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॥ रत्नसार ॥ (१७३) वत्तं पलियतिहां समय वाससय ममए केसवहारोदी वो दही आउत साय परिमाणं ८५॥) पांचमें कर्म ग्रन्थे उक्त.
२२६. तथाआत्म सम वस्तान उपयोग रूप ध्यान कहिये ते एणी परम्पराइ होई. मोहनी कर्म ने पर वसै जीव पर द्रव्य प्रवृति करै छै सुख तृष्णाई भूलो, जिवारे मोहनी कर्म नी थिति घटै तेहने पर द्रव्य नी प्रवृत्ति मिटैः अने पर द्रव्य नी प्रवृत्ति टलै तिवारै विषय वैराग्य होई. तिवार पछी मनोरोध थाई. जे माटे ठाम विना मन किहां जाइ ? जिम “ अतृणे पतितो वह्नि स्वयमेवपशाम्यति" (तृणवीना नि अग्नि स्व भावेई उपशमे) तिम विषय विना मन आपणी मेले रुंधाय. मनोरोध थी मन नी चंचलता मिटै. तिवारे मन एकाग्र थईने आत्मा ने विषै प्रवत्तै. आत्मा नो स्वभाव तै कञ्जु छै. यत-(जोवषई मोह खलुसो विषय विरतो मणोणिरुंभित्ता संमठी दोस भावे सो अप्पाणं हवे ईझया ॥ १॥) इति उक्तं प्रवचन सारोद्धारे..