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॥ रत्नसार ॥ (३७) तथा अशुभ कर्म ना उदय अशुभ योगै थाइ. तेथी अशुभ क्रिया विषयादि सेवै, तेथी पाप प्रकृति बंधाइ, तेथी अशुभ गति. ते माटे पुण्य पाप ते योगर्ने आयतै, अने धर्म अधर्म ते उपयोग में आयतै. तेह नो राग द्वेष मोह ने उदय अशुद्धोपयोगै तेज मिथ्यात्व अधर्म कहिये. तथा शुद्धोपयोग जे रत्न त्रय रूप जे परणति वीतराग भाव ते धर्म. ते बे उपयोगै. एटला माटे इम जाणवो. ए भाव जाणवो. इति.
५६.हिवै रोगाक्रान्तनुं गुणसाठमो प्रश्नः-जे रोगाक्रान्तनो अर्थ कहिये छै. घणा काल लगै रहै ते रोग कहिये. अने तत्काल सद्य प्राणघात करै ते आतंतक कहिये. इति भाव.
६०. हिवै बल वीर्य नो साठमो प्रश्नः-ते बल, वीर्य,नै पराक्रम नो अर्थ लिखिये छै.बल ते शरीर नो१, वीर्य ते अंतरंग आत्मा नो२.पराक्रम ते उदयानुसारी जाणवो३. ए भावार्थ सूत्रे इति.