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१६ एफ. आर. हार्नले', श्री आर. जी. भण्डारकर, डॉ. पी. डी. गुणे' भी इस कथन से सहमत हैं। जार्ज ग्रियर्सन के अनुसार देशी शब्दों का संबंध वैदिक काल से पूर्व आर्यों द्वारा बोली जाने वाली जनभाषाओं से है । प्रथम प्राकृत से उद्भूत होने के कारण देशी शब्दों को तद्भव कहा जा सकता है।
ए. एन. उपाध्ये तथा पी. एल. वैद्य' ने भी देशीशब्दों की उत्पत्ति तथा उसके स्वरूप के बारे में पर्याप्त चिन्तन किया है। देशी शब्द का प्रयोजन
। प्राचीनकाल में गुरु के पास विभिन्न प्रदेशों के शिष्य दीक्षित होते थे । वे सूत्रों के गूढ़ रहस्यों को सरलता से समझ सकें, इस दृष्टि से प्रशिक्षक विभिन्न देशों में प्रचलित एक ही अर्थ के वाचक भिन्न-भिन्न शब्दों का प्रयोग करते थे। यहां दशवकालिक सूत्र का भाषा-प्रयोग विषयक एक प्रसंग द्रष्टव्य है। वहां कहा गया है कि मुनि इन संबोधनों से स्त्री को सम्बोधित न करे
हले हले त्ति अन्नेत्ति, भट्टे सामिणि गोमिणि । होले गोले वसुले ति, इत्थियं नेवमालवे ॥(७॥१६)
ये शब्द विभिन्न प्रदेशों में प्रचलित सम्बोधन-शब्दों का परिज्ञान कराते हैं । दशवकालिक सूत्र की अगस्त्यचूणि के अनुसार तरुणी स्त्री के लिए महाराष्ट्र में 'हले' एवं 'अन्ने' संबोधन का प्रयोग होता था। लाट (मध्य और दक्षिणी गुजरात) देश में 'हला' तथा 'भट्टे', गोल देश में 'गोमिणी' तथा 'होले', 'गोले', 'वसुले'-ये शब्द संबोधनरूप में प्रयुक्त होते थे। दशवकालिक सूत्र की चूर्णि में भोजन के लिए प्रयुक्त संदेण, वंजण, कुसण, जेमण आदि शब्द भिन्न-भिन्न प्रान्तों में इनके प्रचलन का संकेत देते हैं—भिण्णदेसिभासेसु जणवदेसु एगम्मि अत्थे संदेणवंजणकुसणजेमणाति भिण्णमत्थपच्चायणसमत्थमविप्पडिवत्तिरूवेण । १. कम्पेरेटिव ग्रामर आफ गौडियन लेंग्वेजेज, पृ ३६-४० । २. विल्सन फिलोलोजिकल लेक्चर्स, पृ १०६ । ३. इन्द्रोडक्शन टु कम्पेरेटिव फिलोलोजी, पु २७५-२७७ । ४. लिंग्विस्टिक सर्वे आफ इण्डिया, पृ १२७,१२८ । ५. कन्नडीज वईज इन देशी लेक्सिकन्स, जिल्द १२, पृ १७१,१७२ । ६. औब्जर्वेशन आन हेमचन्द्राज देशीनाममाला, जिल्द ८, पृ ६३-७१ । ७. दशवकालिक, अगस्त्यचूणि, पृष्ठ १९८ : हले अन्नेति मरहठ्ठसु तरुणित्थी
मामंतणं। हलेति लाडेसु । भट्टेति......."लाडेसु । सामिणित्ति सव्वदेसेसु ।
गोमिणी गोल्लविसए। होले गोले वसुले त्ति देसीए"...."। ८. दशवकालिक, जिनदासचूणि, पृष्ठ १६०
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