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॥ रत्नसार ॥
देवता भरत क्षेत्रना मनुष्य ने तेड़ी आवे ४ वाण व्यंतर देवता ते मनुष्य ने पाछा मुकी श्रावै ५. ज्योति की देवता विद्याधर ने दान लेवा भणी जाण दीयें. एवं ते प्रस्थावै तीर्थकर नो पिता त्रण मोटी साला करावे. एक सालाई भरत क्षेत्र ना मनुष्य ने अन्न पानादिक आपै. बीजी सालाइ वस्त्र आपै त्रीजी सालायै आभरण पै. छः घड़ी पछी दान देवा मांडै तिवारै पौणा दो पहर तांइ दीये. इति दानाधिकार.
१६३. साधु सिकाय करै छै शुभ योग व्रतादिक नी शुभ क्रिया करै छै, तथा शुद्धोपयोगे शुद्ध स्वभावै (पाणं भावैमाणे विहरई ) इम श्रात्म ध्यान करै छै. ते सर्व कर्म खपावाने अर्थ. ते किहा कर्म खपावे ? खपाववाना तो त्रण्य कर्म है. उदे कर्म, श्रने बन्ध कर्म, उदीरणा कर्म तो उदय ना पेटा मध्ये गवेखिये. तथा कर्म ते मध्ये उदय कर्म शेणे खपावै है ? तथा सत्ता कर्म शेणै सोधे छै इति. बन्ध कर्म किम मिटै ? शुभ योगे पंच महाव्रत संवर रूप क्रियाइ नवा बन्ध पामै