (जीवि पृ ४६) ।
होढ --- १ चोरी का माल ( निचू ३ पृ ५०२ ) । २ झूठा आरोप - 'होढं दाऊण य पलादी' (बुभा ६१२२ ) - 'होढं गाढमलीकं दत्त्वा पलायन्ते ' (टी पृ १६१८ ) ।
होढक - चोर, तस्कर (अंवि पृ २५३ ) ।
होढा - दे ही दिया कर ही दिया- 'होढा' इति देशीपदमेतत् दत्तमेव कृतमेवेत्यर्थ:' (व्यभा ३ टीप ६६) ।
होण - हूण देश, अनार्य देश ( प्रसा १५८३ ) । होत्तिय - तृण- विशेष ( प्रज्ञा १४२ ) । होद्द — होड, बाजी, शर्त ( ज्ञाटी प १०२ ) । होरंभ - वाद्य - विशेष, महाढक्का ( भ ५६४) । होरण - वस्त्र, कपड़ा (दे ८७२) ।
૪૫૨
होल - १ अवज्ञासूचक तुच्छ संबोधन - 'होले त्ति निठुरमामंतणं देसीए भविलवचनमिव' (दअचू पृ १६८ ) । २ विभिन्न देशों में प्रयुक्त आदर एवं अनादरसूचक संबोधन - 'पुरुषाद्यामंत्र णवचनं गौरवकुत्सादिगर्भाणि ' . (ज्ञाटी प १७४) । ३ वाद्यविशेष - ' आढत्तं मज्जपाणं, वायावेइ होलं' ( उसुटी प ५८) । ४ पक्षि - विशेष । होला - १ समवयस्क का संबोधन - शब्द - ' होला इति देसीभाषातः समवया आमन्त्र्यते' (सूचू १ पृ १८१) । २ झल्लरी (आवहाटी १ पृ २६० ) | होलावाय - ओछे शब्दों से पुकारना ( सू २|| २७) । होले- स्त्री के लिए प्रिय सम्बोधन (द ७।१६) ।
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परिशिष्ट १. अवशिष्ट देशी शब्द २. देशी धातु-चयनिका
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परिशिष्ट १
अवशिष्ट देशी शब्द
प्रस्तुत ग्रन्थ 'देशी शब्दकोश' के मूलभाग में हमने जैन आगमों, उनके विभिन्न व्याख्या-ग्रन्थों तथा आचार्य हेमचन्द्रकृत 'देशी नाममाला' के शब्दों का सप्रमाण और ससन्दर्भ संग्रहण किया है। लेकिन इनके अतिरिक्त उत्तरकालीन प्राकृत ग्रन्थों में प्रयुक्त देशी शब्द अवशिष्ट रह जाते हैं। उन अनेक ग्रन्थों के विद्वान् संपादकों ने अपने-अपने संपादित उन प्राकृत ग्रन्थों में देशी शब्दों का अलग से परिशिष्ट भी दिया है। उन शब्दों का हमने ज्यों का त्यों इस परिशिष्ट में संग्रहण किया है। हमने मूल देशी शब्द तथा उसके अर्थ अर्थों का निर्देश मात्र किया है। पाइअसहमहण्णवो' में संग्रहीत उत्तरवर्ती प्राकृत ग्रन्थों के देशी शब्दों का भी इसमें संग्रहण किया है। यह परिशिष्ट शोधकर्ताओं के लिए उपयोगी सिद्ध होगा।]
अंगुलिय-ईख का टुकड़ा
अंघो-भयसूचक अव्यय अ--१ उपमा। २ सादृश्य । अंछविअंछी-आकर्षण-विकर्षण
३ उत्प्रेक्षा---इन अर्थों का सूचक | अंतल्ली -१ पेट । २ लहर का मध्य अव्यय
अंदुया-शृखला अइअड्ड-अतिविकट-अड्ड विकटार्थे | अंबभित्त-आम का टुकड़ा देशी
अंबपिसाय-राहु अइणिरत्त-अति निश्चित अंभु-पत्थर अइणीय-आनीत, लाया हुआ अकासिअ-पर्याप्त अइन्नदुवार—बिना दरवाजा बंद | अकोप्प-अपराध ___ किए
अक्कसाल-बलात्कार अइभल्ल-अतिभद्र
अक्का-माता अइरवण्ण-अतिरम्य
अक्खण-आसक्ति अइरिप्प-कथाबंध
अक्खणिय-व्याकुल भइरुंद-विपुल
अखंपण-स्वच्छ, निर्मल अउस-उपासक, पुजारी
अखुट्ट-अखूट अं-स्मरणद्योतक अव्यय
अखुट्टिअ-अखूट, परिपूर्ण अंकिइल्ल-नट, नर्तक
अगंडिगोह-यौवन का उभार अंगुमिय–पूरित
| अगिल-अविच्छिन्न स्वर से रुदन
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४४४
देशी शब्दकोश.
अग्गल-अधिक
अट्टल-~-अनपराध अग्गलय-अधिक
अट्टवसट्ट-अत्यन्त खिन्न अग्गहणिया-सीमंतोन्नयन, अट्ठिलिय-अस्थि
गर्भाधान के बाद किया जाने अड-उद्यान, बगीचा वाला एक संस्कार और उसके अडपल्लण-वाहन-विशेष . उपलक्ष्य में मनाया जाने वाला | अडयण-कुलटा, व्यभिचारिणी उत्सव
अडवडण-स्खलना, रुक-रुककर अग्गहर-घर का अगला भाग
चलना अग्गहिय-१ निर्मित, विरचित ।
अडा-प्रलंबित केश २ स्वीकृत
अडाल-बलात् अग्गिआय-इन्द्रगोप, क्षुद्रकीट
अडुवियडु-अस्त-व्यस्त विशेष
अड्डय-शस्त्र-विशेष अग्गीवय-घर का एक भाग
अड्डाय- वक्र अग्गच्छ-प्रमित, निश्चित
अड्डिम्म-अतिरिक्त अग्गोयर-उपहार
अणउंछिय-अपृष्ट, अनपूछा अचियंत-अनिष्ट, अप्रीतिकर
अणक्ख-१ लज्जा । २ क्रोध । अच्छक्क-असमय, अनवसर
३ अपवाद अच्छरा-चुटकी, चुटकी की आवाज अच्छुक्क–अक्षि-कूप-तुला, आंख का
अणखालय-अस्खलित कोटर
अणग्गपल्लट्ट-पुनरुक्त अच्छुद्धसिरि---इच्छा से अधिक फल अणड--अनृत, झूठा
की प्राप्ति, असंभावित लाभ अणरहू-नववधू अच्छोडाविय-बंधित, बंधाया
अणहवणय-तिरस्कृत, भत्सित हुआ
अणहल्लिय-जिसका फल प्राप्त न अच्छोडिय---आकृष्ट, खींचा हुआ हुआ हो वह अजड-१ शीघ्र करने वाला। अणालि-वक्रता २ जार, उपपति
अणिभ-मुख, मुंह अजणिक्क-सायंकालीन भोजन अणियच्छिय-देखने में असमर्थ अजम---१ सरल । २ अजवाइन अणिरिक्क-परतंत्र, पराधीन अज्जम--ऋजु
अणुअज्झिय--प्रयात, प्रतिजागरित अज्झोलिया-बार-बार दोहन करने अणुअत्थ-प्रचुर योग्य गाय
अणुझिअअ.--१ प्रयत, प्रयत्नशील । अट्टण्ण-आर्तज्ञ
२ सावधान
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परिशिष्ट १
४४५
अणुत्तुण-निरभिमानी
अप्पुण्ण-पूर्ण अणुदिव-प्रभात, प्रातःकाल अप्फरिअ-अधिक खाने से होने अणुमग्ग-पीछे-पीछे
वाला पेट का उभार-आफरा अणुव्वाय--अखिन्न
इति भाषायां-'अफरियपोट्टो' अणहंडिय-अनुभुक्त
अप्फाहेत-संदेश देता हुआ अणोलिया-गिल्ली, डोली
अबहिट-मैथुन अण्णसअ.-आस्तृत
अब्बा-माता अण्णासय–विस्तृत, बिछाया हुआ
अब्बो-माता का सम्बोधन अण्णोल-प्रभात
अब्भडवंच-पहुंचाने जाना अत्तिल्ल--अत्यन्त
अब्भहर--अभ्रक अत्तिहरी-दूती, समाचार पहुंचाने
अभिट्ट-अभिगत वाली स्त्री
अबिभद्र-संगत, सामने आकर अत्थक्क-.-अनवसर
__ भिड़ा हुआ अत्थक्कि--अकस्मात्
अभिड --संग्राम अत्याइया-गोष्ठी-मण्डप
अभिडिअ--समागत अत्थोडिय- आकृष्ट, खींचा हुआ ।
अभिणिव्वागड-भिन्न परिधि अथक्क--अस्थिर
वाला अद्दुमाअ-पूर्ण, भरा हुआ
अभिमर--हत्या अद्धघरणी-नववधू
अभुल्ल-अभ्रान्त-अभ्रान्त अद्धच्छिपेच्छिअ-इधर-उधर दृष्ट इत्यर्थे देशी अद्धच्छिपेच्छिरि-इधर-उधर अमयघडिय--चन्द्रमा, चांद देखना
अमल -- तेजहीन अद्धद्धा-दिन अथवा रात्रि का एक | अमार-१ नदी के मध्य का द्वीप।
२ कमठ अद्धर-प्रच्छन्न, गुप्त
अम्मच्छ-असंबद्ध अन्नाहुत्त--पराङ्मुख
अम्मण-कितना . अपंडिअ---विद्यमान
अम्माहीरय-राग, ध्वनि-विशेष अपिट्ट-पुनरुक्त, फिर से कहा हुआ अम्हत्त-प्रमृष्ट, प्रमार्जित अपुण्ण-आक्रान्त
अयंगम-शिथिल शरीर अप्पाअप्पि-उत्कण्ठा, औत्सुक्य अयडणा--कुलटा अप्पाण-निर्बल
अयुजरेवइ-अचिर-युवति, नवोढा अप्पुण-स्वयं
| अरणि-१ रास्ता । २ पंक्ति
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अरणेट्टय-पत्थरों के टुकड़ों से
मिली हुई सफेद मिट्टी अरलाअ-१ चिरिका । २ मशक अरि-चक्र अरोर-धनाढ्य, दरिद्रता से मुक्त अलंड--आरोप अलवलवसह-दुष्ट बैल अलियल्ल-व्याघ्र अलियल्लि-व्याघ्री अलिल्लह-१ छन्द-विशेष ।
२ अप्रयोजक, नियम रहित अलिसार-क्षीर अलीढा-मिथ्याचारिणी कुलटा अल्ल-१ कम्प-कम्पे देशी ।
२ आलीन अल्लय-आंवला अल्लविअ--दिया गया अल्लि-व्याघ्र अल्लिय-भौंरा अल्लिल्ल-भ्रमर अवअण्ह-उलूखल अवआर-लोकयात्रा अवइज्झिय-त्यक्त अवउडग-गले को मरोड़ कर
बांधना, बंधन का एक प्रकार अवऊढ-व्यलीक अवंग- अपामार्ग अवंगु-खुला, अनावृत अवकुम्माणिका-विलास अवक्ख-निस्तेज अवखा-चिंता अवगद-आक्रान्त
देशी शब्दकोश अवगल-आक्रान्त अवगिचण-पृथक्करण अवडक्किय-कूप में गिरकर मरा
हुआ अवडल्लिय-कूप आदि में गिरा
हुआ अवमिच्चअ-उधार पर खरीदा
गया अवरज्ज-गत दिवस अवरत्तय--अनुताप, पश्चात्ताप अवरिज्ज--१ अद्वितीय ।
२ उत्तरीय अवरु डिय-आलिङ्गित, व्याप्त अवरुप्पर-परस्पर अवरोप्पर-परस्पर अवलुय-चित्तखेद अवसण्ण-झरा हुआ, टपका हुआ अवसरिअ-विरह अवसेरी-चिंता अवहाडिय-उत्क्रुष्ट, जिस पर
आक्रोश किया गया हो वह अवहिट्र-१ अभिमानी । २ मैथुन अवहोअ-विरह, वियोग अवाडिअ-वञ्चित, प्रतारित अवाहिय-अध्यासित अविउत्थग-स्थान-विशेष अविउल -अनुद्विग्न अवियज्झ-आयत्त, प्राप्त अविरिक्क-सायंकालीन भोजन अविहंग-स्वभाव से-स्वभावतः ___इत्यर्थे देशी अविहंडिय-परिपूर्ण अविहिअ-मत्त, उन्मत्त
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परिशिष्ट १ अब्बारिट्रि-नटखटपन अग्धो-अहो असआणा-बुभुक्षा, भूख असइ-अभाव, अविद्यमानता असराल-१ विकराल । २ ___अश्वशाला असालिय-सर्प की एक जाति असाहार-अतुल, अनुपम असुहावणय-अशोभन अस्संगिअ-आसक्त अहट्ट-प्रपंच महद्ध-स्नेह-रहित अहासंखड-निष्कम्प, निश्चल अहिउत्त-व्याप्त, खचित अहिट्टिय-हर्षित अहिरिअ-शोभाहीन, विच्छाय अहिरीमाण-१ अमनोहर ।
२ अलज्जाकारक अहिरेइअ-परिपूर्ण अहिरोइय-पूर्ण अहिहरअ-देवालय अहेल्ल-ईश्वर
आ
| आइंधण-परिधान आउल्लय--जहाज चलाने का
काष्ठमय उपकरण-विशेष | आकड़िय-बाहर निकाला हुआ आकासिय-पर्याप्त, काफी आगमेसि-आगामी आडंबर-पटह आडविअ-चूर्णित आडियत्तिय-१ शिविका-वाहक
पुरष । २ सुभट आकुंभण-गड़बड़ आडोर-चंडाल, श्वपच आणक्क-तिर्यक्, तिरछा आणिक्क-तिर्यक्-तिर्यगर्थे देशी आदअ-दर्पण आप्पण-पिष्ट, आटा आभिट्ट--भिडना आभिट्ट-१ प्रवृत्त । २ समभिगत,
जाना हुआ आभिट्ठ-भिड़ना आभिडिय-१ भिड़ा हुआ।
२ प्रवृत्त आभेडिय-प्रवृत्त आमल्लअ-धम्मिल्ल-रचना, जूडा
बांधने की कला आयल्ल-१ व्याकुल । २ चाह ।
३ कामपीडा आयल्लया–बेचैनी आयल्लिय-१ आक्रान्त, व्याप्त ।
२ उत्कंठित । ३ पीड़ित आरंतिअ-मालाकार आरायण-युद्ध रचना
आ-१ स्मरण, याद । २ समन्तात्, __चारों ओर आअ-दही आअट्टिआ-१ परायत्त । २ नववधू आअर-मुसल आअलण-रतिगृह आअल्ल-केशबंध आअल्लय-आकांक्षा आअल्लियय-उत्कण्ठित
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४४८
आरोग्गरिअ – रक्त, रंगा हुआ आरोह - १ प्रवृद्ध, बढ़ा हुआ | २ गृहागत, घर में आया हुआ
आलक्क- पागल कुत्ता आलत्थअ- - मयूर आलस-बिच्छू
आलिद्ध - १ आलिङ्गित । २ व्याप्त आलिसिंदय - धान्य- विशेष आलुंखिय-आस्वादित
आलुधिअ-स्पृष्ट— स्पृष्टार्थे देश आलुयार - निरर्थक, व्यर्थ
आलोल - केशबंधन
आवग्ग- -१ आरूढ । २ स्वाधीन
आवग्गी-स्वाधीना
आवरिल्ल - १ आवृत । २ चंचल
भावसण - रतिगृह
आवाह - इक्षुवाटी
आविलिअ - कुपित, क्रुद्ध आवील - शिरोभूषण, माला
आवृत्त - भगिनी पति, बहनोई आवेढिअ-आवेष्टित
आवेवअ - १ विशेष आसक्त ।
२ प्रवृद्ध, बढ़ा हुआ आसंघ - आस्था आसंघिय - आश्रित
आसकलिय- प्राप्त
आसगलिअ - १ प्राप्त । २ आक्रान्त आहट्ट - १ आडंबर । २ उपाधि आहड--सीत्कार
आहर - जाहर — गमनागमन आहविअ - चूर्णित आहित्य - व्याकुल, त्रस्त
देशी शब्दकोश
आहित्य विहत्थ – आकुल-व्याकुल | आहिद्ध - १ रुद्ध, रुका हुआ । २ गलित, गला हुआ
आहट्ट - साढ़े तीन
आहुट्ठ - अर्धचतुर्थ, साढे तीन
आहुत्त - सम्मुख, सामने
इ
इक्कुसी - नील कमल इच्छा उत्त- १ योगिनी-पुत्र । २ ईश्वर
इदुर - १ गाड़ी के ऊपर लगाने का आच्छादन - विशेष । २ ढकने का पात्र - विशेष
इद्धग्धिम -- हिम इल्लपुलिंद - व्याघ्र इल्लिय - आसिक्त
इव्ह - अभ इसअ - विस्तीर्ण
ईरिण-स्वर्ण ईसोसि -- अल्प
र्ड
उ
उअआर - समूह उअविअ -- उच्छिष्ट
उत्तण-वस्त्र, निवसन
उएट्ट – शिल्प- विशेष उओग्गिअ - संबद्ध, संयुक्त उं--१ निंदा, क्षेप । २ विस्मय ।
३ खेद \४ वितर्क । ५ सूचनइन अर्थों का सूचक अव्यय उंगा हिअ - - उत्क्षिप्त
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परिशिष्ट १
४४६
हुआ
उंबरय-कुष्ठ रोग का एक भेद । इत्यर्थे देशी उकुरुडिया-कूडा डालने का स्थान | उक्कोट्टिय–अवरोध-रहित किया उक्कअ-प्रसृत, फैला हुआ।
हुआ, घेरा उठाया हुआ। उक्कंछण-काठ पर काठ के हाते | उक्कोडिय-रिश्वतखोर, घूसखोर
से घर की छत बांधना, घर । उक्कोसिअ--पुरस्कृत, आगे किया का संस्कार-विशेष
हुआ उक्कंडिअ-१ आरोपित । उक्खय- उद्गत २ खण्डित
उक्खुत्त-काटा हुआ उक्कंद-विप्रलब्ध, ठगा हुआ
उक्खडिय--उखड़ा हुआ उक्कंपिय-धवलित, सफेद किया
उग्गाल-लघु स्रोत
उग्गाविर-उद्गमक उक्कंवण-घर का संस्कार-विशेष,
उग्गाहिअ-उत्क्षिप्त काठ पर काठ के हाते से घर
उग्घक्क-प्रलपित की छत बांधना
उग्घय–विस्तीर्ण
उग्घवियय-पूर्ण उक्कग्ग–अनवस्थित
उग्घोसिय-मार्जित उक्कज्ज-अनवस्थित, चञ्चल
उघण–पूर्ण, भरपूर उक्कट्टी-कूपतुला
उच्चंड-पराक्रम से रचित चरित उक्कनाह-उत्तम अश्व की एक उच्चंडिग-१ निःसीम । २ प्रचुर जाति
उच्चंडिय-ऊंचा चढ़ाया हुआ उक्करड--१ अशुचि-राशि।।
उच्चंत--गाढ २ जहां मैला इकट्ठा किया जाता उच्चत्ता-थोक में बेचना है वह स्थान
उच्चदिअ-मुषित, चुराया हुआ उक्करिअ-१ विस्तीर्ण ।
उच्चल्ल-१ दृष्ट । २ अध्यासित। २ आरोपित । ३ खंडित
३ विदारित उक्कास--१ उत्क्रुष्ट । २ उत्कृष्ट उच्चाइय-उत्थापित, उठाया हुआ उक्कासार-भीरु
उच्चाडन-१ उपवन । २ शीत उक्किअ-प्रसृत, फैला हुआ उच्चुग--अनवस्थित उक्कुइय-ऊंचा उठाया हुआ उच्चुरण-उच्छिष्ट, जूठा उक्कुड-ठगा हुआ, विप्रलब्ध
उच्चोड-शोषण उक्कुरड-कूड़े-कचरे का स्थान- उच्चोली-कटि-वस्त्र
उत्करसमूहस्थाने देशी उच्छड्डिअ-चुराया हुआ, मुषित उक्कोइय-उत्पादित-उत्पादित | उच्छलय-गृह, घर
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४५०
देशी शब्दकोश उच्छल्ल-उत्क्षुब्ध
| उड्डिय-उत्क्षिप्त उच्छल्लणा--अपवर्तना, अपप्रेरणा
उड्डुइय-डकार उच्छिरण-- उच्छिष्ट, जूठा उड्ढंक-मार्ग का उन्नत भूभाग उच्छुण्ण-परिपूर्ण
उड्डण-उत्तरीय वस्त्र उच्छुरिअ-आपूर्ण
उडि-गाड़ी का एक अवयव उच्छढ-आरूढ, ऊपर बैठा हुआ
उडिया-१ पात्र-विशेष । उच्छरण-उच्छिष्ट
२ कंबल आदि वस्त्र उच्छोला-प्रभूत जल
उणाइ-प्रिय, पति उज्जगिर-उजागर
उणिआ-कृसरा, यवागू उज्जाडिअ-उजाड किया हुआ उण्णाह-तीव्र प्रवाह उज्जाविय-विकसित
उण्हालय-ग्रीष्मकाल उज्जोगल-भट
उत्त-वनस्पति-विशेष उज्झ--अरम्य
उत्तण--गर्वित उज्झंसिय--तिरस्कृत
उत्तत्त-अध्यासित, आरूढ उज्झणिअ-१ विक्रीत, बेचा हुआ।
उत्तह-तत्र, उधर २ निम्नीकृत, नीचा किया हुआ उत्ताणफल-एरंड उज्झमाण-पलायित, भागा हुआ उत्तार-आवास-स्थान उज्झल-प्रबल, बलिष्ठ
उत्ताल-गवित उज्झलिअ-१ प्रक्षिप्त, फेंका हुआ। उत्तावलय- उतावल, शीघ्रता २ विक्षिप्त
उत्तावलिय - त्वरणशील उज्झसिअ--उत्कृष्ट, उत्तम
उत्तिरिविडिअ-एक के ऊपर एक . उज्झिय-१ शुष्क, सूखा हुआ।
- चिना हुआ २ नीचा किया हुआ
उत्तिवडा--एक के ऊपर एक रखे उटेंट-उन्मत्त
हुए भाजनों का ढेर उद्ध-नियंत्रित
उत्तुप्पिय-लिप्त, चुपड़ा हुआ उडब-लिप्त, पोता हुआ
उत्तेडिय-बूंद-बूंद कर फैला हुआ उडाहिअ-उत्क्षिप्त, फेंका हुआ
उत्तोलिय–छुटकारा उडिअ-अन्विष्ट, खोजा हुआ
उत्थय-आच्छादित उडिल्लय-उरद, माष
उत्थार-आक्रमण उड्डमर-उद्भट, उत्कृष्ट उत्थिअ-रण में प्राप्त उड्डामर-सुंदर, उत्कृष्ट
उथाउ-अथवा उड्डाहिअ-उत्क्षिप्त
उदूग-पृथ्वी-शिला
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४५१
परिशिष्ट १ उदूलिय–अवनत
उप्पेलिअ-उन्नमित उद्दअ-श्रान्त, थका हुआ
उप्फाल–पटह-ध्वनि उद्दच्छिअ-निषिद्ध
उप्फालिअ--१ कथित । २ सूचित उदाण-१ कुरर । २ सगर्व । ३
उप्फेर-भय प्रतिध्वनि
उप्फोडिआ-संवारी हुई उद्दारिअ--उत्खात
उब्बाल-अध्यासित, सहन किया हुआ उद्दालिअ-१ रणद्रुत । २ झपटना
उब्बिबिर-खिन्न, उद्विग्न उद्धअ-शान्त, ठंडा
उब्बुडुणनिब्बडण-उन्मज्जनउद्धच्छ-लिप्त
निमज्जन उद्धण-उद्ध त, अविनीत उद्धरिअ-१ पीडित । २ विनाशित
उब्भग्ग-मुंडित उद्धल-दोनों तरफ की अप्रवृत्ति
उब्भिट्ट- उच्छिन्न उद्धव-प्रमोद, उत्सव
उभिय-ऊचा किया हुआ उद्धारय-उधार पर खरीदना
उम्मंथिय-दग्ध, जला हुआ उद्धधलिय-धुंधलाया हुआ
उम्मत्तय-धतूरे का फल उद्धधुल-धुंधला
उम्माहय-अत्याकांक्षा से उत्पन्न उद्धृसिअ-रोमांचित
व्याकुलता उद्धृ लिअ-अवनत
उम्माहिम-उत्साहित, उत्कंठित उप्पंग- समूह, राशि
उम्मिठ-हस्तिपक-रहित, महावतउप्पक्किआ-धोबिन
___रहित उप्पड्डिअ-नष्ट
उम्मिट्ट-बाहर निकला हुआ उप्पत्त-१ गलित । २ विरक्त उम्मेंठ-महावत-रहित उप्पद्द-घर, गृह
उम्मे?-महावतरहित उप्परवट्ट--श्रेष्ठ
उय्यकिअ-इकट्ठा किया हुआ उप्पा-मणि आदि रत्नों पर 'ओप' उरअ-ऋजु चढाना
उरणी-पशु उप्पालअ-रणरणक, कामदेव उरविय-१ आरोपित । २ खण्डित उप्पिअ-१ अपहृत । २ रुष्ट । ३ उरितिय-त्रिसरा हार, तीन लड़ वियुक्त
वाला हार उम्पिगरिअ-हस्तोत्क्षेप
उरुमल्ल-प्रेरित उप्पिणिर-शून्य
उलुओसिअ-रोमाञ्चित, पुलकित उप्पुलपोलिअ--कुतूहलपूर्वक त्वरा उलुकुसिअ-रोमांचित उप्पेस्थ-उन्मत्त
| उलुइंडिय-हिनहिनाहट
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देशी शब्दकोश
उलहलअ-अवितृप्त, तृप्ति रहित उलुहुलिअ-अवितप्त उल्ल--ऋण, कर्जा उल्लक्क-१ भग्न, टूटा हुआ । २
स्तब्ध उल्लक्किअ-त्रोटित, तोडा हआ उल्लट्ट-उल्लुंठित, खाली किया
हुआ उल्लहिय-भाराकान्त, जिस पर
बोझा लादा गया हो उल्ललण-उत्प्लवन उल्लाय-रोग-मुक्त उल्लाय-लात मारना, पाद-प्रहार उल्लालिय उन्नमित उल्लिचिय-उद्रिक्त, खाली किया
हुआ उल्लिक्क-दुश्चेष्टित उल्लिया-राधावेध का निशाना उल्लिर-गीला उल्लिहड-आसक्त उल्लुअ-१ पुरस्कृत, आगे किया
हुआ। २ रक्त, रंगा हुआ । ३
उदय-प्राप्त उल्लुक--स्तब्ध उल्लुज्झण-पुनरुत्थान, कटे हुए ___ हाथ-पांव की फिर से उत्पत्ति उल्लुसिअ-रोमांचित उल्लुहंडिअ-उन्नत, उच्छित उल्लूरिय-हलवाई उल्लोक-त्रुटित, छिन्न उल्हविय-बुझाया हुआ, शान्त
किया हुआ
। उवइय-त्रीन्द्रिय जीव-विशेष
उवक्खेव-बालउत्पाटन, मुण्डन उवज्झिय-आकारित, बुलाया हुआ उवडिअ-अवनत, नमा हुआ उडिडिम-डुगडुगी उवयासिय-आलिङ्गित उरिहत्त-ऊर्वाभिमुख उवलंडंत-चूडावलय उवसई-सारथि उवसेर-रथ के योग्य उवह--'देखो' अर्थ को बताने वाला
अव्यय उविय-शीघ्र उव्वत्ताल-अविच्छिन्न स्वर से
रोदन उव्वरियय-अवशिष्ट उव्वस-उजड जाना उव्वार-उद्धरण, रक्षण, उबारना उव्वारुय-अवशिष्ट उव्वाहल-उत्सुक उठवाहलिय-उत्सुक, उत्कण्ठित उव्विक्क-प्रलपित, प्रलाप उविड-१ चकित, भीत ।
२ क्लान्त, क्लेशयुक्त । उग्विल-१ चकित । २ क्लान्त उज्वेल-कौशल उसड्ड-ऊंचा उसलिअ-रोमाञ्चित, पुलकित उस्सिघिय-आघ्रात, सूघा हुआ उस्सिक्किअ-मुक्त, परित्यक्त उहर---अवाङ्मुख, अधोमुख उहार-जन्तुविशेष उहिंजल-चतुरिन्द्रिय जन्तु-विशेष
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परिशिष्ट १
४५३
| ओउल्लिय-पुरस्कृत, आगे किया ऊगिय-अलंकृत ऊढ-त्यक्त
ओऊल - प्रलंब कमिणिय--प्रोञ्छित, पोंछा हुआ
ओंदुर--चूहा ऊमिण्ण-प्रोखणक, चूमना ओक्खलिअ-त्रुटित ऊरिसंकिअ-रुद्ध, रोका हुआ ओग्गालिर-पगुराने वाला, चबाई ऊससिअ---तकिया
हुई वस्तु को पुनः चबाने वाला ऊसाअत्त-खेद से शिथिल
ओग्गिव-नीहार ऊसुग-मध्यभाग
ओच्छंदिअ-१ अपहत । ऊसुम्मिअ-तकिया
२ व्यथित, पीड़ित ओच्छल्ल-चोर
ओच्छोअअ-घर की छत के प्रान्त एक्कंतर-संग्राम
भाग से गिरता पानी एक्कक्कम-परस्पर, अन्योन्य
ओज्जर-भीरु एक्कट्टय-एक ओर
ओज्झरय-निर्भर एक्कल-प्रबल
ओज्झरिअ-१ प्रक्षिप्त । एक्कल्ल-१ बलवान् । २ अकेला
२ विक्षिप्त एक्कल्लपुडिंगय-फुहार, बूंदाबूंदी
ओट्टअ-अभिभूत एक्कसिरिआ—शीघ्र, जल्दी
ओट्टद्धय-नियंत्रित एक्कोवर-सहोदर
ओडिगा-ओढ़नी एत्तण-अधुना, इस समय ।
ओढण-१ वस्त्र । २ अवगुंठन एलविल-धनवान्, पुण्यवान्
ओढिय-ओढा हुआ
ओणल्लिय-अवनत ओअंदण-१ नाश । २ जबरदस्ती ओप्प-ओप, चमक से छीनना
ओमंस-अपसृत, अपगत ओअम्मअ-अभिभूत, पराभूत
ओमल्ल-घनीभूत, कठिन ओअल्ल-अवनत-अवनते देशी
ओमहिअ-पुरस्कृत ओअल्लअ-विप्रलब्ध, प्रतारित | ओमिस-अप्रवृत्त ओअल्लिअ-कंपित
ओम्माहिय-उत्कण्ठित ओअल्लिय-आद्रित
ओरल्लि-मधुर-दीर्घ शब्द ओआमिअ--अभिभूत, पराजित ओराल-सिंहनाद ओइल्लअ-वंचित, विप्रलब्ध ओरालिय-आक्रन्दन
ओ
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देशी शब्दकोश ओराली-दीर्घ आवाज
२ अभिभूत ओरिल्ल–पश्चात्
ओहारइत्त-दूसरे पर मिथ्याभियोग ओरी-समीप
लगाने वाला ओलअण-१ पत्नी । २ नववधू ओहिअ-अधोमुख ओलगा-सेवा, भक्ति
ओहुल्ल-१ खिन्न । २ अवनत, ओलग्गा-सेवा
नीचे झुका हुआ ओलग्गिय–सेवित
ओहुल्लिय-म्लान ओलाव-बाज पक्षी ओलुक्को-आंखमिचौनी ओलुग्ग-शोभाशून्य
कइवार-स्तुति-पाठ ओलुग्गाविय--१ बीमार ।
कउड- ककुद, बैल के कंधे का २ विरह-पीड़ित
कूबड़ ओल्ली --पनक, काई
कउसीस—मंदिर का शिखर ओवग्गिअ-अवगृहीत
कओहुत्त-किस तरफ ओवरिय-राशीकृत
कंकअसुकअ-अल्प सुकृत-लय ओवाअअ-जल-समूह की गरमी
कंकर-कंकर ओवारिअ-ढेर किया हुआ,
कंकसी-कंघी राशीकृत ओसक्कण-अपसरण, पीछे हटना
कंकाल-वर्षाकाल
कंगणी-वल्ली-विशेष ओसक्किअ-मुक्त ओसट्टा--विकसित, प्रफुल्ल
कंचीरय-पुष्प-विशेष
कंछल्लो-हार ओसडिअ-आकीर्ण, व्याप्त
कंटी---उपकण्ठ, पर्वत की निकटवर्ती ओसत्त-अवनत ओसत्थ- आलिंगन
भूमि ओसरी-अलिंदक
कंटोल्ल-वनस्पति-विशेष
कंठाल-कडाह ओसविअ--अवसन्न
कंडच्छारिय-१ गांव । २ ग्रामओसाअण-१ महीशान, जमीन का | ___ मालिक । २ आपोशान
प्रमुख । ३ देश । ४ देश-प्रमुख। ओसिरण-व्युत्सर्जन, परित्याग
५ लुटेरा, हत्यारा। ओसुद्ध-निपतित, अवपतित
६ लुटेरों का सहायक ओहली-ओघ, समूह
कंडदोणार-बाड़ का विवर ओहल्ली -दूर हटना, अपसृति कंडपडव-चंदोवा ओहामिय-१ तुलित ।
कंडारिय--कुपित
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परिशिष्ट १
कंडो हिय - मथित - मथित इत्यर्थे देशी
कंद - मेघ, बादल कंदल - शोरगुल कंदुब्बय – कन्द- विशेष
कंधार-स्कन्ध
कंपर -- विज्ञान, निपुणता
कंबिया - यष्टि
काणि मर्मस्थान
कक्कड - कर्कश
कक्कर - पर्वत-शिखर
कक्काल — कंकाल
-
कक्कोलय -- फल- विशेष
कक्खड - कठोर
कचोर -- काचरी, कच्चरा कच्च
-- काच
कच्चरा - १ कचरा, कच्चा
खरबूजा । २ कचरे को सुखाकर, तलकर और मसाला डालकर बनाया हुआ खाद्य विशेष
कच्चवार -- कतवार, कूड़ा कच्चोल - कटोरा - पात्रविशेषे देशी कच्चोलिय-थाली, पात्रविशेष कच्छकर -- काछिया, सब्जी बेचने
वाला
कच्छट्टी - कछोटी, लंगोटी कच्छादब्भ - रोग-विशेष
कच्छुट्टिया - कछोटी, लंगोटी कच्छोटी-कछोटी
कच्छोट्ट - लंगोटी
कच्छोय -- लंगोटी कटुयाविय ---व्यथित
कट्टराय - छुरी, शस्त्र - विशेष कट्टोरग — कटोरा
कड-घर के पीछे का आंगन
कडउल्ला - आभूषण - विशेष कडक्क – 'कडाक' से टूटना
कडत्तय क्षीणत्व कडत्तरिअ - दारित, विदारित कडद्दरिअ - १ छिन्न, काटा हुआ । २ छिद्र
૪
कडमड - उद्वेग
कडयड --- वृक्ष के गिरने की आवाज कडयडंत - कडकडाता हुआ कडय डिअ - परावर्तित, फिराया
हुआ कडा-कड़ी, जंजीर की लड़ी कडिअ -- खुश किया हुआ कडिभिल्ल - शरीर के एक भाग में होने वला कुष्ठ रोग कडिल्लिय - १ कटी-वस्त्र |
२ जंगल
कडुयावि - १ प्रहृत, जिस पर प्रहार किया गया हो वह । २ व्यथित । ३ हराया हुआ । ४ विपदा में फंसा हुआ
कड्डय - चुम्बक - पाषाण
कड्ढाकड्डि - परस्पर आकर्षणविकर्षण
करसी - श्मशान
करिठाण - पैंतरा
करिमरि बंदिनी स्त्री
करीट - हाथी का प्रतिक्षेपक
कलं तराजीव- रुपये उधार देकर
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४५६
देशी शब्दकोश आजीविका करने वाला
कणआ--नीवी कलब-तुम्बा
कणई-शाखा कलमल-१ कामपीडा । २ कंपन, कणखल-उद्यान-विशेष थरथराहट
कणवी-कन्या कलमलय-कालुष्य, ईर्ष्याजनित खेद | कण्णमाण -विनयशील .
