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________________ (११६) ॥ रत्नसार ॥ मध्ये की टीकावधी अथवा नरा वहवा. तत्रोत्तरं. तद समूर्छछिमप्राण विरह तदा काटिका स्तोका नरा बहवो. अथ श्रुत-सामायक नो लाभ थाइ तिवारे दीपक समकित होइ १. तत्र बीजो समकित सामायिक नो लाभ २. श्रीजो देसविरत सामायिक नो लाभ ३. चौथो सर्व विरति सामायिक नो लाभ ४: छठा गुण स्थान थी साधु त्रिण चोकड़ी नो क्षयोपशमथी ४ एवं अभिप्राय यावत् यस्य पुरुषस्य अहारस्य द्वात्रिंशत्तमो भाग ते पुरुषापेक्षया केवल मानं आश्रित्य (कुत्सिय हृडीय कूठी शरीरना उ अडंग मुहतीय जावई देहस्स ज ओ पुव्व रयणं तवोससं) कुसिता कुटीर कुकुटी शरीरमित्यर्थः तस्याः शरीर कुपाया कुकुटाद्या अंगक मिवाड़ कंमखमुच्यते ॥ गर्भ प्रथमं मुष स्योत्पादात्मुख मध्ये आयाति तावत्कुवलय मूढ त्रयमदा चाष्टो तथाऽयतनानि षट्. अष्टो शंकादयश्चेति दृग् दोषा पंचविंशति १. - पांच षटीक शालानां नाम घरटी नी खटकशाला.
SR No.022052
Book TitleRatnasar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTarachand Nihalchand Shravak
PublisherTarachand Nihalchand Shravak
Publication Year1899
Total Pages332
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Gujarati & Book_Devnagari
File Size14 MB
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