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(११८) ॥ रत्नसार ॥ वेत्ता, स्वक्षेत्रावगाही, पर क्षेत्र पणै अनवगाही, लोकप्रमाण अवगाहनवंत, धर्मास्तिकाय थी भिन्न, अधर्मास्तिकाय थी भिन्न, अकाशस्तिथि भिन्न, पुद्गल थी भिन्न, पर काल थी भिन्न, स्व द्रव्यवंत, स्व क्षेत्रवंत, स्वकालवंत, स्वभाववंत, अवस्थान पणै स्व गुण थी अभिन्न, कार्य भेदै भिन्न, स्वरूप सत्तावंत, अवस्थित सत्तावंत, परणमन सत्तावंत, द्रव्यास्तिक पणे नित्य, पर्यायास्थिक पणे नित्यानित्य, द्रव्यपणे एक, गुण पर्यायपणे अनेक, अनंता द्रव्यास्ति धर्म, अनंता पर्यायास्ति धर्म, एहवी स्वसंपदामयी चेतन लक्षणै लक्षित, स्वसंपदाए पूर्ण छै. पर संगै प्रणम्यो संसार कस्यो. स्व ज्ञान दर्शन चारित्रै प्रणम्यो सिद्धत्ता करै. एहवा आत्म द्रव्य नी ओलखाण अनंत नमैं अनंता निपै थाइ. ए रीते जे आत्मा नी परतीत करे, एहवा परतीतवंत ने जैनमार्गी मार्ग मां गणै छै. एहवो आत्मा जैनमार्गे अनेकांतमयी कह्यो छै. ए रीते परतीत ते सम्यक् दर्शन, ए रीते ज्ञान ते ज्ञान, ए