(मराठी-कलमल-तलमल) कण्णारय-१ तीखी आर। कलय--अर्जुन-वृक्ष
२ पशुओं को तीखी आर लगाने कलयज्जल-ओष्ठ-लेप, होठ पर
वाला लगाया जाता लेप-विशेष
कण्णाराम-मुकुट कलरोल-मधुर रव
कण्णोविआ-१ चंचु । २ मुकुट कलवलय-कलरव
कत्त-नारी, पत्नी कलि-बेहडा
कत्तर-कूड़ा-कचरा कलिय-पोतना
कत्ति-संधिका' नामक द्यूत में कलुयाल-छोटी मछली
प्रयुक्त होने वाली कोडी कल्ल-१ अनिश्चित बोलने वाला। | कत्तिवविय--कृत्रिम २ लज्जा । ३ कल
कत्तोच्चय-कहां से कल्लवण-तीमित खाद्य पदार्थ कथ–१ मृत । २ क्षीण, दुर्बल कल्लाविअ-तरल पदार्थ से मिश्रित कन्नारिय-विभूषित कल्लरिय-हलवाई
कब्बड-वसति-विशेष कल्लोडय--दमनीय बैल
कब्बाड-कबाडखाना कवण-कौन
कब्बाडभयय-ठेके पर जमीन खोदने कवलिआ-ज्ञान का एक उपकरण का काम करने वाला मजदूर कवसीस-मंदिर-शिखर
कमड-भिक्षा-पात्र कपिलडोला-क्षुद्र जन्तु-विशेष कमल-१ मुंह । २ चोर कवुड्डी-कौडी
कम्मत-कर्म-बन्धन का कारण कव्वट्ठ-बालक
कम्मरिअ-कर्मकर कव्वाडिअ-कांवर उठाने वाला, कयर-धूलि
बहंगी से भार ढोने वाला कयरस-स्वर्ण कस किसिर- जकड़ा हुआ
कयवरुज्झिया-कूड़ा साफ करने कसमस-कसमसाहट
वाली दासी कड्रिअ-बाहर निकला हुआ कयसेहर-कूकड़ा, मुर्गा कड्ढोयडिढ-कर्षण-विकर्षण
| करअड-स्थूल वस्त्र, मोटा कपड़ा
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परिशिष्ट १
करअडी — स्थूल वस्त्र करंड - १ शार्दूल । २ कौआ । ३ अर्गला
करकट्ट -- ले जाने योग्य पदार्थ
करकड - कठिन
करकडी - चिथड़ा जो प्राचीन काल में वध्य पुरुष को पहनाया जाता
था
करचंड - अनर्थ करने वाला करट्ट - अपवित्र अन्न को खाने वाला
ब्राह्मण
करड - कठिन कठिन इत्यर्थे देशी करणिल्ल - समान करतक्कड - ध्वनिपरक सादृश्य करयरंत- -- करकर आवाज
करना---शब्दानुकरणे देशी
करल्ल -- अवशुष्क
करव -- जलपात्र
करविया पान - पात्र - विशेष कसर - १ बलीवर्द, बैल । २ पांडुर कसरक्क - कुड्मल, अर्धं विकसित फूल
कसार --- एक प्रकार की मिठाई कसेर - तृण - विशेष
कसेरु – तृण - विशेष
कसोति - खाद्य विशेष
कहकहंत — कह कह की आवाजशब्दानुकरणे देशी
कहोड - तरुण
काउल-कौल जाति
काऊसाय - कायोत्सर्ग काणड्डी -- परिहास
काणि वर arfree-बड़ी ईंट
कायपिउला - कोकिला
कायमाण-आसन
कारंड— नीड़
कारट्टय - मृत भोज कारायणी - शाल्मली - वृक्ष कारिल्ली - वल्ली - विशेष कालक्खरिअ - १ उपालब्ध, निर्भत्सित । २ निर्वासित
कालण - मनुष्य कालिंबअ - १ शरीर । २ मेघ कालिया - १ ऋणवृद्धि | २ मेघमाला
कालियावअ - तूफान
कालय - अश्व की एक उत्तम जाति कावंजय - पक्षी - विशेष
कावड - कांवर
कावडिअ - कांवर से भार ढोने वाला कावाइय - चालाकी
काहल -- अधीर, उतावला किं किय-- सफेद, धवल किजुक्ख - शिरीष का वृक्ष किक्कडी - सर्प किडिकडिजंत किड - किड की
४५७
-->
आवाज करता हुआ
किणइय - शोभित
किणो - प्रश्नवाचक अव्यय कण्णरस - वाद्य विशेष किण्हग - वर्षाकाल में घड़े आदि में
होने वाली एक तरह की काई किपrs - स्खलित, गिरा हुआ
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४५८
देशी शब्दकोष किमिघरवसण-रेशम का वस्त्र | कूट-१ कोट, किला । २ नगर, किम्मिय--जड़ता
शहर किम्मीर --विचित्र
कुट्टण-कूटना किर -- मंबंधार्थक अव्यय
कुट्टमिअ-महिष किरिकिरिआ--१ कर्णोपकणिका । कुट्टवाल-कोतवाल, नगररक्षक २ कुतूहल
कुट्टार-चर्मकार किरी -वराह, सूअर
कुट्टोअर--कूटादर, शयनागार किलिचिअ-छोटी लकड़ी
कुडंबीअ-सुरत, संभोग किलिकिचिअरमण, क्रीड़ा
कुडंग-लतागृह किलिकिलित ---बन्दरों का
| कुडंगण-लतागृह-लतागृहमित्यर्थे
देशी किलकिलाना किलिगिलिय--अनुकरणवाची शब्द
कुडुंबिय-मैथुन किलिणी---१ प्रतोली। २ गली
कुडुंबीय-रतिक्रीड़ा-विशेष किवाड --- स्खलित
कुडुव-बजाने का काष्ठ कीव-पक्षि-विशेष
कुडु-कुतूहल कीस-प्रश्नसूचक अव्यय
कुड्डाल-हल के ऊपर का विस्तृत
अश कुइमाण - म्लान,शुष्क
कुढ-पीठ कुई -- बलाका
कूढिलग्ग-न्यायालय में जिसकी कुट -१ कुब्ज । २ हस्त-विकल
जांच हो रही हो वह कुंठी-चिमटा
कुण्हरिया-वनस्पति-विशेष कुंडभी-छोटी पताका
कुत्ती-कुत्ती, कुतिया कुंडिय-खरण्टित
कुद्दहीर-१ बालक । २ चन्द्रमा कुंढ-१ हस्तहीन । २ वामन
कुप्पास-चोली कुंभी-कपड़े में बांधा हुआ स्वर्ण
कुबड-कूबडा, कुब्ज आदि द्रव्य
कुरुमालण-खुजलाना कुंयरी--कुमारी
कुरुया-शरीर-प्रक्षालन कुक्क-कुत्ता
कुरुलिअ-कौए की आवाज कुक्कयय-आभरण-विशेष
कुरूढ-१ पवित्र । २ निपुण कुक्को—कुत्ती
कुललय-कुल्ला, गंडूष कुक्कु-अग्नि
कुलूक्किय-जला हुआ कुक्कुडिया-खाद्य-विशेष कुल्लुरिय-हलवाई कुच्छिणी-बाड का छिद्र
कुवलय-बदर
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परिशिष्ट १
४५६ कुवली-वृक्ष-विशेष
कोच्छर-१ कुशल । २ कुत्सित कुविल-चोर
कोज्जरिअ-पूरित कुहणी-१ रथ्या । २ कोहनी, कोट्ट-प्राकार-भित्ति, कोट कूर्पर
कोट्टमिय- रतिक्रीड़ा-विशेष कुहाडय-कुठार
कोट्टवाल-नगररक्षक कुहिण--कूपर, कोहनी
कोट्टा --प्राकार कुहिणी-मार्ग
कोडकौतुक कर-ओदन-ओदनार्थे देशी
कोडमिय–रतिक्रीड़ा-विशेष करपिउड--भोजन-विशेष
कोडि-मुर्गा कवार-१ चिल्लाहट । २ पुकार कोडिय--पिशुन, चुगलखोर केआ-क्रीडा
कोडुमिय-रतिक्रीड़ा-विशेष केऊरपुत्त--गाय तथा भैंस का
कोड्डय-आश्चर्य बच्चा
कोडावण-कौतुक करना-कौतुककेंज ---१ रज्जु । २ असती।
करणं इत्यर्थे देशी ३ कन्द
कोड्डावणय-कौतुकोत्पादक केक्कार-पक्षियों का शब्द-विशेष
कोड्डावणिय-कौतुक करने वालाकेड्डु----१ व्यापकता २ । फेन ।
__ कौतुककारक इत्यर्थे देशी ३ साला। ४ दुर्बल
कोड्डिय-कुतूहली. केणअ--पूजाद्रव्य
कोड्डी - कुतूहली केत्तडय-कितना
कोणाली-गोष्ठी केयरी-वृक्ष-विशेष
कोणेट्रिया-गुञ्जा केर-१ सेवा । २ आज्ञा
कोण्णाअ-म्लान केरअ-यह उसका है-इस अर्थ में | कोत्थुअवस्थ-नीवी प्रयुक्त अव्यय
कोदूमिय—सूरत, संभोग केवइय-कितना
कोद्दाल-कुदाल
कोप्पर-१ वर्णसंकर । २ जाल कोकाविअ—'को' शब्द से आहूत
कोमाणय-म्लान कोक्कंत-'को' ऐसा शब्द करने
कोर--अनुपभुक्त वस्त्र वाला
कोव-ईषत्, थोड़ा कोक्कय -आमंत्रित करने वाला
कोसिअ-जुलाहा कोक्काविअ-आहूत, आकारित
कोह-कोयली, थैला कोक्किय-आहूत कोच्छभास--काक, कौआ
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४६०
देशी शब्दकोश
खत्ति--एक म्लेच्छ-जाति
खत्थ-संतप्त खंचण-कर्षण, खीचना
खत्थय--भीत खंडपयार-एक प्रकार की मिठाई
खम्नवाइ-वह व्यक्ति जो यह मानता खंडसोल्ल–चीनी से बना खाद्य
हो कि खान से बहुमूल्य रत्न पदार्थ
आदि निकालने से वह धनाढ्य खंडिआ-माप-विशेष, बीस मन का
होगा एक माप
खप्पिअ-परिपूर्ण खंडीधारा-अति उष्ण पानी की |
खब्बण-दक्ष धारा
खयाल-१ वंस-जाल, झाड़ी। खंडुअ-हाथ का आभूषण-विशेष,
२ पर्वत-गर्त बाजूबंद
खरंसूया-वनस्पति-विशेष खंदजी-स्थूल इन्धन की अग्नि
खरडिय-खरंटित खंधलट्टि-हाथ, भुजा
खरुग्णा-विषम भूमि खंपण-कलंक
खलभल-खलबलाहट, क्षोभ खंपणय-वस्त्र
खलभलिअ---क्षुब्ध खक्खरग-सूखी रोटी
खलहल-क्षुब्ध खगउड-पक्ष-पुट
खलि-संबोधन-सूचक अव्यय खट्टावण्ण-खट्टा तीमन
खलिण-लगाम खट्टिक्क-कसाई
खलियारिय-कर्थित खट्रिग-कसाई
खली-चीनी खडक्क-पर्वत, शिलाखंड
खल्लि-सिर की वह चमड़ी जिसमें खडट्टोबिल-एक म्लेच्छ-जाति बाल पैदा न हों खडफड-छटपटाहट
खल्लिहडअ—खल्वाट, गंजा खडयासी-तृणभक्षक
खल्ली-खाली खडरिस-कलुषित
खवल-क्षोभ, खलबलाहट खडहडरव-बादलों का गरिव खसर- कर्कश खडहडिय-शिथिल किया हुआ खसिअ-१ आपूर्ण । २ खिसका हुमा खडहार-तृणभार
खसु-रोग-विशेष खडिअ-दवात, स्याही का पात्र खाण—एक म्लेच्छ-जाति खड्ड--खेल
खारिक्क---फल-विशेष, छुहारा खड्डिक्क-कसाई
खिल-१ ऊषर भूमि । २ अकृष्ट खड्डोलय-खड्डा, गर्त
भूमि
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४६१
परिशिष्ट १ खिल्लहड-कन्द-विशेष
समय हंसना खिल्लहल-कन्द-विशेष
खेड-आलिङ्गन खिल्लुहड-कंद-विशेष
खेडय-अग्राहार, बलि खोसण-खींसना, झूरना
खेडिया-१ बारी, दफा । खुइय-१ विच्छिन्न । २ विध्यात, | २ खिड़की शांत
खेर-१ एक म्लेच्छ-जाति । २ द्वेष खुंगाह-अश्व की एक उत्तम जाति
| खेरि-द्वेष खुंट-१ स्तम्भ-स्तम्भ इत्यर्थे देशी। खेल-जहाज का कर्मचारी-विशेष २ खूटी
खेव-आलिङ्गन खुंटण-त्रोटन, खोटना
खेह-धूलि खुंटमोडय-१ खूटे को मोड़ने
खोटग-बूंटी वाला । २ इस नाम का एक
खोटय-खूटा, खूटी हाथी
खोंडग-खूटी खुज्जुल्लिय-कुब्ज
खोज्ज-मार्ग-चिह्न खुडिया-स्वल्प रति-क्रीडा खोट्रिय-बनावटी लकड़ी खुडुक्किअ-१ शल्य की तरह चुभा खोट्टिया-कुट्टिनी, दासी
हुआ। २ रोष-मूक, गुस्से में मौन | खोडी-दासी धारण करने वाला
खोर-१ कलुषित, तुच्छ । खुडुक्खिय-शल्य की भांति चुभा २ मार्मिक हुआ
खोल-लघु, तुच्छ खुड्डमड्डा-१ बहु, अत्यन्त ।
खोल्ल-गंभीर-गम्भीर इत्यर्थे २ पुनः पुनः
देशी। (मराठी खोल) खुत्त-क्षिप्त, प्रहत
खोसला-दन्तुल स्त्री, वह स्त्री खुप्पण-निमज्जन
जिसके दांत बाहर निकले हुए खुरप्प-खुरपा, क्षुरप्र (मराठीखुरपे)
खोहत्त-हाथों से आहत पानी खुरहखुडी-प्रणय-प्रकोप खुरुप्प-शस्त्र-विशेष खुलुखी-मिथ्या घटित होना गउसाउल्ल--विरक्त खुल्लासय-खलासी, जहाज का गंगली-मौन, चुप्पी कर्मचारी-विशेष
गंजुल्लिय-पुलकित खेआलुअ--१ हास । २ हास्य के गंजोल-पीड़ित
हो
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४६२
गंजोलिय - रोमाञ्चित गंजोल्लिय -- क्षुब्ध - क्षुब्ध इत्यर्थे देशी
गंडधारा - गाड़ी का मार्ग गंडप भालण - गंडमाला - रोग
गंडलय - टुकड़ा
गंडली - गंडेरी, इक्षु-खण्ड
गंडिली - इक्षु - खण्ड गंधिल्लीगंधुत्तमा-मदिरा
छाया
गग्गर - गद्गद् आवाज वाला
गज्जिलिअ - १ अंग- स्पर्श से होने
वाला हास्य | २ पुलक
गज्जिल्लिअ -- १ गुदगुदी ।
२ अंगस्पर्श से होने वाला रोमांच
गडयड - गडगडाहट गडवड -- गड़बड़, गोलमाल गडियड --गर्जन
गड्डुरियपवाह- गडरिका-प्रवाह, गतानुगतिकता गडरिया - भेड़ी
गड्डुल - कर्दम से निःसृत गणियारी - हथिनी
गद्द — गाढ
गद्दहिला - बैल आदि को चलाने के लिए त्राजन में लगाई जाती आर, लोहे की कील
गमरोट्ट – शेखरक, शिरोमाल्य
गमार -- अविदग्ध, मूर्ख गमिअ- अवधूत
गमिद - १ अपूर्ण । २ गूढ़ |
३ स्खलित
गरुड - एक प्रकार का ब्रीहि धान गरुलिया - शास्त्राभ्यास की स्थली गल गिज्ज -- घुग्घुरावलि, किंकिणीपंक्ति
देशी शब्दकोश
गलच्छण - फेंका हुआ गलच्छिय-पीड़ित, प्रेरित - प्रेरित इत्यर्थे देशी
-
गलत्थ -१ क्षेपक, विनाशक
२ ग्रस्त
गलत्था - प्रेरणा गलत्थिय - कदर्थित गलद्धअ - प्रेरित, क्षिप्त गलमोडी - गले की वक्रता गलहत्थण -- ग्रसित करना गल्लक्क - स्फटिक मणि
गल्लूरण - मांस खाते हुए कुपित शेर की आवाज
गवत्थिय - आच्छादन गवार - ग्रामीण
गविअ - अवधृत, निश्चित
गविल - उत्तम कोटि की चीनी, शुद्ध मिश्री गव्विय-कथित
गहगह - आनन्द से आप्लावित
गहणय - गहना, आभूषण
गहर—गृध्र गहिलिय - उन्मत्त
गहिल्लिय - आवेशयुक्त, पागल गहेर-बन्दी
गाउय - गव्यूति, दो कोस गांडी-मंजरी
गामण - भू-सर्पण, भूमि में गमन
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परिशिष्ट १
गामणह— ग्राम-स्थान
गामरेड – जो छलपूर्वक ग्राम का
-
उपभोग करता है वह
गामहण – सामान्य गामार - ग्रामीण, गंवार गालवाहिया- छोटी नौका, डोंगी
गाव-गत, गया हुआ गिभारि - वर्षाऋतु
गिरिडी -- पशुओं के दांत बांधने का उपकरण- विशेष
गिलोइया - गृह - गोधा, छिपकली गिलोई - छिपकली
गिल्लगंड - गीला - आर्द्र इत्यर्थे देशी
गोढ-घृत, व्याप्त गीर-गुदा, गिरि
गुंजाविअ -- हासित, हंसाया हुआ गुंजोल्लिअ - विकसित
गुंदल -- १ आनन्द-ध्वनि ।
२ आनन्द - वृद्धि |
३ आनन्द-मग्न
गुंदवडय - एक प्रकार की मिठाई गुंदि - मंजरी
गुंफण - गोफन, पत्थर फेंकने का शस्त्र - विशेष
गुज्जणिअसंघटित गुज्जलिअ - संघटित
गुडसोल्ल --- गुड से बना भोज्य
पदार्थ
गुडिअ -- सन्नद्ध
गुडुर — वस्त्र- गृह, तंबू गुड्डुर - शोर मचाना गुणा - मिष्टान्न विशेष
-- इच्छा
गुत्तिय - आसक्त - सक्त इत्यर्थे देशी ( मराठी - गुंतलेली ) गुथिअ— उन्मूलित गुप्पीगुमिअ- भ्रमित, घुमाया हुआ गुमुगुमुगुमंत -- भिनभिनाना गुम्मडिअ - मुग्ध, मोहित गुम्मिअ-मूल से उत्सन्न
४६३..
गुरुहार – गर्भवती गुलिणी -- लतागृह गुलियारय – मधुरतर गुवालिया - वर्षा ऋतु में उत्पन्न होने वाला कीट - विशेष
गेज्ज - ग्रैवेयक, गले का आभूषण गेडण - १ फेंकना । २ दे देना गेड्डा - यव, जौ धान्य
गेड्डी - गेंद खेलने की लकड़ी गोंछ – गुच्छ
गजल --- गले से संबंधित
गोंदल --- १ संग्राम (मराठीगोंधल ) । २ समूह । ३ व्यापार गोंदलिय मिलित
गोच्छड - गोबर
गोजा - कलशी गोड-गोडा, पैर
गोड्डु -१ स्तनों पर दी जाने वाली वस्त्र की गांठ । २ पंक गोणत्तय - वैद्य का औजार रखने
का
गोदा - नदी - विशेष, गोदावरी गोहिल - नागरिक गोप्पी -- बाला
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૪૬૪
देशी शब्दकोश गोमिआ-कनखजूरा, श्रीन्द्रिय घणंवाहिन-इन्द्र जन्तु-विशेष
घणघण-सातिशय गोय-उदुम्बर, गूलर आदि का फल घणघणा-रथ के चक्कों की गोर-१ ग्रीवा । २ आंख ।
ध्वनि ३ हल की रेखा, सीता घत्ति-शीघ्र गोरडित--स्रस्त, ध्वस्त
घत्तिय-प्रेरित गोरप्पडिआ-गोधा
घत्थ-ग्रस्त गोरिहिअ-त्रस्त
घरघरग-ग्रीवा का आभूषण गोला-गाय
घरफरि-धरपटक करना गोसाविआ-१ वेश्या। २ मूर्ख- घलंजिया-गृहदासी-गृहदासीत्यर्थे जननी
देशी गोसिय-प्राभातिक, प्रातःकाल- घल्लय-द्वीन्द्रिय जीव की एक सम्बन्धी
जाति गोहत्तण-पौरुष
घल्लियय-क्षिप्त गोहली-गोधूमाली
घल्लोय-द्वीन्द्रिय जंतु-विशेष घवक्कड़-उद्दीप्त
घसणिअ-बन्विष्ट, गवेषित घअअंद-दर्पण
घाडेरुय-१ खरगोश की एक घई---शीघ्रवाची अव्यय
__ जाति । २ बन्धन-च्युत घंघलिअ-घबराया हुआ
घाणय-कोल्हू, घाणी घंचिय-तेली (घांची-गुज) घार-१ गीध । २ प्राकार घग्घत्थण-खेद
घारिअ-जहर आदि के कारण घग्घर-१ घरघराहट । २ क्षुद्र होने वाली सुषुप्ति घंटिका । ३ घाघरा
चित्त-१ गृहीत । २ क्षिप्त घग्घरय-क्षुद्रघण्टिका
घित्तय-क्षिप्त घग्घरा-क्षुद्र घंटिका-किंकिणी | घिरिहोल-मक्खी शब्दार्थे देशी
घिवण-क्षेपण घटेंसुअ-वस्त्र-विशेष, बूटेदार धुंधुस्सिअ--निःशंक कथन कौसुम्भ-वस्त्र
घुग्घरय-उल्लू की आवाज घड-सृष्टीकृत, बनाया हुआ घुग्घुरुड-राशि, ढेर घडइय-संकुचित
घुग्घुस-धू-धू शब्द करने वाला घडाघडी-गोष्ठी, सभा
घुग्घुस्सुम-निःशंक होकर गया घण-बहुत
हुआ
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परिशिष्ट ।
घुणहणिय-कर्णोपकणिका
| चउहट्ट- शहर का चौराहा चुत्तिम-गवेषित
चओर-पात्र-विशेष घुम्ममाण-घूमता हुआ
चंगत्तण--चारुत्व, सौन्दर्य घुयग-वह पत्थर जो पात्र आदि | चंगय–उत्तम
को चिकना करने के लिए उस पर | चंचिक्किय-विभूषित घिसा जाता है
चंचुप्पर-मिथ्या घहक्क--सिंहनाद
चंचेल-वक्र घुरुक्कार-सूअर आदि की आवाज | चंटिअ—आच्छादित घुरुधुरुधुरंत-धुर्राना
चंडार-भंडार घुरुल्लय-खिलोने का छोटा घर चंद-स्वर्ण घुरहुरिअ-घरघराहट
चंदकव-मयूर घुलिकि-हाथी की आवाज चंदणया-शौचालय धुलिय-१ चंचल । २ घूर्णित चंदिण-चन्द्रिका घुसिम--१ चन्दन । २ कुंकुम चंदुज्जय-कुमुद घयड-उल्लू
चंदेरी-नगरी-विशेष घेउर-घेवर, घृतपूर
चंदोयय-चंदोवा घोडि-बदरीफल
चंपडण-प्रहार घोणस–सर्प-विशेष
चंपण-चांपना, दबाना घोलवडय-दही-बड़ा
चक्कग्गह-मगरमच्छ घोस-गुच्छ-गुच्छार्थे देशी चक्कडिअ-प्रीणित (मराठी-घोस)
चक्कम्मविअ-घुमाया हुआ घोसय-दर्पण रखने का उपकरण- चक्कयर-भिक्षुक विशेष
चक्कलिय-वक्रीकृत चक्कहय-चक्रवाक
चक्खरक्खणा-लज्जा चउक्किआ-आंगन
चच्चरिय-भौंरा चउज्झाइया-नाप-विशेष
चच्चिक्किय-चचित, लिप्त चउरय-चबूतरा
चद्रण-१ नाशक, भक्षक-भक्षक चउरि-लग्नमंडप-लग्नमण्डप
इत्यर्थे देशी। २ चाटना इत्यर्थे देशी
चट्टय-उत्पूत-उत्पूत इत्यर्थे देशी बउरिया-विवाह-मण्डप
चट्टी--चाट चउरी-विवाह-मण्डप
चडआणा—केश, कुंतल चउसर-चार लड़ी वाला हार चडक्का-१ विद्युत् । २ आघात
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४६६
देशी शब्दकोश चडण--आरोहण
चरुव-कलश चडफडत-तड़फड़ाना
चलणाओह-मुर्गा चडयर-आडम्बर
चलवलण-चंचलता चडावण-आरोहण
चलवलय-चञ्चल चडाविय-आरोहित-आरोहित चल्लणग-कटि-वस्त्र इत्यर्थे देशी
चल्लि -१ नाचते समय की एक चडिआस-आटोप
प्रकार की गति । २ काम-वेदना चडिण्णअ-आरूढ
चव-वार्ता चडिर-आरोहणशील
चविअ-कथित चडीण-आरूढ
चव्वक्किअ-धवलित, चूने से पोता चडीय-आरूढ़
हुआ चडुत्तरिया-१ उतरचढ, चढ़ना- चहुतिया-चुटकी
उतरना । २ वाद-विवाद चहुट्ट-आघात चडुलंग-तुरंग
चहुट्टिय-चिपका हआ चडुलिया-अंत भाग में जला हुआ चहोड-मनुष्य की जाति-विशेष __ घास का पूला
चाइय-समर्थ चड्डुण-१ भोजन । २ मर्दन
चाउरि-शय्या चड्डिय--१ मसला हुआ। २ पिष्ट, | चाउल्लग-पुरुष का पुतला पीसा हुआ
चामुंडचंड-भयंकर चत्ता-सूत कातने का साधन, तर्क
चारहडि-शौर्य चदुरुढ-राजा शातवाहन
चालंकिय–पूरे शरीर को चालनी चप्पणय-दबाना, दबोचना
बना लेना चप्परण-तिरस्कार
चालुय-चलनी-चालिनी इत्यर्थे चप्परि-शीघ्र चप्पलअ-१ असत्य ।
चाहिय--१ वांछित । २ अपेक्षित २ बहुमिथ्यावादी
३ याचित । ४ दृष्ट चप्पिय-आक्रांत
चिधिय-वस्त्रखण्ड चप्पिवि-१ हठात् । २ दृढ़
चिक्क-१ अल्प । २ छींक चफलिय-मिथ्याभाषी
चिक्खअण-१ असहनशील। चमढणा-भोजन
२ सहिष्णु चम्मचिडअ-चमगीदड़ पक्षी चिक्खल-कीचड़ चरड—-चोर
चिक्खिल-कीचड़ चरिया-पौरुषी
चिखल्ल-कीचड़
देशी
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परिशिष्ट १
४६७
चिडउल्ल-चटक, चिड़िया चुक्ख-शुद्ध, पवित्र चित्तअ-व्याघ्र
चुच्चुलिअ-चुलूक, चुल्लू चित्तविअअ—परितोषित
चुट्टी-चोटी चिद्दाविअ-विनाशित
चुडिय-कुथित, खराब चिप्पंडी-१ व्रत-विशेष ।
चुण्णुग्घ-अग्नि २ उत्सव-विशेष
चुरिम-खाद्य-विशेष, चूरमा चिब्बिर-चिपटी नाक वाला चुरुलि–ज्वाला चिरअ-१ सारणी। २ कृत्रिम
चुल्लग-१ संदूक । २ छोटा ___ छोटी नदी
चुल्लबप्प-चाचा चिरडी-वर्णमाला
चुल्हेत्तय--चूल्हे की ईंट चिरण्हं-मध्याह्न
चडल्ल-चूडाबन्ध चिरिचिरिआ-चिरि-चिरि की चरी-मिठाई-विशेष आवाज वाली जलधारा
चली-कुक्कुटी, मुर्गी चिरिडी---वर्णमाला
चेंचइय-अलंकृत चिलसावणय-ग्लानि-उत्पादक
चेलय.तुला-पात्र चिलि चिडिआ-चिलि-चिलि की
चोंभल-१ बीभत्स । २ समूह
(मराठी-चुंबल, चुंभल) आवाज वाली जलधारा
चोक्खलि-शुद्धिकारक चिलिचिलिआ-धारा, वृष्टि
चोज-आश्चर्य चिलिव्विल–१ गीला। २ बीभत्स | चोज्ज-चिता चिलिसावण-घृणा करने वाला
चोज्जुक्कोयण-आश्चर्यजनक - जुगुप्साकर इत्यर्थे देशी
चोड-१ कंचुक । २ एक देश का चिल्लड-श्वापद-पशु-विशेष चिल्हय-चक्र-मार्ग, पहिए की चोडय--पोशाक लकीर
चोडु-वृन्त, फल और पत्ती का चीहाडी----चीत्कार
बंधन चुचुमालिअ-आलसी, मंद
चोण्ण--१ कलह । २ काष्ठानयन
___ आदि जघन्य कर्म चुचुलिआर-चुल्लू, चुलुक
चोप्पडिय-१ चुपड़ा हुआ। चुंछिअ--सूखा हुआ
२ घी, तैल आदि स्निग्ध पदार्थ चुदिणी --कुमारी
चोल----गन्धद्रव्य-विशेष चुधल--अक्षिरोग-युक्त
चोलअ--कवच चुपालय - गवाक्ष, वातायन चोवाण-गेंद को मारने की टेढ़ी चुक्किय--भ्रष्ट
लकड़ी
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४६८
देशी शब्दकोश
छइल्ल-विद्वान् छडिआ-मुक्त छंडिय-१ छन्न, गुप्त । २ छोड़ा
हुमा
छकण्ण-एक प्रकार का जूता छच्छंदर-छछंदर, चूहे की एक
जाति छज्ज-शोभा-शोभायां देशी छट्ट-मर्म छट्टा-छटा छट्टा-जल का छींटा छडउल्लय-संमार्जन, पानी
छिड़कना छडय--१ उपलेप-उपलेप इत्यर्थे
देशी। २ समूह छडयण-भ्रमर छड्डणय-आच्छादन छड्डय-आच्छादन छड्डावित्र-छुड़ाया, मोचित छणयंद-पूर्णिमा का चांद छणिज्जंत-निरंतर ताडित छत्तरिय-विस्तारित छन्नाल-तापस का उपकरण-विशेष छप्पत्तिआ-१ चपेटा, थप्पड़ ।
२ चपाती. रोटी छप्पन्नय-शृंगार गाथा का
कोश-विशेष छयल्ल-चतुर, विदग्ध छव्वग-वंशपिटक, घृत आदि
छानने का उपकरण छह-षट्, छह
छायणिया-डेरा, पडाव छायणी-पड़ाव, छावनी छाली-अजा, बकरी छाह-गगन, आकाश छाहि-छाया, छांह छिउर-बुझाना छिक-छींक छिक्किय-छींकना छिच्छअ-नयनों की प्रीति के
___ अयोग्य होने के कारण अक्षि-क्षत छिच्छअण-असहिष्णु छिच्छई-कुलटा, असती छिच्छि-धिक्-धिक छिच्छिणरमण-आंखमिचौनी की
कीडा छित्तरय-छाज, सूप छित्तिर-जीर्ण छाज छिरि-भालू की आवाज छिविअ-समूह छिवोल्लअ-१ निन्दार्थक मुख
विकूणन । २ विकणित मुख छिन्वर-चिपटा छिहंडहिल्ल-दही छीद-छेद, विवर छुज्जत–पीड़ित छुट्टहीर-मणिजटित हीरा छुट्टिय-मुक्त छद्र १ लिप्त । २ फेंका हुआ छुड़छुड़-१ हड़बड़ी । २ पुनः पुनः छडु-शीघ्र छुत्ति-अस्पृश्य का स्पर्शन, छूत छुद्ध-~-क्षिप्त, प्रेरित
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परिशिष्ट १
४६६
छुप्पलय-शेखर, शिरोमाल्य
की याचना करने वाला छुरमट्ठी-नाई
जंभणंभण--स्वतंत्र भाषण छुल्लुच्छुलय-अधीर, शीघ्र जगड--कलह, झगड़ा छुहइद्धिआ–१ द्वेष्या । २ अस्पृश्या जगडण-१ झगड़ा करने वाला। छूहिअ-पार्व का परिवर्तन
२ कदर्थना करने वाला छेअ—विदग्ध
जगडणा---१ झगड़ा । २ कदर्थना, छछई-कुलटा
पीड़ा छण-चोर
जगडावण-पीडक छत्तसोवणी-खेत में जागने वाला जडिल-कुंकुम छेय-हानि
जडु--इव, तरह छलग--अज, बकरा
जड्डा-जाड़ा, शीत छलिआ--थोड़े फूलों की माला जणंगम-चांडाल छेव-प्रांत, अंत
जण्णयत्ता-बरात, विवाह-यात्रा छोक्करी --लड़की
जण्णयत्तिय-बराती, वर के साथ छोट्टिय-छोटा, लघु
जाने वाले लोग छोडण-छोड़ना
जण्णु-इव छोडय-१ छोटा । २ भूल
जत्ति-१ चिंता । २ सेवा छोडाविय-छुड़ाया
जदर-वस्त्र-विशेष, चद्दर छोडि--छोटी
जन्नत्ता--बरात छोडिय-छोड़ा हुआ, मुक्त
जन्ना-बरात,जान छोत्ति-छूत, अस्पृश्य
जन्तावास-जानिवास, दुलहे के छोप्प-स्पृश्य, स्पर्श-योग्य
संबंधियों को दिया जाने वाला छोयर-छोकरा, लड़का
निवास-स्थान छोल्लिया-छोटी बालिका
जमण-बालशिखा छोहर-लड़का
जव-पुमान्, पुरुष छोहिय--१ क्षुब्ध, व्याकुल ।
जवण-- १ अश्व । २ चन्द्रमुखी __ २ जुए में पराजित
जवणि-जीमनवार का निमंत्रण
जवली- वेग जअल-छन्न, ढका हुआ
जववारय-जव का अंकुर जंगल-मांस
जहणूसुअ-अर्धारुक, आधी साथल जपाण-यान-विशेष, शिविका तक पहनने का वस्त्र जंपेक्खिरमग्गिर--जिसको देखे उसी | जाउंड-मंत्र कार्य, जादूटोना
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२४७०
देशी शब्दकोश
जाएवय-गमन
| जोक्कारिय-प्रशंसित जांवाय-जामाता
जोक्खिय--तोलित जाणण-बारात
जोडि-युग्म जालवणी-संवाद, खबर
जोडिऊण-जोड़कर जाला-जब
जोविय - दृष्ट जिम-यथा, जैसे-यथा इत्यर्थे
जोव्वणजोअ-बुढापा, जरा देशी
जोव्वणणी-जरा, बुढापा जीरवण-जीरण, पाचन
जोव्वणिर-जरा, बुढापा जीविअमई-मृग को आकृष्ट करने । ज्जिअ-निश्चयसूचक अव्यय
के लिए व्याध की कृत्रिम मृगी । ज्जेअ-निश्चयसूचक अव्यय जुअण-युवा, जवान
ज्झहुराविअ-निवासित जुआरि-जुआरी, अन्न-विशेष जुंजम--हरा तृण-विशेष
झंकोलिय - झकझोरित जुजमय--एक प्रकार की हरी घास जिसे पशु इच्छापूर्वक खाते हैं।
| झंज्झडिय-झगड़ालू
झंटण-परिभ्रमण जुट्ट-झूठ
झंटिलिया-चंक्रमण, गमन जुडिअ ---आपस में जुटा हुआ, भिड़ा |
झंदिय-प्रद्रुत, पलायित हुआ
झंपड-१ विकराल । २ अर्ध जयगेहकसकरण-संयुक्त परिवार
निमीलित नयन से अलग होकर नया घर बसाना
झंपडिय-मुक्त, विरल-मुक्तविरल जुयलुल्ल-युगल
इत्यर्थे देशी जरवणी-खेद करने वाली
झंपण-१ अपकीर्ति । २ पर्यटन। जूराविअ-क्रुद्ध किया हुआ
३ पर्यटक जरिअ--खेदित-खेदित इत्यर्थे देशी
झंपिअ-आच्छादित जूरिय-निर्भत्सित
झगड-झगड़ा जूसअ—उत्क्षिप्त
झगडअ-कलह करने वाला, जसिअ-क्षिप्त
झगडालू जेवणय-दायां हाथ
झग्गली-अभिसारिका जेवनार-जीमनवार
झड-प्रहार जोअंगण--कीट-विशेष, इन्द्रगोप झडक्क –आकस्मिक प्रहार जोअड-खद्योत, कीट-विशेष झडक्किय-झिड़का हुआ जोडअ-व्याध
| झडप्प--१ शीघ्रता । २ आक्रमण
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परिशिष्ट १
झडप्पण - १ आक्रमण । २ ताडन झडप्पिय - झडप, झपट
झडा-झपट
झडी –गुल्म झपिअ - पर्यस्त, उत्क्षिप्त
झल- - उष्मा - उष्मा इत्यर्थे देशी झलकंत - झालर वाला छत्र झलक्क- -१ पूर्णाञ्जलि । २ उष्णता
झलझलिय -- ध्वन्यात्मक अनुकरण
शब्द
झलहलय - क्षुब्ध झलुक्किअ-संतापित
झल्लरी - १ गुल्म । २ बाड़, वृति । ३ बकरी
झल्लिर-धारायुक्त-धारायुक्त इत्यर्थे देशी झल्लोज्झल्लिअ - संपूर्ण झव्वरी - अजा, बकरी झसर-शस्त्र - विशेष झिकिरी - वाद्य - विशेष शिखण - १ गुस्सा । २ क्रोधी
झिझिणी - लता - विशेष झिझिरी - लता - विशेष झिंडुअ—गेंद
शिवय गेंद
सिक्किरि वाद्य
झिलिअ - पकड़ी हुई वह वस्तु जो ऊपर से गिरती हो
झिल्लिर झींगुर झुंबक—भूमका, गुच्छा झुंबर- –लम्बमान झुंबुक - स्तबक, गुच्छा
झुंबुक्क -- स्तबक
झुट्ठ - झूठ झुणक्क- वाद्य विशेष झुणिअनिन्दित, घृणित
झुम्मुक्क – झूमका, गुच्छा झुक्किअ - दग्ध झुलिक्किल - झुलसा हुआ झुलु किय-- कुलसा हुआ झुलुक्क - अकस्मात् प्रकाश झुलुविकअ - १ आन्दोलित |
२ झुलसा हुआ झुलुक्की - दग्ध स्त्री झुल्लंत - कांपता हुआ झुल्लण - छन्द - विशेष झेंदु कन्दुक
झेंदुलिया - कुलटा झोटिंग - देव- विशेष झोल्लिआ - झोली, थैली झोसिय- १ त्यक्त । २ ध्वस्त
ट
टउया - पुकारने की आवाज टंकवत्थुल - कन्द - विशेष टंकार—तेज
टक्कर - शिला का टुकड़ा
टच्चक - लकड़ी आदि के आघात
४७१
की आवाज
टट्टरी - वाद्य विशेष
टणटणंत टन - टन आवाज करता
हुआ
टालिअ - इन्द्रजालिक
टलिअ - टला हुआ, हटा हुआ टहरिय— ऊंचा किया हुआ
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________________
४७२
देशी शब्दकोश
टालिय–विनाशित
| ठलिय-खाली टिटा-१ कुलटा। २ जुआखाना, | ठवल-क्रीत द्यूतगृह
ठाकुर-ठाकुर टिंबरुणी-तेंदू का पेड़
ठिक्करिआ-ठीकरी टिल्ल-तिलक
ठेण--१ स्थासक, हस्तबिम्ब । २ टिल्लिक्किय-विभूषित
गुप्तचर । ३ चोर टिविल-वाद्य-विशेष
ठोक्कर-ठाकुर टिविला-वाद्य-विशेष
ठोड-१ ज्योतिषी, देवज्ञ। २ टुंबय-~-आघात-विशेष
पुरोहित टुप्परग-जैन साधु का एक छोटा
पात्र
टेंट-१ मध्यस्थित मणि-विशेष ।
डंक-काक
डंकिय-दष्ट २ द्यूत-गृह । ३ वृन्त टेंबरूय-फल-विशेष
डंगा-डांग, लाठी
डंडर-~-ईर्ष्या से होनेवाला कलह टेवंत-तीक्ष्ण करता हुआ टोपरी-टोपी, टोप
डंडरिआ-कर्दम टोपिआ-१ टोपी। २ पात्र-विशेष
डंडसिअ-ग्राम-वृक्ष टोप्प-श्रीष्ठि-विशेष
डंडा-कर्दम
डक्क-१ युद्ध का कोलाहल । टोप्पर-शिरस्त्राण-विशेष, टोपी
२ वाद्य-विशेष टोप्परिया-नारियल की कच्चोलिका, टोपसी
डक्कार-लीला-गर्जित टोप्पी-टोपी
डक्खर-युवा, तरुण टोल-रहने के मकान
डड्ड-त्रस्त
-डक्का वाद्य का शब्द ट्ठग-ठग
डमडमिअ-डमरू का शब्द
डर-भय ठउंड-वाद्य-विशेष
डरिअ-भयभीत ठउल-धूत में दाय-भाग
डल्लिर--पीने वाला ठग-ठग, वञ्चक
डवडव-ऊंचा मुंह करके वेग से ठगिय -वंचित, ठगा हुआ
इधर-उधर गमन ठदार-ताम्र, पीतल आदि धातु के | डसरी-१ उष्ण जल । २ स्थाली
बर्तन बनाकर जीविका चलाने | डहरक--१ वृक्ष-विशेष । २ पुष्पवाला, ठठेरा
विशेष
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________________
परिशिष्ट १
डयवि - मुद्रा, मुद्रिका डाहर — देश - विशेष
डाहाल – देश - विशेष
डिंखा- आतंक, त्रास
डिड फेन
डिडव - जल में पतित
डिअ - जल में गिरना
डिमिल वाद्य विशेष डिल्ली – जल - जन्तु -विशेष डिवअ - वाम हाथ डिविडिक्किय -- अलंकृत डुडुक्का - वाद्य-विशेष डुंग - समूह डुंबडअ --- डोम, चांडाल डुंभिय- आन्दोलित
डुज्जय – कपड़े का छोटा गट्ठा, वस्त्र
--
खण्ड
डुलि -- कच्छप, कछुआ
डुल्लरय - कपर्दिकाओं का आभरण डेंडीडेंडुह—मेंढक
-----बलाका
डेकुण - मत्कुण, खटमल
डेड - डेढ़
डेडुरी-क्रीडा
डेड्डुर ---- ददुर, मेंढक
डेर - केकटाक्ष, नीची-ऊंची आंख
वाला
डेविय - प्रीणित
. डोंबलिय --- चण्डाल-संबंधी डोक्क ----कूपतुला
डोक्करी -- बूढ़ी स्त्री, बुढ़िया डोड्डु - एक मनुष्य जाति, डोड्डि- दुष्टा ब्राह्मणी
ब्राह्मण
डोढणी - ब्राह्मणी stoor - गुरुहारिक, अधिक भार ढोने वाला
डोमणिया - डोमिनी
डोर - १ सूत्र, धागा । मेखला
डोल्लिय — डोली, शिविका डोसिणी - ज्योत्स्ना, चन्द्र- प्रकाश
डोहंत - गहरा पानी
द
ढं किय-आच्छादित
ढंख - १ शुष्क - शुष्क इत्यर्थे देशी २ पुष्प फलरहित वृक्ष । ३ कौआ
ढंखर - पत्र - पुष्प विहीन शाखा ढंखरय - ढेला
ढंढ-दाम्भिक, कपटी ढढल्लिअ
भ्रान्त
-
ढक्क ढक्कन
ढक्करी - वाद्य - विशेष
४७३.
