Book Title: Ratnasar
Author(s): Tarachand Nihalchand Shravak
Publisher: Tarachand Nihalchand Shravak
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ KICO DD - - ॥ श्री॥ SASRPER POSTERO ॥ रत्नसार ॥ 6R १ Post REFilm जिसको रतलामनिवासी श्रावक ताराचंदजी निहालचंद ने a यथा मतिसंशोधन करके तत्वाभिलाषी जैन भाइयों के हितार्थ प्रकाशित किया. . REP BOORNAMRATASHAMARHamNAMANARTHATANAMAHARASHAama KHARMA PROK रतलामः १६९ - पाँडे अम्बालालजी रामप्रताप खर्रा के स्वकीय 'डायमंड ज्युबिली' छापाखाना में मुद्रित हुवा. सन् १८९९ संवत् १९ DOOOOOOOOOOOOG Page #2 --------------------------------------------------------------------------  Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना. -: 00:-- ___ यह रत्नसार नाम का अपूर्व ग्रन्थ अनेक जैन शास्त्रों के गूढार्थ को निरूपण करनेवाले धारने लायक ३०४ प्रश्नों का परमोत्तम संग्रह है. इस ग्रन्थ को देख कर बहुतसे जैनी भाइयों की इस पर विशेष रुचि हुई और हस्त लिखित प्रति सब को मिल नहीं सक्ती इसलिय इस ग्रन्थ को छपाकर प्रसिद्ध किया. यह ग्रन्थ किस आचार्य ने बनाया है सो मालम नहीं होता परन्तु प्रश्नों के श्राशय और रचना पर से प्रगट होता है कि किसी द्रव्यानुयोग में परिपूर्ण, बुद्धिमान, विचक्षण आचार्य ने भेदाभेद करके वस्तु का निर्णय भली भांति किया है. .. जिस प्रति पर से यह ग्रन्थ छापा गया है वह हम को अशुद्ध प्राप्त हुई कि जिस में प्रश्नों का नंबर तक बराबर नहीं (जो पीछे से सुधार दिया गया)और हमने दूसरी प्रति की बहुत सी तलाश भी की परन्तु Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (॥) . हम को मिल नहीं सकी. तब श्रद्धालु जैनी भाइयों का आग्रह देख कर हम ने उसी प्रति पर से पुस्तक छपाना प्रारंभ कर दिया और दूसरी प्रति मिलने का उद्योग करते रहे. पीछे से श्रीमद् विजय राजेंद्र सूरीश्वर मुनिराज ने कृपा करके शिवगंज के भंडार से प्रति भिजवा कर परम उपकार किया. दूसरी प्रति मिलने पर शुद्धाशुद्ध देखने में बहुत कुछ सहायता मिली. तथापि दोनों प्रतें न्यूनाधिक अशुद्ध होने से भली प्रकार संशोधन नहीं हो सका. अनेक स्थलों पर तो हस्तलिखित पाठ ज्यों का त्यों रखना पड़ा, कारण कि हमारे समझ में बराबर श्राया नहीं तो ग्रंथकार के अभिप्राय से विरुद्ध न छपजाने का ध्यान रखना पड़ा. . - आशा है कि श्रद्धालु जैनी भाई इस ग्रन्थ को आश्रय देकर परम लाभ उठावेंगे और हमारा उत्साह बढ़ावेंगे जिस से हम अपूर्व २ ग्रन्थ प्रकाश करके उन को भेट करने में समर्थ होवें. लि• निहालचन्द. Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमणिका. (ब प्रश्न. . विषय. । श्रीवीतरागनी वाणीनी महिमा. । केतला बोल सांभल्यां बिना शास्त्र ना भेद न जाणे ? । बावीस योगवाई पुण्य बिना न पामिये, । केहवा पुरुष नो संग कीजे तो धर्म पामे ? " । केहवा पुरुष नो संग न कीजे ? १ जीव धर्म किम् पामे ? .. . २ अभ्यास चार प्रकार ना. । जीव में पाप, पुण्य, अथिरता श्या थी उपजे ? ३ धर्म, पुण्य, पाप कर्म स्या थी उपजे ? । जैन धर्म क्यारे प्रवर्ने ? ४ देशना केवी रीत नी होवी जोइये ? Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २ ) ॥ विषयानुक्रमणिका ॥ प्रश्न. विषय. ५ पुण्य क्रिया अत्यादरें सेवा विषे. ६ हेय, ज्ञेय, उपादेय शब्द नो भावार्थ. द्रव्य काउसग, भाव काउसग ना भेद. | शुभ क्रिया थी निर्जरा अने शुभ क्रिया थी बंध केहवी रीते नीपजे ? ० ४ प्रकार. भाव नव निधान ते श्युं ?. ११ पांच इंद्री ना विकार मिटै किहा गुण निर्मल ता थाथ ? च्यार प्रकार ना मिथ्यात्व नो स्वरूप. सत्ता ते ४ प्रकार नी. जीव ने खेद ऊपन्यो किम टलै ? धर्म कथाना क्षेपणी, विक्षेपणी इत्यादि पृष्ठ. १२ १३ १४ च्यार प्रकार ना अनर्थ दंड. १५ आठ प्रकार ना वचन परिसह. १६ सिफई बुझई इत्यादि नो स्वरूप. ६ "" 33 ८ "" ९ "" १० "" "" १२ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ विषयानुक्रमणिका ॥ i m ० ० . . . " प्रश्न. विषय. १७ धर्म ना च्यार प्रकार. १८ कर्म तीन प्रकार ना छै. १६-२०नव पदार्थ ना भावार्थ. २१ उदय बंधनो स्वरूप. २२ बोध समाधि नो लक्षण. २३ संवेग वैराग्य - लक्षण. २४ दान, शील, तप, भाव, श्या वडे होय ? १८ २५ ध्यान प्रतिबंधकनो स्वरूप २६ तिर्यग परिचय ऊई परिचय नो अर्थ. . १९ २७ धर्म केतली प्रकार नो? . २८ च्यार प्रकार नो मुनि ने संयम. , २९ उरपरि, भुजपरि सर्पनी जाति शरीर ___ आयु नो प्रमाण. ३० च्यार प्रकार नो मरण - ३१ जीव ना जे द्रव्य, गुण, पर्याय छै तेहना घातक कुण छै ? . २१ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . . . ७ (४) ॥ विषयानुक्रमणिका ॥ प्रश्न. विषय. पृष्ठ. ३२ जीव द्रव्य भाव निर्जरा श्याथी करै ? ,, ३३ इच्छा मूर्छाई जीव श्युं पुष्ट करै ? , ३४ गुण पर्याय ना घातक कोण छे ? २३ ३५ शरीर परिणाम तथा श्रद्धान नी गति. ३६ द्रव्य, गुण, पर्याय श्या थी समरै? २४ ३७ जीव ना द्रव्य, गुण, पर्याय समरै ते किम् ? , ३८ जन्म, जरा, मरण - दुःख किम टलै ? २५ ३६ योगै बांधै छै कर्म, तथा सत्ताये पिण कर्म , - छै ते शी रीते छूटै? ४० मिथ्यात्व अवृति ना बांध्या जे कर्म ते किम मिटै ? ४१ निश्चय व्यवहार नय श्यो गुण करै? ४२ निश्चय व्यवहार सम्यक शी रीते छै ? २७ ४३ नव तत्व, षट द्रव्य तथा देव,गुरु,धर्म नी शक्ति श्रद्धान. ४४ धर्म, कर्म, पुण्य, पाप श्या थी होय? Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ विषयानुक्रमणिका ॥ विषय. प्रश्न. ४५ धर्म, कर्म, भर्म सेणे ? पुण्य धर्म एक छै किंवा जुदा है ? ४६ ४७ हिवै धर्म कर्म उपजतो छद्मस्त किम् जाणै ? स्वाभाविक त्रण गुण (ज्ञान, दर्शन, चरित्र) नो लक्षण. "" धर्म सांभलवो जाणवो, धारवो ते केवी रीते? ३२ जीवनी चेतना बे प्रकार नी है. ३३ ४८ ४९ ५० ५१ : त्रिकाल भाव कर्म निवारवानुं कारण. ५२ व्यवहार ना ४ भेद नी विगत. ५३ तीन प्रकार ना कर्म नी विगत. ५४ दया ना च्यार भेद.: ५५ मोक्ष ना त्रण भेद. ५६ चेतना केवी छै ? ५७ ( ५ ) पृष्ठ. ३० "" ३१ 121 " ३४ ३५ 99 "" भवाभिनंदी, पुद्गलानंदी, आत्मानंदी जीव ना लक्षण. ३६ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६ ) ॥ विषयानुक्रमणिका ॥ प्रश्न विषय. ५८ सुगति कुगति नो स्वरूप. ५९ रोगाक्रान्त नुं लक्षण. बल वीर्य नो अर्थ. ६० ६१ ६२ सम्यक्ती थी पडे त्यारे केटली स्थिति बंधै ? ते कर्म छैने जीव ते पिण कर्म पुद्गल छै ते शी रीते ? ६३ नव तत्व है ते च्यार प्रकारै छै. एक नव तत्व नी गाथा ते च्यार प्रकारै छै. ६४ हिवै कर्त्तापणै कर्म श्रने क्रिया तिहां ताई बंध. । जैन दर्शन केवी रीते है ? ६५ द्रव्य संवर भाव संवर नो स्वरूप. ६६ दर्शन ते थी जे देखवो ते शी रीते है ? ६७ ६८ पृष्ठ. "" 9 ३७ "" " ३६ ४० ४१ O "" ४२ 8३ निर्जरा नुं स्वरूप. जीव नुं स्यादवाद मार्गे द्रव्य, गुण, पर्याय थापवुं. ४४ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्न. ६९ ७० ७१ ७२ ७३ ७४ ७५ 1 ७६ ७७ ७८ ॥ विषयानुक्रमणिका ॥ विषय. शक्ति किहां है ? द्रव्य शक्ति गुण जीव ने उपयोग केतला है ? ( ७ ) प्रत्यक्ष. जोग ३ ते साधुनें छै, रत्नत्रय रूपै प्रणमै छै ते किम् ? ४५ शुद्धोपयोग ते सम्यक्ती नें होइ, मिथ्यात्वी ने शुभ क्रिया होइ पण शुभ उपयोग न होइ. बीजी रीते सम्यक् दर्शन नो अर्थ. त्रीजी रीते सम्यक् दर्शन नो अर्थ. सम्यक् दर्शन नो चौथो भेद स्वरूप किम् भोग पडै ? पृष्ट. "" स्वरूप. दर्शन, ज्ञान, चारित्र वीर्य गुण ते कुण "" ४६ ४७ ४८ ए रत्न तय धर्म थी जन्म, जरा, मरण ना भय टलै छै ते किम् ? प्रमाण ४ ते जीव तीन कर्म - द्रव्यकर्म, भावकर्म, नोकर्म नो ५१ ४९ ५० 95 Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ. (८) ॥ विषयानुक्रमणिका ॥ प्रश्न. विषय. हेतु पमाड़े ? ___ ५२ ७९ हिंसा ना केतला भेद छ ? ८. शास्त्रमध्ये ३ योग नो स्वरूप. १ ५५ ८१ द्रव्य, गुण, पर्याय किवारे बिगडै ८२ मति श्रुत ज्ञानी तथा अज्ञानी जिन वाणी सांभले ते शी रीते प्रणमै ? ८३ जीव कर्म सुं किम् मिल्यो छै ? " ८४ पांच इंद्रियनी सोल संज्ञा. ५७ ८५ सोले संज्ञा जीव केहने होइ ? . " ८६ धर्म कर्म किम् होइ ? ८७ श्रीजिन ना ४ निक्षेपा तेहनो स्थानक शरीर मांहि किहां छै ? ८८ पांचेंद्री शेणे भरी छै ? ८९ च्यार संज्ञा नो परमार्थ कहै छै. " । च्यार संज्ञा बीजी प्रकारे. ९. सिद्ध ना जीव ने अनन्ता गुण छै ते सम Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्न. ॥ विषयानुक्रमणिका ॥ (९) विषय. पृष्ठ. सम रूपै छै कि विषम रूपै ? ६२ सिद्ध ने जीव कहिये ते कुण हेतु ? , आठ कर्म मध्ये लेश्या किहा कर्म मध्ये ६. ९३ वीस विहरमान जिन तथा जघन्य काले केतला तीर्थकर होइ ? १४ चक्रवर्ति ने १४ रत्न किहां ऊपजे ? १५ नव निधान किहां प्रगटै ? ९६ प्रभु जिहां पारणो करै तिहां केतली वृष्टि होइ ? ९७ चउद विद्या ना नाम. ९८ पंच प्रस्थाने आत्मा ते पंच प्रस्थान किहा ? ९९ त्रीजु गुण स्थान चढतां पडतां किम् । आवै ? १०० समोहिया असमोहिया मरण तेहनो ० Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०) ॥ विषयानुक्रमणिका ॥ प्रश्न. विषय. अर्थ. १०१ जीव में उपयोग गुण ते सम्यक्त, अने ठरण गुण ते चरित्र ते आचरवा ने - कुण बलवत्तर छै ? १०२ तीन प्रकार ना कर्म ते किम् छै? ७२ १०३ एक पद ना श्लोक नी संख्या केतली ? , १०४ १४ पूर्व ना जेतला पद छै ते जुदार लिखिये है. १०५ बीजा गुण स्थानै ( सास्वादन) जिन . नाम कर्म सत्ताइ किम् न होय? ७४ १०६ क्षयोपशम समकित - लक्षण. १०७ मोहनी ना लक्षण... १०८ सापेक्ष निरपेक्ष नो अर्थ. १०९ सम्यक दृष्टी शब्द नो अर्थ. ११० जिनना ४ निक्षेपा तेहनी द्रव्य भाव थी। भक्ति शी रीते करवी ? ८० c . ० : Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ विषयानुक्रमणिका ॥ (११) प्रश्न. विषय. पृष्ठ. १११ जीव ने देवं अने दरिद्रपणो किम् टलै ? ८१ ११२ छः प्रकारे आत्मा घणां कर्म बांधे. ८२ ११३ सम्यक दृष्टी एहवो जे शब्द तेह नो श्यो अर्थ ? ११४ गुण ग्राही, गुणगवेषि ते इयुं ? ११५ साताइ सुख, असाताइ दुःख माहि निमित्त उपादान कुण छै ? ११६ साता असाता श्रात्माश्रित छै, सुख दुःख ते पुद्गलाश्रित है, तथा वेदना २ बेप्रकार नी छै. ११७ जिनवचन स्यादवाद रूपै छै ते ४ प्रकारै छै. ८५ ११८ बे परिसह शीत छै ते किहा ? ११९ बन्ध १ सत्ता २ उदय ३ अने उदीरणा ४ ए च्यार मध्ये प्रात्माश्रित अने पुद्गलाश्रित केतला होय? . १२० आठ वर्गणा ना पुद्गल मध्ये थोड़ा घणा Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२) ॥ विषयानुक्रमणिका ॥ प्रश्न. विषय. किहा ? १२१ बावीस २२ परिसह ते किहा १२२ उपसर्ग परिसह नो अर्थ. १२३ प्रमाण ४ श्रात्मा थी वीर किम् मानिये ? १२४ कर्म वर्गणा जीव लीए छे ते थोडी घणी कोनें आपै छै ? १२५ विग्रह गति केतला समय नी ? १२६ अभिसंधि अनभिसंधि बे शब्द नो --- अर्थ. १२७ सम्यक् दृष्टी देशविरती ने गृहस्थ वास छतां छठं गुण स्थान आवै. १२८ सम्यक्त मोहनी ना उदय किहां थकी होय ? १२९ समकित मोहनी प्रकृति कोने कहिये ? ६२ १३० उत्सर्ग अपवाद बे मार्ग कहिये छै तेह नो श्यो अर्थ? Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय. ॥ विषयानुक्रमाणका ॥ (१३) प्रश्न. पृष्ठ. १३१ जे दीवा प्रमुख ना प्रकाश पडै छै ते दीवा मध्ये अग्नि ना जीव 3 तेहना पर्याय तरयोत रूप ते पुद्गल ना पर्याय. । १३२ चउद गुण वक्ताना अने१४गुण श्रोता ना छै तेना नाम.. । श्रोता ना १४ बोल. । हिवै पुराण ना नाम. १३३ पुद्गल परमाणु मां वर्ण, गंध, रस, फरस . गुण छ ते मां शब्द गुण किहां थी श्राव्यो ? १३४ परभव नुं आयु किम् बंधै ? १३५ षट् द्रव्य नुं स्वरूप. १३५ षट् द्रव्य ना गुण पर्याय किम् जाणिये १०१ । जीव द्रव्य ना भेद. । जीव ना गुण ते श्युं ? । जीव ना पर्याय किम् ? Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व व ४ : ० ०५ ५ (१४) ॥ विषयानुक्रमाणिका ॥ प्रश्न. विषय. । अशुद्ध व्यंजन पर्याय ते श्यु ? । जीव ना अर्थ पर्याय. । पुद्गल द्रव्य ना भेद. । पुद्गल द्रव्य ना गुण भेद. । पुद्गल पर्याय किं ? । पुद्गल ना अर्थपर्याय ना बे भेद. । धर्म द्रव्य किं ? । अधर्म द्रव्य किं ? । काल द्रव्य किं ? । आकाश द्रव्य किं ? १३७ परिणामी कोण द्रव्य ? १३८ कौण द्रव्य जीव, कौण द्रव्य अजीव १३९ कौण द्रव्य मूर्तिक, कौण द्रव्य अमूर्तिक. १४. कौण द्रव्य सप्रदेशी, कौण द्रव्य अप्रदेशी ? १०६ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ विषयानुक्रमणिका ॥ (१५) प्रश्न. विषय. १४१ कोण द्रव्य एक, कौण द्रव्य अनेक? , १४२ कौण द्रव्य क्षेत्री, कौण द्रव्य अक्षेत्री ? ,, १४३ कौण द्रव्य क्रियावन्त, कौण द्रव्य अक्रियावन्त ? १४४ कौण द्रव्य नित्य, कोण द्रव्य अनित्य ? १०८ १४५ कौण द्रव्य कारण, कौण द्रव्य अकारण ? १०६ १४६ कौण द्रव्य कर्ता, कौण द्रव्य अकर्त्ता ? " १४७ कोण द्रव्य सर्वगद, कौण द्रव्य असर्वगद? १४८ द्रव्य नुं स्वधर्मी पों. १४६ वेदनी निर्जरा नी चोभंगी. ११० १५० मिथ्यात्व नी चोभंगी. १५१ सींह पणे लेइ ने सींह पणै पालै तेहनी चोभंगी. १५२ अनुयोग ना ४ नाम. १११ १५३ षट दुर्लभ बोधि स्थानानि..... Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६) ॥ विषयानुक्रमणिका ॥ प्रश्न. विषय. १५४ आठ आत्मा नो स्वरूप. १५५ त्रस जीवा अष्ट विधा. १५६ जीव केतला प्रकारै प्रणमे ? । अंतर्मुहूर्त नो प्रमाण १५७ जाति समरण ना केतला भव देखै ? १५८ धर्म पुण्य नो भेद. । पांच षटीक शाला ना नाम १५९ अात्मा नी किंचित् अात्मता. । धर्मास्ति काय ना गुण. । अधर्मास्ति काय ना गुण. . । आकास्ति काय ना गुण. । पुद्गलास्ति काय ना गुण. । पर्यायास्तिक ना भेद छः । समकित ना पर्याय. । ज्ञान पर्याय । चरण पर्याय. Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ विषयानुक्रमणिका ॥ विषय. | समकित नी दश रुचि. | समकितना पांच भूषण. १६० त्रण आत्मा नो स्वरूप. प्रश्न. (१७) पृष्ठ. १२१ १२२ """ १६१ सद्दहणा, फरसाणा, परूपणा कोर्ने होइ ? १२५ १६२ प्रभुनो दानाधिकार. १२६ १६३ साधु सिज्झाय करै ते किहा कर्म खपावै ? १२८ १६४ आश्रवा ते परिश्रवा. १२९ १३०० १६५ बादर अपकाय किहां सुधी होइ ? १६६ सातमी छठी नरकै कुंभी मां उपजवुं नथी तिहां आलिया है. १६७ साधु ना १४ उपगरण ते किहा ? १६८ युगप्रधान आचार्य जिहां विचरै तेहना लक्षण. १६९ च्यार प्रकारनी भावना. १७० चोबीस जिन ना मातापिता नी गति. १७१ जिनवाणी सांभलता च्यार घातिया कर्म 35 19 ૭૨૧ १३२ १३३ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय. (१८) ॥विषयानुक्रमणिका ॥ प्रश्न. . पृष्ठ. ... ना अंशे क्षयोपशम धर्म पामै छै ते किम् ? १३३ १७२ जिन वाणी ध्यान मांहि आवै ते किम् ? ,, १७३ च्यार प्रकार नी बुद्धि ना नाम तथा तेहना शब्दार्थ. १३४ १७४ जाती.समरण तथा विभंग ज्ञान केह - . ना भेद छै ? १३५ १७५ चन्द्रमा नी चाल केहवी ? १७६ मिथ्यात्व अविरत हेतु. . . . , १७७ तीन प्रकारे कर्म नी वक्तव्यता.. १३६ १७८ जीव ने मार्गप्राप्त क्यारे कहिये ? , १७६ साधु ने जे त्रण्य जोग छै ते त्रण्य रत्न . . त्रय गुणे प्रणम्या छै ते किम् ? ... १३८ १८. संसार मांहे जीव केतली प्रकारना छै ? १३९ १८१ भव्य जीव नुं लक्षण. १८२ अभव्य जीव नु लक्षण. . . . १४० १८३ त्रीजो भव्याभव्य जीव किहो ? , Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ विषयानुक्रमणिका ॥ विषय. प्रश्न. १८४ अध्यात्मसार ग्रंथे तीन प्रकारना जीव कह्या छै. ( १९ ) १८५ तीन प्रकार नो वैराग्य. -- १८६ संसारी प्राणी केतली प्रकार ना ? १८७ संसारी जीव ने आठ दृष्टी कही तेह ना F . पृष्ठ. १.४१ 95 १४२. १९२ आंबिल शब्द नो अर्थ. १९३ नियाणकमां तेहनें वृत उदय न श्रावै ते. १९४ सामायक ४ प्रकार ना. नाम. १८८ सर्व वस्तु पदार्थ मात्र मांहि प्यार कारण छै ते किहा ? .१४.३ १८६. समवाय असमवाय और निमित्त कारण. १४४ १९० सर्व वस्तु द्रव्यार्थ पर्यायार्थ ए बे नय लीधे छै ते मांहि थी सात नय ते किहा ? १९१ कषाय उपने पूर्व कोडनो पाल्यो चारित्र क्षय करै ते ऊपर गाथा.. "" "" y "" १४५ 33 १४६ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२.) ॥ विषयानुक्रमणिका ॥ प्रश्न. विषय. १९५ ज्ञान क्रियाभ्यां मोक्षः तत् कथं ? १४६ १९६ क्रिया बे प्रकारनी. १४७ १९७ नव अनंता कह्या तेहना नाम स्वामी .. इत्यादि. १९८ सिद्धान्त श्रागम मांहि प्रथम क्षयोपशम सम्यक्त पामै, उपशम नो तन्त नहीं ते बताव्यो छै. १४९ १९६ पृथ्वी, पाणी, अग्नि, वायु वनस्पति, . प्रत्येक एतले स्थानक एकेकी पर्याप्ता · निश्रायें असंख्याता अपर्याप्ता होइ. २०. व्यवहार राशियो जीव फरी सूक्ष्म निगोद ... माहे जाइ तो उत्कृष्टो. केतला काल सुधी रहै ? २०१ दर्शन नी क्षपक श्रेणी तथा चारित्र नी । . . क्षपक श्रेणी क्या थी मांडै १ १५१ २०२ कर्म नो बंध जघन्य उत्कृष्ट स्थिति केतली Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ विषयानुक्रमणिका ॥ (२१) प्रश्न. विषय. .. भोगवै? २०३ भव्य अभव्य जीवनी मूल भूमिका केहवी ? २.४ मनोयोग तथा वचनयोग नो काल. २०५ षट्गुणी हानि वृद्धि द्रव्य ने छै तेहनो स्वरूप, २०६ स्थितिबंध अने रसबंध तथा प्रदेश बंध . . अने प्रकृतिबंध किवारे होय ? १५२ २०७ केवली भगवंत जे साता वेदनी योग प्रत्यइं -- बांधै छै ते किम् १ : २०७ अनंतानुबंधीया राग द्वेष तथा मिथ्यात्व मोह नो क्षय तथा क्षयोपशम कया गुण स्थानै थाय ? .१५३ २०८ अवगुण उदै मांहि थी तथा सत्ता मांहि थी . ' जाइ ते किहा गुणै खार, बैर ने जहर - . जाय ? . Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ..पृष्ठ. (२२) ॥ विषयानुक्रमणिका ॥ प्रश्न. विषय. २०९ देवता प्रभुनें भाव मंडल किम् करे ? ? १५४ २१०. आणंद श्रावक ने पांच सै हलवा भूमि ... मोकली हती तेहनो मान लिखिये छै. ,, ३२११ कर्म चतुर्थक तप नी विधि. . १५५ २१२ धर्म चक्रवाल तप नी विधी. .१५६ २१३ शान्तिनाथ चरित्राधिकारे तीर्थकर नी - मात १४ सुप्न मुख मांहि पैसता देखै. , २.१४ श्रावक ने प्रथम सामायक पश्चात् इर्यापथी। ": . दिग्वृत होय पण साधु ने नहीं.. १५६ २१५ उद्वेगता १ अथिरता २ असाता ३ आकु . लता ४ च्यार प्रकार नो दुःख किहा क्रर्म : थी ऊपजै ? .. १५७ २१६ दातार दान आपै तेहना च्यार भेद , २१७ छः कायना नाम गोत्र जाणवा रूप. १५९ २१८ दस प्रकारे सत्य कयुं तेहनी गाथा. १५९ . २१९ पंचेंद्री ना २५२ भेदे जीवने कर्म बंध Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ. ॥ विषयानुक्रमणिका ॥ (२३) प्रश्न. विषय. . होइ. १५६ २२० शब्दादि इन्द्री नो विषय. २२१ पंचेंद्री ना द्रव्य भाव रूपै कहिये छै. २२२ भाद्री द्रव्येंद्री नो लक्षण. २२३ सिद्ध थया नो विचार. २२४ आत्मांगुल १ उछेदांगुल २ प्रमाणांगुल नो मांन. २२५ मति ज्ञान ना भेद । २२६ योतिषी देवता मांहि कयो जीव आवी . ने न उपजै ? १६४ २२७ पांच लब्धि नो भावार्थ. २२८ उद्वार पाल्योपम, श्रद्वापल्योपम अने क्षेत्र - . पल्योपम एतीन नो स्वरूप. . १६६ २२६ आत्म सम वस्तान उपयोग रूप ध्यान कहिये ते केहवी परम्पराइ होइ ? २ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२४) ॥ विषयानुक्रमणिका ॥ प्रश्न. विषय. २३० आत्म भावना नी गाथा. २.३१ उत्सर्ग अपवाद मार्ग वर्त्तता मुनि ने आत्मार्थी कहिये. २३२ पांच निधर्मा कह्या ते धर्म न पामै. २३३ समुच्छिम मनुष्य मरी केतले दंडके जाइ ? ,, २३४ देवता नारकी ना जीव केटलो काल रयां परभव नो आयु बांधै ? २३५ आकुटे, प्रमादे, दर्प, कल्पे कर्म बंधाइ ..: - तेह नो शब्दार्थ. २३६ पांच क्रिया मांहि जीव अल्या बहुत्व किम होय ? २३७ लेश्या नो देवता आसरी अल्पा बहुल.. २३८ सोपक्रमी आउखावालो जीव आयु परो भोगवी मृत्यु पाम्यो तेह ने अकाले चेव... जीवियाओ विवरोविया थयो ते किम् ? १७२ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ विषयानुक्रमणिका ॥ विषय. प्रश्न. २३९ प्रस्ताविक गाथा. २४० केतला नें दीक्षा देवी न कल्पै ? २४१ ठार भाव दिशा तथा अठार द्रव्य दिशा १८० C ( २५ ) - पृष्ठ. १७९. ना स्वरूप. २४२ गुलीए रंग्या वस्त्र ना संसर्ग श्री घणा त्रस जीव उपजै. २४३ लब्धि पर्याप्ता तथा करण पर्याप्ता नो स्वरूप. - २४४ पर्याप्ति ना नाम. "9 १८१ १८२ २४५ सम्यग्दृष्टी ना स्वरूप नी त्रण गाथा. १८३ २४ ६ छद्मस्थ नो अर्थ. -२४७ मुनि ने छठा गुण ठारणाथी सातमा ने २४८ आहारक आहारक मिश्र जीव किंम करै? २४९ सिद्ध ने अफुसमा गति कही ते किम् होय ? ,, पहले समय केतली विसुधता होइ ? १८४ "" १८५ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६) ॥ विषयानुक्रमणिका ॥ प्रश्न. विषय. २५. संसारी जीव किहा. स्थानकै वर्त्ततो. अणाहारी होय, किहा स्थान कै आहारी होय ? २५.१ केटली श्रायुवालो तिर्यंच पंचेंद्री अस नोभी मरीने युगलियो पंचेंद्री तिर्यंच थाइ ? २५२ आत्मा ना तीन प्रकार. २५३ विश्रसा, प्रयोगसा अने मिश्रसा ए तीन प्रकारना पुद्गल परिणमन. - २५४ तीर्थकर नो जन्म थाइ तिवारे साते करने । . केतलुं अजुआलं थाइ ? १८७ २५५ प्रस्ताविक गाथा. २५६ साधु ने पहिला व्रत ना नव कोटि पचक् खाण छै पण तेहना भांगा २४३ थाइ ते किम्. .. १८८ २५७ छः प्रकार ना पुद्गल. १८९ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्न. २५८ २५९ २६० २६१ ॥ विषयानुक्रमणिका ॥ वियष. ( २७ ) ज्ञानावर्णादिक कर्म नो बन्ध, उदय, उदीरणा, सत्ता केतला गुण ठारणा ताई होय ? २६२ अचित् महा स्कंध जे पुद्गल नो चौदे राज लोक प्रमाण पूरे तेह नो स्वरूप. - २६३ केवली पण केवल समुदघात करै तिवारे जे आठ रुचक प्रदेश छै ते किहां तांई पूरै ? २६४ निगोद नो विचार. २६५] २६६ २६७ सिद्धशिला नो आकार.. २६८ अष्ट महा सिद्धि ना नाम. निगोद ना जीव नो भवाधिकार. २६९ क्षण मात्र सुखं बहु काल दुःखं ए पद नो भावार्थ. पृष्ठ. १९० १६३ - १९४ "" १९५ २०१ "9 २०२ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ. (२८) ॥ विषयानुक्रमाणिको ।। प्रश्न. विषयः २७. विषय, कषाय मिटे किहा गुण प्राप्त होय ? २०३ २७१ युग प्रधान ना १४ गुण नी गाथा. २७२ त्रण थूई नो प्रश्न. . २०४ २७३ मिथ्या दृष्टी जीव ने शुभाचार होइ पण , . शुभोपयोग न होइ. . २७४ आठ कर्म नी वर्गणा ने कार्माण शरीर कहै छै ते इम नहीं. २७५ प्रस्ताविक गाथा... २७६ चमरेंद्र केटली देविप्रो ना परिवार थी भोग भोगवितो विचरै? २०६ २७७ षट् दर्शन ना नाम. २७८ तिरसठ शिलाका पुरुष तेहना जीव ५९ .. तेहनी विगत. २७९ श्रीऋषभ देव स्वामी केतला वरस नो । काल गृहस्थाश्रमें, वस्या तथा सर्व आयु .: केतला वर्ष जीव्या ? २०५ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ विषयानुक्रमणिका ॥ (२९) प्रश्न. विषय. . पृष्ठ. २८० बंध नो स्वरूप. । २०८ २८१ भार मान. .. . .. २.०६ २८२ बाह्य अभ्यंतर २४ परिग्रह. २८३ रोग केतला प्रकारें ? २८४ एक सौधर्मेंद्रना आउषा मांहि केतली ... इंद्राणी चवै ? .. २.११ २८५ गाथा. २८६ नव नियाणा ते किहा?. २८७ पुरुष वेद, स्त्री वेद, नपुंसक वेद, उत्कृष्टे . .' केटला काल रहै ? - २१३ २८८ पांच ज्ञान, त्रण्य अज्ञान काल थकी जघन्य तथा उत्कृष्टै केतलो काल रहै ? , । मति अज्ञान अने श्रुत ज्ञान ना भांगा. २१४ । विभंग ज्ञान नो काल. २८६ आठ ज्ञान नो प्रांतरो. ' २१५ २६० सत्रा प्रकार ना मरण. Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३° ) ॥विषयानुक्रमणिका ॥ प्रश्र. विषय. २९१ भूमिका केतली अचित् होइ ? २१७ २६२ श्रांवल नी छाल मध्ये असंख्याता जीव . : किहां कह्या छै? . . . ... " २९३ नवकरवाली ना १०८ गुण नी विगत. , २६४ ) साधु ने सोयेवसा ना पंच महा व्रत २९५ । अने श्रावक ने सवा छः वसा नो अणु .. ) व्रत ते किम् ? २१९ २१६ संसारे किं सारं ? २३० २९७ प्रस्ताविक गाथा. २९८ भव्य अभव्य अने दुर्भव्य नो लक्षण. २९९ च्यार करण नो भावार्थ. २३१ ३.० समकित पाम्या थी श्यं होय ? ३०१ परमाणु प्रदेश मध्ये श्यो विशेष छै ? २३२ ३०२ पर्याप्त अने प्राण मध्ये श्यो विशेष ? ,, ३०३ श्रीसेर्जेजे श्री ऋषभदेव पूर्व नवाणु वार आव्या ते नी संख्या केटली होय? २३३ .३०४ पांच शरीर नो शब्दार्थ. २३३ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ विषयानुक्रमणिका ॥ (३१) प्रश्न. विषय पृष्ठ. ___रत्नसारग्रंथ मध्ये २५ मां प्रश्नमा ध्यान प्रतिबंधक नाम का प्रश्न आया है उस का अर्थ १ पद १ परम गुरु जैन कहो किम होवे. २ कंत बिना कहो कोन गति नारी. ३ परम प्रभु सब जन शबदे ध्यावे. ४ चेतन ज्ञान की दृष्टि निहालो. ५ मार्ग चलत चलत गात. com on a रत्नसार में जो गाथाएं आई उन का अर्थ.७ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रार्थना. 0:0: सब लोगों से निवेदन है कि इस उत्तम पुस्तक में कोई दृष्टि दोष से भूल रही हुई मालूम होतो सुधारलेवें और क्षमा करें तथा आगेकी आत्ति में शुद्ध करने के वास्ते खुलासा लिख भेजें ऐसी हमारी प्रार्थना है. लि०नि० पुस्तक मिलने का ठिकाना : बाबू चाँदमल बालचन्द चौमुखी पुल रतलाम (मालवा.) Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ भीजिनायनमः ॥ ॥ रत्नसार ॥ >॥ श्लोक ॥ प्रणम्य श्री महावीरं शंकरं परमेश्वरं ॥ विचार रत्नसारस्य क्रियते बालबोधकं॥१॥ __ अथ श्रीवीतरागनी वाणी, भव बेल कृपाणी, संसार समुद्र तारणी, महा मोहान्धकार दिनकरानुकारणी, क्रोध दावानलोपशमनी, मुक्ति मार्ग प्रकाशनी, कलिमल प्रलयनी, मिथ्यात्व छेदनी, त्रिभुवन पालनी, पाप विशोधनी, मन्मथ प्रतिथंभनी, अमृत रस आस्वादनी, हृदय पाल्हादनी, विक्षेप विस्तारणी, आगमोदगारणी, चतुर्विध सघं मनोहारणी, भव्य जन कर्णामृत श्रावणी, Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २ ) ॥ रत्नसार ॥ योजन प्रमाण विस्तारणी, एहवी वीतरागनी वाणी जाणत्री. जीव १ अजीव २ पुण्य ३ पाप ४ आश्रव ५ संवर ६ निर्जरा ७ बंध ८ मोक्ष ९ धर्म १० धर्म १ १ हेय १२ ज्ञेय १३ उपादेय १४ निश्चय १५ व्यवहार १६ उत्सर्ग १७ अपवाद १८ श्राश्रवा १९ परिश्रवा २० अतिचार २१ अनाचार २२ अतिक्रम २३ व्यतिक्रम २४ इत्यादिक सांभल्यां विना शास्त्र ना भेद न जाणै. सुठाम, सुगाम, सुजात, सुभ्रात, सुतात, सुमात, सुबात, सुकुल, सुबल सुस्त्री, सुपुत्र सुपात्र, सुक्षेत्र, सुदान, सुमान, सुरूप, सुविधा, सुदेव, सुगुरु, सुधर्म, सुवेस, सुदेश, २२ एबावीस योगवाई पुण्य विना न पामिये. सुमति, शीलवंत, संतोषी, सत संजमी, स्वजन, साचा बोला, सत्पुरुष, सुमेला, सुलक्षण, सुलज्जा, सुकुलीन, गंभीर, गुणवंत, गुणज्ञ, एहवा पुरुष नो संग की तो धर्म पामै. Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ रत्नसार ॥ .. चुगल, चौर, छलग्राही, अधर्मी, अधर्म, अविनीत, अधिक बोला, अणाचारी, अन्यायी, अधीर, अमोही, निःश्नेही, कुलक्षणा, कुबोला, कुपात्र, कूड़ा बोला, कुशीलीया, कुसामनि, कुलखंपणा, भंडा, भुच्च एहवा पुरुष नो संग न कीजे. ॥ अथ धारवा रूप छुट्टा बोल लिख्यते ॥ १ जीव धर्म किम पामै ? गुरु कहै छै—जीव ३ तीन प्रकारै धर्म पामै. गुरु ना उपदेश थी १ तथा अभ्यास थी २ तथा वैराग्य थी ३ एहवो उपदेशसार पदमानन्दी २५ ( पच्चीसी) मध्ये कह्यो छै. २ तथा अभ्यास ४ प्रकार ना कह्या छै ते बीजो प्रश्न-सत्र अभ्यास १ अर्थाभ्यास २ वस्तु नो अभ्यास ३अनुभवाभ्यास ४. ए चार अभ्यास पक्वताये वस्तु पामै. जीव ने पाप उपजै हिंसाइ, पुण्य ऊपजै ते दयाइ. तथा छःकाय जीव ने हणवानो परिणाम थाइ तिहां पाप नीपजै. ते छःकाय ना जीव. ने त्रिकरण Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ रत्नसार ॥ योगे हणतां वैर अने पाप बे नीपजै.ते पाप ने उदयै असाता, आकुलता, उद्वगता, अथिरता उपजै १. वैर ने योगै ते जीव आवी यथा योगै पीड़े, ए भाव बीजो २... .. ३ धर्म, पुण्य, पाप कर्म श्या थी ऊपजै ते त्रीजो' प्रश्नः-तेह ना उत्तर ए ३ तीन मध्ये पहलो बोल जे धर्म १ ते एक मोहनी कर्म ना क्षयोपशम थी. ते किम ?दर्शन मोहनी कर्म ना क्षयोपशम थी धर्म ऊफ्जै. तथा चारित्र मोहनी ना उदय थी पुण्य पाप ऊपजै. - अविरत नो उदय मंद थाइ तथा क्षयोपशम थाइ तिवारे विरति नो उदय थाइ. तिवारे षट काय ना जीव ऊपर दया प्रणाम ऊपजे तेथी पुण्य ऊपजे २. तथा अविरति ना उदयै तीब्र पाप नीपजै ३. ते मध्ये एटलो विशेष जे पुण्य पाप ते चारित्र मोहनी उदय मंद तीब्रै होइ. अने धर्म दर्शन मोहनी Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ रत्मसार ॥ क्षयोपशम क्षायक थी होइ. तथा पुण्य पाप ना फल भोगवावै ते वेदनी कर्म. तेहनें उदये वेदावै–फल देखाडै तथा पुण्य पाप नो बंध पडै ते मोहनी कर्म नी मुझताइ. पुण्य पाप प्रणमै ते अंतराय ने क्षयोपशमै, इत्यादि विस्तार स्वबुद्धि करि जाणवा. इति भावए तथा राजा ते न्यायी ने सोम दृष्टि, अने आचार्य ते निस्पृही होइ तिहां जैन धर्म प्रवत्ते. ४ देशना नु चोथो प्रश्न-देशना ते कहिये जिहां मिथ्यात्व नी पुष्टी न थाय अने मार्ग विरुद्ध न प्रकाशैः आत्म स्वरूप उपादेय रूपे, तथा शुभ क्रिया नो अत्यादर पण प्ररूपै. अने शुभ क्रिया ना फल नी वांछा न करावै, तिरस्कारै राखै. पाप की आसेवना कालै तिरस्कार राखै. इत्यादि आगमोक्त रीते प्ररूपे ते देसना कहिय. तथा पाप की आसेवना कालैज माठी जाणवी. जेहनो फल दुर्गति ने मेलवै. धर्म पामवो वेगलो करै ते मांहे तिरस्कारै राखवी. Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६ ) ॥ रत्नसार ॥ ५ अने पुन्य क्रिया ते सेवना कालै श्रत्यादरें सेववी पण तेहना फल नी वांछा न करवी. तेह नो रहस्य श्यो ? जे पुण्य क्रिया शुभ व्यापारै शुभ योगे न आदरै तो मार्ग विरुद्ध थाइ परम्पराये पण वीतराग मार्गे न जोड़ाई अने जो पुण्य ना फल नी वांछा करै तो निदान रूप मिथ्यात्व प्रणमे. जो सहज रूप शुभ क्रिया करै तो कर्म नो काटनिवारी शीघ्र मुक्तिपद पामै ए रहस्यं. ६ छठा प्रश्न मध्ये हेय, ज्ञेय, उपादेय शब्द नो भावार्थ लिखिये छै - समभावै हेय १, यप्तार्थे ( यथार्थ ) ज्ञेय, २ स्वरूपे उपादेय ३ ए रीते जाणवूं. वली गीतार्थ पासे एह नो विशेष अर्थ धारवो । इति ७ हिवै श्री उवाई सूत्र मध्ये तप ना भेद विशेष कह्या छै, तिहां काउसगा द्रव्य १ भाव २ बे प्रकार को छै. तिहां द्रव्य काउसग ४ च्यार प्रकार ना कह्या छै- प्र - प्रथम शरीर काउसग १ उपधि काउसग २ भात ३ पाणी नो ४ . त्यागते पण काउसग तथा, भाव काउसग ते ३ तिन प्रकार नो- कषाय काउसग १ संसार काउसग २ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ रत्नसार ॥ कर्म काउसग ३. ते मध्ये कषाय काउसगते ४ * प्रकार नो, संसार काउसग ते चार । गति निवारण रूप२, कर्म काउसग ते ८ आठ प्रकार नो जाणवो, आठ कर्म क्षय थी. ___ हिवे जे शुभ क्रिया विधि नी छै ते स्वभाव रूपै प्रणमै तिहां निर्जरा नीपजै. तथा शुभ क्रिया जे प्रविधि नी छै ते बंध रूप प्रणमै, तथा लौकिक यश सौभाग्य रूप प्रणमै, तथा पुण्य रूप प्रणमें ते बन्ध रूप थाइ, जेह थी संसार भ्रमण विशेष नीपजै, एह भाव. ८ अथ जीवने खेद ऊपन्यो किम टलै पाठमो प्रश्नजीव ने खेद निवारवा ने अर्थे पूर्व बंध कर्म संभारिये. जेहवा में पूर्व कर्म बांध्या छै तेहवा उदय श्रावै छै. ते मध्ये केतलायक कर्म प्रदेश वेदे ने वेदीने खैरवै छै. ___ * क्रोध १ मान २ माया ३ लोभ ४ थी निवर्तवो ते कषाय काउसग । देव १ मनुष्य २ तिर्यच ३ नर्क ४ गती नी इच्छा रहित ते संसार काउसग, * ज्ञानावरणी १ दरस्नावरणी २ वेदनी ३ मोहनी ४ आयू ५ नाम ६ गौत्र ७ अन्तराय ८ ये आठ कर्म ना क्षय ते कर्म काउसग. Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८ ) ॥ रत्नसार ॥ केतलाइक निवड़ कर्म बांध्या छै ते विपाक वेदीनें खेरवै. पण सुज्ञानी जीव ते कर्म भोगवतां उदय निष्फल करें, आलोइं निंदै, पश्चाताप करै, तिवारे अल्प बंध थाय. बहु निर्जरा करे. ते माटै बंध निवारवानें उदै निष्फल करै, उपयोगै विचारै, तिवारे बंध अल्प करै. ए भाव, ९ हिवे धर्म कथा नुं ९ मूं प्रश्नः - तथा, उवाई सूत्र मध्ये ४ च्यार प्रकार नी धर्म कथा कही तेह ना नामक्षेपणी १ विक्षेपणी २ निर्वेदनी ३ संवेदनी ४. तत्वमार्ग नें जोडावे ते आक्षेपणी १ विक्षेपणी ते मिथ्यात्व मार्ग धी निवर्त्तावै २ निर्वेदनी ते मोक्षाभिलाष उपजावै ३ . संवेदनी ते वैराग्यभाव उपजावै ४. ए च्यार प्रकार धर्म कथा कही ए भाव. १० हित्रै भाव नव निधान नूं १० मूं प्रश्न - यथा, तस घर नव निधि थाय तेह नो श्यो अर्थ ? ते श्यू जाणै ? नव क्षायक लब्धि पाम्या जे केवली, तेहनें अखूट नव निधि नीपनी तथा विषय ५ इन्द्रियना, अने कषाय ४ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ रत्नसार ॥ (8) तेहनें निवर्त्या तेहनें नव निधि निपनी ए मुनि श्रासरी. ११. हिवै पांच इंद्री ना विकार मिटै कीहा गुण निर्मलता थाय ते इग्यारमूं प्रश्न ते कहै छै:-चक्षु इंद्रिय नो विकार मिटै, हृदय ज्ञान चक्षु निर्मलता नीपजे १. श्रोतेंद्रिय नो विकार मिटै, जिन वचन , श्रवण प्रीति प्रतीत रूपे थायर.जिव्हा इंद्रिय नो विकार गये आत्मिक अनुभव रस स्वाद पामै ३. नासिका नो विकार गये आत्म गुण नी सुवासना पामै ४. स्पर्श इंद्रिय नो विकार गये आत्म प्रदेश ना स्वभाव रूप स्पर्शन थाय ५. क्रोध गए समता गुण प्रगटै ६. मान गये मार्दव गुण प्रगटै ७. माया गये आर्जव गुण प्रगटै ८. लोभ गये संतोष गुण प्रगटै है. ए रीते पण जीव ने ए गुण प्रगटै. ए भाव. . १२. हिवै जीव में मिथ्यात्व ४ प्रकार नो ते १२बारमो प्रश्न कहै छैः-प्रदेश मिथ्यात्व १ परणाम मिथ्यात्व २परूपणा मिथ्यात्व ३ प्रवर्तन मिथ्यात्व ४. व्यवहार समकित पामै तिवारे परूपणाप्रवर्तन र मिथ्या Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ रत्नसार ॥ त्व टलै,(अने) ग्रंथीभेद थाय उपशम क्षयोपसमसमकित ते पांमै तिवारे मिथ्यात्व परणाम मिथ्यात्व थी टलै. (अने) क्षायक समकित पामै तिवारे प्रदेश मिथ्यात्व टले. इति रहस्यं. उववाई सूत्र मध्ये पांच राज चिन्ह कह्या छै, पांच अभिगम स्त्री ने पण कह्या छै, ते तिहां थी जोइयो. १३. हिवै देशना च्यार ४ प्रकार नी छै ते तेर मो प्रश्न कहै छैः-धर्म देसना १ गति देसना २ बंध देसना ३ मोक्ष देसना ४ तेहना विस्तार गुरु गीतार्थ थकी जाणवा. १४.च्यार ४ प्रकार ना अनर्थ दंड कह्या ते चउद मो प्रश्न कहै छैः-आरत रुद्र ध्यानै अनर्थ दंड १ प्रमादाचरणै अनर्थ दंड २ हिंसक शास्त्र आपवै अनर्थ दंड ३ पापोपदेशे अनर्थ दंड ४ ए च्यार ४ प्रकारे अनर्थ दंडे सप्तमांगे कह्या छै. १५. पाठ ८ प्रकार ना वचन परिसह सहवा Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ रत्नसार ॥ (११) ते पंदरमो प्रश्न ते कहै छै :-हीलणा-जन्मनी करणी उघाडै जे पहिला वइतरु करता रांधणीया हता, हवे. साधु थइ बैठा छै इम कही हीलणा वचन परिसह साधू सहै १, बीजो खींसणा ते अनेरा लोक नी साखे कोई पूर्व कर्म अवगुण होय ते कहै. ते पण साधू सहै २. बीजो नंदना-ते मनै करी अवगुणना करै, आदर न दिये, मुख मोहटो राखे ३. चौथो गरहणा-ते साधु ना मुख ऊपरें आवी ने छता अछता अवगुण कहै ४. पांचमो ताडणा-ते साधु पुरुष ने चपेटा प्रमुख आपै ५. छठो तर्जना-ते रे पापिष्ट ! तूं जाणीस हवे, अरे विटल ! इत्यादि कठिन वचन कहै ६. सातमो पराभव ते वस्त्र पात्रादिक अपहरै, फाडै, तोडै, वस्ती थी काढे इत्यादिक करै, ते पण मुनि सहै ७. आठमो एषणा परिसह नो-ते भय नूं उपजाववू, जे ए रीते तुझ ने दुःख आपीस ८. ए आठ बोल हीलणादिक वचन ना परिसह जाणवा योग्य छै. Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२) ॥ रत्नसार ॥ १६.हिवै सिझई बुझई नो सोलमो प्रश्नः-ते सिझई १ बुझई २ मुच्चई ३ परिनिव्वाई ४ ए च्यार पद नो अर्थ यथा श्रुत अनुभव छै ते रीतै लिखिये छै. कर्म नो जे अोछो थावो, जे अंशे घटाड़वो ते सिझई १. तिवार पछी वस्तु नूं ज्ञान थy ते बुझई २. ते कर्म सत्ता थी क्षय थy फिरि बंध क्यारे नावे फिरी न बंधाय ते मुचई ३. आत्मा के स्वभाव ठरण पाम्या ते परिनिव्वई. ते शीतलीभूत थया जन्म जरा मरण ना भय निवास्या ते (सन दुखाणमंतं करेई) ए भाव थी चौथा गुण स्थान थी जे अंशे थाइ ते तरतम भेदे कहवा. अने चवंद मानें अंते ते सर्वगे कहवा. एह नो अर्थ प्रायः इम ऊपजे छै. तो श्री जिनेंद्रे प्रकाश्यु ते सत्य तथा सर्व कार्य सध्या माटै सिद्धे १. आत्म बोध संपूर्ण ज्ञान स्वरूप थया माटै बुद्धे २. सर्व कर्म थी मुकाणा माटे मुत्तें३. शीतलीभूत थया माटे पडिनिबुडे ४.संसार नो अंत करया माटे, अंडगडे ए पाठ नो अर्थ ए रीतें अनुयोग हारे, ए भाव छै. Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ रत्नसार ॥ (१३) १७. हिव धर्म ना ४ प्यार प्रकार कह्या छै ते किहा ? ते यथा श्रुत सत्रमो प्रश्न लिखिये छैः - प्रथम तो आचार धर्म १ दया धर्म २ क्रिया धर्म ३ वस्तु धर्म ४. ते मध्ये प्रथम श्राचार धर्म श्रादरतो जीव अनाचारणपणो टलै, वली लौकिक यश प्रतिष्ठा पामै. अन्य तीर्थी पण जैन धर्म नी प्रशंसा करै, जैन नो श्राचारअनुमोदै १. बीजो दया धर्म - ते जेह थी हिंसा नो कर्म टलै, मुक्ति पामै, शुभ पुण्य ऊपर जे परंपराये मुक्त हेतु थाय २. तीजो क्रिया धर्मशुभ क्रिया पोषा प्रतिक्रमणा जिनपूजादिक विधे क्रिया करतो कर्म नो काट उतारै, भव तुच्छ करै, परंपरायै मुक्ति मार्गे जोडावे ३. हिवै चौथो वस्तु धर्म- ते जेह थी वस्तु धर्म पामै, स्वरूपाचरण पूरण समकित पामै, पुण्य पाप कर्म नी निर्जरा नीपजे ४ ए च्यार प्रकार धर्म रथ ना ए च्यार पइड़ा तिरौ करी रथ चाले. ए वस्तु गतै ए ४ धर्म ना भेद कह्या छै तेहना दान शील, तप, भावना, ए प्रकार ते कारण प्ररूपै वै • Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४) ॥ रत्नसार ॥ एणी रीते ४ प्रकार धर्म ना कह्या ते मध्ये एके दुहवा ईनही ४ प्रकारै धर्म जे प्राणी यथा अर्थ स्यादवाद रीते पामै. ते (सूलंभवोधिओथई वहिलो सिद्धि वरै)ए च्यार रीते धर्म ना ४ प्रकार जाणवा. तथा जे प्राणी क्रिया विधि आदरै, उपयोग शुद्ध राखे, ते प्राणी वेहलो भव घटावै, वेहलोही मुक्ति जाय. ए भाव. १८. हिवै कर्म ३ प्रकार नां छै ते अठार मो प्रश्न कहिये छैः-हिवै कर्म जाते ३ प्रकार ना. तिहां द्रव्य कर्म ते आठ कर्म नी वर्गणा १. नोकर्म ते पांच शरीर २ भाव कर्म ते राग द्वेष परणीति ३. तिहां द्रव्य कर्म, नोकर्म ते पांच शरीर पुद्गलकि पुद्गला श्रित छै. भाव कर्म ते आत्माश्रित छै. पहिला बे कर्म ते कर्म विनाशिक छै. भाव कर्म ते अनादि अविनाशी छै अात्म प्रवृत्ति या माटै, तथा हर्षोल्लास तें भाव कर्माश्रित छै. इम द्रव्य संग्रह नी टीका मध्ये कह्यो छै. १९. हिवै नव पदार्थ ना भावार्थ नो उगणीसमो Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ रत्नसार ॥ प्रश्नः–तथा ते पंच परमेष्टी शरण करवू ते थी उदय कर्म नूं निवारण थाइ. अरिहंतादिक ना द्रव्य थी शरण करे तो द्रव्य थी जे सर्व पापना उदय श्रावता ते निष्फल थाय, विपाक वेदना पण अल्प थाइ, इत्यादिक गुण घणो नीपजे. सर्व द्रव्य पाप नो नाश करै. तथा (अपा अप्पं मिरउं) इम आत्मा आत्मा नुं सरण करै. सरणागत वज्र पंजर वत् पोता ने स्वरूपे, प्रणमै तिवारे सर्व कर्म नो नाश करै, क्षय करै. इम आत्म शरण अने निमित्त सरण नो स्वरूप जाणवो. तथा (अरिहंत) नो नाम संभारता, समरतां, प्रणमतां, आत्मा ने श्यो गुण नीपजे ? अरि जे राग द्वेष भाव ते मिटैं, वीतराग स्वरूप पामै १. (णमो सिद्धाणं) पद समरतां, संभारतां, प्रणमतां श्यो गुण नीपजे ? सिद्ध स्वरूप प्रात्म अरूपी भाव में पामै २. तथा (आयरियाणं) पद समरतां, संभारतां, प्रणमतां, जीव ने श्यो गुण नीपजे? पंचाचार प्रवर्तीन सुलभ उदय आवै भवांतरै, प्राचार्य पद गणधर पदादिक पामै ३. ( उपाध्याय) पद नु Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६) ॥ रत्नसार ॥ समरण संभारतां, तन्मय प्रणमतां जीव ने श्यो गुण नीपजे ? शास्त्रार्थ सूत्राभ्यास सुलभ पामै, अध्यापक शक्ति भवांतरै प्रगटै ४. ( साधु ) पद ध्यान करतां मुक्ति मार्ग नो साधन सुगम, सुलभ, बोधि पामै; चारित्र सुलभ पामी, गज सुकुमाल नी परें, तुरत मुक्ति पद पामै ५. (दर्शन) पद आराधतो सम्यक्त निर्मल करै ६. ( ज्ञान ) पद आराधतो बोध निर्मल करैः (चारित्र) पद आराधतो निरतीचारपणे सामायकादि पंच चारित्र पंच महा ब्रत सुलभ पामै ८.(तप) पद आराधतो इच्छा निरोध थाय, अणीच्छक गुण पामै ९. ए नव पद नो भावार्थ संक्षेप थी जाणवो. .. २१. हिवै उदय बंधनूं इक्कीसमो प्रश्न कहै छै. ते नो स्वरूप लिखिये कै. बांध्या कर्म उदय श्रावै; द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव पामी ने जैहवै रसै आवै तेहवा प्रदेशै तथा विपाकै भोगवे. ते भोगवतां जेहवा वेदे तेहवा नवा बीजा बंधाय. तिहां वेद, ते सम भावै वेदै, तिहां निर्जरा थाइ. तथा वेदतां जे विषम राग द्वेष भावै वेदै तो Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ रत्नसार ॥ (१७) नवा बंधाय. तथाविषम वेदी ने पछै पश्चात्ताप करै, तिहां कर्मबंधना रस घात विघात करी कर्मबंध नी चिकास मिटै ते उदय काले पामीने सुगमें खरी जाइ. अने जे कर्म विषम वेदीने मग्न थाय ते चीकणा कर्म बांधे. ते उदय काले घणो दोहिला भोगवी नें निर्जरै. पण वेदतां बीजा कर्म ना बांधणा बंधाय. इति बंध उदय नो भावार्थ जाणवो. २२. हिवै बोध समाधि नौ बावीसमो प्रश्न तेना लक्षण कहै छैः-सम्यक् ज्ञान दर्शन चारित्र अप्राप्त प्रापण बोध तेषांएव निर्विघ्नेन भवान्तर प्रापणं समाधि इति. * २३. संवेग वैराग्य लक्षणं कथ्यते. ते तेवीसमो प्रश्नः-(संवेगो मोक्षाभिलाष ) संसार शरीर भोगादि राग नो जे वय, ते वैराग्य.(मोक्षनो अभिलाष ते संवेग) " धम्मो धम्म फलंहि दोसंणयहरिसो होय संवेगो. * सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन, सम्यक् चारित्र जे अप्राप्त एटले क्यारे प्राप्त थया नथी ते ने प्राप्त करते बोध केहवाय छै सम्यक् ज्ञान दर्शन चारित्र नोज निर्विघ्न थकी भवान्तर मां प्राप्त थq ते समाधि. Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८) ॥ रत्नसार ॥ संसार देह भोएसु विरति भावोय वेरागं." २४. हिवै दान शील तप भाव श्या बड़े होय ते कहै छै ते चोवीसमो प्रश्नः-धनबल वडे दान देवाय, मन बल वडे शीयल पले, तन बल वडे तप थाय, सम्यक् ज्ञान बल वडे भाव वधै; ए भाव. तथा सद्गुरुनी देसना, सुदेवनी सेवना, सुधर्मनी आराधना ए त्रण निमित्त भाग्य जोगै मिलै. - २५. अथ ध्यान प्रतिबन्ध कानां मोहराग द्वेषाणां स्वरूपम् कथ्यते. पच्चीसमो प्रश्नः-शुद्धात्मादि तत्वेषु विपरीताभानिवेशनजनको मोहो मिथ्यात्वमिति यावत्। निर्विकार स्वसंवितिविलक्षण वीतराग चारित्रमोहो राग द्वेषोभण्यंते चारित्र मोह शब्देन राग द्वेषो कप्पं भण्यते इति चेत्कषाय मध्ये क्रोध मान द्वयेद्वेषाङ्गं माया लोभ द्वयं रागांगं नो कषाय मध्ये स्त्री पुं नपुंसक वेद त्रयं हास्य रति द्वयं इति पंच रागांगं । अरति शोक द्वयं भय जुगुप्सा इति तुर्यद्वेषांगं. भावैतव्यं ॥ अत्राह शिष्यः Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ रत्नसार ॥ ___ (१९) राग द्वेषोदयं किं कर्म जनितं ? किमात्म जनितं ? इति प्रश्नं पुसात नय विवक्षावशेन चिंतितेक देश शुद्ध निश्चयेन कर्म जनिता भण्यन्ते। तथैव अशुद्ध निश्चयेन जीव जनिता इति स च अशुद्ध निश्चयेन जीव जनिता इति सच अशुद्ध निश्चये शुद्ध निश्चयापेक्षा व्यवहारः एवं अथ मतं। साक्षात् शुद्ध निश्चयेन कश्येति पृच्छामो वयं ॥ तत्रोत्तरं ॥ साक्षात् शुद्ध निश्चयेन स्त्रीपुरुष संयोगरहित पुत्रस्येव । सुद्दा हरिद्रायासंयोगरहित रंगविशेषस्यैव । तेषामुत्पत्तिरेव नास्ति कथमुत्तरं प्रयच्छाम ॥ इति भाव ॥ २६. हिवै तिर्यग परिचय ऊई परिचय नो अर्थ प्रश्न छाबीसमोः-शास्त्र मध्ये जिहां प्रश्ने तिर्यग परिचय कह्यो छै, ऊई परिचय कह्यो छै तेहनो श्यो अर्थ ? जे पांच द्रव्य सप्रदेशी पंचास्तिकाय छै तेहने तिर्यग प्रसंज्ञा कहीये १. ने जे एक काल अप्रदेशी छै तेह ने ऊर्द्ध संज्ञा जाणवी २. एह नो विस्तार प्रवचनसार ग्रंथे कह्यो छै. Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०) ॥ रत्नसार ॥ २७. अथ धर्म केतली प्रकार इति सत्तावीसमो प्रश्न ते कहै छैः-तेह नी गाथा भाव नो धर्म तो कह्यो छै. तद्यथा (धम्मो वस्तु सहावो क्षमादि भावो । य दस विहो धम्मो, रयण तयंच धम्मो । जीवाणं रक्षणं धम्मो ॥१॥) अस्यार्थ-वस्तु ने वस्तुनो जे स्वभाव जिम चेतन ने चेतन स्वभाव. अक तो यह धर्म १. बीजो (पंति मद्दव अजव ) ए गाथाये जे दस प्रकारे यति धर्म कह्यो ते धर्म २. बीजो दर्शन, ज्ञान, चारित्र रूप आत्म प्रणमै धर्म ३. चौथो जीव नी द्रव्य भाव सहित दया पालै ते धर्म ४. ए भाव. इति धर्म चतुर्दा मुनयो वदंति इत्यर्थः॥ - २८. हिवै ४ प्रकारनो मुनि ने संयम कह्यो छै ते अठ्ठावीसमो प्रश्न-तिहां प्रथम प्राण संयम. ते षट काया ना जीव ना वधनी अविरत मिटी ते माटे प्राण संयम १. बीजो इंद्रिया. संयम. ते पांच इंद्रिय विकार थी निर्वत्तावै ते इंद्रियसंयम २. त्रीजो कषाय संयम. ते त्रणि चौकडी कषाय ना उदय मिट्या माटे कषाय Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ रत्नसार ॥ (२१) संयम ३. चोथु मनसंयम. ते द्रव्य भाव रूप मन ना विकल्प संवस्या माटे ते मन संयम ४.तिहां द्रव्य मन ते पांच इंद्रिय ना विषय रूप, अने भाव मन ते व्यक्ताव्यक्त विकल्प रूप. ए च्यार प्रकारनो संयम साधु ने जाणवो. आत्मा स्वभावै प्रणमै तिहां सम्यक्त गुण नीपजै. तेहना फल ज्ञान अने आनन्द ए बे नीपजै. तथा देहादिक परभावें प्रणमै तिहां मिथ्यात्व. संसार नीपजै. तेह ना फल सुख दुःख ए बे नीपजै. एहवो जाणी आत्म स्वभावे प्रणमवू ए तात्पर्य. २९.तथा जीवाभिगम सूत्रमध्ये उरपरि सर्पनी जाति समुर्छिम जेह नोशरीर जघन्य थी अांगुल नी असंख्यातमें भागें, उत्कृष्ट जोयण (जोजन) पहुत का छै. अने तिहांज असालीनो सर्प ने जाति चक्रवत्ति ना स्कंध वार मध्ये ऊपजै ते समुछिस नो शरीर जोजन १२ बार गें कह्यो छै. तेह नो आयु अंतर मुहूर्त कयो छै. बीजा ने९ नव जोयण ताई कहयो एह ने बार जोजनताई ते विचारवू. तथा समुच्छम उरपरि नो आयु ५३ त्रेपन Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२) ॥ रत्नसार ॥ हजार वरस नोउत्कृष्टै कहयो छै. इति भाव. ३०. हिवै ४ प्रकारे मरण नो तीसमो प्रश्नःजे ४ प्रकार ना मरणै घणा जीव मरै छै. एह भाव. ३१. हिवै जीव ना जे द्रव्य गुण पर्याय छै तेहना घातक कुण छै ते इकतीसमो प्रश्न कहै छै.- अज्ञानपणो ते आत्मद्रव्य नो घाती, मिथ्यात्व ते आत्मगुण घाती, अविरत ते आत्मिक सुख-पर्याय घाती. तथा अज्ञान मिथ्यात्व ते आत्मानो जीवपणो दाबे छ, अविरति. आत्मिक सुख दाबे छै, ए भाव. ___३२.तथा. जीव शुद्ध ज्ञान उपयोगैभाव निर्जरा करै छै; अने वैराग्य भाव उदासीनताये द्रव्यनिर्जरा करै छै. इति द्रव्यभाव निर्जरा स्वरूप जाणवो. ए भाव. ___३३. हिवै इच्छा मूर्छाइ जीव श्युं पुष्ट करै ? ते तेतीसमो प्रश्नः–ते जीव ने पुद्गगल नी इच्छा मुर्छा छै. ए बे करीने जीव श्यु पुष्ट करै ? ते कहै छै Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रत्नसार ॥ (२३) इच्छाये अज्ञान पणो पुष्ट करै, अने मूर्छाये मिथ्यात्व पुष्ट करै. ए भाव. ३४. हिवै गुण पर्याय ना घातक नो चौतीसमो प्रश्नः-हिवै आठ कर्म मध्ये एक मोह नी२८ प्रकृति छ. ते मध्ये ३ प्रकृति मिथ्यात्व मोहनीय जाणवी, २५ प्रकृति चारित्र मोहनी, ते त्रणै भाग वेहचाये,मोहै, राग द्वेषै. तिहां मोह शब्दै मिथ्यात्व जाणवो. राग द्वेष शब्दै चारित्र मोह जाणवो. तेहनी २५ प्रकृति मध्ये १३ प्रकृति राग ना घरनी, १२ प्रकृति रागद्वेष ना घरनी, ते पूर्वे कही छै तिम जाणज्यो. ए अधिकार वीतराग समयसार ग्रंथे बंधाधिकारे कह्यू छै. ३५. हिवै शरीर परिणाम श्रद्धाननीगति प्रश्न पैंतीसमो तेः-शरीर तथा परिणाम तथा श्रद्धान ए तीननी गति जे रीते , ते रीत लिखिये छै. शरीर नी गति तो उदयीक भावनी वेदनी मध्ये छै, १. परिणाम गति विषय कषायनी प्रवृति मध्ये इष्टानिष्ट रूपै छै २. Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२४) ॥ रत्नसार ॥ श्रद्धानी गति तत्वातत्ववीनी विवेचन रूपै छै ३. तीन गति, अमारा आत्मानी तो ए रीते दीसै छै. . ३६.हिवै द्रव्य गुण पर्याय श्या थी समरै ते छत्तीसमो प्रश्नः-द्रव्य गुण पर्याय जीव ना छै ते जे गुण थी समरै ते कहै छै. दर्शन, ज्ञान, चारित्र ए तीनथी समरै. ३७. हिवै जीव ना द्रव्य गुण पर्याय समरै ते किम ? ते सैंतीसमो प्रश्नः-आत्मा द्रव्य असंख्यात प्रदेशी तेहगें जिनवचन प्रतीतें, अनुमाने, अनुभवें परोक्ष प्रत्यक्षं जे भासन थयो प्रतीतात्मक धर्म जे आत्मद्रव्य दीठो छै. सम्यक् दर्शन गुण हेतु ते द्रव्य दर्शन, तथा प्रतीतात्मक धर्म अनन्त गुण नुं जाण पणो थयो ते गुण हेतु सम्यक ज्ञान जाणवो. तथा द्रव्य गुण रूपै प्रणमै जे पर्याय तेह नो हेतु स्वरूपाचरण चारित्र गुण हेतु. एटले जीवना पर्याय समरै ते चारित्र गुण हेतु. इम दर्शन द्रव्य,ज्ञानै गुण, चारित्रै पर्याय, समरै. इति भाव. Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ रत्नसार ॥ (२५) ३८. हिवै जन्म जरा मरण नुं दुःख किम टल ते अडतीसमो प्रश्न कहै छैः-तेहना हेतु रत्नत्रय धर्म ते किम ? सम्यक दर्शन गुण थयो अनन्त पुद्गल परावर्त्तता ए जे जीव घणा जन्म करतो ते अई परा पुद्गल मांठैरा तांई उत्कृष्टै जन्म करै. एटले सम्यक दर्शन गुणै घणा जन्म नी परंपरा थी खपावे १. तथा जरा जे शुभाशुभ कर्म उदयागतै आवै ते सुख दुःख रूप वेदावे, तेह नी वेदनी ना सम्यक ज्ञान गुणै मिटाववानो २. जीव ने सम्यक चारित्र गुण ते स्वरूपाचरण व्रताचरण रूपै चारित्र गुणै जिहां मरण थी गति पामै. एटलेइ चारित्र गुणे मरण वेदना मिटाविये ३. ए रीते जन्म जरा मरण भय मिटाववानो हेतु दर्शन ज्ञान चारित्र ए तीन गुण जाणवा. ए भाव. ३९. हिवै योगै बांधै छै कर्म, तथा सत्ताये पिण कर्म छै ते शी रीते छुटै?ते उगणचालीसमो प्रश्न कहै छैःयोगतीन उपार्जा जे कर्म ते तप संजमादि शुभ क्रिया Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६) ॥ रत्नसार || 'व्यापार प्रवर्ते त्यारे टले. तथा सताये कर्म छै ते, शुद्ध उपयोग स्वाभाविक पोताना गुण पर्याय द्रव्यपणे प्रणमै ते सत्ता कर्म वै ते मिटावे. इम योग कर्म है ते शुभ क्रियाये निर्जरै. तथाचयोक्तं- “आगम श्रध्यातमता, कह्या घणा प्रबंध । द्रव्य गुणै योगे परणमै, तो सोनो अने हि सत्ता कर्म छै ते, शुद्ध उपयोग निर्जराय ए भाव तथा मिध्यात्व ना बांध्या कर्म सम्यक्त पाम्या थी मिटे, अविरती ना बांध्या ते विरतै टल. - . ४०. पुनः मिथ्यात्व अविरती ना बांध्या जे कर्म ते किम मिटै ? ए चालीसमो प्रश्नः - कषाय ना बांध्या कर्म उपशमादिक समता गुणै टलै तथा प्रमादना बांध्या कर्म अप्रमाद दसायै टलै. इंद्रिय विषय ना बांध्या कर्म ते तपस्यायै टलै. तथा योगना बांध्या कर्म ते योगी अवस्थायै सेलेसी करणे टलै. ए. भावार्थ जाणवो.. ४१. अथ निश्चय व्यवहार नय श्यो गुण करै Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ रत्नसार ॥ (२७) ते इकतालीसमो प्रश्नः- ते निश्चय व्यवहार नये सम्यक दृष्टि में श्यो गुण करै ते कहै छै. निश्चय नय ते जीव द्रव्य वस्तु नें दृढ़ता आस्तिकता करण हेतु.अने व्यवहार नय तेजीवना पर्याय शुभाशुभ कर्म रूपै जे भरचा छै तेहने समारवानो हेतु छै. ते व्यवहार नय गुणकारी छै. तथा ते व्यवहार नै केडै उद्यम है. अने निश्चय नय केडै दृढ़ता स्थिरता छै.ए बे नय जिनेश्वरना भाष्या आत्म वस्तु ने समारवाना हेतु छै. ए जैन पद्धति स्यादवाद रूपै छै. एभाव. ४२. हिवै निश्चय व्यवहार सम्यक शी रीते छै ते बिआलीसमो प्रश्न, तेहनो स्वरूप कहै छैःश्रीजिनवाणी प्रतीतै ग्रहीने षट् द्रव्य ना यथार्थ पणे गुण पर्याय धारै. अनुभव प्रत्यक्ष स्वरूपने वेदै, तथा गुण पयार्य नो विलेछन करै. तथा पुद्गलादिक कर्म पर्याय सू तदाकार न प्रणमै, पांच इंद्रीना भोग विषै इष्टानिष्ट रूप न वेदै, पोताना स्वरूप भेद रत्नत्रय रूपै पाराधै, तेहने व्यवहार Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२८) ॥ रत्नसार ॥ सम्यक्त कहिये. तथा पोताना गुण गुणी पर्याय अभेद रूपै रत्न त्रय रूपै निर्विकल्प समाधिपणे प्रणमै तेहनें निश्चय सम्यक्त कहिये. ये पूर्वोक्त वस्तु व्यवहार सम्यक्त ते निश्चय सम्यक्तनो कारण. जे निश्चय सम्यक्त ते केवल ज्ञान नो कारण. इति वीतराग समयसार ग्रंथे उक्तं. ४३. तथा नव तत्व षट् द्रव्य नो जे प्रास्तिक भावै श्रद्धान, तथा देव गुरु धर्म नु यथार्थ पणै सत्य श्रद्धानु बुद्धिपणा नो प्रकाश विशेशे तत्वातत्व नु नय भंग रूपैं, अनेकांत मार्ग विशेष रीते, आगलै परंपराये वस्तु व्यवहार सम्यक्त जे पूर्व कयूं ते रूप ने मेलवै. इति रहस्यं. ४४. हिवै धर्म कर्म पुण्य पाप जेह थी होय ते चूमालीसमो प्रश्नः-शुद्धोपयोगै जीव पोता ना द्रव्य गुण पर्याय सुं तदाकारै आत्म पणे प्रणमै ते धर्म. तथा राग द्वेष मय अशुद्धोपयोगै जिहां कर्मबंध नीपजै Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ रत्नसार ॥ ते बंध थी संसार थी ते धणी बंधै. इम शुद्धोपयोग धर्म अने अशुद्धोपयोगै कर्म. तथा शुद्धोपयोगै शुभ योगै पुन्य. मन वचन काय ना योग प्रशस्त व्यापारै तदाकार पूजा, सामायक, दानादिक शुभ योग प्रवर्तन तेथी पुण्य बंध नीपजै. तथा अशुभ मन, वचन, काया ना योग विषयादिक व्यापारै तन्मय तल्लीनतापणै प्रणमै तिहां पापबंध नीपजै. एटले शुभ अशुभ योगै पुण्य पाप बंध, अने शुद्धाशुद्धोपयोगै धर्म कर्म नीपजै, तथा पुण्य बंधै, शुभ गति, शुभ सामग्री साता जीव पामै. तथा शुद्धोपयोगै धर्म, निर्जराय कर्म क्षय करी मुक्ति पद पामै. तथा अशुद्धोपयोगै पापबंधे, तेणै संसार मध्ये घणो काल रहै, घणा भव करै, तथा अशु भोपयोगै पाप बंध थी आत्मा जिहां घणी असाता पामै. एटले पापै असाता, पुण्यै साता, कर्मे संसार घणो बंधै, धर्मे मोक्ष. इम चार भेद भिन्न भिन्न जिम हता तिम कह्या. इति रहस्यं. पंच इंद्रिय ना२३तेवीस विषय व्यापार अने योग Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३०) ॥ रत्नसार ॥ ३ तीन तल्लीनतापणै न जोडै तेह नैं पापबंध अल्प नीपजै, ते आलोयणै निंदै छूटै कर्मबंध नीपजै ते भोगवै छूटै जीव नें नीपजै पाप में कर्म अल्प तथा शुधोपयोगै जे अत्र चौभंगी. कोई १. कोई नें कर्म बहु ने पाप अल्प २. कोई नें पाप बहु नें कर्म घणा ३. कोई पापबंध कर्म बंध एकै नहीं ४. इम कर्मबंध पापबंध ना भेद जाणवा. ४५. तथा धर्म कर्म भर्म सेणे. ते पैंतालीसमो प्रश्नः -तत्रोत्तरं, धर्मते शुद्धोपयोगै, कर्मते क्रियाई, भर्मते मिध्यात्व मोहै. ४६. पुण्य धर्म एक छै किंवा जुदा है ते छियालीसमो प्रश्नः - पुण्य, पाप, धर्म, ए तीन वस्तु जुदी है. पुण्यना भेद - अण पुण्य १ पाण पुण्य २ लेण पुण्य ३ सयण पुण्य ४ वथ पुण्य ५ मन्न पुण्य ६ वय पुण्य ७ काय पुण्य ८ नमस्कार पुण्य है. ए नव भेद उपजवाना कह्या छै तेहना फल ४२ बेतालीस (साउच्च गोयमण, दुगइत्यादि ) तथा पाप ना अठारे पाप स्थान, ते १८ भेद. तेहना फल ८२ बयासी (नाणंतराय Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ रत्नसार ॥ दसंग इत्यादि ). धर्म ना १० दस भेद-खंति, मद्दव, अज्जव, इत्यादि गाथा जे दस प्रकारे जती धर्म ते धर्म भेद. धर्म ना फल ते मोक्ष. इम धर्म आत्म स्वभाव जनित, अने पुण्य पाप ते कर्म जनित. पुण्य तो बंध रूप छै. पुण्य तो भोगवै छै पुण्य ते आश्रव रूप छै पुण्य मिथ्यादृष्टी ने होय. पुण्य ते क्षय छै. तथा धर्म ते सम्यक दृष्टी ने छै. धर्म संवर रूप छै. धर्म ते निर्जरा रूप छै. धर्म ते अक्षय रूप छै. धर्म नादस भेद छै.धर्म ना फल ते मोक्ष रूप छै.इम धर्म पुण्य नी भेदता छै.तथा धर्मपाप पुण्य वस्तु भिन्न, गति मिन्न, उपयोग भिन्न, अने फल भिन्न, ए रीते जाणवो. ४७. हिवै धर्म कर्म उपजतो छदमस्त किम जाणे ते सैंतालीसमो प्रश्नः-संकल्प विकल्प परिणामै जबताई जीव वतै छै तिहां कर्म नीपजै. जे जीव निर्विकल्प भावे प्रणामै तिहां धर्म नीपजै. एटले विकल्पै कर्म, निर्विकल्पै धर्म, ए भाव. ४८. हिवै स्वाभाविक त्रण गुण नो लक्षण कहै Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ रत्नसार ॥ . छै ते अड़तालीसमो प्रश्नः-प्रकाशता अने विलंछनता स्वाभाविक लक्षण ज्ञान. १ दृढास्तिकता प्रतीतात्मक श्रद्धानता स्वाभाविक दर्शन लक्षण, २ तथा. स्थिरता अने अनाकुलता चरण रूप ते स्वाभाविक चारित्र लक्षण.३ए त्रणना सामान्यपणे लक्षण जाणवा.अने मूल भेद ज्ञान जाणवो.दर्शन देखवो. चारित्र परणमैवा इम छै. पण उत्तर भेदे-स्वभाव लक्षण सामान्यपणे जाणवु ते ज्ञान जाणवो. वस्तु गत दर्शन देखवो प्रतीतात्मक श्रद्धान रूप है, ते दर्शन जाणवो. अने विवेक रूप ते परण मयूं तेम चारित्र तरण रूप छै. ए जीव मा ३ गुण वस्तु रीतै जाणवा ए भाव.. ___४९. हिवै धर्म सांभलवो, जाणवो, धारवो ते केवी रीते? ते उगणपचासमो प्रश्न कहै छै:-ते धर्म सांभलवो, ते धर्म जाणवो, ते धर्म आदरवो ते विधि कहै छै. वीतराग नी वाणी स्यादवाद रूपै छै. आत्म स्वरूप गुरु उपदेश कहै छैतेधर्म सांभलवो१. स्वसमय पर समय विलंछकता धर्म शुद्धाशुद्ध प्रकाश थयो ते Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ रत्नसार || (३३) रत्नत्रय धर्म जाणवो. तथा पोताना गुण पर्याय रूप श्रात्मा ते आत्मपणै प्रणम्योजेणें धर्म प्ररूप्यो ते धर्म आदरवों ३. इम ३ ऋण भेद जाणवा. हिवै जीव नी चेतना बे प्रकार नी छै ते पचासमो प्रश्नः — ते एक ज्ञान चेतना १. बीजी अज्ञान चेतना २. अज्ञान चेतना ना बे भेद - एक कर्म चेतना १ बीजी कर्म फल चेतना २. ते मध्ये कर्म चेतना-ते राग द्वेष रूपै प्रणमै ते कर्म चेतना तथा उदय श्रव्यां कर्म वेदै ते कर्मफल चेतना. ज्ञान चेतना मध्ये कोई भेद नहीं. ज्ञान चेतना प्रगटै ते कर्म चेतना तथा कर्मफल चेतना मिटै छै. ज्ञान चेतना सम्यक्त पाम्या पछै होई. अने मिथ्यात्वी ने अज्ञान चेतना, ए भाव. " ५१. हिवै त्रिकाल भाव कर्म निवारवानुं कारण ते इकावनमो प्रश्नः - ते हिवै त्रण्य कालै जे जीव पाप कर्म बांधै छै ते निवारवानो कौण हेतु ? इति प्रश्न. तत्रोत्तरं. गया काल ना पाप कर्म ते प्रतिक्रमण मिटै, Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३४) ॥ रत्नसार ॥ अने वर्तमान काल ना पाप कर्म आलोयणै मिटै, अने अनागत काल ना पाप कर्म पचक्खाणे टलै. ए भाव. - ५२ .हिवै व्यवहार ना चार भेद नी विगत नो बावनमो प्रश्नः- अणउपचरित सदभूत व्यवहार प्रथम ते श्युं कहिये ? अनंतो ज्ञान, अनंतो दर्शन, अनंतो सुख, अनंतो वीर्य ए श्राद देई ने अनंत गुणात्मक शुद्धता ते१.बीजो उपचरित सद्भुत व्यवहार. तेहनो अर्थ क्षयोपशम ज्ञान, क्षयोपशम दर्शन, क्षयोपशम चारित्र ते२.त्रीजो अण उपचरित असदभत व्यवहार. एह नो अर्थ अनादि कर्म अने जीव ज्ञानावरणी श्रादि देई ने ८ कर्म जे द्रव्य कर्म ते३. चौथो उपचरित असद्भूत व्यवहार. तेहनो अर्थ बेटा बेटी, घर,द्विपद, चतुष्पद आदि देई ने दस विध परिग्रह ते४. ए रीते ४. चार व्यवहार नो अर्थ जाणवो. ___ ५३. हिवै ३ तीन प्रकार ना कर्म छै ते तिरपनमो Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ रत्नसार ॥ प्रश्नः-तेह नी विगत. द्रव्य कर्म ज्ञानावरणी आदि देइनेकर्म पुद्गलीक ते १.भाव कर्म ते राग द्वेष आदि देईने आत्मा नो अशुद्ध परिणाम विभाबै परिणमैं ते भाव कर्म २. नोकर्म ते उदारिकादि पांच शरीर ते जाणवा ३. ए भाव. ५४. हिवै दया ना चार भेद छै ते. चोपनमो प्रश्नः-दया ते मिथ्यात्वदृष्टीने कही ते परहथ वेहचाणी राग द्वेषं हणाइ ते नथी जाणतो १. वा परदया तो विरति ने होई २. भाव दया ते सम्यकदृष्टी ने होइ ३. स्वदया क्षिपक श्रेणी चढतां होइ ४. इम चार भेदे जाणवी. ५५. हिवै मोक्षना ३ त्रण भेद ते पचपनमो प्रश्नः-भाव मोक्ष सम्यकदृष्टी ने होइ १. द्रव्य मोक्ष साधु ने होइ २. गुण मोक्ष केवली ने गुणस्थानै १३। १४ तेरमा चवदमा सुधी होइ. ३. ५६. हिवै चेतना केवी ते छप्पनमो प्रश्नः-- Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३६) ॥ रत्नसार ॥ ते चेतना तीन प्रकारनी कही.तिहां कर्म चेतना त्रस जीव ने १.कर्म फल चेतना एकेन्द्रियादिक प्रमुख ने २. ज्ञान चेतना सम्यकदृष्टी ने होइ ३. इति भाव. ५७. हिवै संसार मध्ये ३ तीन प्रकार ना जीव नो सत्तावनमो प्रश्न ते कहिये छै:-एक भवाभिनंदी ते मिथ्यादृष्टी जीव १. पुद्गलानंदी ते सम्यकदृष्टी जीव. जेह ने शुभाशुभ कर्म पुद्गल ना उदय आवै, रति वेदाइ, अंतर वेदीपणो जाइ, पण संसार मांहे आनन्दकारी न जाणै.ते माटै सम्यकति जीव पुद्गलानंदी कहिये, जेणै संसार ना पुद्गल नो अानन्दकते २. केवल आत्मा नो आनंद रत्न त्रय धमै वतै ते माटे मुनि आत्मानंदी जाणवा३. इति भाव. - ५८. हिवै सुगति कुगति नो अठावनमो प्रश्नः-ते शुभोपयोगैसुगति, अशुभोपयोगै कुगति. अशुभोपयोग संसार थाइ,शुद्धोपयोगै मुक्ति थाइ.तेह नो हेतु,जे माटे शुभ प्रकृति ने उदयै जीव ने शुभ योग थाइ, धर्म नो कारण शुभ क्रिया करै तेथी शुभ बांधैते शुभ गति. Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ रत्नसार ॥ (३७) तथा अशुभ कर्म ना उदय अशुभ योगै थाइ. तेथी अशुभ क्रिया विषयादि सेवै, तेथी पाप प्रकृति बंधाइ, तेथी अशुभ गति. ते माटे पुण्य पाप ते योगर्ने आयतै, अने धर्म अधर्म ते उपयोग में आयतै. तेह नो राग द्वेष मोह ने उदय अशुद्धोपयोगै तेज मिथ्यात्व अधर्म कहिये. तथा शुद्धोपयोग जे रत्न त्रय रूप जे परणति वीतराग भाव ते धर्म. ते बे उपयोगै. एटला माटे इम जाणवो. ए भाव जाणवो. इति. ५६.हिवै रोगाक्रान्तनुं गुणसाठमो प्रश्नः-जे रोगाक्रान्तनो अर्थ कहिये छै. घणा काल लगै रहै ते रोग कहिये. अने तत्काल सद्य प्राणघात करै ते आतंतक कहिये. इति भाव. ६०. हिवै बल वीर्य नो साठमो प्रश्नः-ते बल, वीर्य,नै पराक्रम नो अर्थ लिखिये छै.बल ते शरीर नो१, वीर्य ते अंतरंग आत्मा नो२.पराक्रम ते उदयानुसारी जाणवो३. ए भावार्थ सूत्रे इति. Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ रत्नसार ॥ ६१. हिवै सम्यक्त, मिथ्यात्व नो इकसठमो प्रश्नः-सम्यक्त ते,जीवनी सत्ताइ द्रव्य तत्व रूप कै. ते जिवारे पोतानो समय पामी ने पडै तोही पिण मिथ्यात्व पर्याय द्रव्य गुण रूपै एकत्व पणै न प्रणमी सकै तेहनाथी,तो तिवारे ७०सीत्तर कोडाकोडी सागरोपम नीथिति बंधाती नथी. एटला माटै मिथ्यात्व ते पर्याय रूप प्रणमै छै. त्यारे एक कोडाकोडी सागर नी माठेरी बंधाय छै, ते भाव पोताना क्षयोपशम थी उपजै छै. पछै ज्ञानवंत बहुश्रुत कहै ते सत्य इति. ...६२.हिवै पद्गल ते कर्म छै,अने जीव ते पिण कर्म बैते शी रीते?ते बासठमो प्रश्नः-पुद्गल परमाणु विभाव रूपै प्रणमै तिवारे द्विणुकादि खंध कर्म नीपजै१. अने जीव पिण पोतानो स्वभाव मेली विभाव रूपै प्रणमै तिवारे कर्म रूप थईनें पुद्गल कर्म वर्गणा ग्रहैर.ते जीव जिवारे सम्यक्त पामै तिवारे जीव अकर्म रूप थयो. पुद्गलना कर्म पुद्गल प्रतया उद्य प्रतियां रया, अने आत्म प्रतियां गया, ए भाव जाणवो. Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ रत्नसार ॥ ६३. हिवै नव तत्व छै. ते चार प्रकारै छै. एक नव तत्व नी गाथा ते च्यार प्रकार है, तेनो अर्थ ते तिरसठमो प्रश्न कहै छैः-एक नामै नव तत्व १ बीजो गुण तत्व २ त्रीजो स्वरूपै लक्षणे ३ चौथो प्रणाम रूप नव तत्व जाणवो. ए च्यार प्रकारै नव तत्व छै तेहनो अर्थ-नामै नव तत्व (जीवाजीवा पुन्नं पावा) इत्यादिक ए नाम थी जाणवा १. बीजो गुणै, ते चेतना गुणै जीव ते किम ? असंख्यात प्रदेशी अनंत गुणमय ते शुद्ध चेतना गुण, तथा वरणादि गुणवत् अजीव में पांचे अजीव द्रव्य ना गुण जे रीते कह्या छै तिम जाणवा. तथा ऊई गति इंद्रिय सुख ने श्रापै ते पुण्य नो गुण, अधोगति संक्लेश रूप ते पाप नो गुण, शुभाशुभ कर्म आगमन रूप ते आश्रव नो गुण, शुभाशुभ निरोध शुद्धोपयोगै रूपै संवर नो गुण,नोतन कर्म पूर्व कर्म सूं मिलै ते बंध गुण. शुभाशुभ रूप कर्म संडन रूप ते निर्जरा गुण, आत्म प्रदेश थी कर्म क्षये गुण.इम बीजो भेदर.तथा त्रीजे. भेदै ए नव तत्व Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ रत्नसार ॥ आपापणे स्वरूप जाणवा. ३ तथा चोथे भेदै प्रणाम रूप नव तत्व जीव तत्वे · जीव ने जीव रूपे प्रणमै ते जीव तत्व.४इम नवे तत्वै जीव ने आपापणे रूपै प्रणमै. इम एक जीव तत्व इम एक नव तत्व नी गाथा. तथा अजीव ते जीवे आहारादि हेतु प्रणमै छै. पुण्य ते जीव ने इंद्रिय सुख नी साता रूप प्रणमै ते च्यार प्रकार जाणवी.एणी रीते श्रावक ते जीवाजीव ने जाणै.एतलें जीव जाण ने संवर,निर्जरा,मोक्ष उपादेय कीधाः-अने अजीव जाणने पुण्य पाप बंध, आश्रवबंध एतला हेय कीधा.ए रीते श्रावक जीव अजीव नाजाण कहीइ. तथा नव तत्व च्यार प्रमाण साते नयै४ च्यार निक्षेपै द्रव्य भाव भेदे भली रीते जाण्या छै जेणै ते श्रावक स्वसमय परसमय ना जाण कहिये. इति भाव. ... ६४. हिवै कर्त्तापणे कर्म, अने क्रिया तिहां ताई बंध ते चौसठमो प्रश्नः- ते कर्त्ताइ कर्भ अने क्रियाइ बंध ते किम ? जिहां जेहवो कर्त्ता,तिहां Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ || रत्नसार ॥ ( ४१ ) • तेहवा द्रव्य कर्म आवै तथा जिहां जेहवा हेतु तिहां तेहवी क्रिया. ते क्रियायै शुभ अशुभ कर्म नो बंध नीपजै तथाचोक्तं || दोहा || कर्त्ता परिणामी दरब, करम रूप परिणाम । किरिया (क्रिया) परजय की फिरनी, वस्तु एक त्रय नाम ॥ इति समय सार ग्रंथोक्तं. हिवै जैन दर्शन ते उपयोगै तथा अक्रिय भावैं छै. जैन दर्शन श्रद्धान ते शुद्धोपयोगे है. ते शुद्ध उपयोग श्रात्म भावै छै, अक्रिय भावै छै. अने बीजा योगे क्रिया धर्म है. इति भाव. ६५. द्रव्य संवर भाव संवरनो पैंसठमो प्रश्नःतथा मन, बचन, काया ना योग प्रतियां जे कर्म छै ते, मुनी तप संयमै करी निर्जरै छंई. बीजा आवतां निरोध करें है. तथा अशुद्ध उपयोग प्रतिया जे कर्म ते रत्नत्रय रूप आत्मिक धर्म प्रणमीनें सत्ता सोधें कर्म थी मुकाई है. ए भाव. ते माटै मुनी, योग संवर आराधतां उद कर्म निवारें, तथा उपयोग संवर आरा Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४२) ॥ रत्नसार ॥ धतां कर्म नी सत्ता सोधे, सकल कर्म थी मुकाई छइ. इम द्रव्य संवर ने भाव संवर नो स्वरूप जाणवो. इति. ६६. दर्शन तेथी जे देखवो ते शी रीते छै ते छांसठमो प्रश्नः-दर्शनते जे देखवो कहै छ तेहनो अर्थ यथा श्रुत लिखिये छ.छद्मस्त सम्यक् दृष्टी प्रत्यक्ष स्वरूप किम देखै ? इति प्रश्न. तत्रोत्तरं. परोक्ष प्रत्यक्ष अनुभव गोचर अनुमान प्रमाण प्रतीते प्रत्यक्ष देखै. ते किम ? पोताना परिणाम शुभाशुभ कर्म रूप राग द्वेष द्वार, बुद्धि पूर्वक ते परिणाम पोता ना देखै. ते परिणाम जीव द्रव्य थी ऊठै छै. श्या माटै ? ते जीव परिणामी द्रव्य छै, तेहना संगी जीव ने बुद्धि पूर्वक परिणाम दीठो. एणे अनुमानै आत्मा दीठो. किम् ? यथा-सूर्य बादल मांहि उग्यो छै, मेघ नी घटा घणी छै, तोही पण प्रकाश सूर्य नो छै ते अनुमान दिवस कहिये-सूर्य दीठो कहिये. इण दृष्टांते. तथा धूम्र दीठे अग्नि दीठी कहिये. इम जिन वचन नी प्रतीतै, परोक्ष प्रत्यक्ष आत्मा सम्यक् दृष्टी वीतराग वचन नी प्रतीते Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ रत्नसार ॥ (४३) यथार्थ देखै छै तेहनी शुचि प्रतीत नी श्रद्धा छै. इम यथार्थ जाणे ते सम्यक् ज्ञान. तथा जेहवो दीठो निज स्वरूप एकांते, जेहवो वस्तु रूपै जीव द्रव्य निकलंक जाण्यो तेहवो राग द्वेष विकल्प रहित प्रणमै ते स्वरूपाचरण चारित्र. तथा गाथा-(पुइयाइ सुवसहियं पुनं जिणेन दीठं । मोह कोहा विहिणो परिणामो अपप्णो धम्मो ॥ १॥) ए स्वरूप चौथै गुण स्थानै होई जेहनें आत्म बोध थाशे. तथा प्रभु मार्ग ना त्रपहसा ते मानसे एहवो हमें धारयो छै तेहवु शास्त्र प्रमाणै लिख्यूं छै. ए मांहि ए कांई जिन वचन थी विरूद्ध होइ ते श्रीसंघ साथे मिच्छामि दुक्कडं. ६७. हिवै निर्जरा नं स्वरूप किंचित् लिख्यते. ते सणठमो प्रश्नः ते निर्जरा कर्म नो साटन करै ते मध्ये मिथ्यात्वी ने आश्रव बन्ध पूर्वक निर्जरा होई, सम्यक् दृष्टी ने संवर पूर्वक द्रव्य भाव निर्जरा होई. ज्ञान शक्ति वैराग्य बलै करी ने. तिहां ज्ञान शक्ति तें शुद्ध स्वरूप नो अनुभव अने वैराग्य बलै करी ने Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४४) ॥ रत्नसार ॥ अशुद्धोपयोग नो मिटाविवो. तिहां ज्ञानोपयोगै भाव निर्जरा. ते किम ? जिहां राग द्वेष मोह प्रणमित नुं घटाडवो तिहां भाव निर्जरा. अने द्रव्य निर्जरा ते कर्म वर्गणानो घटाडवो. जे उदय आवै ते निर्जरे तेहवा पाछा बंधाइ नहीं. बंध अल्प अने निर्जरा घणी इम ज्ञान शक्ति वैराग्य बलै सम्यक् दृष्टी द्रव्य भाव निर्जरा करै छै. मिथ्यात्वी कर्म निर्जरा करै पण ते निर्जरा थी बंधाई. घणा मार्गानुसार ने पण कर्म निर्जरा पणे बांधै अल्प. पण वस्तु थकी सत्ता निर्जरा ते सम्यक् दृष्टी ने होई. ए भाव. ६८.हिवै जीवनुं गुण पर्यायनो अड़सठमो प्रश्नःते हिवै आत्मा ना असंख्यात प्रदेश छै. एकेक प्रदेशै अनंती शक्ति नै अनंतु ज्ञान छै. तथा एकेक प्रदेश अनंत पर्याय छै.इम द्रव्य गुण पर्याय नु थापवोजाणवो ते स्यादवाद मार्ग. .. ६९. हिवै द्रव्य नी शक्ति गुण शक्ति किहां छै ते Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ रत्नसार ॥ (४५) गुणंतरमो प्रश्नः-ते हिवै द्रव्य नी शक्ति, गुण नो प्रकाश,पर्याय नो ठरण, एतला वस्तु लीधै आत्म द्रव्य छ. ते सम्यक् दर्शन थी द्रव्य शक्ति प्रगटै. सम्यक् ज्ञान गुण थी प्रकाश थाइ. सम्यक् चारित्रै परिणाम ठरण गुण वधे. ए भाव. ७०. जीव में उपयोग केतला छै ते सित्तरमो प्रश्नः-ते जीव नें उपयोग बे-एक शुद्ध १ बीजो अशुद्धरते मध्ये शुद्ध मांहि कोई भेद नथी.अशुद्धोपयोग ना बे भेद-एक शुभ १ बीजो अशुभ २. तिहां शुभोपयोगै वत्तै (ते जीव) पुण्य उपार्जे, ते थी सुगति पामै. तथा अशुभोपयोग वत्तै ते जीव दुःख रूप कुगति पामै. तथा शुद्धोपयोगै वर्त्ततो ते जीव सिद्ध गति पामै. ___७१. हिवै इकोत्तरमो प्रश्न–ते हिवै शुद्धोपयोग ते सम्यक्त पाम्या पछी होई अने अशुद्धोपयोग नाघर ना सर्वे संसारी मिथ्या दृष्टी जीव ने होइ. ते मध्ये मिथ्या दृष्टी ने शुभ क्रिया होइ पिण, शुभोपयोगै नहीं. शुभोपयोग तो शुद्ध ना घर नो छै ते अणइच्छक रूपै होई. Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४६) ॥ रत्नसार ॥ अने मिथ्यात्वी नें शुभ क्रिया रूप शुभोपयोग होय शुभाचार रूपै होय पिण निदान * अभिलाष सहित होई, ते माँटै अशुभ रूप कह्यो. अने सम्यक दृष्टीनें शुद्धोपयोग ना घर नो जे शुभोपयोग ते अनिदांन रूपे होई. ते माटै सम्यक्दृष्टी नें शुद्ध उपयोग, ते शुभ मिश्रित होई. ते माटै तरतम भेदे चौथा गुणस्थान थी मांडी बारमा तांई मिश्रोपयोग होई. तेरमा थी शुद्धोपयोगे पूर्ण पद होई. मिथ्यात्वी ने अशुद्धोपयोग होई. ए भाव. ७२. हिवै बीजी रीते सम्यक दर्शन नो अर्थ कहै छै ते बोहत्तरमो प्रश्नः - ते सम्यक दर्शन यथार्थ रूपें प्रतिभास दर्शन जे रीते देखे है ते भेद लिखिये a. श्रीवीतराग देव ना वचन नी आकरी प्रतीत जिम कंद मूल जीव अनंता प्रतीत रूपें देखै छै तिम आत्मा अरूपी असंख्यात प्रदेशी श्रीजिनवचन नी चाकरी प्रतीत रूप देखै छै, तिम आत्मा एक तोए रीतें कहीइ १ * नीयाणा रूपे, इच्छकपणे. Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ रत्नसार ॥ (४७) बीजो अनुमान प्रमाणै परोक्ष प्रत्यक्ष रूप देखै छै. ते किम ? यथा(यत्र धूम तत्र वन्ही इति न्यायात्) जिम धुंवाडो देखी ने अनुमानै दीठो अग्नि स्वरूप,तिम ए आत्मा चेतना लक्षणो जीव.चेतना ते श्युं कहीइ ? जे सुख दुख ने वेदै ते वेदनी जीव ने प्रत्यक्ष छ.ते माटे ( लक्ष्य लक्षणे ज्ञायते) लक्षण जे लक्ष दीठो. एक अंश प्रत्यक्ष सर्व प्रत्यक्ष थयो. ए रीते पिण सम्यक्त दृष्टी आत्म स्वरूप देखै. ए बीजो भेद. ७३, हिवै त्रीजी रीते सम्यक् दर्शन कहै छै ते तिरयोत्तरमो प्रश्नः-हिवै देश विरती मुनी तरतम भेदे तथा अनुभबै ते प्रत्यक्ष. जिम वस्तु विचारतां ध्यान धरतां मन विसराम पामै छै, रस स्वाद सुख ऊपजै छै, परिणाम ठरै छै, ते अनुभव प्रत्यक्ष, जिम साकरनी आस्वादता हजार मण साकर नो अनुभव थयो तिम जीव द्रव्य पोता नो सम्यक् दृष्टीये अनुभवे प्रत्यक्ष दीठे. ए तीजो भेद. ७४. हिवै सम्यक् दर्शन नो चौथो भेद स्वरूप Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४८) ॥ रत्नसार ॥ प्रत्यक्ष ते चुमोत्तरमो प्रश्न कहै छै:-जिहां द्रव्य गुण पर्याय एकीभूत अभेद रत्नत्रय रूप मुनि प्रणमै जिहां, तिहां स्वरूप निज पद कंद प्रत्यक्ष देखै. इम ४ च्यार प्रकार सम्यक् दृष्टी श्रात्म स्वरूप देखै. __ "छउमच्छाणं देसण पूर्व नाणं" इति सूत्रे उक्तं. यथा छद्मस्त नेआगल थी देखवो, पछै जाणवो,दर्शन ते सामान्यावबोध छै १. झात्वार रूप भास थाइ थोडो काल रही पछै ज्ञान मांहे मिले ते ज्ञान विशेषावबोध छै २.घणा काल रहै ते माटै,यथा गाथा “आत्म दर्शन जेणे कस्यो छै,तेणे मुध्यो भव भय कूपरे,"इम यसविजय जी ये पण कह्यो छै. यथा प्रवचन अंजण जो सदगुरु करै,तो देखै परम निधान जिणसर"एहवो लाभानंदजी ये पिण काछै. एरीते सम्यक् दृष्टी श्रात्म स्वरूपैं देखें पण साक्षात् करामलकवत असंख्यात प्रदेशी आत्मा अरूपी ते केवल दर्शन थई देखै. पण सम्यक् दृष्टी ते प्रतीतें अनुमान अनुभवै स्वरूपै देखै. इम कहे ए जिन वचननी प्रतीतें द्रव्य, स्वरूप दीठो. अनुमानै ते चेतना Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ रत्नसार ॥ लक्षण जे गुण प्रत्यक्ष दीठो, अनुभवे ते प्रणमन पर्याय रूपै दीठो, स्वरूपै ते अभेद रत्नत्रयात्मक निज पद कंद दीठो. ए रीतें आत्म स्वरूप नो छद्मस्त सम्यक् दृष्टी ने देखवो कहिये छै. अमारै चिंते तो शास्त्रोक्त रीतें पोतानी बुद्धि मांहे एहवो भासै छै. ते केवली व ते सत्य. जे कोई प्राणी सम्यक्त दृष्टी ने आत्म दर्श नथी मानता, श्रद्धा भासन मानै 0 ते ऊपर एटली चर्चा लिखी छै. ए मांही जे. कोई जिन वचन विरुद्ध स्वमत कल्पित होइ तो मिच्छामि दुक्कडं. ___ ७५. जोग ३ तीन ते साधु ने छै, रत्नत्रय रूपै प्रणमै छै ते किम ? ते पिच्योत्तरमो प्रश्न कहै छैःमनयोग तो दर्शन श्रद्धान रूपे छै, जे वस्तु ना निर्धार थी चलै नहीं १. तथा वचनयोग तो ज्ञान भणबो, यथार्थ उपदेश सत्य प्ररूपणा ज्ञान रूपै प्रणमै छै २. तथा काययोग तो षट् काय नी दया रूपै प्रवत्तै छै ३. (जयं चरे जयं चिठे) इत्यादि. इम मुनि ना ३ तीन योग ते रत्न त्रय रूप प्रणम्या छै. Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ रत्नसार ॥ ____ तथा ए रत्नत्रय धर्म थी जन्म जरा मरण ना भय टालै छ, ते किम ? सम्यक् दर्शन थी घणा जन्म मिटाव्या, सम्यक् ज्ञान थी जरा दुःख जे वेदना ते मिटावी. तथा सम्यक् चारित्र गुणै मरण भय टलै. इम ३ तीन गुणै जन्म जरा मरण भय मिटै. ए भाव. ७६. हिवै प्रमाण ४ चार ते जीव ने किम भोग पडै ते लिहोत्तरमो प्रश्नः- तथा ते प्रमाण च्यारजे रीते आत्मा ने भोग पड़े छै तेहनी विगत लिखिये छै. प्रथम तो आगम प्रमाणै षट् द्रव्य षट काय ना स्वरूपै जे वीतरामै भाष्या वचन प्रमाणे तहकीक करी मानवा, इहां संदेह तथा युक्तायुक्त न करवी. इम जीवाजीव ना स्वरूप श्रागम प्रमाणे प्रमाण तहत करी मानवा.ते मानता आत्मा ने प्रतीते सम्यक् धर्म नी पुष्टि थाई १. बीजं अनुमान प्रमाणे लक्ष्य लक्षणे निरधार थाई. यथा धूम दीठो अग्नि नो निर्झर थयो, तिम चेतना लक्षण अनुमानै करी लक्ष्य जो आत्मा तेह नो निर्धार थयो. इहां आत्मा ने वस्तुगते अनुभवीने वस्तु ना गुण गुणी Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ रत्नसार ॥ (५१) नो अंशे प्रत्यक्ष थाइ २. हिवै त्रीजो उपमा प्रमाण, तिहां वस्तु ना अंशधर्मनें परिपूर्ण पदवी नी उपमा केहवी, जिम आज ने कालै सम्यक्त पाम्यो ते जाणी ई. केवल पाम्यो,यथोक्तं समुद्रवत, इम ओपमा प्रमाण कहींई. इम मानता आत्मा ने विनय गुण नी पुष्टी थाई ३.. चोथो प्रत्यक्ष प्रमाण.. जेहवो जिनेश्वर कह्यो तेहवो इहां पुण्य पाप ना फल प्रक्षत्य देखिये कै ते प्रत्यक्ष प्रमाणै छै. इम मानता आत्मा ने भव वैरागता गुणनी पुष्टि थाइ, विषय कषाय थकी निवः ४. एवी रीते ४ च्यार प्रमाणे आत्मा ने गुण नीपजै. ए भाव. ___७७. हिवै तीन कर्म नो. सित्योत्तरमो प्रश्नःते कर्म ३ कह्या. एक तो द्रव्य कर्म ते आठ कर्म नी वर्गणा रूप छै १. तथा भावतै अशुद्धोपयोग विभाव रूप ते भाव कर्म २. तथा नोकर्म ते उदारिकादि पांच शरीर द्रव्य कर्म ने समीप रया माटै शरीर में पण नोकर्म कहिये ३. तथा तीन जाति ना कर्म रोग छै. तेह ना वैद्य जिनराज तथा गणधरादिक मुनि छै. तेहुनी Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ रनसार ॥ पण३तीन प्रकार नी देसना पापै छै.यथार्थ वाद १ विधि वाद २ चरितानुवाद ३ ए तीन प्रकार नी देसना ने मध्ये यथार्थ वाद देसना जीव अजीव नां स्वरूप धारया, प्रणम्यां थकी वस्तु तत्वनो प्रकाश थाइ तिणे भाव कर्म रोग मिटै १. तथा विधि वाद देसना महा वृत देस विरत ते रूप क्रिया शुभोपयोगै आचरतो द्रव्य कर्म रोग मिटै, कर्म नो काट उतरै२. तथा चरितानुवाद देसना थी शरीर संबंधी काम भोग विषय कषाय थी निवर्ती जिम जंबू स्वामी प्रमुख महा मुनि एहूना चरित्र भवै वैराग्य ना गुण प्रगटै, तेह थी नोकर्म नो रोग मिटै ३. इम तीन प्रकारनी देसना ते तीन प्रकार ना कर्म रोग मिटाववाना कारण. ए भाव. . ___७८. हिवै दर्शन, ज्ञान, चारित्र, वीर्य गुण ते कुण हेतु पमाड़े ते अठ्योत्तरमो प्रश्न कहै छैः-धर्म सांभलवो अभ्यास उद्यम एटली जेहनी रुचि होई ते सम्यक् दर्शन गुण ने पमाडे. तथा तत्वातत्वगवेषणा बुद्धि होय ते सम्यक् ज्ञान गुण ने पमाडै. तथा पांच Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ रत्नसार ॥ (५३) इंद्रिय ना विषय, ४ च्यार कषाय, पांच प्रमाद, तेहना त्याग बुद्धि होइ ते चारित्र गुण ने पमाड़े. तथा वस्तु गतै अनुभव लग्न तल्लय(तल्लीन)होय ते वीर्य गुण ने पमाडै. इम गुण ४च्यार ना हेतु धारवा. तथा एहीज गुण शरीर मध्ये जिहायै मुख्य तांई होय छै ते स्थानिक कहिये. दर्शन ते चक्षु, ज्ञान ते हृदय, चारित्र ते चरणे, तथा उछाह इच्छा वीर्य पाद होइ. एम ४ च्यार गुण स्थानिक समझ लेजो. ए भाव. ७९. हिवै हिंसा ना केतला भेद छै ते गुण्यासीमो प्रश्नः ते हिंसा केतली प्रकार नी छै तेहना भेद लिखिये छै. स्वरूप हिंसा १ अनुबंध हिंसा २द्रव्य हिंसा ३ भाव हिंसा ४ बाह्य हिंसा ५ परणाम हिंसा ६ जोग हिंसा ७ इत्यादिक घणा भेद छै ते मध्ये काईक नो अर्थ लिखिये छै. स्वरूप हिंसा ते साधु नें, तथा नदी उतरै छै पण मुख्य वर्ता हिंसाना परणाम नथी. तथा सम्यक् दृष्टी ने देवपूजा गुरुवंदणा साधुने आहार आपै तिहां इत्यादि कार्य स्वरूप हिंसासारखी दीसै छै, Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५४) . ॥ रत्नसार ॥ पण अल्प बंध रूप छै, ते माटे स्वरूप हिंसा कहिये १. बीजी अनुबंध हिंसा ते राग द्वेष सहित जे प्रणमीने जे कोई मंदबुद्धि प्राणी छः कायना जीव ने हर्णै तेहवा तरतम अध्यवसाय महा कर्म ना बंध करै. तेहना अशुभ विपाकै उदय श्रावै ते अनुबंध हिंसा कहीइ २. वली एह ना भेद मध्ये द्रव्य हिंसा आवै तेह नो किंचित् अर्थ लिखिये छै. द्रव्य हिंसा अणा उपयोगै ३. भाव हिंसा तीब्र प्रणामै होई ४. बाह्यहिंसा ५ तथा योग हिंसा ६ तथा एटली स्वरूप हिंसा मांहि भिलै. तथा प्रणाम हिंसा ७ ते भाव हिंसा मांहि भिलै. इत्यादिक समझ लीजो. तथा एकही जीव ने हिंसा अल्प पण फल कालै दुःख विशेष पामै तेणे करी श्रद्धान विपरीत पणे दुःख घणो पामशे,जमाली नी परें.तथा एक जीव ते हिंसा घणी करै छ,पण फल कालै अल्प दुःख पामै ते शेण,दुष्टाध्यवसाय ने अभावै. उदय आव्यां ते निःफल करै दृढ प्रहारनी परै. इत्यादि चौभंगीओ अहिंसा अष्टक ग्रंथ मध्ये विस्तारै कयूं ते तथा ( एकस्याल्प Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ ॥ रत्नसार ॥ (५५) हिंसा ददाति काले तथा फलमनल्पं । अन्यस्य महा हिंसा स्वल्प फला भवति परिपाके॥॥) इत्यादि ८ गाथा छै तिहां थी जोज्यो. इति. श्री हरिभद्रसूरी कृत हिंसाष्टक मध्ये छै. ८०. हिवै शास्त्र मध्ये ३ तीन योग कह्या छै ते अस्सीमो प्रश्नः-इच्छा योग १ शास्त्र योगर सामर्थ्य योग ३.ते मध्ये इच्छा योग ते दस प्रकारे यतीधर्म कह्याते आदर वानी इच्छा १.शास्त्रयोग ते शास्त्रे जे, हेय, ज्ञेय, उपादेय, तीन प्रकार कह्या छै ते मध्ये कह्य छै-जे उपादेय वस्तु कही ते आदरै ते बीजो योग२. तिवार पछी त्रीजो सामर्थ्य योग ते कोई आत्मा ज्ञाने वैराग्य बल नी समर्थ ताइ करीने अनन्त काल भोगववा योग जे कर्म ते थोड़ा काल मध्ये क्षय करै. यथा गज सुकुमाल नी परै ३. योग नो व्याख्यान योगदृष्टी समुच्चय ग्रन्थ मध्ये कह्यु छै तेथी जाणवो. इति. ८१. हिवैद्रव्य, गुण,पर्याय जे विकारै विगड्या Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ रत्नसार ॥ लै ते कहै छै ते इक्यासीमो प्रश्नः-द्रव्य विकार थयो ते कर्म प्रकृति आवरणै १.गुण विकारते राग द्वेष विभावनाई२.पर्याय विकारथयोते मनोयोगकल्पनाइ३. ए भाव. ८२.हिवै मति श्रुत ज्ञानी तथा अज्ञानी जिन वाणी सांभले ते शी रीते प्रणमै ते बियासीमो प्रश्नः-मति अज्ञानी जे जिनवाणी सांभलै ते विकल्प रूपै तथा डामाडोलपणै प्रणमै तथा मति ज्ञानी जे जिनवाणी सांभलै ते निर्विकल्पपणै तथा निरधारता रूपै प्रणमै. तथा श्रुत अज्ञानी जे जिनवाणी सांभलै ते विषय रूप तथा नास्तिक रूप प्रणमै. तथा श्रुत ज्ञानी जे जिनवाणी सांभलै ते वैराग्य रूपै तथा आस्तिकपणे प्रणमै. एटले सम्यक् दृष्टी ते जिनवाणी सांभलवाना अधिकारी जाणवा. ए भाव. ८३. हिवै जीव कर्म सुं किम मिल्यो छै ? ते त्रियासीभो प्रश्नः ते द्रव्यार्थिक नयै श्रात्मा कर्म Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ रत्नसार ॥ (५७) सु तुंबडी ऊपरे माटीना पड होई तिम तुंबी मृत्तिका नी परे मिल्यो छै. एह ना प्रदेश मांहि कोई कर्मवर्गणा एकी भाव नथी थई. तथा पर्यायार्थिक नयै श्रात्मा कर्म सु क्षिरनीर नि परै एकरूपै लौलीभूत थयो. तिहां चतुर्गति भ्रमण करै छै. ए भाव. ८४. हिवै पांच इंद्रिय नी सोल संज्ञा होई ते चौरासीमो प्रश्न लिखिये छैः--आहार संज्ञा १ भय संज्ञा २ मैथुन संज्ञा३ परिग्रह संज्ञा ४ क्रोध संज्ञा ५ मान संज्ञा ६माया संज्ञा लोभ संज्ञा ८ सुख संज्ञा ६ दुःख संज्ञा १० मोह संज्ञा ११ वीत गच्छा संज्ञा १२ शोक संज्ञा १३ धर्म संज्ञा १४ ओघ संज्ञा १५ लोक संज्ञा १६ ए मांहिली पहली १० संज्ञा ते एकेंद्री नें, बीजी संज्ञा बेंद्रियादिक ने १५ पंदर होइ. अने १६ संज्ञा पंचेंद्री सम्यक् दृष्टी ने होइ. ए भाव. . ८५. हिवै सोले संज्ञा जीव केह ने होइ ते पिचासीमो प्रश्नः- केतलाइ दोष जेह में मुख्यताई Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५८) || रत्नसार ॥ होई ते कहै है. क्रोध ते रजपूत ने घणो होइ. मान ते क्षत्री ने घणो. माया ते गणिका तथा वणिक ने घणी. लोभ ते ब्राह्मण ने घणो. राग ते हितु मित्र ने घणो. खेद तथा द्वेष ते शोकी नें घणो होइ. अने शोक ते जुचारी नें घणो होइ. चिन्ता ते चोर नी माता नें घणी होय. भय ते कायर ने घणो होय. इत्यादिक बोल घणा छै ते विशेषाविशेष जाणवा. इति. ८६. हिवै धर्म कर्म किम होइ ते कहै छै ते छियासीमो प्रश्नः - धर्म ते श्रात्म भावै शुद्धोपयोगे होइ. अने कर्म ते अशुद्धोपयोग तथा शुभाशुभ भावै भवितव्यताइ थाइ, कर्म ते करणीयइ थाइ जेहवी क्रिया तेहवा कर्म, अने धर्म ते अक्रिय रूप होइ. जेहवो शुद्धोपयोगै वृद्धवंत होइ तेहवो धर्म वृद्धवंत होइ. ए भाव. ८७. हिवै श्री जिन ना ४ च्यार निक्षेपा तेहनो स्थानक शरीर मांहि कहां छै ते सित्यासीमो प्रश्न ते Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ रत्नसार ॥ (५९) कहै छैः-नाम जिन नो थानक छै ते जिव्हाग्रे छै. थापना जिन नो थानक चक्षु मांहि है. द्रव्य जिन नो थानक जिन वचन थी, एटले एहनो थानक मनोयोग छै. जे माटै श्रद्धान ते मनोयोग श्रद्धान मध्ये छै. भाव जिन ना थानक हृदय मांहि होय. ए निक्षेपा ना थानक जाणवा. ८८. हिवै पांचेंद्री शेणे भरी छै ते इठ्यासीमो प्रश्नः- द्रव्येंद्री आकार ते मल मूत्र रक्त मांसादि अशुभ पुद्गले भरी छै. अने भावेंद्री ते राग द्वेष विकारें भरी छै. ८९.हिवै ४ च्यार संज्ञानो नव्यासीमो प्रश्नःते ४ च्यार संज्ञानो परमार्थ कहै छै. हिवै तिहां आहार संज्ञाइ तो जीव अनादि नो खातोज रहै छै, कदापि तृप्ति नथी पाम्यो १. अने भय संज्ञा ए ४ च्यारे गति मांहि धूजतोज रहै छै २. अने मैथुन संज्ञाइ पांचेंद्री ना विषयाभिलाषी थको रहै छै३. परिग्रह संज्ञाइ एकठो Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ रत्नसार ॥ करै छै, तिणै करि जीव कषाय छै ४. ए ४ च्यार संज्ञा मध्ये एक पहली वेदनी कर्म ना घर माहेनी छै. अने ३तीन संज्ञा पाछली ते मोहनी कर्म मांहेली छै. तथा आहार संज्ञाइ शरीर परीरै हिंसा इम आहार संज्ञाइ हिंसा ना कर्म घणा बंधाइ तेह थी असाात वेदनी पूर पामै छै. तथा भय संज्ञाइ कल्पना नां कर्म नो योगै व्यक्ताव्यक्तरूप कर्म बंधाइ छ, तथा मैथुन संज्ञाइ पंचेंद्री ना विषय ना कर्म घणा, तथा परिग्रह संज्ञाइं कषाय ना कर्म तीब्र बंधाइ छै. इम ४ च्यार तीब्र भावै जे जीव ने प्रकर्ते ते अधोगति जाइ–संसार मध्ये जन्म मरण घणा करै. ए भाव. - तथा वली ए ४च्यार संज्ञा बीजी प्रकारे कहै छै. आहार शरीर थी हिंसा ते हिंसाइ, दुःख ते दुःखै. आरत ध्यान ते भारत ध्यानै अनन्ता संसार वधै एटले आहार संज्ञा मांहि अनंतो संसार छै. तथा भय संज्ञाइ कल्पना घणी बधै. कल्पनाइ करी जीवने राग द्वेषपरणति वधै. तेणे करी आठ कर्म निवड बांध. तेथी४ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ || रत्नसार ॥ (६१) तथा च्यार गति मध्ये गमनागमन करै तथा मैथुन संज्ञाइ विषय सेवै ते पोताना रत्नत्रय गुणनें आवरे, ते जीव आत्मा कर्म नें, ए ४ च्यार गति मांहे असाता पामै. परिग्रह संज्ञाई करी कषाय नो कर्म घणो बांधै, तेणे करी संसार नी प्राप्ति घणी थाइ ए रीते ४ च्यार संज्ञाइ करी जीव संसार मांहे दुःख पामै छै. ए ४ च्यार संज्ञा मध्ये साधूजीइ बे २ संज्ञा तो छठै सातमै गुण स्थाने घटाडी. तथा त्रीजी संज्ञा तो नवमै गुण स्थाने गई. ने चौथी संज्ञा दसमै गुण स्थाने गई. ए ४ च्यार संज्ञानो भावार्थ जाणवो. अनादि निगोद थी जे ऊंचो व्यवहार रासी तथा पंचेंद्रीपणा सुधी पामै छै ते ए ४ च्यार संज्ञा नी मंदताई. तथा ए ४ च्यार नी तीव्रताई पाछो अधोगति जाई है. तथा जीव नें ज्ञान चारित्र बे गुण है, तथा दर्शन गुण ते ज्ञान गुण मध्ये अंतर्भूत है. सामान्यावबोध माटै ते मध्ये ज्ञान गुण नें मते छै. अने चारित्र गुण उपादान रूप छै ते माटे ए उपादान गुण नु ४ च्यार संज्ञानी मंदताइ जीव ऊंचो थाइ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६२) ॥ रत्नसार ॥ श्रावै छै. ए भाव. - ९०. हिवै सिद्ध ना जीव ने अनंता गुण छै ते सम रूपै छै कि विषम ते नेउमो प्रश्नः- तन्नोत्तरं-निरावर्ण आसरी सम गुण छै,पण आप आपणा गुण ना पर्याय धर्म आसरी विषम रूपै छै. ए भाव. ९१. सिद्ध नें जीव कहिये ते कुण हेतु ते इकाणुमो प्रश्नः- जीव तो प्राणै वते जीवै ते जीव, ते सिद्ध ने तो प्राण नथी. ते माटे सूत्र मध्ये ( सिद्धा जीवा ) का ते केम घटै ? तत्रोत्तरं-सिद्ध ने द्रव्य प्राण नथी. सिद्ध ते भाव प्राणै जीवै छै. ते माटे ( सिद्धा जीवा)कहिये ते भाव प्राणी कह्या.अनंत ज्ञान प्राण, १ अनन्त दर्शन प्राण २ अनन्त सुख प्राण ३अनन्त वीर्य प्राण ४ ए च्यार भावै प्राणी जीवे छै. ते माटे सिद्ध ने जीव कहिये. ए भाव प्राण आवरणे द्रव्य प्राण ते कर्म जनित कहिये ते किम ? स्वभाविक दर्शन प्राण ने आवरणे इंद्री प्राण नीपना. स्वभाविक ज्ञान प्राण आवरणे स्वासोवास प्राण नीपजै. स्वाभाविक Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ रत्नसार ॥ (६३) सुख प्राण ने आवरणे आउ (आयु) प्राण नीपन्यो. स्वभाविक अनंत बल वीर्य प्राण ने आवरणे मनोबल, वचन बल, काय बल, ए विभाविक प्राण नीपन्या. ए अधिकार अध्यात्मसार मध्ये का छै ए अर्थ. इति. ९२. हिवै आठ कर्म मध्ये लेश्यां किहा कर्म मध्ये छै ते बाणुमो प्रश्नः- ते लेश्या योग प्रत्यई छै अने योग ते नाम कर्म मध्ये छै.ते माटै लेश्या नाम कर्म मांहे कहै. ए भाव. ९३. हिवै वीस विहरमान जिन नं त्रांणंमो प्रश्नः-ते विहरमान तीर्थकर वर्तमान केवल ज्ञानपणै विचरै छै. तिहां केई बालक पणै,कोई राजावस्थाये होय. जिव्हारे जघन्य काले अढी द्वीप मांहि १६० एकसौ साठ विजे मांहि केतलाइक तीर्थकर होइ. १६८० एक हजार छःसौ अस्सी तीर्थंकर होइ ते किम?जघन्य काले वीस विहारमान छै ते एकेको तीर्थकर एक लक्ष पूर्वनो थाइ तिवारे बीजो तीर्थकर नो जन्म थाइ तथा गर्भ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६४) ॥ रत्नसार ॥ मांहि होइ. इम ८४ चौरासी लाख पूर्व नो आउखो. ते मध्ये ८३ तिरयासी तीर्थकर थाइ. इम ते ८३ ने बीस गुणा करे तिवारे १६६० एक हजार छःसौ साठ थाइ. वीस वधता मांहि भेलाइ तिवारे १६८० एक हजार छअसो अस्मी. तीर्थंकर उत्कृष्टं कालै १७० एक सो सीतर तीर्थकर वर्त्तता केवलपणे विचरै छै. तिवारे एकेक ना अवतार मांहे ८३ तीरयासी तीर्थकर ऊपने ते १६० एक सौ साठ गुणा कीजे तिवारे १३३४० तेरा हजार तीन सो चालीस थाइ. अने १७० एकसो सीतर वर्त्तता ते मांहि भेलाइ तिवारे १३५१ ० तेरा हजार पान सो दस एतला होइ. एतलुं आंच गच्छ नायके कयूं छै पिण अक्षर दीठे प्रमाण दीठो करिये ते कहै छै. जे विशेषाविशेषके का छै, जिम सांभल्यु तिम लिख्यु छ, पछै तो जिम केवल ज्ञानी प्रकाश्यो ते सत्य.-- (सत्तरिसय सुकोसिजं नयं । विस विहरमान जिना । समय खित्ते दसवा । जंम्पई वीसदस गंवा ॥१॥ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ रत्नसार ॥ विवरो ए गाथा तणो, केवलियो संभाल के सित्तरसौ जिनवर होई, कहै केई काल ॥१॥ चढतो काल ओसरपेणी, वारे आठम जिन । एकसो सित्तर१७०जिनवर हुवै,इण परिसुणो सजना२। पांच विदेह मेलवी, साठसौ विजे. उपन। भरतइरवत दस मिलै, सित्तर सौ होइ जिन ॥३॥ पडते काले अवसर्पणी, सोलम जिन लगे हुँत ।' भरतारेवत जिन हुवे, साठिसो १६०विदेहे लहंत॥४॥ केवली केई वाल परण्या, वयणे एहिंसोय । . आठमा जिन थी सोलमा लगे,विरह विदेहे न होय॥५॥ सोलमा जिन साथे सहु, मुगति जाइ जिन भाण । विरहि समै सहु क्षेत्र में, उरह एहा पिछाण ॥ ६ ॥ सत्तरमा जिन होय भरह ,पंच ऐरवत मिलने दस । समये क्षेत्रे दस कह्या,लेहवा एह अवस्स ॥७॥ सत्तरमा जिन अठारस्सा विचें, जन्मे वीस विदेह । Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६६) ॥ रत्नसार ॥ वीस एकवीसमा विचें, संयम केवल देह ॥ ८॥ भरता रेवत दस मिलै, मध्यम संपद तीस । चौबीसमा जिन शिव गया, विदेह विचरै बीस ॥९॥ आगत चौबीसे सातमा, आठमा विचे निरवाण । विरह पडै सहु क्षेत्र में,अठमन होइ जिन भाण ॥१०॥ अाठमाथी नथी वली, एम सितरकादिक थाइ । परंपराई पूर्व जिम कही, लेवी एम सदाय ॥ ११॥ दस बीस एकण समै, जिनवर जनम कहात । भरतइरावत दिन हुदै, पांच विदेहे रात ॥ १२ ॥ आगमै इम भाखियो, चवण जन्म अध रात । भरतेरावत जान होय, दिव विदेह विख्यात ॥ १३॥ त्रीस सिंहासन सहू, दोइ मेरु पांचे लाधे। दो दो पूरब पश्चिमे, एक दक्षिण उत्तर साधे॥१४॥ च्यार जन्मै विदेह प्रते, पांच मिली ने वीस । भरतेरावते दस होय, एक समय जन्म लहीस॥१५॥ वीस २जन्में विदेहे सही, साठसो विजये पुराय । लाख चोरासी पूर्वायुत, सधनुष पांचसै काय॥१६॥ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ रत्नसार ॥ चढते दोय पडते तीने, आरै धर्म कहाय । भरतैरावत ते सही, विदेही धरम सदाय ॥१७॥ परिवत्तिना काल भरहेर, वय लेखो इहाथी लेह । चोथो नित्य विदेह में, आणंद रुचि भणेह ॥१८॥ जिनवर ए नित्य समरतां, लहिये संपद कोडि। पंडित पुण्य रुचि गुरु, सीस कहै कर जोड़ि ॥१९॥ ९४. हिवै चक्रवर्ति ने १४ चउदा रत्न किहां ऊपजे ते चोराणुमो प्रश्नः-चक्र १ असि २ छत्र ३ अने डंड ४ ए चार रत्न आयुध शाला मांहे ऊपजै. तथा मणि रत्न १ कांगणी रत्न २ चर्म रत्न ३ निधि सिरि ग्रहे नीपजै. एवं ७ सात, पुरोहित रत्न १ वार्डिक रत्न २ सेनापति रत्न ३ गाथापति रत्न ४ ए ४ च्यार रत्न पोताना नगरै उपजै. एवं तिवार पछी स्त्री रत्न राज कुले नीपजै. गज रत्न १ अने अस्व रत्न २ वैताढ्य पर्वत ऊपर उपजै. ए १४ चउदा रत्न नी उत्पत्ति कही. ६५.हिवै नव निधान किहां प्रगटै ते पिचाणुमो Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ रत्नसार ॥ प्रश्न कहै छैः–ते मध्ये शी शी वस्तुछै? गंगा नदी ने तटें नव निधान नी नव पेटी प्रगटै, ते ते पेटी केवडी ? १२ बार जोयण श्रआयाम लांबी, नव जोयण पोहली विस्तारे, अई योजन नी ऊंची. ते जोयण आत्मागुल प्रमाण. ए नव निधि मजुस ने आकारै छै. वैडूर्य माण रत्नमय कमाड (किंवाड-कपाट ) है, तेहना नाम वस्तु कहिये छै- नै सपिक पहलू. ते मध्ये स्कंधावार नगर निवेस ए विध पहिले १ पांडुक . नामै बीजु. तिहां धान बीज नी सर्व संपति २. पिंगल नामै त्रीजं. ते मध्ये नर नारी, हय गय नां आभरण विध छै ३. चोथु महा पद्म नामै, ते मध्ये १४ चउदे जाति ना रत्न , ४. पांचमो मल्लि नामै विविध प्रकार ना वस्तु ते मध्ये छै ५.छठं काल नामै तेमां त्रिकाल ज्ञान ना पुस्तक छै ६.सातमुं महाकाल नामै. ते मध्ये सोनो रूपो मणि लोह सर्व द्रव्य अखूट छै ७.आठमो माणवक नामै, ते मध्ये राजनीति, युद्ध नीति, सर्व हथियार युद्ध नी नीति छै ८. Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ रत्नसार ॥ (६९) नोमो सुख नामै, ते मध्ये. चतुर्विध तुर्याना अंगना नारि नाटक नी विधि संगीत ना ग्रन्थ छै ९. एकेक निधाने एक हजार देवता अधिष्ठायक छै. व्यंतरीक देवता छै, तेह नो आयु एक पल्यापम नु, ए भाव. ९६. हिवै प्रभु जिहां पारणो करै तिहां केतली वृष्टि होइ ते छियाणमो प्रश्नः-ते ऊपर गाथा"श्रद्धे तेरस कोडि उक्कोसच्छ होइ वसुधारा । अद्ध तेरष लषा जंहं नेया होइ वसुधारा.” ९७. हिवै१४ चउद विद्या मोटी छै ते सत्याण मो प्रश्नः-ते विद्याना नाम लिखिये छै. प्रथम नभोगामिनी १.पर शरीर प्रवेसनी२.रूप परिवर्तनी३.स्तंभनी ४.मोहनी ५. स्वर्ण सिद्धि ६. रजत सिद्धि ७.रस सिद्धि ८.बंध मोक्षणी९.शत्रु परायणी १०.वश्य करणी ११. भूतादि दमनी १२.सर्व संपत्करी १३. शिवपदप्रापणी १४. ए १४ चउद मोटी विद्या जाणवी. ९८. हिवै पंच प्रस्थानै आत्मा ते पंच प्रस्थान Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ रत्नसार ॥ ते किहां ते अठ्याणमो प्रश्नः-अभय १ अकरण २ अहमेंद्र ३ कल्प ४ तुल्य ५, ए अवस्था साधवा सावधान छै. अभय ते अरिहंत नो ध्यान १. अकरण ते सिद्ध नो ध्यान२. अहमेंद्र ते आचार्य नो ध्यान ३. तुल्य ते उपाध्याय नो ध्यान ४. कल्प ते साधु नो ध्यान ५. ए समान अवस्थाइ ते पंच प्रस्थान मई श्राचार्य छैइ. ए भाव, अर्थ ध्यानमाला ग्रन्थे विस्तारै का छै. ९९. हिवै त्रीगँ गुणस्थान चढतां पडतां किम आवै ते नन्याणमो प्रश्नः-तत्रोत्तरं-चढतां पडतांबे प्रकारै श्रावै ते किम ? अनादि मिथ्यात्वी होइ तेह ने चढता नावै. ते प्रथम पहलां थी उपशम सम्यक्त पामै. गंठीभेद करै ते चोथे श्रावै. ते माटे अनादि मिथ्यात्वी ते पहिला थी चोथै आवै. ते माटे मिश्र गुण स्थानै नावै. तथा सादि मिथ्यात्वी सम्यक्त पामी ने पड्यो होइ ते पाछे क्षयोपशम सम्यक्त पामै, ते तीजुं गुण स्थानकै आवै तेह ने पडतांइ पण आवै. एभाव इति. Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ रत्नसार ॥ (७१) हिवै समोहिया असमाहिया मरण तेह नो अर्थ सूत्रे छै ते एकसोमो प्रश्न लिखिये है: - समोहिया ते श्युं ? जे इहां थी जीव निकलै, समकालै सर्वे प्रदेश लेइनें पर भव जाइ; जिम दडो छूटो नाखै तो दड़ाना प्रदेश साथै जाय, तें समोहिया मृत्यु कहिये १. अने असमोहि मरणै तो जीव ना प्रदेश श्रेणी बंध जाइ आगल थी मोकलै. अथवा जीव निकल्यां पछी पछवाडै जाइ मिलै. श्रेणीगत जाइ पडाइ ना दोड नी परें. ए रीते सूत्र छै. ए भाव. १०१. जीव ने उपयोग गुण ते सम्यक्त, अने ठरण गुण ते चारित्र ते आचारवा ने कुण बलवत्तर छै ते एकसौ पेलो प्रश्नः - जेहवो आत्मा नो उपयोग वस्तु आत्म जीवन गुण आवरवानें मिथ्यात्व बलवत्तर है. तिम एह नी प्रणमन सुख निवारवानें अविरत्यादि हेतु बलवत्तर छै. ते माटै मिध्यात्व नें उदै सम्यक्त गुण न पामै. अविरत नें उदै चारित्र गुण स्थान रूप न पामै. ते माटे एह नी प्रणमन उपयोग एकाग्र रूपै प्रणमै Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७२) ॥ रत्नसार ॥ तिवारे ए सुख रूप ज्ञान चारित्र मई संपूर्ण धर्म पाम्या. ए भाव. १०२. हिवै ३ तीन प्रकार ना कर्म किम छै ते एकसौ बीजुं प्रश्न:-ते कर्म नी वर्गणा छै ते द्रव्य कर्म कहिये. अने ते वर्गणा जिवारे पांच शरीर पणै प्रणमै तिवारे तेह ने नोकर्म कहिये. अशुद्धोपयोग ना राग द्वेष मोह परिणाम ते भाव कर्म. ए भाव. १०३. हिवै एक पद ना श्लोक नी संख्या केतली ते एकसौ त्रीजुं प्रश्नः-द्वादश्चैव कोट्यो लक्षा एयसीति अधिकानि श्चैव । पंचाशदष्टोच सहस्रसं ॥ अठेव ८ सह सचुलसिहि८४ सय १००छक्क साढा ५० एक वीस पयगं थार ॥ एतली एक पदना श्लोक नी संख्या जाणवी ए भाव. १.४. हिवै १४ चउद पूर्व ना जेतला पद छै ते जुदार लिखिये छै ते एकसौ चोथु प्रश्नः-तिहां प्रथम उत्पाद पूर्व ना ११ कोडि पद छै १. बीजुं Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ रत्नसार ॥ (७३) आग्रायणीयतेहना पूर्व ९६छनु लाख पद छै २.तीजो वीर्यापवाद पूर्व, तेहना ७० लाख पद छै३चोथु अस्तिनास्ति प्रवाद पूर्व ना ६० लाख पद छै ४. पांचमुं ज्ञान प्रवाद पूर्व, तेह ना ३६ कोडि पद छै ५. छंठो सत्य प्रवाद पूर्व, तेह ना १ एक कोडि६० साठ लाख पद छै६.सातमो आत्म प्रवाद पूर्व,३६छत्रीस कोडि पद छै ७. आठमो कर्म प्रवाद पूर्व, तेह ना एक कोडि ८ आठ लाख पद छै ८. नवमो प्रत्याख्यान प्रवाद पूर्व, तेह ना ८४ चोरासी लाख पद ? ९. दसमो विद्याप्रवाद पूर्व, तेहना ११ ग्यारे कोडि १५ पन्दरा हजार पद छै १०. इग्यारमो कल्याण प्रवाद पूर्व, तेहना ६२ बासठ कोडि पद छै ११. बारमो प्राणवायु पूर्व,१.एक कोडि ५६ छपन लाख पद नो छै १२. तेरमो क्रिया विशाली पूर्व, ९ नव कोडि पद नो छै १३. चउदमो लोकविंदुसार पूर्व, तेहना १३ तेरा कोडि ५० पचास लाख पद छै १४. एक पदना ५१८८८४० अक्षर।। एक पद नी संख्या जाणवी. अनुयोग द्वारवत्तौं संपूर्ण. Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७४) ॥ रत्नसार ॥ १०५. हिवै बीजा गुण स्थानै (सास्वादन ) जिन नाम कर्म सत्ताइ किम न होय ते एकसौ पांचमों प्रश्न है: - ते कर्म ग्रंथ नी अवचूरी मध्ये कयूं छैः यथा (सत्ते अड्यालसयं जाव उवसमुवि जिणुं वयातइय) अस्यार्थः । सत्ताइ कर्मनी प्रकृति १४८, एकसौ अड़तालीस मिथ्यात्व गुणस्थान थी मांडी यावत् इग्यारमा सुधी होइ. पण बीजै त्रीजे गुण स्थाने जिन नाम कर्म बिना १४७ एकसो सैंतालीस प्रकृति सत्ताइ होय ते किम? तेंह ना अभिप्राय कहै छै. चोथे गुण स्थाने क्षयोपशम सम्यक्त छै ते जिन नाम कर्म बांधै ते बांधी ने पाछो पड़े समकित वमै तो ते पहिले गुण स्थानकै आवै, पण बीजे त्रीजै गुण स्थानै नावै. ते माटै मिध्यात्व गुण स्थाने जिहां सुधी उपशम समकित होइ, तिहां सुधी जिन नाम न बांधै. स्तोक काल माटै क्षयोपशम तथा नायक समकित छै ते बांधै . ते पाछौ वमैं ते क्षयोपशम समकित पडतो जिन नाम कर्म बंध वालो पहिले गुण स्थान श्रावै, पण बीजै तीजै नावै. तिहां १४८ कसो Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ || रत्नसार ॥ (७५) · अडतालीस प्रकृति सत्ताई होय. तथा उपशम समकित वालो जिन नाम कर्म नथी बांध्युं ते पडते त्रीजे गुण स्थान तथा बजै आवै अने उपशम भावै तो जिन नाम कर्म नो बंध नहीं. ते माटे बीजै त्रीजै गुण स्थानै सत्ताइ १४७ एकसो सैंतालीस प्रकृति होइ. तथा उपशम समकित च्यार वार आवै, भव मांहि ४ च्यारवार तो उपशम श्रेणी चढतां श्रावै. वली पाछो पड़ै एक वार, ते उपशम समकित पामतां गंठी भेद थाइ. ते समै आवै तथा पांचमी वार आवै ते पाछो पडी आठ मैं गुण स्थानै आवी में पछै क्षपक श्रेणीक मांडी केवल ज्ञान पांमी सिद्धि वरें. ए भाव. १ ० ६.हिंवै क्षयोपशम समकितनुं लक्षण कहै है ते एकसौ छः मो प्रश्नः - ३ तीन मोहनी, ४ च्यार अन्तानुबंधी नी चोकड़ी, ए सात प्रकृति मांहि थी मिथ्या (मोहनी) ३ अने ४ अन्तानुबंधी चौकड़ी ए ७ सात प्रकृति मांहि थी जे कांइक दलिया छै, वर्गणा छै, ते मांहि थी जेतली वर्गणा ना दलिया ते प्रकृति ना उदै Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७६) ॥ रत्नसार || आवै ते खपावे. अने बाकी रह्या तेह नो उपशम करै — उपशमात्रै तेह नो नाम क्षयोपशम कहिये. ते क्षयोपशम समकित ना भेद लिखिये है. ॥ दोहा ॥ च्यार खपहिं त्रय उपशमहिं, पंच खय उपशम दोय । षय पट उपशम एक यों, क्षय उपशम त्रिक होय ॥ १ ॥ एह नो भावार्थ लिखिये छै. सात प्रकृति मध्ये ४ च्यार चारित्र मोहनी नी छै, ३ तीन प्रकृति मिथ्यात्व मोहनी नी छै. ते मध्ये ६ छः पहली ते ० वाघण ( वाघिनी ) जेवी छै. एक सम्यक्त मोहनी ते कुतरी ( कुतिया ) सरीखी है. तेह नो विवरो, ए सात प्रकृति जिहां उपशमै तिहां उपशम सम्यक्त कहिये. ए ७ साते प्रकृति सत्ता मांहि थी चय करै तिहां चायक समकित. ए सात मांहिली कांईक खपै, कांई क उपशमै तिहां क्षयोपशम समकित कहिये. Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७७) || रत्नसार ॥ ॥ दोहा ॥ क्षयोपशम वरतें त्रिविध, वेदक च्यार प्रकार | चायक उपशम युगल जुत, नोधा समकित धार॥ १ ॥ क्षयोपशम समकित ३ तीन प्रकार नो, वेदक समकित ४ च्यार प्रकार नो, नायक समकित एक प्रकार नो, उपशम समकित एक प्रकार नो. एह नी विगत - जिहां ए सात मांहि नी ४ च्यार च श्रने २ बे उपशमै, अने १ एक वेदै ते प्रथम भेद १ . तथा ए सात मांहिली ५ पांच खपै, १ एक उपशमै, १ वेदै ते क्षयोपशम समकित नो बीजो भेद २. ए बे प्रकारे क्षयोपशम वेदक कहूं. तथा तीन प्रकार नुं क्षयोपशम समकित कहूं, एतले पांच प्रकार कह्या. ४ च्यार चयो - पशम नो, तथा ४ च्यार क्षपै ३ तीन उपशमै ते क्षयोपशम सम्यक्त १. अथवा ५ पांच चपै २ दो उपशमावै ते पिण क्षयोपशम समकित २. अथवा ६ छै क्ष ने एक उपशमावै ते पिण क्षयोपशम समकित ३. ए तीन प्रकार करी क्षयोपशम समकित कहिये. Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७८) ॥ रत्नसार ॥ हिवै क्षायिक वेदक नो एक भेद. ते किम ? ते छः प्रकृति खपा ने एक वेदै ते चायिक वेदक कहिये. तथा छः उपशमात्रै अने एक वेदै ते उपशम वेदक कहिये. इम तीन प्रकार नो क्षयोपशम समकित, बे प्रकार नो क्षयोपशम वेदक, एक प्रकारे नायक वेदक, एक प्रकारे उपशम वेदक, एवं ७ सात तथा एक क्षायक जे साते क्षय जाय, एवं ८ आठ तथा एक उपशम जे सातै उपशमावै, एवं ९नव प्रकारे समकित ना विवरीनें नव भेद छट्ठा पूर्व मध्ये कया है. तेहनी ए आम्नाय. • १०७. हिवै मोहनी ना लक्षण कहै छै ते एकसौ सातमो प्रश्नः - मिथ्यात्व मोहनी ते श्युं ? ते विभ्रम पणै युक्त श्रात्मस्वरूप विपरीत जाणै जिम सीप ने रूपो कहै.ते १. मिश्रमोहनी ते विभ्रम पणै संदेह युक्त अनिर्द्धारपणे जाणे पण श्रात्म ज्ञान प्रर्ते पामवा नादे २. सम्यक्त मोहनी ते समी वस्तु ऊपर मोह उपजावैम्हारा देव, म्हारा गुरु तथा जिनवचन मध्ये संका Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ रत्नसार ॥ (७९) कंखा उपज्या ते लक्षण समकित मोहनी -३.तथा अनंतो छै अनुबंध कर्म विपाक रस ते अनंतानुबंधिया कहिये. ए भाव. १०८. हिवै सापेक्ष निरपेक्ष नो अर्थ कहै छै ते एकसौपाठमो प्रश्नः-सापेक्ष ते सदय परिणाम ते हलै बलद (बैल) खेड़ता कोई अपेक्षा आसरी उतावल करै, पण कोई नी अपेक्षा विना निर्दयपणे कार्य न करै, कार्य पडे पण दया राखे, ते सापेक्ष कहिये. अने निर्पक्ष ते निर्दयपणे थई कार्य करै. कार्य विना पण ताडना तर्जना करै ते निर्पक्ष कहिये. ए भाव. १०९. हिवै सम्यकदृष्टि - एकसौनवमो प्रश्न कहै छैः-सम थयुते, निमित मांहि तो पुण्य पापना उदयनुं सम थयु, जे आवै हर्ष नहीं, पापनें उदै गये खेद नहीं. तथा सम्यक् दृष्टी ने श्युं दृष्टि मध्ये सम? ते उपादान मांहि ते राग द्वेष धारा नो सम थयां निमित मांहि तो पुण्य पाप ना उदय नो सम्य थाय Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ रत्नसार ॥ जे आवे हर्ष नहीं, पाप ने उदै गये खेद नहीं. एहवी जेहनी दृष्टि ते समदृष्टि कहिये. एटले समदृष्टि ए बे पद नो उपादान निमित्त देखाइयो, ए भाव. ११०. हिवै ४ च्यार निक्षेपा जिनना तेह नी द्रव्य भाव थी भक्ति शी रीते करवी ते एकसौदसमो प्रश्नः-प्रथम पवित्रता पणे एकाग्र चित्ते असातना टाली जिन नो नाम जपिये ते नाम जिन नी भक्ति १. तथा थापना जिननी अष्ट प्रकारी तथा सतर भेदी विधि सुं करै. पछै भाव पूजा तन्मय थई प्रणमै ते थापना जिन नी भक्ति २.तथा द्रव्य जिनते जिनना जीव तेह ने विर्षे तेह ने भावै, जिन ना जीव जाणीने भाव सुं वंदणा करवी ते द्रव्य जिन नी भक्ति ३. तथा भाव जिन ते गडै बैठा, समोसरणे घणाएक जीव ने प्रतिबोध आपता एहवा जे आज श्री सीमंधर स्वामी तेह ने वंदणा, नमस्कार, गुण स्तुति इत्यादि करी ए तन्मय थई भावी जिन ने ए रीते भक्ति करै४.ए निक्षेप४ च्यार नी भक्ति नी रीते समन हृदय थी लिस्युं छै. ए भावं. Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ रत्नसार ॥ (८१) १११. हिवै जीव ने देवू अने दरिद्रपणो किम टलै ते एकसौ ग्यारमो प्रश्न-जीव अनादिकाल नो रागद्वेष मोहै प्रणमै छै तेणे देवो ने दरिद्रपणुं ए बे वर्धे छै. ते किम टलै ? समकित गुण पामै, रत्नत्रय धर्मे पामे टलै. ते किम ? ते दर्शन गुण प्रगटे द्वेष भाव जीवइ समभाव प्रगटै, ज्ञानगुण प्रगटै पुद्गलादि ऊपर राग भाव मिटीजे, वैराग्य गुण प्रगटै. चारित्र गुण प्रगटै, मोहनों दरिद्र जाइ,चरण ठरण गुण प्रगटै, इम ए गुण प्रगटै, ए दरिद्र जाइ. तथा ए देवो करज (ऋण) टलै ते किम् ? दर्शन गुण जन्म भवनी परंपराइ मिटै.ज्ञान गुणै तो जरा नी वेदना मिटै.चारित्र गुणै मरण भय मिटै, एतले अमर पद पामी सिद्धीवरें. इम दर्शन गुण ज्ञान चारित्र गुणै प्रगटै जन्म जरामरण ना भय ढलै. जिम एक नर लक्ष्मी धन प्रचुर पामै, दारिद्रपणुं अने देवू ए बे टले, तिम रत्नत्रय रूपै धर्म धन प्रगटै. राग द्वेष मोह रूप दरिद्रपणुं जाइ. अने जन्म जरा मरण रूप देवा ना भय टलै. ए भाव. Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ रत्नसार ॥ - ११२. हिवै ६ छः प्रकारे आत्मा घणा कर्म बांधै ते एकसौ बारमो प्रश्नः-तथा राग द्वेष२ श्रार्त्त३ रुद्र ध्यान ४ अने विषय ५ कषाय६ ए छ:-प्रकारे आत्मा घणा कर्म बांधइ छइ, ते किम ? राग द्वेष ते जीव ना परणाम मांहि वत्तै छै,तेणे करी कर्म बंध्या ते उदय आवै त्यारे, आर्त रुद्र ध्यान जेते थी इयुं करै ? विषय कषाय सेवै. तेणे वली घणा कर्म बंधाइ तेथी भव नी परंपरा संसारी जीव ने टलै नहीं. ए मूल मंत्र बीज जाणवो. ए भाव. - ... ११३. हिवै सम्यकदृष्टी एहवो जे शब्द तेह नों श्यो अर्थ ते एकसौ तेरमो प्रश्नः-सम्यक् दृष्टी नो शब्दार्थ ते पूर्वोक्त जाणवो. सम्यकदृष्टी कहिये ते शब्द नो अर्थ-सम्यक् कहतां यथार्थ, दृष्टी कहता श्रद्धान कहिये. सम्यक् ज्ञान ते यथार्थ जाणवो. सम्यक् चारित्र ते यथार्थ आचरवो. ए सम्यक् नो अर्थ. तथा उदे आव्युं ते सहवो अने स्वरूपे जोवू ए लक्षण सम्यक् दृष्टी श्रावक साधु ना जाणवा. ए भाव. Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ रत्नसार ॥ १११. हिवै गुणग्राही, गुणगवेषी ते श्यु ? ते एकसो चवदमो प्रश्नः-यथा गुणग्राही, गुणगवेषी, साह्य ( सहाय )कारी, विनई, सेवाकारी, एहवा श्रावक तथा शिष्य गुरु ने मिलवा दुर्लभ. तथा गुणग्राही ते श्युं ? जे गुरु पासे सूत्र सिद्धान्त सांभलीने घणी प्रशंसा करै,कीर्ति करै, पर गुरु ना कोई उदयीक भाव ना अवगुण देखी ने तिहां द्वेष न ऊपजै. श्या माटै ? जे खेद ऊपजै तो भक्ति नो मन विनय गुण थी भागी जाइ. ए भाव. गुणगवेषी ते इयुं ? गुणगवेषी ते गुरु माहिं एके उपकार - गुण होइ ते जोई पिण विनय चूकै नहीं, अवगुण दृष्टी मांहि नावै. तथा साह्यकारी ते गुरु ने अन्न पानादिक नी, वस्त्र औषधादिक नी घणी सहाय करै. पोतै गांठ थि खरचै, गांठ न होय तो कोई जोग्य जीव पासे थी लावीने गुरु नी सहाय करै, तथा सेवा करी पोतानो जात थकी तन मन वचनें करी गुरु ने वेयावच करै, साता उपजावै. एहवा श्रावक तथा शिष्य पंचम काले मिलवा दुर्लभ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८४) ॥ रत्नसार ॥ छै. ए भाव. ११५. हिवै साताइ सुख, असाताइ दुःख ए माहि निमित्त उपादान कुण छै ते एकसौपदरमो प्रश्नःसाता,असाता, दुःख, सुक्ख,यो श्चायो विशेषः साता, ते अनुक्रमेण उदय प्राप्तीनां वेदनीय कर्म पुद्गलानां अनुभवरूप, तथा सुख दुःख ने परोदीर्यमान वेदनीय अनुभव रूप. साता असाता ते उपादान रूपै छै. साता असाता ते बेदनीय कर्म ना उदय पाम्या जे पुद्गल तेहर्नु वेदवू भोगवं, ते अशुद्ध उपादान रूप छै. अने सुख दुःख तेहना फल छ, तेहना फल उदेस्या?वेदनीय कर्म भोगवq. एतले निमित्त रूप थयो जो साता उपादाने, सुख निमित्ते साता तिहां सुख होइ. अने असाता उपादान, अने दुःख निमित्तै एतले असाता तिहां दु:ख एतले जिहां जेहवो वृक्ष तिहां तेहवो फल, ए भाव. . ११६. हिवै साता असाता आत्माश्रित छै. सुख दु:ख ते पुद्गलाश्रित छै. तथा वेदना २ बे प्रकार नी ते Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ रत्नसार ॥ एकसोसोलमो प्रश्नः-(वेयणा दुविहा अभुपगमीया उवकमीया. अभुपगम कीया स्वयं अभ्युपगम्यते वेदते यथा साधुव केश लुंचना तापानोदिभिवेदयंती उपनामकिंतु स्वयमुदीर्णस्योदीर्णा करणे न चउदयं उपनीतस्य वेद्यस्य अनुभव इत्यार्थः ॥) एह नो भावार्थ-एक वेदनी कर्म काल पाकी स्वभावै उदय आवै ते समभावें वेदी खपावै ते अभ्युपगामकी वेदना. अने एक उदीरणाइ करी उदय लावी ने वेदनी कर्म ना पुद्गल सम भाव वेदी खपावै ते उपक्रामकी वेदना जाणवी, ए भाव. ११७.हिवे जिन वचन स्याद वाद रूपैछै ते४ च्यार प्रकारै छै ते एकसौ सतरमो प्रश्नः-ते कारण कार्य रूपै छै १ ते निमित्त उपादान लीधइ २ द्रव्य भाव सहित छै ३. निश्चय व्यवहार नय युक्त छै ४. एहवा च्यार प्रकारै सहित होइ ते जिन धर्म देसना कही, ए भाव. __ ११८. हिवै बे परिसह शीत छे ते किहां ? ते एक सौ अठारमो प्रश्नः--आचारंगे तृतीयाऽध्येन Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८६) ॥ रत्नसार ॥ धुरेटिका मध्ये इम कहूं बै— जे २२ बावीस परिसह मध्ये २ बे परिसह शीत अने २० बीस परिसह उष्ण. ते बे किहां ? एक स्त्री परिसह १ बीजो सत्कार परिसह २. बाकी सर्व उष्ण परिसह है— मन ने तापकारी माटै उष्ण बै ए भाव. , ११९. हिवै बन्ध १ सत्तार उदय ३नें उदीरणा ४ ए च्यार मध्ये श्रात्माश्रित अने पुद्गलाश्रित केतला होते एकसौ उगणीसमो प्रश्न कहै छैः – उदय १ श्रने सत्ता २ एबे पुद्गलाश्रित छै, अने बंध १ उदीरणा २ एबे आत्माश्रित होइ, ए भाव. १ २ ० . हिवै आठ वर्गणा ना पुद्गल मध्ये थोडा घणा किहा ते एकसौ वीसमो प्रश्नः - आठ वर्गणा मांहि उदारिक वर्गणा मांहि थोड़ा १, तेथी वैक्रिया मांहि अनन्तगुणा २, तेथी आहारक मांहि घरणा ३, तेथी तेजस मांहि घणा ४, तेथी भाषा मांहि घणा ५, तेथी सासोसास ( श्वासोच्छास ) मांहि घणा ६, तेथी Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ रत्नसार ॥ (८७) मन ना पुद्गलघणा७,तेथी कार्मणानि वर्गणाना पुद्गल घणा ८. इति भाव. १२१. हिवै २२ बावीस परिसह ते किहा कर्म थी ऊपजै ते एकसो इकवीसमो प्रश्नः- ज्ञानावरणी थी २ बे, मोहनी ना ८. वेदनी ना ११, अंतराय नो १, ए च्यार कर्म थी ऊपजै. अत्र गाथा- (दसण मोहे दंसण १ परिसहो पन्नाणं २ पढमं मीचरिमेअलाभ परिसह सत्तेव ते चरित मोहनी १ अकोसे अरई इच्छि ३ नि सीहीया ४ चेला ५ जायणा ६ चेवसकार पुरसकोरोइकारस वेयणी जमि पंचेवं आणु पुवी ५ चरीया ६ सिद्ध, तहेव जलेय ८ वहं ९ रोग १० तणु फासा ११ से से सुनथि वियारो १२ ॥इति.) १२२. हिवै उपसर्ग परिसह नो अर्थ विचारवो ते एकसौ बावीसमो प्रश्नः-- उपसर्ग ते आत्मा कर्म जनित छै. उप ( कहतां) समीपे, सर्ग (कहतां) Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (06) || रत्नसार ॥ सर्जन जे उपसर्ग, ते माटे. तथा परिसह ते पर जनित है. पर ना निमित्त थी कह्या ते सहवुं -- परि समंतात् सह्यते. इति उपसर्ग परिसहनो अर्थ विचारवो.. १२३. हिवै प्रमाण ४ च्यार आत्मा थी वीर किम मानिये ते एकसौ तेवीसमो प्रश्न कहै छैः प्रमाण ४ च्यार अनयोग सूत्रे कह्या छै:-- अथ ―― अनुमान प्रमाण १ उपमा प्रमाण २ आगम प्रमाण ३ प्रत्यक्ष प्रमाण ४. ते मध्ये आज श्रीवीर स्वामी प्रत्यक्ष प्रमाणे किम मिले ? ते थापना निक्षेपा थी मिलें. ते किम् ? समभाव शान्ति मुद्रा पर्यंकासन नो उत्पादे ने राग द्वेष नो विनास एहवी असल नी नकल जिन प्रतिमा ते देखीनें भाव थी वीर प्रत्यक्ष प्रमाणै मिलै. जिन प्रतिमा जिन सरीखी ते जिन प्रतिमा नी भक्ति जिन भावै कीधाना फल श्रावक ने महानिशीथ सुत्र में कहूं (सिढो) इति वचनात् तिवारे जिन प्रतिमानी भक्ति कीधी तें जिन नी कीधी. इम कारण कार्योपचारात्. इम जिन नी थापना थी आज प्रत्यक्ष प्रमाणै ང་ ● Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ रत्नसार ॥ (८९) श्रीवीरमिल्या कहाइ. संदेहो नास्ति. १२४. हिवै कर्म वर्गणा जीव लीए छै ते थोडी घणी को ने श्रापै छै ते एकसो चोवीसमो प्रश्नःसमै२ जीव कर्म वर्गणा ने ग्रहे छै. ते आठे कर्म पणै वेहचीने आपै. ते मांहि कोई ने घणी वर्गणा आपै. सर्व थी थोडं कर्म दल वर्गणा आयु कर्म ने आपै. तेह थी नामगोत्र कर्म ने विशेषाधिक आपै. तेथी ज्ञानावरणी १, दर्शनावरणी २, तथा अंतराय ३, ए कर्म ने विषै मांहो मांहि विशेषाधिक आपै सरीखं,तेथी मोहनी ने कर्म वर्गणा दल अधिक आप, तेथी वेदनी ने अधिक. इम सर्व जोतां तो वेदनी कर्म ने कर्म वर्गणा दल विशेष श्रापै. इति भगवतीजी सूत्रे कयूं है. ए भाव. १२५.हिवै विग्रह गति केतला समय नो ते एकसौ पचीसमो प्रश्नः-भगवतीजी सूत्र मध्ये एकेंद्री ने पांच समय नो विग्रह गति ते त्रस नाडी बाहरै विदिसे रह्यो होय. थावर जीव विदेसे त्रस नाडी बाहरै उपज Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ रत्नसार ॥ वो होय तेहनो पांच समय थाय. एहवो भगवतीजी में कह्य छै. १२६. हिवै अभिसंधी अनभिसंधि बे शब्द नो अर्थ कहै छै ते एकसौ छावीसमो प्रश्नः-हिवै अभि संधि ते उपयोग पूर्वक आत्म वीर्य होय तेहने कहिये. तथा अनभिसंधि ते अणाउपयोगात्मवीर्य होय तेह ने कहिये. ए भाव. १२७. हिवै सम्यक् दृष्टी देशविरति ने गृहस्थवास छतां छठे गुणस्थान आवै ते एकसौसत्तावीसमो प्रश्नः-सम्यक् दृष्टी देशविरति गृहवास छतां कोई जाणशे जे चौथा पांचमा गुण स्थान वाला नो निर्मल अध्यवसायै ध्यान दसाइ शुभ योगै शुभ धर्म ध्यानै छठा सातमा गुणस्थान ना परिणाम प्रावै पछै ते कालांतरै अंतरमुहूर्त्तमात्र रही ने पछै मिटि जाइ, पोताना गुणस्थान माफक परणाम रहै एहq कहै ते असत्य मत कल्पना, पण कोई ग्रंथोक्त नहीं.तत्रोत्तरं Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ रत्नसार ॥ (९१) चौथा पांचमा थीभाव चारित्र गुण प्रतें चढतो १३ मा १४ मा सुधी चढीने मरु देव्या नी परी, पुण्याढय राजा नी परे सिद्धि वरें. पाछो ते गुणस्थान फरसी ने पडै नहीं. तथा पांचमा चौथा वाला नं कषाय ४ च्यार तथा ८ आठ नो क्षयोपशम थयो..अने छटो सातमो गुणस्थान तो ३ तीजी चोकडी कषाय नी तेहनो क्षयोपशम थये आवै, ते माटे पांचमा ना निरमला अध्यवसाय शुभ ध्यान दशाइ उज्ज्वल होय पण गुण स्थान तो पांचमों कहीइ, पण छठो सातमो न कहीइ. गणस्थान ते कषाय ना क्षयोपशम ने हाथे छै अने अध्यवसाय ते निज परिणति ने हाथे छै,ते माटे विचारवो. ए भाव. १२८. हिवै सम्यक्त मोहनी ना उदय किहां थकी होय ते एकसौ अठ्ठावीसमो प्रश्नः-तथा सम्यक्त मोहनी नो उदय क्षयोपशम समकितवाला ने होय, पण उपशम क्षायक ए बे समकितवाला ने समकित मोहनी नो उदय वेदन होय नहीं. क्षायक वेदक Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ रत्नसार ॥ वाला ने तथा उपशमवेदकवाला ने ए सात माहिज वेदै, एकै पण एक समै रहै, तेहनां कालस्तोक माटै इहां गवेख्यूं नथी. ए भाव. __ १२९. हिवै समकित मोह नीप्रकृति को ने कहिये ते एकसौ उगणतीसमो प्रश्नः- क्षयोपशम उपशमवाला ने सत्ताइ छै. तेह नी सत्ताइ मूल छै. तेणैकरी कांक्षा मोहनी वेदै छै. कोईक जिन प्रणीत भाव सूक्ष्म पदार्थ मध्ये मुंझाय. शंका कंखा मोहनी साधू पण वेदै छै. ते माटे भगवतीजी सूत्र मध्ये पण कयूं छै ते विचारतां समकित मोहनी प्रकृति तेहनें कहिये ए भाव. १३०.हिवै उत्सर्गअपवाद बेमार्ग कहिये छै तेहनोस्यों भावार्थ ते एकसौ तीसमो प्रश्नः-तत्रोत्तर उत्सर्गते व्यवहार मार्ग१.अपवाद ते निश्चय मार्ग२.यथा साधुनें पृथिवी कायादि षट्कायनी विराधि ना निषेधी छ,पण कदाचित कोई कारणे नदी उतरवी पडै तथा आहारादिक ने Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ रत्नसार ॥ अर्थे तथा गुरु देव वांदवा अर्थे चालतां विराधना थाइ,ते उत्सर्ग.ते माटे अपवादै पचकखाण महा व्रत नो होइ. अने आचरण काइक कारण पडै उत्सर्ग मार्ग होइ. तथा वचनांतरे कोईक ग्रंथे उत्सर्ग ते निश्चय मार्ग कह्यो छै. अपवाद ते कोमल मार्ग व्यवहार मार्ग कह्यो छै. तेहनो स्वरूप आगुं लिख्यो छै. ए भाव, उत्सर्ग अपवाद मार्ग नी चर्चा घणी छ पण अत्र तो अल्प बुद्धि जेहवो जाणुं तेहवो संक्षेप थी लिख्यो छै. इति. ____१३१.हिवै कोइके प्रश्न पूछ्यो जे दीवा प्रमुख ना प्रकाश पडै छै ते दीवा मध्ये अग्नि ना जीव छै तेहना पर्याय, तरयोत रूप ते पुद्गल ना पर्याय ते एकसौ इकतीसमो प्रश्नः-तत्रोत्तरं. दीवा मध्ये जे अग्नि ना जीव छै ते मांहेज प्रणमी रह्या छै पण दाहक रूप पर्याय छै ते बाहर निकल नहीं,तथा दीवा ना प्रकाश रूप जे बाहिरै दीसै छै ते तो विश्रसा पुद्गल नी पर्याय छाया आकृति तेज द्युति इत्यादि बहू भेदें पुलद्ग Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९४) ॥ रत्नसार ॥ पर्याय कह्या छै. तथा दीवा नो जे बाहिरें प्रकाश रूप जे दीसै छै ते प्रकाश रूप पदगल ने निमित्तै अपर विश्रसा पुद्गल श्रेण बंधे जमाव थाइ छै ते दीसै छै. तेहने निमित्त पण दीवा मध्ये जे अग्निना जीव छै तेहना पर्याय नहीं तेह ना गुण पर्याय दाहक रूपे छे ते जिहां व्यापै तिहां बाली भसम करै. ते माटे ए विश्रसा पुद्गलनो जमाव जाणवो. जिम पारसी मध्ये मुख जोतां आपणा शरीर समान सर्व पुद्गल दीसै छै ते काई आपणा शरीर ना पर्याय आरसी मांहि गया नहीं. पण ते पारसी नो निमित्त पामीने मुख जेहवा विश्रसा पुद्गल श्रेणी बंध जमाव थाय ? पण जीव ना नहीं, यथा शरीर नी छाया इत्यादिक सर्व विश्रसा पुद्गल जाणवा. ए भावार्थ. इति दीपक प्रश्न. -- १३२. हिवै यथा शास्त्र १४ चउद गुण वक्ता ना 2 तथा १४ चउद गण श्रोता ना छै ते नाम मात्र थी जाणवा हेतै लिखिये छै ते एकसौ बत्तीसमो प्रश्नः- आगम मध्ये कह्या छ जे सोले बोल ना Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ || रत्नसार || (९५) जाण एहवा जे पंडित १. बीजे बोले शास्त्रार्थ विस्तार जाणवा २. त्रीजे बोलै वाणी माहि मिठास ३. चौथै बोलै प्रस्ताव अवसर ओलखै ४. पांचमु सांचो बोलै ५ छठ्ठो बोलै सांभलनार ना संदेह छेदे ६. सातमे बोलै बहुशास्त्र वेत्ता गीतार्थ उपयोगी होइ ७. आठमै अर्थ विस्तारी संवरी जाणै ८. नवमै बोले व्याकरण रहित कठिन भाषा अपशब्द न बोलै ९ दसमै बोले वाणीइं सभाने रिझावै १०. इग्यारमै बोलै रस स्वाद पामै ११. बारमै बोलै प्रश्नार्थ १२. तेरमै बोलै अहंकार रहित १३. चउदमै बोलै धर्म वंत संतोषबन्त १४. ए बोलना जाणते वक्ता जाणवा. इति. हिवै श्रोता ना चउद १४ बोल लिखिये है. भक्तिवंत १ वाचालतें मीठा बोलै २ . गर्व रहित ३. सांभलवा ऊपर रुचि. ४. चंचलाई रहित एकाग्र चित्ते सांभलै अने धारै ५. पडवडो ते जेहवो सांभल्यो तेहवा प्रगट अक्षर कहै ६. प्रश्न जाणवा ७. घणो शास्त्र सांभल्यानो रहस्य जाणै ८. धर्म कार्ये आलस न होइ ९. धर्म Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९६) ॥ रत्नसार ॥ सांभलतां निद्रा नावै १०. बुद्धिवंत होइ ११. दातार गुण होइ १२. जे पाछै धर्म कथा सांभले तेहना पछवाडे घणा गुण होइ, घणा गुण बोलै १३. निंदा कोई नी न करै तथा कोई सुं ताण बैंच वाद विवाद न करै १४. ए चउदा बोल श्रोता जिन वचन ना सांभलनार ना गुण जाणवा. : हिवै पुराण ना नाम कहै अठार १८. ब्रह्म पुराण १ पद्म पुराण २ विष्णु पुराण ३ शिव पुराण ४ भागवत पुराण ५ मार्कंडेय पुराण ६ आज्ञेय पुराण ७ नारद पुराण ८ भविष्य पुराण ९ ब्रहतवैवर्त पुराण १० लिंग पुराण ११ स्कंध पुराण १२ वराह पुराण १३ वामन पुराण १४ कूर्म पुराण १५ मच्छ पुराण १६ गरुड़ पुराण १७ ब्रह्मांड पुराण १८ एवं अठार पुराण नाम. १३३. अथ वर्ण, गन्ध, रस अने फरस (स्पर्श) अने ए परमाणु पुद्गल ना गुण ए च्यार, शब्दे गुण किहां थी आव्यो ? शक्ति होइ ते व्यक्ति थाइ. इहां Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ रत्नसार ॥ (९७) तो शक्ति शब्दै गुण नथी. तो शब्दै सांभलिये छै कानै ते जीव नो गुण छै किम् पुद्गल नो गुण छै इति प्रश्न श्या ऊपर का छै ते एकसौ तेतीसमो प्रश्नः-परमाणु मां बे फरस छै. कर्म नी वर्गणा मां च्यार फरस छै. शीत १. उष्ण २ लूखो ३ चोपड्यो ४ ए च्यार फरस छै. शरीर मां आठ फरस है ते ४ च्यार फरस बीजा किहां थी अाव्या? ते ऊपरि आठ फरस किहां थी नीपन्या ? ते किहां ? इहां बे संबंध छै- समवाय संबंध १. अने संयोग संबंध २. समवाय संबंध वस्तु गुण छै ते जाणवो देखवो. षट द्रव्य पिण समवाय । ४। इति. संयोग संबंधे घणा मिले उपचारे अपर गुण नीपजे. कुण दृष्टांते ? खारो अने हलदरे जिम रत्तास थाइ तिम शब्द गुण नीपन्यो. प्रात्मा पुद्गल योगे शब्द थयो तिम ४ च्यार समवाय संबंध हता तिम अपर बीजा ४ च्यार संयोग संबंधे नीपन्या ए आठ फरस कहिये. १३४. हिवै पर भव - आयु किम बंधे ते एकसौ चौंतीसमो प्रश्नः-योग १ कषाय २ ध्यान ३ Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९८) ॥ रत्नसार ॥ लेश्या ४ ए च्यार एकठा मिलै तिहारे पर भव - आयु बंधै. इति. - १३५. हिवै षट द्रव्य नो एकसौ पैंतीसमो प्रश्नः--हिवै शिष्यः जीवाजीव नुं स्वरूप पूछे छै. जे तिहां धर्मास्ति कायादि षट् द्रव्य ना द्रव्य,क्षेत्र, काल, भाव, अने गुण एकेक द्रव्य ना पांच भेद इम छः द्रव्य ना मिली ३० तीस प्रश्न पूछे छै. तत्रोत्तरं. १ धर्मास्तिकाय-द्रव्य थी द्रव्य १ क्षेत्र थी लोक प्रमाण २ काल थी अनादि अनंत ३भाव थी अवर्णादि ४ गुण चलण ५. २ अधर्मास्तिकाय-द्रव्य थी द्रव्य १ क्षेत्र थी लोक प्रमाण २ काल.थी अनादि अनंत ३ भाव थी अवर्णादि ४. गुण थिर ५. ___३ आकास्तिकाय-द्रव्य थी द्रव्य १ क्षेत्र थी लोकालोक २ काल थी अनादि अनंत ३ भावथी अवर्णादि ४ गुण थी अवकाश ५. Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ रत्नसार ॥ (९९) ४ पुद्गलास्तिकाय-द्रव्य थी पुद्गल अनंता १ क्षेत्र थी लोक मध्ये २ काल थी अनादि अनंत ३ भाव थी वर्णादि ४ गुण पुरण गलण परिणाम ५. ५ जीवास्तिकाय-द्रव्य थी जीव अनंता १ क्षेत्र थी लोक मध्ये २ काल थी अनादि अनंत ३ भाव थी अवर्णादि ४ गुण उपयोग सहित ५. ६काल- द्रव्य थी काल अनंता अनंत १ क्षेत्र थी मनुष्य लोक २काल थी अनादि अनंत ३ भाव थी अवर्णादि ४ गुण परिवर्तन ५. पुनरपि * द्रव्य थी, क्षेत्र थी, काल थी, भाव थी श्युं ते कहै छै.द्रव्य थी अप्रदेशी १ बीजे क्षेत्र थी अप्रदेशी २ त्रीजे काल थी अप्रदेशी ३ चौथो भाव थी अप्रदेशी ४. . हिवै क्षेत्र थी ते नियमा अप्रदेशी. ते द्रव्य थीं सिय ४ सप्रदेशी (सिय) अप्रदेशी. हिवै काल थी सिय सप्रदेशी ( सिय) अप्रदेशी काल थी पण भजना. * काल द्रव्य श्रासरी ने कहै छै. x सिय कहतां स्यात् Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१००) ॥ रत्नसार ॥ क्षेत्र थी सिय सप्रदेशी (सिय) अप्रदेशी. हिवै भाव थी सिय सप्रदेशी सिय अप्रदेशी. भाव थी पण भजना. भाव थी किम् भजना ? जे द्रव्य थी अप्रदेशी ते क्षेत्र थी नियमा अप्रदेशी. जे द्रव्य थी अप्रदेशी ते काल थी सिय सप्रदेशी सिय अप्रदेशी. जे द्रव्य थी अप्रदेशी ते भाव थी सिय सप्रदेशी सिय अप्रदेशी. एणी रीते लीज्यो ए भाव. हिवै जे द्रव्य थी सप्रदेशी छै, जे क्षेत्र थी सप्रदेशी,जे काल थी सप्रदेशी होइ ने अप्रदेशी पण छै, जे भाव थी सप्रदेशी. ... हिवै अप्रदेशी छै ते क्षेत्र थी सप्रदेशी अप्रदेशी. ते द्रव्य थी संप्रदेशी, नियमा ते द्रव्य थी सिय सप्रदेशी सिय अप्रदेशी. ते द्रव्य थी सप्रदेशी होइ ने अप्रदेशी पण छै. . हिवै अप्रदेशी काल थी सिय सप्रदेशी सिय अप्रदेशी. काल थी सिय सप्रदशी सिय अप्रदेशी. ते क्षेत्र Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ रत्नसार ॥ थी पण सिय सप्रदेशी सिय अप्रदेशी. हिवै भाव थी सिय सप्रदेशी सिय अप्रदेशी. भाव थी पण भजना. भाव थी सिय सप्रदेशी सिय अप्रदेशी. ते काल थी पण सिय सप्रदेशी सिय अप्रदेशी. इति १३६. हिवै षद्रव्य ना गुण पर्याय किम जाणिये ते एकसौ छत्तीसमो प्रश्नः-अथ षट् द्रव्ये नो विवरो द्रव्य गुण पर्याय लिखिये छै. जीव द्रव्य १ पुद्गल द्रव्य २ धर्म द्रव्य ३ अधर्म द्रव्य ४ काल द्रव्य ५ आकाश द्रव्य ६. १अथ जीव द्रव्य ना भेद-एक शुद्ध जीव द्रव्य, एक अशुद्ध जीव द्रव्य.शुद्ध जीव द्रव्य कोनें कहिये ? नोकर्म (देहादि), द्रव्य कर्म ८ अाठ ( ज्ञानावर्णादि भाव कर्म २ बे ( रागद्वेष ) रहित, सिद्ध सिद्धालये तिष्ठे तिहां शुद्ध द्रव्य जीव कहिये. अशुद्ध द्रव्य किं ? जीव ना प्रदेश कर्म प्रमाणो मांहि तिष्ठेयिं परस्पर तिहां अशुद्ध जीव द्रव्य कहिजे. Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०२) ॥ रत्नसार ॥ अथ जीव ना गुण ते श्युं ? एक शुद्ध गुण, एक अशुद्ध गुण.शुद्ध ते श्युं?शुद्ध गुण ते केवल ज्ञानादि अनंत गुण. अथ अशुद्ध गुण ते इयुं ? मति, श्रुति, अवधि, मन, पर्यव, कुमति,कुश्रुति,कुअवधि,चक्षुदर्शन अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन, एवं १० दस अशुद्ध गुण. हिवै जीव ना पर्याय किम्?एक व्यंजन पर्याय, एक अर्थ पर्याय २.व्यंजन पर्याय ना बे भेद-एक शुद्ध व्यंजन १ बीजो अशुद्ध व्यंजन पर्याय २. शुद्ध व्यंजन पर्याय ते चर्म शरीर प्रमाण किंचित उणो, सिद्ध सिद्धालये तिष्ठयि ते शुद्ध व्यंजन पर्याय कहीजें, .. हिवै अशुद्ध व्यंजन पर्याय ते श्यूं? नर नारकादि ४ च्यार गति अशुद्ध व्यंजन पर्याय ज्ञातव्य, - हिवै जीव का अर्थ पर्याय बेर-एक शुद्ध अर्थ पर्याय १ एक अशुद्ध अर्थ पर्याय २. ते शुद्ध अर्थ पर्याय किम् ? जिहां षट् गुणी हानि वृद्धि आपणे गुण सेणी तिहां शुद्ध अर्थ पर्याय कहीजे.अथ अशुद्ध अर्थ पर्याय किम् ? मति ज्ञानादि अवलोकना अव Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ रत्नसार ॥ (१०३) स्थिति एकाक्षर ने अनन्तमें भाग पर्याय ते ज्ञान मानि रहै तिहां अशुद्ध अर्थ पर्याय कहीजे. जीव नो उत्पाद व्यय ध्रुव संयुक्त, एक गति नो उत्पाद,अन्य गति नो व्यय, ध्रुव द्रव्य शास्वत, ए जीव ना शुद्धाशुद्ध द्रव्य गुण पर्याय. २अथ पुद्गल महास्कंध अपेक्षया सर्वगत भिन्न २ परमाणु अपेक्षाय असवगदं (असर्वगत). अथ पुद्गल द्रव्य ना भेद-एक शुद्ध पुद्गल द्रव्य १ एक अशुद्ध पुद्गल द्रव्य २. शुद्ध पुद्गल द्रव्य किम् ? आकाशके प्रदेश शुद्ध अविभागी प्रमाण अछेद अभेद तिष्ठे तिहां शुद्ध पुद्गल द्रव्य. हिवै अशुद्ध पुद्गल ते युं ? जे द्विणुकादि स्कंध मिल्या ते अशुद्ध पुद्गल. अथ पुद्गलग ना द्रव्य ना गुण भेद.एक शुद्ध गुण, एक अशुद्ध गुण. शुद्ध गुण किम् ? अविभागी परमाणु वीस गुण संयुक्त तिष्ठे तिहां पुद्गल के शुद्ध गुण कहीजे.अशुद्ध पुद्गल गुण किम् ? विंशति आदि Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ रत्नसार ॥ अनंत गुण मिश्रित द्विणुकादि स्कंध रूप गमन मोख्य रूपान्तर गुण नो कि गोणता सत्तागुण नुं की मुख्यता तिहां अशुद्ध पुद्गल कहिये. ___ अथ पुद्गल के पर्याय किं ? एक व्यंजन पर्याय, एक अर्थ पर्याय. व्यंजन पर्याय के भेद २-एक शुद्ध व्यंजन, एक अशुद्ध व्यंजन पर्याय. शुद्ध व्यंजन पर्याय ते किम् ? अविभागी परमाणु शुद्ध आकाश प्रदेशे तिष्ठति, षट्कोणी आकृति, तिहां शुद्ध व्यंजन पर्याय कहीजे. बीजो अशुद्ध व्यंजन पर्याय ते किं ? द्विणुकादि स्कंध रूप स्थूल सूक्ष्म रूप परिणामै तिहां अशुद्ध व्यंजन पर्याय कहीजे. पुद्गल के अर्थ पर्याय के दो भेद-एक शुद्ध अर्थ पर्याय, एक अशुद्ध अर्थ पर्याय. शुद्ध अर्थ पर्याय किम् ? शुद्ध अविभाग परमाणु षट् गुणी हानि वृद्धि रूप आपणे गुण सुं करै तिहां पुद्गल को शुद्ध अर्थ पर्याय कहीजे. अशुद्ध अर्थ पर्याय किं ? द्विणुकादि Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ रत्नसार ॥ (१.५) स्कन्ध रूप गुण बिगति तीव्र मंद तारतम्य भेद परिणमै ते तिहां अशुद्ध अर्थ पर्याय पुद्गल को कहिजे. एक स्कन्ध को व्यय, एक स्कन्ध नो उत्पाद, ध्रुव द्रव्य शास्वत. ३ अथ धर्म द्रव्य किं ? द्रव्य गुण गति जीव पुद्गल नो पर्याय असंख्यात प्रदेशी, लोक प्रमाणे . अखंड षट् गुणी हाणि वृद्धि रूप परिणमवै तिहां शुद्ध पर्याय कहीजे. गति नो उत्पाद, स्थिति नो व्यय, ध्रुव द्रव्य शास्वत, धर्म द्रव्य लोक प्रमाण असंख्यात प्रदेशी, अखंड द्रव्य किं ? आकृति रूप शुद्ध व्यंजन पर्याय धर्म द्रव्य कहीजे. धर्म द्रव्य के शुद्ध अर्थ पर्याय किं ? जिहां आपणै गुणन स्यों षट् गुणी हानि वृद्धि करै तिहां शुद्ध अर्थ पर्याय कहीजे. एवं धर्म द्रव्य. ४ अथ अधर्म द्रव्य किं ? द्रव्य गुण स्थिति लक्षण जीव पुद्गल नो पर्याय, असंख्यात प्रदेशी, लोक प्रमाण, अखंड षट् गुणी हाणि बृद्धि रूप Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ' (१०६) ॥ रत्नसार ॥ परिणमै, आपणै गुण नी सु तिहां शुद्ध पर्याय कहीजे. अधर्म द्रव्य असंख्यात प्रदेशी लोक प्रमाण अखंड आकृति तिहां शुद्ध व्यंजन पर्याय कहीजे. जिहां षट गुणी हानि वृद्धि करै तिहां शुद्ध अर्थ पर्याय कहीजे. अधर्म द्रव्य के स्थिति नो उत्पाद, गति नो व्यय, ध्रुव द्रव्य शास्वत. . ५ अथ काल द्रव्य किं ? द्रव्य गुण वर्त्तना लक्षण, सर्व द्रव्याणं पर्याय असंख्यात अणु लोक प्रमाण शुद्ध पर्याय कहीजे. वर्तमान समै नो व्यय, अनागत समय नो उत्पाद, ध्रुव द्रव्य शास्वत. एक कालाणुनी द्रव्य आकृति तिहां शुद्ध व्यंजन पर्याय कहीजे. एवं काल द्रव्य. ६ अथ आकाश द्रव्य किं ? द्रव्य गुण अवकाश लक्षण पंच द्रव्याणां पर्याय लोकालोक प्रमाणं अनंत प्रदेशी, घटाकाश उत्पाद, घटाकाश व्यय, ध्रुव द्रव्य शास्वत, आकाश द्रव्य लोकालोक प्रमाण प्राकृति ते Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ रत्नसार ॥ (१०७) शुद्ध व्यंजन पर्याय कहीजे. एवं आकाश द्रव्यं ६. इति षट् द्रव्य हानि वृद्धि समाप्तः . हिवै षट् द्रव्य ना गुण पर्याय जाणवा ने गाथा कहै छै-(परिणाम जीव मुत्ता संपऐसाएग खित्त किरियाय निच्चं कारण कत्ता, सवगदं मियर पर्वसा. १.) . १३७. परिणामीक कुण द्रव्य? जीव पुद्गल ए बे परिणामीक.च्यार अपरिणामीक ते किहा ? धर्म द्रव्य १ अधर्म द्रव्य २ काल द्रव्य ३ आकाश द्रव्य ४ एवं च्यार अपरिणामीक. १३८. कौण द्रब्य जीव कौण द्रब्य अजीव ? ४ च्यार प्राण ने करी जीव पूर्वही जीवै छै. सुख, सत्ता, बोध, चैतन्य ये भी च्यार प्राण * करी सदा कालै जीवै छै. इति जीव, पंच द्रव्य अजीव पुद्गल द्रव्य १ धर्म द्रव्य २ अधर्म द्रव्य ३ काल द्रव्य ४ प्रकाश द्रव्य ५. २ ___ * इन्द्री प्राण, बल प्राण, श्रायु प्राण, स्वासोस्वास प्राण, ये च्यार द्रव्य प्राणै करी जीवै छै, जीव्यो हतो, जीवशे. अने भाव प्राण सुख, सत्ता, बोध, चैतन्य करी जीवै छै, जीव्यो हतो, जीवशे. Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०८) ॥ रत्नसार ॥ १३६. कौण द्रव्य मूर्तिक कोण द्रव्य अमूर्तिक ? पुद्गल द्रव्य मूर्तिक, पंच अमूर्तिक. ३ १४०. कोण द्रव्य सप्रदेशी कौण द्रव्य अप्रदेशी ? जीव द्रव्य १ पुद्गल द्रव्य २ धर्म द्रव्य३ अधर्म द्रव्य ४ आकाश द्रव्य ५ एवं पांच सप्रदेशी. काल द्रव्य अप्रदेशी..४ . १४१.कोण द्रव्य एक कोण द्रव्य अनेक? धर्म श्रधर्म २ आकाश ३ एवं तीन द्रब्य एक, जीव, पुद्गल, कालाणु, ए तीनों अनेक. ५ १४२. कोण द्रव्य क्षेत्री कौण द्रव्य अक्षेत्री ? आकाश द्रब्य क्षेत्री, पंच अक्षेत्री ६. १४३.कौण द्रव्य क्रियावंत कौण द्रव्य प्रक्रियांवंत? जीव द्रव्य, पुद्गल द्रव्य ए बे क्रियावंत. ४ च्यार द्रव्य अक्रियावंत, ७. १४४. कोण द्रव्य नित्य कौण द्रब्य अनित्य ? धर्म १ अधर्म २ श्राकाश ३ काल ४ नित्य. जीव Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ रत्नसार ॥ पुद्गल ए बे अनित्य. ८. १४५. कौण द्रब्य कारण कौण अकारण ? पांच द्रब्य कारण, जीव अकारण. ९. १४६. कौण द्रब्य कर्ता कोण अकर्ता ? जीव कर्ता पंच अकर्ता. १०. १४७. कौण द्रब्य सर्वगद कौण असर्वगद् ? आकाश द्रब्य सर्वगद, पंच असर्वगद. ११. १४८, गाथा- (ईहरहीयपचेसं यद्यपीए कत्ता मिलही तद्यपी आपणे गुण पर्याय तिष्ठत रहै ). १२. एवं द्वादषा अधिकार समास. .. सप्रदेशी पांच द्रव्य अप्रदेशी काल, सक्रिय पुद्गल अने जीव छै अने च्यार अक्रिय, एक सचित जीव द्रब्य अने५ पांच अजीव द्रब्य, काल विना५पंच अस्तिकाय, पांच द्रब्य लोक मध्ये अने आकाश द्रव्य लोक अलोक मध्ये छै. पुद्गल जीव ए २ बे गतिवंत बाकी ४ च्यार अगतिवंत, पुद्गल जीव ना पर्याय पलटाई, पण४ च्यार Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११०) ॥ रत्नसार ॥ द्रव्य ना पर्याय पलटाइ नहीं. १४९. हिवै वेदनी निर्जरानी चोभंगी नो एकसौ गुणपचासमो प्रश्नः-महा वेदनी अने अल्प निर्जरा नारकी ने १. अने महावेदनी महा निर्जरा साधु ने होय. गज सुकमालवत परे २. अने अल्प वेदना अल्प निर्जरा देवताने अने माहा निर्जरा अल्प वेदना से लेशी कारक ने ये चौभंगी जाणवी. १५०. हिवै मिथ्यात्व नी चौभंगी नो एकसौ पच्चासमो प्रश्नः- अनादि अनन्त अभब्य ने मिथ्यात्व १. अने अनादि शांत भब्य जीव ने मिथ्यात्व २. सादि सांत समकित पांमी फिरी पाछो मिथ्यात्व जाय ने फिरी समकित पामे तेने ३. अने सादि अनन्त कोई ने नहीं ४.इति चौभंगी मिथ्यात्व नी. __ १५१. हिवै सीहपणे लेइ ने सींहपणे पालै तेहनी चौभंगी जाणवी ते एकसौ इकावनमो प्रश्नःसीह ता ईमिस्कं तो सीहताए विहरई जंबूथूल Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ || रत्नसार ॥ ( १११ ) भद्राय १. सीहताए नाम एगे निस्कंते सीयालताए विहरइ. कच्छ महा कच्छ कंकरि मरीच वत्. अथ सीयालताए निस्कंतो सींहताए विहरइ मेतार्य भव देव श्रेणीक यवकार सुवर्णकारवत ३. सीयालताए पनिस्कंतो सीयलता निस्कंताए सियालताए विहरइ. अंगार मर्दकाचार्य उदाई मारक कुल वालू वत् ४. १५२ हिवै अनुयोग चारनो एकसौ बावनमो द्रव्यानुयोग १. धर्म कथानुयोग २. गणितानुयोग. ३. अक्षरानुयोग ४ इति अनुयोग चतुर्द्धा. प्रश्न: १५३. हिवै षट् दुर्लभवोधि स्थाना नो एकसौ त्रेपनमो प्रश्न कहीजे है:- ६. हिठाणें हि दुल्लभ बोहि नांणकंम. पकरंति अरिहंताणं श्रवन्नं वयमाणे १. अरिहंत पन्नस्स धम्मस्स अन्नं वयमाणे २. आरियाणं अन्नं वयमाणे ३. उवझायाणं अवन्नं वयमांणे ४. चाउवन्नास्स संघस्स अवन्नं वयमांणे ५. स्मदीठी देवाणां अवन्नं वयमाणें ६. इति षट् दुर्लभ बोधि स्थानानि. Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ रत्नसार ॥ - १५४. हिवै आठ आत्मानो एकसौ चोपनमो प्रश्नः-अथ ८ आठ आत्मा लिख्यते. एक द्रब्यात्मा. असंख्यात प्रदेश रूप जीव द्रब्य ते द्रब्यात्मा तीन द्रव्य गुण पर्याय सहीत १. बीजो कषाय आत्मा. सौलै कषाय अनंतानुबंधी प्रमुख नव ९ नो कषाय, हास्यादि २. त्रीजो जोग- आत्मा. मनो योगादि ते योग आत्मा ३. चौथी उपयोग आत्मा. ज्ञान, दर्शन, अज्ञान ३ ते उपयोग आत्मा ४. पांचमो ज्ञान आत्मा ते ज्ञान जीव ने आत्रै रह्या छै ५. छठो दर्शनात्मा सम्यक्त जीव ने छै ते माटै ६. सातमो चारित्र अात्मा. चारित्र नी सत्ता जीव ने छै ते माटे ७. आठमो वीर्यात्मा. मन, वचन, काय वीर्य छै, ते माटे वीर्यात्मा ए आठ ८. नारकी देवता मांहि, सात आत्मा छै, चारित्र आत्मा नथी. एकेंद्री मध्ये ६ छः आत्मा छै. ज्ञान चारित्र आत्मा नथी, तिर्यंच पंचेंद्री मांहि ८ आत्मा, मनुष्य मांहि ८ आठ आत्मा, सिद्ध मांहि ४ आत्मा. द्रव्यात्मा १ उपयोगात्मा २. ( अणन गुण Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ रत्नसार ॥ मई उपयोग.) ज्ञानात्मा ३ दर्शनात्मा ४ ए च्यार आत्मा सिद्ध ने गुण नो भाजन द्रव्य. इति तत्वं. - १५५. हिवै त्रस जीवा अष्ट विधानो एकसौं पचपनमो प्रश्नः-त्रस जीवा अष्ट विधा-अंडजा पंखी आदि १ पोतजा गजादि २ करजरादि गवादि ३ रसजा कीटकादि ४ स्वेदजा जूकादि ५ समुच्छिम पतंगादिक ६ उद्भिजगींगोडियादि७ उत्पातिका देव नरकादि ८ इत्यष्टधा खाणी. जीव परिणामो दसधा. गति १. इंद्रिय २. कषाय ३. लेश्या ४. योग ५. उपयोग६. ज्ञान७.अज्ञान८. दर्शन ९. चारित्र १०. ए दश भेद जीव ना परिणामा दसधा यूं इति पन्नवणा१३ मा पद मध्ये छै. . १५६. हिवै जीव केतला प्रकार प्रणमै ते एकसौ छपनमो प्रश्न कहै छै:-बंधण १ गई २ संठाण ३ भेय४ वन्न(वर्ण) ५ रस६ गंध७ फास(स्पर्श) ८ अगुरुलघु ९ सद्द १• परिणाम ११ ए दस हुंति अजीवा जीवेण कहवी. ( फासि अंत मुहुत्तं पिजेण संमवं Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११४) ॥ रत्नसार ॥ नियमा अवठ्ठ पुद्गल परिय हो चेव संसारो. १) पुद्गल नां परावर्त पुद्गल परावर्त्त, अप कृष्ट किंच न्यूनो अंई पुद्गल परावर्त्त, अपार्थ पुद्गल परावर्त.. . अथ अंतर्मुहुर्त्तनो प्रमाण.अंतर्मुहूर्त्त अष्ट समयोर्ड घटी द्वयं यावदित्यर्थ. तच्च सम्यक्तोपशमिकं. अत्र क्षेत्र पुद्गल परावर्डे नानाधिकार द्रव्यादिन पुद्गल परावतः इत्युपदेस वंदल्या. . १५७. अथ जाति समरणना केटला भव देखै ते एकसौ सतपनमो प्रश्नः-गाथा-पुत्व भवासो पीछई एक दो तिन्नि जाव नव गंवा । उवरि तस्स असिव श्रो सभाव जाई सरणस्स ॥ १ ॥ चक्का १ असी २ छत्र ३ दंडा ४ अाउदसालाई हुंति चत्तारी चम ५ मणी ६ कांगणी ७ नही ८ सिरि गहे चक्किणोडंति ॥२॥ सेणावई ९ गाहावई १० पुरोहीतओ ११ वुथइ १२ नियय नयरेथीर व्रण राय कुले वेयढे तले गय तुरया १४ ॥ ३ ॥) Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ रत्नसार ॥ १५८. अथ धर्म पुण्य नो भेद ते एकसौ अठावनमो प्रश्नः-अथ केतलाइ जीव धर्म पुण्य ने एक मानै छै ते संदेह टालवा ने अर्थे धर्म पुण्य नो भेद लिखिये छै. अण पुण्ये १ पाण पुण्ये २ लेहण पुण्ये ३ सयण पुण्ये ४ वथ पुण्ये ५ मन पुण्ये ६ वयणं पुण्य ७ काय पुण्य ८ नमस्कार पुण्य ९ इति नव भेद पुण्य ना कह्या. १२ बार उपयोगमा २ बे अरूपी १० दस रूपी उपयोग, आत्म गुण माटें २ बे अरूपी छै. पांच समकितना नाम छै. ते मध्ये एक अरूपी च्यार रूपी प्रात्मा गुण माटे. पांच भेद अरूपी छै. सामायकादिक छ आवश्यक छै ते मध्ये सामायक १ चोवीसथो २ पडिकमणं ए त्रण आवश्यक संवर तत्व मध्ये छै. बाकी ३ त्रण निर्जरा तत्व मध्ये छइ. गाथा-सन्नगउ नियमा एगंमि भवंमि सिझई अवस्यं । विजयादि विमाणे द्वियं सखिज्ञ भवा ओ ना यव्वी ॥१॥) श्रावक जधन्य पदे केतला लाभे ? क्षेत्र पल्योपम ने असंख्यातमें भाग. आवश्यक नियुक्तो जंबू द्वीप Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११६) ॥ रत्नसार ॥ मध्ये की टीकावधी अथवा नरा वहवा. तत्रोत्तरं. तद समूर्छछिमप्राण विरह तदा काटिका स्तोका नरा बहवो. अथ श्रुत-सामायक नो लाभ थाइ तिवारे दीपक समकित होइ १. तत्र बीजो समकित सामायिक नो लाभ २. श्रीजो देसविरत सामायिक नो लाभ ३. चौथो सर्व विरति सामायिक नो लाभ ४: छठा गुण स्थान थी साधु त्रिण चोकड़ी नो क्षयोपशमथी ४ एवं अभिप्राय यावत् यस्य पुरुषस्य अहारस्य द्वात्रिंशत्तमो भाग ते पुरुषापेक्षया केवल मानं आश्रित्य (कुत्सिय हृडीय कूठी शरीरना उ अडंग मुहतीय जावई देहस्स ज ओ पुव्व रयणं तवोससं) कुसिता कुटीर कुकुटी शरीरमित्यर्थः तस्याः शरीर कुपाया कुकुटाद्या अंगक मिवाड़ कंमखमुच्यते ॥ गर्भ प्रथमं मुष स्योत्पादात्मुख मध्ये आयाति तावत्कुवलय मूढ त्रयमदा चाष्टो तथाऽयतनानि षट्. अष्टो शंकादयश्चेति दृग् दोषा पंचविंशति १. - पांच षटीक शालानां नाम घरटी नी खटकशाला. Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ || रत्नसार ॥ ( ११७) चूलानि षटकशाला २ पाणी हारी नी पटकशाला ३. सारवणोनि षट् कशाला४ . उखलानि षट् षट् कायविराधनो ५. ए पांच स्थान के छः काय विराधना. इति. . १५६. आत्मा नी किंचिदात्मता लिख्यते ते एकसौ गुणसाठमो प्रश्नः प्रथम आत्म स्वरूप वर्ण्यन्ते असंख्यात प्रदेशी १ अनन्त ज्ञानमयी २ अनन्त दर्शनमयी ३ अनन्त चारित्रमयी ४ अनन्त दानमयी, अनन्तवीर्यमयी, अन्नत लाभमयी, अनन्त भोगमयी, अनन्त उपभोगमयी, अरूपी, अखंड, अगुरु लघू मइ, अक्षय, अजर, अमर, अशरीरी, अत्येन्द्री, अनाहरी, अलेशी, अनुपाधी, अरागी, श्रद्वेषी, कोही, अमानी, अमायी, अलोभी, अलेशी, मिथ्यात्व राहत, अविरति रहित, कषाय रहित, योग रहित, जोगी, सिद्धस्वरूप, संसार रहित, स्वआत्मसत्तावंत, परसत्ता रहित, पर भावनो अकर्ता, स्वभाव नो कर्ता, परभावनो भोक्ता, स्वभावनो भोक्ता, ज्ञायक Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११८) ॥ रत्नसार ॥ वेत्ता, स्वक्षेत्रावगाही, पर क्षेत्र पणै अनवगाही, लोकप्रमाण अवगाहनवंत, धर्मास्तिकाय थी भिन्न, अधर्मास्तिकाय थी भिन्न, अकाशस्तिथि भिन्न, पुद्गल थी भिन्न, पर काल थी भिन्न, स्व द्रव्यवंत, स्व क्षेत्रवंत, स्वकालवंत, स्वभाववंत, अवस्थान पणै स्व गुण थी अभिन्न, कार्य भेदै भिन्न, स्वरूप सत्तावंत, अवस्थित सत्तावंत, परणमन सत्तावंत, द्रव्यास्तिक पणे नित्य, पर्यायास्थिक पणे नित्यानित्य, द्रव्यपणे एक, गुण पर्यायपणे अनेक, अनंता द्रव्यास्ति धर्म, अनंता पर्यायास्ति धर्म, एहवी स्वसंपदामयी चेतन लक्षणै लक्षित, स्वसंपदाए पूर्ण छै. पर संगै प्रणम्यो संसार कस्यो. स्व ज्ञान दर्शन चारित्रै प्रणम्यो सिद्धत्ता करै. एहवा आत्म द्रव्य नी ओलखाण अनंत नमैं अनंता निपै थाइ. ए रीते जे आत्मा नी परतीत करे, एहवा परतीतवंत ने जैनमार्गी मार्ग मां गणै छै. एहवो आत्मा जैनमार्गे अनेकांतमयी कह्यो छै. ए रीते परतीत ते सम्यक् दर्शन, ए रीते ज्ञान ते ज्ञान, ए Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ रत्नसार ॥ माहि रमवो ते चारित्र. ____अस्थित्वं १ वस्तुलं २ द्रव्यत्वं ३ प्रमेयत्वं ४ प्रदेशत्वं ५ अगुरुलघुत्वं ६ ए द्रव्यस्तिक ना सामान्य स्वभाव जाणवा. नित्य स्वभाव १ अनित्य स्वभाव २ एक स्वभाव ३ अनेक स्वभाव ४ सत्य स्वभाव ५ असत्य स्वभाव ६ वक्तव्य स्वभाव ७ अव्यक्तव्य स्वभाव ८ भेद स्वभाव ९ अभेद स्वभाव १० परम स्वभाव ११ ए विशेष स्वभाव ना नाम. स्वप्रदेश स्वभाव १ अप्रदेश स्वभाव २ चेतन स्वभाव ३ अचेतन स्वभाव ४ मूर्त स्वभाव ५ अमृत स्वभाव ६ कर्तृत्व स्वभाव ७ भोक्तृत्व स्वभाव ८ परिणामीक स्वभाव ९. धर्मास्तिकाय ना गुण च्यार मुख्य-अरूपी १ अचेतन २ अक्रिय ३ गति सहाय ४.. अधर्मास्तिकाय ना गुण च्यार मुख्य-अरूपी अचेतन २ अक्रिय ३ स्थिरसहाय ४. Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२०) ॥ रत्नसार ॥ श्राकास्ति कायना गुण च्यार मुख्य, अरूपी १ अचेतन २ अक्रिय ३ अवकासवंत ४ । पुद्गलास्तिकायना च्यार गुण मुख्य- रूपी १ अचेतन २ सक्रिय ३ पूरण गलण ४. पर्यायास्तिक ना भेद छ:-द्रव्य पर्याय, भव्यत्वं, सिद्धत्वं,अभव्यत्वं,कारणलं, कार्यलं. द्रव्य व्यंजन पर्याय असंख्य प्रदेशत्वं३ गुणपर्याय गुणंतर भेद क्षात्यादि भेद ४ गुण व्यंजन पर्याय, एक गुण ना अनंत पर्यायं. ५ स्वभाव पर्याय; षट् गुण हानि वृद्धि ६, विभाव पर्याय नर नारकादि. पर्यायास्तिक सामान्य परिणामीक. अखंड, अलख, असहाई सक्रिय ना अनंत गुण ना पर्याय नो समुदायक नो तेहनें बादर कहिये. द्रव्य भेद कहिये, द्रव्य अभेदी श्या माटे कहिये ? द्रव्य ना बेबे भाग न थाइ ते माटै अभेद कहिये. भेद द्रव्य श्या माटै कहिये ? गुण गुण ना करनार जूजुवा करे ते माटै भेद कहिये. ज्ञान गुण, दर्शण गुण चारित्र गुण, सुख गुण, दान गुण, लाभ गुण, भोग Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ रत्नसार ॥ (१२१) गुण, वीर्य गुण, ए आदि देई ने अनंत गुण. __सम कितना पर्याय-श्रास्था १ श्रद्धार परतीत३ निरधार ४ रुचि ५ अभिलाष ६ बहुमान ७ आर्थ पणो ८ तत्व ईहा ९ गुण अद्भूतता १० गुण गुणी आश्चर्यता ११ तद विरह कारकता १२. ज्ञान पर्याय-अवलोकन १३ भासन १४ परिछेदन १५ विवेचन १६ अमात चेतनलं १७ सर्व वेत्ता, अपरपातीलं, निरावरणत्वं. चरण पर्याय-१ एग २ थिरता ३ तत्वरमण ४ निश्चलानुभूति ५ परम क्षमा ६ परम माइव ७ परम आर्जव ८ परम मूर्ति ९ अकामता १० अना संशय ११ सुख १२ ए आदि देईनें अनंत पर्याय जाणवा. . हिवै समकित नी १० दस रुचि छ ते कहै छैःतिहां पहली निसर्ग रुचि १ बीजी उपदेश रुचि २ त्रीजी ज्ञान रुचि ३ चौथी सूत्र रुचि ४ पांचमी बीज रुचि ५ छठी अभिगम रुचि ६ सातमी विस्तार रुचि ७ Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२२) ॥ रत्नसार ॥ आठमी क्रिया रुचि ८ मवर्मा संक्षेप रुचि ९ दशमी धर्म रुाचे १० ए दश रुचि ना नाम जाणवा. - अथ समकितना पाच भूषण कहै छैः-पहिलो उपमम भूषण जे विवेकी प्राणी प्राये कषाय करै नहीं अने जो करै तो पिण तुरत मन पाछो वालै १. बीजो आस्था भूषण. जे भगवंत ना वचन ऊपर शुद्ध प्रतीत राखै. प्रभ जेम आगमै प्राज्ञा कही तिम सधैं २. त्रीजो दया भाव भूषण. जे सर्व जीव आप सरीखा जाणी दया पालवी ३. चौथो संवेग भुषण. जे संसार सुं, धन सुं, शरीर सुं उदासीनता पणो ते संवेग पणो जाणवो ४. पांचमो निर्वेद भूषण.जे इंद्री ना सुख जीव अंनती वार पाम्या भोगव्या पिण ते दु:ख कारण छै एक चिदानंद मोक्षमई अतेन्द्री सुख ते आपणा करी जाणे ए निर्वेद जाणवो ५. एतले पांच भूषण समकित ना कह्या. १६०. अथ त्रिण्य आत्मा नो स्वरूप लिख्यते Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ रत्नसार ॥ (१२३) ते एक सौ साठमो प्रश्नः-कोई भौगवै छै. कोई इम कहेतां जे परिणामै बांधै छै ते परिणाम भोगवतो नथी करतो नथी अने भोगवतो नथी ते इयुं ? जे निश्चय नये आत्मा अबंध छै, ___ करै छै भोगवै छै ते श्युं ? व्यवहार नये आत्मा कर्ता भोक्ता है. हिवै ३ त्रण आत्मा नो स्वरूप लिखिये छै. आत्मा त्रण प्रकारे. ते आत्मा नो स्वरूप सम्यक् दृष्टीये धारवो. जिम थिरता थाइ ते लिखे छै. ते त्रण प्रकार ते किहा ? एक बहिर आत्मा, १ एक अंतर आत्मा, २ एक परमात्मा. ३ हिवै बहिरात्मा कहिये ते शरीर, कुटुंब, माल, धन, घर, परिवार, नगर, देश, राग, द्वेष, मिथ्यात्व, मैं मास्यो, मैं जिवाड्यो,मैं सुखी कस्यो,मैं दुखी कस्यो, संसे, विमोह, प्रमुख ए सर्व निज स्वभाव जाणै तेहर्ने बहिरात्मा कहिये, तेहने बहिर दृष्टि होय. ते प्रथम मिथ्यात्व गुणठाणे होवै १. Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२४) ॥ रत्मसार ॥ हिवै अंतरात्मा नो स्वरूप कहै छै. प्रथम कर्म बांध्या नो कारण जाणे ते लिखिये छै. मिथ्यात्व ५ अविरति १२.कषाय २५ योग १५ ते ५७ सतावन हेतु जीव कर्म बांधै ते वलतां भौगवै. ते भोगवतां मोहनी कर्म ने जोरै दुःख पामै तिवारै एम जाणै जे माहरो स्वभाव नहीं. किसी वस्तु जाई, तथा मरण श्रावै तिवारे इम जाणे जे माहरा प्रदेश थी कांइ जातो नथी. हूं तो सर्व वस्तु थी भिन्न छु, किवारे की लाभ पामे ? तिवारे इम जाणे जे बस्तु अशास्वती छै तो ते ऊपर हर्ष यो धरवो, तथा कांई जाए, तिवारे जाणे जे ए वस्तु थी सबंध टल्यो. वेदनादि कष्ट आवै सम भाव राखै. पर भाव पुद्गलादिक आत्मा थी भिन्न जाणवा. छोडवानी खप करै, परमात्मा नी वांछा करै, ध्यान सिझाय विशेष करें, भावना खिण २ भावै, संवर आदरै, निज स्वभावै ते ज्ञान तेह ने विषै इम मन रहै ते अंतरात्मा ध्यान करवा परमात्मा नो ध्यान करवा योग्य चौथा गुणठाणा थी बारमा गुण ठाणा Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ रत्नसार ॥ (१२५) सुधी अंतरात्मा जाणवो. एड्वो अंतरात्मा औलखै तिवारे परमात्मापणो पामै २. परमात्मा नुं स्वरूप लिखिये छै. साक्षात् पोतानो स्वरूप देखै, कर्मनी उपाधि रहित ते परमात्मा तेरमे चउदमै गुण ठाणे होवै. तथा सिद्ध जाणवा ए परमात्मा ध्यानयोग्य. अंतरात्मा ध्यावायोग्य. ध्येय परमात्मा, ध्यान ते एकाग्रता. एम त्रण आत्मा नों स्वरूप जाणवो. इति भाव. १६१. हिवै सद्धहणा, फरसणा, परूपणा कोने होइ ते एक सौ इकसठमो प्रश्नः- सद्धहणा. १ फरसणा ते पालवोर परूपणा३ गोतम स्वामी प्रमुखनी परे १. हिवै बीजो भेद कहै छै. सद्दहणा १ फरसणार सामान्य साधु उपदेश देवा असमर्थ ने २. हिवै तीजो भेद लिखिये छ. सद्दहणा १ अनुत्तर वासी देवनें, परूपणा २ फरसणा नहीं ३. Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२६) ॥ रत्नसार ॥ सद्धहणा, परूपणा २ संवेग पक्षि ने, फरसणा नहीं ४. ___ फरसणा बाल तपस्वी ने, सद्धहणा १परूपणा२ नहीं ५. ___परूपणा १ असंजती ने, सडहणा१फरसणार नहीं ६. ___ फरसणा परूपणार अभव्य ने विषे छै, पण सदहणा नहीं ७. असद्धहणा १ अपरूपणा २ अफरसणा ३ अनादी मिथ्यात्वी ने होइ ८. इती अष्ट भेद ना अर्थ. पाठमो भेद ते निगोदीया प्रमुख एकेंद्री प्रमुख ने होइ. एभाव. १६२. हिवै प्रभु ने दानाधिकार नो एक सौ बासठमों प्रश्नः- अथ तीर्थकर ना दान नो अधिकार लिंख्यइ. दिन दिन प्रते एक कोड़ि अने आठ लाख सोनइया दीये. सोनइयो ८ आठ रती नो ने कोइक जायगां सोनइयो८०अशी रती नो पिण लिख्यो छै सो Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रत्नसार ॥ (१२७) विचारजो जाणजो. तीर्थकर जितरमो होई तितरमां तीर्थकर ना पितानो नाम मांड्यो होइ. ते एक दिन ना सोनइया ९००० नव हजार मण थाइ. एक गाडो मण चालीसनु. एहवा गाडा २२५ दोसो पच्चीस थाइ. आप आपणा वाराना गाडा जाणवा. संवच्छरी दान ना सोनइया सर्व इंद्र ने आदैसै यै श्रमण देवता ८ आठ समय मांहे नीपजावी ने तीर्थकरना भंडार भरे. ते दान देवाना ६ छः अतिशय जाणवा. तीर्थकरना हाथ में विष सौधर्मेंद्रस्थिती एतले दान देतां थाकै नहीं. ईसानेंद्र सुवर्ण मय रत्न जडित लाकडी लेइ उभा रहै.इंद्र चौसठ वर्जि सामानिक देवता ने वजै.तथा मनुष्य नां भाग्य मांहि होय, जेहवी जेहनी प्राप्ति होइ, जे जेहवो पोसाइ ते तेहवो तीर्थकर ना मन ईसानेंद्र करें. तथा तेहवो तेहना मुख मांहि थी कढावै २ चमरेंद्र बलैंद्र तीर्थकर नी मुठी माहिला सोनहिया अधिका आवै ते गेरवै, ओछा होय तो अमोरे, साहमानी प्राप्ति सारू ३ भवनपती Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२८) ॥ रत्नसार ॥ देवता भरत क्षेत्रना मनुष्य ने तेड़ी आवे ४ वाण व्यंतर देवता ते मनुष्य ने पाछा मुकी श्रावै ५. ज्योति की देवता विद्याधर ने दान लेवा भणी जाण दीयें. एवं ते प्रस्थावै तीर्थकर नो पिता त्रण मोटी साला करावे. एक सालाई भरत क्षेत्र ना मनुष्य ने अन्न पानादिक आपै. बीजी सालाइ वस्त्र आपै त्रीजी सालायै आभरण पै. छः घड़ी पछी दान देवा मांडै तिवारै पौणा दो पहर तांइ दीये. इति दानाधिकार. १६३. साधु सिकाय करै छै शुभ योग व्रतादिक नी शुभ क्रिया करै छै, तथा शुद्धोपयोगे शुद्ध स्वभावै (पाणं भावैमाणे विहरई ) इम श्रात्म ध्यान करै छै. ते सर्व कर्म खपावाने अर्थ. ते किहा कर्म खपावे ? खपाववाना तो त्रण्य कर्म है. उदे कर्म, श्रने बन्ध कर्म, उदीरणा कर्म तो उदय ना पेटा मध्ये गवेखिये. तथा कर्म ते मध्ये उदय कर्म शेणे खपावै है ? तथा सत्ता कर्म शेणै सोधे छै इति. बन्ध कर्म किम मिटै ? शुभ योगे पंच महाव्रत संवर रूप क्रियाइ नवा बन्ध पामै Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ रत्नसार ॥ (१२९) ते माटै, बन्ध कर्म निवारे, ते व्रतादिक शुभ क्रियाई तथा पांच प्रकार नी सिझाइ उदय कर्म खपावै छै, निफल करै छै. तथा शुद्धोपयोगै आत्म ध्याने सत्ताई ज़े कर्म छै ते सोधे खपावै. इम मुनि आत्म गुणै निर्मल करी सिद्धि वरै छै. ए भाव. ___ १६४. तथा. आश्रवा ते परिश्रवा, जे शुद्धोपयोगै आत्म परिणामै जो आश्रव ना कारण होइ ते संवर रूप थाइ ते श्री श्राचारांगै सूत्रे चौथे अध्ययने द्वितीयोदेशके समकित ना अध्ययन मध्ये ए गाथा छै. तथा जीवाभिगम सूत्र मध्ये निर्लेप पदे श्रीगौतमे पूछयो छै जे, स्वामी पांच थावर ना जीव हमणां वर्त्तमाने समै जेतला छै ते निलेप थाशे गत्यांतरै जाशे ते एकसौ चौंसठमो प्रश्नः-तिवारे श्रीवीरे कद्दू एक वनस्पति काय विना पांच काय नाजीव निर्लेप थाशे. पृथवी,अप, तेउ, वाउ, त्रस काय ना जीव सर्व स्थानांतरे निर्लेप थाशे. पण वनस्पती काय निगोद गोलक ना जीव निर्लेप नथी. तत्र अथि अणंता जीवा Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ रत्नसार | जेही न पतो त साइं परीणामो ( उवयंति चयंत्रिय पुणोवी तथैव तथैव ) एणे न्याये वनस्पति कायना जीव निर्लेप न थाइ ए भाव. . ... १६५. एक सौ पैसंठमो प्रश्नः-तथा बादर अपकाय बारमा देवलोक सुधी कही छै. तथा बादर तेउ काय त्रीछी अढी विप सुधी कही छै, ऊंची मेरु पर्वत नी चूलीका सुधी कही. १६६. एकसौ छासठमो प्रश्नः- तथा सातमी छठि नरगै कुंभी मां उपजवू नथी तिहां आलिया छै. जिम नदी ने भेखडे बिल होई तिम तिहां आलिया छै. तेतले सूला छै ते ऊपरि शरीर वृद्धि थाइ. तिवारे पड़े. इम सांभल्यो छै. ए भाव. - १६७. हिवै साधु ना १४ चउद उपगरण ते किहा ते एकसौ सणसठमो प्रश्नः गाथा. पत्तं पत्ता बंधो पाय ठवणं चा पाय केसरिया। Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ रत्नसार ॥ (१३३) पडिलाइं रयत्ताणं गुछओ पाय निलोगो ॥ १ ॥ तिन्नेव पछगासय हरणं चेव होई मुहपत्ती । एसो दुवालस बिहोउवही जिणकप्पियाणंतु॥२॥ ए एचेव दुवाल समत्तरेगा चोल पट्टोय एसो । चउदस रूबोउवही पुणथेर कप्पंमि ॥ ३ ॥ अर्थः-पत्तं कहतां पातुं १ पत्ताबंध ते झोली २ पायठवणं ते कांबली नो कटको ३ पाय केसरिया ते चरवलो ४ पडलाई ते भिक्षा जातां ऊपरि कपडो राखै ५ रयत्ताणं ते पात्रा बेठवानु लूगडु ६ गुछो ते कंवलमय खंडा पात्र ऊपर दीजिये ७ ए सात तो पात्र ना उपगरण. तथा ३ तीन कपडा राखै बे सूत्रमय एक उर्णिका तथा प्रोघो मुंहपत्ती एवं १२ बार जिनकल्पी ने होइ. तथा एक मातुं एक चोलपटो ए १४ यवदा उपगरण थिवरकल्पी ने होय. १६८. तथा युग प्रधान आचार्य जिहां बिचरै तेहना लक्षण काव्यं ते एक सौ अडसठमो प्रश्नःएषांहि वस्त्रेन पत्तंति युका नराब्द भंगोनच देश Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३२) ॥ रत्नसार ॥ चिन्ता। गदा णश्यति पदोदकेन युग प्रधाना जठर भृत्योन्ये ॥ १॥ ___ एहवे शरीर गुणें तथा छत्तीस प्राचार्य गुणे जिहां विचरै तिहां अढी जोयण ताई मरी उपद्रव न होइ. ए भाव... उक्त. दुरगतो यतत्प्राणी धारणात्धर्म उच्यते। संयमादि दश विधः सर्वज्ञोक्तो विमुक्तये ॥ १६९. एकसौ गुणसित्तरमो प्रश्न- आत्मानं भावयतीति भावना। आत्मानं अधिकृत्य करोतीति अध्यात्मं । मन्यते जगत्तत्वं स मुनि प्रकीर्तित । सम्यक्तमेव तन्मौन्यं सम्यक्त मेवच ॥ १ ॥ योगबिंदु ग्रंथे हरिचंद सूरेण अध्यात्म भावना चतुर्दा कथिता यथा-परहित चिंता मैत्री परदुःख विनाशिनी । तथा कारुणा परसुख तुष्टी मुदिता परदोषापेक्षण मुपेक्षा ॥१॥ छद्मस्थ जीवना ध्यान कथितं अंत मुहूर्तमीत्रा ॥ चिंत्ता वच्छाण एगठ च्छुमिच्छओ ॥ मच्छाणं झाणं जोग निरोहो जिणाणंतु ॥ १ ॥ इति ध्यानं. Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ || रत्नसार ॥ (१३३) १७०. हिवै २४ जिन ना माता पिता नी गति कहै छै. उसभ पिया नागेषु सेसाणं सत्त हुंति ईसारों श्रठयसणं कुंमारें माहिंदे श्रठ्ठ बोधव्वा ॥ १ ॥ अट्ठणं जणणी ओ तिथय रागं हुति । सिद्धिश्रो अट्ठयसणं कुमारे माहिंदे श्र बोधव्वा ॥ इति २४ चोवीस जिन ना माता तथा पिता गति । इति भाव. १७१ तथा जिनवाणी सांभलतां च्यार घातीया कर्म ना श्रंशे क्षयोपशम धर्म पामै छै ते किम ते एकसौ इकोत्तरमो प्रश्नः - जिनवाणी सांभलावै तिवारे जिवारे दर्शनावर्णी कर्म नो क्षयोपशम पामै. तिवारे जिनवाणी कान मांहि श्रावै, समजवा मांहि आवै, तथा ज्ञानावर्णी कर्म ने क्षयोपशम वाणी कान मांहि आवै तथा अज्ञानावरण कर्म ने क्षयोपशम वाणी कान मांही समज्या मां श्रवै तिवारै पछी वाणी ते दर्शन मोहनी कर्म नें क्षयोपशम थकी यथार्थ श्रात्म स्वरूप ज्ञान मांहि श्रावै. १७२. जिन वाणी ध्यान मांहि आवै ते किम ? • Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३४) || रत्नसार || धर्मांतराय कर्म नो क्षयोपशम थाय त्यारे एकाग्रता रूप ध्यान मांहि सिद्धि वरे तथा संयमफल पामै थकै तथा ४ च्यार कर्म क्षायिक भावै प्रणमै केवल ज्ञान पामी सिद्धि वरे. ए भाव. १७३. हिंवे च्यार प्रकारनी बुद्धि नंदी सूत्र मध्ये कही तेहना नाम ना शब्दार्थ लिखिये छै ते एक सौ तिरीयोत्तरमो प्रश्नः - उपतीया १ विणीया २ कमीया ३ परिणामीया ४. ते मध्ये किहांइ दीठं सांभल्यु होय नहीं, पोता नी मति ज्ञानावरणी ना क्षयोपशम थकी स्वभावै २ उपजै ते उत्पात की बुद्धी कहिये. अभय कुमार नी परे १. विनय कीधा थकी जे बुद्धी उपजै नागार्जुनादिक नी परे ते विणीय थकी कहिये २. कमियां ते करसणादिक कीधा थाइ विज्ञान कलाइ ते उपजै, व्यापार नी परे, ते कम्मीया कहिये ३. तथा परिणामिया ते श्रावता काल नो विचार करें, रोहा नि परे ४ तथा जिम अभय कुमारे आद्र कुमारे नें जिन प्रतिमा मूकी तिर्णे धर्म पाम्यो इम प्यार बुद्धि Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ रत्नसार ॥ (१३५) नो भावार्थ जाणवो. इति बुद्धी च्यार४. १७४. एक सौ चमोत्तरमो प्रश्नः- तथा जाती समरण ज्ञान ते मति ज्ञान नो भेद छै. विभंग ज्ञान जे देखै ते अवधि दर्शन ना पेटा मांहि छै. इति. ' था१७५. चन्द्रमा नी चाल नो एकसौ पिच्योत्तरमो प्रतः- मेष राशि नो सूर्य होई तिहां कन्या राशि ना सूर्य ताई चन्द्रमा नी चाल उत्तर दिस भणी, तथा तुल राशि थकी मांडी मीन ताई चंद्रमानी चाल दक्षिण दिशा भणी होइ. इति. १७६. अथ मिथ्यात्व अविरत हेतु नो एकसौ छिहोतरमो प्रश्नः- जेहवो आत्मा नो शुद्धोपयोग वस्तु आचरवानें जिम मिथ्यात्व बलवर्ते छ, तिम एहनी प्रणमन सुख निवारवाने अविरति बलवर्ते छै, जिहां श्रात्मा ना प्रणमन अविरत नो उदय अविरत रूप आत्मा प्रणमै तिहां एह ने अत्मिक एकाग्रता रूप सूख न पामै, ते सम्यक् दृष्टी ने अविरती हेतु मिटै. Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३६) || रत्नसार ॥ एहनी प्रणमन उपयोगै एकाग्रता रूप प्रणमै तिवारे एक सुख रूप सुखमई संपूर्ण धर्म पामै इति भाव. . १७७. तीन प्रकारे कर्म नी वक्तव्यता नो एक सौ सित्योतरमा प्रश्नः— तथा अनादि अशुद्धोपयोग रूपे विभावताई राग द्वेष मोह रूप आत्मा प्रणमै रे ते भाव कर्म १. तिण आकर्षण कर्म रूप वर्गणा बंध.. ते द्रव्य कर्म २. ते वर्गणा जिवारे पांच शरीरे प्रणमै तेह नोकर्म कहिये ३. इम तीन प्रकारे कर्म नी वक्तव्यता जाणवी इति भाव. W १७८. हिवै एक सौ अठ्योतरमो प्रश्नः - तथा सम्यक्दृष्टी जीव मिथ्यात्व नें उदये समकित बमीनें पाछो मिथ्यात्व गुण ठाणे जाय तोही पण आयु वर्जि नें सात कर्म नी स्थिति पल्योपम ने श्रसंख्यातमें भागें उणी एक कोडा कोडी सागरोपम नो बन्ध करै. उत्कृष्टो बन्ध एन लो करै, देश विरती नें नव पल्योपम उणी एक कोडा कोडी सागरनो बंध उत्कृष्टो Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ रत्नसार ॥ ( १.३७) करै, तथा मुनि पो पामीनें पाछो पडै, मिथ्याले जाय तो पण आयु वर्जिनें साते कर्म नी उत्कृष्टी स्थिति बांधै तो नव हजार सागरे उणी एक कोडाकोडी सागरोपम नो उत्कृष्टो बंध करै, तथा उपशम श्रेणी थी पडीनें मिथ्यात्वे जाय ते पण आयु वर्जि ने सात कर्म नी उत्कृष्ट स्थिति बांधे तो नवहजार सागरो पम उणी एक कोडा कोडी सागरोपम नो उत्कृष्ट स्थिति बंधक इति भवन भानु केवली चरित्रे उक्तंच. तथा मार्गाभिमुखे जीव किवारे थाय ? जिवारे भव्यतानें उदै अकाम निर्जराई कर्म खपावतां बे पुद्गल परावर्त्त संसार रहै तिवारे प्रभुमार्ग सन्मुख आस्तिक पणै सन्मुखी भाव थाइ. तिहां थी संसार भव भ्रमण करतो जीव ऊंचो श्रावै तिवारे जीव मार्ग पतित पण डोढ परावर्त्त पुद्गल संसार रहै, तिवारे जिनोक्त मार्गे रुचि रूपे बैठो. वली कर्म नें उदै ते भाव थी पड्यो संसार मध्ये परिभ्रमण करतो एक परावर्त्त संसार पुद्गल रहै तिवारे जीव मार्गानुसारी पणुं पामै Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३८) ॥ रत्नसार ॥ तिहां मित्रादि दृष्टी प्रगटैं. न्यायसंपन्न विभव इत्यादिक ३५ पात्रीश गुण प्रगट. तिहां आत्मा जिनोक्त मार्ग चाल्यो तिहां मिथ्यात्व मन्द रूप होय तथा एतला सुधी गुण पामी ने कोई जीव संसार मांहे नदी पाषाणनी परे घंचन घोलना करता अई परावर्त्त पुद्गल संसार माठेरा रहै, तिवारे आर्य देश संज्ञी पंचेद्री पणो गुरू उपदेशै तथा सहज स्वभावे कोई निमित्त पामीने यथा प्रवर्त्त करणे करी आत्मवीर्य थकी अपूर्व करणे मिथ्यात्व राग द्वेष नी जे ग्रंथी तथा उपशम ग्रंथी भेद करतो जे मोहनी कर्म नी सात प्रकृति तेहने उपशमावतो करतो जीव अनि वृत्ति करणे करी एक समय नो अन्तर करणे करी जीव उपसम समाकित पामै. तिवारे जीव मार्ग प्राप्त कहिये. वस्तु धर्म समकित ने पाम्यो. ए अधिकार योगबिंद ग्रंथ में कह्यो छै. १७९. तथा साधुने जे त्रिण्य जोग छै ते त्रण्य रत्न त्रय गुणे प्रणम्या छै ते किम ? ते एक सौ उगणयासीमो प्रश्नः-मनो योग ते सम्यक् दृष्टी दर्शन गुणै Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ रत्नसार ॥ (१३६) दृढास्थिकतादिरूपं प्रणम्यो छै तथा बचन योग ते जिन वाणी मांहि ते ज्ञान गुणे प्रणम्यो छै तथा काय योग्यते चारित्र गुणे. “जयंचरे जयं चिट्ठे जयं माशे जयं सुये इत्यादिक रूपे प्रणम्यों छे त्यारे जाव जीव तांइ सावद्य योग थी निवत्तिनें मुनि संजम योगे प्रणमै छै. इति. १८०. तथा संसार मांहे जीव केतली प्रकारना छे ते एकसा अशीमो प्रश्नः- जीव ३ तीन प्रकार ना छै-भव्य १ अभव्य २ भव्याभव्य ३. १८१. भव्यनु लक्षण कहे छै ते मध्ये भव्य जीव ३ तीन प्रकारना-एक निकट भव्य १ मध्य भव्य २ दुर भव्य ३. ते महे निकट भव्य जीव होय ते कीणनीपरे सद्दवा ते सौभाग्यवन्ती स्त्री वत् तिम निकट भव्य जीव होइ तत्काल स्त्री परणीने षट् मास माहे गर्भ रहै अने पुत्र नी प्राप्ति थाय, पुत्र रूप फल पामै. केतला जीव ते भवसिद्धि वरे ते निकट Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४०) ॥ रत्नसार ॥ भव्य १. तिम केतलाइ जीव मध्यम भव्य छै जिम ते परणी स्त्री ने बे बरसे पण नजीक पुत्र फल पामै.तेम जीव थोडा माहे भव सिद्धि वरे, मेघ कुमार नी परे २. केतलाइक जीव दुर भव्य छै. ते जिम परणी स्त्री ने घणे बरसै पूत्र फल पामै तिम ते जीव गौशाला नी परे, केतलाइक तथा अनंता पडवाइ नी परें घणे काले सिद्धि वरशे. इम तीन प्रकार ना भव्य जीव जाणवा. ____१८२. हिवै अभव्य नुं लक्षण कहै. जिम वंद्या । स्त्री घणे काल लग भरतार नो योग मिले, उपाय अनेक करै, पण पुत्र न पामै. तद्वत् अभव्य नुं जीव व्यवहारे चारित्रनी क्रिया आदरी नवमा ग्रेवेक सुधी जाय पण सिद्धि फल न पामै. १८३. हिवै त्रिजो भव्या भव्य कीह्यो ते जीव ते द्रव्य लक्षणे दलवाईं भव्य पणे कर्म नी विशेष निवडताइ व्यवहार राशी मध्ये ऊंचा नहीं आवै, धर्म पाम्या नी सामग्री न मिलै. अत्र गाथा-(सामग्रीय भावो व्यव Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ रत्नसार ॥ (१४१ ) हार राशि अप्प विसाओ । भव्वाचिते अनंते जे सिद्ध सुहं न पावंति ॥ १ ॥ कुण दृष्टांते कुण नीपरें ? जिम कोइ बाल विधवा स्त्री नीपरें. तें स्त्री ने पुत्र थावा ने सक्ति रूप छै पण भरतार ना योग ने अभावे पुत्र फल न पामै.तिम केतलाइक भव्य जीव है पण सामग्री में श्रभावे नहीं पामै एहवी गाथा पन्नवणा सूत्र नी टीका मध्ये. यतः - ( अथीअणंता जीवा जेहेंन पत्तोत साइ परिणामे | सुज्जतिययंती यंतीयं पूणोवि - तथैव तथेव ॥१॥) इति. १८४. हिवै अध्यात्मसार ग्रंथे तीन प्रकारना जीव का है - भवाभिनंदी ते मिथ्या दृष्टी १ बीजो पुद्गलानंदी ते चौथा पांचमा गुण ठाणावाला सम्यक् दृष्टी २. श्रात्मानंदी ते मुनि ३. इति. १८५. वली एहीज ग्रंथे तीन प्रकारनों वैराग्य कह्यो छै ते एकसौ पिच्चासीमो प्रश्नः - दुख गर्भित मोह गर्भित २ ज्ञान गर्भित ३. वैराग्य एहनो विस्तार १ Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४२) ॥ रत्नसार ॥ तिहां थी जोइयो ए भाव. इति. १८६. संसारी प्राणी केतली प्रकारना ते एक सौ छियासीमो प्रश्नः-ते ४ च्यार प्रकारना कह्या छै. ते किहां ? एक सक्न रात्रि सम १ एक अघन रात्रि सम २ एक सघन दिन सम ३ चौथो अघन दिन सम ४. हिवै सघन रात्रि समान ते भवाभिनंदी ते जीव मिथ्यात्वी, मिथ्यात्व गुण ठाणा वर्ती जीव जाणवा. जे मांहि कांई उजवालु नहीं १.तथा बीजा मार्गाभि मुखी, मार्गानुसारी जीव अघन रात्रि समान जीव जाणवा २ बीजो जीव सघन दिन समान ते समकित दृष्टि थी मांडिने बारमा सुधि ते जीव सघन दिन समान .३ चौथो अघन दिन समान ते केवली भगवान ४. ए च्यार प्रकार ना जीव जाणवा. . १८७. तथा संसारी जीव ने आठ दृष्टी कही. तेहना नाम ते एक सौ सत्यासीमो प्रश्नः- मित्रा १ तारा २ बला ३ दीप्ता ४ थिरा ५ कांता ६ प्रभा ७ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ रत्नसार ॥ (१४३) परा ८. ए आठ दृष्टि नो विस्तार योगदृष्टि समुच्चय ग्रंथ थकी जाणवो. इति. १८८. तथा सर्व वस्तु पदार्थ मात्र मांहि च्यार कारण छै ते किहां ? ते एक सौ अठ्यासीमो प्रश्नःएक उपादान कारण १ निमित्त कारण २ असाधारण कारण ३ उपेक्षा कारण ४ ए च्यार ना अर्थ-उपादान ते श्युं कही इं ? जिम दृष्टांते उपादान कारण ते मृतिका जे मांहि घट उपजवानी शक्ति तेहनो नाम उपादान १ तथा निमित्त कारण घटोत्पतो चक्र चीवर इत्यादि जिणे करी घट नीपजै २. असाधारण कारण ते कुंभ कार जे घट निपजावै ३. अने उपेक्षा कारण ते श्युं कहिये ? वस्तु जिम छै तिम नी तिम रहै पण तेहनी सहायै आपणुं कार्य करीइ जिम घट नीपन्यो तेम नो तेम रहै पण तेहनी साहाजे जल भरण पान रूप काम नीपजै. तथा जिम सूर्य दीपे छै तेनी साहाजे श्रापणा कार्य करीये ते अपेक्षा कारण ४ ते मध्ये उपादान कारण धुर थी मांडी छेहडा पर्यंत रहै. असाधारण Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४४) || रत्नसार ॥ कारण पर्णे. इमज इम च्यारे कारण जाणवा. כ १८९. वली तीन कारण बीजा कह्या छै समवाय कारण ते घटनुं उपादान मृत्तिका जाणवो. १ असमवाय कारण ते कुंभकार २ तथा निमित्त कारण ते चक्र चीवरादि इम घटते ३ तीन कारण जोड लीजे. 菌 १९० तथा सर्व वस्तु द्रव्यार्थ पर्यायार्थ ए बे नय लीधे छै ते मांहि थी सात नय ते किहा ? संग्रह नय १ व्यवहार नय २ नैगम नय ३ ऋजु सूत्र नय ४ शब्द • नय. ५ समभिरूढ नय ६ एवंभूत नय ७ ए सात नय तेहना उपनय ए विस्तार नय चक्र ग्रन्थ थी जाणवो. इति. १९१ . तथा कषाय उपने पूर्व कोडनो पाल्यो चारित्र चय करै ते ऊपर गाथा आचारांगनी दीपका मध्ये यत — सामण मणु चरंतस्स कसायाजस्स उक्कडा हुंति । ममन्ना मियत्त पुफंच निष्फलं तस्स सापणं ॥ १ ॥ जं अजियं चरितं देसृणा एवि पुर्व कोडि । एतंपि कषाय - I Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ रत्नसार ॥ (१४५) मित्तो हारेई नरो मुहुत्तेणं ॥ २ ॥ इत्यर्थ. १९२.तथा श्रांबिल शब्द नो अर्थ आवश्यक टीका मध्ये कयूं छै. आय कहतां जे (श्रोसामण काढुओ होई ) ते मध्ये थी जिम अन्न काढे ते रीते काढिये ते श्राहार करवो. अने जे आम्ल जे खाटो रस (षट् विगय) ए बेइनें वजै ते आंबिल कहिये. इति अर्थ. १९३. तथा नियाणकमा तेह ने व्रत नावै उदय जे इम कह छै. तत्रोत्तरं. तेमध्येनियाणा नव प्रकारै दसाश्रुत स्कंध मध्ये कह्याछै. तथा जे नियाणु समकित नु छै, अब्रत छै ए बे मध्ये जे समकित नो घात कारी नियाणो बांधे ते समकित पामवो दुर्लभ करे. तथा अविरति नुं भोग प्रतियुं नियाणो बांधइ ते भोग पूरा थए व्रत उदै आवै. जेम द्रोपदीने जीवे पूर्व भवे भोग प्रतियुं नियाणो बांध्यु हतुं, ने पांच भर्तारी थई भोग पूरा थया पछी व्रत उदय आव्यू. ते माटे एह ने अविरतिभासरि नियाणो कहिये, पण समकित नो नथी. इत्यर्थ. Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४६) ॥ रत्नसार ॥ १९४ तथा सामायक च्यार प्रकारनां कह्याश्रुत सामायक १ समकित सामायक २ देश विरात सामयिक ३ सर्व विरति सामायक ४. ते मध्ये श्रुत सामायक नौ लाभ ते भव्य मिध्यात्वी ने होइ. अभव्य नें पण द्रव्य थी श्रुत नो लाभ थाइ १. तथा समकित सामायक ते सम्यकदृष्टी ने होइ २. पांचमै गुण ठाणै देश विरति सामायक नों लाभ होइ ३. सर्व विरति सामायक ते छठे गुण ठाणा थीं मुनि ने होइ ४ एतला मध्ये मुख्य समकित सामायक ते संवर रूप छै तेहनो स्वरूप कहिये छै. जिनवाणी प्रतीते ग्रहीने प्रत्यक्षे स्वरूप ने वेदे, गुण पर्याय नो विलंछन करे, भेद रूप रत्नत्रय नें श्राराधै, ते व्यवहार समकित कहिये. तथा गुण पर्याय अभेद रूप रत्न त्रये द्रव्य द्रव्यं रूपें निर्विकल्प समाधि पर्णे प्रणमै तेहनें निश्चय समकित कहिये. ते आागले व्यवहारे वस्तु समकित नें मेलवै. इति. १९५. ज्ञान क्रियाभ्यां मोक्षः तत् कथं ? द्रव्य Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ रत्नसार ॥ (१४७) ज्ञान ते शास्त्रादि पठन रूप. भाव ज्ञान ते आत्मस्वरूप नो जाणवो. १९६. तेम क्रिया बे प्रकारनी-योग क्रिया ते शुभाशुभ बंध रूप. उपयोग क्रिया ते पोताने स्वरूपे प्रणमै ते निर्जरा रूप. जोग क्रिया ते जाते आश्रव रूप छे बंध में प्रापै. अने एहनो जे उपयोग छै ते स्वरूप निर्जरा करें. एतले कर्म ग्रहण त्याग रूप सालटो पालटो छै, पण सर्वथा मोक्ष क्रिया मध्ये नथी. सर्वथा मोक्ष ते उपयोगै छै. ते माटे जे क्रिया करे ते आश्रव रूप, माटै मोक्ष नी कतरणी कही छै,पण मोक्ष ते एहू नां उपयोग मांहे छै. इत्यर्थ. १९७: अथ चौथा कर्म ग्रंथ मध्ये तथा अनुयोग द्वार सूत्र मध्ये नव अनंता कह्या छे, ते मध्ये पहिलो, बीजो, त्रीजो, ए तीन अनंता ना नाम ए मांहि तो कोई एहवी अनंती वस्तु लघु नथी जे आवै, ते माटे ए तीन अनंता सून्य, एहना स्वामी कोई नहीं. तथा Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४८) ॥ रत्नसार ॥ चौथे अनंते अभव्य जीव आव्या ते माटे चौथा भांगा ना ए स्वामी. पांचमें अनंते मध्य भांगे सम्यक्त पडवाई जीव कह्या. बली तेहीज पांचमें अनंते सिद्ध कह्या. पण पडवाइ थी अनंत गुणे अधिका. पण ए सर्व पांचमा अनंता ना स्वामी. तिवार पछी छठे अनंते कोई नहीं. सातमै अनंत पण कोई नहीं. ए बें अनंता थी संसारी जीव पुद्गल परमाणुआ नो काल सर्व आकाश प्रदेश घणा अनंता, ते माटे बे अनंता नो स्वामी कोई नहीं. शून्य भांगा जाणवा. तिवार पछी ए. सर्व आठमे अनंते जाणवा. ते माही विशेष सर्व निगोदिया वनस्पति कायना जीव आठमै अनंते तेथी अनंतानंत गुणै अधिका पुद्गल परमाणु, ते थी काल, ते थी सर्व आकाश प्रदेश, ते थी केवल ज्ञान दर्शन ना पर्याय, इम एकेक थी अनन्ता गुणीये पण सर्व आठमा अनन्ता ना स्वामी एतले भागे, वस्तु नवमो अनन्त पूरो थयो नहीं. ते माटे ए नवअनंता मांहे. तीन अनन्त ना स्वामी कह्या. ए गाथा मांहि Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ रत्नसार ॥ दंडक सूत्र ९८अल्पा बहुत्व नो द्वार छै तेहनी गाथा १९ मी मध्ये ए तनि स्वामी कह्या. इति भावार्थ. १९८.तथा सिद्धान्त आगम मांहि प्रथम क्षयोपशम सम्यक्त पामै,उपशम नो तन्त नहीं.ते श्री जिन भद्र गणी क्षमा श्रमण नी कीधी सम्यक्त पचवीसी मध्ये पहिलो क्षयोपशम सम्यक्त पामै,उपशम नो तन्त नहीं. तथा कर्म ग्रन्थ मध्ये पहलो उपशम समकित पामै. एहवो तन्त कै.त्यार पछी क्षयोपशम सम्यक्त पामै, उपशमनो तन्त नहीं,एहवो प्राचार्य नो मत छै.अथःत्यार पछी काल सीतरी ग्रन्थ मध्ये कालीकाचार्य तीन जुदा कह्या छै. तथा कलंकी थाशै ए अधिकार पण कालसितरी ग्रंथ मध्ये छइ. इत्यर्थ. १९९.अपरं.तत्वार्थ मध्ये इम का छै पृथ्वी,पाणी, अग्नि, वायु, वनस्पति प्रत्येक एतले स्थानकै एकेकी पर्याप्ता निश्रायें असंख्याता अपर्याप्ता होइ, पण सूक्ष्म निगोदिया पर्याप्ता नी निष्ट्राइ अनन्ता अपर्याप्ता Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५०) ॥ रत्नसार ॥ न होइ. ते अनन्ता अपर्याप्ता शरीर जुदा, तेहनो पण अायू २५६ दोसो छपन आवली नो होइ. पण अपर्याप्तो मरै इम न होइ, सर्वे क्षुल्लक भविया छै. ते माटे तथा पर्याप्ता नुं आयू एतलो, पणै तेतला माहे प्राप्ती पूरी करीने मरै. एहवो धारयो छै. तत्वं इति. २००.व्यवहार राशियो जीव फरी सूक्ष्म निगोद मांहे जाइतो उत्कृष्टोअढ़ी परावर्त पुद्गल ताइ रहै.ते क्षेत्रपरावत्ति लीजिये. पण सूक्ष्म ने बादर बे मांहि थई ने तथा ते वली प्रथ्वी काय मांहे श्रावी, वली सूक्ष्म निगोद माहे जाय तो वली बीजा अढी पुद्गल परावर्त्त रहै. उत्कृष्टे वली ऊंचो श्रावी पृथ्वी पाणी मांहीं आवी वली सूक्ष्म निगोद मां जाय तो तिम जे उत्कृष्टो काल निगोद मध्ये इम तिर्यच नी गति बांध्या थी जाइ आबै तो उत्कृष्टे असंख्याता पुद्गल परावर्त्त रहै. ते असंख्याता केतले माने-आवलीने . असंख्यात में भागै जेतला समै असंख्याता थाइतेतला मानै, असंख्यात पुद्गल परावर्ते क्षेत्र थी जाणवा. Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ रत्नसार ॥ (१५१) इम पन्नवणा मध्ये तथा कायस्थि स्तोत्र नी टीका मध्ये कयूं छै. इति पूर्ण. - २०१. तथा दर्शन नी क्षपक श्रेणी ते चौथा थी मांडी, चारित्र नी क्षपक श्रेणी आठमी थी मांडै. २०२.कर्म ना बंध जघन्य थी एक समै नो, जघन्य स्थिति तें अंत मुहूर्त तांइ भोगवै. उत्कृष्टै ज्ञानावरणी कर्म नी त्रीस कोडा कोंडी. इम ए रीते. २०३. तथा भव्य अभव्य सर्व जीव सूक्ष्म निगोद थी निकल्या छै, मूल भूमिका ते जाणवी. २०४. तथा मनोयोग तो जघन्य थी एक समय नो उत्कृष्टो अंतरमुहूर्त नो काल.इम वचन योग नो पण काल ए रीते छै इम धारयूं छं. इति. २०५.षट् गुणी हानि वृद्धि द्रव्यने छै तेहनो स्वरूप यथा श्रुत लिखिये छै. द्रव्य नूं लक्षण इयुं ? ते द्रवाइ ते सेणे ? गुण पर्याय करी द्रवाइ तेद्रव्य कहिये. तथा द्रव्य ते उत्पादादि, व्यय, ध्रुव तांइ सहित छ. ते द्रव्य Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ रत्नसार ॥ परिणामी छै. ते प्रणमन उत्पाद, व्यय रूप छै, ते जिवारे द्रव्य थी प्रणमन रूप पर्याय छै ते जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट स्वरूपै छ. तिहां षट् गुणी हानि वृद्धि नीपजै ते केम ? संख्यात गुणी वृद्धि, इम असंख्यात गुणी वृद्धि, अनंत गुणी वृद्धि. इम अनंत भागे हानि, असंख्यात भाग हानि, संख्यात भाग हानी हिवै असंख्यात भागे संख्यात, ते व्यय रूप प्रणमन नो स्वरूप. इम उत्पाद व्यय रूपें सिद्धि ने विर्षे पण इम द्रव्ये द्रव्यल प्रणामी प्रणमन श्रासरी षट् गुणी हानि वृद्धि संभवीए छै. पछै तो श्रीवीतराग देवें जे कह्यं ते सत्य. इति. २०६.बंध ना च्यारप्रकार छै तेहनास्वामी बे,कषाय वसें तिवारे जीव प्रणमै जिवारे स्थितिबंध अने रस बंध करें, अने केवल योग प्रणमने आत्मा प्रणमै तिवारे प्रदेशबंध अने प्रकृतिबंध ए बे होय. २०७.हिवै केवली भगवंत जे साता वेदनी योग Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ रत्नसार ॥ (३५३) बांधै छै ते किम ? तेहने कांई शुभ संकल्प रूप व्यापार नथी. जे केवली भगवंत ने एक शुकल लेश्या . नो उदै छै ते जोग द्वार प्रणमै अने योग नी प्रणमन ते उदये उदयैक भावै जाइ प्रणमै, पुद्गल ने पुद्गल नो विश्राम तिवारे ते लेश्यायें एक समे एक साता वेदनी नो बंध थाय , पणं उत्तम पुद्गल ग्रहै, बीजे समै वेदै, त्रीजे समै निर्जरै. ए रीते धारूं छं. इति. २०७. हिवै चौथे गुण स्थान सम्यक् दर्शन पामै अनंतानुबंधीया राग द्वेष तथा मिथ्यात्व मोहनो क्षय तथा क्षयोपशम थाए ३. . २०८. अवगुण उदै मांहि थी तथा सता मांहि थी जाइ ते किहां गुणै खार, बैर, ने जहर जायं ? सम्यक् दर्शन गुणै खार जाइ, सम्यक् ज्ञान गुणै बैर जाय, मिथ्याल मोह गए तथा चारित्र मोह गए जहर जाय. तथा छठे गुण स्थानै मुनि ने उदय मांहि थी विषय मांहि थी विषय, कषाय, उत्सूत्र, परूपणा, ए तीन - अवगुण जाइ. तथा केवली ने राग, द्वेष, मोह गए Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५४) ॥ रत्नसार ॥ तीन अवगुण सत्ता मांहि थी गया तिवारे वीतराग थया. इति भाव. २०९.तथा पाणंद श्रावक नी संधि तपा गठ्ठ मुनि श्री मोहन विजय नि गाथा ३८१ तीनसो इक्यासी नी छे एक परतमे तो इणीतरे छे वे इण परतमे खरतर गछै मुनी श्रीसार नो लीख्यो छे ते ३८१ मी गाथा , ते मध्ये अष्ट प्राति हार्य अधिकारे देवता भा मंडलें किम करे छै ? तत्र गाथा- ( तेज अरिहंत नो अति घणो ए. खमी न सके नर नार । ते तेज लेइ सुर करेए पूठे भामंडल सार ॥ १ ॥ ) परम उदारिक शरीर ना तेज विशेष छै. ते तेज ना पुद्गल ना संहरीने प्रभु ने पूढ़ भामंडल करै. इति. . २१०.तथा आणंद श्रावक ने पांचसे हलवा भूमि मोकली , ते भूमि नं मान लिखिये छै. तत्र गाथा(खेत्र खडुहल पांचसै मुझ में अविरत एतीरे । घर धरती पण मोकली एक सौ निवरति जेतीरे ॥१॥) Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ रत्नसार ॥ (१५५) ते निरती नो अर्थ लिखिये छैः- दशभिः हस्तेरेकोविश विंशत्या बंशे एको निवर्त्तनं पंचसते निवर्त्तनै ॥ १॥ एकं हल ईदृशी हलं भूमिका । पांच शत भूमि घर धरती जाणवी. एतत् भूमिका घर रहवानी छ ढाकी. पांच सैहल भूमिका हल खडवानी छ उघाडी. इति भाव. २११.तथा कर्म चतुर्थक तय नी विधि.पूर्व अष्टमं १ एकांतर चतुर्थं ६० प्रांते अष्टमं इति तपो दिन ६६पारणादिक दिन६२ उभय दिने मिल ने दिने १२८. इति कर्म चतुर्थ. (तपयत वसु देव हिंडो सापउ माअज्जिया उतेणा जाए सयासोओकमवउथं उयवणा दुणति .रत्ताण सठि चउथाणित्ति ॥ १ ॥) ते पदमा आर्याई, तेणे आयाईने समीपे कर्म चउथतप कीधो. ___ * प्रथम एक अठम करी पछी एकान्तरे साठ उपवाश करीने वली छेहलु श्रेक अठम करी अटले त्रण उपवाश करी पारणु करीये ते वारे छांसठ उपवाश अने वाशठपारणा मली चार मांश ने पाठ दीवशे ने तप पुर्णथाय छे. .. . Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५६) ॥ रत्नसार ॥ इति शान्तिनाथ ना भवाधिकारे छै. इंदुखेण बीदुखेण भवाधिकारे गणिका ने भवे तप कीधो इति. -२१२. तथा धर्म चक्रवाल तप नी विधिअठम १ एकंतर चतुर्थ ३७ प्रांते अष्टम इति * धर्म चक्र वाल.अथवा प्रथम षष्टं तप एकांतरोपवास ६० इति प्रकार द्वयेन धर्म चक्र वाल तपनी तत्र प्रथम प्रकारे दिन सवींग्र८ २द्वितीय प्रकारे दिन सर्वांग्रे १२३. . २१३.तथा शान्तीनाथ चरित्राधिकारे तीर्थकरनी माता१४चवदा सुप्त मुख माहे पैसता देखै यतः-चतुर्दश महा स्वप्नात् सुख सुप्ता तदाच सा मुखे प्रविशतो अपस्यत्.तव तस्या कारिधारिणा इति उत्तरा भावविजै टीका मध्ये श्री शान्तिनाथ चरित्राधि कारे काछै. - २१४.आवश्यक चूर्णैवृत पंचा सक वृत्तौ योग शास्त्र व्रत्तौ नव पद प्रकरण वृत्तौ श्रावक दिन कृत * प्रथम एक अठम करी पछीसात्रीश एकान्तरे उपवास करवा अने छेहड़पण एक अठम करवु एम ४३ उपवास अने ३९ पारणामली ८२ दिवसे तप पूरण थाय. Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ रत्नसार ॥ (१५७) वृत्तौ श्राद्ध विधि प्रमुखे प्रथम सामायकं पश्चात् इर्यापथीकी श्रावक ने दिग्वृत्त होय पण साधु नें नहीं, मेरु रुचिक जावा माटें. इत्यर्थ. २१५. तथा उद्वेगता १, अथिरता २, असाता ३, श्राकुलता ४, च्यार प्रकारना दुःख किहां कर्म थी उपजै इति प्रश्नः - उध्वेगता ते अज्ञान मिथ्यात्वी ना घर थी उपजै १. असाता ते वेदनी कर्म ना उदय थी निपजै २, अवरति ना घर नी घणी आकुलता चारित्र मोहनी कर्म ना उदैथी उपजै ३. अथिरता ते वीर्येतराय ना घर थी उपजै ४. इति. २१६. तथा दातार दान आपै तेहना : प्यार भेद छै. अपात्र १ पात्र२ कुपात्र ३ सुपात्र ४. ते मध्ये पात्र स्वानादि पशु में आपै तथा बंदीवान ने आपको ते अपात्रदान, तेहना फल इह लोक यश प्रतिष्ठारूप लवलेश फल १. तथा वैरागी कापडी इत्यादि अन्य दर्शनी भिक्षुक ने आपै ते कुपात्र दान, कुत्सित पात्र Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५८) ॥ रत्नसार ।। कहिये. तेहना फल परभवे राज्यादिक सुख पामी ने पापा-बंधी पुन्ये संसार घणो बधारै, कुगति दल मेलवै२. तथा पात्र ते सम्यक् दृष्टी देशविरति साधर्मी ने पोषवो ते पात्र दान, तेहथी पुन्यानुबन्धी पुन्याइ उपार्जि ने भव तुच्छ करै, संसार घटाडी ने वहिलो सिद्धि वरे ३. तथा सुपात्र दान साधु चारित्रीया तथा गणधर तीर्थकर ने अन्नादिक ना दान दे तो महा पुन्या नुं बन्धी पुन्याई उपार्जि ने थोडा भव माहि सिद्धि वरें, सुबाहु ऋषि तथा धना शालभद्रादिक नी परें वहिला सिद्धि वरें. ४ ए पात्र कुपात्र अपात्र सुपात्र दान ना भेद जाणवा. ए भाव. -- २१७ तथा छः कायना नाम गोत्र जाणवा रूप लिखिये छे. इंदीथावरकाए १ बंभी थावरकाएर सीपी थावरकाए३ समुई थावरकाए ४ावसी थावरकाए ५ जंगम थावरकाए६. तथा गाथा- (इंदी बंभी सीपी समुई आवस्सी पांच काए । जर रत्त सेय हरिया बहु वन्ना हुंती पंचमीया ॥१॥) तत्र इंदीथावर काय- ४ Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ रत्नसार ॥ (१५९) पृथिवी काय गोत्र, पीत वर्ण, पुढविना जीव, इंद्र देवता १. बंभी थावरकाय नो अपकाय गोत्र, रक्त लाल वर्ण, ब्रह्म देवता, अपकाय ना जीव २. सीपी थावरकाए नाम, तेहनो गोत्र तेऊ काय, श्वेत वर्ण, सिल्प देवता, तेऊकायना जीव ३. समईया थावरकायए नाम, तेह नो गोत्र वायु काय, हरित वर्ण, समुद्र देवता, वायुकायना जीव४. आवस्स थावरकाए नाम, वनस्पतिकाय गोत्र,नाना वर्ण, पाताल दैवता, वनस्पतिनाजीव५. तथा जंगम ते त्रस काय कहिये. ए छः काय ना नाम गोत्र जाणवा. जेम सात नर्क ना नाम गोत्र छै तेम ए पण जाणवा. ए भाव. २१८हिवै दस प्रकारे सत्य का छै तेह नी गाथाजणवय समय ठवणा नाम रुवे पडुच्च सच्चेय व्यवहार भाव योगे दसमेउ वम सच्चेय ॥१॥) ए गाथा ठाणांगे छै. २१९ हिवै पंचेंद्री ना २५२ दोसो बावन भेदे जीव ने कर्म बन्ध होइ एतला विकारहोइ ते लिखिये Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ रत्नसार ॥ छै:- पहिलो कर्णेद्री ना भेद १२बार ते किम होइ? सच्चित शब्द रूडा, मयूर, कोकिला प्रमुख ते १. अचित शब्द मृदंग, ताल प्रमुख २. मिश्र शब्द पुरुष तथा स्त्री ते मांहि वस्त्रादिक वांट भेरी प्रमुख ते ३. ते शुभ अशुभ भेद छःते छः भेद रागै अने द्वेषै एवं १२ भेद श्रोतेंद्री ना विषयविकार जाणवा ४. २ हिवै चक्षु इंद्री तेहना ६० साठ विकार जाणवा ते किम ? वर्ण पांच ते बिहुँ प्रकारै शुभ अशुभ, शुभ ते रत्नादिक, अशुभ वर्ण कैशादि एम १० दस भेद. ए सचित रत्नादि अने अचित गुली प्रमुख मिश्र स्त्री पुरुष प्रमुख भेर्दै त्रिगुण करतां३०तीस भेद थाइ. ते रागै अने द्वेषै इम बमणा करतां ६० साठ थाइ४. . ३ घ्राणेंद्री तेहना १२ बार भेद. गन्ध बेहु प्रकारे--सुरभिगन्धं,दुरभिगन्ध, सचित पुष्पादि शुभ अशुभ लक्षणादि. अचित कस्तूरी प्रमुख शुभ, अचित विष्टादिक प्रमुख अशुभ, मिश्र पदमनी स्त्री Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ रत्नसार ॥ प्रमुख, अशुभ संखणी स्त्री प्रमुख. इम६ छः भेद ते राग अने द्वेषै करी १२ बार भेद थाइ. ४.जिव्हा इंद्री ना७२ बोहतर भेद इम जाणवा. रस ६ ते शुभ अने अशुभ करतां १२ बार भेद ने ते सचित, आचित, मिश्र करतां ३६ छत्तीस भेद थाइ. ते रागै ने हेपै करतां ७२ भेद थाइ. . ५. स्पर्शन इंद्रीना ६६ छन्नु भेद ते किम ? स्पर्श आठ-हलुवो स्पर्श अर्क तुल्य १. गुरु स्पर्श वज्रादिक २. मृदु स्पर्श हंस रूप स्पर्श प्रमुख ३ खर स्पर्श करवत धारा गोजिव्हा प्रमुख ४, शीत स्पर्श हेम प्रमुख ५, उष्ण स्पर्श अग्नि प्रमुख ६, स्निग्ध स्पर्श घृतादि, लूखो स्पर्श राक्षादि ८. तेहना तीन प्रकार सचित, अचित, मिश्र. सचित पुष्पादि, अचित माखण प्रमुख, मिश्र स्त्री पुरुष. इम आठ ने त्रीगुणा करता२४ चौबीस भेद. ते रूड़ा ने पाडुवा करतां ४८ अड़तालीस थाइ. ते रागै अनें द्वेषे करतां९६छनु भेद. सर्व Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६२) ॥ रत्नसार ॥ संख्या २५२ भेद जाणवा. इम श्रोत्रंद्रीना१२ विकार, चक्षु इंद्रीना६०, नासिकाना१२, जिव्हा ना७२, स्पर्श इंद्रीना ९६, इम सर्व मिली २५२. एतले पांचेंद्रीना विषय २३, अने विकार ते २५२ भेदे जाणवा. इति विषय विकार संपूर्ण. २२०. शब्दादि इंद्री नो विषय कहै छै. भाष्यकताह-(बार सहितो सुतस्सेसाणं नव ही जोइणे हिंतो। गिणत्तो पत्तमथं ए तो परतो नगिणंति ॥१॥) चक्ष नो एक लाख योजन विषय कह्यो छै. तथ कानना बार जोयण इत्यादिक का छै. जोयण श्रात्मांगुल प्रमाणे च्यार गाऊ नो जाणवो. तथा सूर्य नो बिब तो आत्मांगुल प्रमाणे घणा लाख योयण थाई. ते माटे एतलो चक्षु नो विषय नथी तो सूर्य नो बिंब किम देखै छै ? तत्रोत्तरं-सूर्य नो विमान तो देवकाय एक योजण ना एक सढी या अडतालिस भागनो छै. तेहना आपणा गाऊ १३०० तेरासो Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ || रत्नसार ॥ ( १६३) ने श्रासरे मोटो विमान छै. ते सम्पूर्ण ते बडो मानवी नी दृष्टे नथी श्रावतु, पण तेह ना विमान ना तलिया नो तेज नो आभास मान झलक कांति दीसै छै पण संपूर्ण विमान जेवडो छै तेहवो दृष्टे न आवे, ते माटै आत्मांगुल प्रमाण नौ लाख योयन विषय कहिये. इम शब्द नो विषय पिणरूडो गाज्ये, तेहने श्रोतेंद्री नो भलो क्षयोपशम होय ते सांभले, इम नव योजन आव्या वायु नें योगै खाटा खारा पुद्गल नु जिव्हा ईद्री यें ग्रहण थाई. इम नासिकाये वायू योगे आव्या नव जोयण सुरभी दुरभी जे ग्रहण थाई. इम स्पर्श ईन्द्रीये नव जोजन ना वायू योगे श्राग्रहण थाइ पण ते सर्व जोयण श्रात्मांगुल प्रमाण गाऊ ४ जाणवा. तत्र गाथा - ( पुढं सुणेइ सदं रूठ पुण पास । श्रपुधंतु गंध रसंच वधं फासं पुठं वियागरेति ॥ ) तथा चक्षु इंद्री नो आकार मसूरनी दाल जेवडो वडो, श्रोतेंद्री नो आकार आगछीया वृक्ष ना फूल जेहवो, तथा नासिका नो आकार तिलनां फूल Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६४) || रत्नसार ॥ सारीखो, तथा रसेंद्री नो श्राकार छरपलो तथा कमल ना पत सरीखो, फरसेंद्री नो आकार अनेक प्रकारे है. इम साधु ने पंचेंद्रीयते श्राकार रूपै छै. पण विकार रूप नथी. ते माटे पंचेंद्री ना विषय विकार दमै ते मुनीनें पण वीतराग रूप कहिये. इति. २२१. पुनरपि पंचेंद्री ना द्रव्य भाव रूपै कहिये छै. श्रोद्री बेहु प्रकारे द्रव्य अभाव. तिहां द्रव्य इंद्री बेहु प्रकारे — सूक्ष्म नैं बादर. बादर ते बाहिरै दीसै, सूक्ष्म ते कर्ण मांहि विषय ग्रहण व्यापारें, जघन्य थी गुलो संख्यातमो भाग, उत्कृष्ठ १२ जोयण नो विषय. इम सर्व इंद्री नें विषय जघन्य थी अंगुल नौ असंख्यातमो उत्कृष्टो विषय जिम पुर्वे कह्यं वै तिम जाणवो. २२२. हिवै भावेंद्री ते जीवने दर्शनावरणी कर्म क्षयोपसमै शब्द रूप रस गन्ध स्पर्शे लेवानी शक्ति उपजै ते उपयोगे भावेंद्र कहिये. अने श्राकारे द्रव्य इंद्री Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ रत्नसार ॥ (१६५) कहिये. इति पन्नवणा सूत्र मध्येइंद्रीपद मध्ये छै तिहां थी विस्तार जाणवो. इति. २२३.तथा सिद्ध थयानो पण विचार श्रीपन्नवणा सूत्र मध्ये कयूं है. मनुषथकी सीझे तेहने आठ इंद्री, नारकी थकी मनुष्य थइ सीझै तेहने १६ सोलेंद्री, तिर्यंच थकी तथा पृथवी थकी मनुष्य थइ सीझै तेहने १७इंद्री, तथा देवता थकी पृथिवी थकी मनुष्य थई सीझै तेहनें १७ इंद्री. पृथिवी पाणी वनस्पति मांहि थी मनुष्य थइ सीझै तो९ इंद्री. इम सर्व विचार पन्नवणा मध्ये कह्यो 2. पण एहनो अर्थ आमनाय गुरु गीतार्थ पासे ते लियो. इति. २२४.अथ आत्मांगुलउछेदांगुलप्रमाणांगुल ३ ए तीन नोमान गाथा थकी जाणवो (उसेहंगुल मेगं हवइपमाण गुलं सहसगुणं।तंचेव दुगणीयं खलु विरसायंगुलं भणीयं ॥ ७॥ आयगुले केण व उसेहं पमाणंतु मिण सुदेहं । नग पुढवी विमाणाई मिण सुपमाणं गुले Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६६) ॥ रत्नसार ॥ णंतु ॥ २ ॥) इति श्राव. नियुक्तो उक्तं इति. २२५.तथा मति ज्ञान नारबे भेद,-श्रुत निश्रित १ अश्रुत निश्रित२. ते मध्ये श्रुत निश्रित ना४च्यार भेदउवग्रह १ इहार अवाय ३ धारणाय ४. उग्रह ना २ बे भेद-व्यंजना अवग्रह १ अर्थावग्रह २. व्यंजना वग्रह ना ४ भेद-परसें १ रसें २ घ्राणे ३ श्रोत्रे ४. अर्था वग्रह ना ६ भेद-पांचे इंद्री. अने छठो मन. इम छचोक चोबीस. अने व्यंजनावग्रह ना४, इम इहा अवाय धारण करतां एवं २८. इम एकेक ना १२ भेद थाइः बहु १ अबहु २ बहु विध३ अबहु विधादिक १२भेद, तिहां अनेक जीव वाजिन शब्द ना शब्द सांभलैछ, ते मध्ये क्षयोपसमिक विचित्रताई करी कोई जीव घणा शब्द ग्रहै ते बहु १. कोइक थोड़ा ग्रहै ते अबहु २. कोई एक शब्द ना तार मांडे इत्यदिक घणा विशेष जाणे ते बहु विध३. कोईक थोड़ा विशेष जाणे ते अबहु विध४. कोईक तुरत आहे ते क्षिप्र ५. कोईक ससते ग्रहै ते चिर कहिये६. कोईक धुभादिक Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ रत्नसार ॥ (१६७) लिंगे करी अागादिक जाणै तेसलिंग७. तथा ते लिंग विना जाणै ते अलिंग ८. संदेहालो. जाणै ते संदिग्ध कहिये ९. संदेह रहित ते असंदिग्ध १०. कोईक वेला का ते बीजी वेला अण कहे जाणे ते ध्रुव ११. कोईक वारवार जणावै ते अध्रुव १२. इम अवग्रहादिक २८ भेद ते १२ बार गुणा करतां ३३६ भेद थाइ. एतला श्रुत निश्रित नां भेद. तथा अश्रुत निश्रित ना ४ भेद-उत्पातकी बुद्धी विनयकी बुद्धि २ कम्मीया ते कार्मण बुद्धि ३ परि. णामीया परिणामिक बुद्धि ४ एवं च्यार. इम श्रुत निश्रित अश्रत निश्रित सर्व मिली मति ज्ञान ना३४० भेद कर्म ग्रन्थ नि टीका मध्ये कह्या छै. इत्यर्थ. ___ २२६. तथा पन्नवणासूत्र ना छठा वकंति पद मध्ये कां छै जे योतिषी देवता मांहि समुर्छिम मनुष्य असनीयो तथा तिर्यच असनीयो समुर्छिम असंख्याता वर्श नां आयुषा नां युगलिया पंखी तथा अंतरद्वीप ना युगलिया मनुष्य एतला मांहे थी आव्यो ते योतिषी Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६८) देवता पण न उपजै . इत्यर्थ. · २२७. हिवै पांच लब्धि नो भावार्थ लिखिये छै. प्रथम काल लब्धि १ इंद्री लब्धि २ उपदेश लब्धि ३ उपशम लब्धि ४ प्रयोगता लब्धि ५ ए पांच लब्धि पामै तिवारे जीव आत्मबोध समकित धर्म पामै ते मंध्ये ३ तीन लब्धि पहली पाम्या पछी छेहली एकठी एक समै प्रगटै. ते मध्ये काल लब्धि ते यथाप्रवृत्ति करण थये आवै. सात कर्म नी थिति सात कोडा कोडि सागर नी थितै श्राणै,एतले ज्ञानावर्णी कर्म नी थिति ३० कोडा कोडी उत्कृष्टे हती ते अकाम निर्जराई औछी करै तो २९ कोडाकोडी घटाडी नवि अणबंध तो एक कोडा कोडि मांहि आणी मूकै. इम७ सात कर्म नी जेहनी जे स्थिति उत्कृष्टी वै ते मांहि थी सर्व घटावै तो एक ॥ रत्नसार ॥ * ज्ञाना वर्णि १ दर्शना वर्णि २ वेदनि ३ अन्तराय ४ ये च्यार कर्म नी उतकृष्टिस्थिती ३० त्रीश कोड़ाकोड़ी नी, अने नाम कर्म १ गौत्र कर्म २ ये बे कर्म नी उतकृष्टिस्थिती २० वीस कोड़ाकोड़ो नी छै, अने मोहनी कर्म नी उतकृष्टस्थिती ७० सितर कोड़ाकोड़ी नी छै, ते ७ सात कर्म नी उतकृष्टस्थिती मांहे थी सर्व खपावै, बाकी एके एक कोड़ा कोड़ी नी राजे. Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ रत्नसार ॥ (१६९) कोडा कोडी रहै. इम आयु वर्जिने सात कर्म नी स्थिति सात कोडा कोडी सागर मांहे आणै त्यारै, काल लन्धि जीव पाम्यो, पण इंद्री लब्धि जे पंचेंद्री पणा संज्ञी पणौ न पाम्यो. काल लब्धी थि एकेंद्री विगलेंद्री पणे पाम्यो ते काम न आवै. इम भव नी परम्पराइ किवारै अकाम निर्जराइं ऊंचो आवै, पंचेंद्री संज्ञी पणों पामै. तिवारे इंद्री लब्धि पाम्यो, पण काल लब्धि न पाम्यो. इम भवनी परम्पराइ कोई जीव ने काल लब्धि न पामै. ते जिवारे जीव ने भव थिति घटे, साते कर्मनी थिति एक कोडा कोडी मांहे आंणै एहवा उत्कृष्टै यथाप्रवर्त्त करण चरमावर्त्तन आवै जो जीव पाछो नहीं पडै, संसार वधार से नही, एहवा जीव ने काल लब्धि पाम्यो इंद्री लब्धि पामी ने उपदेश लब्धि पामै तीजी त्यारे गंठी भेद करै. ते समै तिहा उपशमता लब्धि पामै तिवारे, उपशम भावै वर्त्ततो अपूर्व करण बीजो पामै. तिवारे दुर्भेद जे गंठी तेह ने भेदै तिहां चौथी लब्धि पाम्यो. तिवार Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७.) ॥ रत्नसार ॥ पछी अनिवृत्तिकरण अंतर करणे वर्त्ततो जीव प्रयोगता लब्धि पामै. तिहां वीतराग धर्म रुचि प्रतीतात्मक धर्म शुद्ध श्रद्धाने आत्म स्वरूपनो दर्शण, ज्ञान, स्वरूपाचरण रूपैं समकित पामै. इम संमी लब्धि सम्यक् दर्शन पामै. इति नियमसार ग्रन्थे का छै तिहां थी ए लब्धि ना भेद किंचित लिख्या है. इति. २२८.हिवै उद्दार पल्योपम,अने एक श्रद्दा पल्योपम, एक क्षेत्र पल्योपम एतीन नो स्वरूप लिख्यते. ए तीन ना सुक्ष्म अने बादर ए बे भेद करता छः भेद थया. तेह नां मान अनंता सूक्ष्म परमाणु आनो एक व्यवहारिक परमाणु तेणे अाठै त्रसरेणु,८ ऊर्धरेणु, ८ रथरेणु, ८ उत्तर कुरू युमलीया ना वालाग्रे. ८ महा हिमवन्त क्षेत्र युगलिया, ८ हिमवंत क्षेत्र युगलीया, . ८ महा विदेह नर वालाग्र, ८ भरत नर वालाग्र,८. लीख ८, जूय ८, जबमध्य ८, अंगुले. इम प्रत्ये आठ गुणा करे तिवारे उच्छेद अांगुल. तेणें चौबीस आंगुले हाथ. चऊ हाथे धनुष. तथा बे हजार Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ रत्नसार ॥ (१७१) २००० धनुषे कोस. चिहुँ कोसै एक योजन प्रमाणे लांबो, पहुलो, ऊंडो एहवो कुप पालो कहिये ते मधे देव कुरू उतर कुरू ना युगलीया ने बाले ठांस भरिये तो एक समय एके को काढतां जिवारे पालो खालीये थाइ तेतलो काल बादर उद्दार पल्योपभ संख्यातो काल थाइ, संख्याताखंड मार्ट. १. तथा पूर्व वालानः खंड ना एक ना असंख्याता कल्पीयें समैं समे काढतां जिवारे खाली थाई तिवारे सूक्ष्म उद्वार पल्योपम. २ एहवा २५कोडा कोडि पल्ये ही समुद्र ना परमाण है. तथा पूर्वोक्त पालो वालाने भरयो छै ते सोए बरसै एक खंढ काढतां पालो खाली थाय ते बादर श्रद्वा पल्योपम संख्यात वर्ष प्रमाण माटे. ३. हिवे ते खंड ना असंख्याता खंड कल्पिइ. तेह नो कल्पना खंड खंड सौ सौ वरसे एके को काढता हुता जिवारे पालो निर्लेपम थाइ तिवारे अहा पल्योपम सूक्ष्म थाइ. ते हवै दस कोडा कोडी अद्वापल्योपमे एक सागरोपम तीणे दस कोड़ा कोड़ी सागरे एक अवसर्पणी Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७२ ) ॥ रत्नसार ॥ काल इम ए सूक्ष्म श्रद्वा पल्योपमे करीने देवता नारकी तिर्यच, मनुष्य आयु मान, कर्म स्थितीमान, काय स्थिती मान, काल मानादिक लेवो ४. तथा ते बालाग्र खंड भरा पल्य मांहि थी कल्प वालाग्रे स्पर्श जे श्राकाश प्रदेश ते मांहि थी एकैके आकाश प्रदेश समय २ काढतां जिवारे सर्व वालाग्र स्पर्श प्रदेश निर्लेप होइ तिवारे बादर क्षेत्र पल्य थाइ ५. अने जिवारे ते पल्य ना आकाश प्रदेश कल्पा सर्व स्पर्शी था समैर एकेक काढतां जिवारे निर्लेप थाइ तिवारे सूक्ष्म क्षेत्र पल्योपम थाइ ६. एणे करि दृष्टिवाद मध्ये एकेंद्री अथवा सादिक जीव नो प्रमाण कीजीए श्रसंख्याता उत्सर्पणी प्रमाणें. इम तीन २ सूक्ष्म पल्योपम शास्त्र ने विषे उपयोगी होय. ३ तीन वादर कह्या ते सूक्ष्म नो सुक्ष्माव बोधार्थ. इहां प्राई घणो श्रद्वापल्यौपम प्रयोजन छै. इम कोडाकोडी सागरोपमे एक काल चक्र तेणें अनंते काल चक्रे पुद्गल परावर्त्त होइ, ते आठ प्रकार नो छै तिहां थी जो अस्य गाथा - ( उद्वार अधारि Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ रत्नसार ॥ (१७३) वत्तं पलियतिहां समय वाससय ममए केसवहारोदी वो दही आउत साय परिमाणं ८५॥) पांचमें कर्म ग्रन्थे उक्त. २२६. तथाआत्म सम वस्तान उपयोग रूप ध्यान कहिये ते एणी परम्पराइ होई. मोहनी कर्म ने पर वसै जीव पर द्रव्य प्रवृति करै छै सुख तृष्णाई भूलो, जिवारे मोहनी कर्म नी थिति घटै तेहने पर द्रव्य नी प्रवृत्ति मिटैः अने पर द्रव्य नी प्रवृत्ति टलै तिवारै विषय वैराग्य होई. तिवार पछी मनोरोध थाई. जे माटे ठाम विना मन किहां जाइ ? जिम “ अतृणे पतितो वह्नि स्वयमेवपशाम्यति" (तृणवीना नि अग्नि स्व भावेई उपशमे) तिम विषय विना मन आपणी मेले रुंधाय. मनोरोध थी मन नी चंचलता मिटै. तिवारे मन एकाग्र थईने आत्मा ने विषै प्रवत्तै. आत्मा नो स्वभाव तै कञ्जु छै. यत-(जोवषई मोह खलुसो विषय विरतो मणोणिरुंभित्ता संमठी दोस भावे सो अप्पाणं हवे ईझया ॥ १॥) इति उक्तं प्रवचन सारोद्धारे.. Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७४) ॥ रत्नसार ॥ २३०. हिवै आत्म भावनानी गाथा तीन लिख्यते - ( नाहं दोमी परेसि णमे परेणम ब्भ मिह किंवा । इय आय भावणाये राग दोस विलय जन्ती ॥ १ ॥ नाणरसं विसुद्धिए अप्पा एगं तउण संसुद्धो । जंमा नाणं अप्पा नाणंच अणंवा ॥ २ ॥ आयासामाइए आयासामाई यस्स श्रठत्ति तेणव । इमं सुतं भासई तं श्राय परिणामं ॥ ३ ॥ ) ए सूत्रे पण चारित्र ते श्रात्म परिणाम रूपज कहिये छै पण बाह्य क्रिया रूप नथी कहूं. तत्र काव्यं इत्यर्थ. येषां न चेतो ललना सु लग्नं मग्नं न साहित्य सुधा समुद्रे | ज्ञास्यति ते किंम महा प्रयासं नाघों यथा वाट वधू विलासन् ॥ २३१. हिवै प्रवचन सार मध्ये उत्सर्ग मार्ग ते उत्कृष्टो कठोर घोर ब्रह्मचर्यादिक पालै जिन कल्पी Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ रत्नसार ॥ (१७५) पणो तेहनें कहिये छै. अने अपवाद ते कोमल मार्गे मुनी विचरे, पंच महा व्रत पालैं, यथाशक्ति तप करें, शिष्य शाखादिक राखे, धर्मोपदेश श्रापैं, ते अपवाद मार्गी मुनि कह्या पण ए बे मार्गी अात्मार्थी जाणावा. इति उत्सर्ग अपवाद इति. २३२. हिवै पांच निधर्मा कह्या छै ते धर्म न पामै ते ऊपर गाथा-(भट्ठो देवाई चो वसहासत्तो अजि या पुत्तो । गुरु देवाणु दुट्टो निधम्मा पंच पन्नता॥१॥) अर्थ. भ्रष्ट ज्ञात कुल थी विणठो ते १. बीजो देवनो पुजारो, तथा देव को माल खाय ते २. विषयासक्त लोलुपी तथा स्त्री लंपटी होय ते ३. चौथो आर्या नों पुत्र-साध्वीइं व्यभिचार सेव्युं होय तेह नो पुत्र थयो ते ४. पांचमो देव गुरु नो निदंक उपाथक घातक ५. ए पांच निधंमा कह्या. वीतराग नो भाष्यो धर्म नपामै. इति अर्थ. २३३. तथा समुर्छिम मनुष्य मरी केतले दंडके AU Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ रत्नसार ॥ जाई ? बसौ तेतीसमो प्रश्नः-तत्रोत्तरं. दस १. दंडके जाय ते किहां ? पांच ५ थावर मांहे, त्रण ३ विगलेंद्री मांहे. एवं पाठ.पंचेंद्री मनुष्य तथा पंचेंद्री तिर्यंच मांहि जाय पण युगलियो न थाय. तथा ए दस दंडकमांहि तेउ,वाउएरबे दंडक वर्जी ने बीजा आठ दंडक ना अाव्या समुच्छिम मनुष्य थाइ इति. २३४.तथा देवता नारकी ने छमास थाकतो होई त्यारे परभव नो आयु बांधै. तथा निरुपक्रमी श्रायुवालो पृथवी कायोते त्रीजे भागै एतले बे भाग पहिला मूकीने त्रीजेभागैरहै तिहां पर भवनो आयु बांधै.जीव ने पर भव नो आयु बांधता अंतर्मुहूर्त थाय तेतला माहे तीन आकर्ष करे. जिम गाय पाणी पीती विसामै २ पीये तेम जीव पण आयु कर्मना पुद्गल में लेई अाकर्षी बांधे. इति. २३५. हिवै आकुटे, प्रमादे, दर्प,कल्प, कर्म बंधाइ तेह शब्दार्थ कहै छै.आकुटिकया अनाभो, तथा उपेत्य सावधकरणोत्साहोत्मिका १. दोधावनरे पनव Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ रत्नसार ॥ (१७७) णानादिक हास्पजन किंवा नाट्यादिकंदर्प रूपो वा २. प्रमादो रात्रौ दिवा प्रति लेखना प्रमार्थ ना द्यनुपजुक्ता ३. कल्प कारणे दर्शनादि चतुर्विंशति रूपेसती गितार्थस्य कृत योगिनोपयुक्तस्या अयततनया अधा कर्माद्या दान सुरूपा ४. इति. २३६. हिवै पांच क्रिया मांहि जीव अल्पा बहुत्व किम होय इति प्रश्नः-पांच क्रिया मांहि सर्व थी थोड़ा जीव मिथ्यात्व क्रियावाला. तेह थी अपचक्खाण क्रियावाला असंख्यात गुणा अधिका समाकत मांहे भल्या ते माटे, तेह थी परिग्रहनांक्रियावाला असंख्याता वधता देशविरति मांहि भल्या ते माटै, तेह थी श्रारंभ की क्रिया वाला तेह थी घणा संख्याता अधिका छै छठा गुण ठाणावाला मुनि भेलै ते माटै, तेथी मायावत्रीि क्रिया ना धणी संख्यात गुणा अधिका ते नवमा गुण ठाणावाला मुनि वध्या. ए भाव पन्नवणासूत्र मध्ये छै. इति. २३७.हिवै लेश्या नो देवताश्रासरी अल्पा बहुत्व कहै Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७८) ॥ रत्नसार ॥ छै. सर्व थी थोड़ा देवता शुक्ल लेश्या, तेथी पद्म लेश्या असंख्यात गुणा अधिका, तेथी कृष्ण लेश्या असंख्याता अधिका, तेथी नील लेश्या ना असंख्याता गुणा अधिका, तेथी कपोतं लेश्या ना असंख्यात गुणा, सर्व थी अधिका तेजो लेश्या ना ज्योतिषी देवता असंख्याता माटे. ए विशेष जाणवो. इति. २३८. मोप्रश्नः-तथा सोपक्रमी आउखावालो जीव श्रायु पूरूं भोगवी मृत्यु पाम्यो, तेहनें अकाले चेवजीवियाओ विवरोविया थयो ते किम् ? यथा दृष्टान्ते कोईक चोरने राजाई हण्यों तिवारे ते जीवें सर्व आयु कर्म ना दल हता ते अात्म प्रदेशे भोगवी आयु कर्म बांध्यो हतुं, एतले पूरो भोगवी चाल्यो. तथा काल आसरी अकाले मूओ जे माटे सुखे समाधे विपाक वेदना वेदी ने जीव चालतो ते थोड़ा काल मध्ये प्रदेश वेदन वेदी ने चाल्यो ते माटे अकाले मुत्रो कहिये एटले प्रदेश वेदन प्रासरी आयु कर्म बंध्यु हतुं ते संपूर्ण भोगव्यु. अने विपाक वेदना आसरी थोड़ा Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ रत्नसार ॥ (१७९) काल माहे मूओ ते माटै अकाले मरण कहिये. इति. २३९. अथ प्रस्ताविक गाथा लिख्यते-जो भणई नार्थ धम्मो न सामाईयं चेव वसाई, सो समण संघ वब्भो कायव्वो समण संघेण ॥ १॥ अट्ठारस पुरसेसुं वीसं. इच्छिसु दंसनपुंसेसु । जिण पडी कुठ तिथयो श्रो पव्वा वे उन कप्पंति ॥२॥ वाल वुढे नपुंसय कि वेजडेय वाहीएतेणें रायवगारिय उमत्तेय अदंसणे ॥ ३ ॥ दास दुथेयमूढेय अणिते जुगएईय अविबन्ध एयभिण्य सेहो नी फेडीयाइयंसी॥ ४ ॥ २४०.एतला ने दीक्षा देवी न कल्पें. आहार भयं परिगाह मेहुणतहकोहमांण मायाए । लोभेओघेलोगे दस सन्नाहुँति सव्वेंसिं ॥ १ ॥ सुह दुह मोह संन्न विति गिच्छा चउदसमेगुणे यव्वा सोके तह धंम सन्ना सोलसएहुंति मणु एसु ॥ २ ॥ रुषाण जलाहारो संकोइणिया भएण संकोई नियतंतु एहीवेपूई रूस्यो वलि परिगाहेणं ॥ ३ ॥ इच्छि परिरंभणेणं कुरुवक Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८०) ॥ रत्नसार ॥ तरूणो फलति नहुअन्नो तह कोहनह साकन्दो हुंकारो मुयइ कोणं ॥ ४ ॥ मांणेरू इरोवंति छाय बल्लि पलाईमायाए । लोहे विली पलासाखवंति मूले हाणुं चरि ॥ ५ ॥ रयणीए संकोच कमलाणं होय लोक सन्नाएउ हेवई उत्तमंगंचडंति रूपे सुवलिओ ॥ ६ ॥ इति दस संज्ञानां उदाहरणं इति. २४१. हिवै १८ भाव दिस्या तथा १८ द्रव्य दिसा ना स्वरूप लिखिये छै. तत्र गाथा - ( तिरिया मणुया काया तह अगावीयाय चुक्कगाए । चउरो देवायन रईया अठारस भाव रासी ॥ १ ॥ ) अस्यार्थःच्यार तिर्यच नी ते केही ? बेंद्री, तेंद्री, चोरेंद्री, पंचद्री ए च्यार तथा च्यार मनुष्य नी ते केही ? समुच्छिम मनुष्य १ कर्मभूमिजा २ कर्मभूमिजा ३ अन्तरद्वीप ना ४ ए च्यार. हिवै वनस्पति ना ४ भेद ते किहा ? अग्रबीज वनस्पति १ मूल बीज वनस्पति २ पर्व बीज वनस्पति ३ स्कन्ध बीज वनस्पति ४. हिवै ४ काय ते केही ? ते पृथ्वीकाय १ अप्प काय २ तेउ काय ३वाउ - Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ || रत्नसार ॥ (१८१ ) काय ४. हिवै बे गति नी बे काय-देवता, नारकी. एवं १८. भाव दिसा आचारांग सूत्र मध्ये शास्त्र परिज्ञाना ध्ययन मांहे भाव दिसा बखाणी है. तथा १८ द्रव्यं दिसा — च्यारदिसि, च्यार विदिसि तथा, वली आठ दिसी विदिस ना अंतरा ऊर्द्ध ने 'अधो एवं १८ द्रव्य दिसा जाणवी. इति द्रव्य भाव दिसा. २४२. उत्त (निली रंगीय वथं मय देहेण होई तत्कालं कुंथु यंतस्सय निउगा उपज्जंति बहुजीवा ॥ १ ॥ ) गुलीएरंग्युं जे वस्त्र ते मनुष्य ना देह ने संसर्गे तत्काल कुंथु प्रमुख त्रस जीव घणा उपजै. इति रत्न संचय ग्रंथे कयूं बै. २४३. हिंवै लब्धि पर्याप्तौ तथा करण पयात नो स्वरूप लिखिये है. पर्याप्ति द्विधा, लब्धि करणैश्च । तत्र यश्च योग पर्याप्तिः सर्व अपि समर्थ - प्रियं तेन अर्वा से लब्धि पर्याप्ता | येपुनःकरणानिशरीरें द्रियादिनि निवर्त्तवंत करण पर्याप्ता ॥ इति ननुच्चा स्यति शरीर Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८२) ॥ रत्नसार ॥ पर्याप्ता च शरीरं भविक्षति किं प्राग भिहितेज शरीर नाम्नाने तदास्तिस्याध्य भेदा। तथा जयसोमबाला बोध ने विर्षे लिख्यूं है. ___२४४.हिवै प्रर्याप्ति नाम कहै छै. जे कर्म ना उदय थी आरंभी पर्याप्ति करयां विना न मरे ते पर्याप्त नाम कर्म. तेणें एकेंद्री ने ४.विगलेंद्री तथा असनीय पंचेंद्री ने भाष्या होइ ते भणी पांच. ५. संनीयां पंचेद्री ने मन होइ ते भाछै ६. पर्याप्ति उत्पत्ति प्रथम समय थी आरंभी पर्याप्ति पूरी करयां विना न मरे, पूरी करी ने मरे पण अधूरीये न मरे ते लब्धि पर्याप्तो कहिये. तथा करण कहतां शरीर इंद्री पर्याप्ति पूरी नथी थई तिहां लगी तेहने करण अपर्याप्तो कहिये. अथवा जे जे परयाप्ती पूरी थई नथी ते तेहनी अपेक्षा ये करण अपर्याप्तो कहिये. पूरी करी तहनी अपेक्षाये परयाप्तो काहिये. अने कर्मनाउदय थी आरंभी पर्याप्त पूरी करया बिना मरै ते लब्धि अपर्याप्त नाम कर्म.तिहां पर्याप्ति कहतां पुद्गल ना उपचयथी थयो पुद्गल परिणाम ना हैतु. Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ रत्नसार ॥ (१८३) शक्ति विशेष ते विषय भेदछ, तथा पर्याप्ती प्राण मध्ये सो विशेष ते कहिये?. ? पर्याप्ति ते उपजती वेलाइ होय, अने प्राण ते जाव जीव लगे होई. ते विशेष. २४५. हिवै तीन गाथा सम्यग् दृष्टी नो स्वरूप ग्रन्थांतरे कडुं छै ते गाथा लिखिये छै- (बन्ध अविरईहेत्रो जाणतो राग दोस दोषंच । विरईसु इच्छंतो विरई का उंचअसमथो ॥१॥ एस असंजयस मौनिंदतो पावकम्मकरणंच । अहि गय जीवा जीवो अविलिय दिठी बलीय मोहो ॥२॥ संम दंसण सहि ओ गिणतो विरइमप्पसत्तिए। एगव्वया ईचरमो अणूमई मित्तती देस जई ॥ ३ ॥ ए गाथा नो अर्थ गुरु गम्यं थी धारियों. सम्यग् दृष्टि ने उदय प्रतीओ बन्ध होइ पण आत्म प्रतियुं बन्ध न होय. इति. ___ २४६छाद्यते केवल ज्ञानं,केवल दर्शनं चात् श्रात्मा नोअने तेतिछा ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनी यां अन्तराय कर्मोदय सात तस्मिन् केवलस्यानु त्पादात Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८४) ॥ रत्नसार ॥ तदप गमानं तरं चोत्पादात् छम नि तिष्टति नि छम स्थ। __२४७ हिवै मुनि ने छठा गुण ठाणा थी सातमा ने पहिले समये केतली विसूधता होइ ते बैसो संतालीस मों प्रश्नः-आत्माना असंख्याता अध्यवसाय ना थानक कह्यां ते किहां ? ते कषाये किधा लोकाकास ना प्रदेश प्रमाणे एक आत्मा ना असंख्याता प्रदेश छै तेमाटे अप्रमत्त मुनि ने छठा गुणठाणा थी चढतो सातमाने प्रथम समये जेतली विशुद्धता छै तेथी बीजै समये अनन्त गुणी विशुद्धता छै ते किंम ? जे आत्मा ने अप्रमत्तता नी निर्मलताइ करीने कर्म नी वर्गणा अनंती ओछी करै छै तेतली आत्म ज्ञाननिर्मलता थाइ तेणी अपेक्षाई अनन्तगुणी विशुद्धता छै. इम समय समय कहिये. इति भावार्थ. २४८ हिवै आहारक आहारकमिश्र जीव किम करे. इती बेसौ अडतालीसमो प्रश्नः- जीवारें पुर्व Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ रत्नसार ॥ (१८५) धरे संदेह पूछवा निमित्तै आहारक शरीर मोकल्यु होई तिहा(ते ठिकाणे)ज्ञानवंत नहीं(होय)तिवारे तिहां थीवली बीजु आहारक करै ते करती वेलाइ पुर्व श्राहारक संघाते मिश्र हौइ ते माटे. इत्यर्थ २४९.तथा सिद्ध ने अफुसमाण गति कही ते किम होय ते बेसौगुणपचासमो प्रश्नः? ऐक समे सूक्षम काल माटै किम मिलै?तत्रोत्तरं समश्रेणि एक समय माहि सम श्रेणी ना सर्व आकास प्रदेस फरसतो जीव सिद्धगंति जाइं पण विषम श्रेणीना आकाश प्रदेश न फरसै ते माटे अफुसमाण गति ते श्रीउत्तरा ध्ययन ना ३६ में अध्ययन नी टीका मध्ये का छै. तथा वली बीजो भेद सम श्रेणी आकाश प्रदेश फरसतो फरसतो जाइ ते माटै क्षेत्र श्रासरी ने सिद्ध ने फुसमाण गति. जे माटे एक समय थी बीजा समयांतरे न फरसै ते मांटै कर्म ग्रंथ नी चवदै हजारी टीका मध्ये ए रीते काल प्रासरी सिद्ध ने अफु. समाण गति कहि छै. इत्यर्थः. २५०.संसारी जीव केवल कार्मण योगै वर्ततो सर्व Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ रत्नसार ॥ थानिके सर्वे जीव अणाहारी होय, पाहार ग्रहण उदारिक वैक्रिय नी मिश्रता मिलै तिहां होइ इत्यर्थः । २५१.तथा अंतर्मुहूर्तना आयु वालो तिर्यच पंचेन्द्री श्रसनीओ मरीने युगलीओ पंचेन्द्री तिर्यंच न थाइ: अंतर्मुहूर्त उपरांत नो होइ ते. उपजे. पण अंतर्मुहूर्त २५६ आवल नुं नहीं, एतले मोटो अंतर्मुहूर्त जाणवो. इत्यर्थः. २५२. तथा परमात्म प्रकाश ग्रंथै आत्मा ना तीन प्रकार कह्या छै.बहिरात्मा ते मिथ्या दृष्टी जीव १. अंतरात्मा ते सम्यग दृष्टी चौथा गुण ठाणा थी बारमा सुधी२.परमात्मा ते तेरमा चउदमा वाला केवली भगवंत जाणवा ३. . , २५३.तथा तीन प्रकार ना पुद्गल प्रणमै छै-विश्रसा परिणामै १.प्रयोगसा परिणाभै२. मिश्रसा परिणामै ३. विश्रसा ते स्वभावे कोई निमित्त पामी तदाकार थाई, इंद्र धनुषादि अभ्रादि वत् १. प्रयोगसा ते Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ रत्नसार ॥ (१८७) जीव व्यापारे उद्यमेन भवनं यथा घट पटादि गृहादि ज्ञेयं २. मिश्रसा ते किंचित प्रयोगं किंचित् स्वभावे यथा. पटो बडो जीर्ण तत्र बंधनं जीव प्रयोगेण जीणि भवनं स्वभाव इति मिश्रसा ज्ञेया. इत्यर्थः २५४. तथा तीर्थंकर नो जन्म थाइ तिवारे साते नर के के तलुं अजुआलुं थाइ इति प्रश्नः - पहिली नरकें सूर्य सरीखो उद्योत थाइ १. बीजी नरके साभ्र सम तेज २ . त्रीजीये पूनम ना चंद्र सम उद्योत ३. चौथी नरकें साभ्र चंद्र सम तेज४. पांचमीयें शुक्र तथा गुरू इत्यादि ग्रहना सरीखो तेज ५. छठी नरके नक्षत्र ना सरीखो तेज ६. सातमीयें तारा नो सरीखा तेज ७. एहवो उद्योत ते तीर्थंकर ने कल्याण के होई. ए अधिकार हेमाचार्य कृत चौविस तीर्थंकरना चरित्र मध्ये छै:इति भावार्थ: 3 २५५ . अथ प्रस्ताविक गाथा - काले सुपत्त दानं संमत्त विशुद्धबोहिलाभंचवा अंते समाहि मरणं अभव Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (266) ॥ रत्नसार ॥ जीवा न पावंति ॥ १ ॥ अखंडिय चरित्तो वय ग्रहणा उजी यगिदथो इति तस्ससगासे दंसण वय गहणं सोहिगहणं ॥ २ ॥ कच्छ्य जीवो वलिओ कच्छाय कंमाइहुति वलियाई । जीव समय कर्मस्सस पुव्वनिबेधाइ ॥३॥ कालसाहवो नियई ३ पुच्छकयं ४ पुरस्कार || ५ ॥ एगतिमिथतं ते चेव समास हुंति मत्तं ॥ ४॥ नवहिं जीव बहण करणं करावण अणुमाइयजोगें हि । कालात संमत्त एही गुणिए पाणी बह दुस्सय ते थालो ॥ ५ ॥ २५६. अस्यार्थः - साधु ने पहिलाव्रत नां नव कोटि पचक्खाण छै पण तेहना भांगा २४३थाइ ते किम ? मन वचन कायाइ करवो, कराववो, अनुमोदवो इम एक काय जोगे ९ थाइ, इम वचन योगे ९ थाइ, मन योगे ९ थाइ इम २७ करवाना, २७ कराववा ना, २७ अनुमोदवानें विषै निषेधें इम ८१ थाइ. त्रेणें काले त्रिणें गुणीइं त्रिगुणा करतां २४३ भेदे साधु नें पचक्खाण होइ, जाव जीव लगे. इत्यर्थ. Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ रत्नसार ॥ २५७.हिवै छःप्रकारना पुद्गल पांचास्तिकाय ग्रंथे कह्या छै ते लिखिये छै. तत्र गाथा-(पुढवीजलं चधाया चोरिं दीयाकंमपाउगा । कंमातीया एवं छः पुद्गला हुति ॥ १ ॥)ए गाथा नो अर्थ-६छःप्रकार ना पुद्गल ते पहिलो बादर १. दुजो बादर बादर, २. तिजो बादर सूक्ष्म ३. चोथो सूक्ष्म बादर, ४. पांचमो सूक्ष्म ५, छठो सूक्ष्म सूक्ष्म ६. छः प्रकार ना पुद्गल नी पूर्वे गाथा कही छै ते गाथा लै.तिहां पृथ्वी ते माटी, खडी, पाषाण, काष्ट प्रमुख ना जे पुद्गल छै ते बादर बादर कहिये. जे माटे छेद्या थका एकमेक न थाइं भिन्न रहै ते बादर बादर पुद्गल कहिये. १ तथा जलंच कहतां पाणी, दूध, घृत, तेल, मधु, गोळ, खांड, इत्यादिक ना पुद्गल ते बादर कहिये. श्या माटै ? जे छेद्या थका एक मेक थाइं ते माटे बादर कहिये २. छांया कहतां शरीर छांया, धुंबाडा ना आसरी मध्ये विश्रसा दीसै तेहनें बादर सूक्ष्म पुद्गल कहिये. इयां माटै ? देखातां निजरे देखिये पण हाथ Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६०) ॥ रत्नसार ॥ मांहे न आवै ते माटै बादर सूक्ष्म कहिये. ३. चोरिंदिया कहतां नयन विना बाकी च्यार इंद्रीये ग्रहीए ते सूक्ष्म बादर पुद्गल कहिये. श्या माटै ? जे गन्ध, रस, फरस, शब्द ना पुद्गल श्रावता न देखिये ते माटै सूक्ष्म, अने गंधे रसे फरसे शब्द जाणिये तै माटे ए ज्ञातिना पुद्गल ने सूक्ष्म बादर कहिये ४. कमपाउगा कहतां पांचमा पुद्गल ते कर्म नी वर्गणाना ते दृष्टे नं श्रावै ते माटै चोफासिया सूक्ष्म पुद्गल कहिये ५. छठा सूक्ष्म सूक्ष्म ते कम्मातीया कहतां कर्मातीत एक छूटो परमाणु पुद्गल ते सूक्ष्म सूक्ष्म कहिये ६. ए रीतें छः प्रकार ना पुद्गल संसार मध्ये व्यापी रह्या छै जिम छ कायना जीव व्यापी रह्या छै तिम ए जाणवा. इति. २५८. ज्ञाना वर्णादिक कर्म नो बन्ध उदय उदीरणा सत्ता केतला गुण ठाणा ताई होय तेहनों विवरों लिखिये छै. ज्ञानावर्णी कर्म नो बन्ध गुण ठाण १० मां ताई. दर्शनावर्णी नोबन्ध दसमां तांई. वेदनीनो बन्ध Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ रत्नसार ॥ (१९१) गुण ठाणा १३मां ताई. मोहनि नो बंध गुण ठाणा नव मांतांइ.आयू कर्म बंध गुणठाणा७मां तांइ. नाम कर्म नो बन्ध गुण ठाणा १०मां तांई.गोत्र कर्म नो बन्ध गुण ठाणा १० मां ताई. अन्तराय कर्म नो बन्ध१०मां ताई. इति. २५९. अथ ज्ञानार्वीण कर्म नो उदय गुण ठाणा १२. मां ताई. दर्शनावर्णी कर्म नो उदय १२ मां ताई. वेदनी कर्म नो उदय गुण ठाणा १४ मां ताई. मोहनी कर्म नो उदय गुण ठाणा १०मां ताई. श्रायु कर्म नो उदय गुण ठाणा १४मां ताई. नाम कर्म ना उदय गुण ठाणा चवदमां ताई. गोत्र कर्म नो उदय गुण ठाणा १४ मां तांई. अंतराय कर्म नो उदय गुण ठाणा १२ मां ताई. ___२६०. अथ हिवै ज्ञानावर्णी उदीरणा गुण ठाणा १२ मां ताई. दर्शनावर्णी उदीरणा गुण ठाणा १२ मां ताई. वेदनी कर्म उदीरणा गुणठाणा६ठा ताई. मोहनी कर्म उदीरणा गुण ठाणा १० मां ताई. आयु कर्म उदीरणा गुण ठाण ६ ठा ताई. नाम कर्म उदीरणा Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११२) ॥ रत्नसार ॥ गुणठाणा १३ मां तांई. गोत्र कर्म उदीरणा गुण ठाणा १३ मां तांई. अंतराय कर्म उदीरणा गुण ठाणा १२ मां तांई. इति. २६१. अथ हिंवै ज्ञानावर्णी कर्म सत्ता गुणठाणा १२मां तांई. दर्शनावर्णि कर्म सत्ता गुण ठाणा १२ मां ताई. वेदनी कर्म सत्ता गुण ठाणा १४ तांई. मोहनी कर्म सत्ता गुण ठाणा ११ मां तांई. आयु कर्म सत्ता गुण ठाणा १४ मां तांई. नाम कर्म सत्ता गुण ठाणा १४ मां तांई. गोत्र कर्म सत्ता गुण ठाणा १४ मां तांइ. अंतराय कर्म सत्ता १२ मां गुण ठाणा तांई होइ. ए बंध, उदय, उदीरणा, सत्ता नुं स्वरूप कहूं ए सर्व भाव केवल ज्ञानी एक जीव स्वरूपें द्रव्य गुण पर्याय छै तेहवा अनन्ता जीव देखे. एकेक जीवनें अनन्ता कर्म जे रीत है तें देखें. एकेक जीव ना अनंता भाव देखै छै. भाव ते परिणाम इम केवली Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥.रत्नसार ॥ सर्व भाव अस्ति नास्ति रूपें जे जिम छै तिम जाणै देखै. इति. २६२. हिवै आचित महा स्कंध जे पुद्गल नो चौदे राज लोक प्रमाण पूरेतेहनो स्वरूप यथा श्रुत लिखिये 2. द्रि प्रदेशी परमाणुया ना स्कंध थी मांडीने असंख्यात प्रदेशिओ स्कंध ते अचित महा स्कंधे लोक पुरण न थाय. अनंता परमाणु नो जे एक स्कंध तेणे पिण लोक पुरण न थाय तो श्युं ? अनंत बादर परमाणु नो एक स्कंध तेहवा अनन्तास्कन्ध मिलै तिवारे अचित महा स्कंध रूप थाइ. ते चोद राज लोक पूरे तेह नी विधि-ते स्कंध विश्रसा परिणामै परणमीने केवल समुदघातनी परे दंड रूप करि पछै दिसि विदिसी विस्तारि खंडूया पुरी चौदराज संपूर्ण फरसी ने पाछो केवल समुदघात नी परे संकली ने स्कंध रूपथाय, ते स्कंध असंख्यात आकाश प्रदेश अवगाही रहै. ते अचित महा स्कंध क्षेत्र आसरी अढी द्वीप माहि करे पण बीजे बाहरले क्षेत्रेभूमि कांई न थाय, जिम Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ || रत्नसार ॥ केवली केवल समुदघात अढि द्वीप मांह थी करै तिम ए पिण. श्याम माटे? जे दंडाकार अढी द्वीप बाहिरे न थाई. इति. . २६३. तथा केवली पण केवल समुदघात करे तिवारे पोतना जे८ आठ रूचक प्रदेश छै ते मेरू ना मध्य जे रूचक प्रदेश छै तिहां थाई पछै ते रूचिक थकी संपूर्ण चौदे राज्यात्मक लोक पूरे. एरीते धारयू छै. लोक प्रकाश ग्रंथ कह्यो छै. ए भाव. ... २६४. अथ निगोद नो विचार लिखे छै. असंख्यात प्रदेशी लोक ते प्रमाणे गोला पण असंख्याता छै. गोला तेश्युं ? असंख्याति निगोदें एक गोलो. इति प्रश्न. ते ऊपरे गाथा- ( कया ते लोए असंख जोयण प्रमाणे एइ जोयणां गुला संख्या। पईत्तं असंख अंसापई असम असंखया गोला ॥ १॥ गोलो असंख निगोश्रो सोणंतजीओ जिय पईयं । एसा असंख पई एसं कमाण वंगाणाणता॥२॥पई वगणं अणंता अणुअप्पई अणु अणंत पज्जाया । एवं लोग सरूवं भावि जतहत्त Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ रत्नसार ॥ (१९५) जिणवुत्तं ॥३॥) आस्यार्थः- चोदे राज लोक असंख्याती कोडा कोडि जोयण नो छै. ते मध्ये एक जोयण लिजिये तेहना अंगुल संख्याता थाई. ते मध्ये थी एकांगुल लीजे. तेहना असंख्यात मो भाग लेखवै. ते माहेलो एक भाग लीजिये. ते माहे असंख्यातां गोला छै. तेमाहेलो एक गोलो लीजिये, ते एक गोल मांही असंख्याती निगोद छै. ते मांहेली एक निगोद लीजिये. ते निगोद में अनंता जीव छै. ते माहिलो एक जीव लीजिये. एक जीव ने असंख्याता प्रदेश छै. ते एक जीव ने प्रदेशे प्रदेशे अनंती कर्म वर्गणा छै. ते माहिली कर्म वर्गणा लीजिये ते माहिं अनंता परमाणुया छै. ते मांहेलो एक परमाणु लीजिये. ते मांहि अनंता पर्याय. अनंता भेलो परणमै, एहवी शक्ति छै.एहवो श्री वीतराग नो वचन तहत करी मानीये, सर्धिये ए भाव. इति. २६५.हिवै असंख्यात समै एक श्रावली थाइ,एहवी २५६आवलीए एक क्षुल्लक भव थाय. एक श्वासोसास Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१९६) ॥ रत्नसार ॥ मांहि चुमालीस सय ने साढा छैतालीस ४ ४ ४ ६॥ श्रावली थाइ. ते एक सासोसास माहे निगोदियो जीव १७. सतरै वार मरै, अठार मी वार. उपजै. एतले समय सतरे भव उपरान्त साढी चोराणुं ९४॥ आंवल वधे. एतले साढी सतरे भव मांहि साढी तेतीस आवली माझेरी औछिइ मरै. तथा घडी दोय काची तेहना श्वासोसास सातरीससयनें तिहोत्तर ३७७३ थाइ. ते बे घडी मध्ये निगोदिश्रो जीव ६५ हजार ने ५३६ एतली वार मरे. एणै लेखै एक दिवस ना सासोसास एकलाख तेराहजार एक सौ ने नेउ ११३१९० एतला श्वास निरोगी युवान पुरुषना थाइ, तेहवा एक दिवस मांहि १९ लाख ६६ हजार ने ८० अशी एतली वार मरे, इम एक मास ना श्वासोंसास गुणतां केतला थाइ ? तेतीसलाख पिचाणु हजार ने सातसौ ३३ ९५७०० एतला होई. तेहवा एक मास मांहि ५कोड ८९लाख ८२ हजार अने४०० एतला भव निगोदिओ एक मास मांहि करै. एणे लेखै वरस एक ना श्वासोसास४ कोड७ लाख ४८ हजार ४ ० ० Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ रत्नसार ॥ ( १९७) • एतला वरस एक ना श्वासोसास थाइ एतला मांहि निगोदिओ जीव ७० कोडी७७ लाख ८८ हजार नें ८०० एतली वार मरे, श्रागल ए रीते ए असंख्याते कालै असंख्याता अधिक भव कीधा, इम अनंते कालै अनंता भव कीधा. इम जिन वचन तहत करी मानिये. इति. २ ६६. तथा एक गोला मांहि असंख्याति निगोद छै. ते निगोद ने एक शरीरे अनंता जीव है एतले अनंतै जीवै मिली एक शरीर बंध्यू छै. आप श्रापणै तेजस कार्मण जुदा है. उदारीक एक छै. साथै श्राहार नीहार, साथे मरण, २५६ श्रावली नो आयु भोगवी पर्याप्त पूरी करी मरै, तेहनी निश्राइं बीजा कोई पर्याप्ता ( पाठांतरे अपर्याप्तो ) होइ नहीं. ते अनंता केतला छै ? जेतला कंद मूल मध्ये अनंता हैं. कंद मूल चवदह राज प्रमाणै ढिगली करिये ते मांहि पण सूक्ष्म निगोद ना एक शरीर ना अनंता नीकल्या ते मांहि न समाई. एहवा अनंता अनंतै भेदे घणा छै. Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१९८) ॥ रत्नसार ॥ तेहना निकल्या ते मांहेज समाइ. तथा कंद मूल नाते बादर निगोदिया व्यवहार राशी मांहि आव्या छै, ते अनंता कंदादिक मांहि छै. तथा जेतला जीव सूक्ष्म निगोद गोलक मांहि थीनिकल्या छै ते व्यवहार राशी माहे आव्या. ते कालादिक लब्धि पामी सिधी वर. तेतला अव्यवहार निगोदं मांहि थी नीकली ऊंचोव्यवहार मांहि श्रावै, पण व्यवहार राशी ओछी न थाइ. कदापि मुक्ति जावा ना विरह काल होइ, तेतला काल ताई सूक्ष्म अव्यवहार राशिओ निगोद नो जीव कोई व्यवहार राशीमाहेनावे एहवो उपमिति ग्रंथे कडूंछै. तथा व्यवहार राशी या बादर निगोद मांहें जे अनंता छै ते फरी कर्म नी बहुलताइ सूक्ष्म निगोद गोलक मांही जायें ले ७० कोडा कोडी सागरोपम ताई तिहां रही वली पाछा कंदादि के साधारण मांहि आवै. इम संबंधे सूक्ष्म निगोद ना बादर निगोद मांहि आवै, वली बादर ना सूक्ष्म मांहि जाई. इम बे थानिके श्रावा गमन करतां जीव उत्कृष्टो रहै तो अढी परावर्त पुद्गल Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ रत्नसार ॥ (१९९) पर्यंत रहै. पछे प्रथ्व्यादिक थानक फरसतो ऊंचो श्रावी ने मनुष्य थाई. तिहां व्यवहार राशिओ भव्य जीव सामग्री मिल्ये बोध बीज पामी सिद्धि वरै. तथा वली कोई वाचनाई इम का छै जे कंद मूल साधारण माहि थी जीव सूक्ष्म गोलक माहि जाइ तो उत्कृष्टो काल रहे तो असंख्याती उत्सर्पणी अवसर्पणी काल तांइ सूक्ष्म निगोद गोलक मांहे रहे, तिहां थी निकल्यी बादर निगोद कंद मूल माहें उत्कृष्टो ७० कोडा कोडी सागरोपम ताई रहै. इम सम्बनध छै. निगोद मिली आवागमन करतां उत्कृष्टं अढी परावर्त पुद्गल ताई व्यवहार राशियो जीव निगोद मांहि रहै. एक निगोद नो गोलो असंख्याता आकाश प्रदेश अवगाही रह्यो तथा अव्यवहार रशिया जे निगोदिया ने गोलक माहे छै भव्य स्थिती परि पक्क ताई ऊंचा आवे ते एक समै उत्कृष्टै केतला निकलै इति प्रश्नः- जेतला अढी द्वीप मांहि थी सकल कर्म खपावी एक समै जेतला Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२००) ॥ रत्नसार ॥ सिद्धि वरे तेतला सूक्ष्म निगाद मांहि थी निकले, व्यवहार राशी में श्रावै. एक समै एक, बे, त्रण,उत्कृष्ट एक .समै अढी ध्वीप माहे १०८ सिद्धि वरे, तेतला सूक्ष्म निगोद मांहे थी नीकली व्यवहार राशि पणौ पामें. तथा व्यवहार राशी निगोद ना गोला माहे जाय तो एक समै एक १ बे२ व्रण ३ इम अनंता सुधी जाय ते व्यवहार राशिया निकलै तो अनंता सुधी एक समै निकलै पण अव्यवहारिया ते एक समै उत्कृष्ट १०८ निकलै ते मांहि भव्य अभव्य बे होइ. ते सूक्ष्म निगोद ना अनंता निकल्या बादर निगोद मांहे समाये, बीजा मांहे नहीं. तथा एक सक्ष्म निगोद मांहे अनन्ता जीव केतला छै ? त्रिण्य काल ना जेतला समय अनन्ता छै तेथी अनंताजीव एक निगोद मांहि छै.तिणै करी जिवारै पूछै तिवारै जिनेश्वर कह्य छै( एकस्स निगोदसउ सओ अनंत भागोये सिद्धि गयो) एतले सूक्ष्म निगोद थी बादर निगोद मांहे निरंतर श्रावै छै. ते आवे तो एक समै १०८ Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ रत्नसार ॥ (२०१) ताई उत्कृष्ट प्रावै तथाचोक्तं- (सिमति जतीया खलु इहयं व्यवहार राशि मझायो। इति अणाई वणसइमप्साअोतित्तियाचेव ॥ ॥) इति भवन भानु केवली, चरित्रे उक्तं.इम निगोदनो विचार लिख्यो छै. __२६७तथा सिद्ध शिला नो आकार अर्द्ध छत्राकार नो, छत्र नो टोचको नीचै राखै, साबू नो गोलो जिम नीचो राखीइं, ऊपरे समो ने तले टेकरो, एणे आकारे, मध्ये ८ योजन जाडी छै. छेहडे मांखीनि पांख जेहवी पतली, श्वेत सुवर्णमय छै, अढी द्वीप प्रमाणै. इत्यर्थः २६८.अथ अष्ट महा सिद्धि ना नाम अर्थ सहित छै ते लिखिये छै. प्रथम लघिमा ते शरीर को हलुवापणो थाय. जलपुफ ऊपरे तथा कंटक ऊपरें मुनि चालै पण किलामना न पामै १. बीजी वसत्ता सिद्धि तेह थी सिंह, सर्प, देव, मनुजादिक वश्य थाय२. त्रीजी ईशित्व सिद्धि जहे थी परम ऐश्वर्य पणो पांमी, चक्रवर्ती इंद्रादिक थकी अधिकी ऋद्धी विकुर्वे ३. चोथी प्राक्रम्य सिद्धि ते Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०२) ॥ रत्नसार ॥ अत्यंतबल संपदा होइ, पृथ्वि पर्वतादिक उपाडै, अचिंतित पराक्रमी होइ ४. पांचमी महिमा सिद्धि ते मोटो लाख योजन नो शरीर करै ५. छठी अणिमा सिद्धि ते नाहनो कुंथुत्रा जेवडं रूप करीने भीत तथा पर्वत मध्ये निकले अने पोते विधन न पामै६. सातमी यत्र कामा वसायित्वं सिद्धि ते जिहां उपयोगेदे तिहां जाणै, मति श्रुत ज्ञान अवधिज्ञान ने योगै ७. अाठमी प्राप्ति सिद्धि ते सकल मोटी वस्तु प्रत्यक्ष पणे देखै, रूपी वस्तु देखे, अवधि ज्ञान दर्शन में योगै८. ए अष्ठ महा सिद्धि मुनिराज ने होइ तेहना शब्दार्थ जाणवा. - २६६.हिवै ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती ने७००वर्ष नो आयु हतो ते भोगवी ने नरके गयो. तिहां ३३ सागर नो श्रायु भोगवै छै. तेतलो काल विषय ना सुख भोगव्या ते ऊपर केतलो दुख पाम्यों तेहनी विगत वर्ष १०० ना दिवस ३६००० थाय, तिवारे ५०० वर्ष ना दिवस २५२००० थाय, तेहना मुहूर्त ५५६००००, से एक मुहूर्त ना ३७७३ स्वासोस्वास थाइ. ते Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । रत्नसार ।। (३०३) ७५६०००० ते गुणा करतां २८५२३८८०००। एतले ७०० वर्ष ना एतला स्वासोवास थाई. तथा सागरोपम ३३ ना पल्योपम त्रण सै त्रीस ३३० कोडा कोडी थाई. तेहना आंक३३००००००००००००००० एतला पल्योपम होइ. तिवारे एक श्वासोवास ताई संसार मध्ये विषयना सुख भोगव्या ते ऊपरे ११५६९८५इग्यारे लाख छप्पन हजार नवसै पिच्चासी एतला पल्योपम थाइ. सातमी नरके दुख भागवै छै. एतले (क्षिणमात्र सुखं बहु काल दुखं ) एपद सूत्रे कर्तुं छे तेहनो भावार्थ जाणवो. इति भाव. _____२७०.संसार मध्ये विषय कषाये दुख दाइ कह्या ते विषय मिटै पंच महा व्रत पालै, कषायादि मिटै गुण ठाणे चढे, स्वरूपाचरण चारित्र नीपजे. इत्यर्थः । २७१. अथ युग प्रधानना१४गुण नी गाथा-पडि रूंवो १ तेयस्सी २ जुगपहाणां गमो ३ महुरवक्को ४ । गंभीरो ५ धिईमंतो ६ उवएस परोय ७ आरिओ ८ Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०४) ॥ रत्नसार ॥ ॥१॥ अपरिस्सावी ८ सोमा ९ संगहसीलो१० आभि गृहमई ११॥ अविकथणो १२ अचवलो १३ पसन्न हियओ १४ गुरू होई ॥२॥) अप्परिसा २ एवं चतुर्दश गुणा भवंति.. २७२. तथा श्रोध निर्युक्तो भद्रबाहु स्वामी कृतः (अंवसंगंतु कउ जिणो वईठं गुरु वए सेणं । तिन्नि थूई पडिलेहा कालस्सविहिई मातथ ॥ १ ॥) गाथा २७ मी छै. तिहां-थूई त्रिण करवी कही है. ... २७३.