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॥ रत्मसार ॥
क्षयोपशम क्षायक थी होइ. तथा पुण्य पाप ना फल भोगवावै ते वेदनी कर्म. तेहनें उदये वेदावै–फल देखाडै तथा पुण्य पाप नो बंध पडै ते मोहनी कर्म नी मुझताइ. पुण्य पाप प्रणमै ते अंतराय ने क्षयोपशमै, इत्यादि विस्तार स्वबुद्धि करि जाणवा. इति भावए
तथा राजा ते न्यायी ने सोम दृष्टि, अने आचार्य ते निस्पृही होइ तिहां जैन धर्म प्रवत्ते.
४ देशना नु चोथो प्रश्न-देशना ते कहिये जिहां मिथ्यात्व नी पुष्टी न थाय अने मार्ग विरुद्ध न प्रकाशैः आत्म स्वरूप उपादेय रूपे, तथा शुभ क्रिया नो अत्यादर पण प्ररूपै. अने शुभ क्रिया ना फल नी वांछा न करावै, तिरस्कारै राखै. पाप की आसेवना कालै तिरस्कार राखै. इत्यादि आगमोक्त रीते प्ररूपे ते देसना कहिय. तथा पाप की आसेवना कालैज माठी जाणवी. जेहनो फल दुर्गति ने मेलवै. धर्म पामवो वेगलो करै ते मांहे तिरस्कारै राखवी.