२ कांची,
ढड्डर
:- राक्षस आदि
ढड्डुस – साहस, ढाढस ढड्डिय—वाद्य विशेष
ढग्गढग्गा – ढग - ढग की आवाज ढड्ढ — किवाड बंद करने का बाहर
साधन
ढड्डिया - वाद्य- विशेष ढणिय - शब्दित, ध्वनित ढलंत - झुकता हुआ
ढलहलय - मृदु, कोमल ढलहलिय-चालित
ढलिअ - १ झुका हुआ । २ गिरा हुआ
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________________
४७४
देशी शब्दकोश ढस-धस्, गिरने से होने वाली । णक्खन्नण-- नख काटने और कांटा आवाज
निकालने का शस्त्र-विशेष ढसर-१ भ्रान्ति । २ भ्रान्त वचन णग्गठ-निर्गत, बाहर निकला हुआ ढालण--नीचे गिराना
णग्गुड-नग्न ढालिअ-नीचे गिराया हुआ णग्गडि--चारण आदिढाव-आग्रह, निर्बन्ध
चारणादिवन्दिवर्ग इत्यर्थे देशी ढिक ---पक्षि-विशेष
णग्गोर--कर्पूर ढिकण - क्षुद्र जन्तु-विशेष, गौ आदि
णढरी- क्षुरिका के लगने वाला कीट-विशेष
णलअ-१ बाड का छिद्र । ढिकलीआ–पात्र-विशेष
२ कर्दमयुक्त ! ३ निमित्त । ढिबायरिय-दांभिक, कपटी
४ प्रयोजन ढिबारिय-कपटी, दांभिक णवरि-शीघ्र, जल्दी ढिडिस-पिष्ट
णसा-नस, नाड़ी ढिल्ल-ढीला, शिथिल
णहरण-१ श्वापद पशु । २ नाखून ढिविय-उपस्थिति
काटने का शस्त्र ढुंग- समूह, ढेर
णाई-समानता का द्योतक अव्यय ढुंढुल्लण--खोज
णाइत्त-जहाज द्वारा व्यापार करने ढक्क–१ उपस्थित । १ मीलित। । वाला सौदागर ३ प्रवृत्त
णाइत्तग-सांयात्रिक, सामुद्रिक ढुक्कलुक्क-चमड़े से मढ़ा हुआ व्यापारी वाद्य-विशेष
णाडय-रस्सी, नाड़ा ढक्काढुक्कि-निकटता से लडना णाणावट-रुपये उधार देने वालों दुलिय-गिरा हुआ
की दुकान (गुज-नाणावट) ढेक्कुण-खटमल
णामण-नाक में डाला जाने वाला ढोर-पशु ढोरि--पशु
णाममंतक्ख-अपराध, गुनाह णायत्त---समुद्र-मार्ग से व्यापार
करने वाला वणिक णं-प्रश्न और उपमासूचक अव्यय णायत्तग-सांयात्रिक, सामुद्रिक जंगअ-रुद्ध, रोका हुआ जंगल-चञ्चु, चोंच
णारियर-नारियल पंडिक्क--व्याध
| णाल-त्रस्त
बिन्दु
व्यापारी
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________________
परिशिष्ट १
४७५
णालि-सस्त, गिरा हुआ
णित्तल-अनिवृत्त णावइ-उपमा और उत्प्रेक्षा के अर्थ णित्तुलिय-निश्चय __ में प्रयुक्त अव्यय
णिद्धाडिय-निष्काशित जाहल-शबर, भील-अरण्य- णिपट्ट-गाढ़ चाण्डाल इत्यर्थे देशी
णिपत्तउ-शाल्मली वृक्ष णिअद्धण-परिधान, पहनने का णिप्पणिअ-जल-धौत, पानी से वस्त्र
धोया हुआ णिअरण-दण्ड, शिक्षा
णिप्फंस-निर्दय णिआर-१ ऋजु । २ रिपु। णिभिट्ट-आक्रान्त ३ प्रकट
णिमिअ-निहित, न्यस्त णिउडु---निमग्न
णिम्मिअ-स्थापित णिउत्त-निमग्न
णिम्मीसुअ-१ युवा । २ बिना णिउत्तउशाल्मली वृक्ष
दाढ़ी-मूंछ वाला णिउल-गांठ, गठरी
णियच्छिय-दृष्ट णिदणिआ-लोच कराया हुआ णिययणी-रज्जु णिक्कसरिअ-गलितसार, सार णिरारिअ—१ निरंतर। रहित
२ अतिशय । ३ निरर्थक णिक्कुण-गुपचुप
णिरास-नृशंस णिक्खंत--आरोपित
णिरित्त-नत णिक्खाविअ-शान्त, उपशम-प्राप्त
| णिरु-१ निरन्तर । २ निश्चय ।
३ अतिशय णिक्खुत्त–निश्चित, अवश्य णिक्खब्भ-निरन्तर
णिरुत्तिय—निश्चित रूप से णिगमिअ-निवासित
णिरोव- आदेश, आज्ञा णिच्चणिआ---पानी से धोया हुआ
णिरोविय-अर्पित णिच्चोइय-निचोडा हुआ
णिरोसह-घर-रहित णिच्छडु-निर्दय
णिलाड-ललाट णिच्छद्र-निर्मुक्त, छूटा हुआ।
णिलाप-पात्र णिज्जर-१ जीर्ण । २ खिन्न णिल्लुक्क-निलीन, प्रच्छन्न णिज्जीवय---गोताखोर
पिल्लुहण -- परिमार्जन णिज्जूहग-गवाक्ष
पिल्लरिय ... छिन्न णिज्झण--छुपना
णिवली-आघात णिरिय-१ भयोत्पादक । | णिविड-सोकर जागा हुआ २ निष्काशित
णिव्वक्कर-परिहास-रहित, सत्य
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________________
४७६
णिव्वरण - दुःख - निवेदन णिव्वाइय - प्रसारित
णिव्वाणि विकास णिविच्च - विस्तृत कर णिब्विर-- चपटा, दबा हुआ णिव्वोलण - क्रोध से होठ मलिन
करना
णिसा- हल्दी
णिसाड - निशाचर, राक्षस
णिसायर-कपूर णिस्सीमिअ— निर्वासित हिल - कुल णिहव - सुप्त, सोया हुआ णिहेल-नील रत्न णिहोडण - निवारक, निषेधक
सुन्दर
णीअअ - समीचीन, णीरण- घास, चारा
णीलुय - अश्व की एक उत्तम जाति णीसंक- वृष
णीसाम - विनाशक
णीसावण्ण - समस्त
गुज्जिय - बन्द किया हुआ, मुद्रित लंछण – नपुंसक
लच्छिआ - कूपतुला
वत्थ - वस्त्र
वत्थण -- उत्तरीय वस्त्र का अञ्चल णेव्व - तीव्र
णेसणय - वस्त्र
णसर - सूर्य
सरी - सूर्य णेसु - १ होठ । २ पांव हीर- कुंकुम
णो १ खेद । २ आमन्त्रण |
३ वितर्क । ४ विचित्रता ।
५ प्रकोप - इन अर्थों का सूचक
देशी शब्दकोश
अव्यय
गोक्ख-अनोखा णोखी - अपूर्वा, अनोखी og - निश्चयसूचक अव्यय
त
तंडय ----समूह
तंती - चिन्ता
तंबकारि - शेफालिका की लता
तंबार - मृत्यु, विनाश तंबालय - भाजन - विशेष तंबुक्क – वाद्य-विशेष तक्कारि-सारथि
तक्कुय - स्वजन वर्ग तक्कोडिण -- स्वजन वर्ग
तक्खड - उद्यत तच्छिल -- तत्पर
तट्टवट्ट - आभरण, आभूषण
तट्ठय- घृष्ट- घृष्ट शब्दार्थे देशी तडकडिअ - १ अनवस्थित ।
२ व्याकुल
तडयड - क्रियाशील, सदाचारी तडहडिअ - अनवस्थित
तड्डु – १ पिशाच । २ शलभ
तणय - 'यह उसका है' इस अर्थ में प्रयुक्त प्रत्यय-तस्येदमित्यर्थे देशी
प्रत्ययः तणवदाद्य-विशेष तत्तिया तत्परता, चिन्ता
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________________
परिशिष्ट १
४७७
तत्तिल-तत्पर
तल्लोविल्लि-तड़फड़ाहट, तत्तुरिअ-रजित
__ अकुलाहट तत्तोहत्त-तदभिमुख, उसके सामने | तल्लोवेल्लि-१ निरंतर पावतप्पणग-जैन मुनि का पात्र-विशेष, परिवर्तन करना । २ व्याकुलता, तरपणी
तड़फड़ाहट तप्पणाडमालिआ सत्तमिश्रित | तवंग-ऊपर का भाग, गृहविभागभोजन
विशेष तभत्ति-शीघ्र
तवन्निग-तृतीय वणिक, वानप्रस्थी तमणी-१ लता। २ व्यधिकरण तसरी-एक प्रकार का रेशम तमुय-१ जन्मान्ध, जात्यन्ध । तहल्ली-अपसति - २ अत्यन्त अज्ञानी
तारुय-कर्णधार तम्मि-वस्त्र, कपड़ा
तालफली-दासी तम्मिर-खेद करनेवाला
ताला-तब तरंडय-नौका
तिउक्खर---वाद्य-विशेष तरट्ट - प्रगल्भ, समर्थ, चतुर
तिउडय-१ लौंग । २ मालव देश तरट्टा-प्रगल्भा, प्रौढा नायिका
में प्रसिद्ध धान्य-विशेष तरट्टिया-विदग्ध स्त्री
तिंगआ-पुष्परज तरट्टी-चतुर स्त्री
तिगिछा-मकरन्द, पराग तरिडी-अनुष्ण वायु, शीत पवन । | तिगिच्छ-कमलरज, परागतरिया-दूध आदि का सार, मलाई पद्मरज इत्यर्थे देशी' तरु-शीघ्र
तिदुइणी-वृक्ष-विशेष तलपत्त-योनि । २ वरांग, मस्तक
तिट्ठा-सेवा तलप्प-कर-प्रहार
तिडिक्क-स्फुलिङ्ग तलप्पंत-उछल कर आते हुए। तिडिक्किय-छींटो से युक्त तलव-तलपत्र, आस्तरण-विशेष
तिडिपिडत-तड़फड़ाते हुए तलवाहय-तलस्पर्शी गति से तैरना | तिडिक्क-स्फुलिंग तलहट्रिया--पर्वत का मूल, तलहटी
तित्त-आर्द्र तलारक्ख-नगर-रक्षक
तित्ति-अल्प, थोड़ा तलेर-नगर-रक्षक
तित्तिरिअ-निरन्तर तल्लवग-सेवक
तित्तिल्ल-द्वारपाल, प्रतीहार तल्लवेल्ल-व्याकुलता
तिमिरिस-वृक्ष-विशेष तल्लुग्वेल्ल-अकुलाहट
तिमिल-वाद्य-विशेष तल्लविल्लि-तड़फड़ना
तिम्मण--आचार, चटनी
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________________
४७८
देशी शब्दकोश
| तोडी-चंचु | तोमर-मधुमक्खी का छत्ता तोरा-तुम्हारा तोरामदा-नेत्र का रोग-विशेष तोल-१ पिशाच । २ शलभ
तियाउस-भस्म तिरिडिक्किया-वाद्य-विशेष तिलबदी-तिलपपड़ी, खाद्य
विशेष तिलमअ-स्नेहिल तिलिम-वाद्य-विशेष तिविडी-सूई तिहासरी-वाद्य-विशेष तीरिया–तरकश, तूणीर तीरी-तूणीर तुंड-मुख-मुखशब्दार्थे देशी तुदाहि-गण्डूपद तुक्खार---एक उत्तम जाति का
अश्व तुडी-शीघ्र तुप्पइअ-घृत से अवलिप्त तुप्पलिअ-घृत से संलिप्त तुप्पविअ-घृत से संलिप्त तुलग्गा-स्वेच्छा, अभीप्सा तुलाकोडि-नूपुर तुसलो-धान्य-विशेष तुहारी-तुम्हारी तरी-एक प्रकार की मिट्टी तेआलीसा-तयालीस की संख्या तेरसया-जैन मुनियों की एक
शाखा तेवण्णा-तिरेपन की संख्या तोंड-मुख तोंतडिल्ल-मिश्रण तोंद-उदर तोखार-अश्व-विशेष तोडर-टोडर, माल्य-विशेष
थंत-स्थित थक्क-स्तब्ध-स्तब्धः स्थित इत्यर्थे
देशी थक्कय-रखा हुआ थक्किअ-१ थका हुआ। २ स्थित थट्ट-१ भीड़। २ आडम्बर । . ३ पंक्ति थड-१ यूथ, समूह । २ पंक्ति । ३
वन थडा-समूह थ--धन थड्रिम-गर्व थणुल्लय-बाल-स्तन थत्ति-१ स्थान-स्थान इत्यर्थे
देशी । २ विश्राम थप्पड-चपेटा थब्भर-अयोध्या नगरी के समीप
का एक द्रह थरहरंत-कम्पायमान थरहरण-कम्पन थलहिगा-मृतक-स्मारक, शव को
गाड़कर उस पर किया गया एक
प्रकार का चबूतरा थल्लिया-थलिया, छोटा थाल थव-स्तबक थवक्क-थोक, समूह
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________________
४७६
परिशिष्ट १
थागत्त - जहाज के भीतर घुसा हुआ । थोरियगरिल्ल - गोलाई से मोटा
पानी
और ऊंचा लपेटा हुआ शिरोवस्त्र थोवड - स्थूल
थाणग - १ चौकी, पहरा । २ पहरेदार, चौकीदार
थामलय -- स्थान
थाला - धारा
थाव - स्थान
थावर - दो हलों से बोने जितना
खेत
थास - पृथु, बडा थाहिअ - आलाप, स्वर - विशेष डिल्लिया - पुत्तलिका, गुड़िया
थिदिणी छन्द - विशेष
थिप्पमाण- गलित होता हुआ थिप्पिर - विगलित
थिरणास -- चलचित्त, चंचल थिरणेस - अस्थिर
थिल्ल— गुप्त थुडुक्किय-मौन, चुप्पी
थूण - अश्व – अश्व शब्दार्थे देशी
यूथ - घृणा सूचक अव्यय
थेंभ - बिन्दु
थेट – गृह, घर
--
थेणिल्लअ - - अपहृत
थेव थोड़ा
पोट्ट - १ टूटे हुए हाथ वाला - छिन्नहस्त इत्यर्थे देशी ।
२ स्थाणु, ठूंठ
थोर -१ सुडोल । २ विस्तीर्ण थोरिय-भैंसों की देखभाल करने
वाला
द
दअर - १ पिशाच । २ ईर्ष्या
दंडवण - घृत ifsfera - अपमानित दंतिक्कग - मांस दंतुल्लि - छोटा दांत
दंसण --- कवच
दडक्क --- दहाड़
दडत्ति - १ झटपट, तुरन्त । २ अनुकरणवाची शब्द
दडि वाद्य विशेष दडिक्क वद्य विशेष दड्डालि - दव-मार्ग
दबक्किय - द्रुतकृत, दुबकना दमदंड -- भ्रमर
दम्म --- दाम दयावणिय - दयनीय
दरमलिअ - आहत, चूर्णित दरवलिअ - उपभुक्त
दलवण - १ निर्दलन । २ विनाशक
दलवट्टिय - निर्दलित
दवक्कडी - वज्रपात
दवट्टि - शीघ्र
दवत्ति - शीघ्र
दवहवस्स - शीघ्रता से दहिय-पक्षि-विशेष
दाढा - दाढा दंष्ट्रा शब्दार्थे देशी वाढियाल -- दाढ़ीवाला दाणि – शुल्क, चुंगी
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________________
४८०
देशी शब्दकोश दाव-१ दास । २ गर्दभ
| दुहरीण-खिन्न-खिन्नार्थे देशी वाविअ—दर्शित
दूयडिया-दूतिका दिक्करिया-कन्या
दूयाकार-कला-विशेष दिरिआकृत्रिम मृगी
दूसंथवय-दुष्कर दिलंदिलिअ-बालक, शिशु देंट-वृन्त दिसेव-पथिक
देक्खालिअ-दिखाया हुआ दीयड-सर्पविशेष जो अष्टमी और देखण-प्रेक्षण
चतुर्दशी के अतिरिक्त शेष दिनों देवरिअ-पुत्रोत्सव पर बजाया जाने में विष रहित होता है
वाला तुर्य दीवड-सर्प-विशेष
देसिय-पथिक, प्रवासी दुक्कह-अरुचिवाला
देसियाली-देशाटन दुक्खित्त-कंपन
देहलिय-मर्यादा दुगुछिय-जुगुप्सित
दोग्घट्ट-हाथी दुग्गुच्छ-भ्रमित
दोच्छिय-तिरस्कृत दुग्घोट्ट-हाथी
दोडि-सायंकालीन भोजन दुघोट-हाथी
दोबर-स्वर्ग-गायक, तुम्बुरु दुच्चवण-दुर्भणित
दोरी-छोटी रस्सी दुट्ठहण-चोर
दोसारअण-चन्द्रमा दुणाम-डाकिनी
दोसिय-वस्त्र का व्यापारी दुद्दोलणा-बार-बार दुहने योग्य गाय
धगधगंत-धगधगायमान दुन्नियत्थ-निंदनीय वेष धारण |
धग्गीकय-जलाया हुआ करने वाला
धड-धड़ दुप्परिल्ल-दुराकर्ष
धडहडिअ-गर्जना, गर्जारव दुब्बोलिय-दुर्वचन
धडि-कुण्डल दुब्भ-भ्रमर
धणि-तृप्ति दुरिअ-द्रुत, शीघ्र
धन्नाउसदाण-आशीर्वचन दुवालि-नटखटपन
धम-विलास दुव्वाइय-शुष्क
धध-तृप्ति दुग्विवरेरय-जो कठिनता से मोड़ा धवक्कजाए
धवक्कय-समूह दुसुरुल्लय-गले का आभूषण-विशेष | धवक्किय-धड़का हुआ, भय से
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परिशिष्ट १
व्याकुल बना हुआ धसक्क - हृदय की घबराहट की
आवाज
धसक्किय --- अत्यन्त घबराया हुआ धाडय - डाका डालने वाला (राज) धाडेती
धारायर -- निशाचर
धाह - आक्रोश, क्रन्दन
(मराठी- धाय) धाहाविय - शोकयुक्त
धाहिय - पलायित, भागा हुआ धिज्जाइय-ब्राह्मण धिरत्थु - धिक्कार है
धिसि - धिसि - धिक् धिक् धोया - पुत्री ( पंजाबी - धी ) धुअराय - भ्रमर, भौंरा धुंधुमारि - १ कोलाहल ।
२ धूल-धक्क
धुक्कोडिअसंशय धुक्कोडिया - शंका धुडूकी-मन
---
धुत्तीरय-धतूरे का पौधा धुत्तीरिअ - धतूरे के पान से ग्रस्त धुम्मुक्कवाद्य विशेष
धुवगाय-भ्रमर
धुहअ - पुरस्कृत, आगे किया हुआ धूमद्धम अहिसीअ - कृत्तिका नक्षत्र धूमवत्ति-सुगंधित पानी धूलिहडी - पर्व - विशेष
धोरण - वाहन धोरणी- पंक्ति धोवी-धोबी, रजक
प
पइ – 'तुमने अर्थ का द्योतक अव्यय
पइअ - विस्तीर्ण पइद--प्रवृत्त
पइसइ — कोमल पओलि - मार्ग
पओलिय — पक्व
पंगुत्त - १ ढका हुआ - प्रावृत्त इत्यर्थे देशी । २ प्रावरण
पंगुरण - प्रावरण
पंगुरुण - प्रावरण- प्रावरण इत्यर्थे देशी पंचरिअ - जहाज का कर्मचारीविशेष
पंचावण्णा - पचपन की संख्या पंचेडिम - विनाशित
पंजिअ - यथेच्छ दान, मुंह मांगा दान पंजोहार — धान्यादि प्रदेश
पंडरंगु- ग्राम का अधिपति पंडार - ग्वाला
४८ १
पंभल - सुन्दर अक्षि-लोम वाला कोक्किय- आहूत, बुलाया हुआ -
आहूत इत्यर्थे देशी
पक्कडिअ - प्रस्फुरित पक्कण- -१ अति शोभावान् ।
२ भग्न । ३ श्लक्ष्ण पक्खखारिय - सन्नद्ध पक्खुलिया - दासी पक्खोडिय—कम्पित पगल – पग, पांव
पग्गल पागल
पच्चल - प्रचुर
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________________
४८२
पच्चार- - उपालम्भ पच्चारिअ - उपालंभ - प्राप्त
पच्चालिय- प्लावित
पच्चावेणिअ -- सन्मुख आगत पच्चुअ - दीर्घ
पच्चुच्छाहण - मदिरा, सुरा पच्चुडरिअ - प्रत्युद्गत
पच्चोल्लिड - प्रत्युत
पच्छल - पश्चात्
पद्मामुर – वृद्ध पट्ट – वस्त्र
पड - ग्राम की सीमा का स्थान
पडअसाइमा -- भील के सिर पर पहनी जाने वाली पत्रपुटी
पडंसुआ - प्रतिध्वनि
पडसुगा --- मोर्वी, धनुष्य की डोरी पडड्डाली - क्रीडा
पडमा - तंबू
पडहच्छ-- १ समूह । २ प्रतिपूर्ण पडहत्थ - प्रतिपूर्ण
पडार - चोरों का समूह
पडिअ -- १ मंगलपाठक । २ आचार्य पडिउंचण -- प्रतिकार पडिक्किआ - प्रतिकृति
पडिज्झय - विसर्जक पडिपल्लिल -- पूजनीय
पडिरिग्गअ - भग्न
पडिसिद्धि - प्रतिस्पर्धा
-
पडिसोत्त- प्रतिकूल पsिहस्थिय - परिपूर्ण पडुज्जइणी - युवती, तरुणी पडोल्लिय - अत्यन्त आक्रुष्ट
देशी शब्दकोश
पड्डु बायां हाथ पडुल्ल - निर्धन
पढुक्क - प्रवृत्त - प्रवृत्त इत्यर्थे देशी पत्तण्णी - रथ्या
पत्तल - १ पतला, कृश, छोटायवीयस इत्यर्थे देशी ।
२ सुन्दर
यत्तलि --- पत्तों का बना भाजन
पत्तलिया- दुबली - कुशा इत्यर्थे देशी
पत्तुट्ठ - प्रवीण पत्थण-मोटा वस्त्र
पत्थर - मौर्वी, प्रत्यंचा पत्थरी - १ बिछौना । २ समूह पत्थी – पात्र, भाजन पत्थेवाअ --- पाथेय
पथिप्पिर - गलता हुआ पबोल्लिअ - प्रकथित, कहा हुआ पमय — मर्कट पम्हलिअ -- धवलित, सफेद किया हुआ
पम्हुट्ट - १ प्रमुषित। २ प्रसृष्ट परइ-प्रभात
परट्ट - १ भीत । २ पतित । ३ पीडित
परभत्त - १ भीरु । २ निष्पीड परय – १ प्रभात । २ आने वाल
दिन
परवाली - पर स्त्री
परिअंभ - कर्मकृत्
परिअवि - परिच्छिन्न
परिअद्रिअ - प्रकटित, व्यक्त परिअड्डअ - प्रकटित
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परिशिष्ट १
४८३
देशी
परिअम्मिअ-अलंकृत
पविसट्ट--विकसित परिअल-थाल
पव्वंचलक्क-अशक्त परिआल-परिवृत
पसव-नकुल-नकुल इत्यर्थे देशी परिआली–भोजन-पात्र
पसविय-नकुल-नकुल इत्यर्थे परिओस-विद्वेष-विशेष परिक्खाइअअ-परिक्षीण पसाइमा-भील के सिर पर परिचड्डण-१ परिमर्दक ।
पर्णपुटी २ परिमर्दन
पसुल-जार परिचड्डिय-१ आस्वादित । पहिल-पहला, प्रथम २ आरूढ
पहिल्लय-प्रथम, पहला परिचक्किय-परिभ्रष्ट-परिभ्रष्ट
पहुत्त प्राप्त इत्यर्थे देशी
पहुल्ल-प्रभूत परिच्चड-उत्क्षिप्त
पाइक्क-पदाति परिछंडिय-परित्यक्त
पाउरण-कवच, वर्म परिणडिअ-वंचित
पाउल-१ प्रसन्न स्त्रियों का समूह । परिमोक्कल-स्वैर, स्वच्छन्द
२ याचक परियंदणय-लोरी
पाउहारी-भातपानी लाने वाली परियल-थाली
पाडय-उपनगर परिसक्किर-चलित
पाहुअ—साक्षी, प्रतिभू परिहाइअ-परिक्षीण
पाडहुक-प्रतिभू, मनौतिया पलहिअअ-मूर्ख, पाषाण-हृदय पाडिग्गह-विश्राम पलिहइ क्षेत्र, खेत
पाडिहेर-प्रातिहार्य पल्लक-लम्पट
पाडी-भैंस की बछिया पल्लट्टिय-परिवर्तित
पाइअ-प्रिय, पंडा पल्लिअ-१ आक्रान्त । २ ग्रस्त ।
पाडोस-पडोस ३ प्रेरित
पाडोसिअ-पडोसी पल्लित्त-पर्यस्त
पाढा-शोभा पल्लीवण-चोरों की पल्ली पाणट्ठी-रथ्या पल्हत्थ-पर्यस्त
पाणाअ-दोनों हाथों का आघात पवट्ठ-दक्ष
पादुग्ग-सभ्य पवत्तिया-संन्यासी का एक उपकरण पामर-किसान पविग्ध-विस्मृत
| पाम्मि---पाणि, हाथ
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४८४
पायमूल -- नर्तक की जाति- विशेष
पारक्कय - शत्रु
पारग्गह—– युद्ध पारत्ति - कुसुम - विशेष पारद्धिय-व्याध, शिकारी — व्याघ
-
इत्यर्थे देशी
पारमर
-राक्षस
पारा उट्ठय- -वृक्ष - विशेष
पालखी-शिविका, पालकी
―――
पालित्तिअ - १ राजधानी । २ मूल नीवी । ३ भण्डार । ४ भंगी,
प्रकार
पालिद्धय - बांस से वेष्टित पताका
पावय - वाद्य विशेष
पासण्ण- १ घर का द्वार । २
तिरछा
पासुय - शुद्ध, प्रासुक पाहड -- परिपूर्ण
स्त्री
पाहिआवडा -- ललना, पाहुण - अतिथि ( पाहुण - मराठी,
राज
पिउच्चा - सखी
पिउच्छा - सखी
पिउसिआ - पिता की बहिन
पिंजर - १ हंस । २ वृष पिंजल -प्रमाण पिंजुरुअ- भारंड पक्षी
पिंडरव - तैल आदि बेचने वाला
व्यापारी
पिडवास - सेवक
पिच्छल्ल ---- लज्जा पिडय - आविग्न
पिडिल्लिक - क्रूर पिड्डुइअ - पिप्पिया - दन्त- मैल
-प्रशान्त
पियल -- तिलक
पियल्लिया - प्रिया
पिल्लि -- यान - विशेष पिल्लुग - छींक
पिसक्क - पिशाच - पिशाच इत्यर्थे देशी
पिहुण - पिच्छी
पीईय- वृक्ष - विशेष, गुल्म का एक
प्रकार
पीढी-काष्ठ- विशेष
पीलु - हस्ति- शावक पुअइ- - चांडाल पुइअ - चांडाल
देशी शब्दकोश
पुखणग - चुमाना, विवाह में होने वाली एक रीति (पोंखणुं - गुज) पुंगल-श्रेष्ठ, उत्तम
पुंजय - कतवार (पुंजो - गुज ) पुंडरिआ -- उत्कलिका
पुंडरीय - जल - व्याघ्र
पुंभ - नीरस, दाडिम का छिलका पुंसुल - विसंवाद
पुग्ग- वाद्य-विशेष
पुट्टल - गठरी, पोटली
पुट्टलय - - गट्ठर, पोटली
पुत्तर—- योनि
पुप्फस - फेफड़ा
पुष्की - पिता की बहिन, फूफी
पुर- प्रचुर पुरिअ - दैत्य, दानव
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परिशिष्ट १
पुप्फुआ -- करीष की अग्नि
पुलंधअ -- भ्रमर भ्रमरा पुल्लि -- शबरजाति विशेष--- शबरजातिविशेषे देशी
पुष्बंग - मुण्डित पुसिय-मार्जित मार्जित इत्यर्थे
देशी पूण - गर्वित
पूल - ढेर, पुञ्ज पेंडइय-पिंडित
--
पेक्किअ - बैल की आवाज
पेज्ज लिअ - संघटित
पेट्ट पेट
पेदंड - लुप्त - दण्डक, जुए में जो हार गया हो पेलव-मादंव
पेल्लावेल्लि - संभ्रम
पेल्ल | वोल्लि - इधर से उधर और उधर से इधर खींचना पेसणआली दूती, दूतकर्म करने वाली स्त्री
पेहुणय - पिच्छ- पिच्छशब्दार्थ देशी पोअग्ग - निर्भय
पोइअ - इन्द्रगोप
पोंग-पाक, पकना
पोक्का - पुकार, चिल्लाहट पोक्किय चिल्लाहट
पोट - उदर पोट्ट - गठरी पोट्टरिय---पिण्डी पोट्टलय -- पोटली, गठरीग्रन्थिशब्दार्थे देशी
――
पोट्टलिक-नौली आदि साधन पोट्टि - उदर-पेशी पोट्टुल्ल-पेट पोत्त-वस्त्र
पोष्फली - सुपारी का वृक्ष पोमाइय - १ प्रशंसित । २ अवलोकित
पोमाइयय - प्रशंसित
पोमासणु -- पद्मासन पोमिणी – कमल का सरोवर
पोरत्थ - ईर्ष्यालु पोरवग्ग - विश्राम पोली – दरवाजा, पोल्लर - तप - विशेष
पोल
४८५.
