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॥ रत्नसार ॥ (४३) यथार्थ देखै छै तेहनी शुचि प्रतीत नी श्रद्धा छै. इम यथार्थ जाणे ते सम्यक् ज्ञान. तथा जेहवो दीठो निज स्वरूप एकांते, जेहवो वस्तु रूपै जीव द्रव्य निकलंक जाण्यो तेहवो राग द्वेष विकल्प रहित प्रणमै ते स्वरूपाचरण चारित्र. तथा गाथा-(पुइयाइ सुवसहियं पुनं जिणेन दीठं । मोह कोहा विहिणो परिणामो अपप्णो धम्मो ॥ १॥) ए स्वरूप चौथै गुण स्थानै होई जेहनें
आत्म बोध थाशे. तथा प्रभु मार्ग ना त्रपहसा ते मानसे एहवो हमें धारयो छै तेहवु शास्त्र प्रमाणै लिख्यूं छै. ए मांहि ए कांई जिन वचन थी विरूद्ध होइ ते श्रीसंघ साथे मिच्छामि दुक्कडं.
६७. हिवै निर्जरा नं स्वरूप किंचित् लिख्यते. ते सणठमो प्रश्नः ते निर्जरा कर्म नो साटन करै ते मध्ये मिथ्यात्वी ने आश्रव बन्ध पूर्वक निर्जरा होई, सम्यक् दृष्टी ने संवर पूर्वक द्रव्य भाव निर्जरा होई. ज्ञान शक्ति वैराग्य बलै करी ने. तिहां ज्ञान शक्ति तें शुद्ध स्वरूप नो अनुभव अने वैराग्य बलै करी ने