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(१८२) ॥ रत्नसार ॥ पर्याप्ता च शरीरं भविक्षति किं प्राग भिहितेज शरीर नाम्नाने तदास्तिस्याध्य भेदा। तथा जयसोमबाला बोध ने विर्षे लिख्यूं है.
___२४४.हिवै प्रर्याप्ति नाम कहै छै. जे कर्म ना उदय थी आरंभी पर्याप्ति करयां विना न मरे ते पर्याप्त नाम कर्म. तेणें एकेंद्री ने ४.विगलेंद्री तथा असनीय पंचेंद्री ने भाष्या होइ ते भणी पांच. ५. संनीयां पंचेद्री ने मन होइ ते भाछै ६. पर्याप्ति उत्पत्ति प्रथम समय थी आरंभी पर्याप्ति पूरी करयां विना न मरे, पूरी करी ने मरे पण अधूरीये न मरे ते लब्धि पर्याप्तो कहिये. तथा करण कहतां शरीर इंद्री पर्याप्ति पूरी नथी थई तिहां लगी तेहने करण अपर्याप्तो कहिये. अथवा जे जे परयाप्ती पूरी थई नथी ते तेहनी अपेक्षा ये करण अपर्याप्तो कहिये. पूरी करी तहनी अपेक्षाये परयाप्तो काहिये. अने कर्मनाउदय थी आरंभी पर्याप्त पूरी करया बिना मरै ते लब्धि अपर्याप्त नाम कर्म.तिहां पर्याप्ति कहतां पुद्गल ना उपचयथी थयो पुद्गल परिणाम ना हैतु.