फ
फंफाव - बंदि - विशेष
फंफावय-- बंदी, चारण - बंदि - चारणादय इत्यर्थे देशी
फडस - खंड
फर- काष्ठ का पट्ट
फरअ - १ काष्ठ - पट्ट | २ शस्त्रविशेष
फर विकद - फरका हुआ, हिला हुआ
फरहत्थ ----- फहराता हुआ फलस - कार्पास
फार -- प्रचुर — प्रचुर इत्यर्थे देशी फारक्क - ९ स्फारक अस्त्र ।
२ स्फारक अस्त्र को धारण करने
वाला । ३ ध्वज
फारविकय - स्फारक अस्त्र को
धारण करने वाला फिफर - कठूमर, फल- विशेष
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________________
४८६
फिक्कार - फेत्कार, सर्प की फूंकार फिट्टा - मार्ग, रास्ता
फिरक्क --भार ढोने वाली गाड़ी फिरिक्का — गाड़ी फिल्लुस - फिसलना
फोणिया - एक प्रकार की मिठाई फुंका - फूंक, मुंह से हवा निकालना फुड्डु - स्पष्ट
फुन्न-छिपा हुआ फुल्लंधअ-भ्रमर
फुल्लुद्धय- --भ्रमर फेंद नर्तक
फेडावणिय - विवाह- समय की एक रीति, वधू को प्रथम बार लज्जा
परिहार के वक्त दिया जाता उपहार
फेफस - फेफड़ा
फेरण - फेरना, घुमाना
फेरिअ - घुमाया हुआ फेला – जूठन, उच्छिष्ट फेलिय - उच्छिष्ट धान्य फोणिया - एक प्रकार की मिठाई
ब
बंकड - बकरा
बंड - १ अपहृत स्त्री । २ कैदी बंद कैदी, कारा-बद्ध मनुष्य बंदिबन्दी
बंदिर समुद्रवाणिज्य - प्रधान नगर, बंदरगाह
बंबुल -बबूल का वृक्ष बंहल - आवेश
बग्गड - देश - विशेष बट्टाउ - बटोही, पथिक
बड --- महान्
बडहिला - धुरा के मूल में दी जाती कील बत्तीस-बत्तीस
बप्प -- १ पुत्र का सम्बोधन - शब्द |
२ मूर्ख
बप्पडय - बेचारा
बप्पी - चातक
बप्पीहय- - चातक
देशी शब्दकोश
बबूल - बबूल-वृक्ष बब्बरिया - चेटी
बब्भासा - नदी - भेद, वह नदी जिसके पानी में धान्य बोया जाता है। बम्हहर - कमल
बम्हाणी - गोधा
बम्हाल — अपस्मार, वायु रोग विशेष बम्ही - वाणी.
बलय - बैल
बलहट्ट्या - चने की रोटी बलायण -१ उद्यान आदि में मनुष्यों के बैठने के लिए बनाया जाता स्थान । २ द्वार, दरवाजा
बलिआ - सूर्प, अन्न को तुषादि रहित करने का एक उपकरण बलि-वृषभ, बैल
बलिमड्डा - बलात्कार बलिवंडा - बलात्कार बलीमुह-वानर, बंदर बहिअ - मथित, विलोडित बहिणुल्ली - छोटी बहिन
बहुत बहिर्मुख बहुजाण - १ चोर । २ धूतं बहुधारिणी - नववधू
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परिशिष्ट ।
४८७
बहुरा-सियारिन
बूल-मूक, वागशक्ति से शून्य बहुराण-असिधारा
बहक्क-चिल्लाहट बहली-माया, कपट बहुल्लिआ-बड़े भाई की स्त्री
बेट्टिका-बेटी, राजकन्या बहल्ली-क्रीडोचित शालभजिका,
बेडय-नौका, जहाज खेलने की पुतली
बेडिया नौका, जहाज बाअ-बाल, शिशु
बेडी-नौका, जहाज बाइगा-माता
बेण्णि -दो बाइया-मां, माता
बल्ल-बैल बाउल्लय-१ भित्तिचित्र । बेल्लग- बलीवर्द, बैल
२ खिलौना । ३ गुड़िया बोगुवारिय-विभूषित बाउल्लया-पञ्चालिका, पुतली बोज्झ-भार बापीकी--पैतृकी
बोट्ट-जूठा करना, उच्छिष्ट बारह-द्वादश, बारह
बोलण-डूबना बालालुंबी-तिरस्कार
बोलिदी-लिपि-विशेष, ब्राह्मीबाल्ल-बोल
लिपि का एक प्रकार बाहिरि-बाहर
बोलिय -व्याप्त बाहडिय-लज्जित, भयभीत
बोलीण--व्यतिक्रान्त बीयत्तिय-१ बीज बोने वाला।
बोल्ल-कोलाहल २ पिता
बोल्लाविअ-१ बुलाया हुआ। बुंध-मूल
२ भाषित, उक्त बुबा-चिल्लाहट, पुकार
बोल्लिअ-कथित बुक्कार-बूत्कार, पुकार
बोहित्थिय-नौका-स्थित बुक्कावण-मुष्टि-प्रक्षेप बुड्डिर--महिष, भंसा
भइल-भया, जात (?) बुड-बूढा
भंगोठण-व्रणित, व्रणयुक्त बुर–बुरादा, काठ का चूरा भंभेरी-वाद्य-विशेष बुल-बोड, धार्मिक
भंवरि-विवाह में फेरे देना बुलबुल-बुलबुला
भंहलअ-मूर्ख बुलुबुल–बुबुद
भगुंडिय-उद्धूलित बुल्लाविय-कथित
भग्गलअ-अप्रिय बढउ-बूढा
भच्च--भागिनेय, भानजा
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४८८
देशी शब्दकोश
भडक्क-आडंबर, ठाठबाट भिटिया-भंटा का गाछ भडभेडी--दास-दासी
भिभल-विह्वल भडारी-भट्टारिका
भिट्टण-भेंट, उपहार भडित्त-पका हुआ
भिट्टा–भेट, उपहार भडिल-संबोधनसूचक शब्द भिडंत-युद्ध भत्थ-तूणीर, तरकस
भिडण-लड़ाई, मुठभेड़ भदुलय-चूहा
भिडिअ-आक्रान्त भप्पर-भस्म-भस्म इत्यर्थे देशी । भिडिय-जिसने मुठभेड़ की हो वह, भमरटेंटा–१ भ्रमर की तरह
लड़ा हुआ अक्षिगोलक वाली। २ भ्रमरवत् । भिलिंग-धान्य-विशेष, मसूर अस्थिर आचरण वाली।
भिल्ल-भील-शबरजातिविशेषे ३ शुष्क व्रण के धब्बे वाली
देशी भम्म-सुवर्ण
भिसया-आसन-विशेष भरवसय-भरोसा
भीड - मिलना, सटना भलहल्ल--भौंकने वाला, कुत्ता भीडिअ-जिसने मुठभेड़ की हो वह भलावण-दायित्व देना
भीतर-दरवाजा भलिम-भलाई
भीयर-भयंकर भल्ल-भद्र, भला
भीसावण-भीषण भल्लार--अधिक भद्र, भद्रतर भुंगल-वाद्य-विशेष भल्लारय-शुभ, उत्तम
भुंभुरभोलय-अत्यन्त भोला भल्लोड-शर का अग्रभाग भुंभुरभोलिया–अत्यंत भोली भसआ-शृगाली
भत्थल्ल-बिल्ली को फेंका जाता भसत्त-१ अग्नि । २ दीप्त
भोजन-विशेष भसल--भौंरे का शब्द-भृगशब्दार्थे
भुरकुंडिय-लम्पट देशी
भरुद्र-कंटीला पौधा, भरूंट भाउल-भ्रम से आकुल
भुल्ल ---भूला हुआ भाण-म्लेच्छ जाति-विशेष भल्लय-भ्रान्त-भ्रान्त इत्यर्थे देशी भाणवी--शनिश्चर
भुसुंढि-शस्त्र-विशेष भाल्ल-मदन-वेदना, काम-पीड़ा भमणया--स्थगन, आच्छादन भावई-गृहिणी
भहरी--तिलक-विशेष भावुक-वयस्क, मित्र
भेक्खस-१ राक्षस, भयदाता । भिउड-शरीर का अवयव-विशेष । २ राक्षस का प्रतिपक्षी
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परिशिष्ट १ भेखस-राक्षस
हुआ। ४ आरब्ध भेज्जल्ल-भीरु, डरपोक .. मंतवखर-लज्जा मेडक्ति-भीरुचित्त, कायर मंदीरय-मंथानक मेल-अतिवृद्ध
मंभीस-अभय देना भोट्टण-भृतक
मक्खण-नवनीत भोल-१ भद्र, सरल चित्तपाला । मडक्क-१ गर्व । २ मटका २ मूढ
मडक्किया-छोटा मटका भोलवणा-वञ्चना, प्रतारण
मडप्पर-गर्व, अभिमान भोलविय-वञ्चित, ठमा हुआ मडहिय-अल्पीकृत, न्यून किया
हुआ
मडहुल्ल-लघु माअ-विस्तीर्ण . .
मड-अलस मइयवट्ट-विनाशक, मर्दक
मडुल्ल --गवित मइलण - मलिनीकरण
मढिगा-कुटीर मइलपुत्ती-पुष्पवती, रजस्वला
मदोली-दूती मइल्ल-मलिन
मद्द- बलात्कार मइग्वण-क्षेत्रपाल
मद्दणसलामा - सारिका, मैना मंकम-बंदर
मन-निषेधार्थक अव्यय, मत, नहीं मंकुसनेवला
मन्नुसिय-उद्विग्न मंगि-स्त्री
मप्प-माप, बाट मंजर-मार्जार
मन्पा - आज्ञा मंजीरय-पैर का आभूषण-विशेष
मभक्खर-सुरा मंट-१ मूक । २ आलसी।
मम्भीसिय-डरो मत-ऐसा अभय ३ बौना
वचन मंटिय-बौना
मम्मक्क–१ गर्व । २ उत्कंठा मंठ-१ ऊंचा-नीचा। २ मंद । मम्मण-अव्यक्त वचन ३ मष्ट
मम्मीस-अभय वचम मंठ्वयंठ-समीपस्थ प्रदेश
मयण–१ मैना, सारिका । २ मोम मंड-बलात्कार मंडय-चपाती, मांडा
मयहरिगा–वेश्यामाता मंडल-काक
मयासि देव मंडिअ-१ रचित, बनाया हुवा । मरजीब-मोती के लिए समुद्र में
२ बिछाया हुआ। ३ आगे धरा । गोता लगाने वाला
सिक्थ
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४६०
देशी शब्दकोश मरजीवय–समुद्र के भीतर उतर । घठितो जिरह इति रामदास
कर जो वस्तु निकालने का काम | टीकायाम् करता है वह
माण-परिमाण-विशेष, दस सेर का मरट्टा-उत्कर्ष
माप मरट्टिय-गर्वित
माभीस-अभय वचन मरह-गर्व
माम-१ आमन्त्रणसूचक अव्यय । मरिअ---१ टूटा हुआ, त्रुटित ।
२ मामा। ३ श्वसुर २ विस्तीर्ण
मामि-आधा मरुकुंद-मरुआ, मरुवे का गाछ मायइ-वृक्ष-विशेष मलइअ--- १ हत । २ तीक्ष्ण मायण्हिया-मृगतृष्णा मलहड–१ तुमुल ध्वनि। मायबप्प-माता-पिता २ गजित । ३ शोक
मारिव-गौरव मलहल-कलकल, कोलाहल माला-डाकिनी मलिय-मदित
माहुंडल-सर्प-विशेष मल्हंत-मौन करता हुआ मिअ-१ अलंकृत । २ विघटित मल्हण-मदयुक्त
मिढ–हस्तिपालक, महावत महइ-१ श्मशान । २ इच्छा मिढय-मेष, भेड़-मेषशब्दार्थे देशी महण-पूजक
मिढी-मेषी, मेढी-मेषस्त्री इत्यर्थे महप्पुर- प्रभाव, माहात्म्य
देशी महल्लिया-अंतःपुर की महत्तरिका | मिरिक्क-मत्सरी महाइय-१ महात्मा। २ महद्धिक मिलाअ-बलात्कार महारअण-वस्त्र
मिल्लिय-मुक्त, रहित महारुंद-परिपूर्ण-पूर्ण इत्यर्थे देशी मिसिमिसिय-उद्दीप्त, उत्तेजित महिअदुअ-घी का किट्ट
मीण-सिक्थ, मोम महिंड--कर्दम
मुअग्ग-आत्मा बाह्य और अभ्यन्तर माअली-मृदु
पुद्गलों से निर्मित है-ऐसा माइय-समाविष्ट, समाया हुआ
मिथ्या ज्ञान माउच्चा-सखी
मुंकुरुड-राशि, ढेर माउसिआ-फूफी
मुंगुरुड-राशि, ढेर मांड-मंडी, कलप
मुंट-हीन शरीर वाला माडा-समकाल
मंडिय-अश्वशाला के दोनों ओर माढी-कवच-माढी सन्नाहिका इति गाडा जाने वाला काष्ठद्वय
देशीसारः, देश्यां लौहाङ्गुलीय- | मुकुंडी-जूडा
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परिशिष्ट १
मुक्कोट्ठिय-उद्वेष्टित मुग्गरय - मुग्धा के साथ रमण मुग्गुअ --- न्यौला, नकुल
मुचमुंड - जूडा मुट्टिम - गर्व
मुद्दग - १ उत्सव । २ सम्मान मुद्धड - १ उद्धत । २ अकुटिल, प्रांजल
मुद्धयंद - पूर्णिमा में उदय काल का भास्वर चांद
मुमिअ-शीलत मुयंगलिया - चींटी मुरुअ - त्रुटित मुरुडी - शृगाली
मुरुक्क — मुडा हुआ मुरुविक पक्वान्न विशेष मुल्लिअ - शीलित मुसमरण --भंजन, दलन मुसल - मांसल, पुष्ट मुसुमूरण-भंजन, दलन मुसुमूरविअ - मंगाया हुआ
मुसुमरिअ - भांगा हुआ मुहला - कोलाहल
मुहुल - बन्दी
मूअल्लिअ - मूक बना हुआ मरविअ - तापित
मेइणी – चंडालिनी
मेंढअ-मेष, मेंढा मेक्ख
मे --- महावत
- पास का खेत आदि
मेठिअ - गृह, घर
मेडय -- मंजिल, तला
मेमण--में में शब्द करना मेम्मायंत - अनुकरणवाची शब्द
मेर-मर्यादा, सीमा
मेरयमर्यादा
मेलय - समूह
मेलावक्क - संगम
मेल्लअ - मोचक मेल्लाविय— मोचित
मेल्लिय - मुक्त-मुक्त इत्यर्थे देशी मेहरि - काष्ठ-कीट, घुण मेहरिया - मेहरी, गाने वाली स्त्री मेहलिया भार्या मेहली- भार्या
मोइल - मत्स्य - विशेष मोकल्लिअ - मोचित मोक्कलिय - मुक्त, मोचित मोक्कल्ल -- भेजना मोट्टाइय-रति-क्रीडा, मैथुन मोट्टाविय - बलात्कारपूर्वक रति - क्रीडा
मोट्टिम -- बलात्कार
मोट्टिया - मोटी स्त्री
मोट्टियार - मोटे आकार वाला मोडी - भगिनी
૪૨
मोड्डिय— भग्न
मोणावणा - प्रथम प्रसूति के समय पिता की ओर से किया जाता
उत्सवपूर्वक निमन्त्रण
मोरअ - अपामार्ग
मोरद्द - अपामार्ग
मोरुल्ल - मयूर
मोलग - बांधने के लिए गाडा हुआ
खूंटा
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४६२
देशी शब्दकोष
३ विरति, विराम
| रहमान-१ यवन मत का एक रउताणिया-रोग-विशेष, खुजली |
तत्त्ववेत्ता । २ खुदा, अल्ला रंकुय-क्षुद्रप्राणी
रहल्लि -तरङ्ग रंखोलिय-कम्पित
रहसोयर-उत्तेजक रंडत्तण--रंडापा
रहाविअ-स्थापित रंडिय-विधवा बनी हुई
रहिय-१ आच्छादित । २ रहा रंति-काम-क्रीडा
हुआ रंपण-तनूकरण, पतला करना
राअल्ल-तृण-धान्य, प्रियंगु रंफण-पतला करना, तनूकरण
राढाल-अतिविभूषाप्रिय रंभडिआ-गोधा, छिपकली
राण-दान रक्खणिया-रखी हुई स्त्री, रखेलिन रायंबुय---शरभ रक्खवाल-रखवाला, रक्षक रारडत-चिल्लाहट रगिल्ल-अभिलषित
रावण-रंजक, रंगनेवाला रच्चण-१ अनुराग। २ अनुराग
रावणहत्थ-वाद्य-विशेष करने वाला
राहा--शोभा रच्चिर-राचने वाला
रिअ-लून, काटा हुआ रज्ज---लेखक, लिखने का काम रिगिर – भ्रमणशील करने वाला
रिगिसिया-वाद्य-विशेष रज्जुसभा-शुल्कगृह
रिछ-तोता रडि-आक्रन्दन
रिछोली-परम्परा रडु-खिसक कर गिरा हुआ रिह-रेखा रणझणंत-घंटों की झंकार
रीडण-अलंकरण रमण-नितम्ब
रीण-१ दीन । २ क्लिष्ट । रलिया-अभिलाषा
३ श्रांत-श्रान्त इत्यर्थे देशी रल्लि-लम्बा मधुर शब्द
रीरिअ-शोभित रवण्ण-रमणीय-रमणीय इत्यर्थे
रुजिय-शब्द, गर्जना देशी
रुटण-आवाज रवरिअ-दूत
रुटिर-भौंरे का गुनगुनाना रसमस-मिसमिसाना
रुदिम-लम्बाई, विस्तार रसोई-रसोई
रुदी-विस्तीर्णता, लम्बाई रसोयणी-रसोई बनाने वाली रुप-१ त्वचा। २ उल्लिखन रहण-१ स्थिति । २ त्याग । | रुक्ख-वृक्ष (रूंख-राज)
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परिशिष्ट १
रुज्झिअ - रोका हुआ रुट्टिया - रोटी
रुणरुण - करुण क्रन्दन
रुणुरुणिय – करुण क्रन्दन करने
वाला
रुमिल्ल – अभिलषित
रूअरूआ - उत्कण्ठा
रूई अर्कद्रुम, रूई
रूविय - अर्कवृक्ष रेक्किअ - आक्षिप्त
रेल्ल - चालन रेल्ल विय–प्लावित
रेल्लि -- प्रवाह रेल्लिय स्रोत, प्रवाह रेवंगि अस्त्र - विशेष रेहा -शोभा
रोक्क — रोकड, रोक्कअ-प्रेक्षित
जमा
रोझ - रोझ, नील गाय
रोप्पल - गवाक्ष, झरोखा रोयर - रुचिकर
रोरव - दारिद्र्य
रोरसणिय - गांव के दरिद्र लोग रोल - दरिद्र
रोव - पौधा
रोह - इच्छा, मति
रोहिआ - व्रणित व्यक्ति की शिविका
ल
लक्षण - १ तनु । २ कोमल लइ - १ अच्छा, ठीक । २ शीघ्र । ३ आज्ञा । ४ अतिशयवाचक अव्यय । ५ वाक्यालंकार में
प्रयुक्त अध्यय
लइणा
-लता
लंगिम - १ जवानी । २ ताजापन,
नवीनता
लंजि- प्रदेश
लंजिया - १ दासी - दासी शब्दार्थे
देशी । २ लंगड़ी लंडुअ-- उक्षिप्त
लंबुसय - एक प्रकार का आभरण
लक्कड - काष्ठ
लक्खणा - सारसी, मादा सारस लक्खि-विघटित
लग — निकट
लगड- - गधों पर रखा जाने वाला उपकरण- विशेष
लगुण - लगन, इच्छा लट्ठरी - सुंदर
४६३
लडहा - विलासवती स्त्री लड्डिय - लाड, प्यार
लद्दण - भार-क्षेप, लादना लद्दी - हाथी आदि की विष्ठा लम्मिक्क चोर
लयअ— लिया
ललललिय - चञ्चल - चंचल इत्यर्थे देशी
ललाविय --- प्रसारित
लल्ल -- अस्पष्ट भाषी - अस्पष्टभाषी इत्यर्थे देशी
लल्लक - रौद्र - रौद्र इत्यर्थे देशी लवअ -सुप्त
लवध -- सुप्त लसअ—— तरु-क्षीर
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४६४
देशी शब्दकोश
लहग-बासी अन्न में पैदा होने __वाला द्वीन्द्रिय कीट-विशेष लहरी-१ तरंग । २ प्रवाह लाग-चुंगी, लगान लाड-वस्त्र-विशेष लाणि-१ मर्यादा। २ अन्त लावणा-भोजन जो उपहाररूप में __ घर-घर भेजा जाता है लासअविम्हअ-मयूर लाहिल्ल-लम्पट लिबोहली-निम्ब-फल लिज्जिअ-गृहीत लिल-यज्ञ लिल्लिर-१ हरा । २ हरे रंगवाला लिल्लिरय-वस्त्र-खण्ड लिहअ-सुप्त लीह-रेखा लुक्क-सुप्त लुक्किम-१ टूटा हुआ। २ छिपा
लेहाल-लम्पट लोअग-गुण-रहित अन्न, खराब
अनाज लोट्ट-१ अति आसक्त । २ स्मृत लोट्ठ-स्मृत लोडाविध-घुमाया हुआ लोण-घृत लोर-१ नेत्र । २ आंसू लोहल-शब्द-विशेष, अव्यक्त शब्द ल्हसण-खिसकना, स्रेसन ल्हसिअ-१ हर्षित । २ स्रस्त,
- खिसका हुआ ल्हिक्कविअ-छिपाया हुआ
हुआ
लुच्छी–बाल, कुंतल लुट्ट-लूटा गया लुणालुणि-वह क्रीडा जिसमें
परस्पर पेंतरे बदले जाते हैं लुलिअ-लेटा हुआ लुल्लक्क-यमदूत लुहण--शुद्धि, मार्जन लड-लूटनेवाला लडण-लूट, चोरी लरिअ-काटा हुआ, छिन्न लूह-रुक्ष लेवि-पक्षी लेसुरुडयतरु-~लसोड़ा, गूंदा
वअणीअ-१ उन्मत्त । २ दुःशील वअल-१ कलकल । २ वट वृक्ष वइ----१ बदि, कृष्ण पक्ष । २ मर्यादा वइरिक्क-विजन, एकान्त वइसणय---आसन-विशेष वउवलअ-विषरहित सर्प वंजर-मार्जार वंडइम-पीडित वंदणिया-शौचगृह वक्क-पिष्ट, पिसान वक्खल-आच्छादित वक्खलिअ-पुरस्कृत वग्धसिअ-युद्ध वच्छीत-नापित वच्छीपुत्त-नाई वच्छुद्धलिय-प्रत्युद्धत वच्छोमी-काव्य की एक रीति वज्जघट्टिता-मंदभाग्य स्त्री वज्जिर-बजने वाला
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परिशिष्ट १
४९५
बट्टइ-निश्चित
वपशअ-भार वट्टउ -कटोरी
वप्प-१ पिता। २ बाप रे वट्टमग-मार्ग
वप्पाहय–चातक पक्षी बट्टाविअ-समापित
वप्पिअ-परिपूर्ण घटु-पात्र-विशेष
वप्पिक्की-पैतृकी बटुत्तिविडि-बर्तनों या घड़ों को वप्पिवअ-खेत एक पर एक चिनना (वडेर
वप्पीह-कुमार राजस्थानी)
वम्मल-कोलाहल वडप्फर-बड़ा फलक
वम्मीसण-कामदेव वडलसर-जपवान्
वम्मुल्लरण--मर्मवेधक वडिणाय-घर्घर कण्ठ
वम्मुल्लूरिय-मर्मविद्ध वडिया-उद्देश
वयंग-फल-विशेष पडिसाअ-टपका हुआ
वयणुल्ल-मुख वडमग-मार्ग, रास्ता
वयाल--कोलाहल वडुइअ-चर्मकार
वयालिय-व्याप्त वडारय-महत्तर
वरंडिया-छोटा बरंडा बडिम-१ टपका हुआ। २ बड़ाई, वरडा--१ तैलाटी, कीट-विशेष । श्लाघा
२ दंश-भ्रमर वांडुल-बड़ा, महान्
वरत्त-१ पीत । २ पतित । वड्डुअ-बड़ा
३ पेटित, संहत
वरय-वराक, बेचारा बड्डया-वाटिका
वरह-रज्जु
वरालय-वाहन-विशेष वड्ढुअर-बृहत्तर
वराहव-राहु वढ -१ मूक । २ मूढ । ३ वट वरिल्ल~-वस्त्र वढत्तण-मूढता
वरुय-वृक, भेड़िया वणनत्तडिअ-पुरस्कृत, आगे किया | वलइल्ल-वल्लभ हुआ
वलक्किअ-उत्संगित, उत्संग-स्थित वणसुण-भेड़िया
वलत्थ--पर्यस्त वत्ताहण-रस्सी पर नाचने वाला वलविअ-जपवान् नट
वलहिय-बरामदा धन्द्र-समूह
| वलाएल्लण-वल्लभ
पड्ढारय-बड़ा
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४६६
देशी शब्दकोश
वलाणय-द्वार
वाइगा-माता बलिअ-मौर्वी, प्रत्यंचा
वाउलिआ---छोटी खाई वलिमंड-बलात्कार
वाउल्ल-पुतला वलिवंड-बलात्कार
वाउल्ला -पुतली बलुंकी-ककडी
वाओलि-झंझावात वल्लंक-भीषण
वाक्खर-बाखर वल्लव---गायों का समूह
वाघेल--एक क्षत्रियवंश वल्लविअ--लाक्षा से रंगा हुआ वाड-रहने का स्थान वल्लरय-खाद्य-विशेष
वाडंबी-घोडे का आभूषण वल्लरिय-मांसपेशी
वाणुंजुअ-वणिक् ववडअ-ब्राह्मण
वामरोर-वल्मीक वव्वीस-वाद्य-विशेष
वामलर-वल्मीक वव्वीह-चातक पक्षी
वायड-१ एक श्रेष्ठि-वंश । २ वसचोप्पड-वसा से लिपटा हुआ- तोता
वसावलिप्त इत्यर्थे देशी वारड्ड-अभिपीड़ित वसतंड-काक
वाराय--अतिथि वसुआविअ-शुष्क किया गया वाख्या-हस्तिनी, हथिनी बसेरय-बसेरा, निवास-स्थान वालाहिय-सरोवर, झील वसेरी-गवेषणा
वालिअ-गर्वित वस्सोक-एक प्रकार की क्रीडा वावंफिर-श्रमशील वहअ-मणिकार
वावल-व्यापृत वहइअ-पर्याप्त
वावल्ल-१ शस्त्र-विशेष, भाला। वहलप्पण-मूर्ख
२ बावला, पागल वहिअ-मथित
वासण-पात्र, बरतन वहिय-अवलोकित
वासिया--स्त्री बहियवड--बही-खाता
वासी-कर्दम वहिया-बही, हिसाब लिखने की वासूया-हथिनी किताब
वाहडिया-कांवर, बहंगी वहिलग-ऊंट, बैल आदि पशु वाहयाली-अश्वखेलनभूमि वहुज्जा-छोटी सास
वाहलिय-खेलने का मैदान वहणिआ-बड़े भाई की पत्नी वाहलिया-छोटा जल-प्रवाह वहोलिया-छोटा जल-प्रवाह वाहस--अजगर वाइअ-मंत्रवादी
| वाहियालि-अश्व-वाहन-मार्ग
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परिशिष्ट १
४६७
वाहुडण-गमन
विच्छोलिअ-कंपित पाहुडिअ-गत, चलित
विजयाइ-खाद्य-विशेष वाहोलिया-छोटा जल-प्रवाह । विज्ज-देश-विशेष विअंटत-१ अवरोपित । २ मुक्त विज्जे-१ रास्ते से । २ लिए विआलिउ-व्यालू, सायंकाल का विज्झ-धक्का भोजन
विज्झड़--समूह विचिआ-पामा-रोग
विट्टलय-अपवित्र-अपवित्रार्थे देशी विउडण-१ विनाश । २ विनाशक
विट्टालि–अपवित्र करने वाला विउडिअ-विनाशित
विट्टालिअ-उच्छिष्ट किया हुआ विउल-१ क्षीर । २ आविग्न विद्रित -अर्जित विओलय-उद्विग्न
विडत्त-अजित विटलिआ-गठरी
विडाविड-निर्मित विढिया--अंगूठी
| विडिरिल्ल-भयंकर विदुरिल्ल-१ उज्ज्वल । २ कलकंठ।।
विडच्छअ-निषिद्ध ३ म्लान । ४ विस्तृत
विडविल्ल-भीषण विभइय-विस्मित-विस्मितार्थे देशी
विड्डम-भय विभय-विस्मय
विडय-चमत्कार
विड्डर--१ विस्तार । २ असंभावित विक्खणय-कार्य
आपदा विगिचणया-१ परित्याग ।
विड्डुरिल्ल-१ आटोप, आडंबर । २ विनाश
२ आटोपित विगत्त–पीडित
विड्डरी-आडंबर विग्गुत्त-व्याकुल किया हुआ विड्डिरिआ-रात्री विग्गोवय-व्याकुलता
विड्डिरिल्ल-आडंबर विच्चल-नंगा, वस्त्र-रहित विड्डुरी-आडंबर विच्छडु-१ वैभव । २ विस्तार विढवण-उपार्जन विच्छड्डी-वैभव
विणड-१ व्याकुल । २ विडम्बना विच्छुअ-पिशाच
विडिय-वंचित-वंचित इत्यर्थे विच्छुरिअ-अपूर्व
देशी विच्छढ-विरहित
वित्थक्क-१ विरोधी के रूप में विच्छोइय-विरहित
प्रस्तुत । २ आक्रमण । ३ निरुद्ध विच्छोम-विदर्भ नगर
वित्थिर-विस्तार, फैलाव विच्छोय-विरह
विद्धवयण-विदग्ध वचन
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૪૨૬
विप्पत्ती - १ व्रत । २ उत्सव - विशेष विप्पलय - विविधता, विचित्रता विष्फs - विशाल
विब्भाडण - १ विनाश । २ विनाशक
विब्भाडिय - १ नाशित | २ अपमानित
विभिय-विस्मय
विम्हरावण – स्मरण कराने वाला
वियज्झ - परवश वियड्डू - विशेषरूप से शीतल वियाइय- बच्चे देना
वियारिय-१ कान मरोडना । २ चपेटा देना
विरण्णिअ-आर्द्र, गीला विरहि - वृक्ष - विशेष विराम इल्ली - विराम करने वाली
विरिचर --- धारा
विरिचिर:-धारा से विरेचन करने
वाला
विव्वोयण--- उपधान विसंभर-- तन्तुवाय विसग्ग- व्युत्सर्ग
विसट्टंत - १ विकसित । २ उत्थित । ३ विघटित
विसट्टण - विकास विसय - विकसित
विसड्डू - शोभित विसद्धत -- पतन
विसर - वाद्य - विशेष विसार - सेना
विसिड - १ विरत । २ विसंस्थलचंचल
देशी शब्दकोश
विसुराविय - खिन्न किया हुआ विस्सा णिज्जंत- मृष्ट विस्सुअ— उन्मत्त विहडण-अनर्थ
विहल मौर्वी
विश्वय - कुत्सित
विलंखल-विह्वल
विरोलण - १ बिलौना करने वाला । विहाणय - प्रभात
२ विनाशक
विरोल्लिय- कदर्थित विल - योनि
विवरम्मुह - पराङ्मुख विवराहुत्त - विपराङ्मुख
विवरेर वर्णन करने वाला विवरेरय-विपरीत
विवाविड - अतिशय गौरव
विवोल - विशेष कोलाहल विवोलिअ - व्यतिक्रान्त
विहडफड - विस्फुरित- विस्फुरित इत्यर्थे देशी
विहिम - जंगल, अरण्य
विहिमिहिय विकसित, प्रफुल्लित विहोय - वैभव वीअदुहिय-भृत वीबी-तरंग वीवी वीचि, तरंग वोसालिअ - मिश्रित वुक्करंत - भौंकता हुआ
वुक्करिय- शब्दित, शब्द किया हुआ चुक्कारिय—गर्जना
-
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परिशिष्ट ।
४६६
बज्जण-स्थगन, आच्छादन | वेला-मर्यादा बा-विनष्ट
वेल्लंत--व्याकुल होता हुआ बुमण-बुनना
वेल्लडिया-वल्लरी बुणिय-बुना हुआ .
वेल्लरिअ-बाल, केश बुणउ-दीन, उद्विग्न :
वेल्लरिया-वल्ली, लता वृष्णिय-भयभीत
वेल्लव-१ विलास । २ लता बल्लाह-अश्व की एक उत्तम जाति वेल्लवल्ल-१ कोमल । २ विलासी। बुल्लीण-भ्यतीत
३ सुन्दर वणक-बालक
| वेल्लहल्ल-सुन्दर वय-बुना हुमा
वेसंत-पल्वल, छोटा तालाब वेङ्क-१ तनु । २ शिथिल। . वेसिणी–वेश्या
३ आविद । ४ ऊर्वीकृत। वेहाविद्ध-कोपाविष्ट - ५ विसंस्थुल, विषम, चंचल वेहाविद्धय-कोपाविष्ट वेहल्ल-विचकिल का पुष्प
वेहाविय-वञ्चित वेउब्बिया-पुनः पुनः
वेहियर-जहाज वेंड-सुरापिष्ट
बोक्क-यकृत्, कलेजा वेंमल-विह्वल
वोक्का -१ अनिमित्त । २ तात्पर्य वेखास-विरूप
वोक्कड-बकरा-अज इत्यर्थे देशी वेखासम-विरूप
वोक्का -१ वाद्य-विशेष। २ पुकार, वेगड-पोत-विशेष
व्याहृति वेगर-द्राक्षा, लोंग आदि से मिश्रित | वोक्खारिय-विभूषित . चीनी आदि
वोग्गिण्ण-अलंकृत . ... वेच्छिल्ल-कोरंट-वृक्ष
वोट्रि-आसक्त, लीन वेज्म-धक्का
वोड-१ दुष्ट । २ छिन्न-कर्ण वेटिअ-वेष्टित
वोडही-१ तरुणी । २ कुमारी वेड-श्मश्रु
वोढ --१ दुष्ट । २ छिन्न-कर्ण वेडणी-लज्जा
वोद्दही-तरुणी वेणुसाअ-भौंरा
वोल-१ आर्द्र-आर्द्र इत्यर्थे देशी। वेण्ण-आक्रान्त
२ समूह वेमइअ-भग्न
वोलाविअ-अतिक्रामित वेडिय-खचित
वोल्लिय-आर्द्र किया हुआ वेययंड-हाथी
। वोसट्टिअ-विकसित
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________________
५००
देशी शब्दकोश वोसिरण-व्युत्सर्जन
| संवती-नदी वोहित्त-प्रवहण, नौका
संविड्डाणा-कुलीन व्युड-विट, भडुआ
संसाअ-१ आरूढ । २ चूर्णित । व्वे-संबोधन-सूचक अव्यय
३ पीत । ४ उद्विग्न संसोइअ-आरूढ
संसूडिय-संभग्न समली-शृगाली
संसोसिअ-१ चूर्णित । २ भीत । सइकोडी-वज्र
३ आरूढ । ४ उद्विग्न सइत्त-मुदित
सकप्प-१ आर्द्र। २ अल्प। सइत्तय-१ स्वस्थ । २ मुदित
३ धनुष्य । ४ प्रचुर सइलासिय-मयूर
सखर-गीध सइसिलिप्प-तरुण, युवा
सचराह-एकाएक, शीघ्र संकेल्लिअ-संकुचित
सचीसग-वाद्य-विशेष संखुड्डुण-सुरतक्रीडा
सच्चवण-अवलोकन, दर्शन संखोडी-व्यतिकर
सच्चवय-द्रष्टा संगहण-जारिणी-युगल
सच्चीसय—वाद्य-विशेष संगोल्ल-समूह
सच्छिह-सदृश संच-१ शरीर-बन्ध । २ समूह
सज्झतिया-बहिन संचडिय-आरूढ
सझडप्प- झटपट संचाइय-१ समर्थ । २ आरूढ
सट्ट-१ सटा हुआ। २ विनिमय, संचुल्ल-चुगलखोर
सट्टा संजत्ति-तैयारी, निर्माण सट्टि-विनिमय संजत्तिअ--तैयार किया हुआ
सडा-प्रलंब केश संजत्ति-तैयारी
सडिअग्गिअ-१ बढाया हुआ ! संजोइय-निरीक्षित, दृष्ट
२ प्रेरित संढी - ऊंटनी, सांढनी
सड्डी-विनिमय संतिय-सम्बन्धी
सत्त—गत, गया हुआ संतो- मध्य-'अंतो संतो च मध्यार्थे'
सद्धा-दोहद (साधर गुज) संपुअ - भूताविष्ट
सन्नित्थ-परिहित, पहना हुआ संफिट्ट-संयोग
सन्नुमिय-आच्छादित संभडिय-भिडा हुआ
सप्पडोड्डिय-जहरीले वृक्ष का फल संभिन्न-आघात
सप्पत्तिआ–बालिका संभेड-संघट्टन, आक्रमण
| सप्पा--कांची
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परिशिष्ट १
सप्पासंग-दीर्घ ...
