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________________ ॥ रत्नसार ॥ (१५७) वृत्तौ श्राद्ध विधि प्रमुखे प्रथम सामायकं पश्चात् इर्यापथीकी श्रावक ने दिग्वृत्त होय पण साधु नें नहीं, मेरु रुचिक जावा माटें. इत्यर्थ. २१५. तथा उद्वेगता १, अथिरता २, असाता ३, श्राकुलता ४, च्यार प्रकारना दुःख किहां कर्म थी उपजै इति प्रश्नः - उध्वेगता ते अज्ञान मिथ्यात्वी ना घर थी उपजै १. असाता ते वेदनी कर्म ना उदय थी निपजै २, अवरति ना घर नी घणी आकुलता चारित्र मोहनी कर्म ना उदैथी उपजै ३. अथिरता ते वीर्येतराय ना घर थी उपजै ४. इति. २१६. तथा दातार दान आपै तेहना : प्यार भेद छै. अपात्र १ पात्र२ कुपात्र ३ सुपात्र ४. ते मध्ये पात्र स्वानादि पशु में आपै तथा बंदीवान ने आपको ते अपात्रदान, तेहना फल इह लोक यश प्रतिष्ठारूप लवलेश फल १. तथा वैरागी कापडी इत्यादि अन्य दर्शनी भिक्षुक ने आपै ते कुपात्र दान, कुत्सित पात्र
SR No.022052
Book TitleRatnasar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTarachand Nihalchand Shravak
PublisherTarachand Nihalchand Shravak
Publication Year1899
Total Pages332
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Gujarati & Book_Devnagari
File Size14 MB
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