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उच्छिल्ल—दोनों स्वतंत्र शब्द हैं। दोनों का अर्थ एक ही है-छिद्र । इसी प्रकार फेस-उप्फेस, उज्झिखिय-झिखिय आदि शब्दों की स्थिति है।'
साहित्य में हमें जो शब्द जिस रूप में प्रयुक्त मिला उसका संकलन हमने उसी रूप में किया है। जैसे- बौद्ध भिक्षु के लिए तच्चण्णिय पाठ प्रसिद्ध है, किंतु कहीं-कहीं ग्रंथों में तव्वण्णिय पाठ भी मिलता है। यहां बहुत अधिक संभावना है कि प्राचीन लिपि में च और व की समानता से तच्चण्णिय के स्थान पर तव्वण्णिय शब्द पढा गया हो। हमें दोनों रूप प्राप्त हुए हैं। अतः दोनों का संकलन कर दिया है। यह भी बहुत संभव है कि 'तव्वणिय' शब्द बौद्ध भिक्षु के अर्थ में अनेक स्थानों पर प्रचलित रहा हो। आचार्य हेमचंद्र ने 'च', 'व', 'ब' के व्यत्यय के अनेक शब्द देशीनाममाला में संग्रहीत किए हैं। जैसे -. चालवास-बालवास, चिद्दविअ-विद्दविअ, चुक्क-बुक्क, चुक्कड-बोक्कड आदि । इसी प्रकार मगदंतिया मालती के लिए प्रसिद्ध है किंतु मदगंतिया पाठ भी मिलता है । संभव है लिपिकार द्वारा वर्ण-व्यत्यय हो गया हो या इसी रूप में यह प्रचलित रहा हो ।
कल्पसूत्र में 'अवामंसा' शब्द अमावस्या के अर्थ में प्रयुक्त है । प्रथम दृष्टिपात में लगता है कि यह 'अमावस' शब्द में वर्णव्यत्यय होने से या लिपिदोष होने के कारण 'अवामंसा' रूप बन गया होगा। किंतु कल्पसूत्र की चूणि तथा टिप्पणक की सभी प्रतियो में 'अवामंसा' शब्द मिलने से लगता है कि उस समय अमावस के लिए अवामंसा शब्द ही प्रचलित रहा होगा। मुनि पुण्यविजयजी ने इस पर पर्याप्त विमर्श किया है।
'उत्तुहिय' के स्थान पर उड्डु हिय शब्द भी कहीं-कहीं मिलता है जो कि हेमचंद्राचार्य की दृष्टि में लिपिभ्रम ही है। इसी प्रकार अइरिंप-अइरिप्प, अंबसमी-अंबमसी, उत्तम्पिअ-उत्तम्मिअ, झरंक-झरंत-इन शब्दों में भी लिपिभ्रम की संभावना की जा सकती है । इस विषय में आचार्य हेमचंद्र अपना अभिमत प्रस्तुत करते हुए कहते हैं कि हो सकता है लिपिभ्रम न भी हो। १. देशीनाममाला, ११९५ वृत्ति :
न हि देशीशब्दानामुपसर्गसम्बन्धो भवति । २. कल्पसूत्र टिप्पनक, पृष्ठ १६ : विश्वेष्वपि चूादशेषु टिप्पणकादशेषु च अवामसा। इत्येव पाठो वरीवत्यते इति सम्भाध्यते तत्कालीनभाषाविदां अमावसाऽर्थको अवामंसा
शब्दोऽपि सम्मतः इति नात्राशुद्धपाठाशंका विधेयेति । ३. देशीनाममाला, १११०५ वृत्ति :
उत्तुहियं तकारसंयोगस्थाने डकारसंयोगं केचित् पठन्ति । स च लिपिभ्रम एव इति ।
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