सबलहण—विलेपन सफर-मुसाफिरी
सवलिआ-भरोच का एक प्राचीन सविस-मदिरा.
__जैन मन्दिर समचाइम-बलवान्
सवातिण्णि-सवा तीन, ३१ समम्भिडिय-भिड़ा हुआ सविला-पासा समरद्र--गर्व-युक्त-सगर्व इत्यर्थे देसी | सहर-सहायक समराइअ-पिसा हुआ, आटा साइमा-सारिका समलहिय-अभिलिप्त
साउली--१ वस्त्र । २ वस्त्राञ्चल समसीसिआ-स्पर्धा
साड-विध्वंसक समहत्थ-पैंतरा
साडी-साड़ी समाषण- भोजन, भक्षण
साणिअ-शान्त समाणिय-भुक्त
सामिसाल-स्वामी समारोडिय-रौंदा गया
सारिनर-महावत समुत्तुण-गर्वित
सारी-अच्छा समप्पित्थ- भयभीत
सारोवही-लज्जा समुप्पुसिअ-प्रोंछित, पोंछा हुआ साल-वृक्ष समुव्वग्ग-उद्वेलित
सालक्किआ-सारिका, मैना समोलइल-समुत्क्षिप्त
साहग-कथक, कहने वाला सम्हर-स्मरणीय
साहाणुसाहि-शक देश का सम्राट सय-हाथ
साहार--१ साहुकार । २ सहारा, सरवद-स्वरोदय
उपकार । ३ साधारण । ४ आम्र सरसरट-छिपकली
साहालय-दधिशाला सरिवअ-हंस
साहिण-कहने वाला सरिस-१ साथ । २ तुल्यता,
साहुल-मयूर-पिच्छ समानता
साहुलिआ-१ वस्त्र । २ शिरोवस्त्रसरी–माला, हार
खंड । ३ शाखा । ४ भौं । सरील्लइ-काम-पीडा
५ हाथ । ६ कोयल । ७ सदृश । सरंजा--वाद्य-विशेष
८ सखी । ६ मयूर-पिच्छ सरेवाम-हंस
सिअणअ- श्मशान सल--चिता
सिअल्लि-वृक्ष-विशेष सलवट्टि- सलवट, सिकुड़ना सिंचाण-बाज पक्षी सलवल---अनुकरणवाची शब्द | सिजिर-ध्वनि
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५०२
देशी शब्दकोश सिंथ--धनुष की डोरी
एक प्रकार सिंदाण-विमान
सिहंडहिल्ल-बालक सिंदुर-रज्जु
सिहड-सोए व्यक्ति का नासा-शब्द सिंदूरिआ-राज्य
सीउग्ग-शीतकाल का दुर्दिन सिंधुवणअ-अग्नि
सीउल-हिमकाल का दुर्दिन सिंबासिबि-अतिशीघ्र, चटपट सीउल्लि-शीत ऋतु का दुर्दिन सिंहलअ-वस्त्र आदि को धूपित सीकोत्तरी--महिला करने का यंत्र
सीसक्क--तुष सिक्कड-खटिया
सीसम-शिंशपा, सीसम का गाछ सिक्करिअ-शृंगार से उत्पन्न सीहली-१ शिखा । २ नवमालिका कुतूहल
सुइयाणिया-सूति-कर्म करने वाली सिक्करिआ-जहाज का आभरण
स्त्री विशेष
संकाणिअ-पतवार खेने वाला सिक्किरि-छत्र
व्यक्ति सिगरि-ध्वज-चिन्ह
संचल-काला नमक सिग्गिरि--१ पताका । २ छींका।
| सुक्कड-शुष्क-शुष्क इत्यर्थे देशी ३ नीलवर्ण-नीलवर्ण इत्यर्थे देशी | सुक्कतरु ----अगरु सिज्जमाण-पकता हुआ-पच्यमान | सुक्काणय-जहाज के आगे का
इत्यर्थे देशी। (सीजना-राज) ऊंचा काष्ठ सिट्टा--सोए हुए व्यक्ति के नाक का
सुज्झुअ-धोबी शब्द
सुढिय -दुखित-दुःखित इत्यर्थे देशी सिट्र-सोकर उठा हुआ
सुदारुणी-चांडालिन सिडिंग-विदूषक, प्रहासक सुप्पाडोस—अच्छा पड़ोस सिडी-सीढी, निःश्रेणी
सुमंठ-घुटा हुआ, सुमृष्ट सिणिसिव-तन्तुवाय
सुरावण ----कुत्रिकापण सिणी-लज्जा
सुलोस-कुसुम्भ वस्त्र सिप्पि-शुक्ति
सुवन्नालुगा-दतवन करने का पात्र, सिप्पीर-तुष, पलाल-धान्यादीनां लोटा आदि तुषमित्यर्थे देशी
सुवासिणी-जिसका पति जीवित सिलिधय-बालक
हो वह स्त्री, सुहागिन सिलिप -- बालक, बच्चा
सुविसत्थ-व्यभिचारी सिल्ल-१ भाला । २ जहाज का । सुस्विजा-माता
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परिशिष्ट १
५०३ सुहच्छी- आसन-विशेष, सुखासिका | हक्किय-१ हांका हुआ । २ प्रेरित । सुहाग-सौभाग्य (सुहाग-राज) | ३ निषिद्ध । ४ आहूत । ५ उन्नत सुहावण-सुहावना
हक्खुविअ-उत्पाटित सुहिल्ल-सुखी, आनन्दित
हच्छं---शीघ्र सुहेल्लिय-सुखपाल
हडहड-१ अत्यंत बिखरे बालों सूडिय-भांगा हुआ
वाला । २ भोजन-वस्त्र आदि से सूणार-१ वधस्थान । २ वध
रहित सूरिल-श्वसुरपक्ष
हडाविय --हटाना-दूरोत्सारित सेआलिआ-दूर्वा
इत्यर्थे देशी सेर-परिमाण-विशेष, सेर हडि-अभ्यस्त, हठी-अभ्यस्त सेलग - भाला
इत्यर्थे देशी सहली-गणिका
हड्डुव–कलह सेहीर-सिंह
हड्डाल--अस्थियुक्त-अस्थियुक्त सोअण-मल्ल
इत्यर्थे देशी सोआल--देवता को भेंट
हणिअ-सुना हुआ सोज्झिअ- निद्रालु
हत्थर-सहायता सोण्णार-स्वर्णकार
हत्थावार-सहायता सोमालिया -हाथी की सूंड
हत्थिहार--युद्ध सोरी--कसाई
हत्थुत्थल्ल-हाथ के इशारे से सोलत्तग- अपहृत धन के साथ
आज्ञा देना सोवणय--१ शयनगृह । २ शयन
हथलेव-पाणि-ग्रहण सोहल-उत्सव (सोहलो-गुज)
हद्धिण--आंखमिचौनी सोहलय-उत्सव सोहिल्ल-पिष्ट
हर-तृण हरण-१ स्मरण । २ ग्रहण ।
३ वस्त्र हंसल-आभूषण-विशेष
हरहाइ-चरागाह हक्क-१ निषेध । २ हांक । हरिकिडि-वराह ३ ललकार, पुकार
हरिवर-मण्डूक हक्कंत-निषेधमान
हरिसोल्लिय-उल्लसित हक्का-१ पुकार । २ प्रेरणा हरे-संबोधन-सूचक अव्यय हक्कारअ-दूत, हलकारा
हलफलय--प्रक्षोभ हक्किऊण-हांक कर
| हलबोलिय- त्वरा, हलफल
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५०४
हलब्बोल – कोलाहल हलहलिअ - कम्पित हलिणि - किसान की पत्नी
हलुव — लघु
हल्लंत - १ शोभमान । २ वेपमानलसदर्थे देशी
हल्लपविअ - त्वरित
हल्ल फलय - १ शीघ्रता, हड़बड़ । २ कंपनशीलता । ३ आकुलता
हल्लाविअ - हिलाया हुआ हल्लियय -- चलित
हल्लुत्ताल - शीघ्रता
हल्लुत्तावल - शीघ्रता, उतावल हल्लुप्फलिय--१ आकुल । २ आकुलता । ३ शीघ्र
हल्लोहलि-व्याकुल हवाइद्ध - कुपित
हाम - इस प्रकार
हालिणि - किसान की स्त्री हासिअ - दत्त, दिया हुआ हिंडिर - घूमने वाला हिंडोली - खेत की रक्षा करने का यंत्र
हिबिआ - शिशुओं की एक पैर की क्रीडा - विशेष
हिंदु-- हिन्दू
हिज्ज - दुःख सूचक अव्यय हित्त-असती, कुला हिद्ध स्रस्त, खिसका हुआ हिल दुम - वृक्ष - विशेष हिलिहिलिय - हिनहिनाते हुए हिल्लूर झूला होर - महादेव, शिव होला – अवहेलना
हुडुमा - ध्वजा
हुर—दुःख
हुरड— कुछ-कुछ पकाया हुआ चना आदि धान्य, होला
हुरुडुक्खिय - डमरु हुरुहुंडिअ —अवनत
-
हुरुहुल्लारु – हर्ष ध्वनि हुलु भुलि-कपट हुलुविआ - प्रसव करने वाली हुल्लि - १ पुष्पवती बेल । २ बालक
हूलण - शूली पर चढानाशूलाद्यारोपणे देशी हूलिय— पिरोया हुआ
हुहुइय - शंख-ध्वनि
हेक्किअ - १ उन्नत । २ उत्तम ।
३ चुम्बित हेट्ठाउय - अधोमुख हेट्ठामुह - अधोमुख
देशी शब्दकोश
हेडा – १ समूह । २ अखाड़ा । ३ बृहत् मृत्युभोज । ४ द्यूतक्रीडास्थल
हेडाउड -- परिभ्रमणशील व्यापारी हेडावs - पशुओं का व्यापारी डावर्णिय - पशुओं का व्यापारी हेडि - १ श्रृंखला । २ होड पअ - उन्न
हेरिय - दृष्ट, अन्वेषित
हेला - अविच्छिन्न स्वर से रुदन हेल्लि अद्भुत
वाइय - गर्व - प्राप्त,
F
समण - उन्नत हेसिअ - शब्द करना होहल्लर — कोलाहल
आसक्ति प्राप्त
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परिशिष्ट-२
देशी धातु-चयनिका
[इस परिशिष्ट में देशी धातुओं तथा आदेशप्राप्त धातुओं का चयन किया गया है । आगम, उनके व्याख्याग्रंथों तथा प्राकृत व्याकरण की धातुएं सप्रमाण एवं क्वचित् ससन्दर्भ संगृहीत हैं। त्रिविक्रम व्याकरण, पाइअसद्दमहण्णवो तथा कुछ अन्य प्राकृतग्रंथों से गृहीत धातुएं बिना प्रमाण के संकलित हैं । आदेशप्राप्त धातुओं के संस्कृत धातु रूप भी कोष्ठक में दे दिए गए हैं ।] !
अइच्छ (गम्)-गमन करना (प्रा ४।१६२) । अइच्छ (अति+क्रम)-उल्लंघन करना (ओनि ५१८)। अइमल्ह-धीमे चलना। मई (गम्)-गमन करना, जाना (प्रा ४११६२) । अंगुम (पूरय)-पूरा करना (प्रा ४११६६) । अंगोहल–स्नान करना (व्यभा १० टी प ५२) । अंच (कृष्)-१ खींचना (दश्रु ८।१०) । २ खेती करना। ३ रेखा करना
(प्रा ४११८७)। अंच-झुकाना-'अचेति ति वा णामेति ति वा एगळं' (सूचू १ पृ २४०) । अंछ (कृष)-१ खींचना-'अंछंति वासुदेवं अगडतडम्मि ठियं संतं'
(विभा ७९४) । २ लम्बा होना (विभा ७६५) । अंछाव (कृष)-खींचना-'अब्भतरियं जवणियं अंछावेइ'
(भ ११११३८) । अंछि-निकालना, आकर्षण करना (आवहाटी १ पृ १५१) । अंबाड (तिरस्+कृ)-तिरस्कार करना (उसुटी प २) । अंबाड (खरण्ट)-लेप करना-'चमढेति खरण्टेति अंबाडे ति त्ति वुत्तं भवति'
(निचू ४)। अकु-खाना-'अकु भक्षणे' (आचू पृ ३४४) । अक्कुस (गम्)-गमन करना, जाना (प्रा ४११६२) ।
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५०६
देशीसम्यकोष
अक्खड-(आ+स्कन्द ) आक्रमण करना। अक्खंद- १ चखकर छोड़ना । २ नखों से कुरेदना (निचू २ पृ १२४) । अक्खोड (आ+स्फोटय)-थोड़ा या एक बार झटकना
(द ४ सू १६) । अक्खोड (कृष्)- तलवार को म्यान में से खींचना (प्रा ४।१८८) । अग्गुम (प)-पूरित करना।। भग्ध (मह)-प्राप्त होना (उ ६।४४)। अग्घ (राज)- शोभमा, चमकना (प्रा ४११००)। अग्धव (पूर)-पूरा करना (प्रा ४११६६) ।। अग्घाड (पूर)-पूरा करना (प्रा ४११६६) । अग्घोड (प)-पूर्ण करना। अच्चुक्क (वि+ज्ञापय)-विज्ञापन करना । अच्छ (कृष)-खींचना ।। अच्छ (आस)--बैठना, ठहरना (उशाटी प १४७) । अच्छिज्ज-आच्छादन करना (से १४।७) । अच्छुर-बिछाना-'संथारयं अच्छुरंति' (ओटी प ८३)। अट्ट (क्वथ्)-उबालना, पकाना (प्रा ४।११६)। अट्ट (शुष)-सूखना-'अटॅति णहअले च्चिअ मारुअभिण्णलहुआ सलिल
- कल्लोला' (से ५।६१) । अड-वंदना करना (आवचू १ पृ २७१) । अडखम्म-देखभाल करना-'अडखम्मिति सवरिआहि वणे'
(दे ११४१ वृ)। अड्डक्ख (क्षिप)-फेंकना (प्रा ४।१४३) । अड्डव-गिरवी रखना। अड्ड-रोकना (आवहाटी २ पृ ८७) । अणच्छ (कृष्)-खेती करना (प्रा ४।१८७) । अणुचिट्ट (अनु+स्था)---१ स्थिर रहना, टिकना-'सामण्णमणुचिट्ठई'
(द ५११३०)। २ अनुष्ठान करना।
३ करना। अणुवज्ज-सेवा-शुश्रूषा करना (दे ११४१ वृ) । अणुवज्ज (गम्)-गमन करना, जाना (प्रा ४।१६२) ।
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परिशिष्ट २'.. अणुसंभर (अनु+स्मृ)-याद करना। अण्ण (भुज)-खाना। अण्ह (भुज)-१ भोजन करना । २ पालन करना । ३ ग्रहण करना
(प्रा ४।११०)। अद्याल-मिश्रित करना (आवमटी प ४५२) । मद्धम (प)-पूर्ण करना, भरना। अप्पाह (अधि+आपय्)-पढ़ाना, सिखाना (से १०।७४) । अप्पाह (आ+मा)-संभाषण करना । अप्पाह (सं+विश्)--संदेश देना (व्यभा ७ टी प ७९)। अप्फड-आहत होना-पाएण वा खाणुए अप्फडइ' (निचू ३ पृ १२२) । अप्फुव (आ+क्रम्)-१ जाना (से ६।५७) । २ आक्रमण करना । अप्फोड--१ ताली बजाना (कु पृ १३२) । २ ताड़न करना । अम्बुत्त (प्र+दीप्)-जलना। अभड-पीछे जाना। अभिड (सं+गम्)-संगति करना (प्रा ४।१६४) । अम्मुत्त (स्ना)-स्नान करना (प्रा ४।१४) । अब्भुत्त (उत् + क्षिप्)-फेंकना । अब्भुत्त (प्र+दीप्)-१ प्रकाशित होना । २ उत्तेजित होना।
(प्रा ४११५२)। अम्माहि-काटना, पकड़ना, पीछा करना-'न मे सो सप्पो अम्माहिती'
(व्यभा ४.१ टी प १३)।। अयंछ (कृष)-१ खेती करना । २ खींचना । ३ रेखा करना
(प्रा ४।१८७)। अलिल्ल (कथय)-कहना। अल्ल-चिल्लाना। अल्ल (नम्)-नीचे झुकना । अल्लत्थ (उत्-क्षिप्)-ऊंचा फेंकना (प्रा ४।१४४) । अल्लव--समर्पण करना। अल्लि (आ+ली)-१ आना । २ प्रवेश करना । ३ जोड़ना । ४ आश्रय
करना । ५ आलिंगन करना । ६ संगत होना (प्रा ४१५४) ।
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५०८
देशी शब्दकोश अल्लिय (उप+सप)-समीप में जाना (आवचू १ पृ २१२) । अल्लिय (आ+ली) ---आलिङ्गन करना (प्रा ४।५४) । अल्लिव (अर्पय)-अर्पण करना (प्रा ४।३६) । अव– कहना। अवअच्छ (ह्लाद)-आनन्द पाना, खुश होना (प्रा ४११२२) । अवअच्छ (ह्लादय)-खुश करना (प्रा ४।१२२) । अवआस (दृश्)- देखना (प्रा ४।१८१)। अवंगुण-खोलना-'दुवारवयणाई अवंगुणंति' (भ १५।१४२) । अवक्ख (दृश्)--देखना (प्रा ४।१८१) । अवखेर-खिन्न करना। अवज्जस (गम्)-गमन करना, जाना (प्रा ४।१६२) । अवज्झ (दश)-देखना । अवडक्क- आत्महत्या करना । अवडाह (उत्--क्रुश)- ऊंचे स्वर से रुदन करना (दे ११४७७)। अवपंगुण-खोलना-‘णो पीहे ण यावपंगुणे' (सू १।२।३५) । अवपंगुर- खोलना (द ५।१।१८) । अवपुस- संयुक्त करना। अवयक्ख (अव+ईक्ष)-१ देखना । २ पीछे मुड़कर देखना
(ओभा १८८) । अवयच्छ (दृश्)-- देखना (प्रा ४।१८१) । अवयक्ख (अप+ईक्ष)---अपेक्षा करना । अवयज्झ (दृश्)-देखना (प्रा ४।१८१) । अवयास (श्लिष्)-गले लगाना (प्रा ४।१६०) । अवरुड-आलिंगन करना (दे १।११ वृ)। अववाह (अव-+गाह.)- अवगाहन करना । अवसिज्ज (अव+सद्)-हारना, पराजित होना (विभा २४८४) । अवसेह (गम्)-गमन करना, जाना (प्रा ४।१६२) । अवसेह (नश)- पलायन करना, भागना (प्रा ४।१७८) । अवह (रच)- निर्माण करना (प्रा ४।६४) । अवहर (नश्)--पलायन करना, भागना (प्रा ४।१७८) ।
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परिशिष्ट २
अवहर ( गम् ) - गमन करना, जाना ( प्रा ४।१६२) । अवहाड - आक्रोश करना (दे १।४७ ) | अवहाव ( ऋप् ) ) - दया करना ( प्रा ४। १५१) ।
अवहेड ( मुच् ) - छोड़ना ( प्रा ४६१) ।
अवुक्क (वि + ज्ञपय् ) -- विज्ञप्ति करना, प्रार्थना करना ( प्रा ४ | ३८ ) ।
अहिकल ( बह ) – जलाना ( प्रा ४ | २०८ ) ।
-
अहिखीर - १ पकड़ना । २ आघात करना ।
अहिपच्चुअ ( आ + गम् ) – आना ( प्रा ४११६३) ।
-
अहिपच्चुअ ( ग्रह ) --- ग्रहण करना ( प्रा ४१२०९) । अहिरेम ( पूरय् ) – पूरा करना ( प्रा ४। १६९ ) । अहिलंख (कांक्ष ) -- अभिलाषा करना (प्रा ४। १६२ ) । अहिलंघ (कांक्ष ) - अभिलाषा करना (प्रा ४।१ε२) । अहिलक्ख (कांक्ष ) – इच्छा करना ।
आ
आअंछ ( कृष्) - १ खींचना । २ जोतना, चास करना । ३ रेखा
करना ।
आअच्छ ( कृष्) - खींचना ।
आअड्ड (व्या + पृ ) - व्यापृत होना (प्रा ४।८१) ।
आअ - परवश होकर चलना ।
आअव्व (वेप्) - कांपना ।
आइंच - आक्रमण करना ।
आइंछ ( कृष्) - खेती करना ( प्रा ४।१८७ )। आइग्घ ( आ + घ्रा) - सूंघना ( प्रा ४|१३) । आउंट ( आ + कुञ्च् ) – संकोचना । आउट्ट ( आ + वृत्)
करना, व्यवस्था करना ( उशाटीप ३२९ ) । २ भूलना । ३ तत्पर होना । ४ निवृत्त होना । ५ घूमना । आउड ( लिख ) - लिखना (जंबूटी प २५० ) । आउड ( आ + जोडय् ) – संबंध करना । आउडाव - घुसेड़ना ( विपा १।६।२३ ) |
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देशी शब्दकोश
आउड्ड (मस्ज्)-डूबना, मज्जन करना (प्रा ४।१०१) । आऊड-जुए में शर्त लगाना (दे ११६६ वृ)। आओड (आ+खोटय)-- प्रवेश कराना । आओडाव-प्रवेश कराना-'आओडावेइ त्ति आखोटयति प्रवेशयति' .
(विपाटी प ७२) । आखंच (आ+कृष)-पीछे खींचना । आगंप (आ+कम्पय).-कंपाना, हिलाना। आघव (आ+ख्या)-१ निरूपण करना (नन्दी ८१) । २ ग्रहण करना। आघुम्म--डोलना, हिलना, कांपना । आचिक्ख–कथन करना (अंवि पृ ८३) । आजत्थ (आ+ गम् )--आना । आडुआल-मिश्रण करना (दे ११६६ वृ) । आडोह-भीतर घुसकर गड़बड़ी करना । आढप्प (आ+रभ्)-शुरू करना (प्रा ४।२५४) । आढव (आ+रम्) -आरम्भ करना (निचू १ पृ६) । आढा (आ+द)-आदर करना (विपा श६।१४) । आणक्ख (परि+ ईश्)-परीक्षा करना (निभा ४२५३) । आणच्छ (कृष्)-खींचना । आयंब (वेप्)-- कांपना (प्रा ४।१४७) । आयज्झ (वेप्)-कांपना (प्रा ४३१४७) । आयड्ड-परवश होकर चलना (दे ११६६ वृ)। आरड–१ चिल्लाना। २ रोना। आराअ-१ ग्रहण करना । २ प्राप्त करना । आरुण्ण (आ+श्लिष्)-आलिंगन करमा । आरेअ-पुलकित होना। आरोअ (उत्+लस्)-खुश होना (प्रा ४।२०२) । आरोक्क-रोकना। आरोग्ग-भोजन करना (दे १।६६ वृ)। आरोड--आक्रमण करना। आरोड (नि+रुध्)-रोकना ।
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आरोल (पुज)-एकत्र करना (प्रा ४।१०२) । आलिह (स्पृश)-स्पर्श करना (प्रा ४११८२) । आलुख (स्पृश)-स्पर्श करना (प्रा ४।१८२) । भालुंख (वह)- अलाना (प्रा ४।२०८) । भालुंघ (स्पृश्)-छूना। आलुक्ख (स्पृश्)-छूना। आलुक्ख (वह)-जलाना । माव (आ+या)—आना, आगमन करना। आवयास (उप+गह )-आलिंगन करना। आसंघ-आश्रय लेना-'आ+श्रि इत्यर्थे देशी।' मासंघ (सं+भावय)-१ संभावना करना । २ अध्यवसाय करना।
३ निश्चय करना (से १५॥६०)। भासगल-१ आक्रान्त करना । २ प्राप्त करना। आसर-सम्मुख आना। आह (कांक्ष)-अभिलाषा करना (प्रा ४।१९२) । आह (ब)-कहना। आहम्म (गम्)-गमन करना, जाना (प्रा ४।१६२) । आहल्ल-हिलना, चलना। आहड-गिरना (दे ११६६ व)। माहोड (तास्य)-ताउन करना (प्रा ४।२७) ।
इंघ-सूधना। इग्घ-तिरस्कृत करना। इज्झा (इन्ध्)-चमकना (प्रा २१२८) । इल्ल-आसिक्त करना, सींचना ।
ईजिह-तृप्त होना। ईस-वश में करना।
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५१२
उअ -- विलोकन करो, देखो (दे ११८६ वृ ) ।
उंघ - ऊंघना, नींद लेना - 'सो
उंच ( वञ्चय् ) - ठगना |
उंछ — खोज करना - 'उंछंति - गवे संतेत्यर्थः ' ( सूचू १ पृ १०७ ) ।
उंज (सिच्) - सींचना, प्रदीप्त करना - - 'सुद्धागणि वा उक्कं वा न उंजेज्जा, न घट्टज्जा' (द ४
सू २० ) ।
उक्कंक-धनुष्य पर डोरी चढ़ाना । उक्कुक्कुर (उत् + स्था ) – उठना ( प्रा ४।१७) । उक्कुर ( उत् + स्था ) — उठना ।
उक्कुस ( गम् ) - गमन करना, जाना ( प्रा ४। १६२) । उक्खंभ - उत्पाटित करना, उखाड़ना ( से ६।३३) । उक्खण - खांडना, निस्तुष करना (दे १।११५ वृ) । उक्खलंप - खुजलाना ( आचूला १।६२ ) । उक्खिल्ल - उखाड़ना ।
उक्खड ( तुड् ) - तोड़ना ( प्रा ४।११६) । उक्खुड्डु —— उखाडना, तोड़ना ( कु पृ १२६ ) । उक्खुलंप - खुजलाना ( आचूला १।६२ ) | उग्ग ( उद् + घाटय् ) - खोलना (प्रा ४३३) । उग्ग ( उद् + गम् ) – उगना, उदित होना । उग्गलच्छाव - खोलना ( राज ७५४ ) । उग्गह (रचय्) - निर्माण करना ( प्रा ४६४ ) । उग्घ ( नि + द्रा ) ऊंघना ।
उग्घस (मृज् ) - मार्जन करना (प्रा ४। १०५ ) ।
उच्चं - कहना (अंवि पृ १०७ ) ।
उच्चाड- -१ रोकना, निवारण करना । २ अफसोस करना ( प्रा २।१६३ टी) ।
उच्चिट्ठ (उत् + स्था ) - खड़ा होना ।
उचि चड -- लगना, चिपकना ।
उच्चुप्प - ( चट् ) चढ़ना (प्रा ४२५) ।
देशी शब्दकोश
उंघेउं पवत्तो' (निचू १ पृ १०६ ) ।
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परिशिष्ट २
उच्छिद -- उधार लेना ।
उच्छुभ ( अप + क्षिप् ) - आक्रोश करना ( प्र १।२७) ।
उच्छोड -- खोलना - 'उवहीए दोरयं उच्छोडेंति' (ओटी प ८३) । उच्छोल ( उत् + क्षालय् ) | — प्रक्षालन करना - 'उच्छोति पधोवेंति सिचंति सणावेंति' (आचूला ७।१६) ।
उच्छोल ( उत् + मूलय् ) – उखाड़ना ।
उज्जीर -- अपमानित करना - 'उज्जीरेइ सहीओ कुसुमसरोक्खंडिआ कए तुज्भ' (दे १।११२ वृ ) ।
उज्जुर - क्षीण करना ।
उज्झ-बुझाना (निचू ४ पृ ३५४) ।
उज्झर - १ टेढ़ी नजर से देखना । २ फेंकना ।
उट्ठ (उत् + स्था ) – उठना (प्रा ४११७) ।
-
उड्डु - १ वन्दन करना ( आवनि १९०६ ) । २ उड्डाह करना, उपहास करना
(निचू ३ पृ २९ )
।
उड्डहस्स - प्रद्वेष करना - ' दाउं व उड्डुरुस्से' (बृभा ६२२ ) । उड्डुयाल- - मथना ( दहाटी प ६० ) ।
उष्णाल ( उद् + नमय् ) - ऊंचा करना । उत्तण- गर्व करना (व्यभा ५ टीप १९ ) । उत्थंघ ( उद् + ममय् ) – उठाना ( प्रा ४१३६) । उत्थंघ (रुघ्) - रोकना (प्रा ४।१३३) । उत्थंध ( उत् + क्षिप् ) - ऊंचा फेंकना : ( प्रा ४५१४४०) उत्थग्ध ( उत् + क्षिप् ) - फेंकना ।
उत्थल ( उत् + चल् ) – चलना ।
उत्थल्ल ( उत् + शल् ) – उछलना, कूदना (प्रा ४११७४) । उत्थार ( आ + क्रम्) | आक्रमण करना ( प्रा. ४ । १६० ) । उद्दा- निर्माण करना ।
उद्दाय (शुम् ) - शोभित होना ।
उद्दाल ( आ + छिद् ) - हाथ से छीन लेना ( उशाटी प ३०१ ) ।
उद्धम ( पूरय् ) – पूरा करना ( प्रा ४। १६९ ) ।
-
उद्धुमा ( उद् + मा ) - १ प्रदीप्त करना । २ आवाज करना
(प्रा ४१८ ) ।
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देशी शब्दकोश उप्पण (उत्+पू)-धान्य को सूप आदि से साफ करना
(आचूला श८२)। उप्पाल (कथ)-कहना (प्रा ४।२) । उप्पुस-पोंछमा (से ११३३) । उप्पेल (उद्+ममय)--ऊंचा करना (प्रा ४।३६) । उप्फाल (उत्+पाटय)—१ उखाड़ना । २ उठाना (प्रा २।१७४) । उप्फाल (कष)-कहना। उफ्फिण-उफनना। उप्फुस-मिटा देना। उप्फुस (उत्+स्पृश)-खींचना । उप्फोस-त्रस्त करना (निचू २ पृ २०८) । उबुस (मृज्)-मांजना, परिमार्जन करना । उम्भालसूप से धान्य साफ करना । उब्भाव (रम)-क्रीड़ा करना, खेलना (प्रा ४११६८)। उब्भुत्त (उत् + क्षिप्)-ऊंचा फेंकना (प्रा ४११४४) । उमच्छ (वञ्च)-ठगना (प्रा ४।६३) । उमच्छ (अभ्या+गम्)-सामने आना। उम्मंथ-जलाना। उम्मत्थ (अभि-+आ+गम -सामने आना (प्रा ४११६५) । उयध—देखें (बृभा ४१५६) । उयह-देखें-'उयह-पश्यत मदीयानि वस्त्राणि इति' (वृमा ४१५६ टी)। उलंड-उल्लंघन करना, लांघना (दजिचू पृ ६१) । उलूव-बुझाना। उल्ल–१ उपसर्पण करना । २ चीरमा । ३ उलाहना देना । उल्लाल (उद्+नमय)--१ ऊंचा करना । २ ऊपर फेंकना
(प्रा ४।३६)। उल्लिंच (उद्+रिच)-निकालना, उलीचना-'उल्लिबइ ओयणाइ'
(पिनि ३६६)। उल्लंट-खंड-खंड करना। उल्लुंड (वि+रेचय)-झरना (प्रा ४।२६) । उल्लुक्क (तुड्)-तोड़ना (प्रा ४।११६) ।
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परिशिष्ट २
५१५. उल्लुङ (वि+रेचय)-विरेचन करना । उल्लुह (निस्+सु)-निकलना। उल्लुहंड-१ उन्नत होना । २ उन्नत करना । उल्लूढ (आ+रह.)-१ चढ़ना । २ अंकुरित होना । उल्लूर (तुड)-१ तोड़ना । २ नाश करना (प्रा ४।११६) । उल्हव (वि+मापय)-गीला करना, बुझाना (प्रा ४।४१६) । उल्हा (वि+मा)-१ बुझना । २ तमतमाना । उल्हाव (निर्धापय)-बुझाना। उवग्ध-अवगाहन करना, परीक्षा करना (निचू ३ पृ ३७३) । उववुत्थ-उपाय करना (कु पृ १५०) । उवसंखड (उपसं+कृ)-राधना, पकाना (आचूला ११४४) । उवहट्ट (समा+रभ)--आरम्भ करना । उवहत्य (समा+रच)-१ रचना, बनाना । २ उत्तेजित करना
(प्रा ४१६५) । उवेल्ल (प्रस)-पसरना (प्रा ४७७)। उव्वक्क-उबाक आना, वमन करना। उव्वर-उबरना, शेष रहना । उव्वाल (कम्)-कहना। उव्वाल (छादय) आच्छादित करना। उबिल्ल (प्र+स)–फैलना । उन्वेल (प्र+स)–फैलना। .. उन्बेल्ल-उद्घाटित करना, परतें उारवर-'कयलीखंभो व जहा, उव्वेल्लेउं
सुदुक्करं होति' (बृभा ४१२८) । उब्वेल्ल (उद+नमय)-ऊँचा करना। , उस्सर-१ बोना (बृभा ४०३५) । २ चढ़ना-उतरना (बृभा ४२२२) । उस्सिक्क (मुच्)-छोड़ना (प्रा ४१६१) । उस्सिक्क (उत्+क्षिप्)-ऊंचा फेंकना (प्रा ४।१४४) ।
कट-आच्छादित करना । ऊमिण-पोंछना।
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५१६
देशी शब्दकोश
ऊसल (उत्+ लस्)-खुश होना (प्रा ४।२०२) । ऊसाअ-१ विक्षिप्त होना । २ शिथिल होना। ऊसिक्क-प्रदीप्त होना । ऊसुंभ (उत्+लस्)- खुश होना (प्रा ४।२०२) । ऊसुक-परित्याग करना। ऊसुम्म-सिरहाना लगाना। ऊसुरुसुंभ-उल्लसित होना ।
एड-१ उत्सर्ग करना (भ १४:१०६) । २ हटाना, दूर करना । एस—करना-'तम्हा विणयमेसेज्जा, सीलं पडिलभे जओ' (उ १७) ।
ओ ओअंद (आ+छिन् )-१ बलात्कार से छीन लेना । २ नाश करना
(प्रा ४११२५) । ओअक्ख (दश)-देखना (प्रा ४।१८१) । ओअग्ग (वि+आप्)-व्याप्त करना (प्रा ४।१४१)। मोअग्घ-सूंधना। ओअल्ल-१ चलित होना, कांपना । २ प्रतारित होना। ओअव (साधय)-साधना, वश में करना (जंबू ३)। ओंगण (क्वण)- अव्यक्त आवाज करना। ओंघ (निद्रा )-नींद लेना (प्रा ४।१२ टी) । ओंबाल (छादय)-ढकना, आच्छादित करना (प्रा ४।२१)। ओंबाल (प्लावय)- १ डुबाना । २ व्याप्त करना (प्रा ४।४१) । ओग्गाल (रोमन्थाय)-पगुराना (प्रा ४।४३) । ओच्छंद (आ+क्रम)-१ गमन करना (से १०५५) । २ आक्रमण
करना (से १३।१६)। ओजिम्ह (ध्रा)-तृप्त होना। ओड----कंधा देना। ओड-ओढ़ना, आच्छादित करना । ओढ-धारण करना, ओढ़ना-'अन्नया भोइओ पावारयं ओढिऊण अगुरुणा
धूवेइ' भाकोटी पृ ४०६) ।
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परिशिष्ट २
ओत्थ ( स्थग् ) - ढकना ।
ओप्प - शाण आदि पर घर्षण करना ।
ओम्भाल -- सूप आदि से धान्य साफ करना ।
ओयव - सिद्ध करना - 'सिंधुदेवी ओयवेइ' ( आवटि प २० ) । ओरंप - १ छीलना । २ नष्ट करना ।
ओरस ( अव + त्) - नीचे उतरना (प्रा ४।८५) ।
ओरुम्मा (उद् + वा ) – सूखना, शुष्क होना (प्रा ४१११) ।
ओलंड ( उत् + लङ्घ ) – उल्लंघन करना, लांघना - 'अप्पेगइया मेहं कुमारं हत्थेहि संघट्टेति........अप्पेगइया ओलंडेंति.... '
( ज्ञा १।१।१५३) ।
अलग्ग - सेवा करना ।
ओलि - घर के चारों ओर घूमना - 'ओलितित्ति गृहाणि प्रति परिभ्रमन्ति' ( आवहाटी १ पृ १८३ ) ।
ओलिंप - खोलना ( पिनि ३५४ ) ।
ओलुंड (वि + रेचय्) - झरना, टपकना ( प्रा ४।२६) । ओलुह--अवरोहण करना, नीचे उतरना ( आवहाटी १ पृ १२१) ।
ओले
-घर के चारों ओर घूमना - ' णीयं च कागा ओलेंति जाया भिक्खस्स हरहरा' ( आवहाटी १ पृ १८३ ) ।
ओल्लर -
- शयन करना ।
ओल्लुड्डु (वि + रेचय् ) – विरेचन करना ।
ओवग्ग ( अव + क्रम्) - १ व्याप्त करना ( से ३।११) । २ ढकना, आच्छादित करना ( से ४।२५) ।
ओवास ( अव + काश् ) - शोभित होना ( प्रा ४१ १७९ ) । ओवाह ( अव + गाह ) - हृदयंगम करना ( प्रा ४।२०५) । ओवेड - १ निक्षिप्त करना, रखना (ओटी प १६ ) । २ फेंकना (ओटी प ३५) ।
ओव्वाल (प्लावय्) -प्लावित करना ।
ओसर ( अव + तू ) -- १ उतरना । २ अवतरित होना, जन्म लेना । ओसिंघाव - संघाना - 'सो भीतो अण्णं पुरिसं तं चुण्णगं ओसिंघावेति' (दअचू पृ ४३) ।
ओसिर - परित्याग करना ।
५१७
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५१८
देशी शब्दकोश ओसीस (अप+वृत्)-१ पीछे हटना । २ घूमना (दे १११५२ वृ)। ओसुख-उत्प्रेक्षा करना, कल्पना करना । ओसंभ (अवन-पातय)-१ गिराना । २ नष्ट करना (से ४।५४) । ओसुक्क (तिज्)- तीक्ष्ण करना (प्रा ४११०४) । ओसुब्भ (अव+पातय्)-नष्ट करना । ओह (अवत)-नीचे उतरना (प्रा ४१८५) । ओहच्छ (अव+आस्)-बैठना । ओहट-१ पीछे हटना । २ ह्रास पाना, कम होना । ३ हटाना।
४ तिरस्कृत होना। ओहर (अव+त)--अवतरित होना । ओहाड–बंद करना (निचू ३ पृ ४८४) । ओहाम (तुलय)-तुलना करना (प्रा ४।२५) । ओहाव (आ+क्रम)-आक्रमण करना (प्रा ४।१६०)। ओहिर (
निद्रा)-नींद लेना। ओहीर (सद्)-खिन्न होना (पा ५०७) । ओहोर (
निद्रा )---निद्रा लेना (बृभा १२८)।
कंठाल—गले में बांधना (कु पृ १३५) । कज्जल-पानी से भर जाना-'कज्जलेतित्ति पाणिते भरिज्जति'
(आचू पृ ३५७) । कज्जलाव (ब्रुड)--डूबना-'उवरुवरि वा णावा कज्जलावेति'
(आचूला ३।२२)। कट्ट (कृत्)-काटना । कडयड-कटकट आवाज करना । कड्ढ (कृष)-१ बाहर निकालना (उशाटी प १९३)। २ पढना, उच्चारण
__ करना (पंवटी पृ ७६) । ३ खेती करना । ४ रेखा करना
(प्रा ४।१८७) । कण्णाहिड-कान लगाकर सुनना-पिण्डेन सूत्रकरणं मा भूत् कश्चित् पदं
वाक्यं वा कण्णाहिडिस्सति' (आटी प ६२)। कमवस (स्वप्)--शयन करना (प्रा ४।१४६) । कम्म (कृ)--हजामत करना (प्रा ४१७२) ।
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परिशिष्ट २
कम्म ( भुज् ) - भोजन करना ( प्रा ४। ११० ) ।
कम्मव ( उप + भुज् ) – उपभोग करना ( प्रा ४।१११) ।
करंज (भ) - भांगना (प्रा ४ । १०६) ।
करयर -- 'कर' 'कर' की आवाज करना, चहचहाना - 'करयरेंति सउणया' ( कु पृ १६८ ) ।
कसमसाना ।
कसमस
- काण - काना करना, छेद करना--' कीस मे कोलालाणि काणेसि ! ' (आवचू १ पृ ६१४) ।
कालक्खर- -१ निर्भर्त्सना करना । २ निर्वासित करना ।
किलकिल - किलकिल करना ।
किलिfia ( रम् ) क्रीड़ा करना, खेलना (प्रा ४।१६८ ) ।
किलकिल - किलकिल आवाज करना ।
कुंट - पैर में चुभे कांटे आदि को खोदना - 'अण्णत्तो च्चिय कुंटसि, अण्णत्तो कओ खतं जातं (बृभा ६१६७ ) ।
कुट्ट - पीटना (निचू २ पृε) ।
कुण (कृ) - करना ( प्रा ४ । ६५) ।
५१६
कुण - नकल करना ( निचू ३ पृ ३९ ) ।
कुरकुर - बड़बडाना - 'भातुजायाओ य कुरकुरायति' ( आवचू १ पृ ५२६) । कुरुड -- काटना ।
कुवार --पुकार करना ।
केलाय ( समा+ रच् ) – रचना, बनाना (प्रा ४।६५) ।
-रचना करना ।
केवलाअ ( सम् + आ + रच्) केवलाअ ( समा+रम् ) -आरम्भ करना । कोआस (वि + कस् ) - विकसित होना (प्रा ४। १६५) । कोक्क (व्या + हृ ) -- पुकारना, बुलाना ( प्रा ४(७६) । कोट्ट - कूटना, पीटना ( आवहाटी १ पृ २६४) । कोट्टुम (रम्) - क्रीड़ा करना, खेलना (प्रा ४।१६८ ) । कोड्डुम ( रम् ) खेलना, क्रीड़ा करना ।
कोर - पात्र के किनारा लगाना, बांधना ( निचू ४ पृ २१७ ) ।
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५२०
देशी शब्दकोश
खउर (क्षुम्) क्षुब्ध होना (प्रा ४११५४) । खंकार-खेंखारना । खंच (कृष्)-१ खींचना । २ वश में करना । खंप (सिच्)—छिड़कना । खडखड-खटखटाना-पाएहिं खडखडे इ' (उशाटी प १३८) । खडखडाव-बजाना-'सव्वाउज्जाणि य खडखडावेह'
(आवहाटी १ पृ १३६) खडुक्क (आविस्+भू) प्रकट होना । खड्ड (मृद्)-मर्दन करना (प्रा ४।१२६) । खरंट-भर्त्सना करना (आवहाटी १ पृ २६७) । खरड (लिप्)-लीपना। खरवड-कुरेदना, इधर-उधर करना-'तं गंतूण पाएहिं खरवडे इ'
(उसुटी प ५४) । खरियाल—कदर्थना करना । खलहल–'खलखल' शब्द करना। खलाहि-दूर हटो-'गच्छक्खलाहि किमिहं ठिओसि ?' (उ १२१७);
'देशीपदमपसरेत्यस्यार्थे' (उशाटी प ३५६)। खस-खिसकना; गिरना। खिज्ज-१ खेद करना । उद्विग्न होना । खिर (क्षर्)-गिरना, टपकना (प्रा ४।१७३) । खिल्ल (खेल)-क्रीड़ा करना। खिल्ल (कीलय)-रोकना । खिस-खिसकना, सरकना । खील-कीलना। खुंद (क्षुद्)-१ जाना । २ पीसना । खुंद (क्षुध्)-भूख लगना। खुज्ज (परि+अस्)--१ फेंकना। २ निरसन करना। खुट्ट (तुड्)-१ तोड़ना । २ खूटना, क्षीण होना । ३ टूटना
(प्रा ४।११६)।
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परिशिष्ट २
खुड (तुड्) - तोड़ना ( प्रा ४।११६ ) । खुडुक्क (खुट्शब्दं कृ ) - खुट् शब्द करना ।
खुडुक्क- १ शल्य की तरह चुभना, खटकना (आटी प २२ ) । २ गुस्से से मौन रहना । ३ नीचे उतरना । ४ स्खलित होना । ५ प्रारंभ करना ।
खुड़क्क ( अप + क्रमय् )
हटाना ।
खुड्ड (तुड्) - तोड़ना - ' से तिलसंगलियं खुड्डुइ' (भ १५/७४) । खड्ड ( मृद्)
- मसलना ।
खुड्डुक्क – १ नीचे उतरना । २ स्खलित होना । ३ शल्य की तरह चुभना । ४ गुस्से से मौन होना ।
खुप्प (प्लुष् ) – जलाना ।
खुप्प ( मस्ज्) - मज्जन करना, डूबना (ओनि २४ ) । खुप्प - फेंकना ।
खुम्म ( क्षुध् ) – भूख लगना ।
खुव्व - डरना, घबराना (अंवि पृ २४५) ।
खेड --१ हांकना, ले जाना - 'सगडाई उप्पहेण खेडंति' ( उसुटी प ५१) । २ खेती करना । ३ शिकार करना ।
खेड्ड (रम् ) – क्रीड़ा करना, खेलना ( प्रा ४। १६८) ।
खेव - नौका को खेना ( नि १८ । १३) । खोक्ख
-वानर का बोलना ।
खोट्ट – खटखटाना, ठकठकाना ।
खोड - १ छोड़ देना, निषेध करना - 'सेसाओ खोडे यव्वाओ'
(भ १२।१७५) । २ स्खलित करना ( आवहाटी १ पृ २१५ ) । ३ फोड़ना; खंडित करना (अंवि पृ१४८ ) ।
खोहिव - विचलित करना ( कु पृ १०१) ।
ग
५२१
थलपहेण गउडइ' (निचू १ पृ७२ ) ।
गउड ( गम् ) - जाना --. गंज - १ पराजित करना । २ तिरस्कार करना । ३ मर्दन करना । ४ उल्लंघन.
