________________
(२०४) ॥ रत्नसार ॥ ॥१॥ अपरिस्सावी ८ सोमा ९ संगहसीलो१० आभि गृहमई ११॥ अविकथणो १२ अचवलो १३ पसन्न हियओ १४ गुरू होई ॥२॥) अप्परिसा २ एवं चतुर्दश गुणा भवंति..
२७२. तथा श्रोध निर्युक्तो भद्रबाहु स्वामी कृतः (अंवसंगंतु कउ जिणो वईठं गुरु वए सेणं । तिन्नि थूई पडिलेहा कालस्सविहिई मातथ ॥ १ ॥) गाथा २७ मी छै. तिहां-थूई त्रिण करवी कही है. ... २७३.हिवै मिथ्या दृष्टि जीवने शुभाचार होइ पण शुभोपयोग न होइ. अने सम्यक् दृष्टी जीव ने शुद्धोपयोग होय तेहनें शुभोपयोग आचरण रूप होइ पण आदरण न होइ. अने मिथ्यादृष्टी जीव ने शुभ श्राचार रूप होइ पण अशुद्धोपयोग ना घर नो अशुभोपयोग होइ, पण शुभोपयोगे उपचारे कहिये. इति भाव.
२७४ाठे कर्मनी वर्गणा ने कारमाण शरीर.कहै छै