हिवै मिथ्या दृष्टि जीवने शुभाचार होइ पण शुभोपयोग न होइ. अने सम्यक् दृष्टी जीव ने शुद्धोपयोग होय तेहनें शुभोपयोग आचरण रूप होइ पण आदरण न होइ. अने मिथ्यादृष्टी जीव ने शुभ श्राचार रूप होइ पण अशुद्धोपयोग ना घर नो अशुभोपयोग होइ, पण शुभोपयोगे उपचारे कहिये. इति भाव. २७४ाठे कर्मनी वर्गणा ने कारमाण शरीर.कहै छै Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ रत्नसार ॥ (२०५) ते इम नहीं. कार्मण शरीर ते नाम कर्म नी प्रकृति. ते नाम कर्म नी वर्गणा रूपे कार्मणा शरीर बी जाणवो की बीजी सात कर्म नी वर्गणा तेहने विषै छै. इम आधाराधेय भावै छै. जिम कणनी गांठडी पण वस्तु भिन्न तिम. बीजा कर्म नी वर्गणा जुदी ते किम जागिये ? जिम केवली भगवंत ने ज्ञाना वर्णादि च्यार कर्म नी वर्गणा मूल थी गइ पण तोही कार्मण शरीर हैं. प्यारे ते अनुमानै अन्य कर्म नी वर्गणा भिन्न, कार्मण शरीर ते भिन्न. इम कार्मण शरीर नो स्वरूप जाणवो. पछै तो जिम तीर्थकर देवै कह्यो छै ते सत्य सर्द हियो. इति. २७५. प्रस्ताविक गाथोक्तं - ( तव संयमेण मुखो दांगण हुंति उत्तमा भोगा । देव बणेणरद्यं अनसन मरणेण इंदंतं चकितं ॥ पंचोतरि विमारणा वासितं लोगेता देव दत्तं । प्रभव जीवादि न पावती ॥ २ ॥ संगम कालय सूरि कपिला अंगार पालया । दोविए एसत अभव्वा उदायन व मार चेव ॥३॥ तुच्छ भतं पाणं Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०६) ॥ रत्नसार ॥ तुच्छाय निंदाय त्तच्छमारंभो। तुछा जहा. कसाया ताहतुं तुच्छ संसारे ॥४॥ इह भरहे के विजिया मिथ्या दिठी भवया भव्वा । ते मरी उण नवमे वरसे हो हुँती केवलिणों.॥ ५॥) इति प्रस्ताविक गाथा ज्ञेयाः २७६.चमरेंद्र ने५ अगृमहिषि छै ते एकेकीअग्र महिपिने में पाठ आठ सहस्र देवीनो परिवार इम ४० सहस्र देवी सु भोग भोगवितो विचरै. इत्यर्थः २७७. बौद्धं नैयायिकंर सांख्यं ३ जैनं४ वैशेषिकं। तथा । जैमीनियंच ६ नामानि दर्शनात्म शून्य हो । इति षट् दर्शन नामानि ॥ २७८. हिवै ६३. शिला का पुरुष तेहना जीव५९ छै तेहना विगत-जीव ३ चक्रवर्ती पदवी ना प्रोमा थया. एक वासुदेव थया ए४ जीव घट्या.मांहें(बाकी)जीव ५९ थया. तथा ५९जीवनी माता६० पिता ५१ कह्या छै तेहनी विगत -२४ जिननी माता, ९ चक्रवृती नी माता, ९ वासुदेवनी माता, ९ बलदेवनी माता, Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ रत्नसार ॥ ६प्रति वासुदेवनी माता, एवं६० माता जाणवी. हिवै पिता ५१ ते तेहनी विगत. २४ जिन ना पिता, १ चक ना पिता, ९ वासुदेव ना पिता, ९ प्रति वासुदेव ना पिता, एवं ५१ पिता जाणवा: एणी रीते पदवी ६३, जीव ५६, माता ६०, पिता ५१, ए रीते ए अर्थ. २७९, अथ ऋषभ देव स्वामी केतला वरस नो काल गृहस्थाश्रम में वस्या तथा सर्व आयु केतला वर्ष जीव्या इति प्रश्न:- ऋषभदेव बीस लाख पूर्व कुमरपणे रह्या तेहना वरष केतला थया-१४लाख कोड़ा कोडी इग्यार हजार कोडा कोडी वलि बेसे कोडा कोडी १४११२०००००००००००००००० एतला वर्ष कुमार पणै रह्या. तिवार पछी ६३ लाख पूर्व राज्य अवस्था भोगवी तेहना वर्ष केतला ४४ चवालीस लाख कोडा कोडी ४५ हजार कोडा कोड़ी बेसै कोडा कोडी अस्सी कोडा कोडी तेहना आंक४४४५२८०००००० ००००००००००. तिवार पछी एक लाख पूर्व दीक्षा Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०८) ॥ रत्नसार ॥ केवल पणै रह्या तेहना केतला वर्ष-७० सित्तर हजार कोडा कोडी पांचसै कोडा कोडी ते ऊपर ६० साठ कोडा कोडी, तेहना आंक ७०५६००००००००००००००० एतला वर्ष थया. इम सर्वे ८४ लाख पूर्व नो वरस सरवाले ५९ लाख कोडा कोडी२७ हजार कोडा कोडी ते ऊपरि वली४० कोडा कोडी एतला वर्ष जीव्या. एतला वर्ष श्रीऋषभदेव सर्वायु जीव्या. एकडा ऊपरि १४ मींड्या आवै तिवारे कोडा कोडी, एकडा ऊपरि इकवीस मीड्यां आवै तिवारै कोडा कोडी, तथा एकडा ऊपरि २९ मींड्या आवै तिवारै कोडा कोडी थाइं. इत्यर्थ : ८४ लाख पूर्वनो. . २८०. अथ बंध नो स्वरूप कहिये छै. अंकले योगे प्रदेश बंध प्रकृति बंध नीपजे ते कर्म वरगणा दलनो संचय थाय, तथा योग ने लेश्या बे एकठा मिलै तिवारे प्रकृति ने प्रदेश बंध नीपजै. तथा ध्याने कषाय ए बे मिलैं तिहां थिति बन्ध रसबंध नीपजै. तथा जिहां कषाय ध्यान आवै तिवारे च्यारै भेला थाय. इत्यर्थ Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ रत्नसार ॥ : २८१. अथ भार मानः- (षट सर्षपे यवस्तैको गुंजैका चयवैस्त्रिाभि । गुंजा त्रयेण वल्लस्यात् गद्याण स्तैच षोडसै ॥ १ ॥) अस्यार्थः-- छए सरसे एक जव थाइ. तथा ३ य गुंजा थाय, गुंजा त्रणे एक वाल थाय. सोलै वाले गदियाणो थाइ. इति. (पलेचदस गद्याणेस्तेषां साई सतमैणी मणी दसभिरेकाच घटिका कथिते बुधे ॥) अस्यार्थः- दस गदियाना एक पल थाइ. ते डोढसो पले एक मणी थाइ. ते दसे मणी एक धड़ी थाय.(धडीभि दसभिः ताभिरेको भार : प्रकीर्तितः । चत्वार फूफित्म भारा अष्टोच पल पुफीता । वल्लयो भार षटकंच एवं अष्टादश स्मृता ॥३॥) अस्यार्थः -- दसे धडीये एक भार थाय. इति लोक प्रकाश ग्रन्थ मध्ये का छै. ३ कोडि ८१ लाख १२ हजार नव सै ७७ एतला मणे एक भार थाइ. तथा एकेकी जात नु एकेकु पांन लीजे ते एकठो कीजे इम ४ भार वनस्पति केवल फूल नी छै, तथा आठभार वनस्पति फल फूल पान नी छै, तथा छः भार वनस्पति वेल नी छै. Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ रत्नसार ॥ ए रीतें अढार भार वनस्पति नि संख्या जाणवी. इत्यर्थः २८२. अथ ( केनग्रन्थ परित्यक्ष बाह्य भ्यंतर परिग्रह चतुर्विंशति के क्षेत्रे वास्तू धन धान्य द्विपदं चतुपदं यानं शय्या शयनं, भांडं कुप्पं चेतिबहि दस : ॥ १ ॥ मिथ्यात्व वेदे हास्यादि षट कषाय चतुष्टयं राग द्वैषौच संगास्यू रंगा चतुर्दशः ॥ २॥) ___ २८३. हिवै रोग केतले प्रकारे ते कहै छै. (ज्वरो भगंदरो कुष्ट क्षयश्चैव चतुर्थका । महारागाढ्य मी प्रोक्ता भार्या स्यैषा प्रकीर्तिता ॥१॥) ए४ मोटा रोग. ज्वर १,भगंदर २, कोष्ट ३, धातुक्षय ४. ए४ रोग मोटा कह्या. ते रोग नी स्त्री कहिये छै. ताव नी स्त्री तरस १,भगंदर नी स्त्री हेडकी २, कोढ नी स्त्री भूख ३, धातु क्षय नी स्त्री निंद्रा ४. एकेक रोग ना २५ छोरं, अष्ट महा रोग छै. इम १०८ रोग डाहे वैये निरता जाणी प्रतिकार करवो. इति अर्थः सामं प्रेमकरं वाक्यं दानं वित्त समर्पणं । भेदो पुंस समा कृष्टि दंडसी प्राण संहति ॥१॥ Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ रत्नसार ॥ २८४. अथ एकसौधर्मइंद्रना आउषा मांहि केतली इंद्राणी चवै इति प्रश्नः- ( कोड़ा कोडी दुविसं पंचासी लखा हुंति कोडीऔ । इगुत्तरि सहस कोडी चत्तारि सयाय तह कोडी ॥ १ ॥ अठावीसं कोडी सत्तावन्न हवंति लखाइं सहसा । चउदस दुसया छासी इंदे गजं मिथि ॥२॥ इय संखादेवीयो चवंति ईगइंदजमंमी ॥ ३॥ ) इंद्र जिवारे विषय सुख भोगवै तिवारे एक लाख ने २८ सहस रूप विकुर्वे, आठ अग्र महिषी. एकेकी सोले सहस रूप विकुर्वे. २२ कोडा कोडी ८५ लाख कोडी ७१ सहस कोडी ४ सय कोडी २८ कोडी ५७ लाख १४ हजार २ सय ८६ ऊपरि आठ गुणी, एतली देवांगना एके इंद्रना आउषा मांहि चबै इति. अर्थः . __२८५. एकेंदीय मंष्ये दाया उद्वेविअहेय तिरिय लोण्य। विगलेदिय जीवा पुणतिरिए लोए सु मुणे यन्वं ॥१॥पुढवी श्राउ वणस्स ई बारस कप्पे सु सत्त पुढवीस। पुढवीजा सिद्धि सिला तेउनरिवसतिरिय लोए ॥ २ ॥ Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२१२) ॥ रत्नसार ॥ सूरि लोए वाविमप्से मथा यतथ जलवराजीवा गेविझे । नहुवा विवा विअभावेन जलंथी ॥ ३ ॥ ___२८६.दसा श्रुतस्कंधे तथा पाखी वृत्तौ नव नियाणां कह्या ते किहा ? राज्यादि थावा नी इच्छा १, अमात्य * थावा नी इच्छा २, स्त्री थावानी इच्छा ३, देवता ना भोग नी इच्छा ४, आपणि देवी भोगनी इच्छा ६, भोग न पांमु एहवो नियाणो करै ७, श्रावक थवा नी इच्छा ८, दरिद्री थावा नी इच्छा एतले श्यु दरिद्री थयो ते कर्म रहितथवानी इच्छा९. ए ९ए नियाणा साधु साधवी न करै. ए बे नियाणा ना उदय श्राव्या पछी आवते भवे ए फल पामै. प्रथम छः नियणांनां धणी ने दुर्लभ बोधि होइ, प्राय धर्म सर्दहै नहीं, सातमा नो धणी धर्म सांभलै पण समकित पामै पण देशविरत पणो उदय नावै. आठमा नीयाणां नो धणी देशविरतपणु पामै पण सर्व विरतिपणो न पामै. नोमा * रिधिवंतथवानीईछा Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ रत्नसार ॥ (२१३) नियाणा नो धणी सर्व विरति पणो पामै पण मोक्ष न होइ. इति नव नियाणा अधिकार जाणवा. २८७. पुरुष वेद काय थितै रहै तो सागरोपम ६०० झारा रहै. स्त्री वेद रहै तो पाल्योपम ११० पृथक्त पूर्व कोडि ६ रहै. नपुंसक वेद रहै तो अनंती उत्सर्पिणी अवसर्पिणी शुद्धि रहै. पंचेंद्री नो पंचेंद्री प रहै तो सागरोपम १००० झारा तथा जीव स काय मांहि श्रावी सप रहै तो सागरो पम २००० झामेरा रहै. २८८. पांच ज्ञान त्रण्य अज्ञान काल थकी जघन्य तथा उत्कृष्टै तलो काल रहै इति प्रश्नः - मति ज्ञांनं अने श्रुत ज्ञान नो काल जघन्य थी अन्तर्मुहुर्त्त उत्कृष्ट काल सागरोपम ६६ भामेरा रहै. अवधि ज्ञान नो काल जघन्य थी एक समै उत्कृष्टै ६६ सागरोपम झाझेरा. अवधि ज्ञान एक समै ते किम ? विभंग ज्ञानी समकित पडीवजे तिवारें विभंग फीटी Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२१४) ॥ रत्नसार ॥ अवधि ज्ञान थई आवै. त्यारे एक समै रही वली पडै. विभंग ज्ञान नो विभंग ज्ञाने ज श्रावै. इम अवधि ज्ञान जघन्य थी एक समय होइ. मन पर्यव ज्ञान जघन्य थी एक समै उत्कृष्टै देसै उणा पूर्व कोडी. एक समै ते किम? जिवारे अप्रमत्त गुण ठाणे वर्ततो मनपर्यव ज्ञान उपजीने जाइ तिहां एक समै जाणवो. केवल ज्ञान ना धणी ने सादि अनंता काल जाणवा. हिवै मात अज्ञान अने श्रुत अज्ञान ना भांगा काल प्रासरी ३ जाणवा- एक अनादि ने अनंत ए अभव्य ने १. अनादि ने सांत ए भव्य ने२. सादि अने सांत ते समकित थी पडी पछै चढे तेहने होइ ३. सादि अने सांत छै तेहने जघन्य थी अंतर्मुहूर्त अने उत्कृष्टो ते अई पुद्गल परावर्त जाणवो. __हिवै विभंग ज्ञान नो काल लिखिये छैःजघन्य तो एक समय अने उत्कृष्टै सागरोपम ३३ झाझरो. मनुष्य नो आयु पूर्व कोड नो पाली सातमी Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ रत्नसार ॥ (२१५) नरकै उत्कृष्टै आउषै जाइ. एतले एक पूर्व कोडी ने ३३ सागरोपम थाइ. ___ २८९. हिवै आठै ज्ञान नो आंतरो कहै छै:मति अज्ञान नो आंतरो जघन्य थी अंतर्मुहुर्त नो होइ, उत्कृष्टै अर्द्ध पुद्गल परावर्त माठेरो होइ.इम एणे प्रमाणे श्रुत ज्ञान, अवधि ज्ञान, मन पर्यव ज्ञान नो पण आंतरो जाणवो. केवल ज्ञान नो आंतरो नथी. हिवै मति अज्ञान, श्रुत अज्ञान नो आंतरो जघन्य तो अंतर्मुहूर्त उत्कृष्टौ सागरोपम ६६ झाझेरो होइ. हिवै विभंग ज्ञान नो अंतर कहै छैः- जघन्य तो अंतर्मुहुर्त्त, उत्कृष्टै तो वनस्पति नो काल. ए भाव. इति. २९०. हिवै १७ प्रकार ना मरण श्री उत्तराध्ययन टीका मध्ये कह्या छै ते लिखिये छैः-प्रथम आवीची मरण ते समये २ आयु कर्म नां दल खेरवै छै १. उही Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२१६) ॥ रत्नसार ॥ मरण ते समस्त संपूर्ण श्रायु भोगवी नें मरै २. अंतिय मरण ते नरकादि गति नो छेहलो मरण वली ते ( फरि ) नरके न मरै ३. बलीय मरण ते व्रत परिणाम भोगे जे व्रतीनो मरण ते होइ ते ४. वसदृ मरणं च ते इंद्र ने परवश पणे मरै, दीप शिखा देखी पतंग नी परे ५. भोसल्ल मरण लज्जादिक थी शल्य राखी मरै, लक्ष्मणवत् ६. तदभव मरण ते चर्म शरीरी थइ मरे ७. बाल मरण ते अविरति मिथ्यात्वी ना मरण ते ८. पंडिय मरण ते व्रती समकितीना मर ग ९. मिश्रंसंते मश्रमरण ते देशविरतिश्रावक ने मरण १०. छउमथ मरण छद्मस्थ चारित्रीया ना मरण ११. केवल मरण ले केवलज्ञानी नुं मरण १२. विहास मरण ते कारण पड़े गले फांसी तथा शस्त्रै तथा विषै योगे मरै १३. गृधीय पीठ मरण ते गृध पंखिया ये कारण पडे शरीर खवरावी मरै १४. भत्त परिणाम मरण ते चतुर्विध अहार ना त्याग थी प्रति क्रमणा सहित मरै १५. इंगणी मरण ते नियमि भूमिका नें विषै च्यार अहार Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ रत्नसार ॥ नो त्यागकरै वेयावच न करावै १६. पाउब मणंच ते निश्चल निः प्रतिक्रम वृक्षनी डाली पडी होय तेहनी परे शरीर वोसरावै १७. इति. ए सत्रा प्रकारे मरण जाणवा. इति. २९१.भूमिका केतली प्रचित होइ ते प्रश्नः-राजमार्गनी भूमिका आंगुल ५ अचित, सेरी नी भूमिका अंगुल ७ अचित्, घरनी भूमिका आंगुल १० अचित, मल मूत्र भूमिका १५ आंगुल अचित, गोमहिषी छाली प्रमुख बेसै तिहां भूमिका आंगुल २१ अचित, चुला हैठे भूमिका आंगुल ३२ आचित, नीमाडा नी भूमिका ७२आंगुल अचित, ईट वा अंधःभूमिका आंगुल १०१ अचित, इति. २९२. सूगडांग वृत्ति मध्ये आंवलनी छाल मध्ये असंख्यात जीव कह्या छै. २६३. पन्नवणा ना पहिला पद माहि. तथा नवकरवाली ना १०८ गुण कह्या ते किहा? इति Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२१८) ॥ रत्नसार ॥ प्रश्नः- १२ गुण आरिहंत ना-८ महा प्रतिहार्य, ज्ञानअतिशय १, वचनअतिशय २, पूजा अतिशय ३ अपायापगमा अतिशय ४: एवं १२. आठ कर्म ना क्षय थी सिद्ध ना८ *गुण,आचर्य ना३६ गुण, पंचेंद्रिय संवरणो इत्यादि गाथा २ बे थी जाणज्यो. उपाध्याय ना २५ गुण- इग्यारै अंग भणै भणावै, इम १२ उपांग एवं २३, चरण सत्तरी २४,करण सत्तरी आराधे एवं २५. साधू ना २७. गुण ते किया ? पांच व्रत पालै, छठो रात्री भोजन, छ: काय रखवालै एवं १२, पांचंद्री नो निग्रह एवं १७, लोभ निग्रह संवर १८, क्रोध निगह क्षमा गुण १९ एवं १९. भाव विशुद्ध २०, पडिलेहणा विशुद्धि २१, संग्रह योग युक्तता २२, . . * अनंत ज्ञान १ अनंत दर्शन २ अनंत चारित्र३ अनंत वीर्य अव्याबाध ५ अमूर्ति ६ अनवगाह ७ अगुरुलघु ८. ए सिद्ध ना गुण जाणवा. ५ इंद्री ना संवरण (निग्रह )९ प्रकार ना ब्रह्मचर्य व्रत, ४ कषाय, ५ महाबत, ५ आचार, ५ सुमती, ३ गुपति. ए आचार्य ना ३६ गुण जाणवा. . Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ रत्नसार ॥ (२१९) मन वचन काय नु कुशल पणों ३, एवं २५, सीतादि का पीडानो सहवो २६, मरणांत उपसर्ग:सहवो एवं २७. एवं सर्व मिली १०८ गुण पंच परमेष्टी ना, तेहने नवकरवाली कहिये. ए अर्थ. इति. २९४. २९५. अथ साधु ने १०० सोये वसा (विश्वा) पंच महा व्रत पालै छै ते किम? इति प्रश्नःपहिलो प्रणातिपात श्रावक नी अणु व्रत तिहां दया जावजीव सवा वसा नी होइ. पांच थावर ते सूक्ष्म ने बादर एवं दस ते पर्याप्ता ने अपर्याप्ता एवं २०. इम एणी रीतें साधु ने सोये वसाई महाव्रत पाले. श्रावक ने पांच अनुव्रत मिली ६।सवा छे वसा नो पालै. इत्यर्थ. * ___ *श्रा प्रश्नमांग्रन्थकर्ता ए जे भेदाभेद कीधा छै अने केतलीक जगो आंकडा मूक्या छे तेमांही थी केतलाक समजवा मां आवता नथी ते माटे या प्रश्नजेम लखेली प्रत मां हतो तेमज छापी दीडूं छे. श्री सम्यक्त्व मूल बारव्रत नी टीपमा आ बाबत लिख्युं छै ते आ मुजब छैः-- साधुने वीश विश्वानी दयाछे,अने गृहस्थने सवा विश्वानी दया छे. ते केवी रीते तेनो विवरो लखीए छैए. ॥ गाथा ॥ जीवा सुहमाथूला । संकप्पारंभाभवेदुविहा। सावराह निरवगहा । साविरकाचेवनिरविरका ॥ १॥ अर्थ Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२०) ॥ रत्नसार ॥ तथा वली पांचे अनुव्रत श्रावक ने होइ तेहनों विवरो लिखिये छैः- स्थूल बेइंद्रियादिक त्रस जीव निर्पराधे उपेत करणी संकल्पी न हणे, ए जगतमा जीवना बे भेद कह्या छे. एक थावर, बीजा प्रस. तेमा थावरना वली सूक्ष्म,बादर ए बेभेद छे तेमां पण सूक्ष्मनी हिंसा नथी. कारण अति सूक्ष्म जीवना शरीने बाह्य शस्त्रनो घाव लागतो नथी, तेमने स्वकाय एटले पोतानी जातीना जीवोथी घात पात छे. पण बादर नथी एमाटे अहींयां सूक्ष्म शब्दथी पण जाणवू के थावर जीव, पृथ्वी, पाणी, अग्नि, वायु, वनस्पतिरूप बादर ए पांचे थावर तेमने सूक्ष्म कहीए . अने थूल एटले बेंद्रि, तद्रि, चौरेंद्रि, पंचेंद्रिरूप जाणवा ए जीवना मूल भेद बे छै तेमां सर्व जीव पाव्या. तेओ सर्वनी त्रिकरण शुद्ध रक्षा करे छे. तेमाटे वीश विश्वानी दया मुनि ने छे. पण श्रावकथी तो पांच थावरनी दया पली शकाय नहीं. सचित्त अहारादि कारणथी अवश्य हिंसा थाय छे. माटे दश विश्वा गया अने दश रहा.एटले एक त्रस जीवनी दया राखवाना दश रह्या तेना पण वली बे भेद छे. एक संकल्प. बीजो आरंभ.तेमां प्रारंभ करीने जे त्रस जीवनी हिंसा थइ जाय ते छोडी न जाय तेमाटे बे हिंसामां एक संकल्प हिंसानो त्याग अने आरंभ हिंसानी तो जयणाछे, एम गणतां फरी दशमांथी अडधा गया एटले पांच विश्वा रह्या, एटले संकल्प करी त्रस जीव नहj. एमां पण जीवना बे भेदछे. एक सापराधी जीव अने बीजा निरअपराधी जीव छे. तेमां जे निरपराधी जीवछे तेमने न हj. अने Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ रत्नसार ॥ प्राणातिपात अणुव्रत नी दया वशा १ नी होइ ते पूर्वे लिख्यो छै तेथी जोज्यो तथा बीजा अणुव्रत वीषे आपणे काजे स्व साधु ने समस्त जीव रक्षा लापराध जीवने हणवानी तो जयणा छे.जेथी करी सापराधीनी दया, श्रावकथी सदा सर्व रीतेथी पले नहीं. जेम के घरमां चोर पेठा छे.तेओ आपणी चीज लइ जाय छे ते मारया कूटयों बिना छोडे नहीं. वली बीजू दृष्टांत एक पापणी स्त्रो साथे कोइ अन्य पुरुषने अनाचार सेवतां देखिये तो तेने तस्दी दीधा विना ते छूटे नहीं. ए प्रमाणे सापराधी कहीएं. बीजं पण क्यारेक राजानी आज्ञाथी युद्धमा गया थका संग्राम करवो पडे, त्यारे त्यां पागलथी शस्त्रादिक चलाविये नहीं. सामो शत्रु प्रथम शस्त्रनो मारो करे, त्यारे पछी आपणे करीएं. ए माटे; सापराधी नो संकल्प पण न छूटे. त्यारे बाकी रहेला पांच वशामांथी पण अडधा गया, बाकी अढी वशा रह्या. एटले संकल्पीने “निरपराधी जीवने न मारूं" एटलुंज फकत रां. एमां पण वली बे भेद छे एक सापेक्ष, अने बीजो निरपेक्ष, तेमां सापेक्ष निरपराधी जीवनी दया, श्रावकथी पले नहीं तेनुं कारण शुं? ते कहेछे. श्रावक पोते घोडा, घोडी, बेल, बलद, रथमां, गाडीमां, के इत्यादि बीजा बाहनो पर बेसे छ. त्यारे घोडा प्रमुख बलद विगेरे ने चाबका के आर लगावे छे, पण विचारतो नथी के, घोडाएं के बलदे शो अपराध करयो छे ? एमनी पीठ ऊपर तो चढी बेठो छे. ए जीवना शरीर सामर्थ्यनी तो कांइ खबर छे नहीं. जे आ जीव,बलवान् छे के दुर्बल छे. पोते ऊपर चढी बेठो, ने वली तेने गाल प्रमुख दइने Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२२) ॥ रत्नसार ॥ वसा२ ० (अर्ने श्रावक ने)सूक्ष्म ते बादर वसा १ ० काढ्या, आत्मा ने पर अत्तहा परट्ठा चेव १. सापराधनिरपराधेकरी वसा २॥ अपराधै हणे पण निरपराधे नही १॥ सापेक्ष नी दया निरपेक्ष वसो १रहै तथा अत्र गाथा( तथाथावरायजीवासंभकप्पारंभओभवे । दुविहा सावराहानिरवराहासावेरकाचेव नरवेरका॥१॥) जीव बे प्रकारै- सूक्ष्म. बादर, ते मध्ये सूक्ष्म ना १० भेद तथा १० बादरना. सूक्ष्म ना १० भेद ते पांच थावर मारे छे ! पण एतो निरपराधी छे.वली आपणा अंगमां तथा आपणां पुत्र, पुत्री, गोत्री, आदिकना मस्तकमां अथवा कानमां कीडा पड्या छ, अथवा आपणाज मोढामां के दाढमां के, दांतमां, के जडबामां कीडा पड्या, तेवारे तेमने मारवाना उपायें करी ने कीडानी जग्याएं औषध लगाडवू पडे, पण ए जीवाएं शो अपराध करयो छ ? एतो पोतानी योनि उत्पत्ति स्थान पामीने कर्मने आधीन आवीने अहीं उपजे छे, पण क्यारे कशी दुष्टताथी उपजता नथी. ते कारणमाटे जीवनी पण हिंसा, कारणे करीने श्रावक तजी जाय नहीं. वली बाग बगीचामां गया थका फूल, फल, पांदडां, गुञ्जा प्रमुखने तोडवा सारु चोट देवी, अथवा फल, फूल, तोडी लेवां; ते माटे अढी वशामांथी अडधो गयो त्यारे सवा वशानी दया रही. एटला सवा वशानी दया शुद्ध श्रावक ने छे. Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ रत्नसार || (२२३) पर्याप्ता ने ५ अपर्याप्ता एवं १० नी दया श्रावक नें न होइ. हिंवै १० बादर ते किहा ? बेंद्री, तेंद्री, चोरेंद्री पंचद्री ४ ए पर्याप्ता ने अपर्याप्ता एवं भेद ८. पंचेद्री संनी असनी एवं १० भेद बादर ना थया ते मध्ये श्रावकने संकल्पी न मारूं प्रारंभ जयणा एवं ५भेद रह्या ते मध्ये अपराधे हरायों, निरअपराधे नहीं, एतले शवसा रह्या. ते मध्ये सापेक्षया श्रने निरपेक्षा निर्दय परौं न हरायो एवं १ | वसा नी दया श्रावक ने त्रस जीव नी रही. इति प्राणाति पातिनी जीव दया १| वसा नी. इति. 3 २ हिवै मृषाबाद अणु वृत समस्त मृषावाद नियम साधु नें २० वसा. सूक्ष्म ने बादर करतां १०, उपयोगै अणा उपयोगै २०, अत्तट्ठा परट्ठा आत्मपर एवं५, स्वजन परजन करतां २॥ धर्मं अपर अधर्म परमार्थे १1. अत्र गाथा - ( सुहुमबादर मिलियं पाण परिभेयगं भवे दुविहं सयणं परगं च तथा Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२४) ॥ रत्नसार ॥ धमं थं केवल परमथं ॥ १ ॥) पांच मोटका जूठ ते सूक्ष्म ने बादर एवं १०, ते उपयोगे अणा उपयोगे एवं २० वसानु मृषावाद साधु न बोलै,पण श्रावक ने। वसानुं मृषावाद श्रावक थी पलै. इति अर्थ. ३ अथ अदत्ता दान अणु व्रत समस्त अदत्त विरमण साधु ने २० वसा. सूक्ष्म बादर भेदे थइ में वसा १०, सराज निग्रह निराज निग्रह थी ५, आत्म निमित्त पर निमित्त थी २॥, वाचु तथा अण वाचुं वसा ११. अत्र गाथा-(सुहुम थूल मदिन्नदाणं निवराय दंडकारियं । राय ग्रह कारियं पुण दुविहं कहियं गुरु जिणेहं १ ॥ नविराहय निग्रह करं अप्पाणं पर भेयगं । भवेदुन्विहं दिन्नन्यदिन्न च परं भासियव्वं निउण बुद्धिहि ॥ २ ॥) अदत्त पांचथूल जीव अदत्त १, जिन अदत्त २. गुरु अदत्त ३, स्वामी अदत्त ४, सागारी अदत्त ५. ते सूक्ष्म ने बादर एवं दस, उपयोगै तथा अणा उपयोगै एवं २० गुणाई. इति. Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ रत्नसार ॥ (२२५) * हिवै मैथुन अणुव्रत चतुर्थ. साधु ने समस्त मैथुन विरमण २० वसा. मन वचन काया ३ एवं १०. स्वदारा परस्त्री करतां एवं पांच. वेश्या तथा अपर स्त्री २॥, कुमारी तथा पर स्त्री करतां . तत गाथा- (मण वय काय मेहुण मविनिया पडरिइ इत्थीओ वेश्या परइथि ओ कुमारी परह स्थी नियमोय ॥१॥) स्वदारा१ परस्त्री २ वेश्या३ दासी ४ कुमारी ५ एवं ते मन वचन कायाई करी एवं १०. ते सुपर्ने तथा जाग्रत पणे एवं २० वसा नो सीयल साधु पालै. तिहां श्रावक ने वसा । न होइ. इति. ५ अथ परिग्रह अणुव्रत पांचमो ५. साधु ने समस्त विरमण वसा२०. अभ्यंतर ने वाह्य करता १०, अतहाने परट्ठा ए बे भेदै ५, स्त्री पीहर श्रात्म निष्ठा- २॥, स्त्री आत्मदत्त एवं वसा ११, तत्र गाथा- ( अभ्यंतरबाहिरपरिगाहोपरसकीयमाचेव इथीपीहरअप्पोइथीनियदत्तनिओयाति ॥१॥धन धान्य Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२६) ॥ रत्नसार ॥ १, खेत वथु २, रूपो सोनो ३, कुबई ते वासणं ४, द्विपद चोपद ५, एवं पांच ते बाह्य में अभ्यंतरे १०. इति इच्छा मूर्छा रू २०, ते मध्ये श्रावक ने वसा १। परिग्रह पले. इति पूर्ण. अथ गाथा- ( तसाथावरायजीवासंकप्पारंभोभवेदुविहा । सावराहानिरवराहा सावरका चेव निरवेरका ॥ ॥ इति प्राणातिपात विरमणं. सुहुम बादर मलीयं अप्पाणं पर भेयंग । भवे दुविहं सयणं परगं च । तहा धमथ केवल परमथ ॥२॥ इतिः मृषावाद विरमण व्रत २. सुहुम थूलम दिन्नदाणं निवराय दंड कारियं । राय ग्रहा कारियं पुण दुविहं कहियं गुरु जणेहि ॥ ३ ॥ नविराय निग्रह कर अप्पाणं परभेयगं भवे दुविहं । दिन्नमदिन्नं व परं भासियव्वं निउण बुद्धिहि ॥ ४ ॥इति अदत्ता दान विरमण व्रतं. प्रथमण वय काय मेहुण मविनियय अविरइ। इच्छिओ वेस्या पर इच्छिओ कुमारी पर इच्छी नियमोय इति मैथुन विरमण ॥ ५ ॥ अभ्यंतर बाहिर Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ रनसार ॥ (२२७) परिग्रहो फरसकीयगाचेव । इच्छी पिहर अप्पो इच्छि नियदत्त निओय॥६॥ स्वजनकाजेधर्मकाजे मुकी परकाजे . बोलवा नियम. ए मृषावाद अणुव्रत समस्त म्रषावाद नियम २०, सूक्ष्म बादर भेदे १०, आत्म काजे पर काजे ५, स्वजन पर काजे २॥,धर्म पर काजे ११. एवं द्वितीयं. ___ अथ तृतीयं अणुवत राजनिग्रह कारीउपराउं अण दीधुं लेवा नियम, समस्त अदत्ता दान पचखांण २०, सूक्ष्म बादर भेदे १०, सराज निग्रह निराज निग्रह ५, श्रात्म राज निग्रह पर राज निग्रह २॥, पियारी दीधी पियारी अण दधिी एवं १, राज निग्रह पडै तेहनो पचखाण. ते सराज निग्रह मांहे बे भेद- एक आत्म राज निगह, एक पर राज निग्रह. आपणां घर मांहि नी चोरी ते आत्मराज निग्रह, पारकी चोरी करिये ते पर राज निग्रह कहिये. हिवै ते आत्म राज निग्रह ते मोकलो, परराज निगृह नो पचखांण. हिवै परराज निग्रह ना बे भेद ते किहां ? एक पियारी दीधी, Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२८) ॥ रत्नसार ॥ एक पियारी अण दीधी. पार की दी वस्तु आणीश्रापै एतले कोई नी दृष्टी वंची एतले न लेवे सवा वसो श्रीजी व्रत नो जाणवो. ___ अथ चतुर्य स्वदारा संतोष, परदारा विवर्जना रूप ए मांहि सर्व फलामणी है. समस्त मैथुन विरमण वसा २०.मन वचन काया १०, स्वदारा परस्त्री ५, वेस्या अपरस्त्री मांहि बे भेद ते किहा? वेस्या में अपरस्त्री ते मध्ये वेस्या नो नही पलै, अपर स्त्री नो पलसै. एवं २॥. अपर स्त्री मांहि बे भेद छै ते किहा? कमारी अने परणी, अपर स्त्री ते कुमारी नहीं पलें, परणी परस्त्री नो पलसै. कुमारी श्या माटे मोकली ? जे विवाह मल्यो छै, परण्या नथी ते उपरे स्त्री नो अभिलाष धरे ते माटे, एतले सवा वसो रह्यो.आणंद श्रावक स्यसपादा विशेषाधिक. अथ पांचमें आपणो परिग्रह स्त्रियादिक नो करी श्रापणे कार्ये आण्यो होइ ए परिग्रह अणुव्रत. तिहां Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ रत्नसार ॥ समस्त परिग्रह विरमण वसा२०.अभ्यंतर नें वाह्य परिग्रह विश्वा१०. पर आत्मा एवं५. स्त्री पीहर आत्म एवं २॥. स्त्री आत्मा दत्त आत्मा १. अभ्यन्तर परिग्रह क्रोध मानादिक नो नहीं पले. अने वाह्य परिग्रह दस प्रकार नो ते पलशे. एवं १० वाह्य परिग्रह मांहे बे भेद ते किहा? एक आत्म परिगह अने पर परिग्रह. ते मध्ये प्रात्म परिगृह नो नहीं पलै, पर परिग्रह नो पलशै. एवं ५, वलि पर परिगह माहि बे भेद ते किहा? आत्मनियोग अने स्त्री पीहर. श्रात्म नियोग ते इयूं कहिये? जेवाणोतरादिक नो जे गर्थ ते आत्म नियोग ते पलशे. अने स्त्री ना पीहर नो परिगह ते श्रात्म नियोग नो नही पलै. एवं २॥. स्त्री ना पीहर नो परिगृह तेहना बे भेद ते किहा? एक स्त्री दत्त अने एक स्त्री अदत्त एवं १। वसो थयो. इति पंचा अणु व्रतानि. इम श्रावक ने पांच अणुवत सवा वसानो होई, तेहनो विवरण कयु छै. इत्यर्थः इति पंचाणु व्रत संपूर्ण. Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ रत्नसार ॥ २९६. अथ संसारे किंसारं. इति प्रश्न. अथ संसार विसारं. धर्म अधर्म नाम सम्यग् दर्शन धर्म सारं, तस्य सारं नाणं सम्यग् ज्ञानं, तस्य सारं चरणं सम्यग् चारित्र. तस्य सारं निर्वाणं मोक्ष. इति अर्थ. . २६७. अथ प्रस्ताविक गाथा-(चवारिय वाराओ चउदस पूब्बी करेई श्राहारं । संसारं मिवसंतो एक भवे दुन्निावराओ ॥ १ ॥ समयो जहन्नमंतर उक्को सेणं जावछम्मास्सा । आहार शरीराणां उक्कोसेणं त नव सहस्सा ॥२॥खई उषसूउव समीयं २ वेयगमुविसामी. यंच । सासाणा पंच विहं संमतं परूवियं जिणवरं देहि ॥ ३ ॥ इति ॥ सुकुमोय होई कालो ततो सुहुमतरं हवइ खितं । अंगुल सेढी मित्ते उसप्पिी ओ असंषिद्या ॥ ४ ॥) २९८. तथा अनादि मिथ्याल नी वासना पतित ते अभव्य ने होइ, यथा प्रवृत्ति करण करें गंठी सुधि श्रावै पण पाछो पडै. तथाविषय लालसा पतित Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ रत्नसार ॥ दुर्भव्य ने होइ. यथाप्रवृत्ति करणे करी गांठ सुधि श्राव पण पाछो पडै.अने निकट भव्य ते कर्म वर्गणा पतित कोईक कर्म ना उदय थी यथा प्रवृत्ति करण थकी पाछो पड़े. एतले वासना लालसा मिटी. ते मध्ये अभव्य ने मन्दता ते तीव्रता ने पमाडे. निकट भव्य नी मंदता ते क्षयोपशम भाव में पमाडे. ए अर्थ. इति. २६९.यथा प्रवृत्तिकरण ते यथा जे जेहवा कर्म ना उदय आवै द्रव्य कर्म रूपे ते तिम वेदी ने निरजरइ, ते माहे नवा राग द्वेष न उपार्जे. इम अकाम निर्जराइ मंद ताई करी तो गंठी सुधी. गांठ ते घणा राग द्वेष परिणाम भाविक कर्म नी गांठ अात्मा ना पद्गल सं ममत्वता एकी भूत, ते गांठ ते अपूर्व करण परिणाम विशेष भेदवा प्रारंभै, तेह ने अंते भेदी ने अनिवृत्तिकरण पामै. ए सर्व क्रिया अंतर्मुहूर्त नी. तिवार पछी मिथ्यात्व नो जावणो, उपशम समकित नो थायो, ते अंतर करण एक समय नो. इति ४ करण नो भावार्थ. ३००.तथा समकित पामै उपयोग शुद्ध समस्यो,ते Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२ ३२) , ॥ रत्नसार ॥ समरे जीव समस्यो, जीव समरै योग समरै, योग समरे परिणाम समस्यां,परिणाम समरै अध्यवसाय समस्यां, तिहां जीवतव्य समरै.शुद्धोपयोगे रूप शुद्ध श्रद्धान समकितते योग समरै, व्रत पचक्रवाणे प्रणाम समरै,अप्रमत्त ताइअध्यवसाय समरे, शुक्ल ध्यान रूप क्षपक श्रेणी इत्यादिक. इम परिपाटी ग्रन्थांतरे घणी है. इम विगडे पण, उपराठी रीते लीजे * इति अर्थ. ३०१.तथा परमाणु प्रदेश मध्ये श्यो विशेष छै ते कहै कैः- स्वभाविक तै परमाणु, विभावी ते प्रदेश, जे परमाणु बन्ध ने वलगो छै तिहां सुधी प्रदेश कहाये. छुटो पडयो ते परमाणु पण बरोबरी दोइ उणो ते दस पूर्ण ते खंध. इति भाव. . ३०२. पर्याप्त अने प्राण मध्ये श्यो विशेष ? तत्रोत्तरं-उपजती वेला अन्तर्मुहूर्त माहि जीव करै ते पर्याप्ता, पछै जीवै तिहां सुधी रहे ते प्राण कहीये. - * पाठान्तरे ‘लिख्यो छै. Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ रत्नसार ॥ इति श्रर्थ. ३०३. सेनुंजे श्रीऋषभ देव पूर्व. नवाणु वार श्राव्या एतले ६६ कोडा कोडी ८५ लाख कोड़ा कोडी ४४ हजार कोडी. एतली वार ऋषभ देव सेश्रुंजे आव्या तिवारे पूर्व नवाणुं वार था, इम गुणतां केतले वरसे प्रभुजी सेत्रुंजे श्राव्या एहवूं ज्ञान विजे सूरिइम कह्युं है. इति अर्थ. (२.३.३) ३०४. अथ पांच शरीर नो शब्दार्थ पन्नवणानी टीका मध्ये छै. उदारं प्रधानं शरीर मौदारिकं तीर्थ कर गण धर मब्चिकृत्यः तथा ऊदारिशा तिर्थेकयोजन सहश्र मानत्वात् । उदारिक वैक्रिय द्विधा सव धारणीयं उत्तर वैक्रियं यदेकं भूत्वा श्रनेकं भवति । श्रनेकं भुत्वा एकी भवति । शेष शरीर पेक्षया वृहत्प्रमाणं वैक्रियं २ आहारकं उक्तंच कथंमि समुप्पने सुयं केवलिणाविसहिलडीए । जें एच्छ अहारिधई भरणियं आकारं तंतु अत्यंत शुभ वैक्रियात् इत्याहारकं ३ अथ तेजसं सव्व 1 + पाठान्तरे ' कोडी. 9 Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ रत्नसार ॥ स्सओम सिद्व रसाइं। श्राहारयाकं जणगंच ते युगलद्वि निमत्तं ते यगं होइ नायव्वं भुक्ता श्राहार परि परणमन कारण ४ कर्मणो जातं कार्मजं कर्मपरिणामंच आत्म प्रदेशे सह क्षीर नीर वत् कर्मिणो विकारं कामण मिति यदुक्तं यत : ( कम्म विगारो कम्मण महि विह विचिकम्मनिप्पन्नं । सव्वेसि सरीराणां कारण भूतं मुणे यव्यं ॥) इति श्रीपांच शरीर व्याख्या परिसम्पूर्णम्॥ ॥ इति श्रीरत्नसार ग्रन्थ ॥ ॥ सम्पूर्णम् ॥ Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रत्नसार ग्रन्थ में २५ वां प्रश्न ध्यान प्रतिबंधक नाम का आया है उस का अर्थ इस मुजब है:शुद्ध आत्मादि नव तत्वों के विर्षे विपरीत बुद्धि को उत्पादक वो मोह मिथ्यात्व है. विकाररहित आत्म ज्ञान तिसे विलक्षण वीतराग चारित्र में मुंभावे ऐसो मोह एतावत् चारित्र मोह वो द्वेष कहते हैं. प्रश्न-चारित्र मोह शब्द करके राग द्वेष कैसे कहिये? इस का उत्तरकषायों में क्रोध मान ये दोय द्वेषांग हैं, माया और लोभ ये दोय राग के अंग हैं. नव नो कषाय में तीन वेद हास्य रति दोय ये पांच राग के अंग हैं. अरति और शोक ये दो और भय जुगुप्सा ये दो मिल च्यार द्वेष के अंग जानना. यहां शिष्य कहता है-राग द्वेषादिक क्या कर्म-जनित है कि प्रात्म-जनित है ? ऐसे प्रश्न का पीछा उत्तर-नय की वांछा के वश करके वांछित एक देश शुद्ध निश्चय करके कर्म-जनित कहते हैं Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२) तैसेही अंशुद्ध निश्चय करके जीव-जनित हैं. ऐसो वोही अशुद्ध निश्चय शुद्ध निश्चय की अपेक्षा करके व्यवहार है. अब हम ने जाना परन्तु हे गुरु साक्षात् शुद्ध निश्चय करके ये राग द्वेष किमके हैं या म्हे पूछा हां. तहां गुरु उत्तर देते हैं कि साक्षात् शुद्ध निश्चय करके स्त्री पुरुष संयोग रहित पुत्र की नाई,भला हलद संयोग बिना, रंग विशेष की नाई,इन राग द्वेष की उत्पत्तिज नहीं, कैसे हम उत्तर देवें. पद. ॥ राग धनाश्री ॥ परम गुरु जैन कहो क्यों होवे । गुरु उपदेश बिना जन मूढा, दर्शन जैन बिंगोवे ॥ परम गुरु जैन कहो क्यों होवे ॥ टेक ॥१॥ कहत कृपानिधि समजल झीले, कर्म मयल जो धावें । बहुल पाप मल अंग न धारे, शुद्ध रूप निज जोवें ॥ परम ॥ २ ॥ स्यादवाद पूरन जो जाने, नय गर्भित जस वाचा । गुन पर्याय द्रव्य जो बूझे, सोई जैन है सांचा ॥ परम० ॥ ३ ॥ क्रिया मूढ Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मति जो अज्ञानी, चालत चाल अपूठी। जन दशा उन मेंही नाहीं, कहे सो सबही झूठी ॥ परम ॥ ४॥ पर परणति अपनी कर माने, किरिया गर्वे घेहलो । उन कू जैन कहो क्यों कहिये, सो मूरख में पहलो॥ परम० ॥५॥ ज्ञान भाव ज्ञान सब मांही, शिव साधन सहिओ। नाम भेष से काम न सीझे, भाव उदासे रहिए ॥ परम ॥ ६॥ ज्ञान सकल नय साधन साधो, क्रिया ज्ञान की दासी । क्रिया करत धरतु है ममता, याहि गले में फांसी ॥ परम० ॥ ७ ॥ क्रिया बिना ज्ञान नाह कबहूं, क्रिया ज्ञान बिनु नाहीं। क्रिया ज्ञान दोउ मिलत रहतु है, ज्यों जलरस जल मांहीं ॥ परमप्रभु. ॥८॥ क्रिया मगनता बाहिर दीसत, ज्ञान शक्ति जस भाँजे । सद् गुरु सीख सुनै नहिं कबहूं, सो जन जन ते लाजे ॥ परम ॥६॥ तत्व बुद्धि जिन की परणति है, सकल सत्र की कंची। जग जस वाद वदे उन ही को, जैन दशा जस ऊंची ॥परम ० ॥१०॥ ॥राग सारंग॥ कंत बिना कहो कौन गति नारी ॥टेक ॥ सुमति Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४) सखी जाइ बेगी मनावो, कहै चेतन सुन प्यारी॥कंत ॥१॥ धन कन कंचन महल मालिए, पिउ बिन सबाह उजारी। निद्रा जोगलहूं सुख नाही, पिउ वियोग तुन जारी ॥ कंत ॥ २ ॥ तोरे प्रीत पराई दुरजन, अछते दोष पुकारी । घरभंजन को कहन न कीजे, कीजे काज विचारी ॥ कंत • ॥३॥ विभ्रम मोह महा मद बिजुरी, माया रैन अंधेरी। गर्जित अरति लवे रति दादुर, काम की भइ असवारी॥कंत ॥४॥ पिड मिलवे को मुझ मन तलफै, मैं पिउ खिदमतगारी। भुरकी देइ गये पिंउ मुझ कू, न लहे पीर पियारी ॥ कंत० ॥५॥ संदेश सुनि श्राए पिउ उत्तम, भई बहुत मनुहारी। चिदानंद धन सुजस बिनोदें,स्मै रंगअनुसारी॥कंत०॥६॥ ॥राग धनाश्री॥ .... परम प्रभु सब जन शब्दें ध्यावे । जब लग अंतर भरम न भांजे, तब लग कोउ न पावै ॥ परम प्रभु० ॥१॥टेक॥ सकल अंस देखै जग जोगी, जो खिनु समता आवे । ममता अंधन देखे याको, चित चहुं Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५) ोरै ध्यावे ॥ परम प्रभु०॥२॥ सहज शक्ति अरु भक्ति सुगुरु की, जो चित जोग जगावे । गुन पर्याय द्रव्य सुं अपने तो लय कोऊ लगावे॥ परम प्रभु० ॥ ३ ॥ पढत पुरान वेद अरु गीता, मूरख अर्थ न भावे । इत उत फिरत ग्रहत रस नाही, ज्यों पशु चर्वित चावे ॥ परम प्रभु० ॥४॥ पुद्गल से न्यारो प्रभु मेरो, पुद्गल श्राप छिपावे । उन से अंतर नहीं हमारे, अब कहां भागो जावे ॥ परम प्रभु.॥५॥ अकल अलख अज अजर निरंजन, सो प्रभ सहज सहावे । अंतरजामी पूरन प्रगट्यो, सेवक जस गुन गावे ॥ परमप्रभु०॥६॥ ॥ राग धनाश्री ॥... चेतन ज्ञान की दृष्टि निहालो । चेतन०॥टेक!! मोहदृष्टि देखे सो बाबरो, होत महा मतवालो। चेतन०।१॥ मोहदृष्टि अति चपल करत है, भव वन वानर चालो ।। योग वियोग दावानल लागत, पावत नाहिं विचालो ॥ चेतन ॥२॥मोह दृष्टि कायर नर डरपै, करे अकारन टालो। रण मैदान लडै नहिं अरि सुं, सूर लडै ज्यूं पालो ॥ चेतन० ॥३॥ मोह दृष्ठि जन जन के परवश Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीन अनाथ दुखालो । मांगे भीख फिरे घर घर सुं, कहै मुझ को कोउ पालो ॥ चेतन० ॥४॥ मोह दृष्टि मद मदिरा माती, ताको होत उछालो। पर अवगुण राचे सो अह निस, काग असुचि ज्यों कालो॥चेतन. ॥५॥ ज्ञान दृष्टि मां दोष न एते, करै ज्ञान अजुआलो। चिदानंद घन सुजस बचन रस,सज्जन हृदय पखालो ॥ चेतन ॥ ६ ॥ राग कानडो ॥ .. मारग चलत चलत गात, आनंद घन प्यारे । रहत आनंद भरपूर ॥मा० ॥ ताको सरूप भूप, विहु लोक ते न्यारो । बरषत मुख पर नूर ॥ मा० ॥ १॥ सुमति सखी के संग, नित नित दोरत। कबहुन होत ही दूर। जस विजय कहे सुनोही आनन्द घन, हम तुम मिले हुजूर ॥ मा० ॥ २ ॥ Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरत्नसार में जो गाथाएं आई है उन का भावार्थ. १६ वें प्रश्न में 'सव्वदुक्खाण' इत्यादि गाथा आई है उस का अर्थः- सर्व दुक्खों का अंत करें. २३वें प्रश्न में 'धम्मो धम्म फलंहि' इत्यादि गाथा आई है उस का अर्थः धर्म है सो धर्म फलहि है. द्वेष और नहिं हर्ष होय वो संवेग कहिये. संसार उपर देह उपर विषयादिकों उपर तृष्णा मिटे त्याग होय एटले संसार देह शरीर आर भोग विषयों ने विषे विरति भाव होय तेने वेराग कहिये. २५ वें प्रश्न का अर्थ ग्रन्थ समाप्त हुआ उस के आगे प्रथम पृष्ठ में छपा है. २७ वें प्रश्न में 'धम्मो वत्थु सहावो' इत्यादि गाथा आई है उस का अर्थः -- Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८) ॥ गाथार्थ ॥ धर्म छै ते वस्तु नो स्वभाव छे, और क्षमादि भाव धर्म ते दशप्रकार क्षमादि जाणवो, और रत्नत्रय ज्ञानादि ते धर्म है, और जीवो नी रक्षा करवी ते पिण धर्म छे. __६६वें प्रश्न में 'पुइयाइ सुवचसहियं' इत्यादि गाथा आई है उस का अर्थः__ भला व्रत सहित पूजादिक में पुण्य जिनराज तीर्थकरे दीठो परूप्यो, अने मोह कोह रहित परिणाम ते आत्मानो धर्म केवलाई दीठो. .. -७२वें प्रश्र में ‘लक्ष्य लक्षणे ज्ञायते' है उस का अर्थः लक्ष जे आत्मा ते लक्षण करी जाणिइं. ७५वे प्रश्न में 'जयं चरे' इत्यादि गाथा आई है उस का अर्थः-- जयणाई चाले, जयणांई उभो रहे, जयणांई बेसे, जयणाई सुई, जयणाई भोजन करे, जयणाई बोलतो थको पाप कर्म न बांधे... Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ गाथार्थ ॥ (९) ७६वे प्रश्न में 'यथोक्तं समुद्र वत्' पाया है उस का अर्थः . जेम का के समुद्र नी पठे कटोरो भरयो ते समुद्र जेहवा, ए हीन ने अधिक श्रोपमा. अने कटोरा नी पठे समुद्र भरयो छे, ए अधिक ने हीन ओपमा. ___ ७९वें प्रश्न में 'एकस्याल्प' इत्यादि आर्या आई है उस का अर्थः एक ने अल्प हिंसा छे ते अपि कालांतरे बहु फल. एटले अल्प हिंसा पण बहु कष्ट प्रापे: अने बीजाने महा हिंसा ते परिपाक काले थोडं फल देनारी थाय. ए आर्या छंद नो अर्थ. ६३वे प्रश्न में 'सत्तरिसय' इत्यादि गाथा आई है उस का अर्थ:- एक सो सित्तर तीर्थकर उत्कृष्ट काले जाणवा. वीस विहरमान जिन समय क्षेत्र में अथवा भरतेरवत ना दश अथ वीस जनमे एक समे विहरमान दश जनमे भरतेरवतना. Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (10) ॥ गाथार्थ ॥ " ६ प्रश्न में 'अद्धे तेरस' इत्यादि गाथा श्राई है उस का अर्थ: साठि बार कोड उत्कृष्ट सोनाइया नी वृष्टि होय जिहां तीर्थंकर पारणो करे तिहां अने जघन्य साढी बारे लाख सोनइया नी वृष्टि होय ए वसुधारा प्रमाण छे. १० ३रे प्रश्न में 'द्वादशश्चैव' इत्यादिक काव्य है उस का अर्थः—य गाथा अशुद्ध मालुम होती है तो पण भावार्थ लिखते हैं: -- ...सो कोड बारे कोड असी लाख कोड एतावता असी लाख ने एक सो बारे कोड उपर अठावन हजार कोड संख्या अंग ना पद नी श्लोक संख्याकही तेने नमुं छं. * इसी प्रश्न में ' अट्ठेव ' इत्यादि गाथा आई है उस का भावार्थ:-- एकावन कोड आठ लाख चोरासी हजार छसो साढा इकवीस एटले एक पद नो ग्रन्थ छे. Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ गाथार्थ ॥ (११) १२१वें प्रश्न में ‘दसण मोहे' इत्यादि गाथा श्राई है उस का अर्थः.. दर्शन मोहनी थी सम्यक्त परिसह उपजे. ज्ञानावरणी थी प्रज्ञा परिसह और अज्ञान परिसह उपजे. अंतराय थी अलाभ परिसह उपजे, चारित्र मोहनी थी आक्रोश १ अरती २ स्त्री परिसह ३ निसिद्या प, ४ अचेल प०५ याचना प० ६ सत्कार प. ७ ए सात उपजे. वेदनी थी क्षुधा १ तृषा २ शीत ३ उष्ण ४ दंश प०५ चरिया प. ६ सिद्या ७ जल्ल ८ बध प० ९ रोग १० तृण फास ११ ए इग्यारे परिसह उपजे. १५१ वे प्रश्न में 'सीहत्ताए' इत्यादिक गाथा आई है उस का अर्थः सींह पणे निकल्यो सीह पणे बिचरे जैसे जंबू थूल भद्र,सींह पणे निकल्यो सियाल पठे विचरे कच्छादिक नी परे. सियाल पठे निकल्यो सीह पणे विचरे . मातार्यादिक पठे. सियाल पठे निकल्यो सियाल पठे विचरे. Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२) ॥गाथार्थ ॥ १५६ प्रश्न में 'बंधण १ गई २' इत्यादि गाथा आई है उस का अर्थः-- ___ बंधन, गति, संठाण, भेय, वर्ण, रस, गंध, स्पर्श, अगुरु लघु अन शब्द ए दश परिणाम अजीव छे. ___ इसी प्रश्न में 'जीवेण केहवी फासि' इत्यादि गाथा आई है उस का अर्थः जीव किवारे इपण न फरस्यो अंतर्मुहूर्त पण सम्यक्त जे माटे सम्यक्त फरस्यां पछि निश्च अर्द्ध पुद्गल मां न्यून संसार भमवो बाकी रहे छै. इति गाथार्थः - ... इसी प्रश्न में 'पुद्गलनां परावर्त' इत्यादिक संस्कृत आई है उस का अर्थः पुद्गल नो पलटवो ते पुद्गल परावर्त्त कहिये. ते पुद्गल परावर्त्त मांहि थी कांइक ओछो अर्द्ध पुद्गल परावर्त्त. एतावता अर्द्ध विशेष गयो पुद्गल परावर्त्त ते अपाई पुदगल परावर्त्त कहिये. . इसी प्रश्न में 'अंतर्मुहूर्त्त अष्ट समयोर्द्ध इत्यादिक संस्कृत आई है उस का अर्थ: Ir है Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥गाथार्थ ॥ अंतर्मुहर्त्त आठ समय उप्रांत बे घड़ी माहि जाणवो, ते सम्यक्त उपशम नो काल छे. इहां क्षेत्र पुद्गल परावर्त कर अधिकार नथी. द्रव्यादिक करके पुद्गल परावर्त्त जाणवो. ए उपदेश कंदली में छे. १५७ वें प्रश्न में 'पुव्व भवासो' इत्यादि गाथा आई है उस का अर्थः जाति समरण नो धणी एक दो तीन जावत् नव भव पूर्व भव ना देखे उपरि ते नो विषय नथी एज स्वभाव जाति समरणनो. चक्र १ खड्ग २ छत्र ३ दंड ४ ए च्यार चक्रवर्त्तने आयुध शाला मे होय, चर्म १ मणि २ कांगणी ३ नवनिधि भंडारे चक्रवर्त्तनें होय, १. सेनापति १ गहा पति २ पुरोहित ३ अने वादिक रत्न ४ ए च्यार पोताने नगरे उपजे. स्त्री रत्न राजाने कुले उपजे. वेताब्य तले हस्ति रत्न अश्वरत्न ए बे उपजे. Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४) ॥ गाथार्थ ॥ १५८ प्रश्न में 'सह गउ' इत्यादि गाथा आई उस का अर्थ: A सर्वार्थ सिद्ध विमाने गयो निचे एक भवे सीझे, विजयादि च्यार मे गयो ख्याते भवे सीझे. इसी प्रश्न में 'कीटिका वहवो' इत्यादि श्राया है उस का अर्थ: 19. कीडियो घणी छे अथवा नर बहु इसी प्रश्न में 'यदा समुच्छिम' इत्यादिक गाथा श्रई है उसका अर्थ : जिवारे समुच्छिम मनुष्य नो विरह काल होय वखतें कीडियो घणी अने समुच्छिम नो विरह न होय तिवारे नर घणा. इसी प्रश्न में ' यस्य पुरुषस्य ' इत्यादि संस्कृत आई हैं वह अशुद्ध मालूम होती है तो पण अभिप्राय ऐसा मालूम होता है: EX कुकुडी अंड प्रमाणे बत्तीस कवल आहार को ते किम ए प्रश्न. उत्तर – कुटी नाम शरीर नो छे Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ गाथार्थ ॥ (१५) अने खोटी कुटी ए शरीर तेनो अंड ते मुख केम के ए शरीर ने मुख प्रथम थाय माटे ए अंड छे. शरीर नें एतावता शरीर नो मुख तेमां जेटलूं सुखे मावे, खावा में सुखे खवाय ते माटे कुकुटी अंड प्रमाण कवल बत्रीस नो पूरो अहार छे एम जाणवुं. १६४ वें प्रश्न में 'अच्छि श्रणंता जीवा' इत्यादि गाथा आई है उसका अर्थ: अनंता जीव एह जे हुई त्रसादि पणो पण न पाम्यो उपजी रह्या छै अने चवि रह्या छे ते निगोद मांहिज वारंवार ए गाथार्थः १६८वें प्रश्न में 'येषां हि वस्त्रे' इत्यादि संस्कृत काव्य है उस का अर्थः जेहुना वस्त्र मां जुं न पडे १ जिहां विचरे ते देश नो भंग न थाय २ देश मां चिंता न उपजे ३ पग नो धोवण पीवे तेनो रोग नाश थाय ४ ये च्यार श्रतिशय. अने बीजा जे युग प्रधान नाम धरानारा पेटभरा छे. Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ गाथार्थ ॥ ईसी प्रश्न में 'दुर्गतौ पतत्' इत्यादि श्लोक है उस का अर्थः____ दुर्गति में पडतां प्राणी ने जे धारण करे तेथी धर्म कहिये. ते धर्म संजमादि दश प्रकारनो के केवलीइं का विमुक्ति ने अर्थः १६६वें प्रश्न में 'आत्मानं भावयतीति' इत्यादि संस्कृत है उस का अर्थः__ अात्मा ने ज्ञानादिके करी भावे ते भावना कहिये. श्रात्मा ने अधिकरीने करे ते अध्यात्म कहिये. माने जगत्त्तल ने वो मुनि कहिये तेहज मुनि कह्यो, मत्य बोलबो तेहज मौन, मौन तेहज मौन सम्यक्त छे. ___ इसी प्रश्न में 'परहित चिंता' इत्यादि आर्या आई है उस का अर्थः पर ना हित नी चिंता ते मित्री भावना १. परना दुःख नी विनाशकरनारी ते करुणा २. परने सुखी देख तुष्ट थाय ते मुदिता ३. पर ना दोष देख मध्यस्थ रहे ते उपेक्षा भावना ४. ए आर्या नो अर्थ. Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ गाथार्थ ॥ (१७) ईसी प्रश्न में 'अंतमुहुत्तमित्ता' इत्यादि गाथा आई है उस का अर्थ: अंतर्मुहूर्त्त चित्तनो रहिवो एक वस्तु नें विषे ते छद्मस्त नो ध्यान छे. अने जोग नो रोकवो ते जिन नो ध्यान छे. वें प्रश्न में ' उसम पिया' इत्याथि गाथा १७० आई है उस का अर्थ:-- ऋषभ ना पिता नागकुमार मे, अजितादि सात ना ईशाण देव लोक में गया, अने आठ नवमांथी आठ तीर्थकर ना पिता सनत्कुमार देवलोके गया, अने सतरमां थी आठ ना पिता माहिंद देव लोक मे गया १. आठ पेला तीर्थंकर थी ले तीर्थंकर नी मातो सिद्धि गति में गई. तेथी आठ नी माता मनत्कुमार देवलोके गई. तेथी आठ माहिंद देव लोके गई. १८३ प्रश्न में ' सामग्रीअ ' इत्यादि गाथा श्राई है उस का अर्थ: जे भव्याभव्य जीव ते सामग्री नें न प्रामतो ते - Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८) ॥ गाथार्थ ॥ नही पामवा थी व्यवहार राशि में नहीं प्रवेश थवा थी एहवा भव्य अनंता हे पण मुक्ति ना सुख न पावे. - इसी प्रश्न में 'अच्छि अणंता' इत्यादि गाथा है उस का अर्थः छे अनंता जीव जेउ नहिं पाम्या त्रासादि परिणाम माटे उपजी रह्या छे चवि रह्या छे वारं वार तिहाना तिहां निगोदमां. ....१९१वे प्रश्न में 'जं अज्जियं' इत्यादि गाथा भाई है उस का अर्थः-- जे उपार्जन कस्यो चारित्र देश उण पूर्व कोडि तके ते कषाय मात्र एतावता लिगारे कसाय करे वे नर जो हे सो मुहूर्त एक में सर्व हारि जाय एतावता कमायो चारित्र सर्व गमावे. .२१०वें प्रश्न में 'दशाभि' इत्यादि संस्कृत आई है उस का अर्थः-- ___ दश हस्ते करी एक वंस, बीस वंसे करी एक निवर्त्तन, पांच से निवर्त्तन रो एक हल. Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ गाथार्थ ॥ (१९) - २ १ ३ ३ प्रश्न में 'चतुर्दश महा' इत्यादि श्लोक पाया है उस का अर्थः-- ___ चउद महा स्वपनो ने सुखे सुती तेवि रिते राणी मुख में पेठता देखती हुई, केवा छे सुपना भला आकार ना धरनार एहवा तेहुने देखती हुई. २१८ वें प्रश्न में 'जणवय संमय' इत्यादि गाथा आई है उस का अर्थः जन पद सत्य ते देश भाषा १ संमत सत्य ते पांडतो ने बहुते मान्यो २ थापना सत्य ते जिन प्रतिमा ने जिन कहे ३ नाम सत्य ते निईन ने धनपाल ४ रूप सत्य ते स्वरूप ५ प्रतित सत्य ते वस्तु ६ व्यवहार सत्य ७ भाव सत्य ८ जोग सत्य ह ओपमा सत्य १० २२० वें प्रश्न में 'पुठं सुणेइ' इत्यादि गाथा आई है उस का अर्थः स्पर्श थयो ते शब्द सुणे, अने वली रूप ते अफरस्यो देखे, गंध रस बद्ध फरस्यो जाणे, फरस पण फरस्यो जाणे एम कहे छे. Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०) ॥ गाथार्थ ॥ २२४ वें प्रश्न में 'उसेहंगुल मेगं' इत्यादि गाथा दो पाई है उन का अर्थः___ उत्सेधांगुल एक ने हजार गुणो करे प्रमाणांगुल थाय,तेज बमणों करे तो वीरनेा अंगुल थाय आत्मांगुले करी घरादि मापो, उत्सेधांगुल प्रमाणथी देही नो मापो, अने पर्वत १ पृथ्वी २ विमानादिक मापा प्रमाणांगुल थी मापणा. २३० वें प्रश्न में 'नाहं दोसी' इत्यादि गाथा तीन आई है उन का अर्थः__नथी हुं बीजा नो द्वेषी,न माहरे बीजो कोई, हां माहरो श्यु छे ए आत्मभावनाए करी राग द्वेष विलय जाय. १. ज्ञान नी विशुद्धि छे ते आत्मा एकांत नथी शुद्ध थयो तो श्युं ? जे माटे नाण ते अात्मा, आत्म तेहिज ज्ञान होय छे. २. जे माटे भगवतीजी मां कह्यो छे आत्मा ते सामायक, आत्मा ते हिज सामायक नो अर्थ, ते माटेज ए सूत्र कहे छे आत्मा परिणाम.३. इसी प्रश्न में 'येषां नचेतो' इत्यादि संस्कृत Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ गाथार्थ ॥ (२१) काव्य आया है उस का अर्थः जेहु ना चित्त स्त्रियो में लामा नहिं, जे साहित्य सुधा समुद्र में मग्न न थया, हा इति खेद करि कहे छे माहरो प्रयास ते केम जाणशे ? जेम अंध जे ते वेश्या ना विलास न जाणे तेम. ___ २३५ वें प्रश्न में 'आकुटिया' इत्यादि संस्कृत आई है उस का अर्थ: श्राकुटि कर्म बांधे ते केम के अनाभोगपणे करी एतावता पाप ना फल ने न मानतो सावध करवानो उत्साह जेहवे ते आकुट्टी कर्म.१. दर्षे करी दोड़े कूदे हाजो करे नाटकादिकंदर्प करे ते दर्प. २. अने प्रमाद ते रात्र दिन में पडिलेहणा प्रमार्जनादिक में उपयोग न राखे ते प्रमाद कर्म.३. कल्प ते कारण दर्शन प्रमुख चउवीश पड़े छते गीतार्थ ने कृत योगी में उपयोग छते अजेणाई करी वर्त्तते छते आधा कर्मादि दान रूप ते कल्प कर्म.४.. २३९ वें प्रश्न में 'जोभणई ' इत्यादि च्यार गाथां Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ गाथार्थ ॥ आई हैं उन का अर्थः_जो कोई कहे धर्म हमणा नथी, सामायिक नथी निश्चे व्रत पण नथी एहवो बोले तेने संघ बाहिर काढवो समस्त संघ मलीने.१. अठार दोष पुरुषों में, वीस दोष स्त्रियों में, दश दोष नपुंसक में एटला दोष वाला टालने दिक्षा दे. जिनराज वर्जे ते दिक्षा देवा जोग नहीं.२. बाल १ वृद्ध २ नपुंसक ३ क्लीव ४ और जड ५ रोगी ६ चोर ७ राजविरुद्ध करनारो ८ उन्मत्त ९ अदर्शन अंधो तथा समकित विनारो १० कोई नो गोलो ११ कषायादिक दुष्ट १२ मुढ १३ ऋणवालो १४ जाति प्रमुख हीण १५ विद्यादिक ने अर्थे मुंडावे ते ने १६ भतक जे मासिक दाम लेवे ते १७ चोरिने ले तथा कोई रा चेला ने भरमाय दे मुंडे १८ ए अठारदोषवाला ने दिक्षा न देणी. स्त्री ना ए अठारे तेम गर्भवंती १६ बालक चुगाणेवाली २० दोषवाली ते मुंडणी न कल्पे. . २४० वें प्रश्न में ‘आहार भय' इत्यादि छे गाथा Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ ग्राथार्थ ॥ भाई हैं उन का अर्थ: 2 आहार संज्ञा १ भय सं० २ परिग्रह सं मैथुन सं० ४ तैसेही क्रोध सं० ५ मान सं० ६ माया सं ०७ लोभ सं० ८ ओघ सं० ९ लोक सं०.१० ए दश संज्ञा सर्व जीवो ने संसार में है. १. (२३) ... सुख संज्ञा ११ दुःख सं० १२ मोह सं० १३ वितिमिच्छा सं० १४ चउदमी जाणवी, सोक सं० १५ तिमज धर्म संज्ञा १६ए सोल थाय मनुष्य में. २. रूखने जलनो आहार संज्ञा १. संकोचादिक भये करी संकोचाय, पोता ना तंतुई करी वीटे रूखो वेल दे. ते परिग्रह करी नं. ३. स्त्री हाव भावे करी कदंब वृत ते फले मैथुन संज्ञा, क्रोध करी नाकंद वृक्षे हुंकार करे. ४. मान करीने रुद्रवंती रोवे, वेल कपटाइ करी फलो नें ढांके, लोभ करीने बीलोने पलास निधान नें जड़ों वीटे. ५.. • - Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२४) गाथार्थ ॥ रात्रि में विष कमल-नो संकोच थाय छेते लोक संज्ञा छे, रूख ना उत्तम अंगे चढे वेलो ते प्रण-६: २.४५वें प्रश्न में तीन गाथा : बन्ध अंविरई' इत्यादि आई हैं उन का अर्थ:., कर्म बन्ध अविरति हेतु जाणलो छतो रागद्वेष जाणतो छतो वितीने इच्छतो थको पण विरति करवाने असमर्थ. १. . ए प्राणी असंजत सरखो निदतो थको पाप कर्म ने जीव अजीव नो जाण एने सम्यग दृष्टी प्रबल छे भने मोह ते बलवन्त छे. २. ___ सम्यग् दृष्टी कर सहीतहे ग्रहण करे अल्प शक्ति माटे विर एक व्रतादि १२ व्रत अनुमति मात्र वो देश यति.३० .: २४६ वे प्रश्न में 'छानते' इत्यादि संस्कृत है उस का अर्थः ढांके केवल ज्ञान अने केवल दर्शनं आत्मा नो इणे Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ गाथार्थ ॥ (२५) करीने ते छद्म कहिये. ज्ञानावरण दर्शनावरण मोहनीय अंतय कर्म उदय छतां तेमां केवल ज्ञान को उपजवो नथी, माटे छम छे. ते छद्मवेगलो जाय तिवारे नजीकज केवल ज्ञान उपजे ते छद्म ने विषरहे ते छद्मस्तछे. ....२.५५ वें प्रश्न में ‘काले सुपत्त : इत्यादि गाथा आई हैं उन का अर्थः --- .... काले सुपात्र दान १ अने सम्यक्त निर्मल बोधि लाभ२ समाधिः मरण ३ एतला वाना अभव्य जीक छे ते न पामे.१. ___ व्रत ग्रहण किया जिण दिवस थी अखंड चारित्र जिणरो एहवो वली गीतार्थ तेहने पासे सम्यक्त व्रत ग्रहण करवा तथा आलोयण लेवी कही छे.२. . .:: किहांई जीव बलवान छे किहांइ कर्भ बलवान छे अने जीव ने कर्म ने अनादि नो संबंध बंध्यो. छे.३. __काल १ स्वभाव २ नियती निश्चय होणहार. ३. पूर्व कृत ते पुण्य ४ पुर सक्कार ते.उद्यम ५ ए पांच Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६) ॥ माथार्थ ॥ कारण जाणवा पिण एकांते एकने मानवा थी मिथात्व जाणवो. सर्व मिले सम्यक्त छे दृष्टन्त-प्रांधलोइ दीठा हाथी नी परे.४. ए च्यार गाथा नो अर्थ छे. . -२७१वें प्रश्न में 'पडिरूवो' इत्यादि दो गाथा आई हैं उन का अर्थः प्रतिरूप एटले रूपवन्त १ तेजस्वी ते तेजवन्त २ जुगप्रधान ते उत्कृष्ट आगमना पारगामी एटले सर्व शास्त्र ना जाण ३ महुर वको नाम मधुर वचन बोलने वाला गंभीर पेटावाला५ धिईमन्त नाम धीर्यबन्त६ उपदेश देवा मां तत्पर अने रूडो आचार पालनार ७ एहवो आचार्य. १ . अपरिस्साची ते सांभलेलो भूले नहीं ८ सोमो नाम सौम्य देखे तेने साता उपजे । संग्रहशील एता. वता उपग़रणादि संग्रह १ . अभिग्रह मति त्यामादि में प्रवत ११ अधिकथन विकथा न करे मन में राखे१२ अचपल चले नहीं १.३ प्रसन्न हृदय वाला १४. २. २७२वें प्रश्न में 'श्रावसगंतु' इत्यादि गाथा Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ॥ गाश्चार्थ ॥ (२७) आई है उस का अर्थः-- ___आवश्य करिने जिनराज उपदेशे ते हमारा गुरू उपदेश करीने तीन थुइ एम सिलोगादि करीने पडिलेहणा करवी कालग्रहण करवारी विधि इहां ए छ.... __२७५ वें प्रश्न में तबसंयमण' इत्यादि पांच गाथा.आई हैं उन का अर्थः ..तप. और . संजम करीने तो कर्म नो मोन थाय छ १ अने. दान देवे करीने उत्तम भोग मले छे२ देव पूजाई करी राज मले छे३ अणसण मरण मरबे देव पणो. पामे. १. इंद्रपणो १ चक्रवर्तिपणो २ पंचानुत्तर विमाण वासिपणो ३ लोकंतिक देवपणो ४ ए अभव्य जीव ते न पामे. २. संगमो देव १ काल वसूरियो कसाई २ कपिला श्रेणिक नी दासी ३ अंगारमर्दकाचार्य४ पालक पापी ५ दूजो किसनजी को पुत्र पालक ६सातमा उदाइ नृपमारनारो ७ ए सात अभव्य प्रसिद्ध. ३. Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२८) ॥ गाथार्थ ॥ और तुच्छ निद्रा होय, वली तुच्छ प्रारंभ होय, जेमज कषाय तुच्छ होय तो तेहने तुच्छ संसार जाणवो.४. आ भरत क्षेत्र मां के जीव मिथ्यादृष्टी छे भद्र छे, भव्य छेतिक मरीने नवमें वरसे होवेगा केवली. ५. २७७वे प्रश्न में श्लोक है उस का अर्थः दर्शन छ ना ए नाम छे-बौद्ध शून्यवादी १ नैयायिक षोडश पदार्थ वादी २ सांख्य तीन प्रकृति वादी ३ जैन स्याद् वादी ४ वैशेषिक षट पदार्थवादी ५ जैमिनि मीमांसक वादी ६. . . . २८२वें प्रश्न में 'केन ग्रन्थीइत्यादि' संस्कृत पाठ माया है उस का अर्थः-- .. किसने गांठ छोडाने बाह्य अभ्यंतर परिग्रह चोवीस छे तेहनी विगत खेत १ घर २ धन ३ धान ४ दासादि द्विपद ५ चोपद ६ यान ७ शय्या ८ शयन भांडा १० कुपद घर विखरी ए दश प्रकारे परिग्रह ते बाह्य ग्रंथी छे.१. मिथ्यात्व । तीन वेद ४ हास्य, रति,अरति,भय,शोच,दुगंछ ए छ६नो कषाय मिलि १०, -- - - - Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ गाथार्थ ॥ कषाया च्यार १४ राग द्वेष सहित ए चउद प्रकारे अभ्यंतर गांठ परिग्रह मिलने २४ हुवा.२. , . . २८३वे प्रश्न में सामं प्रेमकरं' इत्यादि श्लोक आया है उस का अर्थ:---.. प्रेम करवानो वचन ते साम नामा नीति २ धन आपवो तेथी झगड़ो मिटे ते दान नामा नीति२ पुरुषो ने तरफी करवी ते भेदनामा नीति३ प्राणोने हणका ते दंड नीति४ ए च्यार प्रकार नी राजनीति जाणवी. . २८५वें प्रश्न में 'एकेंदी ' इत्यादि३ गाथा आई हैं उन का अर्थः-- . . एकेंद्री में वायु छे ते ऊई अध तिळ तीनोई लोक में छे अने वली विगलिंद्री जीव तिळ लोक मेज जाणवा. १.. पृथ्वी काय, अपकाय, वनस्पात काय बारे देव लोक अने सात नरक में जाणवी. तथा पृथ्वी काय जावत् सिद्ध शिला अने ते फगत तिरछा लोक मनुष्य क्षेत्र मेंज छे. २. Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३०) ॥ गाथार्थ ॥ सुर लोक में बावडी में मच्छ जलचर जीव छे निवेयक में बाबी नथी ते माटे बावड़ी विना जलपण नथी जलचर किहां थी होय. ३. २९४-२९५वे प्रश्न में मैथन अणुव्रत में ' मण वय' इत्यादि गाथा आई उस का अर्थः---- ... मन मैथुनः १. वचन मैथुन २ काय मथुन ३स्व स्त्री ४ परस्त्री ५ वेश्या ६ विधवा ७ रूपस्त्री ८ रूप सहगत स्त्री : कुमारी १० ए दश मैथुन जागता और सुपने में २० हुवा. ते मां श्रावकरे काय स्त्री १ विधवा २ वेश्या ३ कन्या ४ परस्त्री ५ का ज त्याग थाय ते पण एकः करण छुटा माटे. २॥ ते पण जगते रहे... २९६% प्रश्न में संसारेकिंसारं ' विषय का खुलासाः.. संसार मां श्युसार छे.ते कहे छे बे - सार--धर्म ? बीजो अधर्म स्त्री भोगादि २.ते मां पण धर्मजसार छे केम के तेथी सुख मिले छे ते धर्म में सम्यग् दशर्न Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. . . 'M साधार्थ ॥ (३१) सार छे धर्म नो मूल माटे तेनो सार ज्ञान छै ते जापावा माटे, तेनो सार चारित्र छे निराश्रव माटे, तेनो सार निवार्ण छे सर्व क्लेश मिटवा माटे. - २९७ वें प्रश्न में ‘चत्तारिय' इत्यादिक गाथा भाई हैं उन का अर्थः . संसार में चउद पूर्वी च्यार वार श्राहारिक शरीर करे अने एक भवे बे वार करे ... । आहारिक़ शरीरी आहारिक शरीर, करवा को अन्तर पडे तो जघन्य एक समयपछे करे माटे एक समय नो अन्तर पडे उत्कृष्टो अन्तर जाव छ मात:नो पड़े भने पाहारिक शारीरी एक समें लाधे तो उत्कृष्ट नव हजार. २. चायक १ क्षयोपशमिक २ वेयगः। उपशामिक ४ सास्वादन ५ ये पांच प्रकार नो सम्यक्त परूप्यो छे जिनवरेन्द्र तीर्थकरे. ३. सूक्ष्म काल है तेथी पण अधिक सूक्ष्म क्षेत्र है अंगुल मात्र श्रेणी में आकाश: प्रदेश निकालते अम Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथार्थ ॥ ख्याति उसाप्पणी जाय. ४. ३.४३ प्रश्न में 'उदारं प्रधान' इत्यादि ५गाथा आई हैं उन का अर्थः___ उदार नाम भलो शस्वी उदारिक कहिये अर्थ तीर्थकर गणधर ने अधिकार करीने छै तथा उदारिक काईक अधिको लाख जोजनो माटे उदारिक. १. ___ वैक्रिय बे प्रकारनों-एक भवधारणीय बीजों उत्तर वैक्रिय. तथा एक थइ अनेक थाय, अनेक थइ एक थाय, बीजा शरीरनी अपेक्षा मोटो ते वैक्रिय शरीर छे. २. :: कथा में जो कोई वखते शंका उपजे चउद पूर्व धारीने आहारिकविशिष्ट लब्धि होय ते लब्धी करीने जे यहां आहारिक शरीर को तेने आहारिक शरीर कह्यो छे ते आहारिक नो आकार बली अत्यंत वैक्रिय थी शुभ छे. ३. तेजस ते श्राहार लेइ परिणमावा नो कारण ते तेजस शरीर कहिये. ४. Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ गाथार्थ ॥ ML कर्म थी थयो जे कार्मज कर्मो नो विकार ते कार्मण आठकर्म करी निष्पन्न सर्व शरीरोनो कारणभूत ते कार्मण कहिये. ५. *未来卡卡卡卡卡卡米米米米米卡卡卡卡卡卡》 * ॥ इति गाथार्थ समाप्तम् ॥ ******************* ** अध्यात्मगीता .... आत्मधारा .... .... .... ) रत्नसार .... .... .... " पुस्तक मिलने का ठिकानाः बाबू चांदमल बालचन्द रतलाम [मालवा] Page #304 --------------------------------------------------------------------------  Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धिपत्र. पृष्ठ- पंक्ति.: अशुद्ध. . १ ८ आगमोदगारणी शुद्ध. आगमोद्गा रणी "- सघं. संघ ९ , कर्णामृत ३ निःश्रेही ४ २ उद्वगता १२ षट ७ नोट २ नर्क ,, , ३ दरस्नावरणी कर्णामृत निःस्नेही उद्वेगता षट् , , , गौत्र नरक दर्शनावरणी गोत्र इंद्रिय प्ररूपणा ९ २ इंद्री , १६ परूपणा , . १७ , १०. १२ ध्यान ध्याने Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्ध (२) ॥ शुद्धिपत्र ॥ पृष्ठ पंक्ति अशुद्ध १. १३ प्रमादाचरणै । १६ शास्त्र . १ सिझई .. २ बुझई . . प्रमादाचारणे शस्त्र सिज्झइ बुज्झइ मुच्च परि निव्वाइ " मुच्चई ___ परि निध्याई ...:.: ५ था थाई हिव . सत्रमो. अनाचारण : : पोषा विधे . सतरमो अनाचार पोसह विधि परंपरायें मार्गे जेह थी वस्तु गते __ ११ परंपराय ___ १२ मार्गे . , जेह थी Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ शुद्धिपत्र ॥ - - पृष्ठ. पंक्ति. अशुद्ध. शुद्ध. १३ १५ तिणै तिणे १४ ३ (सुलभवोधिशोथई सुलभवोधि वहिलो सिडिवरे). ओथई वहिलो सिद्धिवरै . ५ वेहलो , वहेलो ६ वेहलोही वहेलोही . परणीति परिणतः ११-१२ पुद्गलीक पुद्गलाश्रित पौद्गलिक १५ अविनाशी .. विनाशी , आत्म प्रवृत्ति आत्म अशुद्ध प्रवृति अपात्रप्पमिरउं. अप्पाअप्पम्मिरउ प्रवर्त्तान प्रवर्तन १७१ पौं , ५ निर्जरै निर्जरे ६ ना बांधणा नवा घपा १८ १० विपरीताभी विपरीताभि - पछे ४ : Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४) ॥ शुद्धिपत्र ॥ पृष्ठ. पंक्ति. अशुद्ध. . शुद्ध. : निवेशन निवेशन १८. १२ द्वेषो भण्यंते द्वेषौ भण्येते ... .. द्वेषो कप्पं . द्वेषौ कप्पं • " ".. ,, - १६ भावतव्यं भवितव्यं १९. ९ कश्यति.. कस्येति ., १४ प्रसंज्ञा प्रच संज्ञा २. ४ रक्षणं . रक्खणं "..७ श्रेक . एक ,, ,, पंति - खंति २४ १ तत्वातत्व वीनी तत्वातत्व ए बेनी २५ ४ परा परावर्त्त , . ६ थी खपावे थीवाखपावे २६ २ प्रणमै परणमै : २७ १४ विलेछन विलछन ३९ १६. संडन साउन Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ शुद्धिपत्र ॥ पृष्ठ.. पंक्ति. अशुद्ध. शुद्ध.. ४३ . ५ सुवसहियं . सुवयसहियं . , ८. ना त्रपहसा. . नी क्रिया हस्ये १३ सणठमो सणसठमो ४४ २ प्रणमित परणति ४८ ५ देसण पूर्व दसण पुव्वं , ७ मात्वार झात्कार ५२ , १ दंसना देशना ५३ ५ जिहांयै जिहांपे , १३.. कांइक कोईक वार्ता ५४ १४-१५ पामैतेशेणे, पामै तेस्या माटेके ६० ५ असात असाता ६४ १५ : नयं नेयं ,, १६ जम्पई जम्मई ६८ ४ श्रात्मागुल आत्मांगुल .६९. ७ उक्कोसेच्छ उक्कोसातच्छ , १५ वर्त्ता Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥शुरिपत्र । ___ पृष्ठ. पंक्ति. अशुद्ध. ६९ ८ तेरषलषा जहं तेरस लक्खा जई ७२ १ द्वादश्चैवहत्यादि कोटिशतंडादशश्चैव कोट्योलक्ष्याण्यसीति चैवाधिकानि पंचाश दष्टौव सहस्त्र संख्या मेतच्छतंचांग पदं नमामि. ,. १. अहेव इत्यादि एकावन्नं कोडियो लक्खा अद्वैव सहस चुलसिहि सय छक्क साढा एकवीस पय गंथा. ७३ १७ द्वारवौं । द्वार वृत ७९ १६ सम्य सम ८४ ४. श्वायो श्वायं ८५ २ उवकमीया उवकमीया ३ तापानोदिभि तापानादिभिर्वेद Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ शुद्धिपत्र ॥ (५) पृष्ठ. . पंक्ति. अशुद्ध. शुद्ध. इत्यार्थ इत्यर्थः मीचरिमे मीचरिमे मोहनी मोहंमि १ अकोसे श्रकोसे पंचे पंचेव सिद्ध सिद्या जलेय जल्लेय अनयोग अनुयोग सुत्र सूत्र तरयोत योत प्रश्नजाणावा प्रश्न नो जाण प्रानि रहै रहे असवगर्द असव्वगदं पुद्गलगना पुद्गल हिणुकादि द्विअणुकादि संपऐसा सपऐसा १०७ Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ शुद्धिपत्र ॥ पृष्ठ. पंक्ति. अशुद्ध शुद्ध. १०७ १४ अकाश. आकाश १०८ : ९ कालाणु कालसमय १०९ ८-९ यद्यपीएकत्ता यद्यपि एकठा ११० १६ सीहताईनिस्कतो, सीहत्ताए निस्कतो सीहताए । सीहत्ताए ११११ सीहताए सीहत्ताए सीयालताए. सीयालत्ताए ५ पनिरकंतोसीय- निस्कतो सियाल.. लता त्ताए निस्कताए सियालताए __ ९ अक्षरानुयोग चरण करणानुयोग , १२ नांणकम पकरंति नामकंमं पकरेंति , १५ रमदीठी ववकितस भचे . रवासाणं ११३. . .५ करजरादि युजा . . __, ११ परिणामा दसधाश्यूं परिणाम दसधा Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ शुद्धिपत्र ॥ पृष्ठ. पंक्ति अशुद्ध. शुद्ध. ११५ ४ लेहण लेण " १३ सन्न सह १४ अवस्यं अवस्सं १५ द्वियं सखिज्ञ द्वियं संखिज्ज " यवी यव्वा , १७ नियुक्तो नियुक्तोः ११६ १ कोटीकावधो कीटिका वहवो वहवा . वहवः , २-३ तदा समूर्छछिमप्राण यदा समुर्छिम विरह तदाकाटिका नराणां विरह स्तोकानरा वहवा काल तदा कीटिका बहवःतेषां विरहो न तदा।कीटिका स्तोकाः॥ Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०) ॥ शुद्धिपत्र ॥ पृष्ठ - पंक्ति अशुद्ध. शुद्ध. ११७ .. २ उखलानि षट् ५ उखलनि षट्क शाला ५ एतावत खटीक नी पांच शाला स्या माटे १२२. १३ अतेन्द्री अतिन्द्री १२४८ किवारेकी किवारेक १२५ ९ सद्धहणा सदहणा १२६ १-३-५-८-६ , - १.२७ १६ सोनहिया सोनइया १२९ १७ अथि अच्छि १ चयंत्रिय चयंतिय २ पुणोवी पुणोबि चरवलों चरवली एषांहि येषांहि न राष्ट्र १३२२ भृत्योन्ये भृतोन्ये नराब्द Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ , ॥ शुद्धिपत्र ॥ पृष्ठ. पंक्ति अशुद्ध. शुद्ध. , ६ दुरगतोयत् दुरगतौ पतत् , १० मुनिः मुनिः सैव __ ११ सत्यक्तमेवतन्मोन्यं सत्योक्तमेवत न्मोनं मौन , १२ हरिचंद्र । हरिभद्र जीवना जीवनो कथितं कह्योछे महर्त मीत्रा . महत्तमित्ता चिंता चित्ता ,, ,, एगदच्छु मिच्छो एगवच्छ मिच्छउ १३३ १३ १३ अज्ञानावर्णी ज्ञानावर्णी ८ कमीया कंमीया १४० १६ सामग्रीय सामग्री " , व्यवहार ववहार १ भव्वाचिते अणंते भव्वाविते अणंता , ७ अथी अच्छि परिणामे परिणामो १४१ Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२) ॥ शुद्धिपत्र ॥ पृष्ठ. पंक्ति अशुद्ध. शुद्ध. १४४ १४. सामण सामा १४४ १५ ममन्ना मियत्त मन्ना मियछ १६ अजियंचरितंदे अज्जियंचरित्तंदे सूणा सूणा १४५ ७ नियाणकमी नियाणकडा १४९ २ तान तीन १५. ५ प्राप्ती पर्याप्ती १५१६ .. अंतमुहूर्त अंतर्मुहर्त्त धारु १५३ १५ विषय . विषय कषाय । १६ थी विषय कषाय थी कषाय १५५ १ निरती निवरती . , ३. हलं हल १५६ ७ द्वितीय , १० स्वप्नात् स्वप्नान् , ११ अपस्यत्तवतस्या अपश्यत् प्रशश्या कारि धारिणा कार धारिणः " १२ धारा द्वितीय Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ शुद्धिपत्र । पृष्ठ. पंक्ति अशुद्ध, शुद्ध. १५७ ३ रुचिक रुचक १५९ १३ समयठवणानामे संमयठवणानामेरुवे रुधे " .., व्यवहार ववहार १६२ ८ पंत्तमथं पत्तमत्थं १६३ . १४ अपुधंतुगंधरसंचबधं अपुठंतुगंधरसं च बद्धं १६५ १४ विरसायंगुलं विरस्सायंगुलं __, १५ श्रायगुलेकेणवथू आयंगुलणवत्थु १६७ १३ वकंति वक्रति वर्श १७२ १५ इम कोडा इम २० कोडा १७३ १ तिहां तिहा __, १५ जोबषई जोव (सम) ई विषय विरतो विसय विरत्तो १७४ २ दोगी दोसी __, ३ नाणसं नाणस्स वर्ष Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४) पृष्ट १७४ "" १७५ १७५ "" १७६ & "" "" १७७ 34 35 133 " 19 पंक्ति ५ १३ 99 ७ वसहासत्तो १३ १६ १७ 9 २ ३ ४ ; ॥ शुद्धिपत्र ॥ अशुद्ध नाणंच अणंवा नाधो यथा वाट वधू विलासन् + उपाथक घातक अनाभी तथा साहोत्मिका धावनरे पनव पानादिक हास्प जन किंवा प्रमार्थ जुक्ता अत तनया शुद्ध. नाणंच होई अप वा नांधा यथा वार वधू विलासान् विसयासत्तो उप घातक अनाभोगतया साहात्मिका धावनडे पनाव णादिक हास्यजन कंवा प्रमार्ज युक्ता अयतनतया असंख्यात गुणा - विशेषाधिका धिका " Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ पंक्ति अशुद्ध. : "" "" १७८ १७९ "" "" 39 33 39 १ १२ १८० ॥ शुद्धिपत्र ॥ ८-६ शुद्ध. असंख्याता वधाता विशेषाधिका संख्याता अधिका कपोत वसाई ४ ३ ६ नपुंसय कापोता वयाई नपुंसेय दुथेय मुढेय आणिते दुट्ठेय मूढेय प्रणते जुगएईय श्रविबंध जुंगिएईय वुबद्ध एयभिण्य से होनी फेडीयाइयंसी ॥४॥ एय भय ए सेह निप्फेडीये १३ गुणे १४ रुषाण "" (१५) १५ वे पूई 9 इय गुब्विणी बाल वच्छाय पव्वावे उन कप्पई ॥ ४ ॥ मुणे रुक्खाण बेई हुनत कोह निहुरासन्नो तह कोहे नह नह Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६) ॥शुद्धिपत्र ॥ पृष्ठ. पंक्ति अशुद्ध... शुद्ध. १८. २ मांणे रू इरोवंति मांणेरूदेवइरोछाय वंति छायइ ३ पलाइ. फलाइ. - मूलेहाणु मूलेणि हाणुं १८. ४ चरि वरि. , ५ हेवई. हवई. रुक्खे १८.१ ७ वथं वत्थं ,.. ८ तत्कालंQथ । तकालं कुंथु १८२ ७ भाष्या भाषा परयाप्ती पर्याप्ती १८३ ७ दोषंच असमथो असमत्थो मोनिंदतो मोओ निदंतो ९ अविलिय अबालय ११ गिणतो ... गिणतो Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ झाष्ट्र ॥ शुद्धिपत्र । (1) पृष्ठ. पंक्ति. अशुद्ध. शुद्ध... १८३१५ दर्शनं चात् दर्शनं १६ तेति नेति-छा१८४ तिष्ठति ति तिष्ठतीति १.८७ - १६ . भंचवा र मंच १८८१-३ उजीयागदयो उजोयगियदच्छो ". ३-४ कच्छय जीवों वलि कच्छय जीवो . ओ कच्छाय कमाइ बलिओ कत्थाय 2 हुंति वलियाइंजीव कंमारं हुंति : समय कमस्ससप- बलियाई जीव व्वनिवेधाइ॥ ३ ॥ स्सय कमरसय पुन्वनिबंधो अ :- गाइय॥३॥ ५ पुछकयं ४ पुरस्स- पुलकयं ४ पुर..... कारणं ॥ ५॥ स्सकारणं पंच५ * एगतिमिथितं ते चेव एगंते मिच्छतं सोसमासओ हुंति- समावाए हुति ___ Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६) ॥ शुद्धिपत्र ॥ पृष्ठ. .पंक्ति. अशुद्ध. शुद्ध. र मत्तं समत्तं १८८७-८ नवहिं जीवः बहण नव विहि जीव करणं करावण अणु वह करणं करामोइय जोमै हि । वणे अणुमईय कालति संमत्त एही जोगे हिं।कालगुणिए पाणी बह त्ति एण गुणिए दुस्सयतेयालो५॥ पाणीबह दुस्सय की ते याला॥५॥ १८९३ चधाया, पूर... च छाया १९४-: -६ , थाई .. थापी ......... राज्यात्मक राज्यात्मक प्रमाणे एइ पमाणे पद . संख्या पईत्तं संखा पडतं - "अंसापई 'असम. अंसा,पईश्र,सम १५ पईये, पईएस पईप, पएसं ६ कमाण वगाणा- क्रम्माण वग्गणाक रणंच या णंच - . : .- . ..- . . ... Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ॥ शुद्धिपत्रः ॥ (१९) पृष्ठ. पंक्ति. अशुद्ध.. शुद्ध... १९९८ : निकल्यी निकली २०. .१.५ निमोदसउसो निगोद स्सउ अतन्त भागोये अनन्त भागोय २०१३. मप्सायो र मब्भाओ ... ६ . अवसंगत, श्रावसगंतु... २०५ १२ तव संयमेण मुखो तवसंयमेणमुक्खो ... १३. दाणण हुंतिउत्तमा दांणेणहुंति उत्तम १४ भोगा। देव बणण भोगा|देवच्चरऐण १५ राअनसनमरणेण रजं अनसन मर. इंदत्तं चकितीपंचोत गेण देवत्तं इंदत्तं गिविमाग वासितं च ॥१॥पंचाणत्तर लोगेता देवदत्तं । विमाण वासित्तं अभव जीवादि न लोगंतिय देवत्तं । पावंती ॥२॥ .. अभव्य जीवा न २०६१ तुच्छाय निंदाय तुच्छा निंदायत्तु. , तुच्छमारंभो ।” च्छमारंभोक - पावती ॥२॥ Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ॥ शुद्धिपत्र॥ पृष्ठ. पंक्ति. अशुद्ध., शुद्धः च्छमारंभो ? २०६ र दर्शनात्म शून्य दर्शनानाम मून्य २०४६ प्रति ९ प्रति २०९ ६.७ पलेचदर्श गद्याणे पलेच दश गद्या र स्तेषां सई सतमैणी णै स्तेषां साई ideasts मणी दसमिरेकाच शतं मणी मणी घटिका कथिते बुधः दशभि रेकाच का कथ्यते घा .. . ". DAA LA फिल्म के फूफिता ३१.१२ ग्रन्थ ग्रन्थी ४ चतुपदं, कुप्पं चतुष्पदं, . संगास्य, ३५, भेदो, दंडसी लखा, न गजं मिथि र संगास्यूत भेदः लरका गजं ममि २.१.१ * Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ. पंक्ति अशुद्ध २११ शुद्ध मध्ये दाया संबभे वाया तेउनरि वसतिरिय तेजनवरिमतिरिय 39 २१२ सूरि, मास से मथा सुरगंभे, मृच्छा विश्रभावे नजलंथी विश्रभावेजलं न D २१६ ● ६ "" " १७० 2 २१६ ९-१० "" ॥ शुद्धिपत्र ॥ - प्रभाग भोगे मरण १२ विहास १४ गृधीय भत्त परिणाम 190 १५ श्रंभासल लक्ष्मण वत् 15000रुवी मिश्रमंते मिश्र (२१) च्छी भांगे अंतोसल्ल लक्ष्मण वत् साध 22 मरण नियमी नियमित मिश्रमरणते मिश्र मरण विहायस मृर्द्ध मत परिणा मरण 50 ܘܐܬ " T Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२) पृष्ठ. २१७५१ G २२० २२२ 99 "" 99 पंक्ति: श्रशुद्ध. पाउब अंघ कह्यांछे. '' S ॥ शुद्धिपत्र ॥ श ५ पन्नवरणाना पहिला आतड पदमांहि OR TALEN २२३०१३ २९... १४ एवं ५ १५ मिलियं १.६ तथा २२४१ धमंथ केवल परमथं "१२ दिन्न न्यदिन्न दिन्न न्यदिन्न ५ तथा संभकप्पा शुद्ध. पाउबग निर्पराधेनिरापराधें अध: कह्याहै. पन्नत्र णानां पहिला पदमांहिपण छे. तसा. संकप्पा ५ एवं मलियं तहा धम्मच्छं केवल - N परमत्थं. दिन्नमदिन्नं, Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ. पंक्ति. पंक्ति २२५ उनी अष्टमेशेवर .२३० " "" 19 30 33 " 29 २३२ राम ॥ शुद्धिपत्र ॥ अशुद्ध..? शुद्ध: पडरिs इत्थीओ पारेs इत्थी वेश्या परइथिओ वेसा विहवा रूव कुमारी परइत्थी सहूवा कुमारी जोगरसुइणेस नियमोय. स पह संसार विसार, नाम संसारे र्बेसार, नाम एबे सम्यग 25 1 सम्यग् ५ चत्वारिय ३ १. समव ११ सुकुमोय १३ विद्या योगे दुन्नियराओ के उषसु उव समीयर उखूउव समीयं २ वेयगमुबिसामी वेयग मुविसामी संमत्त รร दस " ,, १३-१५ पर्याप्त (२३) चुत्तारिय दुन्निवाराओ सुहुमोय खिजा योग देस पर्याप्ति Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२४) शुद्धिपत्रः॥ पृष्ठ. पंक्ति. अशुद्ध.. २३.३० ला मन्धिः, ऊदारिशा मधि, उदारिसा तिर्यक तिरिक y १० द्दिधा सव द्विधा भव १३ विमेहि विसिद्ध १४ अहारिद्यई भरणियं अहरिद्यई सरीर महारंग भरणियं शुभ्र देशै महि १५ शुभ ४ प्रदेश मंह Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आत्मधारा । -DSAS RIRE [ १ यह ग्रन्थ आत्मिक गुरंग सत्ता बताने में बहुत उत्तम है. बहिरात्मा, अन्तरात्मा, परमात्मा का स्वरूप, समकित के पांच भूषणादि व दस रूची, बंधन करण, संक्रमण करण, उदय वर्त्तना करण, अप व्रतना करण इत्यादि आाठ करणों की व्याख्यादि उत्तमोत्तम विषयों से यह ग्रन्थ परिपूर्ण है. इसी ग्रन्थ में बनारसीदासजी कृत ज्ञानपच्चीसी, अध्यात्मबत्तीसी, आगमअध्यात्म स्वरूप, निमित्त उपादान कारण भेद निर्णय, ध्यान बत्तीसी इत्यादिक ७ पुस्तक साथ ही छपे हैं. ऐसे उपयोगी ग्रन्थ का मूल्य केवल । - ) मात्र, डाकव्यय, पुर पुस्तक मिलने का ठिकाना:बाबू चांदमल बालचंद चोमुखी पुल रतलाम (मालवा) Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंडित श्रीदेवचंद्र गणि विरचिता श्री अध्यात्मगीता. पंडित श्री श्रमीकुंवरजी! कृत बालाबोधः सहिता. sty 17 समस्त जैन भाइयों को विदित हो कि ऊपर लिखे नामवाला ग्रन्थ अध्यात्म विषय में अत्यन्त उत्तम हैं. इस में कर्तृत्वता, ग्राहकता, व्यापकता, दान लाभादि, आत्मा के अनादि काल से परानुयाई प्रणमी रहे हैं तिन्हें स्वरूपानुयाई प्रणमात्रवा तथा उन के विषै निश्चय व्यवहारादि नय निक्षेप प्रमाण, अपवाद, उत्सर्गादि, नित्य अनित्यादि, कर्त्ता कारण कार्यादि, ऐसें अनेक विषयों का वर्णन स्याद्वाद अनुसार बहुत उत्तमता के साथ किया है, और बालाबोध नाम की अलभ्य टीका से इस का गहन अर्थ बहुत ही सरलता के साथ समझ में आ सक्ता है. अर्थ की स्पष्टता और सुगमता का अनुभव पुस्तक देखनेही से होगा. इस ग्रन्थ की हस्तलिखित प्रति हम को मिली तब बहुत CLM Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्साह हुवा, तथा इस को पढ़ने से सब को आत्मस्वरूप का लाभ होने का उपकार समझके तथा यहां के सहधर्मी भाइयों का आग्रह देखकर यह ग्रन्थ मुद्रित कराया है. इस लिये आत्मार्थी पुरुषों को यह ग्रन्थ लेने की सूचना करने में आती है. इस के साथही औरभी पुस्तक छापे गये हैं जैसे-आत्मधारा, साधु वन्दना तथा बनारसीदासजी कृत ज्ञानपच्चीसी,अध्यात्म बत्तीसी, ध्यानबत्तीसी, आगम अध्यात्म स्वरूप निमित्त उपादान चौभंगी इत्यादि इन सब पुस्तकों की एक जिल्द का मूल्य ॥) है डाक महसूल इस से अलग. पता: .... बाबू चांदमल बालचंद ___चोमुखी पुल रतलाम (मालवा) Page #332 -------------------------------------------------------------------------- _