करना ।
गंठ (ग्रन्थ) – गूंथना ( प्रा ४ | १२० ) ।
गडयड-गर्जन करना ।
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५२२
देशी शादकोशः गड्ड-गाडना। गढ (घट्)-१ बनाना (प्रा ४।११२) । २ मिलाना । ३ संचालन करना । गमेस (गवेषय)-खोजना (प्रा ४११८६) । गलत्थ (क्षिप्)-फेंकना (प्रा ४।१४३) । गहगह-हर्ष से भर जाना। गहग्गहाव-आनन्द से भर देना (बृटी पृ ११२३)। गुंज-(हस्) हंसना (प्रा ४।१६६) । गुंजोल्ल (उत्+लस्)-खुश होना (प्रा ४।२०२) । गुंजोल्ल (वि+लुल्)-बिखेरना । गुंठ (उद्+धूलय)-धूसरित करना (प्रा ४ ।२६) । गुप्प-व्याकुल होना (स्था ३।४६५) । गम (भ्रम)-घूमना, फिरना (प्रा ४।१६१) । गुम्म (मुह.)-मुग्ध होना (प्रा ४।२०७) । गुम्मड (मुह.)-मुग्ध होना (प्रा ४।२०७) । गुम्ह (गुम्फ)-गूंथना । गुलगुंछ (उत्+क्षिप्)--ऊंचा फेंकना (प्रा ४।१४४) । गुलगुंछ (उद्+नमय)-उन्नत करना। गुलगुल-हाथी का चिंघाड़ना। गलल (चाटौ क)-खुशामद करना (प्रा ४।७३) । गुलल-स्पर्श करना, सहलाना-'गुललइ हत्थेहि, चुंबइ मुहेण' (कु पृ २२५)। गुलुगुंछ (उद्+नमय)-ऊंचा करना (प्रा ४१३६) । गुलुगुंछ (उत्+क्षिप्)-ऊंचा फेंकना। गुलुगुच्छ (उद्+नमय)-ऊंचा करना । गुव्व-व्याकुल होना (भटी पृ १२३६) । गेण्ह (ग्रह)-ग्रहण करना (प्रा ४।२०६) ।
घंघल-घबराना, व्यग्र होना । घड-मन्त्रणा करना-'अण्णरायाणएहिं समं घडामि' (आवहाटी २ पृ १४१) । यत्त (क्षिप्)-फेंकना (प्रा ४११४३) । घत्त (यत्)-प्रयत्न करना-'घत्तिस्सामि त्ति यतिष्ये' (अंत ३।४७ टी प ८)।
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परिशिष्ट २.
५२३
घत्त (गवषय)--खोजना (प्रा ४।१८९) । घत्त (ग्रह)-ग्रहण करना। घल्ल (क्षिप)-फेंकना, रखना-सायरू उप्परि तणु धरइ, तलि घल्लइ
रयणाई' (प्रा४।३३४ टी)। घवघव-गंध फैलना-'गंधप्रसरणे देशी धातु ।' घा-तृप्त होना, अघाना-'तृप् अर्थे देशी।' घिप्प (ग्रह)---ग्रहण करना (उसुटी प २)। धिव-फेंकना-क्षिप् इत्यर्थे देशी।' घिस (प्रस्)-निगलना (प्रा ४।२०४) । घुट्ट-पेय पीते समय आवाज करना । घुडुक्क (घडघडाशब्दं कृ) गर्जन करना, घड-घड शब्द करना। घुम (घूर्ण )--चक्राकार घूमना (अंवि पृ८०) । घुम्म--घूमना (उसुटी प २३७) 'भ्रमणे देशी धातु।' घुरघुर- घूरना। घुरुक्क-घुड़कना, गरजना-'धुरुक्कंती वग्धा' (उसुटी प १३८) । धुरुधुर-घुरघुराना, सूकर की घुर्-घुर् आवाज-'घुरुघुरंति वराहा'
... (उसुटी प १३८) । घुरहुर-घुर्-घुर् करना । घुल (चूर्ण)-कंपित होना (प्रा ४।११७) । घुसल (मथ्)-मथना, विलोड़न करना (दश्रुचू प २५) । घसुल (मथ)-दही आदि बिलोना (पिनि ५८७)। घे-ग्रहण करो-'गृहाण इत्यर्थे देशी।' घेप्प (ग्रह)- ग्रहण करना (प्रा ४।२५६) । घोट्ट (पा)-पीना (अंवि पृ २५८) । घोल-लुढकना। घोल (चूर्ण)-घूमना, कांपना (निचू ४ पृ २४८) ।
चंछ (तक्ष)-छीलना। चंड (पिष्)-पीसना। चंप-चांपना, दबाना (प्रा ४।३६५) ।
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५२४
चंप ( आ + रुह ) – आरोहण करना, चढ़ना । चंप ( चच् ) – चर्चा करना ।
चक्कम (म् ) – घूमना (दे २६ वृ ) । चक्कम्म ( भ्रम् ) – घूमना फिरना (प्रा ४१६१) । चक्ख ( आ + स्वादय् ) | - चखना ( उसुटी प ११८ ) । चक्ख ( आ + चक्षू ) – कहना ।
चच्चार ( उप + आ + लभ् ) - उपालंभ देना ।
चच्चु ( अर्पय् ) - अर्पण करना ( प्रा ४।३६ ) |
चच्छ (तक्ष्) - — काटना ( प्रा ४११६४) ।
चज्ज (दृश् ) -- देखना ( दे ३।४ वृ ) |
चट्ट - चाटना - ' न य अलोणियं सिलं को वि चट्टेइ' ( उसुटी प ६१ ) । चड ( आ + रुह ) – आरोहण करना (निचू ३ पृ ५०१) ।
चडचड ---- चड-चड की आवाज करना ।
चडपड — छटपटाना, क्लेश पाना ।
चडफड - छटपटाना, क्लेश पाना ( उसुटी प ३०५ ) ।
चडाव - चढ़ाना |
चड्डु -- खिन्न होना (दअचू पृ ५५ ) ।
चड्डु (भुज् ) – भोजन करना (प्रा ४।११० ) ।
चड्डु ( मृद् ) – मर्दन करना (प्रा ४।१२६) ।
चड्डु (पिष्) पीसना ( प्रा ४ । १८५) ।
चढ (आ+ रुह ) - चढ़ना (व्यभा ३ टी प २७) ।
चप्प ( आ + क्रम् )
- आक्रमण करना, दबाना |
चप्प (चर्चा) – १ कहना । २ अध्ययन करना । ३ भर्त्सना करना । ४ चन्दन आदि से विलेपन करना ।
देशी शब्दकोश
चप्पड - - १ आक्रान्त होना ( सूचू १ पृ १६१) । २ तेल की मालिश करना—'तैलाभ्यङ्गने देशी ।'
-
चबचब- - चबाना, चब-चब शब्द करना (ओटी प १८७ ) ।
चमड (भुज् ) - भोजन करना ।
चमढ ( भुज् ) - भोजन करना ( प्रा ४|११० ) ।
चमढ - १ मर्दन करना । २ प्रहार करना । ३ कदर्थना करना । ४ निन्दा करना । ५ आक्रमण करना । ६ खिन्न करना ।
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५२५
परिशिष्ट २ चय (शक्)--समर्थ होना (सू १॥३॥१८) । चय (त्यज्)- छोड़ना (आ ६।२६) । चव (कथय)-कहना (प्रा ४।२)। चहुट्ट-चिपकना, लगना।। चाह (वाञ्छ)-१ चाहना । २ अपेक्षा करना । ३ याचना करना । चिंच (मण्डय)-विभूषित करना (प्रा ४।११५) । चिंचअ (मण्डय)-विभूषित करना (प्रा ४।११५) । चिचिल्ल (मण्डय)-मंडित करना (प्रा ४।११५) । चिच्च (त्यज्)-छोड़ना (उ १४।५०) । चिट्ठ (स्था)-ठहरना (आ २।६६) । चिड्डु----गीला होना। चिप्प-१ कूटना (बृभा ३६७५) । २ दबाना । चिम्मक-१ चमत्कृत करना । २ घूमना । चिरमाल (प्रति+पालय)-परिपालन करना । चिराव-विलंब करना। चिलिचिल-पक्षी का आवाज करना (कु पृ ८२) । चिलिस---घृणा करना। चिल्लूप (कांक्ष) --इच्छा करना । चीर-चीरना। चुक्क (भ्रंश्)-१ स्खलित होना (उशाटी प १४६) । २ वञ्चित होना ।
३ नष्ट करना (प्रा ४।१७७)। चण (चि)--चुगना, पक्षियों का खाना (प्रा ४।२३८)। चमचम--तोते का शब्द करना। चुलचुल-१ स्पंदित होना, फडकना (कु पृ २२१) । २ उत्सुक होना । चुलुचल (स्पन्द)--फरकना, स्पन्दित होना (प्रा ४।१२७)। चुलुवुल-स्फुरित होना-'कुऊहलं चुलुवुलेइ' (कु पृ ११६)। • चुल्लुच्छल-छलकना, उछलना (सूचू १ पृ १६४) देखें-छुल्लुच्छल । • चुहुट्ट-चिपकना, लगना । चेव-जागना। चोपय-चुगली करना (दश्रुचू प ४०)।
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५२६
देशी शब्दकोश
चोप्पड (म्रा)-स्निग्ध करना (प्रा ४।१६१)।
छंट (सिच)-पानी के छींटे देना, छिड़काव करना
(आवहाटी २ पृ २०७) । छंट-छांटना, छड़ना (प्रसाटी प १५२) । छंटय-छांटना, चावल आदि को छिलके रहित करना (प्रसाटी प १५२) । छंड (मुच्)-छोड़ना। छज्ज (राज)-शोभना, चमकना (प्रा ४।१००) । छज्ज-छप्पर डालना, घर छवाना-'गामेसु घराई छज्जेति' (कु पृ १०१)। छड (आ-+-लह.)--आरूढ होना, चढ़ना । छडु (मच)-१ छोड़ना (प्रा ४६१) । २ गिराना। ३ वमन करना। छमछम-छम-छम की आवाज करना । छिक्क-छींक करना। छिग्ग (छुप)-छूना । छिप्प (स्पृश)-----छूना, स्पर्श करना (प्रा ४।२५६) । छिव (स्पृश्)-स्पर्श करना (प्र ७।५) । छिव-धारण करना (प्रटी प ११५) । छिह (स्पृश)-स्पर्श करना (प्रा ४।१८२) । छंद (आ+क्रम्)-आक्रमण करना (प्रा ४।१६०) । छुक्क (भ्रंश्)-नष्ट होना। छछकार-छु-छु की आवाज करना (आ ६।३।४) । छुट्टछूटना (निचू ३ पृ १४४) । छर-१ ढकना । २ लेप करना । ३ छेदन करना । ४ व्याप्त करना। छुल्ल (भ्रंश्)-नष्ट होना । छल्लुच्छल--छलकना, उछलना-छुल्लुच्छुलेति जं होति ऊणयं रित्तयं
कणकणेइ । भरियाई ण खुब्भंती सुपुरिसविण्णाणभंडाइं ॥'
(सूचू १ पृ १६४)। छह (क्षिप)-डालना, रखना-'प्रस्तरान शून्यगृहस्यान्तः छुहइत्ति प्रवेशयति'
(व्यभा ३ टी प १०२) । छर--१ लीद करना, शौच करना (उशाटी प १६९) । २ चिल्लाना।
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५२७
परिशिष्ट २ छोड-१ छीलना-'उच्छुखंडियाओ छोडेतुं चाउज्जातएणं वासेतुं'
(दअचू पृ ५५) । २ आहत करना, विदारित करना ।
(निचू २ पृ २२४)। ३ छोड़ना (उसुटी प ६२) । ४ गांठ खोलना। छोल्ल (तक्ष)-छीलना-'सा. (सालिअक्खए) छोल्लेइ, छोल्लेत्ता अणुगिलइ'
.(जा १७८)।
जअड (त्वर्)-शीघ्रता करना (प्रा ४।१७०) । जंप (कथय)-कथन करना (सू १।१।१०) । जगजग (चकास)–चमकना। जगड-१ उत्तेजित करना। २ कदर्थना करना । ३ झगड़ना (चं १४१)।
४ पीटना । ५ उठाना, जागृत करना । जड–बांधना, संलग्न करना-'भाणं सिक्कएण जडिज्जइ'
(आवहाटी २ पृ८७)। जड (त्वर्)-शीघ्रता करना। जप्प (कथय)-कहना। जम-जमना-'फणिगाए बाला जमिज्जति' (सूचू १ पृ ११७) । जम्म (जन्)-उत्पन्न होना (प्रा ४११३६)। जम्म-खाना, भक्षण करना । जर-छुपाना-'हाउं वा जरेउं वा' (बृभा ४७४८) । जव (यापय)-१ गमन करवाना, भेजना (प्रा ४।४०) । २ काल-यापन
करना (पिनि ६१६) । ३ व्यवस्था करना। जा (जन्)-उत्पन्न होना (प्रा ४।१३६) । जाण (ज्ञा)-जानना (आ ॥३)। जाम (मृज)---मार्जन करना । जिंघ (घ्रा)-सूंघना । जिम (भज)-भोजन करना (प्रा ४।११०) । जिम्म-भोजन करना-'मुज् धात्वर्थे देशी।' जीरव-पचाना। जीह (लस्ज्)-लज्जा करना (प्रा ४।१०३) । जुंज (युज)—जोड़ना (प्रा ४११०६) ।
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५२८
देशी शब्दकोश
जुज्ज (युज)-जोड़ना (प्रा ४।१०६)। . जुप्प (युज)-जोड़ना (प्रा ४।१०६) ।
जुप्प- जोतना । जूर (क्रुध)-गुस्सा करना (प्रा ४११३५) । जूर (खिद्)-खेद करना, अफसोस करना (प्रा ४।१३२)। जर (गर्ह.)-निंदा करना (सू २।११४२) । जूर-१ झूरना, सूखना । २ वध करना। जरव (वञ्च)-ठगना (प्रा ४।६३) । जूह-लाना, आनयन-'देशीशब्दत्वाद् आनयन्ति' (बृटी पृ १६३०)। जेंव-भोजन करना। जेम (भुज)-भोजन करना (प्रा ४।११०)। जो (दश)-देखना। जोअ-१ निरूपण करना-'जोएइत्ति देशीवचनमेतत् निरूपयति'
(व्यभा १ टीप ३०) । जोअ (धुत)-प्रकाशित होना (सू १।६।१३) । जोक्ख-तोलना (मराठी-जोखणे)। जोड---जोड़ना, युक्त करना। जोय (दश)-देखना।। जोव (दृश्)-देखना (उसुटी प ८७) । जोहार-जुहारना, प्रणाम करना (जुहार-राजस्थानी)।
झंख-१ क्रुद्ध होना (अनुद्वाहाटी पृ २६) । २ बार बार कहना
(पिनि २८६) । ३ स्वीकार करना । ४ आच्छादन करना। शंख (सं+तप्)--संताप करना (प्रा ४।१४०) । झंख (उपा+लभ)--उलाहना देना (प्रा ४।१५६)। झंख (वि+लप)-विलाप करना (प्रा ४।१४८)। झंख (निर्-श्वस्)- निःश्वास लेना (प्रा ४।२०१) । झंट (भ्रम )-घूमना, फिरना (प्रा ४।१६१) । शंट (गुञ्ज)-गुजारव करना । झंप (नम्)-घूमना, फिरना (प्रा ४।१६१) ।
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परिशिष्ट २
५२९
संप (आ+कामय)-आक्रमण करना। संप (आ+च्छादय)-झांपना, ढकना। संप-गोता लगाना। मड (शब्- १ झड़ना, टपकना, फल आदि का गिरना । २ हीन होना
(प्रा ४११३०)। झड- भगाना-'झड विद्रावणे देशी ।' झडप्प-आक्रमण करना । झडप्प (आ+छिद)-भपटना, छीनना। सण (जुगुप्स)-घृणा करना। झणझण-झन-झन आवाज करना। सप्प (जुगुप्स्)-घृणा करना। सर (स्मृ)-- याद करना, परावर्तन करना (व्यभा ४।४ टी प १०३) । झर-ध्यान करना (आवचू १४१०)। मर (क्षर)-गिरना, झरना (प्रा ४।१७३) । सलक्क (वह)-जलना। झलझल (जाज्वल)-झलकना, चमकना । झलझल (जाज्वल)-झलकना, चमकना । सलहल (जाज्वल)-झलकना, चमकना । मलहल---विचलित होना, क्षुब्ध होना। झलुंक-जलना। झलुंस-जलना। सल्लोज्झल्ल-परिपूर्ण होना, भरपूर होना। झा (ध्य)-चिंतन करना, ध्यान करना (आ ||११५) । झाम (दह.)--- जलाना । झिख-झीखना, गुस्सा करना (विभाकोटी पृ २६३)। सिंझ--झनझनाना। मिज्म (क्षि)~-१ क्षीण होना (उ २०४६) । २ झपना । झिल-झेलना, पकड़ना। झिल्ल (स्ना)-झीलना, स्नान करना। झुंब-लंबा होना।
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५३०
देशी शब्दकोश
झुण (जुगुप्स्)-घृणा करना (प्रा ४।४) । झुलुक्क-चमकना । झुल्ल (अन्दोल)--झूलना, डोलना । झूण (जुगुप्स्)-घृणा करना। झर (जगप्स)-निन्दा करना । झर (स्मृ)-स्मरण करना (प्रा ४।७४) । झूर (क्षि)-झुरना, क्षीण होना । झूर-खेद करना-'खेदे देशी धातु ।' झूरव (खिद्)-झुरना, क्षीण होना । झोड (शाटय)-पेड़ आदि से पत्र वगैरह को गिराना । मोस-दूर करना (जीत ७८) । सोस (गवेषय)---खोज करना, अन्वेषण करना-झोसेह त्ति देशीवचनत्वाद्
गवेषयत' (बृभा ३३३५ टी)।
टंक-फैलना। टक्कर-ठोकर लगाना । टरटर-टरटराना, मेंढक का शब्द करना । टल-१ हिलना । २ टलना । टलटल-टल-टल आवाज करना । टलवल-१ तड़पना । २ घबराना । टहर-ऊंचा करना। टाल-टालना, हटाना। टिटियाव-'टि-टि' की आवाज करना (उसुटी प २८६) । टिक्क-टीका लगाना, तिलक लगाना । टिट्टियाव-१ टिट्-टिट की आवाज करना-'मयूरीअंडयं......."कण्णमूलंसि
टिट्टियावेइ' (ज्ञा १।३।२१) । २ बोलने की प्रेरणा करना । टिरिटिल्ल (भ्रम्) -घूमना, फिरना (प्रा ४।१६१) । टिल्लिक्क-विभूषित करना । टिविडिक्क (मण्डय)-मंडित करना (प्रा ४।११५) । टुंटुण्ण-टुन-टुन आवाज करना । दुट्ट (त्रुट्)--टूटना (से ६।६३) ।
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"परिशिष्ट २
ठग-ठगना, वंचित करना । ठर-आदर करना। ठल-खाली करना। ठा (स्था)-ठहरना (प्रा ४।१६) । ठाम (स्था)-ठहरना (प्रा ४।१६ टी)। ठिव्व (वि+घुट) मोड़ना । ठुक्क (हा)-त्याग करना ।
डंडल्ल (भ्रम्)-घूमना। डंडोल (गवेषय) गवेषणा करना। उंम-दागना (आवहाटी २ पृ ८८) । उक्क-लूटना, डाका डालना (निचू ३ पृ८७)। उक्क (छादय)--आच्छादित करना । डक्कुर--पीड़ित होना। डगमग--हिलना, डगमगाना । डमडम-डमडम आवाज करना । घर (बस्)-भय खाना (प्रा ४।१९८)। उल्ल (पा)-पाव करता (प्रा ४११०)। डव (आ+रम)--आरंभ करना। डिफ-जल में गिरना। डिभ (स्त्रस्)-खिसकना (प्रा ४।१९७) । डिक्क (वृषकर्तृकं गर्ज)-वृषभ का गर्जना । डिप्प (वि+गल्)-१ सड़ जाना । २ गिरना । डिप्प (दीप्) चमकना। डिव-लांघना (व्यभा १ टी प ३५) । डुडुल्ल (भ्रम्)-घूमना। डुडुल्ल (गवेषय)-गवेषणा करना । डुम (भ्रम्)-घूमना ।
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५३२
डुल - डोलना, कांपना । डुल्ल - कंपित होना ।
डुस (म्) - घूमना ।
डेव
- १ उल्लंघन करना ( व्यभा १० टी प ८२ ) । २ संभोग करना - परिभुंजंतीत्यर्थः ' ( निचू ४ पृ ३) ।
डोल्ल - कंपित होना, डोलना । डोह - अवगाहन करना ।
ढ
ढंक -- ढांकना - ' ढंक - आच्छादने देशी ।'
ढढल्ल (म्) - घूमना फिरना ( प्रा ४११६१ ) । ढं दुल्ल – घूमना ।
ढंढोल ( गवेषय् ) - खोजना (प्रा ४। १८६ ) ।
ढंढोल्ल ( गवेषय् ) अन्वेषण करना ।
ढंस (वि + वृत्) -- घसना, गिरना (प्रा ४।११८ ) ।
ढक्क (छादय्) - आच्छादित करना ( बृभा ३३७७) ।
ढक्क - वृषभ का आवाज करना ।
ढग्गढग्ग - ढग-ढंग शब्द करना ।
ढण- शब्द करना ।
उल
- १ टपकना, नीचे पड़ना । २ झुकना । ३ क्षीण होना - ' ढल हाने देशी ।'
ढिक्क (गर्ज ) वृषभ का शब्द करना ( प्रा ४६६) ।
ढिल्ल - शिथिल होना ।
देशी शब्दकोश
ढाल
- १ नीचे गिराना - ' ढालइ सिहरीण सिहराई' ( उसुटी प २४९ ) । २ झुकाना | ३ चंवर डुलाना । ४ फेंकना - ' ढाल क्षेपणे देशी ।' ढिंढ - जल में गिरना ।
दुल्ल ( गवेषय ) - खोजना ( प्रा ४।१८९ ) ।
दुल्ल (भ्रम्) - घूमना फिरना ( प्रा ४११६१) ।
- 'डेवेंति
ढुक्क ( प्र + विश् ) - १ जाना, प्रवेश करना ( आवहाटी २ पृ १२८ ) । २ प्रवृत्त होना ( बूटी पृ ४६६ ) । ३ छूना - ' मा मे ढुक्कह' (बूटी पृ १५४५) ।
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परिशिष्ट २
तुम (भ्रम्) घूमना फिरना ( प्रा४ । १६९ ) ।
दुरुतुल्ल (भ्रम्) - घूमना ।
तुस (भ्रम्) - घूमना फिरना ( प्रा ४। १६१) । ढेंक (गर्ज ) - वृषभ का आवाज करना । ढेंक - धूपित करना, धूप देना ।
ढोंघ - भ्रमण करना ।
ढोक्क — बंद करना ( आवहाटी २ पृ ४८ ) ।
ढोल-नीचे गिराना ( आवचू १ पृ १२३) । ( ढोलना - राज ) ।
ण
णज्ज (ज्ञा ) - जानना ( प्रा४।२५२ ) ।
णड ( गुप्) - १ व्याकुल करना, बाधित करना ( आवहाटी १ पृ १४६) । २ व्याकुल होना ( प्रा ४।१५० ) ।
णत्थ - नाक में नथ डालना ( निभा ४३३० ) ।
णप्प (ज्ञा ) -- जानना ( निचू २ पृ २४) ।
णवज्ज - नमस्कार करना ।
णवर ( कथय् ) – कहना । णव्व (ज्ञा ) - जानना (प्रा४।२५२) । णि ( गम् ) - जाना |
जिअ (दृश् ) - देखना ( प्रा ४।१८१ ) । णिअंस ( नि + वस् ) – पहनना ।
णिअवक (दृश्) - देखना । णिअच्छ (दृश् ) - देखना ( प्रा ४। १८१ ) ।
णिअच्छ ( नि + गम् ) - १ अनुभव करना, भोगना ( सूचू १ पृ २५) । २ अवश्य प्राप्त करना ( सूटी १ प २० ) ।
णिअड्ड ( नि + कृष्) - खींचना | जिआर ( काणेक्षितं कृ ) --कानी नजर से देखना (प्रा ४।६६ ) | णिउड्डु ( मस्ज् ) – मज्जन करना, डूबना (प्रा ४। १०१) । णिक्कल ( निर् + कस् ) - बाहर निकलना - ' व सहीपालो बाहि णिक्कलिस्सति' (निचू २ पृ १७४) ।
णिक्काल ( निर् + कासय् ) - बाहर निकालना ।
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देशी शब्दकोशः
णिक्कोर-पात्र आदि के मुख का अपनयन करना (निभा ४६७०) । णिक्खुस्स-निकालना-'णिसारेति णिक्खुस्सति विकड्ढति'
(अंवि पृ १०८)। णिगुड- मुक्त करना (आवहाटी १ पृ २६०)। णिच्चल (क्षर)-गिरना, टपकना (प्रा ४।१७३) । णिच्चल (मुच)-दुःख को छोड़ना (प्रा ४।६२ टी)। णिच्चोय---निचोड़ना। णिच्छट्ट-स्खलित होना। णिच्छल्ल (छिद)- छेदना, खण्डित करना (प्रा ४।१२४) । णिच्छुभ (नि+-क्षिप्)-रखना (ज्ञा १।४।१३) । णिच्छुह (नि+ क्षिप्)- बाहर निकालना, निस्सारण करना
__ (ज्ञा १८।१४६)। णिच्छोड-१ आक्रोश करना (उपा ७।२५) । २ निर्भर्त्सना करना । णिज्झ (स्निह )-स्नेह करना । णिज्झर (क्षि)-नष्ट होना (प्रा ४।२०) । णिज्झोड (छिद्)-छेदना, खण्डित करना (प्रा ४।१२४) । णिटुअ (क्षर)-गिरना, टपकना (प्रा ४।१७३) । णिटुह (वि+गल)-गल जाना (प्रा ४११७५) । णिटुंघ–निकालना (अंवि पृ ८०) । णिठ्ठह (नि+ष्ठीव)-थूकना। णिठ्ठह (नि+स्तम्भ)-निश्चेष्ट करना, स्तब्ध करना (प्रा ४।६७) । णिड्डार-आंखें फाड़ना। णिड्डुह (क्षर)-टपकना । णिण (गम्)-जाना । णिण्णक्खु–निकालता है-'बहिया वा णिण्णक्खु' (आचूला २।१२) । णिण्णा-नीचे की ओर जाना-णिण्णाई ति देशीपदत्वादधोगच्छति'
(उशाटी प २६३)। णिद्दुक्ख-उड्डाह करना (निभा ६११५ चू) । णिप्पण-जल से धोना । णिप्पा (वि+-श्रम्)-विश्राम करना ।
