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Sam गर्भ वभार सा वाला कियत्काले गते सति । दोहदेन रुशोभूता दृष्ट्या श्रीश्रेणिकेन च ॥ १७४ ॥ पप्रच्छालिंग्य संचुध्य रह.
स्ये रतिकिहलां । कृशत्वकारणं कांतः साग्रहादगदीदिति ॥ १७५ ॥ ऋणु नाथ ! कपाधार! प्राणजीवन ! मवचः । सप्तवासरपयेतं देशेऽस्पिस्नभयं यदा ॥ १७६ ॥ भवेन्नने सदा सौख्यं श्रुत्वासौ दुष्करं वचः । समाश्चात्य सि रामानंद्यास्तीरं गतस्तदा ॥. १७७ ॥ उपाय चिंतयन यावत्ताबदत्यकथांतरं । बसुपालनरेंदस्य कृत्या चालानभजन ॥ १०८ ॥ पुरमाकुलयन् लोकालाम गृद्दीष्यन्निध तिग्मांशु पातयिष्यन् धरातलं ॥१७६ ॥ गमिपन्निव चाकाशे निर्ययो मनोद्धरः। अन्याय तं गज दृष्ट्वा चिंतया.
मास श्रेणिकः ॥ १८० ॥ अयं दुष्यो गजः केन वशीक हि शाते । इति मत्वोत्थितः कोपाजघानेनं प्रमुष्टिभिः ॥१.८१॥ निर्मबं गलिबधार ! प्राणजीवन प्राणनाथ ! सुनिये मुझे यह दोहला हुआ है कि इस देशमें सर्वत्र सात दिन PA तक अभयदानकी प्रवृत्ति हो, कोई भी जीव किसीको न सतावे । यदि मेरा यह दोहला पूर्ण हो । IN जाय तब मुझसुख मिले इसका पूर्ण होना कठिन जान पड़ता है इसीलिये मैं सदा कृश होती चली ||
जाती हूँ मेरी कृशताका अन्य कोई कारण नहीं। प्राणप्यारी नंदश्रीका यह दोहला सुन कुमार श्रेणिकको भी उसकी सिद्धि में कठिनता सझने लगी परंतु अपनी निर्वलता न प्रगट कर अपने धीर वीर खभावसे उन्होंने उसे समझा दिया एवं कुछ उपाय खोजनेके लिये वे नदीके तटकी ओर चल | दिये ॥ १७४–१७७ ॥
नदीके किनारे बैठकर कुमार दोहलेकी सिद्धिका उपाय सोच ही रहे थे कि उस समय एक नवीन ही घटना उपस्थित हो गई। उसी नगरका स्वामी एक वसुपाल नामका राजा था उसके किसी मदोन्मत्त हाथीने पालान ---अपने बंधनेका खुटा तोड़ डाला। वह दुष्ट गज समस्त लोगोंको व्याकुल करता, हथिनियोंको त्रास देता, अपनी उछल कूदसे सर्यको ग्रहण करता, समस्त पृथ्वीतलको कपाता एवं अपनी ऊंचाईसे आकाशमें चलता हुआ जिस जगह कुमार बैठे थे उसी जगह आया उस दुष्ट गजको अपने पास आता देख कुमार श्रेणिक मन ही मन सोचने लगे—यह गज बड़ा दुष्ट मालूम पड़ता है। इसे वश करनेकी किसीकी हिम्मत नहीं जान पड़ती इसे अवश्य वश
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