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संस्कृत-साहित्य का प्रभाव
जमानता है। ले रोल्ड वानश्राडर का कथन है कि भारतीय लोग पुराने काल के रमणीयताबाद के विश्वासी (Romanticists) है और जर्मन लोग श्राधुनिक काल के। सूक्ष्म-चिन्तन की ओर मुकाव, प्रकृति-देवी को पूजा की ओर मन की प्रवृत्ति, जगत् को दुःखात्मक समझने का भाव, ऐसी बातें हैं, जो जर्मन और भारतीयों में बहुत ही मिलती-जुलती हैं। इसके अतिरिक, जर्मन और संस्कृत दोनों ही काव्यों में रसमयता तथा प्रकृति के प्रति श्रास्मीयता के भाव पाए जाते हैं, जो हिब्र और यूनानी कायों में भी नहीं पाये जाते ।
(घ) शिलालेखसम्बन्धी अन्वेषण-~-यह कहने में अत्युक्ति नहीं होगी कि संस्कृति-ज्ञान के बिना प्राचीन भारत विषयक हमारा ज्ञान बहुत ही कम होता। शिलालेखों के ज्ञान तथा भारतीय पुरातत्व के अनुसन्धान में हम आज जितने बड़े हुए हैं, उसका मूल प्रायः पश्चिमीय विद्वानों की कृतियां है, किन्तु उन कृतियों का मूल भी तो संस्कृत का अध्ययन ही है।
(क) सामान्य-(१) पाणिनि की अष्टाध्यायी पढ़कर यूरोप के विद्वानों के मन में अपनी भाषाओं के व्याकरण को यथासम्भव पूर्ण करने का विचार पैदा हुआ।
(२) सिद्धहस्त नाटककार कालिदास का 'अभिज्ञानशकुन्तला' नाटक यूरोप में बड़े चाव के साथ पढ़ा गया और गेटे ने 'फास्ट' की भूमिका उसी ढंग से लिखी। संस्कृत ग्रन्थों के जर्मन अनुवाद ने जर्मन साहित्य पर बहुत प्रभाव डाला है। ऐफ श्लगब ने संस्कृत कविता का अनुवाद जर्मन कविता में किया है।
(३) महायान सम्प्रदाय के प्रामाणिक ग्रन्थ संस्कृत में ही है । उनके यूरोपियन भाषाओं के अनुवाद ने यूरोप में बौद्धों को बहुत प्रभावित किया है।
(४) यूरोर के विद्वानों ने वैदिक और लौकिक दोनों प्रकार के सम्पूर्ण संस्कृत-वाङ्मय की छानबीन दो मे भी कम शताब्दियों में कर