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परिशिष्ट २
णिबुड्डु ( नि + मस्ज्) - निमग्न होना, डूबना ( उशाटी प २३२ ) । णिबोल ( नि + मस्ज्) - निमज्जन करना । निम्बल (दुःखं मुच्) – दुःखमुक्त होना । निम्बल (क्षर् ) -- क्षरित होना । निम्बल-- जलना (से १५२३८ ) । जिम्बुड - डूबना - 'मस्ज् धात्वर्थे देशी ।'
णिग्भिड - आक्रांत करना ।
णिम ( नि + अस् ) स्थापना करना ( प्रा ४। १६६) ।
णिम-सूंघना |
णिमि ( नि + युज् ) — जोड़ना ।
णिम्मह ( गम् ) - १ गमन करना, जाना ( प्रा ४। १६२ ) । २ फैलना ( से ७।६२) ।
णिय - देखना- 'अवलोकने देशी धातु ।'
णियंसाव - वस्त्र पहनाना (जंबू ३ । २११) ।
णियच्छ - देखना - 'दृश् धात्वर्षे देशी । '
णिरणास (नश् ) --- फ्लायन करना, भागना ( प्रा ४। १७८ ) । णिरप्प (स्था ) - ठहरना (प्रा ४।१६) । णिरव ( आ + क्षिप् ) - आक्षेप करना ।
णिरव ( बुभुक्ष ) - खाने की इच्छा करना ।
गिरिग्घ (नि+ली ) - १ आश्लेष करना । २ छिपता (प्रा ४।५५) ।
णिरिणास ( गम् ) - जाना (प्रा ४।१६२) ।
णिरिणास (नश् ) - पलायन करना ( प्रा ४। १७८) । गिरिणास (पिष्) - पीसना ( प्रा ४। १८५ ) ।
णिरिणिज्ज (पिष्) - पीसना ( प्रा ४। १८५ ) ।
णिलिज्ज --१ स्पर्श करना। २ संबाधन करना ( सू १।४।५१ टी ) । आलिंगन करना । २ छिपना (प्रा ४।५५) ।
निलोअ ( नि+ली) णिलुक्क (नि+ली ) - १ आश्लेष करना । २ छिपना (प्रा ४।५५ ) । णिलुक्क - प्राप्त करना - किं सक्का एत्ताहे निलुक्किउं' ( आवहाटी १ पृ २१३) ।
णिलुक्क (तुड्) - तोड़ना ( प्रा ४|११६) ।
५.३५:
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५३६
देशी शब्दकोश
णिलेज्ज—करना (सूचू १ पृ १२०) । पिल्लस (उत्+लस्)-खुश होना (प्रा ४।२०२)। पिल्लुंछ (मुच्)-छोड़ना (प्रा ४६१)। पिल्लर (छिद्)-छेदना, खण्डित करना (प्रा ४।१२४) । णिवज्ज (नि+सद् )--१ सोना-'एगो पडइ पासेणं, निवेसइ निवज्जई'
(उ २७।५) । २ बैठना। णिवह (गम्)--गमन करना, जाना (प्रा ४११६२) । णिवह (नश) पलायन करना, भागना (प्रा ४।१७८) । णिवह (पिष)-पीसना (प्रा ४११८५) । णिव्वड (भ)-१ पृथक् होना । २ स्पष्ट होना (प्रा ४।६२) । णिव्वड (मुच्)-दुःखमुक्त होना । णिवड (निर्+पद्)-निष्पन्न होना, बनना । णिव्वण्ण-देखना (से ३।४४) । णिव्वम-परिभोग करना । णिव्वर (कथय)-दुःख प्रकट करना (प्रा ४।३)। णिव्वर (छिद्)-छेदना, खण्डित करना (प्रा ४।१२४) । णिव्वल-पृथक् होना (से ६८०)। णिव्वल (मुच)-दुःख को छोडना (प्रा ४।६२)। णिव्वल (निर्+पद)-निष्पन्न होना (प्रा ४।१२८) । णिव्वल (क्षर्)-क्षरित होना (प्रा ४।१७३ टी)। णिव्वव (निर्+वापय्)-बुझाना । णिव्वह (उद्+वह)- १ धारण करना । २ ऊपर उठाना । णिव्वा (वि+श्रम्)-विश्राम करना (प्रा ४।१५६) । णिव्वुड्ड (नि+मस्ज)----निमज्जन करना। णिव्वुब्भ (निर्+वह.)---निर्वाह करना । णिवेढ-त्याग करना। णिव्वोल---डुबोना-'अंतोजलंसि निव्वोलेमि' (ज्ञा १।८।७४) । णिवोल (ओष्ठमालिन्यं कृ)-क्रोध से होठ मलिन करना (प्रा ४।६६) । णिसम्म (नि+सद्)---१ बैठना । २ रखना, स्थापित करना (से ६.१७) । णिसर (रम्)-क्रीड़ा करना ।
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जिसब्य-बैठना (स्यमा ८ टी प३)। . णिसिषक (नि+सिद) प्रक्षेप करना । णिसुड (नम्)-झुकना। जिंतुर (मम्)-मुकना (प्रा ४११५८) । णिसुढ (नि+शुम्म)-मारना। णिसुढ-गिरना (निचू ३ पृ १५६) । णिसुम्म-गिराना-'तुंगं तटं णिसुम्मइ ण अ णइवप्पं समथलि व वणगओ'
(से १२५७)। णिसूड (नि+शुम्म) मारना । णिसूट (नि+सह.)—सहन करना। णिस्सम्म (निर्+अम्)-बैठना (से ६।३८) । णिह-छलना करना-'तं आइइत्तु ण णिहे' (आ ४।५) । णिहम्म (गम्)-गमन करना, जाना (प्रा ४।१६२) । णिहर (आ+ऋन्द)-चिल्लाना, आक्रन्दन करना । णिहर (निर्+स)-बाहर निकलना । णिहव (कामय)-संभोग की इच्छा करना । णिहा (दृश)-देखना। मिहाल-देखना। णिहव (कामय)--संभोग की अभिलाषा करना (प्रा ४।४४) । मिहोड (नि+वारय)-निवारण करना (बृभा ३६०)। णिहोड (पातय्)-१ गिराना । २ नाश करना (प्रा ४।२२) । णी (गम्) अमन करना, जाना (प्रा ४११६२) । णीण (गम्)-गमन करना, जाना (प्रा ४।१६२)। गोरंज (मञ्ज)-तोड़ना (प्रा ४।१०६)। मीरव (आ+क्षिप्)-दोषारोपण करना (प्रा ४।१४५) । जीरव (बुभुक्ष)-खाने की इच्छा करना (प्रा ४।५) । जील (निर+स)--बाहर निकलना (प्रा ४७६)। गीतुंछ (क)-१ गिरना । २. कूदना (प्रा ४.७१) । णीलुक्क (गम्)--गमन करना, जाना (प्रा ४।१६२) । जीव---१ शीतल होना । २ बुझाना।
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५३८
णीसर ( रम्) -- क्रीडा करना, खेलना (प्रा ४।१६८ ) । णीहम्म ( गम् ) - गमन करना, जाना ( प्रा ४। १६२ ) । णीहर (निर् + सृ ) -- बाहर निकलना ( प्रा ४।७६) । णीहर (निर् + सारय् )
णीहर ( आ + ऋन्द्) - चिल्लाना ( प्रा ४। १३१) । गुज्ज–बन्द करना, मुद्रित करना ।
-
णुम (छादय्) - आच्छादित करना ( प्रा ४।२१) । गुम (नि+अस्) - स्थापना करना ( प्रा ४।१६६ ) । णुमज्ज ( नि + सद् ) – बैठना ( प्रा ४। १२३) । णुमज्ज (शी ) - सोना, शयन करना । गुल्ल (क्षिप् ) - फेंकना ।
वज्ज ( नि + सद्)
- बाहर निकालना - तं सल्लं णो सयं णीहरति' ( सू २।२।१३) ।
-बैठना - ' उवागच्छित्ता सागरस्स पासे णुवज्जइ' ( ज्ञा १।१६।५९ ) ।
णुव्व ( प्रकाशय् ) - प्रकाशित करना ( प्रा ४१४५) ।
गूम (छादय् ) - आच्छादित करना - एगट्ठियं णू मेंति, णूमेत्ता कहं वासुदेवं ..... ( ज्ञा १।१६।२८२) ।
देशी शब्दकोश
गोल्ल (क्षिप् ) - फेंकना (प्रा ४।१४३) ।
गोल्लस (क्षिप् ) -- कंपित करना, प्रेरित करना - ' अंचेति कंपेति णोल्लसति' (सूचू १ पृ २४० ) ।
ล
तक्क ताकना, इच्छा करना - 'परलाभं नो आसाएइ नो तक्केइ' ( उ २६।३३) ।
तड-चढ़ना - 'आरुह, इत्यर्थे देशी धातु ।'
तड (तन् ) - विस्तार करना ( प्रा ४।१३७ ) ।
तडफड - व्याकुल होना, तड़फडना ( निचू २ पृ २२३) ।
तडफड - तड़फना ।
तड्डु – लगाना - तड्डु (तन् ) -- विस्तार करना (प्रा ४।१३७ ) ।
तडुव (तन् ) – विस्तार करना ( प्रा ४१३७) ।
'तड्डेति लाएत्ति (लग्गइ) वृत्तं भवति' (निचू २ पृ ५१) ।
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परिशिष्ट २ समार (भ्रमय्)-घुमाना (प्रा ४।३०) । तर (शक)-समर्थ होना (ओनि ३२४) । तर-कुशल रहना (पिनि ४१७) । तल-बी, तैल आदि में तलना (विपाटी प ५८) । सलमंट (भ्रम्)-घूमना, फिरना (प्रा ४।१६१)। तलप्प (तप्)-तपना, गरम होना। तलहट्ट (सिच्)-सींचना। तालिमंट (भ्रमय)-घुमाना (प्रा ४।३०)। तिउट्ट (त्रुट)--१ टूटना (सू ११११) । २ मुक्त होना (सू १११५५) । तिक्खाल (तीक्ष्णय्)-तीक्ष्ण करना, तीखा करना। तिरितिड-१ बकवास करना, टनटनाहट करना । २ अग्नि जलने का
शब्द, तड तड आवाज-तेंदुरुयदारुयं पिव अग्गिहितं, तिडितिडेति
दिवसं पि' (निभा ६१६६)। तिडव (ताडय)-ताडन करना । तिष्ण (तिम्)-१ आ होना। २ आई करना । तिप्प-~१ देना । २ झरना, चूना । ३ रोना । ४ पीड़ित करना । तिम्म-१ आर्द्र होना । २ आर्द्र करना। तिम्मिर--आर्द्र होना, लथपथ होना। तिय-दूर रखना। तीर (शक)-सकना-'घरे न तीरइ पढिउं' (उसुटी प २३)। तुंग-घूमना। तुट्ट (तुइ) १ टूटना, खंडित होना (प्रा ४३११६) । २ खूटना, घटना। तुटु-सहन करना-'चाएति साहति सक्केइ वासेइ तुहाएति वा धाडेति वा
एगट्ठा' (आचू पृ १०७)। तुप्प-१ स्निग्ध होना। २ स्निग्ध करना । तुवर (त्वर)--शीघ्रता करना (प्रा ४।१७०)। सूमण-स्थगित करना। तेअव (प्र+दीप्)-१ प्रकाशित होना । २ जलाना (प्रा ४११५२) । तेर-बुलाना, न्योता देना (तेड़ना-राज)। तोर (तुड)-तोड़ना (प्रा ४।११६) । तोप्प-चुपड़ना-'ण य तोप्पिज्जइ घयं व तेल्लं वा' (सूचू १ पृ १०६)।
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देशी शब्दकोश
थंग (उद्+नामय)-ऊंचा करना । थक्क (स्था)-रहना, स्थिर होना-'अणत्थमिए आदिच्चे थक्कति'
(निचू ४ पृ ११३)। थक्क (फक्क्) नीचे जाना (प्रा ४।८७)। थक्क (श्रम्)-श्रान्त होना, थकना । थक्कव (स्थापय)-स्थापित करना । थगथग-धड़कना, कांपना । थग्घ–थाह लेना, जल की गहराई को नापना । थणिल्ल (चोरय)-चुराना, चोरी करना । थप्प-थप्पी करना, स्थापित करना । थम-विस्मृत करना । थरत्थर-थरथराना, कांपना । थरथर-थरथराना, कांपना । थरहर-कम्पित होना-'कंपने देशी धातु ।' थाण-रक्षा करना, पहरा देना । थिप (तृप्)-तृप्त होना । थिज्ज-सघन होना (आवहाटी १ पृ २२८) । थिप्प (वि+गल) गल जाना (प्रा ४।१७५) । थिप्प (तृप्)--संतुष्ट होना (प्रा ४।१३८) । थिम्म-१ आर्द्र करना । २ आर्द्र होना । थिविथिव-थिव-थिव आवाज करना। थुक्क-१ थू कना । २ तिरस्कार करना। थुण (स्तु)-स्तुति कर ना (प्रा ४।२४१) । युट्य-१ स्तुति करना (दअचू पृ ४) । २ परिभ्रमण करना
(भटी पृ १२३६)। थेणिल्ल-१ छीनना । २ डरना । थेप्प-१ तृप्त होना, संतुष्ट होना । २ विगलित होना ।
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परिशिष्ट २
५४१
वंस (वर्शय)-दिखलाना-'काये अहे वि दंसंति' (सू १।४।३) । अपच (दृश्)-देखना (भ १८०)। बक्ख (दर्शय)- दिखलाना । रक्खव (दर्शय )-दिखलाना (प्रा ४।३२) । बच्छ (दृश्)-देखना। बड-दहाड़ना। वरमल (मर्दय )--१ विदारित करना । २ आहत करना। दल (वा)-देना-'भद्दा देवदिन्नं........पंथगस्स हत्थे दलाइ'
(ज्ञा १।२।३१) । बलय (वा)-देना-'भूमिचवेडयं द लयई' (भ ३।११२) । बलय (दापय)-दिलाना। बलवट्ट (निर्+वल)-दलन करना। बलवट्ट (मर्दय )-चूर्णित करना । बलाव (वापय)-दिलाना। दवाव (वापय )-दिलाना । वाम (वर्शय)-दिखलाना । वाक्खव (दर्शय)-दिखलाना । दाढ (निर्+स)-निकलना । वाव (दश)-देखना । वाव (वर्शय)-दिखलाना (प्रा ४।३२) । विसड (मुच्)–छोड़ना। बोस (दृश्)-देखना। दुउंछ (जुगुप्स्)--घृणा करना ।
उच्छ (जुगुप्स्)-घृणा करना। दुगुंछ (जुगुप्स्)-घृणा करना (प्रा ४।४) । दुगुच्छ (जुगुप्स्)-घृणा करना (प्रा ४।४) । दुम (धवलय)-सफेद करना (प्रा ४।२४) । दुरुढुल्ल (भ्रम्)-भ्रमण करना । दुरुह-आरोहण करना-'दुरुह, आरोहणे देशी' (निरटी पृ २२) ।
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५४२
देशी शब्दकोश दुरूह (आ+रह.)-आरोहण करना (भ ७।१९६) । दुलुदुल---इधर-उधर घूमना-'मा मुयमाउडिभयं पिव इओ तो दुलुदुलेमो'
(निचू ३ पृ ३४) । दुहाव (छिन्)-छेदना, खण्डित करना (प्रा ४।१२४) । दइज्ज (द्र)-चलना, विहार करना (आ ५८२)। दूम (दावय)पीड़ा पहुंचाना (प्रा ४१२३) । दूम (धवलय्)-- चूने से पोतना, सफेदी करना (प्रा ४।२४) । देक्ख (दृश्)-देखना (प्रा ४।१८१)। देह (दृश्) ---देखना-'मुच्चेज्ज पयपासाओ, तं तु मंदो ण देहई'
(सू ११॥३५)।
धंसाड (मुच)-छोड़ना (प्रा ४।६१) । धगधग-१ तीव्रता से जलना । २ धग-धग आवाज करना । धगधग्ग–अतिशय जलना। धवक्क-धड़कना, भय से व्याकुल होना । धाड -- सहन करना-'चाएति साहति सक्केइ वासेइ तुहाएति वा धाडेति वा
एगट्ठा' (आचू पृ १०६)। धाड-एक स्थान से दूसरे स्थान में जाना-'धाति त्ति प्रेरयन्ति-स्थानात्
स्थानान्तरं प्रापयन्तीत्यर्थः' (सूटी १ प १२४)। धाड (निर्+स)-बाहर निकलना (बृटी पृ १३६७) । धाड (निर्+सारय)-----बाहर निकालना (निचू २ पृ ५४) । धाह-१ रोना । २ पुकारना । ३ पलायन करना। धाहाव-हाहाकार मचाना । धिप्प (दीप्)-दीप्त होना, चमकना । धुक्क (क्षुध्)-भूख लगना । धुक्काधुक्क (कम्प्)-कांपना । धुगधुगधुग्-धुग् आवाज करना। धुळुअ (शब्दाय)- शब्द करना। धुद्धअ (शब्वाय्)---आवाज करना। धुप्प (वीप्)-चमकना।
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परिशिष्टर.
५४३
धुव (धू)---कम्पित करना (प्रा ४।५६) । धुव--धोना। धुन्ध-धोना। धोत्र (धाव)-धोना, शुद्ध करना ।
निम (दश)-देखना (प्रा ४।१८१)। निअच्छ (दृश)-देखना (प्रा ४।१८१)। निम्मव (निर्+मा)--निर्माण करना (प्रा ४११९)। निम्माण (निर+मा)-निर्माण करना (प्रा ४।१६) । निरंज (भञ्ज)-तोड़ना । निरप्प (स्था)-ठहरना (प्रा ४।१६) । निरवार (ग्रह)-ग्रहण करना (प्रा ४।२०६) । निल (निर+स)-निकलना । निलुक्क (नि+ली)---छिपना-'पडिसुणेत्ता कवाडंतरेसु निलुक्कंति'
(अंत ६।२२)। निव्वल (नि+पद्)-निष्पन्न होना (प्रा ४।१२८) । निब्योल-डुबोना-'अंतो जलंसि निव्वोलेमि' (ज्ञा १६७४) । निव्वोल-क्रोध से होठ मलिन करना। निसुड (भाराकान्तः नम्)--भार से आक्रान्त हो नीचे झुकना । निहर (निर्+स)-बाहर निकलना । नोरंज (भङ्ग्) ---भांजना (प्रा ४।१०६) । नील (निर्+स)-बाहर निकलना (प्रा ४७९) । नुम (छावय) आच्छादित करना ।। नम (छावय)-आच्छादित करना (प्रा ४।२१) ।
प
पअव-पीना (से २।२४)। पहर (वप्)-बोना, वपन करना (आचूला १०।१६ पा) । पइसर-प्रवेश करना। पइसार (प्र+वेशय)-प्रवेश कराना ।
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५४
देशी सन्दकोश
पउल (पच्)-पकाना (प्रा ४६०) । पउल्ल (पच्)-पकाना । पंग (ग्रह)-ग्रहण करना (प्रा ४।४०६) । पंगुर (प्रा+व)- ढकना, आच्छादित करना। पंताव-ताड़न करना, मारना (पिनि ३२५) । पक्खर (सं--नाहय )-सन्नद्ध करना। पक्खोड (वि+कोशय )-खोलना (प्रा ४।४२)। पक्खोड (शद्)-झड़ना, टपकना (प्रा ४।१३०)। पक्खोड (प्र-छादय )-ढकना । पगंथ-गाली देना (आ ६।४२)। पग्ग (ग्रह)-ग्रहण करना। पघोल (प्र-घर्णय )---मिलना। पच्चड (क्षर)-गिरना, टपकना (प्रा ४।१७३) । पच्चड्ड (गम् )-गमन करना, जाना (प्रा ४।१६२) । पच्चार (उपा--लभ)-उलाहना देना (प्रा ४।१५६) । पच्छंद (गम्)-गमन करना , जाना (प्रा ४।१६२) । पज्ज -१ कराना । २ पिलाना-'पज्जेइ त्ति पाययति खादयतीत्यादिलौकिकी
भाषा कारयतीति तु भावार्थः' (विपाटी प ७२)। पज्जर (कथय )-कहना (प्रा ४।२)। पज्झर (क्षर)-गिरना, टपकना (प्रा ४।१७३) । पज्झल (क्षर)-झरना । पझंझ-शब्द करना (जीव ३।२६५) । पट्ट (पा)-पान करना (प्रा ४।१०) । पट्ठव (प्र+स्थापय )--स्थापित करना (प्रा ४।३७) । पड-विघटित होना। पडिअग्ग (अनु+वज्)-अनुसरण करना (प्रा ४।१०७) । पडिउंच-अपकार का बदला लेना। पडियासूर -चिड़ना, गुस्सा होना । पडिसा (शम्)-शान्त हो जाना (प्रा ४।१६७)। पडिसा (नश्)-पलायन करना, भागना (प्रा ४।१७) ।
For Priv
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५४५
रिक्षिा
परिहत्य--प्रत्युपकार करना (से १२।६६)। पाह (शुम्)-- क्षुग्ध होना (फ्रा ४।१५४) । पणाम (अर्पय )-अर्पित करना-'....कुंतग्गेणं लेहं पणामेइ'
(ज्ञा १।१६।२४४) । पणाम (उप+नी)-उपस्थित करना। पण्णप्प- पनपना, स्वस्थ होना-'इमो रोगो........कहेहि मे जेण पण्णप्पामि'
(निचू ३ पृ ४१७)। पतणतणाय-जोर से गर्जना (भटी पृ १२२१) । पतिरि (वप)-बोना, वपन करना-'कुलत्थाणि वा, जवाणि वा,
जवजवाणि वा, पतिरिंसु वा पतिरिति वा पतिरिस्संति . वा' (आचूला १०१६)। पत्तवास-बांधना (निभा ६०४०) । पत्ताण-मिटाना। पदम (गम)-गमन करना, जाना (प्रा ४११६२) । पदेक्ख (प्र-+दश)-विशेष रूप से देखना । पधोव (प्र+धाव)-धोना । पन्नाड (मृद)-मर्दन करना (प्रा ४।१२६) । पबोल्ल-बोलना-'वद् धात्वर्थे देशी।' पब्बाल (छादय)-आच्छादित करना । पमेल्ल-छोड़ना-'मुच् इत्यर्थे देशी।' पम्मेल--- छोड़ना। पम्हस (वि+स्मृ)--विस्मृत करना। पम्हुस (वि+स्मृ)-भूलना (प्रा ४।७५) । पम्हुस (प्र+मुष)--चोरी करना (प्रा ४।१८४) । पम्हुस (प्र+मृश) स्पर्श करना (प्रा ४।१८४)। पम्हुह (स्मृ)-स्मरण करना (प्रा ४७४) । पयंस (प्र+दर्शय)-दिखलाना (कु पृ २४६)। पयर (स्मृ)-स्मरण करना (प्रा ४१७४) । पयल्ल (कृ)-१ शिथिल करना । २ लटकना (प्रा ४७०) । पयल्ल (प्रस)-पसरना (प्रा ४१७७) । पर (भ्रम्)-घूमना (प्र ३९) ।
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૪૬
तोड़ना ।
परिअंज ( परि + भञ्ज ) परिअंत ( श्लिष् ) -- १ गले लगाना । २ संसर्ग करना ( प्रा ४। १६० ) । परिअल ( गम् ) -- गमन करना, जाना (प्रा ४।१६२) । परिअल्ल ( गम् ) -गमन करना, जाना (प्रा ४। १६२ ) । परिआल (वेष्टय ) - वेष्टित करना ( प्रा ४/५१) । परिघुम (परि + घूर्ण ) - झूलना, घूमना (अंवि पृ ८० ) ।
परिघोल ( परि + घूर्ण ) - परिभ्रमण करना ( अंत ६।४३ ) परिणाव - विवाह करना ।
परिनिय (परि + दृश् ) -- देखना |
परिभुज्ज - १ बांधना । २ मुक्त करना - 'बध्यते छोड्यते च ' ( पिटी प ६७ ) ।
परियद - कंपित करना ।
परियच्छाव- - दलाल होना ( स्थाटी प ३९ ) ।
स् ) - खिसकना ( प्रा ४१ १९७) ।
परिल्हस ( परि + परिवाड (घटय् ) -१ निर्माण करना । २ संगत करना ( प्रा ४।५० ) । परिसाम ( शम् ) शान्त हो जाना (प्रा ४।१६७) । परिहट्ट ( मृद् ) – मर्दन करना ( प्रा ४। १२६) । परिहर - - करना (भटी पृ १२२७ ) ।
परी (भ्रम् ) घूमना फिरना ( प्रा ४१६१) ।
परी (क्षिप् ) - फेंकना (प्रा ४११४३) ।
देशी शब्दकोश
पलोट्ट - परिवर्तित होना, पलटना - ' - अथिरे पलोट्टइ, नो थिरे पलोट्टई' (भ ११४४० ) ।
पलोट्ट (प्रत्या + गम् ) - वापिस आना ( प्रा ४।१६६ ) ।
पलोट्टे ( परि + अस् ) -
१ फेंकना । २ मार गिराना । ३ प्रवृत्ति करना । ४ गिरना ( प्रा ४।२०० ) ।
-
पलोट्ठ – आगे बढ़ना । पल्लट्ट - पलटना । पल्लट्ट ( परि + अस्) पल्हत्थ ( परि + अस्) -
- फेंकना ( प्रा ४१२००) फेंकना ( प्रा ४१२०० ) ।
पवडू - पोढना, सोना - 'जाव राया पवड्ढइ ताव कहेहि किचि अक्खाणयं'
( उसुटी प १४२ ) ।
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परिशिष्ट २. पविरंज (मङ्ग)-भाबना, तोड़ना (प्रा ४११०६)।- पविरज्ज (भम्ज़)-तोड़मा।.
. पदोल्ल-बोलना-'वद् इत्यर्थे देशी धातुः ।' पब्वाय (म्लै)-मुरझाना (प्रा ॥१८) । पव्वाल (छादय ) आच्छावित करना (प्रा ४१२१)। पव्वाल (प्लावय)-खूब भिगोना (प्रा ४।४१)। . पहम्म (गम्)-गमन करना (प्रा ४१६२)। पहल्ल (पूर्ण)-घूमना, कांपना (प्रा ४१११७) । पहाड-इधर-उधर घुमाना-'पहाडेति त्ति स्वेच्छयेतश्चेतश्चानाथं भ्रमयन्ति'
(सूटी ११ १२४) । पहिल्ल-पहल करना, आगे करना। पहुच्च (प्र+भू)-पहुंचना, प्राप्त करना-'गामे य कालभाणे पहुच्चमाणे
हवंति भंगट्ठा' (ओनि ५०५) । पहुच्च (पर्याप्त्यर्थे भू)-पर्याप्त होना । पहुप्प (प्रभू)-१ पहुंचना, प्राप्त करना-'काले अपहुप्पंते नियत्तई
सेसए भयणा' (ओनि ५०५) । २ समर्थ होना
(प्रा ४१६३)। पाउण (प्र+आप्)-प्राप्त करना (उ १६१४)। पांगु-धारण करना, ढकना (बंवि पृ.८४) ।। पामिच्च-उधार लेना-दारुयाई भिदेज्ज वा, किणेज्ज वा, पामिच्चेज्ज वा'
(आचूला २२९)। पार (शक्)-समर्थ होना (प्रा ४८६)। पाराव-पारणा कराना, भोजन कराना (ओनि १४२) । पासल्ल-वक्र होना-'पासल्लंति महिहरा' (से ६।४५) । पिअरंज (मङ्ग्)-भांगना, तोड़ना । पिच्च-पकना। पिज्ज (पा)-पान करना-'पिज्जतो तरुणियणणयणमालाहिं'
(कु पृ१८३)। पिट्ट (भ्रंश्)-नीचे गिरना। पिटव (अर्ज) उपार्जन करना। पिङ (नंश्)-नीचे गिरना ।
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५४८
देशी शब्दकोश
पिण–प्राप्त करना, एकत्रित करना (आबघू १४४८) । पिप्पड-बकवास करना, बडबडाना-‘सा तुह विरहुम्मत्ता पिहोमरा पिप्पडइ
निच्च' (दे ६।५० वृ)। पिसुण (कथय )-कहना (प्रा ४।२) । पुंछ (मृज्)-मार्जन करना (प्रा ४।१०५) । पुंस (मृज)-मार्जन करना (बृभा ४५६) । पुक्क--चीत्कार करना (प्र ३१५) । पुक्कर-पुकारना। पुच्छ (प्रच्छ)-पूछना (प्रा ४।६७) । पुट्ट (भ्रंश)-नीचे गिरना। पुट्ट (प्र-+उञ्छ)-पोंछना । पुड (भ्रंश)-नीचे गिरना। पुढक्क-प्रसरित होना। पुणब (दश)-देखना । पुम्म (दृश)-देखना। पुल (दृश्)-देखना। पुलअ (दृश्)-देखना (प्रा ४।१८१)। पुलआअ (उत् + लस् )-खुश होना (प्रा ४।२०२) । पुलोअ (दृश्)- देखना (व्यभा ५ टी प ६)। पुव (प्लु) गति करना। पुव्व-कूदना, जाना (भटी पृ १२३६) । पुस (मृज)-मार्जन करना (प्रा ४।१०५) । पूस-पूछना-'प्रच्छ्धात्वर्थे देशी।' पेंडव (प्र--स्थापय)-१ स्थापित करना । २ प्रस्थान कराना
(प्रा ४।३७)। पेच्छ (दृश्)-देखना (प्रा ४।१८१) । पेट्ट-पीटना। पेट्रव (प्र+स्थापय)-प्रस्थापित करना।' पेडव (प्र+स्थापय)-प्रस्थापित करना। पेल्ल (क्षिप्)---फेंकना (प्रा ४।१४३)।
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पेल्ल ( पीडय् ) - पीलना । पेल्ल (पूरय ) -
—भरना ।
पेल्ल ( प्र + ईरय ) - प्रेरित करना (व्यभा ७ टीप ५) ।
पोअ ( प्र + वे ) – पिरोना ।
पोर - करना - ' आहेवच्च पोरेबच्चं पोरेति' (आचू पृ ३४६) । पोलंड (प्रोत् + लङ्घ) – उल्लंघन करना ( ज्ञा १ । १ । १५३ ) ।
फ
फंफ ( उद् + गम् )
--उछलना ।
फंस ( विसम् + वद्) - अप्रमाणित होना ( प्रा ४। १२९) । फंस ( स्पृश्) -स्पर्श करना (प्रा ४।१८२) । फरिस ( स्पृश्) -स्पर्श करना ( प्रा ४। १८२ ) । फणिल्ल ( चोरय ) - चोरी करना ।
फव्व - प्राप्त करना ( आवहाटी १ पृ २७० ) ।
फव्वीह ( लभ ) - यथेष्ट लाभ प्राप्त करना - ' फव्वीहामोत्ति देशीपदत्वाद् यदृच्छया भक्तपानं लभामहे' ( बृटी पृ ६३३) ।
फसफस - फुसफुस करना ( कु पृ २२५)।
फसल - विभूषा करना ।
फसलाण -- विभूषा करना ।
फास ( स्पृश् ) -१ स्पर्श करना | २ पालन करना ( प्रा ४। १८२) ।
फिक्कर - पिशाच का चिल्लाना ।
फिट्ट (भ्रंश् ) - फटना, नष्ट होना ( निचू १ पृ ६) ।
फिट्ट -- १ दूर जाना ( उसुटी प २६९ ) । २ एकमेक करना
( उसुटी प ७४) । ३ नीचे गिरना । ४ टूटना । ५ भागना । फिड (श्) – फटना, नष्ट होना (प्रा ४।१७७) ।
फिर (गम) – चलना ।
फिर - परावर्तन करना - 'परावर्तने देशी ।' फिल्लस - फिसलना ( बूटी पृ ६२६ ) | फिल्लुस - फिसलना ।
फुंफुल - १ उत्पाटन करना । २ कहना । फुंफुल्ल ( कथय् ) – कहना (प्रा २।१७४) |
५४६
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देशी शब्दकोश
फुफुल्ल-१ कहना । २ उखाड़ना (प्रा २।१७४) । फुस (मृज)-मार्जन करना। फुक्क-फूंक देना। फुट (वंश)-फटना, नष्ट होना । फुट्ट (भ्रंश)-फटना, नष्ट होना (प्रा ४।१७७) । फुड (भ्रंश)-फटना (प्रा ४।१७७) । फुप्फुव-~-चिल्लाना। फुम (फत्+कृ)-मुंह से हवा करना (द ४।२१)। फुम (भ्रम् )-घूमना, फिरना (प्रा ४।१६१) । फुर (अप+ह)-अपहरण करना । फूराव--अपहरण कराना-'फुरावेंति देशीपदमेतद् अपहारयन्ति'
(व्यभा ४।३ टी प ४१) । फुरफुर-तड़फड़ाना (प्र ३१५) । फुस (मृज)-मार्जन करना (प्रा ४११०५) । फूस (भ्रम)-घूमना, फिरना (प्रा ४।१६१)। फुस्स (मृज)-मांजना । फम-फूंक मारना (निचू १ पृ ८४) । फेक्कार---शृगाल का आवाज करना । फेड-१ खोलना, उद्घाटन करना (आवचू १ पृ ५५४) । २ छोड़ना
'मुच् इत्यर्थे देशी।' फेर-फिराना, घुमाना-'रासहारूढो काऊण फेरितो सब्वत्थ'
(उसुटी प २८६)। फेल्ल (क्षिप)-फेंकना। फेल्लुस-फिसलना, खिसकना (दे ६।८६ वृ) । फोल्ल-छीलना (ज्ञाटी प १२५) ।
बइस (उप+विश्)-बैठना । बइसार (उप+वेशय)-बैठाना । बइसावय--बैठाना-'उपवेशय् इत्यर्थे देशी।' बडबड (वि+लप्)-बडबडाना।
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२
- जलना ।
बल (ज्वल्) बल (ग्रह) - ग्रहण करना ।
बल (खाद ) - खाना ( प्रा ४। २५६ ) । बिबुल - बोलना ।
बीह (भी) - डरना (प्रा ४|५३) । बुंब -चिल्लाना |
बुक्क ( ग ) - गरजना ( राज २८१ ) । बुक्क ( भष् ) – भौंकना ।
बुक्कर- शब्द करना ।
बुक्कार – गर्जन करना ( राज २८१ ) ।
-
बृज्झ-बुझना (भ ११४४ ) ।
बुडबुड – बुडबुड की आवाज करना (निचू ३ पृ २५४) ।
बुड्डु ( मस्ज्) - मज्जन करना ( प्रा ४।१०१) ।
बुण्ण बोलना ।
बुल्ल ( कथम् ) -- बोलना, कहना ।
बुल्लु बुल-छलकना, उछलना ( सूचू १ पृ २०६ ) । देखें - छल्लुच्छुल । बोक्किज्ज- --वमन करना ।
बोज्ज (स्) ) - भय खाना ( प्रा ४। १६८ ) ।
बोट्ट - १ चखना, उच्छिष्ट करना । २ धान्य रंधा या नहीं, उसका परीक्षण करना - 'रंतीओ बोट्टिति वंजणे (बृभा १७४६ ) |
बोट्टि - भ्रष्ट करना (निचू ३ पृ ४४२) ।
बोल ( ब्रोडय् ) डुबाना ( बृभ! १६६७ ) ।
बोल ( व्यति + क्रम्) - १ पसार होना । २ उल्लंघन करना । बोल्ल ( कथम् ) -- बोलना ( निचू २ पृ २७ ) । बोलाव - बुलाना |
भंड - कलह करना ( बृभा ३०१३) ।
भमड (भ्रम् ) – घूमना फिरना ( प्रा ४ । १६९ ) । भमाड (भ्रम्) - घूमना फिरना ( प्रा ४।१६१) । मम्मड (म्) - घूमना फिरना ( प्रा ४। १६१ ) ।
५५.१
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५५२
देशी शब्दकोश
भर (स्मृ) - स्मरण करना (प्रा ४१७४) । भल (स्मृ)--स्मरण करना (प्रा ४१७४) । भल-स्खलित होना, गिरना। भलीह--मिलना, सम्मिलित होना (कु पृ १२२)। मा (भी)-डरना (प्रा ४।५३) । भासुंड-बाहर निकलना (दे ६।१०३ वृ)। भिज्ज-भीगना (निचू ३ पृ ३७३) । भिट-मेंटना। भिड (आक्रम्)-भिड़ना। भिड--अभिगमन करना-'अभिगमने देशी धातु ।' भिणिभिण-भिनभिनाना-'भिणिभिणेत मच्छियं' (कु पृ २२५) । भिणिहिण-भ्रमर का गुंजारव करना । भिलिंग-मालिश करना । भिस (भास्)-चमकना (प्रा ४।२०३) । भिसण--फेंकना। भीसाव-डराना। भंज (भज)--भोजन करना (प्रा ४।११०)। भुकुंड-लिप्त करना-'दद्दरमलयसुगंधगंधिएहिं गंधेहिं गाताई भुकुंडेति'
(जीव ३।४५१) । भुक्क (भष)-भौंकना (प्रा ४।१८६)। भुम (भ्रम्)-घूमना, फिरना (प्रा ४११६१) । भुरुड-उद्धूलित करना, लिप्त करना । भुरुकुंड-लिप्त करना-'चुण्णाणि जेण गायाइं भुरुकंडेत्ता' (सूचू १ पृ ११६)। भुरुहुंड-लिप्त करना। भुल्ल (भ्रंश)-१ भ्रष्ट होना, च्युत होना-'विसएहिं मुल्लउ हियय ! काई
परमत्थु मुणंतउ' (उसुटी प ५५) । २ भूलना। भेल-मिश्रित करना (भेलना-राज)। मोल-ठगना। भोलव-ठगना।
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परिशिष्ट २
मइल-निस्तेज होना (से ३।४७) । मंड-१ आगे धरना । २ रचना करना। ३ बिछाना । ४ प्रारंभ करना । मंभीस--अभय देना । मग--गमन करना। मघमघ (प्र+ सृ)....गंध फैलना (भ ११११३३)। मच्च–१ मलिन होना। २ गर्व करना । मज्ज-१ अवलोकन करना । २ पीना । मज्ज (नि+सद्)-बैठना । मड (मृद)-मसलना। मडमड-मड-मड की आवाज करना । मड्ड (मृद्)- मर्दन करना (प्रा ४११२६) । मढ (मृद्)-मर्दन करना (प्रा ४।१२६) । मणाव-मनाना (निचू १ पृ १२०) । ममाय-ग्रहण करना-'जे नियागं ममायति' (द ६।४८) । ममीकर-ग्रहण करना-'ममीकरेंति गेण्हंति' (दअचू पृ १५३) । मगर (चूर्णय)-चूर्ण करना। मर-१ टूटना । २ विस्तृत होना । मरह (मृष)-क्षमा करना । मल (मृद)-मर्दन करना (प्रा ४।१२६)। मलवल-मुंह बनाना। मल्ह-मौज मानना, लीला करना (दे ६।११६ वृ)। मसमसाविज्ज-जलकर राख हो जाना (भ ३।१४८) । मसरक्क-सकुचना, सिमटना । मह (काङ्क्ष)-चाहना (प्र ३१५) । महमह (प्र+स)- गन्ध फैलना, महकना (प्रा ४७८)-'गन्धोद्वाने देशी।' महम्म-आघातित होना । महुण (मथ्)-१ विलोडन करना । २ विनाश करना। माण-अनुभव करना। मिट-मिटाना।
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५५४
देशी शब्दकोश मिलिमिलिमिल- चमकना । मिल्ल-छोड़ना। मिसमिस-१ अत्यंत चमकना । २ खूब जलना । मिसिमिस-चमकना (आचूला १५।२८) । मोसाल (मिश्रय)-मिश्रित करना । मुकलाव-भिजवाना। मुक्कल-बन्धनमुक्त करना । मुग्गाह (प्र+स)-फैलना । मुण (ज्ञा)-जानना (प्रा ४।७) । मुणमुण-गुनगुनाहट करना, बड़बड़ाना (उसुटी प १४३) । मुम्मुर (चूर्णय)-चूर्ण करना। मुर (स्फुट )---मुस्कराना (प्रा ४।११४) । मर-१ विलास करना । २ उत्पीड़न करना । ३ व्याप्त करना । ४ बोलना।
५ फेंकना । ६ टूटना । ७ मुड़ना। मुव्वह-उद्वहन करना (प्रा २११७४) । मुसुमूर (भञ्ज्)-भांगना (प्रा ४११०६) । मयल--मूक होना (कु पृ १३५) । मर (भञ्ज)-भांगना (प्रा ४।१०६) । मेल-छोडना। मेलव (मिश्रय)---मिलाना (प्रा ४।२८) । मेल्ल (मुच)-छोड़ना (प्रा ४६१)। मेल्लाव-छुड़ाना। मेल्ह-छोड़ना (आवहाटी १ पृ २३४) । मोकल्ल-भेजना। मोक्कल-भेजना। मोग्गाह-फैलना। मोट्टाय (रम्)---क्रीड़ा करना, खेलना (प्रा ४।१६८) ।
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परिशिष्ट २
रहआब (रचय् ) – बनवाना ।
रंडोल ( बोलय् ) - १ झूलना, हिलना । २ कांपना ( प्रा ४/४८ ) ।
- पकाना, रांधना - (पच्छा धनं रंघेति' (आचू पृ ३३० ) ।
रंप (तक्ष ) - छीलना, काटना ( प्रा ४|११४) । रंक (तक्ष) | काटना ( प्रा ४। १६४) ।
रंभ ( गम् ) -- गमन करना, जाना (प्रा ४।१६२) । रंभ (आ+रम्) -प्रारंभ करना । रक्खोल (बोलय् ) – भूलना ।
♥ ( रञ्ज्) – राचना, आसक्त होना ।
रप्प ( आ + क्रम्)
-आक्रमण करना ।
रप्प – खेलना ।
रम्ह (तक्ष ) - छीलना ।
रथ-आई करना ।
रह रहना ।
रा ( ली ) - श्लेष करना ।
रा - १ बुलाना (अंवि पृ १०७ ) २ देना ।
राण (वि + नम् ) – विशेष नमना ।
राव-आई करना-' - 'से उदगबिंदू जेणं तं मल्लगं रावेहिति' (नंदी ५३ ) ।
राव ( रञ्जय्) - खुश करना (प्रा ४/४९ ) ।
रिअ ( प्र + विश्) - प्रवेश करना ( प्रा ४। १८३ ) ।
रिक्ष - गमन करना ।
रिक - रेंकना ।
रिक्क छोड़ना ( आ ६।११४ ) ।
रिग्ग ( गम् ) - गति करना ( प्रा ४।२५९ ) ।
रिग्ग ( प्र + विश् ) – प्रवेश करना (प्रा ४१२५९ ) ।
रिज्ज - रीझना ।
रिड (मण्डय्) - विभूषित करना । रिर ( राज्) - शोभित होना । रिल्ल -शोभना ।
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५५६
देशी कोश रिह (प्र+विश्) --प्रवेश करना । रिह (राज)--शोभित होना। रीड (मण्डय)-- मंडित करना (प्रा ४१११५) । रीर (राज्)--शोभना, चमकना (प्रा ४३१००)। रंज (रु)--- आवाजकरना (प्रा ४१५७) । रुट (रु)-आवाज करना, चिल्लाना (कु पृ ७७) । रुभ-स्थिर होना। रुव--पीसना-रुविज्जतासु कणिक्कासु' (कु पृ १००)। रुच-पीसना। रुच्च-१ पीसना-खेट्टादि भज्जति रुच्चति वा' (आचू पृ ३३८) ।
२ ब्रीहि आदि को यंत्र में निस्तुष करना। रुणरुण-करुण क्रन्दन करना (कु पृ २६) । रुणुरुंट-गुंजारव करना । रुल (लुठ)-लेटना। रुल-भटकना—'नट्ठअडवीए रुलंतं अच्छेज्ज' (निचू ३ पृ ३१७) । रुलघल-नि:श्वास डालना। रुलुघल-नि:श्वास डालना। रुहरुह-मन्द मन्द बहना । रूस-खोज करना, गवेषणा करना-'रूसेह त्ति देशीवचनत्वाद् गवेषयत'
(बृटी पृ ८५३) । रेअव (मुच्) --छोड़ना (प्रा ४१६१) । रेल्ल (प्लावय)-सराबोर करना। रेल्ल-१ शोभना, चमकना-'शुभ् धात्वर्थे देशी । २ बोलना-'भाष धात्वर्थे
देशी।' रेह (राज)-शोभना, चमकना (प्रा ४११००) । रोंच (पिष्)- पीसना (प्रा ४।१८५) । रोक्किर-दांत पीसना-'सीहो गज्जइ रोक्किरइ य' (व्यभा ४।३ टी प ८) । रोड-१ स्खलित करना, अटकाना, रोकना (आवचू १ पृ ४५०) ।
२ अनादर करना । ३ हैरान करना (आवहाटी २ पृ १४२) । रोव--गीला करना। रोसाण (मृज)-मार्जन करना (प्रा ४।१०५) ।
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लम-पहनना, मंडित करना-'लएज्जत्ति अप्पणो आभरेज्ज'
(निचू ४ पृ३)। सह-विकसित होना। लङ (स्मृ)- स्मरण करना (प्रा ४.७४) । लह-भार लादना, बोझ डालना। लय (ला) ग्रहण करना। लल (लड्)---१ विलास करना। २ झूलना। लव (प्र+वर्तय)--प्रवृत्ति कराना-'णो विज्जू लवंति' (सूर्य २०) । लाढ--यापन करना-'लाढयन्ति यापयन्ति' (बृटी पृ ११२६)। लालंप (वि+लप)-विलाप करना । लिप (लिप्)---लीपना (प्रा ४।१४६) । लिक्क (नि+ली)--छिपना (प्रा ४१५५) । लिज्ज-ग्रहण करना। लिस (स्वप्)-शयन करना (प्रा ४।१४६) । लीस-जोड़ना, सांधना-'लीसएज्जा वि वत्थं' (सूचू १ पृ १५६) । लुंचपखंच-पीड़ित करना। लुंछ (मज)-मार्जन करना (प्रा ४।१०५) । लुक्क (तुड्)-टूटना (प्रा४।११६) । लुक्क (नि+ली)--छिपना (प्रा ४१५५) । लुच्छ (मुज)-मांजना। लुढ (स्म)---याद करना। लुभ (मृज)-मार्जन करना । लुह (मृज)-मार्जन करना (प्रा ४।१०५) । लूड (लुण्ठ)--लूटना। लर (छिद)-छेदना, खण्डित करना (प्रा ४।१२४) । लोट्ट (स्वप्)--शयन करना (प्रा ४।१४६) । लोट्ट (लु)-१ प्रवृत्त होना-चक्कं अंतेण लोट्टति' (सू १।१५।१४) ।
२ लेटना। लोड- घुमाना।
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देशी शब्दकोश
लोढ-१ निकालना, अवतारण करना (आवहाटी २ पृ ६०) । २ कपास
निकालना, लोढना। लोल (लुट्)-१ लेटना (पिनि ४२२) । २ विलोडन करना। ल्हस हर्षित होना। ल्हस (संस्)-खिसकना (प्रा ४।१९७) । ल्हसाव (रसय )-खिसकाना। ल्हिक्क (नि+ली)-~-छुपना (प्रा ४।५५) ।
वअल (प्रस)-फैलना । वअल्ल (प्रस)-फैलना । वइसर-बैठना। वंच (उद्+नमय)-ऊंचा उठाना । वंफ-१ उल्लाप, बोलना-‘णो य वंफेज्ज मम्मयं' (सू १९२५); 'वंफेति
णाम देसीभासाए उल्लावो वुच्चति' (सूचू १ पृ १८०) । २ खाना,
भोजन करना। वंफ (वल्)-लौटना, वापिस आना (प्रा ४११७६) । वंफ (कांस्)- अभिलाषा करना (प्रा ४।१६२) । वक्कार-गर्जन करना (राज २८१ पा)। वग्गाल (रोमन्थय)---उगाली करना । वग्गोल (रोमन्थय)-पगुराना (प्रा ४।४३) । वच्च (कांक्ष)--अभिलाषा करना (प्रा ४।१६२) । वच्छड्डु (गम्)-जाना । बज्ज (प्रस)--भय खाना (प्रा ४।१६८) । वज्ज (वद)---बजना, वाद्य आदि की आवाज होना (प्रा ४।४०६) । वज्ज (दश)-देखना (प्रा ४११८१) । वज्जर (कथय)-कहना (उसुटी प १३६) । वट्ट-बांटना, पीसना। वडअ (गम्)-जाना। वडवड (वि+लप) विलाप करना (प्रा ४।१४८)। वड्ड-कलह करना-'वड्डे ति- कलयति' (उशाटी प १७६) ।
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परिशिष्ट २
ब- कलह करना - 'ताहे मातरं वड्ढति ममवि पायसं देहि ' ( आवचू १ पृ ४६६) ।
बडाव - १ बधाई देना । २ समाप्त करना । बद्धार (वर्धय्) - बढाना । ( वधारवुं -गुज ) । वष्य- - ढकना, आच्छादित करना । बष्फ— भोजन करना (अंवि पृ १०७ ) ।
बमाल (पु) – एकत्र करना ( प्रा ४११०२) । वरहाड (निर् + सृ) – बाहर निकलना ( प्रा ४।७९) । वरिअल ( गम् ) - जाना ।
रिअल ( गम् )
—जाना ।
वरिसण - हाहाकार ध्वनि करना ।
वल (आ+ रोपय् ) - ऊपर चढाना ( प्रा ४१४७) । वल (ग्रह) -- ग्रहण करना ( प्रा ४।२०९ ) ।
लग्ग ( आ + दह ) - आरोहण करना ( प्रा ४। २०६ ) । वलवल - चमकना - 'विज्जुला वलवलेइ' (कु पृ १०१) । वल्लव- लाक्षा से रंगना ।
वसुआ ( उद् + वा ) -- शुष्क होना, सूखना (प्रा ४|११ ) । वसुआअ ( उद् + वा ) - शुष्क होना ।
वह - अवलोकन करना ।
बा (म्लं ) - मुरझाना ( प्रा ४।१८ ) ।
बाडि - तेज गति से दौड़ना ( जीभा १७२०) ।
वाडु-भाग जाना - 'देशीवचनमेतत् नशनं करोति नश्यतीत्यर्थः ' ( व्यभा ३ टी प १०३) ।
वाण (वि + नम् ) – विशेष झुकना, नत होना । वापम्फ (श्रमं कृ ) वाय (म्) - सूखना ।
--श्रम करना ।
वाफ ( श्रम कृ ) -श्रम करना (प्रा ४।६८ ) ।
वावाअ ( अव + काश् ) – अवकाश पाना, स्थान पाना । वास ( अव + कास् ) खांसना ।
वाह (अव + गाह ) — अवगाहन करना ।
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५६०
-आह्वान करना ( ति ७२५) ।
वाहिप्प ( व्या + बाहुड - चलना ।
arra (वि + ईक्ष्) - देखना ( ओभा १८८ ) । विअट्ट (विसं + वद्) - अप्रमाणित करना ( प्रा ४। १२९ ) । विअल ( ओजय् ) -- मजबूत होना ।
विआय (वि + जनय् ) - जन्म देना । (वियावुं - गुज ) । विउड (वि + नाशय्) - विनाश करना ( प्रा ४।३१) । विचिण-विदारित करना ।
विछ (वि + घट् ) – अलग होना ।
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विट ( वेष्टय् ) - वेष्टन करना, लपेटना । (विटवुं - गुज) । विकडू - खींचना |
विक्के (वि + क्री) – बेचना (प्रा ४|५२ ) ।
विक्खर (वि + कृ ) - १ छितरना । २ बिखेरना । ३ इधर उधर फेंकना ।
विक्खिर (वि + कृ ) - बिखेरना, फैलाना (बृचू प १४१ ) ।
विक्खोड - निन्दा करना । ( वखोडवं - गुज ) ।
विखुड्डु - क्रीड़ा करना ( आवहाटी २ पृ १४७) ।
विग्गोव-निंदा करना ।
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विधुम्म (वि + घूर्णय् ) – डोलना । विच्च (वि + अय् )- -व्यय करना ।
विच्च - समीप में आना ।
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देशी शब्दकोश
विच्छ - विदारित करना ।
विच्छिप्प (वि + स्पृश् ) – विशेष रूप से स्पर्श करना ( भ ह २०९ ) । विच्छिव (वि + स्पृश्) - विशेष रूप से स्पर्श करना ।
विच्छुह (वि + क्षिप् ) – फेंकना ( से १०।७३ ) ।
विच्छोल (कम्पय् ) – कंपित करना (प्रा ४/४६) ।
विच्छो- वियुक्त करना, विरहित करना ।
विज्झ (वि + घट्) - अलग होना ।
विट्टाल - अपवित्र करना, भ्रष्ट करना - 'अहो इमे असुइणो सव्वलोगं विट्टालेंति' (निचू २ पृ २२६) ।
विट्ठ -- अर्जित करना ।
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परिशिष्ट
५६५ विडव (अर्जय)- अजित करना । विउविर (रचय)-निर्माण करना । विडविड-छटपटाना, बिलबिलाना । विडविड्ड (रचय)-निर्माण करना (प्रा ४।६४) । विस-स्वाद लेकर खाना। विढज्ज (वि+वह)-जलाना । विढप्प-अर्जन करना-'विढप्पंति गुणा' (से १।१०)। विढप्प (व्युत्+पद्)-व्युत्पन्न होना। विढव (अर्ज )-अर्जन करना, उत्पन्न करना-'ताहे केणावि उवायेण विढ
विज्जा सुवण्णं' (उशाटी प १४६) । विण-फटकना, बीनना, छाज से अलग करना-'एगा थेरी सुप्पं गहाय ते
विणेज्जा' (उशाटी प १४६) । विणड (वि+गप्)—व्याकुल करना । विणभ (खेवय)-खिन्न करना । वित-प्रतिषेध करना। वित्थक्क (वि+ स्था)-१ स्थिर होना। २ विलम्ब करना । ३ विरोष
करना। विद्द-बुझाना-'सो ते डहिउं अपच्चलो सिग्धं विद्दाति-उज्झाति त्ति वुत्तं
भवति' (निचू ४ पृ ३५४)। विप्फाड-फाड़ना, नष्ट करना। विप्फाल-प्रश्न करना, पूछना-'विप्फालेइ देशीवचनमेतत् पृच्छतीत्यर्थः'
(व्यभा २ टी प २१)। विफाल-पूछना। विभाड-नष्ट करना । विभर (वि+स्मृ)-भूलना। विम्हर (स्मृ)-स्मरण करना (प्रा ४।७४) । विम्हर (वि+स्मृ)-भूलना (प्रा ४७५) । विर (भज)-भांजना, तोड़ना (प्रा ४।१०६) । विर (गुप्)-व्याकुल होना (प्रा ४।१५०) । विरमाण (प्रति+पालय)—पालन करना, रक्षण करना। विरमाल (प्रति+ईक्ष)-राह देखना (प्रा ४।१९३) ।
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:५६२
देशी शब्दकोश विरल्ल (तन्)-विस्तार करना (प्रा ४।१३७) । विरा (वि+ली)-१ पिघलना, द्रवित होना-'ततो सा उण्हेण नवणीयमिव
विराओ' (आवमटी प ३९६) । २ नष्ट होना ।
३ निवृत्त होना (प्रा ४१५६) । विराव-१ दावित करना । २ आहत करना, पराजित करना-'पुक्खल
संवट्टओ भणति जहा णं एगाए धाराए विरावेमि'
(आवचू १ पृ १२१) । ३ भोजन करना-'विरावेमि-भक्षयामि ।' विरिंच (वि+भज)-भाग लेना, बांट लेना। विरिल्ल (वि+स्तृ)-फैलाना। विरीह (प्रति+पालय)--रक्षण करना । विरोल (वि+लग)-१ अवलम्बन करना । २ आरोहण करना । विरोल (मन्थ्)---विलोडन करना (प्रा ४११२१) । विल (बीड)--लज्जित होना। विलभ (खेदय)-खिन्न करना। विलिज्ज-पिघलना-'अग्गिसमीवे व घयं विलिज्ज चित्तं तु अज्जाए'
विलुंप-कवलित करना, खाना। विलुप (काङ्क्ष)-- चाहना, अभिलाषा करना (प्रा ४।१६२) । विलोट्ट (विसं+वद्)-१ अप्रमाणित होना (प्रा ४।१२६) । २ विपरीत
होना। विवोल---१ कोलाहल करना । २ गुजरना, बीतना । विसट्ट (वि+कस्)---खिलना, विकसित होना (स्था ४।५१४) । विसट्ट (वि+कासय)---विकसित करना। विसट्ट (पत्)-गिरना-'फुटता तडत्ति विसति महीयले'
(उसुटी ३६)। विसट्ट (दल)-फटना, टूटना (प्रा ४११७६) । विसुयाव-शोषण करना (बृभा २०७४) । विसुराव-खिन्न करना। विसूर (वि+स्मृ)--भूल जाना। विसूर (खिद्)-खेद करना-'बिले य जाणामि अदुट्ठ दुठे, मा ता विसूराहि
अजाणि एवं' (बृभा ३२४८) ।
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५६३
परिशिष्ट २ विहर (प्रति+ईश्)-प्रतीक्षा करना । विहल्ल-आवाज करना। विहिमिह-विकसित होना। विहि विल्ल (वि+रचय)-निर्माण करना । विहीर (प्रति+ईक्ष)-राह देखना (प्रा ४।१६३) । विहोड (ताडय)---ताडन करना (प्रा ४।२७) । विहोढ-जुगुप्सा करना, विडंबित करना (बृभा ६२३)। वीण (वि+चारय) --विचार करना। वोसर (वि+स्मृ)- भूलना (प्रा ४।७५) । वोसाल (मिश्रय)-मिश्रण करना (प्रा ४।२८)। वीसुंभ--१ मरना, मृत्यु प्राप्त करना-'आयरिय-उवज्झाया वा से वीसुंभेज्जा'
(स्था ॥१००)। २ पृथक् होना, अलग होना । बुंज (उद्+नमय )-ऊंचा करना। बुक्कार-गर्जन करना । वुज्ज (त्रस्)--डरना। वुण- बुनना। वेअड (खच)-जड़ना (प्रा ४८६)। वेआर-ठगना, प्रतारण करना । वेंटल-जादूटोना करना (आचू पृ ३३७) । वेंढ-वेष्टित करना, लपेटना । वेढ (वेष्ट)---लपेटना (प्रा ४।२२१)। वेमय (भञ्ज) भांगना (प्रा ४।१०६) । वेलव (वञ्च)-- १ ठगना (प्रा ४।६३) । २ पीड़ित करना । वेलव (उपा+लम्) --उलाहना देना (प्रा ४।१५६) । वेलव--१ कंपाना । २ व्याकुल करना । ३ व्यावृत्त करना, हटाना । ४ मजाक
करना। वेलाव (वि+ लम्बय)-विलम्ब करना । वेल्ल (रम)-क्रीड़ा करना (प्रा ४।१६८)। वेहव (वञ्च)-ठगना (प्रा ४।६३)। बोक्क (व्या+ह, उव्+नद्)-पुकारना ।
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५६४
देशी शब्दकोश
वोक्क (उद+नट)-अभिनय करना । वोक्क (वि+ज्ञपय)-विज्ञप्ति करना, प्रार्थना करना ((प्रा ४।३८)। . वोक्ख (उद+नद)-आह्वान करना। वोक्खार-विभूषित करना। वोज्ज (वीजय)-हबा करना (प्रा ४।५) । वोज्ज (त्रस्)-डरना (प्रा ४११६८ टी) । वोज्झ–धारण करना। वोल (गम)-१ अतिक्रमण करना (बृभा १५३६) । २ मिश्रण करना
(उसुटीप २५०) । ३ गुजरना । ४ गुजारना, पसार करना । वोल (व्युप+लुट)--छल कना। वोलाव-जाने के लिए प्रेरित करना । वोल्ल (आ+क्रम्)-आक्रमण करना। वोसग्ग (वि+कस्)-विकसित होना । वोसट्ट (वि+कस)-१ विकसित होना (प्रा ४।१६५) । २ बढना । वोसट्ट (वि+कासय)-१ विकास करना । २ बढाना । वोहार-- बुहारना।
संकेल्ल-संकुचित करना। संखा (सं+स्त्य)-संहत होना, सघन होना (दे ८।११ वृ)। संखुडु (रम्)-क्रीड़ा करना; खेलना (प्रा ४।१६८) । संगल (सं+घटय)--संघटित करना (प्रा ४।११३) । संघ (कथय)-कहना (प्रा ४।२)। संचाय (सं+शक्)-सकना, समर्थ होना-'एगमवि रोगायक 'नो चेव
____णं संचाएंति उवसामित्तए' (विपा ११११५५)। संचिक्ख (सं+स्था) –१ रहना। २ अनुशीलन करना-'जे अचेले परिवुसिए
____ संचिक्खति ओमोयरियाए' (आ ६।४०)। संछिव-स्पर्श करना । संछुह (सं+क्षिप्)-एकत्रित कर रखना (पिनि ३११) । संजत-तैयार करना । संजम-छिपाना (दे ८।१५ वृ)।
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परिशिष्ट २
संजव-छिपाना। संजोग (सं+ वृश)-निरीक्षण करना । संठव-१ तीक्ष्ण करना । २ संवारना (निचू २ पृ २२०) । ३ रखना।
४ आश्वासन देना। संतुम (छावय)-आच्छादित करना । सवाण (कृ)-अवलम्बन करना (प्रा ४।६७)। संदुक्ख (सं+दीप्)-जलना । संदुम (प्र+वोप्)-जलाना, प्रकाशित करना (प्रा ४११५२) । संधुक्क (प्र+दीप्)-जलाना, प्रकाशित करना (प्रा ४।१५२) । संधुम (प्र+दीप्)-प्रदीप्त करना। संनाम (आ+द)-आदर करना । संपणोल्ल (संप्र+नुद्)-प्रेरणा करना, चालित करना (द ५।१।३०) । संपसार-मंत्रणा करना (व्यभा ४।३ टी प ८)। संफाण-धोना, प्रक्षालन करना (नि ५११४) । संफोड-मिलाना (निचू २ पृ ३१४) । संभर (सं+स्मृ)-स्मरण करना । संभाव (लुम)---आसक्ति करना (प्रा ४११५३) । संवेल्ल—सकेलना, समेटना । सक्क (सप्)-सरकना। सक्षुध (रम्)-क्रीड़ा करना। सग्ध (कथ)-कहना। सच्चव (दृश)-देखना। सच्छर (दृश्)-देखना । सज्ज-शक्ति ग्रहण करना-'णाणुज्जोया साहू, दब्बुज्जोतंमि मा हु सज्जित्था'.
(निभा २२५)। सज्झव-ठीक करना, स्वस्थ करना-'ममं चेव ओलग्गसि तो ते सज्झवेमि'
(उसुटी प २७) । सडिअग्ग-बढाना । सद्दह (श्रद्धा )-श्रद्धा करना (प्रा ४।६) । सन्नाम (आ+द)--आदर करना (प्रा ४८३) ।
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५६६
देशी शब्दकोश . सन्नुम (छादय). - आच्छादित करना (प्रा ४।२१)। समइच्छ (समति+क्रम)-१ उल्लंघन करना । २ गुजरना। समच्छ (सम्+आस)-१ बैठना । २ अवलम्बन करना।
३ अधीन रखना। समभिड-भिड़ना, लड़ना । समराअ-पीसना। समाढप्प - आरंभ करना (कु पृ १६६) । समाण (भुज)-- भोजन करना (प्रा ४।११०) । समाण (सम्-+ आप्)- समाप्त करना (प्रा ४।१४२) । समार (समा--रचय)-रचना, बनाना (प्रा ४१६५) । समार (समा+रभ)--प्रारंभ करना । समुच्छ (समुत्+छिद्)-१ प्रमार्जन करना (सू १।२।३५) ।
२ उन्मूलन करना (सू २।१।२२)। समुच्छ--१ संतुष्ट करना । २ ठीक करना। समत्तअ--- गर्व करना। समुप्फुद (समा+क्रम)- आक्रमण करना (से ४।४३) । समुस्सिणा (समुत्। श्रु)---निर्माण करना-'आवसहं वा समुस्सिणासि'
(आ ८।२२)। समोलय-उठाकर फेंकना। समोसव-टुकड़े-टुकड़े करना। सर-पर्याप्त होना। सरास-कहना-'कथ् इत्यर्थे देशी।' सलह (श्लाघ)--प्रशंसा करना (प्रा ४।८८)। सलिस (स्वप्)- सोना। सल्ल- प्रिय लगना। सव्वव (दश)-देखना (प्रा ४।१८१)। सह (राज)--शोभना, चमकना (प्रा ४।१००)। सह (आ+ज्ञा)-आदेश देना। साअड (कृष)----१ खेती करना (प्रा ४।१८७) । २ खींचना । साण-शान्त होना। सामग्ग (श्लिष्)---गले लगाना (प्रा ४११६०)।
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परिशिष्ट २
सामच्छ - मंत्रणा करना ।
सामस्थ -- पर्यालोचन करना ।
सामय ( प्रति + ईश्) - प्रतीक्षा करना ( प्रा ४।११३) ।
सार ( प्र + ६ ) - प्रहार करना ( प्रा ४८४) ।
सारब ( समा+रब ) - ठीक करना, दुरुस्त करना (प्रा ४।१५) ।
सारव -गोपन करना, संरक्षण करना- 'तेण तं पत्तए लिहियं सो सारवेइ' ( उशाटी प १४९ ) ।
सारव (समा + रम् ) - प्रारम्भ करना ।
सास ( कथय् ) --कथन करना ।
साह (कथय् ) – कथन करना - 'साहइ त्ति देशीवचनतः कथयति' ( आवहाटी १ पृ १६० ) ।
साहट्ट ( सं + वृ ) - संवरण करना (प्रा ४ | ८२ ) । साहर ( सं + वृ ) - संवरण करना (प्रा ४।८२ )
साहस - अविचारित कार्य करना - ' मा साहस' (कु पृ १३७ ) । सिंच (सिच्) -सींचना (प्रा ४६६ ) | सिप (सिच् ) - सींचना (प्रा ४।१६ ) । सिज्ज --- प्राप्त होना ।
सिप्प ( सिच् ) -- सींचना (प्रा४।२५५) ।
सिप्प (स्निय् ) - प्रीति कराना ( प्रा ४ । २५५ ) । सिमसिम - उबलने के समय होने वाला शब्द - सिरिहाय - सराहना करना । सिह ( स्पृहय् ) सिह (कांक्ष ) - अभिलाषा करना (प्रा ४।१ε२) ।
-- इच्छा कराना ( प्रा ४ | ३४ ) ।
सिहरवय -- इच्छा करना, आकांक्षा करना ( आचू पृ ३३६) ।
सीतिज्ज निमज्जन करना ( बृभा ६१८८ ) ।
सीमंत- बेचना |
सीय --- फलित होना ( पिनि ८२ ) ।
सीस ( कथम् ) - कहना ( निभा १२५४ ) । संघ - सूंघना ।
सुग्गाह ( प्र + सृ ) - फैलना ।
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- 'क्वथन शब्दानुकरणे देशी ।'
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देशी शब्दकोश
सुज्झ-सूझना, दीखना। सुढ (स्मृ)-याद करना । सुणसुणाय-सुन्-सुन् आवाज करना। सुप (मृज्)-मार्जन करना। सुमर (स्मृ)-स्मरण करना (प्रा ४१७४) । सुम्म-सुनना-'सुम्मइ बहुसो घुणाहुणी' (उसुटी प १६२)। सुरसुर -- सुर-सुर की आवाज करना । सूअर-यन्त्र-पीड़न करना। सूख- सूखना, शुष्क होना-'फूमंतस्स मुहं सूखति' (निचू १ पृ८६) । सूड (भञ्ज)-भांगना (प्रा ४११०६ ) । सूर (भञ्ज)-भांजना (प्रा ४।१०६) । सूसुव--सू-सू करना। सेह (नश)-पलायन करना, भागना (प्रा ४११७८) । सो-१ दारु बनाना । २ पीड़ा करना । ३ मन्थन करना । ४ स्नान करना । सोग्गह (प्र+स) फैलना। सोच-सोचना। सोल्ल (पच)-पकाना (विपा ११३।२१)। सोल्ल (क्षिप)--फेंकना (प्रा ४।१४३)। सोल्ल (ईर्, सम्+ ईर्)-प्रेरणा करना। सोह-पीसना, चूर्ण करना।
हंग-मलोत्सर्ग करना (बृचू प १४२) । हंद (ग्रह)---ग्रहण करना (आचूला १११३८) । हंदोल-झूलना, घूमना (अंवि पृ८०)। हंफ-गलहत्था देना-'किं मं हंफेह' (बृभा ६०८३) । हक्क-१ खदेड़ना (उसुटी प ५८) । २ प्रेरणा करना । ३ पुकारना ।
४ ऊंचा करना । हक्क (नि+षिध)--निवारण करना (प्रा ४।१३४) । हक्कार (आ+कारय)- बुलाना । हक्कार-ऊंचे फैलाना।
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हम्बुव ( उत् + झिप्) -- १ ऊंचा फेंकना - २ ऊंचा उठाना ( प्रा ४|१४४) ।
हम - शौच करना, विष्ठा करना - 'छगलओ हगति' ( आवचू १ पृ. ४९४) ।
रहड-हडहर ध्वनि करना ।
हज (शु) - सुनना (प्रा ४।५८ ) । हम्म ( गम् ) -
हम्म - पीटना ( विपा १ । २ । १४)
।
हर ( ग्रह ) - ग्रहण करना ( प्रा.४।२०६ ) |
हर - स्मरण करना ।
हरयाल - क्रोध उपजाना, कुपित करना ( ज्ञाटी प १५५) ।
हलबोल - कोलाहल करना - 'हलबोलिज्जइ जणेण सव्वेण' ( कु पृ १८५) । हलहल - १ हलफल करना ( कु पृ ८३ ) । २ कम्पित होना । ३ कोलाहल
करना ।
— गमन करना, जाना (प्रा ४।१६२ ) ।
हलहलाय -- उत्सुक होना - ' हलहलायइ कुमार दंसणू सवपसरमाणु क्कंठणिब्भरो णायरलोओत्ति' ( कु पृ १६६) ।
हल्ल - १ हिलना, चलना । २ नृत्य करना ।
हल्लपव- त्वरा करना ।
हल्लप्फल -- १ त्वरा करना । २ आकुल होना । हल्ल फल- - १ शीघ्रता करना । २ व्याकुल होना । हल्लाव -- हिलाना ।
हल्लुत्ताल – उतावल करना ।
हव (भू ) - होना ( प्रा ४१६० ) ।
हव - १ चुपड़ना । २ प्राप्त करना।
हस हस - दीप्त होना ( बृभा २०१६ ) |
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हाक—बुलाना ।
हाव - द्रुतगामी होना ।
हिच - एक पैर से चलना ।
हिंड - घूमना ।
हिंद ( ग्रह ) - ग्रहण करना । हिण्ण (ग्रह) - स्वीकार करना । हिलिहिल- - अश्व का हिनहिनाना ।
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हुण्णिप्प – सुनना - 'हुण्णिप्पर पुख्वपक्खो' (कु पृ १७२) । हुप्प (प्र+भ ) – समर्थ होना ।
हुल (मृज्) - मार्जन करना ( प्रा ४११०५ ) । हुल (क्षिप् ) – फेंकना ( प्रा ४११४३) । हुल- शीघ्रता करना ।
हुल्ल ( लक्ष्यात् स्खल् ) ) - लक्ष्य से च्युत होना ।
हुव (भू) – होना ( प्रा ४।६० ) ।
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हेर - १ देखना, निरीक्षण करना । २ अन्वेषण करना ।
हेरुयाल - क्रोध उपजाना, कुपित करना ( ज्ञा ११८ । १४६) । हेस - चीत्कार करना ।
हो ( भू) – होना ( प्रा ४।६० ) ।
होक्ख - होना (अंवि पृ ८४) ।
होणे - गला पकड़कर निकालना ( बृभा ६०७९) । होल - डोलना, संदेह करना (ज्ञाटी प १४५) । होस ( भू ) - होना ।
देशी शब्दकोश
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